Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मविपाक
पर्यन्त चारों हेतु होंगे ही और अविरति के होने पर प्रमाद आदि तीनों होंगे। इसी प्रकार क्रमशः प्रमाद, वाय, योग के बारे में गाद लेना चाहिए । परन्तु जब आगे का बन्धहेतु होगा, तब पूर्व का बन्धहेतु हो भी और न भी हो, क्योंकि पहले गुणस्थान में अविरति के साथ मिथ्यात्व होता है, किन्तु दूसरे, तीसरे, चौथे गुणस्थान में अविरति के होने पर भी मिथ्यात्व नहीं रहता है। इसी प्रकार अन्य बन्धहेतुओं के लिए भी समझ लेना चाहिए। ___ कर्मबन्ध के उक्त हेतुओं की संख्या के बारे में तीन परम्पराएँ देखने को मिलती हैं:-(१) कषाय और योग. (२) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, (३) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । किन्तु इस प्रकार से संख्या और उसके नामों में भेद रहने पर भी तात्त्विक दृष्टि से इन परम्पराओं में कोई भेद नहीं है । प्रमाद एक प्रकार का असंयम ही है। अत: उसका समावेश अबिरति या कषाय में हो जाता है । इस दृष्टि से कर्म-प्रकृति आदि ग्नन्थों में सिर्फ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार बन्धहेतु कहे गये हैं। यदि इनके बारे में और भी सूक्ष्मता से विचार करें तो मिथ्यात्व और अविरतिये दोनों कषाय के स्वरूप से अलग नहीं पड़ते हैं, अत: कषाय और योग इन दोनों को मुख्य रूप से बन्ध का कारण माना जाता है। फिर भी जिज्ञासु जनों को विस्तार से समझाने के लिए मिथ्यात्वादि पांचों को बन्ध का कारण कहा है। जो साधारण विवेकवान हैं, वे चार कारणों अथवा पाँच कारणों द्वारा और जो विशेष मर्मज्ञ हैं, वे दो कारणों की परम्परा द्वारा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार कर्म और कर्मबन्ध के हेतुओं का कथन करके आगे की गाथा में कर्मधन्ध के प्रकार और कर्म के मूल एवं उत्तर भेदों की संख्या बतलाते हैं।