Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
अहिसाबाद आदि जैसे इसके महत्वपूर्ण अंगरूप है. वैसे ही और उतने ही । प्रमाण में कर्मवाद भी उसका प्रधान अंग है । स्यादवाद और अहिंसावाद की व्याख्या और वर्णन में जैसे जनदर्शन ने विश्वसाहित्य में एक दृष्टिकोण अंकित किया है, उसी प्रकार कर्मवाद के व्याख्यान में भी उसने उतना ही कौशल और गौरव प्रदर्शित किया है। यही कारण है कि जनदर्शन द्वारा की गई कर्मवाद को शोध और उसकी व्याख्या- इन दोनों को भारतीय दर्शन-साहित्य में उसके अनेकान्तवाद, अहिंसावाद आदि वादों के समान चिमरीय महत्वपूर्ण माग प्राप्त है।
जनदर्शन में कर्मवाद का स्थान सामान्यतया ऐसी मान्यता है कि जैनदर्शन कर्मबादी है। यद्यपि यह मान्यता असत्य तो नहीं है, तथापि इस मान्यता की ओट में एक ऐसी भ्रान्ति उत्पन्न हुई है कि जनदर्शन मात्र कर्मवादी है। इस सम्बन्ध में कह्ना चाहिए कि जैनदर्शन मात्र कर्मत्रादी है, ऐसा नहीं है, परन्तु वह आचार्य सिद्धसन दिवाकर के इस कथन के अनुसार
कालो सहाव नियई पुन्चकयं पुरिसकारणे गता ।
मिस ते चेवा समासओ होई सम्मत्त ।। कालत्राइ, स्वभावाद आदि पांच कारणवाद को मानने वाला दर्शन है। कर्मवाद उक्त पात्र कारणवादों में से एक वाद हैं । फिर भी उक्त भ्रान्त मान्यता उत्पन्न होने का मुख्य कारण यही है कि जैनदर्शन के द्वारा मान्य किये गये पुक्त पाँच वादों में से कर्मवाद ने साहित्य-क्षेत्र में इतना स्थान रोक रस्त्रा है कि उसका शतांश जितना स्थान डुमरे किसी वाद ने नहीं रोका है।
मौलिक जैन-कर्मसाहित्य जैन-आगमों में से ऐसा कोई आगम नहीं है, जो केवल कर्मवाद विषयलक्षी हो तथा जैन-कर्मवाद का स्वरूप और उसकी व्याख्या वर्तमान में विद्यमान जैनागमों में पृथक-पृथक रूप से अमुक प्रमाण में संकेतरूप होने से वह जैन कर्मवाद की महता के प्रकाशन में अंगम्प नहीं बन सकती है । अतः इस स्थिति में यह जिज्ञासा सहज ही होती है और होनी भी चाहिए कि