Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
पगठिइरसपएसा तं चउहा मोयगस्स दिळंता।
भूलपगइट्ठ उत्तरपगई अडवनसय मेयं ॥२॥ गाथार्थ-लड्डू के दृष्टान्त स वन कर्मबन्ध प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेशों की अपेक्षा से चार प्रकार का है। मूलप्रकृतियाँ आठ और उत्तर-प्रकृतियाँ एकसौ अट्ठावन हैं।
विशेषार्थ-पूर्व गाथा में क्रम का लक्षण और कर्मबन्ध के कारणों का कथन करने के अनन्तर इस गाथा में कर्मबन्ध के भेद और कर्म की मूल-प्रकृतियों तथा उनकी उत्तर-प्रकृतियों की संख्या गिनाते हैं।
जीव द्वारा कर्मपुद्गलों के ग्रहण किये जाने पर वे कर्मरूप को प्राप्त होते हैं, उस समय उनमें चार अंशों का निर्माण होता है। वे अंश बन्ध के प्रकार कहलाते हैं; उदाहरणार्थ-जैसे गाय-भैंस आदि द्वारा स्वाई हुई घास आदि दुध-रूप में परिणत होती है, तब उसमें मधुरता का स्वभाव निर्मित होता है । वह स्वभाव अमुक समय तक इसी रूप में बना रहे, ऐसी कालमर्यादा भी उसमें आती है। इस मधुरता में तीव्रता-मंदत्ता आदि विशेषताएँ भी होती हैं तथा उस दूध का कुछ परिमाण भी होता है । इसी प्रकार जीव द्वारा ग्रहण किये गये और आत्मप्रदेशों के साथ संस्लेष को प्राप्त हुए कर्म पुद्गलों में भी चार अंशों का निर्माण होता है, जिनको क्रमशः प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध और प्रदेशबन्ध कहते हैं । उनके लक्षण निम्न प्रकार समझना चाहिए
१. (क) चउचि हे बन्ध पण्णते, तं जहापगबन्चे, टिबन्ध, अणुभावबन्धे, पासबन्धे ।
-समवायांग, समवाय ४ (ख) प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः ।
-तत्त्वार्थमूत्र, अ०८, सूत्र :