Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सागरोपम आदि समय के विविध भेदों के स्वरूप को समझने के लिए अनुयोगद्वार आदि सूत्रों का अवलोकन करना चाहिए। इससे कालगणना विषयक जैन मान्यता का ज्ञान प्राप्त हो सकेगा ।
अनुवर्णन
कर्मफल की सीव्रता और मंदता का आधार तनिमित्तक कषायों की तीव्रता और मंदता है। जो प्राणी जितनी अधिक कषाय की तीव्रता से युक्त होगा, उसके पापकर्म अर्थात् अशुभकर्म उतने ही प्रबल एवं पुण्यकर्म अर्थात शुभकर्म उतने ही निर्बल होंगे और इसके विपरीत जो प्राणी जितना कमात्र की तीव्रता से मुक्त एवं विशुद्ध परिणाम वाला होगा, उसके पुण्यकर्म उतने ही अधिक प्रबल एवं पापकर्म उतने ही अधिक निर्बल होंगे
जैन कर्मशास्त्र के अनुसार कर्मफल की तीव्रता और मन्दता के सम्बन्ध में यही दृष्टिकोण है ।
कर्म की विविध अवस्थाएं जनकर्मशास्त्र में कर्म की विविध अवस्थाओं का वर्णन मिलता है । इनका सम्बन्ध कर्म के बंध, उदय परिवर्तन, सत्ता, क्षय आदि से है। जिनका मोटे तौर पर निम्नलिखित भेदों में वर्गीकरण किया गया है
(१) बंधन, ( २ ) सत्ता, (३) उदय, (४) उदीरणा, (५) उवर्तना, (६) अपवर्तना, (७) संक्रमण, (५) उपशमन (६) निवत्ति, (१०) निकांचन और (११) अबाधा
(१) बंधन - आत्मा के साथ कर्मपरमाणुओं का बँधना, अर्थात् नीरक्षीरवत् एकरूप हो जाना बंधन कहलाता है। बंधन चार प्रकार का होता है---प्रकृतिबंध, स्थितिबंध अनुभागबंध और प्रदेशबंध | इनका वर्णन पहले किया जा चुका है । (२) सत्ता- - ब कर्मपरमाणु अपनी निर्जरा अर्थात क्षयपर्यन्त आत्मा में सम्बद्ध रहते हैं । इस अवस्था का नाम सत्ता है । इस अवस्था में कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए भी विद्यमान रहते हैं ।
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(३) उदय – कर्म की फल प्रदान करने की अवस्था को उदय कहते हैं ।
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