Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मसिद्धान्त का साध्य : प्रयोजन
कर्मसिद्धान्त का आविर्भाव किस प्रयोजन से हुआ इसके उत्तर में व्यावहारिक दृष्टि से निम्नलिखित तीन प्रयोजन मुख्यतया कहे जा सकते हैं
(१) वैदिक धर्म की ईश्वर सम्बन्धी मान्यता के भ्रान्त अंश को दूर करना । (२) बौद्धधर्म के एकान्त क्षणिकवाद की अयुक्तता को स्पष्ट करना । (३) मामा को जड़ तब से मिलवा देतन तत्त्व स्थापित करना । इनका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है
(१) महावीरकालीन भारतवर्ष में जैनधर्म के अतिरिक्त वैदिक और बौद्ध धर्म मुख्य थे, परन्तु दोनों के सिद्धान्त मुख्य-मुख्य विषयों में नितान्त भिन्न थे । मूल वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों में और वेदानुयायी कतिपय दर्शनों में ईश्वरविषयक ऐसी कल्पना थी कि जिससे सर्वसाधारण का यह विश्वास हो गया था कि जगत का उत्पादक ईश्वर ही है, वही अच्छे या बुरे कमो का फल जीव से भोगवाता है, कर्म जड़ होने से ईश्वर की प्रेरणा के बिना अपना फल भोगवा नहीं सकते । चाहे कितनी ही उच्चकोटि का जीव हो, परन्तु वह अपना विकास करके ईश्वर नहीं हो सकता; जीर, जीव ही है, ईश्वर नहीं और ईश्वर के अनुग्रह के सिवाय संसार से निस्तार भी नहीं हो सकता इत्यादि । ___इस प्रकार के विश्वास में ये तीन भूलें थीं-(१) कृतकृत्य ईश्वर का निष्प्रयोजन सृष्टि में हस्तक्षेप करना । (२) आत्मस्वातंत्र्य का दब जाना । (३) कर्म की शक्ति का अज्ञान । इन भूलों का परिमार्जन करने और यथार्थ वस्तुस्थिति को बतलाने के लिए भगवान महावीर ने कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
यद्यपि बौदधर्म में ईश्वर-कर्तृत्व का निषेध किया गया था किन्तु बुद्ध का उद्देश्य मुख्यतया हिंसा को रोकने और करुणाभाव को फैलाने का था और उनकी तत्त्वप्रतिपादन की शैली भी तत्कालीन उद्देश्य के अनुरूप ही थी । तथागत बुद्ध कर्म और उसका विषाक मानते थे, लेकिन उनके सिद्धान्त में क्षणिकवाद का प्रतिपादन किया गया था। इसलिए भगवान महावीर का कर्मसिद्धान्त के प्रतिपादन का एक वह भी उद्देश्य था कि यदि आरमा को क्षणिकमात्र मान लिया जाय तो कर्मविपाक की किसी तरह उपपत्ति ही नहीं हो सकती । स्वकृत