Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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(४८ ) था। यही पक्ष सांख्य-योग नाम से प्रसिद्ध है और इसी के तत्वज्ञान की भूमिका के ऊपर तथा इसी के निवृत्तिवाद की छाया में आगे जाकर वेदान्त दर्शन और संन्यास मार्ग की प्रतिष्ठा हुई । तीसरा पक्ष प्रधान छायापन, अर्थात् परिणी गरमा गुनादी का का,
मोर की सा ही प्रवर्तकधर्म का आत्यन्तिक, विरोधी था । यही पक्ष जैन एवं निर्ग न्यदर्शन के नाम से प्रसिद्ध है। बौद्धदर्शन प्रवर्तकधर्म का आत्यन्तिक रोिधी है, पर वह दूसरे और तीसरे पक्ष के मिश्रण का एक उत्तरवर्ती स्वतन्त्र विकास है। परन्तु सभी निवर्तकवादियों का सर्वमान्य सामान्य लक्ष्य यह है कि किसी-न-किसी प्रकार कों की जड़ नष्ट करना और ऐसी स्थिति पाना कि जहाँ मे फिर जन्मचक्र में आना न पड़े।
ऐसा मालूम नहीं होता है कि कभी मात्र प्रवर्तकधर्म प्रचलित रहा हो, और निवर्तकधर्म का पीछे से प्रादुर्भान हुआ हो । फिर भी प्रारम्भिक समय ऐसा जरूर बीता है, जबकि समाज में प्रवर्तकमर्म की प्रतिष्ठा मुख्य थी और निवर्तकधर्म व्यक्तियों तक ही सीमित होने के कारण प्रवर्तकधर्मवादियों की तरफ से न केवल उपेक्षित ही था, बल्कि उसके विरोध के आघात भी महता रहा । परन्तु निवर्तकधर्मवादियों की प्रधक-पृथक परम्पराओं ने शान, ध्यान, तप, योग, भक्ति आदि आभ्यन्तर तत्त्यों का क्रमशः इतना अधिक विकास किया कि फिर तो प्रवर्तकधर्म के होते हए भी नारे समाज पर एक तरह से निवर्तकधर्म की प्रतिष्ठा की मुहर लग गई और जहाँ देखो वहाँ निवृत्ति की चर्चा होने लगी और साहित्य भी निवृत्ति के विचारों से ही निर्मित एवं प्रचारित होने लगा।
निवर्तकनर्मवादियों को मोक्ष के स्वरूप तथा उसके साधनों के विषय में तो ऊहापोह करना ही पड़ता था; पर इसके साथ उनको कर्मतत्त्वों के विषय में भी बहुत विचार करना पड़ा। उन्होंने कर्म तथा उसके भेदों की परिभाषाएँ एवं व्याख्याएँ स्थिर की, कार्य और कारण की दृष्टि से कर्मतत्त्व का विविध वर्गीकरण किया, कर्म की फसगत शक्तियों का विवेचन किया, प्रत्येक के विपाकों की काल-मर्यादाएँ सोची, कमों के पारस्परिक सम्बन्धों पर भी विचार किया । इस तरह निवर्तकधर्मवादियों का अच्छा-खासा फर्मतत्त्वविषयक शास्त्र व्यवस्थित