Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मविपाक
मइ-सुय-ओही-मण फेवलाणि नाणाणि तत्थ मइनाणं ।
बंजणवगह चउहा मणनयणयिणिविय घउक्का ॥४॥ गापार्थ-मति, श्रत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच शान हैं। उनमें से मतिज्ञान का अवान्तरभेद व्यंजनावग्रह मन और चक्षुरिन्द्रिय के सिवाय शेष चार इन्द्रियों से होने के कारण चार प्रकार का है !
विशेषार्थ- पूर्वोक्त ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में पहला कर्म ज्ञानावरण है । उसकी उत्तर-प्रकृतियों के नाम समझाने के लिए पहले ज्ञान के भेद बतलाते हैं। क्योंकि ज्ञानों के नाम जान लेने से उनके आवरणों के नाम भी सरलता मे समझ में आ जायेंगे। ज्ञान के मुख्य पाँच भेद हैं-(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्ययज्ञान, (५) केवलज्ञान ।' ___मलिज्ञान-- मन और इन्द्रियों की सहायता द्वारा होने वाले पदार्थ के ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं । मतिज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान भी कहते हैं।
श्रु तज्ञान- शब्द को सुनकर जो अर्थ का ज्ञान होता है, उसे, श्रुतज्ञान कहते हैं। अथवा मतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिसमें हो, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं; जैसेघट शब्द को सुनने अथवा आँख से देखने पर उसके बनाने वाले,
१. (क) पंचविहे णाणे पण्ण', तं जहा-अभिणिबोहियणागे, सुयगाणे, ओहिणाणे, मणपनवणाणे, के बनणा ।
- स्थानांगसूत्र, स्थान ५. उ० ३, सू० ४६३ (ख) मतिश्रुतावधिमनःपर्ययके वलानि ज्ञानम् ।
-तस्वार्थसूत्र, अ० १, स०१