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सप्तमः सर्गः दाता भवेत् क्षितिपतिर्यदि सादरोऽयं
लोकोऽपि दर्शयति तत् स्वकलाकलापम् । वर्षासु वर्षति घनो यदि चातकोऽपि
नृत्यन् मुदा भवति तज्जनरञ्जनाय ॥१॥ १. यदि क्षितिपति सादर दाता होता है, तो यह लोक भी अपना कला-कलाप दिखाता है। यदि वर्ष में मेघ बरसता है, तो चातक भी प्रसन्नता से नाचते हए, लोगों का मनोरंजन करता है।
अथोत्तरपथाद् दानख्यातकीर्तेर्महीभुजः ।
रज्जुभ्रमणशिल्पज्ञः कोऽप्यागात् यवनोऽन्तिकम् ॥ २ ॥ २. दान-प्रसिद्ध कीर्तिशाली महीपति के समीप उत्तरपथ से रस्सी पर चलने की कला जाननेवाला कोई यवन' आया।
पाद-टिप्पणी:
उत्तर-भारत से आकार मे बड़ा और रंग में चित्रउक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५२७वी विचित्र होता है। मादा चातक का रंग-रूप सर्वथा पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का १ला श्लोक है।
एक समान होता है। १. (१) चातक : तोतक, मेघजीवन, शारंग,
चातक वृक्ष पर मनुष्य की दृष्टि से छिपा बैठा स्रोतक, पपीहा पर्यायवाची नाम है। वर्षाकाल में
रहता है। वृक्ष से कम उतरता है। चातक की धनपूर्ण नभ को देखकर, बहुत बोलता है । इसके वाणी रसमयी तथा उसमे कई स्वरों का समावेश विषय मे प्रसिद्धि है कि वह नदी, सरोवर आदि का होता है । पिक की बोली से भी अधिक मधुर होती संचित जल नही पीता। केवल मेघ का बरसता
है। चैत्र मास से भाद्रपद तक चातक की बोली सुनायी पानी पीता है। एक मत है कि वह केवल स्वाती पडती है। कामोद्दोपक होती है। प्यासा रहकर मर नक्षत्र का वर्षा जलबिन्दु ही ग्रहण करता है। जाना पसन्द करता है परन्तु जीवन रक्षा के लिए अतएव वह मेघ की ओर देखता, उससे जल की संचित पानी का पान नही करता-सूक्ष्मा एव याचना करता है। वर्षा की बूंदें देखकर प्रसन्न हो पतन्ति चातक मुखे द्वित्राः पयो विन्दवः-(भूर्त० : जाता है। कथा है कि बादल उठने पर यह चंचु २:१२१)। इसके इस अटल नियम, मधुर बोली पसारे, मेघ की ओर इस आशा से देखता रहता है पर कवियों ने बहुत कुछ लिखा है। कि कुछ बूंदें उसके मुख में पड़ जाय ।
पाद-टिप्पणी: देश-भेद से यह कई प्रकार का पाया जाता है। उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५२८वीं उत्तर-भारत में श्यामा पक्षी के बराबर मटमैला या पंक्ति है। हलका काला होता है । दक्षिण-भारत का चातक २. (१) यवन : नट । उत्तर भारत में रस्सी