Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम फर्मग्रन्य रंग-रूप आदि तत्सम्बन्धी भिन्न-भिन्न विषयों का विचार श्रुतज्ञान द्वारा किया जाता है । शास्त्रों के पढ़ने तथा सुनने मे जो अर्थ का ज्ञान होता है, वह भी श्रुतज्ञान कहलाता है।
मतिज्ञान और शुतज्ञान में अन्तर यद्यपि मतिज्ञान की तरह श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में भी मन और इन्द्रियों की सहायता अपेक्षित है. फिर भी इन दोनों में इतना अन्तर है कि मविज्ञान विद्यमान वस्तु में प्रवृत्त होता है और श्रतज्ञान अतीत, वर्तमान और भावी इन त्रैकालिक विषयों में प्रवन होता है।
विषयकृत भेद के सिवाय दोनों में यह भी अन्तर है कि मतिज्ञान में शब्द-उल्लेख नहीं होता है और श्रुतज्ञान में होता है । इसका आशय यह है कि जो न दियजन्य - मोजन्म होने पर कोख से रहित है, वह मतिज़ान है। मतिज्ञाम की तरह श्रुतज्ञान भी इन्द्रिय और मन के निमित से उत्पन्न होता है, फिर भी श्रुवज्ञान में इन्द्रियों की अपेक्षा मन की मुख्यता है। इन्द्रियाँ तो मात्र मुर्त को हा ग्रहण करती हैं, किन्तु मन मूर्त और अमूर्त दोनों को ग्रहण करता है । वास्तव में देखा जाय तो मनन-चिन्तन मन ही करता है; यथाममनाग्मनः । इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये हुए विषय का मनन भी मन ही करता है और कभी वह स्वतन्त्र रूप में भी मनन करता है । कहा भी है—श्रुतमनिन्द्रियस्य (तत्त्वार्थसुत्र अ० २. सु०२०), अर्थात् धुतज्ञान मुख्यतया मन का विषय है।
अवधिज्ञान - मन और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखते हुए केवल आत्मा के द्वारा रूपी, अर्थान मूर्तद्रव्य का जो ज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
अथवा 'अव' शब्द अध: (नीचे) अर्थ का वाचक है। जो अधोधो