________________
१:५ : ४७-५० ]
श्रीवरकृता
मद्य पुष्करिणीमध्यसंक्रान्तः
स्वादलिप्सया ।
यत्रेति द्विजराजोऽपि योगिचक्रान्तरे ध्रुवम् ॥ ४७ ॥
४७. पुष्करिणी मध्य योगिचक्र के अन्दर प्रतिबिम्बित, चन्द्रमा भी जहाँ, स्वाद की लिप्सा से ही आता था ।
योगसहस्रं दीक्षणम् ।
भूपतिर्भोजयन् निष्कम्पमकरोन्नित्यं किं तृप्त्या किं समाधिना ।। ४८ ।।
४८. राजा ने सहस्त्रों योगियों को आँख मून्दने तक, (पूर्ण तृप्ति पर्यन्त) भोजन कराकर, निःकम्प कर दिया, फिर तृप्ति एवं समाधि से क्या लाभ ?
आहारमनु aratarair
रसवतीश्रिया ।
दिवीव क्रियते यत्र सर्वा रसवती प्रजा ॥ ४९ ॥
४९. तीव्र उदय होती, कीर्तिशालिनी, रसवती' श्री ने स्वर्ग के समान, आहार के पश्चात, जहाँ पर सब प्रजा को रसवती बना दिया ।
पाद-टिप्पणी :
पाठ - बम्बई ।
पक्वान्नराशयोsar विभ्रत्यभ्रभ्रमच्छ प्रशरदभ्रश्रियोपमाम्
१५१
एक बाग बनवाया था। वह दो वर्ग मील मे फैला था । इसमें तरह-तरह के दरख्त और फूल लगवाये थे । इसके चार कोनों पर चार आलीशान इमारत बनवा कर इस बाग को अजूब रोजगार कर दिया था। इस बाग के इर्द-गिर्द उमरा व अराकीन सल्तनत की ऊँची-ऊँची कोठियां थी, जो फूल और फुलवारी से सजी हुई थी ( पृष्ठ : १७४ ) । वाटिका शब्द बाग का ही संस्कृत रूप है । मेरा अनुमान है कि श्रीवरकालीन जैनवाटिका यही बाग है, तथापि इस पर और अनुसन्धान की आवश्यकता है। पीर हसन और लिखता है - ' इस बाग की तमाम पैदावार और आमदनी उलमा और फजला को बतौर जागीर बश दी थी' ( पृष्ठ १७५ ) ।
यत्राभ्रमुभ्रमप्रदाः ।
11 Go 11
५०. जहाँ पर, ऐरावत' की पत्नी का भ्रम उत्पन्न करनेवाली, प्रचुर पकी अन्न राशियाँ, आकाश में घूमते शुभ्र शरद ऋतु के मेघ के समान शोभित हो रहे थे ।
प्रथम पद श्लोक के प्रथम चरण का पाठ संदिग्ध है ।
४७. (१) योगीचक्र : एक मत से यह स्थान श्रीनगर का जोगी लंकर स्थान है। रैनवारी तथा मार नहर के समीप है । पाद-टिप्पणी
:
पाठ - बम्बई |
४९. ( १ ) रसवती : शुद्ध स्वरवती रागिनी या रसपूर्ण एवं रसीली । रसवती का अर्थ रसोईघर भी होता है ।
पाद-टिप्पणी :
पाठ - बम्बई
उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का ४३६ व तथा बम्बई का ५०वां श्लोक हैं ।
५०. ( १ ) ऐरावत : देवराज इन्द्र का हाथी