Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्य
यद्यपि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान निश्चयनय की अपेक्षा परोक्ष हैं, किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा प्रत्यक्षज्ञान भी कहे जाते हैं। इसलिए इन दोनों को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष और शेष रहे अवधिकान आदि तीन ज्ञानों को पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं। ___ मतिज्ञानादि पांच ज्ञानों में से आदि के चार ज्ञान-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्थयज्ञान अपने-अपने आवरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने के कारण क्षायोपमिक ज्ञान हैं और केवलज्ञान अपने आवरण कर्म का पूर्ण रूप से क्षय कर देने से क्षायिकज्ञान कहलाता है।
___मसिझान के भेद केवलज्ञान का अन्य कोई अवान्तर भेद नहीं होता है, किन्तु मतिज्ञानादि चारों ज्ञानों के क्षायोपमिक होने से अवान्तर भेद होते हैं। उनमें से यहाँ मतिज्ञान के अवान्तर भेदों की संख्या और नामों को बतलाते हैं।
संक्षेप में मतिज्ञान के चार भेद हैं और क्रमशः अट्ठाईस, तीनसौं छत्तीस अथवा तीनसौ चालीस भेद भी होते हैं।।
अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये मतिज्ञान के चार भेद हैं।' इनमें से ईहा, अवाय और धारणा के प्रभेद-और दूसरे भेद नहीं होते हैं, किन्तु अवग्रह के निम्नलिखित दो भेद हैं१. (क) से कि लं सुनिस्सिम ? चमिहं पणतं, सं जहा- जग्गह, ईहा, भवाओ, धारणा ।
-मन्वीसूत्र २६ (ख) अवमहापायघारणा ।
तत्त्वार्थसत्र, अ० १, सू० १५ (ग) चउविवहा मई पण्णता, तं जहा- उम्गहमई ईहामई भवायमई धारणामई।
-स्थानांग ४।४।३६४