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कर्मविपाक
(१) व्यंजनावग्रह और (२) अर्थावग्रह ।' ।
व्यंजनावग्रह-नाम, जाति आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र का ज्ञान अवगह है और विषय तथा इन्द्रियों का संयोग पुष्ट हो जाने पर 'यह कुछ है' ऐसा जी विषय का सामान्य बोध होता है, वह अर्थावग्रह कहलाता है, किन्तु वह ज्ञान भी अव्यक्त रूप ही होता है और इस अव्यक्त ज्ञानरूप अर्थावग्रह से पहले होने वाले अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान को व्यंजनावग्रह कहते हैं। ____तात्पर्य यह है कि जब इन्द्रियों का पदार्थ के साथ सम्बन्ध होता है, तब 'यह कुछ है' ऐसा अस्पष्ट ज्ञान होता है, उसे अर्थावग्रह कहते है और उससे भी पहले होने वाला अत्यन्त अस्पष्ट ज्ञान व्यंजनावग्रह कहलाता है। व्यंजनावग्रह पदार्थ की सत्ता को ग्रहण करने पर होता है, अर्थात् पहले सत्ता की प्रतीति होती है और उसके बाद व्यं जनावग्रह होता है।
यह व्यंजनावग्रह मन और चक्षगिन्द्रिय के सिवाय शेष स्पर्श नेन्द्रिय आदि चार इन्द्रियों से होता है। क्योंकि व्यंजनावग्रह में इन्द्रियों का पदार्थ के साथ संयोग-सम्बन्ध होना जरूरी है, लेकिन मन और चक्षुरिन्द्रिय ये दोनों पदार्थों से अलग-दूर रहकर ही उनको ग्रहण करते हैं। इसलिए मन और चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी कहलाते हैं ।
१. (क) उग्महे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अस्थुरगहे प बंजणुम्गहे य ।
-नन्दोसूत्र २७ (ख) सुनिस्सिए दुषि पण्णते, तं जहा- अस्योगहे व वंजणोग्गहे चेव ।
-स्थानांग, स्थान २, उ० १, सू० ७१ २. न चक्षुरनिन्दियाभ्याम् ।
-तत्वार्थसूत्र अ० १, पू० १६