Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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(३) ईपवर और जीन—दोनों चेतन हैं, फिर उनमें अन्तर ही क्या है ? अन्तर सिर्फ इतना ही हो सकता है कि जीव की सभी शक्तियाँ आवरणों से विरी हुई हैं और ईश्वर की नहीं, परन्तु जिस समय जीव अपने पुरुषार्थं द्वारा आवरणों को हटा देता है, उस समय उसकी सभी शक्तियों पूर्ण रूप से प्रकागिन हो जाती हैं । अन्नः जीप और ईश्वर में विषमता का कारण नहीं रहता है। विषमता के कारण औपाधिक कर्मों के हट जाने पर भी यदि विषमता बनी रही तो फिर मुक्ति ही क्या है ? विषमता संसार चक ही सीमित है, आगे नहीं । इसलिए यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि सभी मुक्त जीव ईश्वर ही हैं । केवल कल्पना के बल पर यह कह देना कि ईपवर एक ही होना चाहिए, उचित नहीं है। आत्मा में अनेक हैं और वे सभी तात्तिक दृष्टि से ईशबरही हैं केवल जन्धन के कारण ही छोटे-बड़े जीव रूप में देखी जाती है । यह सिद्धान्त सभी को अपना ईश्वरत्व प्रकट करने के लिए पूर्ण बल देता है और पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देता है। आश्मा का अस्तित्व-सात प्रमाण
कर्म का बन्ध कौन करता है और उसका फल कौन भोगता है, इस प्रश्न का उत्तर है आमा । अतापत्र नम-तत्त्व के बारे में विचार करने के साथसाथ आत्मा के अस्तित्व को मानना जरूरी है, नभी कर्म का विवेचन युक्ति. संगत माना जाएगा | आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व निम्नलिखिन मात्र प्रमाणों से सिद्ध होता है
(१) स्वसंवेदन-रूप साधक प्रमाण, (२) बाधक प्रमाण का अभाव, (३) निषेध से निषेधकर्ता की सिद्धि (४) तक, (५) शास्त्र-प्रमाण, (६) आधुनिक विद्वानों की सम्मति, (७) पुनर्जन्म । उका प्रमाणों का विवेचन क्रमशः इस प्रकार है