Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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( ७१ } कर्मfare ग्रन्थ का परिचय
विश्व में प्रतिष्ठित धर्मों का साहित्य दो भागों में विभाजित है - (१) तत्रज्ञान (२) आचार व क्रिया । ये दोनों विभाग एक दूसरे से बिलकुल अलग नहीं हैं। इनका सम्बन्ध वैसा ही है. जैसा शरीर में नेत्र और हाथ-पैर आदि अन्य अत्रयवों का है। जैन साहित्य भी तत्त्वज्ञान और आचार इन दोनों विभागों में बँटा हुआ है । यह ग्रन्थ कर्मविपाक पहले विभाग रो सम्बन्ध रखता है । यों तो जैनदर्शन में अनेक तत्त्वों पर विविध दृष्टियों से विचार किया गया है परन्तु इस ग्रन्थ में उन सबका वर्णन नहीं है । प्रधानतया कर्मतत्त्व का वर्णन है ।
इस ग्रन्थ का अधिक परिचय प्राप्त करने के लिए इसके नाम, विषय, वर्णन क्रम, रचना का मूलाधार परिभाषा और कर्ता आदि बातों की ओर ध्यान देना जरूरी है ।
नाम
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-इस ग्रन्थ के 'कर्मविपाक' और 'प्रथम कर्मग्रन्थ'-इन दो नामों में से पहला नाम तो विषयानुरूप है तथा उसका उल्लेख स्वयं ग्रन्यकार ने आदि में 'कम्पनिका गमासओ बुच्छं' तथा अन्त में 'इअ कम्मत्रिवागोऽयं इस कथन से स्पष्ट कर दिया है । परन्तु दूसरे नाम का उल्लेख कहीं भी नहीं किया | दूसरा नाम केवल इसलिए प्रचलित हो गया है कि कर्मस्तव आदि अन्य कर्मविषयक ग्रन्थों में यह पहला है. इसके पढ़े बिना कर्मस्तव आदि अगले प्रकरणों में प्रवेश नहीं हो सकता है। यह नाम इतना प्रसिद्ध हैं कि पढ़ने पढ़ाने वाले तश अन्य लोग प्रायः इसी नाम का व्यवहार करते हैं। पहला कर्मग्रन्य इस प्रचलित नाम से मूल नाम वहाँ तक अत्रसिद्ध हो गया है कि कर्मविपाक कहने से बहुत से लोग कहने वाले का आशय ही नहीं समझते हैं। यह बात इस प्रकरण के विषय में ही नहीं, बल्कि कस्तव आदि आगे के प्रकरणों के बारे में चरितार्थ होती है, अर्थात् कर्मस्तव कर्मस्वामित्व षडशीतिका, शतक और सतना कहने से क्रमश: दूसरे, तीसरे चौथे, पांचवें और छठे प्रकरण का मतलब बहुत कम लोग समझेंगे, परन्तु दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा कर्मग्रन्थ कहने से सब लोग कहने वाले का भाव समझ लेंगे ।
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