Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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( २६ )
अतएव किसी को चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, दूसरों के सुख-दुःख का जीवन-मरण का कर्त्ता मानना मात्र एक कल्पना है। अज्ञान मात्र है | आचार्य अमितगति ने इसको स्पष्ट करते हुए कहा है
स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं सदीयं लभते शुभाशुभम् ।
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परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ||
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निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कस्यापि ददाति किंचन । विचारयन्नेव मनन्यमानसः: परो ददातीति विमुच्य शेषीम् ।
तर्क की कसौटी पर कसे जाने पर भी संसार का स्रष्टा ईश्वर आदि कोई सिद्ध नहीं होता है । उसके विषय में उतने प्रश्न उठ खड़े होते है कि न कोई जगत् का मजक सिद्ध होता है और न असंख्य प्रकार का जगत् वैचित्र्य किमी एकः के द्वारा रथा जाना संभव है। वस्तुतः प्रत्येक प्राणी अपने व्यक्तिगत जगत् का स्वयं स्रुष्टा है । इसीलिए जैनदर्शन ईश्वरको सृष्टि का अधिष्ठाता भी नहीं गानना है, क्योंकि सृष्टि अनादि अनन्त हो कभी अपूर्व रूप में उत्पन्न नहीं हुई है तथा वह भी स्वयं परिणगनशील होने से ईश्वर के अधिष्ठान की भी अपेक्षा नहीं रखती हूँ ।
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कर्मसिद्धान्त पर आक्षेप और परिहार
कर्मसिद्धान्त पर ईश्वर को सृष्टिकर्ता या प्रेरक मानने वालों के कुछ आक्षेप हैं । जिनको निम्नलिखि फोन धकारों में विभाजित किया जा सकता हैं
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( १ ) महल मकान आदि विश्व की छोटी बड़ी चीजें, जैसे किसी व्यक्ति के द्वारा निर्मित होती हैं तो पूर्ण जगत् जो कार्य रूप दिखता है उसका भी उत्पादक कोई अवश्य होना चाहिए ।
(२) सभी प्राणी अच्छे-बुरे कर्म करते हैं, परन्तु बुरे कर्म का फल कोई नहीं चाहता और कर्म स्वयं जड़ होने से बिना किसी चैन की प्रेरणा के फल देने में असमर्थ है। इसलिए ईश्वर को कर्मफल भोगवाने में कारण रूप से कर्मचादियों को मानना चाहिए ।