Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मविपाक
१ क
विस्तृत वस्तु के स्वरूप को जानने की शक्ति रखता है अथवा अवधि शब्द का अर्थ मर्यादा भी होता है। अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखता है, अरूपी को नहीं । यही उसकी मर्यादा है । अथवा बाह्य अर्थ को साक्षात् करने का जो आत्मा का व्यापार होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं । '
मन:पर्ययज्ञान – इन्द्रियों और मन की अपेक्षा न रखते हुए मर्यादा लिए हुए संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानना मन:पर्ययज्ञान कहलाता है। संज्ञी जीव किसी भी वस्तु का चिन्तन-मनन मन मे ही करते हैं। मन के चिन्तनीय परिणामों को जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष किया जाता है, उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । जब मन किसी भी वस्तु का चिन्तन करता है; तब चिन्तनीय वस्तु के भेदानुसार चिन्तन कार्य में प्रवृत्त मन भी तरह-तरह की आकृतियाँ धारण करता है। वे ही आकृतियाँ मन की पर्याय हैं। उन्हें मनः पयज्ञान प्रत्यक्ष करने की भक्ति रखता है ।
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मन:पर्ययज्ञानी किसी बाह्य वस्तु को क्षेत्र को काल को तथा द्रव्यगत पर्यायों को नहीं जानता, किन्तु जब वे किसी के चिन्तन में आ जाते हैं, तब मनोगत भावों को जानता है । जैसे बन्द कमरे में बैठा हुआ व्यक्ति बाहर होने वाले विशेष समारोह तथा उसमें भाग लेने वाले मनुष्यों व वस्तुओं को टेलीविजन के द्वारा प्रत्यक्ष करता है, अन्यथा नहीं; वैसे ही मन:पर्ययज्ञानी चक्षु से परोक्ष जो भी जीव, अजीव हैं उनका
१. अब ब्त्रोऽधः शब्दार्थः अब
-अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीय परिच्छिद्यतेऽने नेत्यवधि, अथवा अवधि मर्यादा रूपीष्वेव द्वश्वेषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधि यहा अवधानम् आत्मनोज्यंसक्षात्करणव्यापारोऽवधि:, अवधिश्वासी ज्ञानं चात्रधिज्ञानम् ।
नदीसूत्र टोका
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