Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
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(८) जो कर्म आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्यरूप शक्तियों का घात करता है या दानादि में अन्तरायरूप हो, उसे मन्तरायकर्म कहते है ।
इन आठों कर्मों के भी घाति ओर अघाति रूप में दो भेद हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय - यह चार घातिकर्म हैं । 'घाति' यह सार्थक संज्ञा है । आत्मा के अनुजीवी गुणों का, आत्मा के वास्तविक स्वरूप का घात करने के कारण ही ये कर्म 'घाति' कहलाते हैं। शेष अर्थात् वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र – ये चार कर्म 'अघाति' कहलाते हैं । यद्यपि इनमें आत्मा के अनुजीवी गुणों वास्तविक आत्म-स्वरूप का बात करने की शक्ति नहीं है, तथापि इनमें ऐसी शक्ति पाई जाती है, जो आत्मा के प्रतिजीवी गुणों का जिससे आत्मा को शरीर की कैद में रहना पड़ता है ।
घात करती है,
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ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में में क्रमशः ज्ञानावरण के पाँच, दर्शनावरण के नौ वेदनीय के दो मोहनीय के अट्ठाईस आयु के चार, नाम के एकसौ तीन, गोत्र के दो और अन्तराय के पांच भेद होते हैं । ये अवान्तर भेद उन-उन कर्मों की उत्तर- प्रकृतियाँ कहलाते हैं । किन्हीं किन्हीं ग्रन्थों में उक्त कर्मों के कुल मिलाकर सत्तानवे या एक्सी अड़तालीस भेद भी बतलाये हैं । इस तरह की भिन्नता के कारणों को यथाप्रसंग बतलाया जाएगा। यहाँ तो जिज्ञासुजनों को सरलता से समझाने के लिए ही ज्ञानावरणादि कर्मों की उत्तरप्रकृतियों की संख्या एकसी अट्ठावन बताई गई है।
अत्र आगे की गाथा में ज्ञानावरणकर्म को उत्तरप्रकृतियों के नाम बतलाने के लिए पहले ज्ञान के पाँच भेदों का वर्णन करते हैं ।