Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
श्यक है, जो जीवों के अदृष्टानुसार संसार की रचना या संहार कर पुरुष-प्रकृति का संयोग-वियोग कराना रहे । जो यह कार्य सम्पन्न करता है, वह ईश्वर है, जिसकी प्रेरणा के बिना प्रकृति जगत् का उस रूप में विकास नहीं कर सकती, जो जीवों की आत्मोन्नति तथा मुक्ति के लिए अनुकूल हो ।
वेदांतदर्शन में श्री शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र भाप्य में उपनिषद् के आधार पर ब्रह्म को सृष्टि का कारण सिद्ध किया है । भिन्न-भिन्न उपनिषदों में जो राष्ट्रि का वर्णन किया गया है. वह यद्यपि एक जैसा नहीं है, परन्तु इस विषय म प्राय: सभी एकमत हैं कि आत्मा (ब्रह्म या सन्) ही जगत को निमित्त और पादान--दोनों ही कारण हैं । सुष्टि की आदि के विषय में अधिकांश उपनिषदों का मत कुछ इस प्रकार है कि सबसे पहले (आदि में) आत्मा मात्र था । उसमें गंगाम हुआ कि मैं एगेमने होनाऊ शनि की रचना करू; और म सृष्टि की रचना हो गई । ब्रह्म इस सृष्टि का सृजन अपने में विद्यमान माया शक्ति से करता है।
इन सब परिकल्पनाओं के विपरीत जैनदर्शन जीयों से कर्मफल भोगवाने के लिए ईश्वर को कर्म का प्रेरक नहीं मानता है, क्योंकि जैसे जीव कर्म करने में स्वतंत्र है, बम ही उसका फल भोगने में भी स्वतंत्र है। यदि ईश्वर को कर्महल का प्रदाता माना जाये तो स्वयं जीव द्वारा कृतं शुभाशुभ कर्म निष्फल साबित होंगे । क्योंकि हम बुरे कर्म करें और काई द्वारा व्यक्ति चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो क्या हमें सुखी कर सकता है ? इसी प्रकार हम अच्छे कम करें तो क्या वह हमारा बुरा कर सकता है ? यदि हां, तो फिर अच्छे कर्म करना और बुरे कर्मों से डरना हमारा व्यर्थ है, क्योंकि उनके फल का भोग स्वयं जीव के अधीन नहीं है और यदि यह सही है कि हमें अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल स्वयं भोगना पड़ेगा तो पर के हस्तक्षेप की कल्पना व्यथं हैं, क्योंकि जीव स्वयं अपने कुतकर्मों का फल भोगता है
सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीय,कोदयान्मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् । अशरममेतदिह यत्तु परं परस्थ, कुरिपुमान् मरणजीवित दुःख-सौल्यम् ।।