Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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बंधकता ( कर्मले
पैदा करने की शक्ति ) है तो वह राग-द्वेष के सम्बन्ध से ही है। रागद्वेष का अभाव होते ही अज्ञानपना ( मिथ्यात्व ) कम या नष्ट हो जाता है । महाभारत शान्तिपर्व के कर्मणा बंध्यते जन्तु इस कथन में भी कर्म शब्द का मतलब राग-द्वेष से ही हैं ।
इस प्रकार मिथ्यात्वादि किसी नाम से कहें वा राग-द्वेष कहें ये सब भावकर्म कहलाते हैं ।
अव्यकर्म — पूर्वोक्त कथन से यह भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि रागद्वेषजनित शारीरिक-मानसिक प्रवृत्ति से कर्मबन्ध होता है। वैसे तो प्रत्येक थिया कर्मोपाजन का कारण होती है लेकिन जो क्रिया कषायजनित होती है, उससे होने वाला कर्मत्रन्ध विशेष बलवान होता है और कथासहित क्रिया से होने वाला कर्मबन्धन निर्बल और अल्प स्थिति वाला होता है, उसे नष्ट करने में अल्प शक्ति और अल्प समय लगता है । जैनदर्शन में कर्मबन्ध की प्रक्रिया का सुव्यवस्थित वर्णन किया गया है । उसकी मान्यतानुसार संसार में दो प्रकार के द्रव्य पाये जाते हैं - (१) चेतन और (२) अचेतन । अचेतन द्रव्य भी पांच प्रकार के है धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल । इतरो से प्रथम चार प्रकार के द्रव्य अमूर्तिक एवं अरूपी हैं । अतः वे इन्द्रियों के अगोचर हैं और इसी में अग्राह्य हैं। केवल एक पुद्गल द्रव्य ही ऐसा है जो मूर्तिक और रुपी है और इसीलिए वह इन्द्रियों द्वारा दिखाई देता है और पकड़ा तथा छोड़ा भी जाता है । 'पूरणाद्गलाना पुङ्गलः ' इस निरुक्ति के अनुसार मिलना और बिछड़ना इसका स्वभाव ही है । इस पुद्गल इभ की ग्राह्य अग्राह्यरूप वर्गमाएं होती है। इनमें से एक कर्मबगंणाएँ भी हैं । लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ से कर्मयोग्य पुद्गल वर्गणाएँ- पुद्गल परमाणु विद्यमान न हों। जब प्राणी अपने मन, वचन अथवा काय से किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है, तत्र चारों ओर से कर्मयोग्य मुद्गल परमाणुओं का आकर्षण होता है और जितने क्षेत्र अर्थात् प्रदेश में उसकी आत्मा विद्यमान होती है, उतने ही प्रदेश में विद्यमान पुद्गल परमाणु उसके द्वारा उस ममय ग्रहण किये जाते हैं । प्रवृत्ति की तरतमता के अनुसार परमाणुओं की संख्या में भी तारतम्य होता है। प्रवृत्ति की मात्रा में