Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
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भगवान श्री वीर जिनेन्द्र देव उक्त सभी गुणों और विशेषणों से युक्त हैं । इसीलिए ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने उन्हें नमस्कार किया है । इस प्रकार मंगलाचरणात्मक पद के शब्दों का अर्थ - गाम्भीर्य प्रदशित करके अब ग्रन्थ के अभिधेय का संकेत करते हैं ।
कर्म की परिभाषा
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मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जीव द्वारा जो कुछ किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं, अर्थात् आत्मा की रागद्वेषात्मक क्रिया से आकाश-प्रदेशों में विद्यमान अनन्तानन्त कर्म के सूक्ष्म पुद्गल चुम्बक की तरह आकर्षित होकर आत्मप्रदेशों से संश्लिष्ट हो जाते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं । '
कर्म पौद्गलिक हैं। जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध, और वर्ण हों, उसे पुद्गल कहते हैं ।" पृथ्वी, पानी, हवा, आदि पुद्गल से बने हैं। जो पुद्गल कर्म बनते हैं, अर्थात् कर्म रूप में परिणत होते हैं, वे एक प्रकार की अत्यन्त सूक्ष्म रज, अर्थात् धूलि हैं, जिसको इन्द्रियाँ (यंत्र आदि की मदद से भी नहीं जान सकती हैं, किन्तु सर्वज्ञ केवलज्ञानी अथवा परमअवधिज्ञानी उसको अपने ज्ञान से जानते हैं। कर्म बनने योग्य पुद्गल जब जीव द्वारा ग्रहण कर लिये जाते हैं, तब उन्हें कर्म कहते हैं ।
१. विषय कसायह रंगियहं जे अणुया लगति । जीव-एमई मोहियहं ते जिग कम्म
भयंति ||
२. (क) रूपरसगंधवर्गवन्तः पुद्गलाः ।
- परमात्मप्रकाश १६२
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- तस्वार्थसूत्र अ० ५ सूत्र २३
(ख) पोग्गले पंचवणे पंचर से दुगंधे अट्ठफासे पण्णत्ते ।
- व्याख्याप्रज्ञप्ति श० १२,०५, सू० ४५०
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