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जैनराजतरंगिणी
हिन्दू-मुसलिम साम्प्रदायिक वैमनस्य के कारण फारसी लिपि मुसलमान तथा नागरी और शारदा हिन्दुओं की लिपि समझी जाने लगी। फल हुआ। मुसलमानों ने शारदा लिपि त्यागकर पूर्णतया फारसी लिपि अपना ली। आज काश्मीर की जनता फारसी लिपि तथा उर्दू जबान में काम करने लगी है। यद्यपि नागरी तथा हिन्दी प्रचार में कुछ प्रगति हुई है। स्वतंत्रता पूर्व, साम्प्रदायिक विष वमन के कारण, हिन्दू काश्मीरी और मुसलिम काश्मोरी मे नाम मात्र लिये भेद हो गये थे। उनमे शब्द प्रयोग एवं उच्चारण की दृष्टि से अन्तर है।
साम्प्रदायिकता का प्रभाव जातियों पर भी पड़ा है। काश्मीर मे चार लिपियां प्रचलित हो गयी है। सबसे अधिक प्रचार फारमी लिपि का है । शारदा का प्रयोग बहुत कम होता है। किस्तवार के लोग टाकरी लिपि का प्रयोग करते थे। परन्तु आजादी के पश्चात् हिन्दुओं में प्रायः नागरी लिपि में कार्य आरम्भ हो गया है । किस्तवार में भी शारदा तथा टाकरी का स्थान देवनागरी लेती जा रही है।
काव्य या महाकाव्य : काव्य या महाकव्य के सिद्धान्तों पर 'कल्ह' तथा 'जोन' राज तरंगिणी भाष्यों में विस्तृत प्रकाश डाल चुका हूँ। कल्हण एवं जोन राजतरंगिणी महाकाव्य है। श्रीवर की राजतरंगिणी काव्य मात्र है। यद्यपि श्रीवर स्वयं लिखता है-'काव्य गुण चर्चा के कारण नहीं, अपितु राज वृत्तान्त के अनुरोध से, सज्जन लोग मेरी वाणी को सुने और अपनी बुद्धि से जोड़े।' (३:५) कवि का सौजन्य है कि वह अपने काव्य को स्वयं काव्य नही मानता । काव्य गुण चर्चा ही वह प्रकट करता है । श्रीवर अपने ग्रन्थ को काव्य मानता था। 'भावी जनों की स्मृति के लिये यह रचना की है। अन्य पण्डित उस पर ललित काव्य की रचना करें। श्रीवर यह कामना करता है' । (३:६) वह अपनी रचना को काव्य तो मानता, परन्तु ललित काव्य नही मानता। उसने स्वयं अपने ग्रन्थ को इतिहास वर्णन लिखा है।
इतिहास भी कल्हण एवं जोनराज कृत राजतरंगिणी के समान काव्य हो सकता है । साहित्यिक दृष्टि से श्रीवर की राजतरंगिणी उच्च कोटि की रचना है, जिसका दर्शन कल्हण तत्पश्चात् जोनराज कृत तरंगिणियों मे प्राप्त होता है। श्रीवर स्वयं कवि, इतिहासज्ञ, ज्योतिषी. नृत्य, गीतकार एवं गायक था। उसने संगीत, नाटय शास्त्र नृत्य आदि कलाओं पर प्रकाश डाला है।
ग्रन्थ मे काव्य प्रतिभा मिलती है। इसमें गुरुत्व है, गाम्भीर्य एवं मर्यादा है। वस्तु प्रतिपादन की सरलता एवं पद लालित्य की विशेषता है । वह घटनाओं का वर्णन संयत एवं गम्भीर भाषा मे करता है। उसकी दृष्टि कहीं संकुचित एवं पूर्वाग्रह पूर्ण नही मालूम पड़ती है। श्रीवर ने जैनुल आबदीन का स्वर्ण युग एवं मुहम्मदशाह का गृहयुद्धों से जर्जरित, अराजक काश्मीर को भस्म होते देखा था। वह सैयिद एवं खान • विप्लव का प्रत्यक्षदर्शी था। उसकी भाषा घटनानुसार बदलती गयी है।
श्रीवर भाव व्यंजना के लिये अलंकार, रस एवं उपमाओं का प्रयोग चातुरी से किया है। शैली में गरिमा है। शैली उदात्त है। पदों में औचित्य है। प्रतिभा है। उपमाओं का नवीनीकरण है। ज्योतिष, आयुर्वेद तथा संगीत शास्त्र के आधार पर उपमाओं का चयन है। श्रीवर रस एवं अलंकारों में पाठकों को न तो उलझाता है और न स्वयं उलझता है। घटनावलियों को सरल सुस्पष्ट भाषा में उपस्थित करता है। उनके समझने में कठिनता नही होती। अपना पाण्डित्य पद मे तथा भाव व्यंजना में अवश्य दिखाया है। उसके पदों में जीवन है। रस है। प्राण है। उसका काक्य प्रबन्ध काव्य है। पात्रों का