Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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अधिकता होने पर परमाणुओं की संख्या में अधिकता होती है और प्रवृत्ति की मात्रा में न्यूनता होने पर परमाणुओं की संख्या में न्यूनता होती है और इन गृहीत पुद्गल परमाणुओं के समूह का कर्म-रूप से आत्मा के साथ बद्ध होना दव्यकर्म कहलाता है। चार प्रकार के बंध
इन प्रत्यकों का क्रमशः प्रकृतिबंध, प्रदेषाबंध, अनुभागबंध और स्थितिवेध -- इन चार भेदों में वर्गीकरण कर लिया जाता है।
आमा को योग श्रीरः कषायम्प परिगति में से योग से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध तथा कषाय से अनुभाग व स्थितिबंध होते हैं । कषाय के अभाव में कर्म आस्मा के साथ संश्लिष्ट नहीं रह सकते हैं। जैसे सूखे वस्त्र पर धूल अच्छी नरह न चिपकते हुए उराका स्पर्श कर अलग हो जाती है, वैसे ही आत्मा में कपाय की आता न होने पर नर्म परमाणु भी संश्लिष्ट न होते हुए उसफा म्पर्श कर अलग हो जाते हैं।
मन, वचन, कायारूप योगों की परिस्पन्दनात्मक क्रिया प्रतिक्षण होती रहती है, किन्तु उन्हें कषायों का सहयोग न मिले तो वे कर्मबंध के लिए सक्रिय योग नहीं दे पाते हैं । इसलिए यत्नपूर्वक होने वाली चलने-फिरने आदि की आवश्यक क्रियाओं से होने वाला निर्बल कर्मचन्ध असापरायिवा बंध' कहलाता है और कषायों गहित होने वाली योग की प्रवृत्ति को सांपरायिक बंध कहते हैं । असापराधिक बंध भवनषग का कारण नहीं होता और सांपरायिक बंध से ही प्राणी संसार में परिभ्रमण करता है । प्रकृतिबंध का विवेचन
आत्मा के साथ सम्बद्ध कर्मपरमाणुओं में आत्मा के ज्ञान आदि गुणों को आवृत करने की शक्तियां (स्तभात्र) उत्पन्न होती है ; उसे प्रकृतिबंध के नाम से सम्बोधिन किया जाता है । आत्मा में अनन्त गुण हैं । अतः उनको आवृत करने वाले कर्मों के स्वभाव भी अनन्त माने जायेंगे लेकिन उन सबका निम्नलिखित आठ कर्मों में समाहार कर लिया जाता है
(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय,