Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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किसी शब्द द्वारा होना असंभव है । इसलिए कर्म के प्रवाह को अनादि कहे बिना अन्य कोई उपाय ही नहीं है । ___कुछ लोग अनादि की अस्पष्ट व्याख्या की उलझन से घबराकर कर्म-प्रवाह को सादि बदलाने लग जाते हैं, किन्तु अपनी बुद्धि से कल्पित दोष की आशंका करके उसे दूर करने के प्रयत्न में दूसरे बड़े दोष को स्वीकार कर लेते हैं कि यदि कर्म-प्रबाह की आदि मानते हैं तो जीव को पहले ही अत्यन्त शुद्ध-बुद्ध होना चाहिए, फिर उसे लिप्त होने का क्या कारण ? और यदि सर्वया शुद्ध-बुद्ध जीव भी लिप्त हो जाता है तो मुक्त हए जीव भी कर्मलिप्त होंगे और उस स्थिति में मुक्ति को सोया हुआ संसार ही कहना चाहिए । कार्म-प्रवाह के अनादित्य और मुक्त जीवों को पुन: संसार में न लौटने को सभी प्रतिष्ठित दर्शनों ने माना है।
प्रवाह-संतति की अपेक्षा आत्मा के साथ कर्म के अनादि सम्बन्ध और भक्ति को अपेक्षा दि साध को १-या समाधान के लिए आचार्यों ने कहा है
जो खतु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो परिणामादो कम्म कम्मादो होवि गवि सुगवी ॥ गदिमधिगवस्स देहो देहावो इन्दियाणि जायन्ते । तेहि दुवि सयग्गहणं ततो रागो दोसो वा ॥ जादि जीवस्सेवं भावो संसार धक्कवालम्मि ।
दि जिणवरेहि मणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥ जीव के साथ कर्म के अनादिकालीन सम्बन्ध को इस उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है कि जिस प्रकार खान के भीतर स्वर्ण और पाषाण, दुध और घृत, अण्डा और मुर्गी, बीज और वृक्ष का अनादिकालीन सम्बन्ध चला आ रहा है, उसी प्रकार जीव और कर्म का भी प्रवाह-संतति की अपेक्षा अनादिकालीन सम्बन्ध स्वयंसिद्ध जानना चाहिए । अर्थात् संसारी जीवों के मन, वचन,
१. पंचास्तिकाय