Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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( ५२ ) कर्म के दो भेद है—भावनर्म और द्रव्यकर्म । जीव के जिन राग-द्वेषरूप भावों का निमित्त पाकर अचेतन कर्नद्रव्य आत्मा की ओर आकृष्ट होता है उन भावों का नाम भावकर्म है और जो अचेतन कमंद्रव्य आत्मा के साथ संबद्ध होता है, उसे द्रव्यकर्म कहते हैं। भाषकर्म और द्रव्यकर्म का विशेष विवेचन _ 'भावकर्म - जैनदर्शन में कर्मबन्ध के विस्तार से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच कारण बतलाये हैं और इनको क्रमशः संक्षेप करते हुए, इनका संक्षिप्त रूप अन्तिम दो कारणों -कषाय और योग में किया हुआ मिलता है। इन दो कारणों को भी अधिक संक्षेप में कहा जाय तो कषाय ही कर्मबन्ध का कारण है । यों तो कषाय के अतिरिक्त विकार के अन्य अनेक कारण हैं, पर उन सबका संक्षेप में वर्गीकरण करके अध्यात्मवादियों ने राग और है ये दो ही प्रकार कहे है; क्योंकि कोई भी मानसिक विचार हो वह या तो राग (आसक्ति) रूप है या द्वेष (घृणा) रूप है। अनुभव से भी यही सिद्ध है कि साधारण प्राणियों की प्रवृत्ति चाहे ऊपर से कैसी ही क्यों न दीख पड़े परन्तु वह या तो रागमूलक होती है या द्वेषमुलक । ऐसी प्रवृत्ति ही विविध वासनाओं का कारण होती है । प्राणी जान सके या न जान सके पर उसकी वासनात्मक सूक्ष्म दृष्टि का कारण उसके राग और द्वेष ही होते हैं। ___ मकड़ी जैसे अपनी प्रवृत्ति से अपने अनाये हुए जाल में फंसती रहती है, वैसे ही जीव भी अपनी प्रवृत्ति से कर्म के जाल को अज्ञान-मोहवश रच लेता है
और उसमें फंसता रहता है । अज्ञान, मिथ्याजान आदि जो कर्म के कारण कहे जाते हैं, वे भी राग द्वेष के सम्बन्ध से ही ! राग की या द्वैप की मात्रा बढ़ी फि ज्ञान विपरीत रूप में बदलने लगता है ।
इसमें शब्दभेद होने पर भी वार्मबन्ध के कारण के सम्बन्ध में अन्य किसी भी आस्तिक दर्शन के साथ जैनदर्शन का कोई मतभेद नहीं है। नैयायिक और वैशेषिक दर्शनों में मिथ्याज्ञान को, योगदर्शन में प्रकृति और पुरुष के अभेदशान को, वेदान्त आदि दर्शनों में अविशा को और जैनदर्शन में मिश्यात्व को कर्मबन्ध का कारण बतलाया है। लेकिन यह बान ध्यान में रखनी चाहिए कि किसी को भी कर्म का कारण क्यों न कहा जाय पर यदि उसमें कर्म की