Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
कर्मविपाक
(१) प्रकृति-बन्ध - जोन के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गलों में भिन्न-भिन्न शक्तियों स्वभावों का पैदा होना प्रकृति-बन्ध कहलाता है ।
१.
(२) स्थितिबन्ध जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-पुद्गलों में अमुक समय तक अपने-अपने स्वभाव का त्याग न कर जीव के साथ रहने की कालमर्यादा का होना स्थिति बन्ध है ।
-
(३) रस-बन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मपुद्गलों में फल देने के तरतमभाव का होना रस-बन्ध कहलाता है ।
रस-बन्ध को अनुभागबन्ध अथवा अनुभावबन्ध भी कहते हैं । (४) प्रदेश बन्ध - जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्मस्कन्धों का सम्बन्ध होना प्रदेश- -बन्ध कहलाता है ।"
अब प्रकृतिवन्ध आदि के स्वरूप को गाथा में दिये हुए लड्डुओं के दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं ।
जैसे वातनाशक पदार्थों से बने हुए लड्डुओं का स्वभाव वायु को नाश करने का, पित्तनाशक पदार्थों से बने हुए लड्डुओं का स्वभाव पित्त को शांत करने का और कफनाशक पदार्थों से बने हुए लड्डुओं का स्वभाव कफ नष्ट करने का होता है, वैसे ही आत्मा के द्वारा गृहीत कर्मपुद्गलों में से कुछ में आत्मा के ज्ञानगुण को घात करने की, कुछ में आत्मा के दर्शनगुण को ढकने की, कुछ में आत्मा के अनन्त सामर्थ्य को दबा देने आदि की शक्तियाँ पैदा होती हैं। इस प्रकार
१. स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्तः, स्थितिः कालावधारणम् ।
अनुभागो रसो शेयः प्रदेशी दलसञ्चयः ॥
- अर्थात् स्वभाव को प्रकृति कहते हैं, काम की मर्यादा को स्थिति, अनुभाग को रस और दलों की संख्या को प्रदेश कहते हैं ।