Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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साथ असंम्प आत्माओं के विद्यमान होने में कोई बाधा नहीं है । जैसेएक कमरे में एक दीपक का प्रकाश भी रह सकता है और दूसरे सहस्रों दीपकों का प्रकाश भी उसी कमरे में नगान हो सकता है। इसमें किसी कार से व्याघात (रुकावट) नहीं आता है 1 उन सब दीपकों का प्रकाश एक दूसरे से बिलकुल स्वतन्त्र है । इसी प्रकार एक ही समय में, एक ही स्थान पर असंख्य आत्माओं के निलकुल स्वतन्त्र रूप से एक साथ रहने में कोई बाधा नहीं आती है।
प्रत्येक आत्मा आने-अपने शरीर-प्रमाण है—न उससे कम और न उससे अधिक । आत्मा में सिकुड़ने और फैलने का गुण होता है, इसलिए वह अपने कमों के फलस्वरूप प्राप्त शरीर के प्रमाण वाली हो जाती है, जैसे कि एक दीपक की छोटी सी कोठरी में रखने पर उसका प्रकाश उस कोठरी तक सीमित रहता है और जब उसी दीपक को एक बडे कमरे में रखते हैं तो उसका प्रकाश उस बड़े कमरे में फैल जाना है। इसी तरह आसा के कीड़ी और कुजर के पारीर में व्याप्त होने के बारे में समझना चाहिए ।
कर्म का अनादित्व
पूर्व करन ने यह स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा का अस्तित्व अनादिकालीन है और कर्मवन्ध होना रहता है । तो सहज ही मनुष्य के मन में विचार होता है कि आन्मा पहले है या कर्म पहले है । दोनों में से पहले कीन है और पीछे कौन है अथवा आक्षा की तरह कर्म भी अनादि है। यदि आत्मा पहले है तो जन में उके साथ काम का बंध हुआ, तब ने उसको नादि मानना पड़ेगा । जनदर्शन में इसके उत्तर में कहा है कि कर्म व्यक्ति की अपेक्षा से गादि है और प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है । यह सबका अनुभव है कि प्राणी सोते जागते, उठते-बैठते, चलते-गिरते किनी न किसी तरह की झलचल किया करता है 1 हुल नल का होना ही कर्मबन्ध का कारम है । इससे सिद्ध होता है कि कर्म व्यक्ति की अपेक्षा से सादि है. किन्तु कर्म का प्रवाह कब से चला, इसको कोई नहीं जानता और न कोई बता सकता है । भविष्य काल की तरह भूतकाल भी अनन्त है । अनन्त का वर्णन अनादि या अनन्त शब्द के सिवाय और दूसरे