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श्रीवरकृता
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बहराम खाँ की दुर्बुद्धि :
श्रुत्वेति भाषितं तस्य कोपरूक्षाक्षरोऽब्रवीत् ।
सुस्निग्धो जनकस्त्यक्तस्तादृक्कल्पद्रुमोपमः ।। १८३ ॥ १८३ उस प्रकार उसकी बात सुनकर, क्रोधपूर्वक रूखे शब्दों में बोला-'सुस्निग्ध तथा कल्पद्रुमोपम पिता को त्याग दिया
सदैवादमखानः स बाधितस्तदुपाधिभिः ।
परलोकमनालोच्य स्वार्थं संत्यज्य दूरतः ॥ १८४ ।। १८४. 'आदम खाँन उसके उपद्रवों से सदैव पीड़ित रहा, परलोक का बिना विचार किये तथा स्वार्थ को दूर त्यागकर
अस्वस्थः स यथा भ्राता सेवितः सततं मया ।
जानात्येवं न को राज्यं यथा तस्य मयार्जितम् ।। १८५ ।। १८५. 'अस्वस्थ उस भाई की निरन्तर मैने जैसी सेवा की है, उस प्रकार मैने उसका राज्य जैसे प्राप्त किया, उसे कौन नहीं जानता?
कोऽयं मद्भातपुत्रोऽद्य वद कैवास्य योग्यता ।
अस्मिन् मत्पैतृके राज्ये योग्यो मदपरस्तु कः ॥ १८६ ॥ १८६. 'बोलो ! आज यह कौन मेरा भातृपुत्र है ? अथवा उसकी क्या योग्यता है ? मेरे इस पैतृक राज्य के लिये मेरे अतिरिक्त दूसरा कौन योग्य है ?
स कनीयानहं ज्येष्ठो वयसा च गुणेन च ।
पृथिव्यां वीरभोग्यायां साम्नः कोऽवसरोऽधुना ॥ १८७ ॥ १८७. 'वह आयु एवं गुण से वह छोटा और मै ज्येष्ठ हूँ किन्तु वीरभोग्या वसुन्धरा में आज साम' का कौन अवसर है ?'
पाद-टिप्पणी :
खुश कर अपने पक्ष में मिला अथवा अपने अनुकूल १८७. (१) साम : सुलह = सन्धि = साम, काम निकाल लिया जाय । नीति वाक्यामृत मे दाम, दण्ड भेद, शत्रु पर विजय पाने के लिये उपाय साम के चार प्रकार बतायें हैं। परन्तु साधारणतः चतुष्टय माने गये है। मनु केवल दो उपाय साम साम के पाँच प्रकार माने जाते है। (१) परस्पर एवं दण्ड मानते है ( मनु : ८ । १००-१०९; याज्ञ- अच्छे व्यवहार की चर्चा । (२) पराजितों के गुण वल्क्य : १:३४५: मत्स्य० : २२२ : २-३; सभा०: एवं कर्म की प्रशंसा । (३) पारस्परिक सम्बन्धों की ५ : २१.६७ अर्थ०:२:१० : ७४ )। साम घोषणा । (४) भविष्य के शुभ प्रतिफलों की उपाय का अभिप्राय है कि शत्रु को प्रसन्न एवं सन्तोष घोषणा। (५) मै आपका हैं आपकी सेवा में देकर मधुर एवं आकर्षक प्रिय बातों से मोहित तथा प्रस्तुत हूँ।