________________
२४१
१ . ७ : २३६-२४१]
श्रीवरकृता जित्वारीन् प्रबलान् रणे क्षितिमिमां वृत्वा धनैः सर्वतो
दत्त्वा कोशमशेषदेशविदिताः कृत्वा पुरीः स्वाभिधाः । सप्ताङ्गोर्जितभङ्गिसङ्गिसुभगंकृत्वापि राज्यं चिरं
__ हित्वा सर्वमहो पटैकरचनामन्ते लभन्ते नृपाः ॥ २३६ ॥ २३६. रण में प्रबल शत्रुओं को जीतकर, इस पृथ्वी को सब ओर से धनपूर्ण कर, कोष देकर, सब देशों मे प्रसिद्ध अपने नाम की पुरी निर्मित कर, सप्तांगों से अजित एवं सुभग राज्य का चिरकाल तक भोग कर, दुःख है कि नृप सब कुछ त्याग कर, अन्त में केवल एक वस्त्र प्राप्त करते हैं।
स वैरराज्यदावाग्निसन्तप्त इव शीतलाम् ।
तद्गुहान्तरमासाद्य सुखनिद्रामिवाभजत् ।। २३७ ।। २३७. बैरपूर्ण राज दावाग्नि से संतप्त सदृश होकर, शीतल उस गुफा ( कब्र ) में जाकर, मानों उसने सुख की नींद ली।
मुखं निद्रावृतस्येव दृष्ट्वा सौभाग्यसुन्दरम् ।
हाज्यिखानोऽकरोत् पित्रे मस्तकं स्वमरात्रिकाम् ॥ २३८ ।। २३८. निद्रित सदृश उसके सौभाग्य सुन्दर भाव को देखकर, हाजी खान ने अपने पिता के लिये अपने मस्तक से आरती की।
अपराद्धं मया तात बहुशः पापबुद्धिना ।
मन्ये तेनैव रुष्टस्त्वमसहायो गतो दिवम् ।। २३९ ।। २३९. 'हे ! तात !! मुझ पाप बुद्धि ने बहुत अपराध किया, मानों उसी से रुष्ट होकर, तुम असहाय ( अकेले ) स्वर्ग चले गये।
शेकन्धरनृपो धन्यो यस्त्वां पश्यति नाकगः ।।
धिङ्मा यो वञ्चितो राजन् दर्शनामृतवर्षणैः ।। २४० ।। २४०. 'हे ! राजन् !! नृप शेकन्धर ( सिकन्दर ) धन्य है, जो स्वर्ग जाकर, तुम्हें देख रहा है। मुझे धिक्कार है, जो दर्शनामृत वर्षणों से वचित रहा।
विहृतं क्वापि नो तात मां विना स्वोत्सवक्षणे ।
वदाद्य कथमेकाकी भजसे स्वर्गसंपदः ।। २४१ ।। २४१. 'हे ! तात !! अपने उत्सव के क्षण में भी कहीं मेरे बिना क्रीड़ा नहीं की, बोलो ! आज कैसे एकाकी ( अकेले ) स्वर्ग सम्पत्तियाँ भोगोगे ?
पाद-टिप्पणी: २३७. 'तदगुहा' पाठ-बम्बई ।
जै रा. ३१
पाद-टिप्पणी :
२४१. 'स्वो' पाठ-बम्बई ।।