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कर्म विपाक
सहायता के बिना सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को विषय करता है, यानी इसके लिए मन और इन्द्रिय तथा देह एवं वैज्ञानिक यंत्रों की आवश्यकता नहीं रहती । वह बिना किसी की सहायता के रूपी अरूपी मूर्त-अमूर्त सभी ज्ञेयों को हस्तामलक की तरह प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखता है । अतः उसे केवलज्ञान कहते हैं ।
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आत्मा की शक्ति के द्वारा
ये मतिज्ञान आदि पाँचों ज्ञान प्रमाण हैं । इनमें से आदि के दो ज्ञान- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान - परोक्षप्रमाण कहलाते हैं। क्योंकि इन दोनों ज्ञानों के होने के सहयोग की अपेक्षा होती है और अवधिज्ञान, पनः पर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान- ये तीनों ज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण हैं । ये तीनों ज्ञान मन और इन्द्रियों की सहायता बिना ही सिर्फ आत्मा की योग्यता के बल से उत्पन्न होते हैं ।" यद्यपि अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान मूर्त पदार्थों का ज्ञान करते हैं, किन्तु ये चेतना शक्ति के अपूर्ण विकास के कारण उनकी समग्र पर्यायों भावों को जानने में असमर्थ हैं । इसलिए इन दोनों ज्ञानों को विकल- प्रत्यक्ष कहते हैं, जबकि केवलज्ञान सम्पूर्ण पदार्थों को उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों सहित युगपत् जानता है । अतः केवलज्ञान को सकलप्रत्यक्ष कहते हैं । केवलज्ञान में अपूर्णताजन्य कोई भेद-प्रभेद नहीं होता है, क्योंकि कोई भी पदार्थ और तज्जन्य पर्याय ऐसी नहीं है जो केवलज्ञान के द्वारा न जानी जाय ।
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१. ( क ) दुविहे नाणे पण्णत्ते तं जहा - पच्चकखे चैव परोक्खे चैव । पचनाणे दुबिहे पत्ते तं जहा केबलनाणे णोकेदलणाणे चेव । णोकेवलणाणे दुबिहे पण्णत्ते तं जहा ओहिणाणे चेव मणपज्जवणा चैव । परोकखणाणे दृविहे पण्णत्ते तं जहा - आभिणिनोहिदणाणे व सुकाणे चेव 1 -- स्थानांगसूत्र, स्थान २ ० १ सू० ७१ (ख) आधे परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् - तत्त्वार्थसूत्र अ० १ सू० ११ १२
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