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प्रथम कर्मप्रन्य
बहु आदि बारह के साथ गुणा करने से २८८ भेद हुए तथा व्यंजनावग्रह चक्षुरिन्द्रिय और मन इन दोनों के सिवाय शेष स्पर्शनेन्द्रिय आदि चार इन्द्रियों से होने और इन चार प्रकार के व्यंजनावग्रह का बहु आदि बारह के साथ गुणा करने से ४८ भद हुए। इस प्रकार अर्थावग्रह आदि के २EE और गंगानगड ले ४: भेदों को मिलाने से कुल ३३६ भेद मतिज्ञान के हो जाते हैं।
व्यंजनावग्रह के अड़तालीस भेद होने का कारण यह है
व्यंजनावग्रह चक्षुरिन्द्रिय और मन के सिवाय शेष चार इन्द्रियोंस्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र से होता है तथा ईहा, अवाय एवं धारणारूप क्रमवर्ती ज्ञान नहीं होते हैं। इसलिए स्पर्शनादि चार इन्द्रियों से जन्य व्यंजनावग्रहों का बहु आदि बारह के साथ गुणा करने पर सिर्फ अड़तालीस भेद होते हैं। ____ मतिज्ञान के पूर्वोक्त ३३६ भेद श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के हैं, इनमें अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के-(१) औत्पातिकी बुद्धि, (२) वैनयिकी बुद्धि, (३) कर्मजा बुद्धि और (४) पारिणामिकी बुद्धि-इन चार भेदों को मिलाने मे मतिज्ञान के कुल ३४० भेद हो जाते हैं।
उक्त चार बुद्धियों का स्वरूप निम्न प्रकार से समझना चाहिए
१. (क) असूयनिस्प्तियं उनिह पण्णत्तं तं जहा
उत्पत्तिया वेण अः कम्मिया परिणामिया । बुद्धी घडब्दिहा बुत्ता पंचमा नोक्लभाई ।।
-नन्दोसत्र २६ (ख) बउम्विहा बुद्धी पण्णता, तं जहा-प्पत्तिया, वेणइया, कम्मिया, परिणामिया ।
- स्थानांग ४।४।३६४