Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जैनदर्शन में कर्म सिद्धान्त
भारतवर्षं दार्शनिक चिन्तन की पुण्यभूमि है। यहाँ के म ने जीवन के गम्भीर प्रश्नों पर चिन्तन-मनन करना अधिक एतदथं वहाँ आत्मा-परमात्मा, लग्कस्वरूप, कर्म, कर्मफल आ चिन्तन-मनन व विवेचन किया गया है। वस्तुतः यह चिन्तन का मेरुदण्ड है ।
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अध्यात्मवादी भारतीय दार्शनिक चिन्तन में कर्म सिद्धान्त का महत्व स्थान है। सुख-दुःख एवं विभिन्न प्रकार की सांसारिक विचित्रताओं के कारणों की खोज करते हुए भारतीय चिन्तकों ने कर्मसिद्धान्त का अन्वेषण किया तथापि इसका जो सुव्यवस्थित और सुविकसित रूप जैनदर्शन में उपलब्ध होता है, वह अन्यत्र क्रमबद्ध रूप से प्राप्त नहीं होता है । इसलिए यहाँ जैनदर्शन का कर्मसिद्धान्त-विषयक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं ।
कर्म का लक्षण
राग-द्वेष से संयुक्त इस संसारी जीव के अन्दर प्रति समय परिस्पंदन रूप जो क्रिया होती रहती है, उसको सामान्य से मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच रूपों में वर्गीकृत कर सकते हैं। इनके निमित्त से आत्मा के साथ एक प्रकार का अचेतन द्रव्य आता है और वह राग-द्वेष का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बँध जाता है। समय पाकर वह द्रम्य सुख-दुःख फल देने लगता है, उसे कर्म कहते हैं । अर्थात मिथ्यात्व अव्रत, प्रमाद, कषाय आदि से जीव के द्वारा जो किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं ।"
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-- कर्मग्रन्थ भाग १।१
- परमात्म प्रकाश १६२