Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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विद्वान् ब्राह्मण आदि चार वर्णों और ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमों के नियत कर्तव्य (कर्म) के रूप में, पौराणिक व्रत नियम आदि धार्मिक क्रियाओं के अर्थ में वैयाकरणकर्त्ता के व्यापार का फल जिस पर गिरता है, उसके अर्थ में और वैशेषिक उत्क्षेपण आदि पांच सांकेतिक कर्मों के अर्थ में तथा गीना में क्रिया. कर्तव्य पुनर्भत्र के कारणरूप अर्थ में कर्म शब्द का व्यवहार करते हैं। के लिए वन्द का प्रयोग किया जाता है. उन मिलते-जुलते अर्थ के लिए जनवर दर्शनों में भागा, वासना, आशय, धर्माधर्म अष्ट संस्कार देव, भाग्य
जनदर्शन में जिन अर्थ अथवा उस अर्थ से अविद्या प्रकृति अपत्रं, आदि शब्द मिलते है ।
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दैव, भारत्र पुण्य पाप आदि कई ऐसे शब्द है, जो सब दर्शनों के लिए साधारण से हैं, लेकिन माया अविद्या और प्रकृति के तीन शब्द वेदान्तदर्शन में पाये जाते है । वनका मूल अर्थ करीब पारीब वही है, जिसे जैनगंग में भात्रकमं कहते है |
'अपूर्व' शब्द मीमांसादर्शन में मिलता है। यह दर्शन मानता है कि नां रिक वस्तुओं का निर्माण आत्माओं के पूर्वाजित कर्मों के अनुसार भौतिक तत् मे होता है। कम एक स्वतन्त्र शक्ति है, जिससे संसार परिचालित होता है। जब कोई व्यक्ति यज्ञादि कर्म करता है तो एक शक्ति की उत्पति होती है, उसे 'अपूर्व' कहते हैं। इसी अपूर्व के कारण किसी भी कर्म का फल भविष्य में उपयुक्त अवसर पर मिलता है ।
'वासना' शब्द बौद्धदर्शन में प्रसिद्ध है। बौद्धदर्शन में चार आर्यसत्यों में रो, दूसरे दुःख के कारणों के रूप में द्वारण निदानों को बतलाते हुए कहा है कि पूर्वजन्म की अन्तिम अवस्था में मनुष्य के पूर्ववर्ती सभी कमों का प्रभाव रहता है और कर्मो के अनुसार संस्कार बनते हैं। इन संस्कारों को वा कहते हैं जो क्रमशः चलती रहती है ।
योगदर्शन में भी वासना शब्द का कर्म-पर्याय के रूप में प्रयोग किया गया है । वहाँ ईश्वर का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि संमार के सभी जीव अविद्या, अहंकार, वासना, राग-द्वेष और अभिनिवेश आदि के कारण दुःख पाते हैं ।