Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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( ६१ ) कोई मत देना प्रपा नहीं कर देते हैं कुछ समय ऐसे ही पड़े रहते हैं । इस फलहीन स्थिति को अबाधा काल कहते हैं। अबाधा काल के व्यतीत होने पर बद्ध कर्म का फल देना प्रारम्भ होता है, जिसे उदय कहते हैं। प्रत्येक कर्म अपनी बंध स्थिति के अनुसार उतने समय तक उदय में आता है और फल प्रदान कर आत्मा से अलग हो जाता है, जिसे निर्जरा कहते हैं, अर्थात् कर्मस्थिति के बराबर ही कर्म-निर्जरा का भी समय है। जब आत्मा से सभी कर्म अलग हो जाते हैं, तब प्राणी सर्वांशतः कर्ममुक्त होकर अपने सत्चिन्-आनन्दघन-रूप स्वरूप में अवस्थित हो जाता है । इसी को मोक्ष कहते हैं ।
संसारी जीव के द्वारा कर्मों के बंध और भय का क्रम सदैव चलता रहता है । समस्त संसारी जीव नरकादि पार गतियों में से किसी-न-किसी गति के धारक होते हैं, यहां उनकी कितनी इन्द्रियाँ होती हैं, कौन-सा शरीर होता है, फितने योग आदि होते हैं, इस प्रकार का वर्गीकरण जन-कर्मशास्त्र में मार्गणा स्थान द्वारा किया है । मार्गणा-स्थान के निम्नलिखित चौदह भेद हैं...
गति, इन्द्रिय, शरीर, योग, बेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य', सम्यक्त्व, संजी, आहारक । प्रत्येक के साथ मार्गणा शब्द जोड़ देने से पुरा नाम हो जाता है जैसे - गति मार्गणा, इन्द्रिय मार्गणा आदि ।
इन मार्गणाओं के माध्यम से समस्त संसारी जीवों के शरीर आदि बाह्य स्थिति और आन्तरिक ज्ञान-शक्ति आदि का पूर्णतया वर्गीकरण हो जाता है । जैसे नरक गति बाला जीव है तो उसके कौन-सा शरीर होगा, कितनी इन्द्रियाँ होंगी तथा इस बाध स्थिति के साथ शान, दर्शन, सम्यक्त्व आदि की कितनी क्षमता है, यह स्पष्ट जान हो जाता है।
इस प्रकार की बाह्य और आन्तर स्थिति के होने पर प्रत्येक जीव किस स्थिति वाले कर्मों का बंध करता है और क्रमशः निर्जरा करते हुए आत्मा में कहाँ सक विशुद्धता ला सकता है और इस विशुता के फलस्वरूप क्रमशः कर्मों के क्षय का क्रम लया विशुद्धि से प्राप्त गुणों के स्थान आदि का वर्णन कर्मशास्त्र में गुणस्थानों के माध्यम से किया गया है। ये गुणस्थान भी मार्गणाओं की तरह पौदह होते हैं, जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं