Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यानन इस समय विशेषनया प्रचलित है। इन प्रकरणग्रन्थों को पढ़ने के बाद मेधावी अभ्यासी आकर-ग्रन्थों को पढ़ते हैं । आकरग्रन्थों में प्रवेश करने के लिए पहले प्राकरणिक विभाग का अध्ययन करना जरूरी है । यह पाकरणिक कर्मशास्त्र का विभाग विक्रम की माठवीं-नौवीं शताब्दी से लेकर सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी तक में निर्मित ब पल्लवित हुआ है।
भाषा-भाषा की दृष्टि से फर्मशास्त्र को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं -(क) प्राकृत भाषा, (ख) संस्कृत भाषा और (ग) प्रचलित प्रादेशिक भाषा ।
(क) प्राकृत भाषा-पूर्वात्मका और पूर्वोधृत कर्मशास्त्र प्राकृत भाषा में बने है । प्राकरणिक कर्मशास्त्र का भी बहुत बड़ा भाग प्राकृत भाषा में ही रचा हुआ मिलता है। मूल अन्यों के अतिरिक्त उनके ऊपर टीका-टिप्पणी भी प्राकृत भाषा में हैं।
(ख) संस्कृत भाषा पुराने समय में जो कर्मशास्त्र बना है, वह सब प्राका भाषा में ही है, किन्तु पीछे में संस्कृत भाषा में भी कर्मशास्त्र की रचना होने नगी । अधिकतर संस्कृत भाषा में कर्मशास्त्र पर टीका-टिप्पणी आदि ही लिखी गई हैं । परन्तु कुछ मुल प्राकरणिक कर्मशास्त्र दोनों सम्प्रदायों में ऐसे भी हैं, जो संस्कृत भाषा में रचे गये हैं।
ग) प्रचलित प्रादेशिक भाषा-प्रचलित प्रादेशिक भाषाओं में मुख्यनया-कीटकी, गुजराती और राजस्थानी हिन्दी - इन तीन भाषाओं का समावेश है । इन भाषाओं में मौलिक ग्रन्थ नाम मात्र के हैं । इन भाषाओं का उपयोग पुग्थ्यतया मूल तथा टीका के अनुवाद करने में ही किया गया है । विशेषकर इन प्रादेशिक भाषाओं में यही टीका, टिप्पण, अनुवाद आदि हैं जो प्राकरणिक कर्मशास्त्र विभाग पर लिखे गये हैं। कर्णाटकी और हिन्दी भाषा का आश्चय दिगम्बर साहित्य ने लिया और गुजराती व राजस्थानी भाषा श्वेताम्बर साहित्य में प्रयुक्त हुई ।