Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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दर्शना(५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र, (६) अंतराय । इनमें से ज्ञानावरण, वरण, मोहनीय और अंतराय – ये चार घाती प्रकृतियाँ और शेष वेदनीय, आयु. नाम और गोत्र – ये चार अघाती प्रकृतियां कहलाती हैं ।
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घाती प्रकृतियों से आत्मा के चार मूल गुणों (ज्ञान, दर्शन, और वीर्य सुख शक्ति) का घात होता है, अर्थात् ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञानगुण का घात करता है, दर्शनावरण से आत्मा के दर्शनगुण का घात होता है, मोहनीय सुख ( आत्मसुख ) के लिए घातक है और अंतराय द्वारा आत्मा के वीर्य-शक्ति का घात होता है । आत्मा के मूल गुणों को आवृत करने घात करने से इन चार को घाती कर्मप्रकृति कहते हैं । इन चार घाती प्रकृतियों के उत्तरभेदों में से कुछ प्रकृतियाँ ऐसी हैं जो आंशिक – एकदेश घात करती हैं, अत: उनको देशघाती और कुछ पूर्णतः - सर्वांश घात करने वाली होने से सर्वघाती कही जाती हैं । लेकिन reat कर्मप्रकृतियाँ आत्मा के किसी गुण का घात नहीं करती हैं, वे आत्मा को ऐसा रूप प्रदान करती हैं जो उसका निजी नहीं है, अपितु पौगलिक भौतिक है। वेदनीय अनुकूल-प्रतिकूल संवेदन अर्थात् सुख-दुःख का कारण है । आयु से आत्मा को नारकादि विविध मत्रों को प्राप्ति होती है । नाम के द्वारा जीव को विविध गति, जाति, शरीर आदि प्राप्त होते हैं और गोत्र प्राणियों के उच्चत्वव-नीचत्य का कारण होता है ।
उक्त बाती और अघाती भय में कही गयी ज्ञानावरण आदि मूल कर्मों की
कुल मिलाकर १५८ उत्तरप्रकृतियाँ होती हैं, जो इस प्रकार हैं
(१) ज्ञानावरणीय कर्म (२) दर्शनावरणीय कर्म
(३) वेदनीयकर्म (४) मोहनीयकर्म (५) आयुकर्म (६) नामकर्म (७) गोत्रकर्म ( - ) अंतराम कर्म
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योग १५८