Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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संकेत है। इस मत के अनुसार जब आत्यन्तिक कर्मनिवृत्ति इष्ट है, तब इसे प्रथम दल की दृष्टि के विरुद्ध कर्म की उत्पत्ति का असली कारण बतलाना पड़ा । इसने कहा कि धर्म और अधर्म का मूल कारण प्रचलित सामाजिक विधि-निषेध नहीं किन्तु अज्ञान और रागद्वेष हैं। फैसा भी शिष्ट, सम्मत और विहित सामाजिक माचरण क्यों न हो, पर यह अगान एवं राग-द्वेषमूलक है तो उससे अधम को ही उत्पत्ति होती है। पुण्य और पाप का भेद स्थूल दृष्टि वालों के लिए है । तत्त्वतः पुण्य और पाप सब अज्ञान एवं राग-द्वेषमूलक होने से अधर्म एवं हेय ही है । यह निवर्तकधर्मवादी दल सामाजिक न होकर व्यक्ति विकासवादी रहा । जब इसने कर्म का उच्छेद और मोक्ष पुरुषार्थ मान लिया, तब इसे कर्म के उच्छेदक एवं मोक्ष के जनक कारणों पर भी विचार करना पड़ा । इसी विचार के फलस्वरूप इसने जो कर्म-निवर्तक कारण स्थिर किये, वही इस दल का निवर्तकधर्म है 1
प्रवर्तक और निवर्तक धर्म की दिशा परस्पर बिलकुल विरुद्ध हैं। एक का ध्येय सामाजिक व्यवस्था की रक्षा और सुव्यवस्था का निर्माण है, जबकि दूसरे का ध्येय निजी आत्पन्तिक सुख की प्राप्ति है, अतएव यह मात्र आत्मगामी है । निवतंकधर्म ही श्रमण, परिवाजक, तपस्वी और योगमागं आदि नामों से प्रसिद्ध है । कर्मप्रवृत्ति अज्ञान एवं राग-द्वेषजनित होने से उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति का उपाय अज्ञानविरोधी सम्यक्ज्ञान और राग-द्वेषविरोधी राग-द्वेषनाफारूप संयम ही स्थिर हुआ । बाकी के तप, ध्यान, भक्ति आदि सभी उपाय उक्त ज्ञान और संयम के ही साधन रूप से माने गये ।।
निवर्तक-धर्मावलंबियों में अनेक पक्ष प्रचलित थे । यह पक्षभेद कुछ तो वादों की रवभावमुलक उग्रता-मता का आभारी था और कुछ अंशों में तत्त्वज्ञान की भिन्न-भिन्न प्रक्रिया पर भी अवलम्वित था। उनके तीन पक्ष जान पड़ते हैं(१) परमाणुनादी, (२) प्रधानवादी (३) परमाणु होकर भी प्रधान की छाया वाला 1 इनमें से पहला परमाणुवादी मोक्ष समर्थक होने पर भी प्रवर्तकधर्म का उतना विरोधी न था, जितने कि पिछले दो । यही पक्ष-न्याय, वैशेषिक दर्णन के रूप में प्रसिद्ध हुआ | दूसरा पक्ष प्रधानवादी आत्यन्तिक कर्मनिवृत्ति का समर्थक होने से प्रवर्तककर्म, अर्थात् श्रौत-स्मार्त कर्म को भी हेय बतलाता