Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
प्रकार जीव और कर्म का यह स्वभाव अनादिकाल से चला आ रहा है। अतएव जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादिकालीन समझना चाहिए।' यदि कर्म और जीव का सादि-सम्बन्ध माना जाए तो ऐसा मानने पर 'यह दोष आता है कि 'मुक जीवों को भी कर्मवन्ध होना चाहिए।' ___कम-संतति (प्रवाह) की अपेक्षा जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादिकालीन है। किन्तु अनादिकालीन होने पर सान्त (अन्तसहित) भी है और अनन्त (अन्तरहित) भी है। जो जीव मोक्ष पा चुके हैं या पायेंगे, उनका कर्म के साथ अनादि-सान्त सम्बन्ध है और जिनका कभी मोक्ष न होगा, उनका कर्म के साथ अनादि-अनन्त सम्बन्ध है। ___कर्मसम्बद्ध जीवों में से जिन जीवों में मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता है, उन्हें भव्य और जिनमें यह योग्यता नहीं है, उन्हें अभव्य कहते हैं ।
यद्यपि सामान्य की अपेक्षा कर्म का एक प्रकार है, किन्तु विशेष की अपेक्षा द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार हैं। उनमें से ज्ञानावरण आदि रूप पौद्गलिक परमाणओं के पिंड को दव्यकर्म और उनकी शक्ति से उत्पन्न हुए अज्ञानादि तथा रामादि भात्रों को भावकम कहते हैं ।
कषाय के सम्बन्ध से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, किन्तु इसको विशेष रूप से समझाने के लिए---(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कपाय और १५) योग, ये पांचों १. (क) द्वयोरम्यनादिसम्बन्धः कनकोपल-सग्निभः । (स्य) अस्यात्माऽनादितो बद्धाः कर्मभिः कामंणात्मकः ।
- लोकप्रकाश, ४२४ २. पोग्गल-पिडो दक्षं तस्सन्ति भावकम तु ।
- गोम्मटसार-कर्मकाण्ड