Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कमसाहित्य की रचना की है । कर्मवाद-विषयक उपर्युक्त उभय परम्परा से सम्बन्धित साहित्य में अनेक प्रकार की विशेषताएं होने पर भी एक-दूसरे सम्प्रदाय के मालिक की तरण दुर्जय शारदा मा कोशा करना गद कर्म-विषयक अपूर्व शान से वंचित रहने जैसी ही बात है । अन्त में संक्षेप में इतना ही संकेत करते हैं कि जैनदर्शनमान्य कर्मनाद को पुष्ट बनाने में दोनों सम्प्रदायों ने एक महत्त्वपूर्ण योग दिया है । कर्मशास्त्र का परिचय __वैदिक और बौद्ध साहित्य में कर्म सम्बन्धी विचार है, पर वह इतना अल्प है कि उसका कोई खास ग्रन्थ उस साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता है । लेकिन जैनदर्शन में कर्म-सम्बन्धी विचार सूक्ष्म, व्यवस्थित और अति विस्तृत हैं । अतएव उन विचारों के प्रतिपादक शास्त्र ने जिसे कर्मशास्त्र या कर्म विषयक साहित्य कहते हैं, जनसाहित्य के बहुल बड़े भाग की रोक रखा है । कर्मसाहित्य को जैन साहित्य का हृदय कहना चाहिए । यों तो अन्य विषयक जैन ग्रन्यों में भी कर्म की थोड़ी-बहुत चर्चा पाई जाती है परन्तु उसके स्वतन्त्र ग्रन्थ भी अनेक हैं। भगवान महावीर ने कर्मवाद का उपदेश दिया है और उसकी परम्परा अभी तक चली आ रही है। लेकिन सम्प्रदाय-भेद, संकलना और भाषा की दृष्टि से उसमें कुछ परिवर्तन अवश्य हो गया है।
(१) सम्प्रदाय-भेव- भगवान महावीर का शासन श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो शाखाजों में विभक्त हुआ। उस समय कर्मशास्त्र भी विभाजित-सा हो गया । सम्प्रदाय-भेद की नींव इस सूहलता में पड़ी कि जिससे भगवान महावीर के उपदिष्ट कर्मतत्त्व पर मिलकर विचार करने का अवसर दोनों सम्प्रदायों के विद्वानों को कभी प्राप्त नहीं हुआ। इसका फल यह हुआ कि मूल विषय में
१. श्वेताम्बर-दिगम्बर कर्मवाद विषयक साहित्य का विशेप परिचय प्राप्त करने
के लिए श्री आत्मानन्द जैन सभा भावनगर द्वारा प्रकाशित और श्री नरविजयजी महाराज द्वारा संपादित 'सष्टीक्राश्नत्वार प्राचीन कर्मप्रन्था:' बो प्रस्तावना देखें ।