Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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विषय- इस ग्रन्थ का दर्य-विषम कर्मतत्व है, परन्तु इसमें कम से सम्बन्ध रख्नने बाली अनेक बातों पर विचार न करके प्रकृति अंश पर ही विचार किया गया है, अर्थात् कर्म की सब प्रकृतियों के विपाक का ही इसमें मुख्यतया वर्णन किया गया है । इसी अभिप्राय से इसका नाम भी कर्मविपाक रखा गया है ।
वर्णनका मः सन्म में गबरो पड़ने का रिनागा गया है कि फर्मबन्ध स्वाभाविक नहीं, किन्तु सहेतुक है। इसके बाद कर्म का स्वरूप' परिपुर्ण बताने के लिए उसे चार अंशों में विभाजित किया गया है-(१) प्रकृति, (२) स्थिति, (३) रस और (४) प्रदेश । इसके बाद आठ मूल प्रकृतियों के नाम और उनके उत्तर-भेदों की संख्या बताई गई है । अनन्तर ज्ञानाबरणीयकर्म के स्वरूप को दृष्टान्त, कार्य और कारण द्वारा दिखलाने के लिए प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने ज्ञान का निरूपण किया है | ज्ञान के पाँच भेदों और उनके अवान्तर भेदों को संक्षप में परन्तु तत्त्वरूप से दिखाया है। ज्ञान का निरूपण करके उसके आवरणभूत कम का सहष्टान्त स्पष्टीकरण किया है। अनंतर दर्शनावरणकम को दृष्टान्त द्वारा समझाया है। बाद में उसके भेदों को दिखाते हए दर्शन शब्द का अर्थ बतलाया है। दर्शनावरणीयकर्म के भेदों में पाँच प्रकार की निद्राओं का सर्वानुभवसिद्ध स्वरूप संक्षेप में बड़ी मनोरंजकता से वर्णन किया है। इसके बाद क्रम से सुख-दुख-जनक वेदनीय कर्म, सविश्वास और सच्चारित्र के प्रतिबन्धक मोहनीयकर्म, अक्षय जीवन के विरोधी आयुकर्म, गति, आदि अनेक अवस्थाओं के जनक नामकर्म, उच्च-नीच गोत्रजनक गोत्रकर्म और लाभ आदि में काट डालने वाले अन्तरायकर्म तथा उनके प्रत्येक कर्म के भेदों का थोडे में किन्तु अनुभवसिद्ध वर्णन किया है । अन्त में प्रत्येक कर्म के कारण को दिखाकर अन्य समाप्त किया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ का प्रधान विषय कर्म का विपाक है तथा प्रसंगवश इसमें जो कुछ कहा गया है, उस सबको संक्षेप में पांच भागों में बाँट सकते हैं:
(१) प्रत्येक कर्म प्रकृति आदि चार अंशों का काथन, (२) कर्म की मुल तथा उत्तरप्रकृतियां, (३) पाँच प्रकार के ज्ञान और चार प्रकार के दर्शन का वर्णन, (४) सब प्रकृत्तियों का दृष्टान्तपूर्वक कार्यकथन और (५) सब प्रकृतियों के कारण का कथन ।