Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रस्तावना
कर्मसिद्धान्त का पर्यालोचन
जगत् के मूल पदार्थ दृश्यमान जगत में दो प्रकार के पदार्थ हैं। दोनों का अपना-अपना अस्तित्व, गुण-धर्म और तिजी प्रक्रिया है। उनमें से एक प्रकार के पदार्थ दे हैं, जिनमें इच्छाएँ हैं, भावनाएँ हैं, ज्ञान है एवं सुख-दुख का संवेदन होता है और दूसरे प्रकार के वे हैं, जिनमें प्रथम प्रकार के बताये गये पदार्थों की कोई प्रक्रिया नहीं होती है ।
प्रत्येक तत्त्वचिन्तक ने गुण-धर्मो की मित्रता से इन दोनों प्रकार के पदार्थों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व स्वीकार किया है। विज्ञान की भाषा में प्रथम प्रकार के पदार्थों को सचेतन (जीव ) और दूसरे प्रकार के पदार्थों को अचेतन ( अजीव जड़, भौतिक) कहा जाता है। जीव की क्रिया में जीन स्वयं भावात्मक और क्रियात्मक पुरुषार्थं करता है, जबकि अजीव पदार्थों की क्रिया प्रकृति से होती रहती है। उनकी क्रिया में उनका अपना निजी पुरुषार्थ या प्रयत्न नहीं होता है । यही अन्तर उन दोनों को पृथक्-पृथक् मिद्ध करता है ।
विकार का कारण
प्रत्येक पदार्थ के जब अपने-अपने गुण-धर्म है तब फिर विभिन्नता और विचित्रता दिखने का कारण क्या है ? हम अजीव मिश्रित जीव को ही देखते हैं। दोनों का शुद्ध रूप तो हमें दृष्टिगोचर नहीं होता है । यह एक प्रश्न है, जिसका प्रत्येक तस्वत्विक ने अपने-अपने दृष्टिकोण से उत्तर देने का प्रयत्न किया है ।
प्रत्येक पदार्थ का निजी स्वभाव और उससे मेल खाने वाली क्रिया तथा समान गुण-धर्म वाला पदार्थ सजातीय कहलाता है तथा उस पदार्थ के स्वभाव
इनमें विकार, अजीव अथवा