Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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( २३ ) आगे चलती है । उनके अनुसार जीवन सम्बन्धी समस्त प्रवृत्तियों पंचभूतों के संयोग से प्राणी के गर्भ या जन्मकाल से प्रारम्भ होती हैं और आयु के अन्त में शरीर के बिनष्ट हो जाने पर पुनः पंचभूतों में मिलने से उन' प्रवृत्तियों का अवसान हो जाता है । ऐसी मान्यता वाले दर्शनों को भौतिकवादी कहा जाता है ।
इसके विपरीत दुसरे प्रकार के दर्शन ने है, जो मानते हैं कि पंचभूतात्मक शरीर के भीतर एक अन्य तत्त्व-जीन या गात्मा विद्यमान है. और वह अनादिअनन्त है। उसका अनादिकालीन सांसारिक यात्रा के बीच किसी विशेष भौतिक शरीर को धारण करना और उसे त्यागना एक अवान्तर घटना मात्र है । आत्मा ही अपने भौतिक शरीर के माध्यम से नाना प्रकार की मानसिक, बाचिक और काविक क्रियाओं द्वारा नित्य नये संस्कार उत्पन्न करती है. उनके फलों को भांगती है और तदनुसार एक योनि को छोड़कर दूसरी योनि में प्रवेश करती रहती है, जब तक कि यह विशेष क्रियाओं द्वारा अपने को शुद्ध कर इस जन्म-मरणरूप संसार से मुक्त होकर सिद्ध नहीं हो जाती है । ऐसी ही मुक्ति मा सिद्धि प्राप्त करना मानव जीवन का परम उद्देश्य है । इस प्रकार की मान्यताओं को स्वीकार करने वाले दर्शन अध्यात्मवादी कहलाते हैं ।
इन दोनों प्रकार की विचारधाराओं में से कुछ एक अध्यात्मवादी दार्शनिकों ने कर्मफल-प्राप्ति के बारे में जीय को स्वतंत्र भोक्ता न होना तथा सुष्टि को अनादि न मानकर किसी समय सृष्टि का उत्पन्न होना माना है और उत्पत्ति के साथ विनाश का भी समय निश्चित करके उसकी उत्पत्ति और विनाश के लिए किसी न किसी रूप में ईश्वर का सम्बन्ध जोड़ दिया है। उनमें से कुछ एक का दृष्टिकोण इस प्रकार है
न्यायदर्शन में कहा गया है कि अच्छे-बुरे कर्म के फल ईश्वर की प्रेरणा से मिलते हैं। ईश्वर जगन् का आदि सर्जक, पालक और संहारक है। वह शून्य से संसार की सुष्टि नहीं करता वरन् नित्य परमाणुओं, दिक. काल, आफापा, मन तथा आत्माओं से उसकी सष्टि करता है। वह संसार का पोषक भी है, क्योंकि उसकी इच्छानुसार संसार कायम रहता है। वह संसार का संहारक भी है । क्योंकि जब-जब धार्मिक प्रयोजनों के लिए संसार के संहार