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प्रथम कर्मग्रन्थ
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जबकि स्पर्शनादि चार इन्द्रियाँ पदार्थ से सम्बन्ध करके ज्ञान कराने वाली होने से प्राप्यकारी कही जाती हैं ।
अप्राप्यकारी का अर्थ है कि पदार्थों के साथ बिना संयोग किये ही पदार्थों का ज्ञान करना और प्राप्यकारी अर्थात् पदार्थ के साथ सम्बन्ध, संयोग और स्पर्श होने पर ज्ञान होना । तात्पर्य यह है कि जो इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं, उन्हीं से व्यंजनावग्रह होता है और अप्राप्यकारी इन्द्रियों से नहीं होता है। जैसे आंख में डाला हुआ अंजन स्वयं आँख से नहीं दिखता और मन शरीर के अन्दर रहकर ही बाह्य पदार्थों को ग्रहण करता है । इसीलिए मन और चक्षुरिन्द्रिय- ये दोनों प्राप्यकारी नहीं हैं ।
इसी कारण व्यंजनावग्रह के ( १ ) स्पर्शनेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, (२) रसनेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, (३) घ्राणेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह और (४) श्रोत्रेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह - ये चार भेद होते हैं ।"
स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा जो अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान होता है, उसे स्पर्शतेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह कहते हैं। इसी प्रकार रसना, घ्राण और श्रोत्र - इन इन्द्रियों से होने वाले व्यंजनावग्रहों को भी समझ लेना चाहिए।
व्यंजनावग्रह का जघन्य काल आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है और उत्कृष्ट श्वासोच्छ्वास - पृथक्त्व अर्थात् दो श्वासोच्छ्वास से लेकर नौ श्वासोच्छ्वास जितना है । *
१. जणुम्हे बड़े पण्णत्तं तं जहा- सोइन्दियजणुग्महे, घाणिदियबंजणुग्गहे, जिब्भिदियवंजणुमाहे, फासि दियवंजणुग्रहे से तं जणु
। -- नन्वीसूत्र २८
-- नन्वीसूत्र टोका
२. वंजणोदम्म कालो आलियासंखभाग तुल्लो उ । पोवा उक्कोसा पुणे आणपाणू पुहुति 11