Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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( २२ ) वे भाँति-भांति के कर्म करते हैं और उनके विपाक या फलस्वरूप सुख-दुःख भोग करते हैं । वे पूर्वजन्म के निहित संस्कारों से भी प्रभावित होते हैं । इन पूर्व जन्म के संस्कारों की परम्परा का दूसरा नाम बासना या कम है। इसके अतिरिक्त योगदर्शन में कर्म का अर्थ प्रतिपादन करने के लिए 'आशय' शब्द का भी उपयोग देखने में आता है। सांसपदर्शन में भी आशय शब्द का प्रयोग मिलता है।
सामान्यतया अन्य दर्शनों में भी धर्माधर्म, अष्ट और संस्कार आवि शब्दों का प्रयोग देखने में आता है । लेकिन मुख्य रूप से दो शब्द न्याय और वैशेषिक दर्शनों में प्रयुक्त हुए हैं।
पुनर्जन्म को मानने वाले आत्मजादी दर्शनों को पुनर्जन्म की सिद्धि के लिए कर्म को मानना ही पड़ता है। लाह उन दर्शनों की भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं के कारण या चनन को रवरूप में मन-भिन्नता होने का कारण कर्म का स्वरूप भिन्नभिन्न गानूम पड़े. न्नुि इतना निश्चित है रिह गभी आत्मवादियों ने पूर्वोक्त मा:: गादि शब्दों में f: मी. से गर्म पाहीकार किया है
जैनदर्शन द्वारा मान्य कर्म शब्द के अर्थ को यथास्थान आगे विशेप रूप माष्ट करेंगे। कर्मविपाक के विषय में विभिन्न दर्शनों का मन्तव्य
कम और कर्मफल का चिन्तन मानव-जीवन की साहजिक प्रवृत्ति है । प्रत्येक व्यक्ति यह देखना चाहता है कि वह जो कुछ भी करता है, उसका क्या पाल होता है ? इसी अनुभव के आधार पर वह यह भी निश्चित करता है कि किन फल की प्राप्ति के लिए उसे कौन-गा बायं करना चाहिए। इस प्रकार मानवीय सभ्यता का समस्त ऐतिहासिक, सामाजिक व धार्मिक चिन्तन किसी न किसी रूप में कर्म व कर्मफल को अपना विचार-विषय बनाता चला आ रहा है ।
कर्म और कर्मफल-सम्बन्धी चिन्तन की दृष्टि से संसार के सभी दर्शनों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है । एक दर्शन वे हैं जो कर्मफल-सम्बन्धी कारण-कार्य-परम्परा को इस जीवन तक ही चलने वाली मानते हैं। में यह विश्वास नहीं करते कि इस देह के विनष्ट हो जाने पर उसके कार्यों को परम्परा