Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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ही ईश्वर है । आत्मा का परमात्मा में मिल जाना, इसका मतलब यह है कि आत्मा का कर्ममुक्त होकर अपने परमात्ममाव को बक्त करके परमावस्वरुपमय हो जाना । जीव परमात्मा का अंपा है, इसका मतलब कर्मशास्त्र की दृष्टि से यह है कि जीव में जितनी ज्ञानकला व्यक्त है, वह परिपूर्ण. परन्तु अव्यक्त (आवृत) चेतना चंद्रिका का एक अंश मात्र है । कर्म का आवरण हट जाने से चेतना परिपूर्ण रूप में प्रकट होती है । उसी को ईश्वरभान या ईश्वरत्व की प्राप्ति समझना चाहिए ।
धन, पारीर आदि बाह्य विभूतियों में आत्मबुद्धि रखना अर्थात् जड़ में अहत्व करना बाहा दृष्टि है। इस अमेद भ्रम को बोहरात्मभाव सिद्ध करके उसे छोड़ने की शिक्षा कर्मशास्त्र देता है। जिनके संस्कार केवल बहिरात्मभावमय हो गये हैं उन्हें कर्मशास्त्र का उपदेश भले ही रुचिकर न हो, परन्तु इससे उसकी सचाई में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ सकता है ।
शरीर और आत्मा के अभेद-भ्रम को दूर कराकर उसके भेदज्ञान को, विवेकल्याति को कार्मणास्त्र प्रगट करता है । इसी समय में अन्तष्टि खुलती है। अन्तष्टि के द्वारा अपने में विद्यमान परमात्म-भाव देखा जाता है । परमात्मभाव को देखकर रो पूर्णतया अनुभव में लाना—यह जीव का शिव (ब्रह्म) होना है । इसी ब्रह्म मात्र को व्यक्त कराने का काम कुछ और कुंग से कर्मशास्त्र ने अपने ऊपर ले रखा है। क्योंकि वह अभेद-भ्रा से भेदभान की तरफ झुकाकर फिट स्वाभाविक अभेदज्ञान की उच्च भूमिका की ओर आत्मा को सींचना है। साथ ही, योगशास्त्र के मुख्य प्रतिपाद्य अंग का वर्णन भी उरा में मिल जाता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि कर्मशास्य अनेक प्रकार के आध्यामिक शास्त्रीय विचारों की खान है । यही उसका महत्व है।
शरीरशास्त्र-आत्मा के साथ कर्म का निकटतम सम्बन्ध है। शुद्ध, निष्कम आत्मा होने के पूर्व उसकी अशुद्ध स्थिति, कारणों आदि का कथन कर्मशास्त्र में है। अशुद्ध स्थिति में आत्मा का कोई-न-कोई शरीर, इन्द्रिय आदि होती हैं । अतः इनका भी वर्णन कर्मशास्त्र में यथास्थान किया जाता है। वैसे तो शरीर निर्माण के तत्त्व, जसके स्थूल-सुथम प्रकार, उसके वृद्धि-हास-क्रम आदि का विचार शरीरशास्त्र में किया जाता है और वास्तव में यह शरीरशास्त्र का