Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
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का, इस प्रकार का संशय उत्पन्न होने पर दोनों के गुण-धर्मो के सम्बन्ध में विचारणा होती है कि यह रस्सी का स्पर्श होना चाहिये । क्योंकि यदि यह सर्प होता तो आघात होने पर फुफकार किये बिना न रहता इत्यादि संभावना, विचारणा ईहा कहलाती है। ईहा का काल अन्तर्मुहूर्त है ।
अवाय - ईहा के द्वारा किये गये पार्थ के लिए में कुछ अधिक जो निश्चयात्मक ज्ञान होता है, उसे अत्राय कहते हैं, जैसेपहले जो स्पर्श हुआ था, वह रस्सी का ही स्पर्श था, सर्प का नहीं । इस प्रकार जो निश्चय होता है, वह अवाय है । अवाय का समय अन्तर्मुहूर्त है ।
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धारणा - अवाय के द्वारा जाने हुए पदार्थ का कालान्तर में विस्मरण न हो, ऐसा जो दृढ़ ज्ञान होता है, उसे धारणा कहते हैं, अर्थात् अवाय द्वारा जाने गये पदार्थ का कालान्तर में भी स्मरण हो, इस प्रकार के संस्कार वाले ज्ञान को धारणा कहा जाता है ।
अवायरूप निश्चय कुछ काल तक विद्यमान रहता है, फिर विषयान्तर में मन के चले जाने से वह निश्चय लुप्त तो हो जाता है, किन्तु ऐसा संस्कार डाल जाता है कि आगे कभी कोई योग्य निमित्त मिलने पर उस निश्चित विषय का स्मरण हो जाता है । यह निश्चय की सतत धारा, तज्जन्य संस्कार और संस्कारजन्य स्मरण, यह सब मति व्यापार धारणा है। धारणा का काल संख्यात तथा असंख्यात वर्षों का है।
मतिज्ञान के रूप होने से अर्थावग्रह आदि चारों ज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा पदार्थ का ज्ञान करते हैं । इसलिए उनका पाँच
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१. उम्महे इक्कसमइए, अन्तोमुहुत्तिया ईहा अम्तोमुहुत्तिए अवाए, धारणा संखेज्जं वा कालं असंखेज्जं वा कालं ।
-नवीसूत्र ३४