Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
( ६० )
। इस
पाँच शरीर नामकर्मों में ही समावेश कर दिया जाता है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-नाम इन चार पिंडप्रकृतियों को २० उत्तरप्रकृतियों के स्थान पर केवल वर्ण, गंध, रस और स्पर्श ये चार ही प्रकृतियां गिनी गई प्रकार कुल १५८ प्रकृतियों में से नाम-कर्म की ३६ (२० और १६) प्रकृतियाँ कम कर देने से १२२ प्रकृतियाँ शेष रह जाती हैं, जो उदय और उदीरणा में आती हैं। बंधावस्था में १२० प्रकृतियों का अस्तित्व मानने का कारण यह है कि उदय उदीरणायोग्य १२२ प्रकृतियों में से दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्व - मोहनीय और मिश्रमोहनीय का अलग से बंध न होकर सिर्फ मिध्यात्वमोहनीय के रूप में ही बंध होता है, क्योंकि सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्र (सम्यत्रत्व - मिध्यात्त्र) मोहनीय मिध्यात्वमोहनीय की ही विशोषित अवस्थाएँ हैं । अतएव इन दो प्रकृतियों को उदय उदीरणा की उपर्युक्त १२२ प्रकृतियों में से कम कर देने पर प्रकृति है, जो वावस्था में विमान रहती हैं। निम्नलिखित तालिका से सत्ता आदि अवस्थाओं में विद्यमान रहने बाली प्रकृतियों की संख्या का स्पष्टतया परिज्ञान हो जाता है
कर्म का नाम
बंध
उदय उदीरणा
(१) ज्ञानावरणीय कर्म
(२) दर्शनावरणीयक
(३) वेदनीयकर्म
(४) मोहनीय कर्म
(५) आयुकर्म
(६) नामकर्म
(७) गोत्रकर्म
( 5 ) अन्तरायकर्म
५.
E
२
२६
४
६७
契
&
܀
२८
४
६७
सत्ता
५.
€
܀
२
४
१०३
܀
कर्मक्षय की प्रक्रिया
योग और कषाय के द्वारा प्रतिक्षण संसारी प्राणी जिस प्रकार कर्मबन्ध करता रहता है, उसी प्रकार कर्मक्षय का भी क्रम निरन्तर चालू रहता है ।