Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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की आवश्यकता पड़ती है, तब-तब वह संहार भी करता है। यद्यपि फल प्रदान हेतु ईश्वर को मनुष्य के पाप और पुण्य के अनुसार बनना पड़ता है। फिर भी यह सर्वशक्तिमान है। मनुष्य अपने कर्मों का कर्ता तो है, लेकिन वह ईश्वर के द्वारा अपने अदृष्ट ( अतीत कर्म ) के अनुसार प्रेरित या प्रयोजित होकर कर्म करता है । इस प्रकार ईश्वर संसार के मनुष्यों एवं मनुष्येतर जीवों का कर्मव्यवस्थापक है, उनके कर्म का फलदाता और सुख-दुख का निर्णायक है ।
वैशेषिकदर्शन के अनुसार सृष्टि और संसार का कर्ता महेश्वर है। उसकी इच्छा से संसार की सृष्टि होती है और उसी को इच्छा से प्रलय होता है । उसकी इच्छा हो, तब संसार बन जाना है, जिससे सभी जीव अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुःख का भोग कर सकें और जन उसकी इच्छा होती है, तब वह उस जाल को समेट लेता है । यह सृष्टि और लय का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है। सृद्धि का अर्थ है, पुरातन क्रम का ध्वंस कर नवीन का निर्माण । जीवों के प्राक्तन कर्म (पुर्वकृत पाप और पुण्य ) को ध्यान में रखते हुए ईश्वर एक नव सृष्टि की रचना करता है । ब्रह्म या विश्वात्मा जो अनन्त ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य का भण्डार है। ब्रह्माण्ड के चक्र को इस प्रकार घुमाता है कि पुराकृत धर्म और अधर्म के अनुसार जीवों को सुख-दुःख का भोग होता रहता है ।
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योगदर्शन में ईश्वर के अधिष्ठान से प्रकृति का परिणाम जड़ जगत् का फैलाव माना है। योगदर्शन में ईश्वर परम पुरुष हैं, जो सभी जीवों से ऊपर और सभी दोषों से रहित है, वह नित्य, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और पूर्ण परमात्मा है। संसार के सभी जीव अविद्या, अहंकार, वासना, राग-द्वेष और अभिनिवेश ( मृत्युभय) आदि के कारण दुःख पाते हैं ।
पुरुष और प्रकृति के संयोग से संसार की सृष्टि होती हैं और दोनों के विच्छेद से प्रलय होता है । प्रकृति और पुरुष दो भिन्न तत्त्व हैं। दोनों का संयोग या वियोग स्वभावतः नहीं हो सकता है। इसके लिए एक ऐना निमित्त कारण मानना पड़ता है जो अनन्त बुद्धिमान हो और जीवों के अदृष्ट के अनुसार प्रकृति से पुरुष का संयोग या वियोग करा सके । जीवात्मा या पुरुष स्वयं अपना अष्ट नहीं जानता, इसलिए एक ऐसे सर्वज्ञ परमात्मा को मानना आव