Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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इन्द्रियाणां हि चरता मम्मनोऽनुविधीयते ।
तवस्य हरसि प्रा वायु वनियाम्भसि ।' मन जब स्वतन्त्र विचरती हुई इन्द्रिमों में जिस किसी एक भी इन्द्रिय के पीछे लग जाता है, तो उसकी बुद्धि को भी अपने साथ बहाकर ले जाता है, जैसे नाव को पवन ।
. इसलिए चंचल मन में आत्मा की स्फुरणा भी नहीं होती । यह देखी हुई बात है कि प्रतिबिम्ब ग्रहण करने की शक्ति जिम दर्पण में विद्यमान है, वहीं जब मलिन हो जाता है, तब उसमें किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब व्यक्त नहीं होता। इससे यह बात सिद्ध है कि बाहरी विषयों में दौड़ लगाने वाले अस्थिर मन मे आगा का ग्रहण न होना, उसका बाधव नहीं, किन्तु मन की अशक्ति मात्र है।
इस प्रकार विचार करने से यह प्रमाणित होता है कि मन', इन्द्रियां, सूक्ष्मदर्शका-यन्त्र आदि सभी साधान भौतिक होने से आत्मा का निषेध करने की शक्ति नहीं रखते 1
(३) निषेध से निषेधफत्ता की सिद्धि-कुछ लोग यह कहते हैं कि हमें आत्मा का निश्चय नहीं होगा, बल्कि कभी-कभी उसके अभाव की स्फुरणा हो जाली है, क्योंकि किसी समय मन में ऐसी कलाना होने लगती है कि 'मैं नहीं हूँ इत्यादि । परन्तु उनको जानना चाहिए कि उनकी यह कल्पना ही आत्मा के अस्तिस्य को सिद्ध करती है, क्योंकि आत्मा न हो तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाक कैसे हो? जो निषेध कर रहा है, वह स्वयं ही आत्मा है। इस बात को शंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कहा है-.
प एवं हि निराकर्ता तवेवहि तम्य स्वरूपम् । २।३।१३७ (४) तर्क-यह भी आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व की पुष्टि करता है। यह कहता है कि जगत में सभी पदार्थों का विरोधी कोई न कोई देखा जाता है। जैसे अंधकार का विरोधी प्रकाश, उष्णत्व का विरोधी शीतत्व और सुख का विरोधी दुःख, इसी तरह जड़ पदार्थ का विरोधी कोई तस्त्र होना चाहिए । यह
१ गीता, अध्याय २, फ्लोक ६७ ।