Book Title: Jain Raj Tarangini Part 1
Author(s): Shreevar, Raghunathsinh
Publisher: Chaukhamba Amarbharti Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः॥ चौखम्बा अमरभारती ग्रन्थमाला Script श्रीवर-कृत जैन-राजतरङ्गिणी ( तरंग १ तथा २) ( आलोचनात्मक भूमिका, ऐतिहासिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक अध्ययन, तथा हिन्दी अनुवाद सहित) लेखक डाँ० रघुनाथ सिंह एम. ए., एल. एल. बी., पी-एच. डी., डी. लिट्, एफ. आर. ए. एस.. ( लन्दन ) खण्ड १ तीनः सुभगाम Sanौरव गान594 भारती चौरवम्बा अमरमारती प्रकाशन,वाराणसी १९७७ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : चौखम्बा अमरभारती प्रकाशन, वाराणसी मुद्रक : वर्द्धमान मुद्रणालय, वाराणसी संस्करण: प्रथम, वि० सं० २०३३ मूल्य : १२५-०० चौखम्बा अमरभारती प्रकाशन के० ३७/११८, गोपाल मन्दिर लेन पो० बा० १३८, वाराणसी - २२१००१ ( भारत ) अपरं च प्राप्तिस्थानम् चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस के० ३७/९९, गोपाल मन्दिर लेन पो० बा० ८, वाराणसी - २२१००१ ( भारत ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHAUKHAMBA AMARABHARATI GRANTHAMALA 11 JAINA-RAJATARANGINI of SRIVARA ( Taranga I & II ) ( Translation with critical introduction, historical, cultural and geographical notes in Hindi ) By Dr. Raghunath Singh M.A., LL.B., Ph.D., D. Litt. R. A. S. (London) Part 1 Chaukhamba Amarabharati Prakashan Varanasi-221001 ( India ) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher Chaukhamba Amarabharati Prakashan K. 37/118, Gopal Mandir Lane Post Box 138, Varanasi-221001 (India) 1977 First Edition 1977 Price Rs. 125-00 Also can be had of Chowkhamba Sanskrit Series Office Qriental Publishers & Book-Sellers Post Box No. 8 K. 37/99, Gopal Mandir Lane, Varanasi-221001 (INDIA) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीयपरम्परागतनारीधर्मपरिपालनपरायणायाः, ऐहिकसुखदुःखावस्थाप्रभावितान्तःकरणायाः, अस्मद्धर्मपत्न्याः , श्रीमत्या लीलावतीदेव्याः प्रीतये इदं पुस्तकप्रसूनम् Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० अक० अग्नि० अथ ० अनु० अमर० अयोध्या ० अरण्य० अर्थ • अल्वेरुनी ० आ उ० उत्तर० उत्तर मी० उद्योग० ऋ० ऋतु ० क० कम्प्रि ० कर्ण ० आ०पु० आई० ई० आइन० आजम० आप०ध० आश्व० : इपिग्राफिका इण्डिका ई० आई० इण्ड एण्टी ० : इण्डियन एण्टीक्वेरी O : उर्दू अनुवाद पीरहसन : उत्तरकाण्ड : बा० : उत्तरमीमांसा : उद्योग पर्व ऋग्वेद कलि० : अध्याय : अकबर नामा : अग्निपुराण अथर्व वेद कल्ह ० कमीर० का० संकेत-सूची : अनुशासन पर्व : अमरकोश : अयोध्या काण्ड रामायण बा० : अरण्य काण्ड रामायण : बा० : अर्थशास्त्र : कौटिल्य : अल्वस्नीय इण्डिया : आदि पर्व आदिपुराण : इण्डियन एपिग्राफिक : आइने अकबरी : जरेट : बाकयाने कश्मीर : आपस्तम्ब धर्मसूत्र आश्वमेधिकपर्व ऋतुसंहार : कलकत्ता संस्करण : राज० कम्प्रिहेन्सिव हिस्ट्री : कर्ण पर्व कलिगताब्द : कल्हण : राजतरंगिणी : लेखक : जी०डी० एम० सूफी : कादम्बरी . काम० का०सू० काव्य ० कि० कुछ 知 कैम्ब्रिज ० ख० गी० गीता ० जै० सि० जैन० बोन ० तवक्कात ० ता० रशीदी ता० हसन टीपं● वि०सार दत्त० दुर्गा० द्र० द्रो० नाट्य० नारद० निज्जर ० नृसि० नं० परमू० परा० पाण्डु ० पीर० : कामन्दक : कामसूत्र : काव्य-रचना : किष्किन्धा काण्ड रामायण : बा० : कुमार सम्भव : कूर्म पुराण : कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इण्डिया : खण्ड : गीत गोविन्द : भगवद् गीता : जैनसिद्धान्त कोश : श्रीवर राज० लेखक : जोनराज राज० : लेखक : तवक्काते अकबरी : मिर्जावर दुधात कृत : तारीखे पीरहसन कश्मीर तीर्थ संग्रह साहेबराम : त्रिलोक सार : जोगेशचन्द्र दत्त अनु० राज० : दुर्गाप्रसाद रा० : द्रष्टव्य : द्रोण पर्व : नाटयशास्त्र नारद स्मृति : पंजाब अण्डर सुल्तान नृसिंह पुराण : नैषध : डा० आ० के, हिस्ट्री आफ मुसलिम रूल इन इण्डिया : परासर माधवीय : पाण्डुलिपी : पीर गुलाम हसन : ता० कश्मीर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : पुराण रघु० : रघुवंश प्रा० : प्रायश्चित सार रशीदी० : तारीखे रशीदी फिरिश्ता : मुहम्मद कासिम : ब्रिग्गस रा० स० : राजतरंगिणी संग्रह : लेखक फो० : फोलियो ला० : वैली आफ कश्मीर : लारेन्स ब० : बम्बई संस्करण : राज० लिंग० : लिंग पुराण ब० शा० : बहारिस्तान शाही लोक० : लोकप्रकाश क्षेमेन्द्र : कश्मीर स० बाल० बालकाण्ड रामायण : वाल्मीकि लौ० : लौकिक या सप्तर्षि वर्ष बा०-रा० : वाल्मीकि रामायण वन० : वन पर्व ब्रह्म० : ब्रह्म वैवर्त पुराण वाइन० : जी०टी० वाइन्स : ट्रेवेल्स ब्रह्म : ब्रह्माण्ड पुराण वाज : वाजसनेयी संहिता वृहत् : वृहत् संहिता वायु० : वायुपुराण भविष्य० : भविष्य पुराण विक्र० : विक्रमांक देवचरित भा० : भागवत पुराण विलसन० : हिन्द हिस्ट्री ऑफ कश्मीर भीष्म० : भीष्म पर्व विष्णु० : विष्णुपुराण भृति० : भृति हरिशतक त्रयम् विष्णुधर्मो० : विष्णु धर्मोत्तर पुराण म० : महाभारत वैकट० : क्रोनोलोजी ऑफ कश्मीर : वेंकटाचालम : मत्स्यपुराण शक्ति० : शक्ति संगमतन्त्र मनु० : मनुस्मृति शा० : शान्तिपर्व महा० : महावंश शिशु० : शिशुपाल वध मा० : मातंग लीली शुक० : शुक राजतरंगिणी : लेखक मार्क० : मार्कण्डेय पुराण श्रीकण्ठ० :श्रीकण्ठ चरित माहा० : माहात्म्य समय० : समयमातृका : क्षेमेन्द्र माल. : मालवकाग्नि मित्र सभा० : सभा पर्व मुद्रा० : मुद्रा राक्षस सर्वा० सर्वावतार मर मरक्राफ्ट : ट्रेवेल्स इन हिमालयन वै० : वैशेषिक दर्शन प्रोविन्सेज आदि प्रविन्सज आदि श० : शकुन्तला नाटल मेघ० : मेघदूत स्कन्द० : स्कन्ध पुराण मोहबुल० : मोहबुल हसन, कश्मीर अण्डर सुल्तान्स स्तीन० : क्रोनिकल्स ऑफ किंग्स ऑफ कश्मीर मौ० : मौसल पर्व हर हरचरित चिन्तामणि म्युनिख० : म्युनिख पाण्डुलिपि : तारीखे कश्मीर हसन० : हसन विन अली कश्मीरी याज्ञ० : याज्ञवल्क्य स्मृति ह०व० : हरिवंश पुराण योगवा० : योगवासिष्ठ रामायण है०मल्लिक : हैदरमल्लिक चादुरा नोट-१:१ ४७ जहाँ पुस्तक का नाम नहीं है, उसे श्रीवर राजतरंगिणी समझना चाहिए । २:१०१ , तरंग दो ३:६० " तरंग तीन ४:११२ तरंग चार राजतरंगिणी जहाँ केवल रा० संकेत है उसे कल्हण कृत राजतरंगिणी समझना चाहिए। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची श्रीवर राजतरंगिणी धरातल उद्गम तरंग जैनुल आबदीन प्रथम तरंग सर्ग १-६० ६१-७३ ७४-११४ ११५-१३५ १३६-१७२ १७३-१८४ १८५-२५१ २५२-३११ हैदरशाह द्वितीय तरंग Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरातल ग्रन्थ कथा: दशक बीता। भाष्यों की कक्षा शेष हयी। आठ खण्डों की गाथा शेष हुयी। पृष्ठों की कहानी शेष हुयी। दूसरों की गाथा गाकर । दूसरों की कहानी जगाकर। अपनी कहानी बन्द कर । दूसरों की कीर्ति गुनगुनाकर । अपनी शेष कर । दूसरों का यश जीवित कर । अपना शेष कर । लेखनी शान्त हुयी । परिश्रान्त उगलियोंने विश्रान्ति ली । ग्रन्थों की श्रृंखला विदा हुयी । कागजों का रंगना रुका । अपना भार उतरा । मन हलका हुआ। बीतता-बीत गया। रह गया, उनका साक्षी बन कर । दुनिया रूठी । राजनीति रूठी । लक्ष्मी रूठी । पद के साथी रूठे। उनकी रूठी लहरों में तैरता गया । डूबता गया । उतराता गया। खिंचता गया । भारती की ओर । लगा एकाकी किनारे । स्मृतियों ने झकझोरा। आकर्षणों ने झकझोरा। मोह ने झकझोरा। सबने झकझोरा। जिसने पाया। उसने झकझोरा । प्राक्तन संस्कार मुसकुराया। हाथ फैला न सका। जवान खोल न सका । लड़खड़ा न सका । गिर न सका । दुनिया हँसी । समाज हँसा । साथी हँसे । मैं खतम हो गया । आँखें खुलीं । सहमती हुई। छिपती हुई। कतराती हुई। लेकिन देखा। खतम हुये, हाथ फैलानेवाले । खतम हये, जबान खोलनेवाले। खतम हये. बिकनेवाले। खतम हुये, खरीदनेवाले । खतम हये, उठनेवाले । खतम हुये, गिरानेवाले । यह खतम, खात्मे की ओर न ले जा सका। सूरज छिपता है। अन्धेरा होता है। बिजली बिगड़ती है। अन्धेरा होता है। दीपक बुझता है। अन्धेरा होता है। दुनिया में अन्धेरा होता है। बाहर अन्धेरा होता है। भीतर अन्धेरा होता है। लेकिन अन्धे को न अंधेरा है, न उजाला। दो आँखें खुली रहती हैं। देखती हैं। चमकती हैं। मन्द पवन बहता है। धूल उड़ती है । आँखें बन्द होती हैं । पद, लोलुप ग्रहण लगता है। खुली आँखें नही देखती। स्पर्धा ज्वाला लपलपाती है । खुली आँखें फिर जाती हैं। उज्ज्वल हीरा भस्म होता है। चमकता सोना भस्म होता है । यौवन भस्म होता है। सुन्दर काया भस्म होती है। भस्म बन जाता है, त्रिनेत्र का त्रिपुण्ड । उद्घोषित करता-सत्व, रज, तम; उत्पत्ति, स्थिति, संहार; ब्रह्मा, विष्णु, महेश; द्रष्टा, दृश्य, दर्शन; इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना; ऋग, यजु, शाम; धर्म, अर्थ, काम; मन, वाणी, कर्म; जाग्रत, स्वप्न, शुसुप्ति; अ, ऊ, म; भूत, वर्तमान, भविष्य; प्रातः, मध्याह्न, सायं; बात, पित्त, कफ; हड़, बहेड़ा, आँवला; गंगा, यमुना, सरस्वती; स्वर्ग, मर्त्य, पाताल; क्षय, स्थान, वृद्धि; क्रोध, मोह, लोभ; बुद्ध, संघ, धर्म; पिता, पुत्र, पवित्रात्मा का रहस्य । तीसरी आँख है। देखती है। एक आँख से। दो से हटकर । द्वैध से हटकर । द्वैत से कटकर । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी दुविधा से हटकर। करती है, करुणा का दर्शन । करती है, अपना दर्शन । दर्शनों के उलझनों से हटकर । त्रिगुणों से हटकर । त्रिजगत से हटकर । त्रिशक्ति से हटकर । उसमें सब कुछ मिलता है। जो मिल सकता है। जो अपना है। जो स्वाती जल है। गंगा जल है । मेघ जल है। उसे छोड़ सागर जल कौन ले ? स्वाभिमान जीवन है । दैन्य मृत्यु है । स्वाभिमान आशा है । दैन्य निराशा है। स्वाभिमान भविष्य है। दैन्य वर्तमान है । स्वाभिमान संघर्ष है। दैन्य पलायन है । स्वाभिमान दिन है। देन्य रात है । स्वाभिमान विश्वास है । दैन्य प्रवंचना है। स्वाभिमान अचल है। दैन्य चंचल है। स्वाभिमान अनुशासन है । दैन्य फिसलन है। स्वाभिमान ऊर्ध्व गति की पराकाष्ठा है। दैन्य अधोगति की चरम सीमा है। स्वाभिमान उत्थान सोपान है । स्वाभिमान प्रेरणा है । दैन्य उत्साह का अभाव है। स्वाभिमान पुरुषत्व है। दैन्य क्लीबता है। अनजाने स्वाभिमान ने मुझे पकड़ लिया। बांध लिया। बन्धन में सुख मिला। वह सुख मिला । जो वैभव त्यागने पर, कमण्डल में मिलता है । सरस्वती या लक्ष्मी: काया, जीर्ण होती चली गयी। जीर्ण काया से, सरस्वती उपासना की ओर, जितनी सत्वर गति से बढ़ता गया, लक्ष्मी उससे भी अधिक सत्वर गति से विमुख होती गई। सरस्वती की धारा मरुस्थल में शीतल-हिमालय से चलकर लोप होती है । लक्ष्मी की धारा हरी-भरी सुहावनी भूमि में लोप होती है। सरस्वती की धारा, लोप होते-होते शताब्दियां बीत जाती हैं। किन्तु लक्ष्मी की धारा मुहर्त मात्र में लुप्त होती है। चंचल लक्ष्मी, साथ त्यागने पर, उलटकर ताकती नहीं, दरिद्रता गले मढ़ती है। किन्तु सरस्वती से कहती जाती है, कहती रहती है, जीवन के उदात्त गुणों को। पंकिल भूमि से उज्ज्वल कमल निकलता है। सरोवर में हंस विहरता है। परमहंस होने पर, शरीर पर एक सूत न होने पर, मानव स्वरस्वती की वाणी सुनता है। उनमें पाता है, अपना रहस्य, जगत का रहस्य, जीवन का रहस्य । और लक्ष्मी ? उनका वाहन उलूक ? वह रात्रिचर है । हिंसक है । अशुभ है । घिनौना है। क्रूर है । वैसा ही है, जैसा पूंजीपति । जैसा राजकोश उपासक । जैसा जगत को, जड़ रुपये से खरीदने वाला, घोर मनुष्य । राज्य का राजकोश राज्य के सप्तांग में एक है। एक शक्ति है। सरस्वती एक राज्योंग नहीं बन सकी। लक्ष्मी रत्नभार से दबी है। स्वर्ण मुकुटों से वेष्ठित है। उसके उपासक रत्नों से, आभूषणों से, मुद्राओं से, दबे हैं । किन्तु रत्न स्वर्णादि जीवनशून्य है। चकाचौंध पैदा करते हैं। उनमें अनुप्राणित करने की शक्ति नहीं होती। विनिमय के साधन हैं। खरीदे और बेचे जाते है। लूटे और उताये जाते हैं । उनमें स्थिरता नहीं है। उनकी स्थिरता भौतिकता पर है। शक्ति क्षीण होते ही। लक्ष्मी लात मार कर, बिछुड़ जाती है। पाद प्रहार से मनुष्य हीन हो जाता है। जड़ता भी जड़ हो जाती है। विराग झंकरित होता है। हृदय झंकरित होता है। उत्साह झंकरित होता है। स्फति झंकरित होती है । ज्ञान-विज्ञान झंकरित होते हैं। तन्त्री वाद्य में, सत्व संगीत में, सात्विक भावनाएँ उठती हैं। तम तिरोहित होता है । सत्व उठता है । सत्व के साथ मानवता उठती है । निःसन्देह, इस दशक में सरस्वती के दर्शन मिलते रहे । श्रम अपना था। निःसंकोच उपयोग कर सकता था। अर्थ की समस्या विषम थी। कोई लिपिक नहीं था। सहायक नहीं था। टाइपिस्ट रखने की स्थिति में नहीं था। अपने हाथों करना था। नोट बनाता था । प्रारूप तैयार करता था। अन्तिम रूप देने में एक ही विषय कई बार कागज काला करते थे। प्रफ देखना सरल काम नहीं था। उसे भी देखता रहा। हस्तलिखित कागजों के गठर तैय्यार हो गये थे। उन्हें Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ५ देख कर सिहर उठता हूँ । इतना परिश्रम इस जीवन में अकेले अब न हो सकेगा । गठ्ठरों को बस्तों में सुला दिया। उनसे छुट्टी मिली। राजनीति से अवसर प्राप्त, राजनीतिज्ञों के समान, अवसरवादियों के अवसर समाप्त होने के समान, अतीत की सुखद स्मृतियों में घूमते रहना लम्बी साँस लेते रहना, पुरानी बातों को दुहराते रहना, आत्मलाषा करते रहना, पदप्राप्ति की अभिलाषा बनाये रखना मेरी प्रकृति के अनुकूल नहीं पड़ा। मैं सन् १९२१ से ही जेलयात्रा करते, राजनीतिक उधेड़बुन में रहते, आशा-निराशा में झूलते दुःख-सुख, भायअभाव, उतार-चढ़ाव में रमने का आदी हो गया हूँ । दश वर्ष के लम्बे काल में अपने लिये, अपने सुख साधान के लिये मैंने न तो मुख खोला और न किसी ने मुझे स्मरण करने की कोशिश की। जैसे-जैसे दिन बीतता गया, मेरी दुनिया संकुचित होती गयी । 1 किसी का उपकार करने की स्थिति में नहीं था । किसी पर अहसान करने की स्थिति में नहीं था । राजनीतिक अधिकार रहित था । पचास वर्ष के लम्बे राजनीतिक जीवन के साथी, जेल के साथी, मेरे प्रति एक प्रकार से उदासीन हो गये थे 'मैं भी राजनीतिक पीड़ित या स्वतंत्रता सेनानी' को पेंशन लेकर, उनकी श्रेणी में बैठ नहीं गया, यह बात उन्हें अखरती थी। उनकी पंक्ति, उनके वर्ग के बाहर था । बनारस में दो ही चार जेलयात्री घोष रह गये थे, जिन्होंने पेंशन लेकर जनता की गाढ़ी कमाई पर सुखद जीवन निर्वाह करना पसन्द नहीं किया। सत्ताधारियों की लम्बी कतार में बैठना, हाँ मैं हाँ मिलाना, उनके अनुग्रहों से अनुगृहीत होना, गंवारा नहीं किया। मैंने देश के लिये काम किया था। उसके लिये स्पाग किया था। । उसका पुरस्कार प्राप्त कर, अपने कुटुम्ब के लम्बे सन् १८८८ ई० से होते, गतिशील राजनीतिक जीवन में एक ऐसी कड़ी नहीं जोड़ना चाहता था, जो किसी प्रकार अशोभनीय मानी जाती । प्रयोजन : राजतरंगिणी श्रृंखला में श्रीवर कृत जैनराजतरंगिणी तृतीय राजतरंगिणी है । कलबत्ता तथा बम्बई मुद्रित संस्करणों में तृतीय राजतरंगिणी शीर्षक है। जैनराजतरंगिणी नाम श्रीवर ने ग्रन्थ का स्वयं रखा है ( १:१:१८) | अस्तु ग्रन्थ का शीर्षक जैनराजतरंगिणी है । प्रारम्भ में कल्हण राजतरंगिणी भाष्य एवं अनुवाद की मेरी योजना थी । अन्तिम काश्मीरी हिन्दू शासिका कोटा रानी के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्तियाँ हैं । भ्रान्ति के शमनार्थ मैने जोनराज का अध्ययन आरम्भ किया । अध्ययन का फल जोनराजतरंगिणी भाष्य एवं अनुवाद है । जोनराज के भाष्य तथा अनुपाद पश्चात् श्रीवर तथा शुक भाष्य एवं अनुवाद की योजना बनायी । यह भाष्य साहित्यिक एवं काव्य दृष्टि की अपेक्षा ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं सामाजिक दृष्टि से लिखा गया है । अंग्रेजी में ग्रन्थ लिखता, तो महत्त्व, बिक्री तथा प्रसिद्धि अधिक होती। मेरी मातृभाषा हिन्दी है। विदेशी भाषा में लिखना अच्छा नहीं समझा। सम्भव है, कालान्तर में अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत करने का प्रयास में या मेरे पश्चात् कोई महानुभाव करें, तो वे विश्व के कोने-कोने में ग्रन्थ पहुंचाने का श्रेय प्राप्त करेंगे के वर्ष वर्ष तत्व चिन्तन में व्यतीत करना चाहता है। 1 में स्वयं अनुवाद करने में असमर्थ हूँ जीवन पाठ : कलकत्ता (सन् १८३५ ई० ) तथा बम्बई ( सन् १८९६ ई० ) दो संस्करण नागरी में मुद्रित हैं । राज तरंगिणी को प्रकाश में लाने का श्रेय श्री मूर क्राफ्ट इंगलिश पर्यटक को है । उसी से प्राप्त पाण्डुलिपि के आधार पर कलकत्ता संस्करण हुआ है। श्री पीटरसन द्वारा सम्पादित बम्बई संस्करण श्री दुर्गा प्रसादजी का Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी है। कलकता संस्करण मूल के अत्यन्त समीप है। पुरानी संस्कृत शैली स्वीकार की गयी है। मूल जैसा प्राप्त था, उसे बंगदेशीय पण्डितों के सहयोग से एशियाटिक सोसाइटिक ने बैयटिस्ट मिशन प्रेस कलकत्ता में मुद्रित कराया था । मुद्रण कला आज से १५० वर्ष उतनी विकसित नहीं थी, जितनी आज है । अतएव कुछ त्रुटियाँ मुद्रण के कारण रह गयी हैं । परन्तु वे नगण्य हैं । दुर्गा प्रसाद जी ने अपने संस्करण में कुछ सुधार किया है। किन्तु खण्डाकार 'अ' का उन्होंने प्रयोग नहीं किया है, जो कलकत्ता संस्करण में है । 'श' तथा 'स' 'व' तथा 'व' तथा 'ब' व तथा 'व' के कारण अनेक त्रुटियाँ परिलक्षित होंगी। । । प्रस्तुत ग्रन्थ का पाठ कलकत्ता संस्करण पर आधारित है । बम्बई संस्करण से सहायता ली गयी है | जहाँ श्री दुर्गा प्रसाद ने पाठ शुद्ध या सुधार किया है, उसे यथास्थान स्वीकार किया है । कलकत्ता संस्करण में पंक्तियों की संख्या दी गयी है श्लोक संख्या नहीं है । संस्कृत मूलग्रन्थों में श्लोक संख्या नहीं मिलती । मैंने अनेक पाण्डुलिपियाँ देखी हैं उनमें श्लोकों की क्रम संख्या पूर्वापर का विचार कर विद्वानों ने कहींकहीं दो तथा कहीं तीन पदों की श्लोक संख्या से बना दी है । उनके कारण प्रकाशित ग्रन्थों की श्लोक संख्याओं में अन्तर पड़ना स्वाभाविक है । कल्हण राजतरंगिणी में सर्वश्री स्तीन तथा दुर्गा प्रसाद ने श्लोकों की क्रम संख्या दी है। श्रीवर का संस्करण स्तीन ने नहीं किया है। अतएव दुर्गा प्रसाद ने ही सर्वप्रथम स्लोकों की क्रम संख्या दी है। श्री दत्त ने श्रीवर का अनुवाद किया है। उनमें न तो श्लोक संस्था दी गयी है और न श्लोकानुसार अनुवाद किया गया है। उसे छायानुवाद कह सकते श्री कण्ठ कौल संस्करण तथा प्रस्तुत संस्करण में कुछ स्थानों में व्यतिक्रम है । उनका यथास्थान संकेत किया हैं। मैंने भारत में प्राप्य पाण्डुलिपियों से सहायता ली है । उन पाण्डुलिपियों को न तो महत्व दिया है और न आधार माना है, जो सन् १८३५ ६० के पश्चात् की हैं। हाय से प्रतिलिपि करने में मूल की जितनी बार प्रतिलिपि की जायगी, उतनी बार उसमें कुछ न कुछ त्रुटि रह जायगी । कलकत्ता संस्करण के पश्चात् की प्रतिलिपियाँ कलकत्ता संस्करण की प्रतिलिपि मात्र हैं। काशी में आज भी रामायणी लोग हाथ से लिखी साची पत्रारूप में रामायण की प्रतिलिपि स्वयं या करा कर पढ़ते हैं । हैं । श्लोक के पदों की क्रम संख्या में राजतरंगिणी का महत्व बढ़ा तो हाथ से बने कागज पर देशी कलम और स्पाही से प्रतिलिपियाँ लिखी गयीं । उन्हें मूल पाण्डुलिपि करार देकर, बेचा तथा प्रयोग किया गया है। वे अनेक पुस्तकालयों की शोभा है। काशी में ही इस प्रकार की कम से कम तीन पाण्डुलिपियाँ वर्तमान हैं। तत्कालीन संस्कृत तथा उसकी लेखन शैली को बदलकर उसे आधुनिक संस्कृत का कलेवर देना अनुचित है । इसका अधिकार मुझे या किसी लेखक को नहीं होना चाहिए। मूलरूप नष्ट हो जाता है । अर्थ एवं भाषा की दृष्टि से सुधार ही जाता है। परिवर्तन, संशोधन एवं परिवर्धन से तत्कालीन संस्कृत रूप तथा उसकी पौली का बोध नहीं होता। वास्तविक स्थान पाद-टिप्पणी किवा पाठभेद में होना चाहिए। मैंने इनका उल्लेख पाद-टिप्पणियों में किया है। कलकत्ता तथा बम्बई संस्करणों की पंक्तियों तथा लोकों की क्रम संख्या स्थान-स्थान पर दे दिया है। अनुसन्धानकर्त्ताओं एवं लेखकों को कलकत्ता एवं बम्बई संस्करणों से सन्दर्भ प्राप्ति में कठिनाई नहीं करनी पड़ेगी । , संस्कृत ही नहीं फारसी पाण्डुलिपियों में भी यही बात घटी है। एक ही ग्रन्थ की अनेक पाण्डुलिपियाँ विश्व में बिखरी हैं। हाथ से लिखने के कारण उनमें कुछ न कुछ अन्तर पड़ जाता है। भी निर्णय करना कठिन होता है । प्रतिलिपिकार प्रायः प्रतिलिपि का समय न देकर फोन मूल है, यह मूल का समय देते Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका हैं । इस त्रुटि के कारण प्रतिलिपियों तथा मूल के समय निर्धारण में कठिनाई होती है। हशमते काश्मीर की एक पाण्डुलिपि काशी विद्यापीठ में है। दूसरी एशियाटिक सोसाइटी में है। यह निर्णय करना कठिन है कि कौन मूल है। नामवाचक शब्द : व्यक्ति तथा स्थानवाचक नामों को इटालिक या सादे टाइप अथवा पद के टाइपों से भिन्न देने की प्रथा श्री स्तीन ने अपने कल्हण राजतरंगिणी संस्करण सन् १८९२ ई० में चलाई है। उसका अनुकरण श्री कण्ठ कोल मुद्रित संस्करण में किया गया है। मैंने मूल का अनुकरण किया है। मूल में एक ही अक्षरों को जिस प्रकार लिखा गया है, उसी प्रकार दिया है। भिन्न अक्षरों में नाम देने से पढ़ने तथा खोजने में सुविधा होती है। उसका समाधान अन्त में दिये नामानुक्रमाणिका से हो जाती है। एक ही पद में भिन्न अक्षरों के प्रयोग से शंका हो सकती है कि मूल लेखक ने भी यह आधुनिक शैली अपनायी थी। मूल अपने मूल रूप में पाठकों के सम्मुख उपस्थित किया जाय। इस दृष्टि से चाहकर भी व्यक्ति तथा स्थानवाचक नामों को भिन्न अक्षरों ने नहीं दिया है। सर्वश्री स्तीन तथा श्री कण्ठ कौल ने नामानुक्रमणिका नहीं दिया है अतएव भिन्न अक्षर शैली मुद्रण से नाम पढ़ने या पूछने में कुछ सुविधा हो जाती है । संस्कृत लेखकों ने मुसलिम नामों को संस्कृत में लिख कर उनका किंचित सन्धि-समास आदि की दृष्टि से संस्कृतीकरण कर दिया है। फारसी तथा अरबी नामों का उच्चारण भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न रूपों में होने लगा था। अरबी तथा फारसी ने कुछ अपभ्रंश का रूप ले लिया था। यही कारण है कि एक ही नाम का अक्षरविन्यास भिन्न-भिन्न ग्रन्थकारों ने भिन्न-भिन्न रूप से किया है। उनके वास्तविक नामों को पाद-टिप्पणियों में देने का प्रयास किया है । कुछ लेखकों ने नाम के इस भेद में भी पाठभेद खोजकर अपने परिश्रम की सार्थकता प्रकट करने की कोशिश की है। संशोधन : कलकत्ता संस्करण में खण्डाकार 'ड' का प्रयोग किया गया है। सर्वश्री स्तीन तथा दुर्गा प्रसाद ने '5' का प्रयोग नहीं किया है । मूल का अनुकरण किया है । कलकत्ता और स्तीन के कल्हण तरंगिणी संस्करण में ३५ वर्षों का अन्तर है। मालूम होता है । बंग पण्डितों ने खण्डाकार '' आधुनिक शैली के अनुसार जोड़ दिया है। कलकत्ता संस्करण में '' है, अतएव उसे यथावत् रखा गया है। कलकत्ता संस्करण में 'व' तथा 'ब' के भेद का ध्यान नहीं रखा गया है । 'ब' तथा 'भ' में भी भेद कम किया गया है। उसे प्रस्तुत संस्करण में सुधार लिया है। इसी प्रकार 'श' तथा 'स' एवं 'ष' तथा 'ख' में तत्कालीन लौकिक उच्चारण के आधार पर पाठ कहीं-कहीं मिलता है। उसे भी सुधारा गया है। 'मीर' का 'मेर' 'ज' का 'ज्ज' 'ज्य' लिखा मिलता है। उसे ठीक कर लिया है। श्लोक के अन्त में आये अनुस्वार को "म्" के रूप में कर दिया गया है, क्योंकि यही पूर्ण शुद्ध है। मुसलिम नामों का संस्कृतीकरण श्रीवर ने किया है। उन्हें उनके मूल रूप में रखने का प्रयास अनुवाद तथा कहीं-कहीं पाठ में किया है। मुद्रण की अशुद्धियाँ तत्कालीन मुद्रण को प्रारम्भिक अवस्था के कारण हुई हैं। मुद्रणकला आज उन्नत है । अतएव मुद्रण की त्रुटियों का आधुनिकीकरण किया गया है। उन्हें पाठभेद मानना संगत नहीं है। तत्कालीन मुद्रण प्रणाली दोषी नहीं है। व्याकरण की दृष्टि से जो अशुद्धियां मिली है, उन्हें यथासम्भव ठीक किया है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी सन्दर्भ: सन्दर्भ ग्रन्थों का उल्लेख पाद-टिप्पणियों में है। मैंने राजतरंगिणी के अन्य भाष्यों का अनुकरण प्रस्तुत ग्रन्थ के भाष्य, अनुवाद शैली में किया है । स्थानों का मूल तथा प्रचलित नाम, भौगोलिक स्थिति के साथ दिया है। अर्थ बोधगम्य करने के लिये, अतिरिक्त शब्दों को कोष्ठों में रखा है। जहाँ अपने अनुवाद से स्वयं सन्तोष नहीं हुआ है, वहाँ दो या तीन अनुवाद दिये हैं। श्री दत्त का छायानुवाद यदि ठीक नहीं लगा है, तो उसका उल्लेख कर दिया है। अनुक्रमणिका : श्लोकानुक्रमणिका देने की प्रथा संस्कृत ग्रन्थों में है। उसीका अनुकरण कर भाष्यों के श्लोकों की श्लोकानुक्रमणिका दी गयी है। श्लोकों की संख्या संस्करणों में एक समान नहीं है। कलकत्ता, दुर्गा प्रसाद तथा श्री कण्ठ कौल के संस्करणों की श्लोक संख्यादि भिन्न है । पाठों तथा पदों में अन्तर नगण्य है । इलोकानुक्रमणिका से श्लोक निकालने में सुविधा होती है। साथ ही नामानुक्रमणिका आधुनिक शैली के अनुसार दिया गया है। भविष्य के संस्करणों में स्पष्ट संख्या परिवर्धन, संशोधन तथा प्रत्यानयन के कारण घट-बढ़ सकती है । इसका अनुभव मैंने कल्हण राजतरंगिणी के प्रथम खण्ड के द्वितीय संस्करण में किया है। एतदर्थ नामानुक्रमणिका में श्लोकों की संख्या दी गयी है। इससे पृष्ठ तथा श्लोक दोनों एक साथ मिल जाते थे। श्लोक संख्या से पृष्ठ खोजने में कठिनाई नहीं होगी, क्योंकि प्रत्येक पृष्ठ में कितने श्लोक हैं, उनकी संख्या पृष्ठ के उपर ही पृष्ठ संख्या के ठीक सामने दूसरी तरफ दे दी गयी है। पुस्तकालय मेरे कुटुम्ब में सन् १९०५ ई० से लोग जेल जाते रहे हैं। यह जेल जाने का क्रम सब १९४५ ई० तक चलता रहा। लाखों लोगों को ताम्रपत्र मिला। मुझे या मेरे कुटुम्ब को किसी ने स्मरण नहीं किया। मैं एक टुकड़े ताम्रपत्र का अधिकारी नहीं समझा गया । सत्तारूढ़ दल में नहीं था। अतएव मुझे तंग, परेशान एवं उपेक्षित करने में सत्ताधारी गौरव का अनुभव करते थे। इस लम्बे काल में मेरा समय संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा वहीं के भारतीय पुरातत्व विभाग के पुस्तकालयों में बीतने लगा। जाड़ा, गर्मी, बरसात, तीनों कितनी ही बार आये और चले गये। पसीना बहाता, भीगता, ठिठुरता, तीनों स्थानों से इतना चिपक गया कि न तो वे मुझे छोड़ते थे और न मैं उन्हें । तीनों स्थानों की यात्रा में परिवहन खर्च बढ़ गया। मध्याह्न पूर्व संस्कृत और मध्यान्यान्तर काशी विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में समय बीतता था । इन दश वर्षों में चेतन की अपेक्षा, जड़ पुस्तकें ही मित्र रह गयी थीं। मित्रता में, राजनीतिक होड़, अर्थ लाभ, पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष एवं स्पर्धा की गुंजाइश नहीं थी। सन् १९२१ से १९६७ के लम्बे काल के पश्चात, यही एक ऐसा समय आया था, जिसमें राजनीतिक सामाजिक, दार्शनिक वाद-विवादों, दलबन्दियों के उथल-पुथल से छुट्टी मिली थी। शान्ति का अनुभव हुआ था। कष्ट इतना ही था। किसी पाठशाला, स्कूल, कालेज अथवा विश्वविद्यालयों से सम्बन्धित न होने के कारण अनेक पुस्तकें मुझे घर लाने के लिए नहीं मिल सकती थी। उन्हें पढ़ने के लिए वहीं जाना पड़ता था । मुख खोलने पर पुस्तकालय के अधिकारी सुविधा दे सकते थे। यह अच्छा नहीं लगा। किसी बात के लिए मुख नहीं खोला, जीवन के इस सन्ध्या काल में, प्रतिष्ठा को ठेस लगने का भय, मूर्तमान Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका । सामने खड़ा होकर, मार्गावरोध कर देता था । निश्चय किया करूँ ? बात कहने की रह जायगी मर गया। हाथ नहीं पसारा याचना, आज तक नहीं किया । अब क्यों वाचना नहीं की अहसान नहीं लिया । मिलती । घण्टों रुकना प्रतिदिन की इस लम्बी दौड़ में, कष्ट का अनुभव होता । सवारी नहीं पड़ता । काशी विश्वविद्यालय मोटर बस पर दो-एक बार गया । परिचित भीड़ में आदर भाव से स्थान दे देते थे । स्वयं खड़े हो जाते थे । यह मुझे अच्छा नहीं लगा। बस की यात्रा त्याग दिया । रिक्सा मिलता था । महँगा पड़ता था । अखरता था । आमदनी कुछ नहीं थी । सब खर्च ही खर्च था । 1 । कुछ किताबें आवश्यक थीं। प्रारम्भ से ही पढ़ने का शौक था अपने पुस्तकालय में तीन हजार पुस्तकें थीं। लगभग एक हजार कानून की किताबें और जनरल थे। कानूनी जनरलों की कीमत पांच गुनी बढ़ गई थी । केवल सीरीज कायम रखने के लिए, उनका खरीदना बन्द कर दिया। वे हमारे लिये उपयोगी भी नहीं रह गई थीं। हजारों रुपये प्रति वर्ष खर्च हो जाते थे। पुस्तकें बड़ी होती थीं अनुपात से उनकी कीमत भी बढ़ी थी । अर्थाभाव के कारण अनेक पुस्तकों से वंचित रहा । अनेक पुस्तकें भारत में अप्राप्य थीं। उन्हें विदेशों से मगाने में छ मास लग जाते थे । काश्मीर सम्बन्धी प्रचुर साहित्य एवं सामग्रियाँ हैं । बिखरी हैं। विदेशों में पाण्डुलिपियाँ हैं । उनका दर्शन दुर्लभ है । भारत से बाहर उन्हें देखने एवं पढ़ने का अवसर नहीं मिल सका । उससे कठिन था । राजपुरुषों के यहाँ हाजिरी देना । राज-कर्मचारियों के यहाँ चक्कर लगाना, गिड़गिड़ाना, अपमानित और उपेक्षित होना विदेशी मुद्रा प्राप्ति की परेशानी, उसके लिए सरकारी कार्यालयों में ठोकरें खाते रहने की अपेक्षा, चुप होकर बैठ रहना अच्छा समझा । उपेक्षा किसी विश्वविद्यालय के माध्यम से पुस्तकें माइको फिल्म मँगाने का मैं अधिकारी नहीं था। तथापि कुछ मित्रता के कारण मित्रों ने मँगा दिया था। उनसे कुछ काम निकाला है। द्वितीय संस्करण यदि अपने जीवित काल में हो गया, तो भविष्य के खण्डों को पूर्ण करने का प्रयास करूँगा । एक बड़ी आश्चर्य की बात है। काश्मीर पर इतना लिखने पश्चात् भी साहित्यिक जगत, सरकारी जगत, काश्मीरी जगत प्रोत्साहन मिला और न किसी ने इस काम में रुचि दिखाई। जैसे 1 9 इतना समय एवं धन बर्बाद करने के 3 किसी ओर से किसी प्रकार का न तो यह काम मेरा ही था । मुसलिम बहुल प्रदेश है। दोष किसी का नहीं परिस्थितियों का है। काश्मीर संस्कृत भाषा एवं हिन्दी के प्रति पाँच प्रतिशत काश्मीरी पण्डित तथा जम्मू क्षेत्र के हिन्दी भाषा भाषियों की रुचि है। प्रस्तुत ग्रन्थ काश्मीर से सम्बन्धित है, जब काश्मीरियों को इसमें रुचि नहीं है, तो दूसरों का न होना क्या आश्चर्य है ? मैंने ऐसा विषय चुना। जिसका सम्बन्ध एक मृत इतिहास से है, जिसके लिये गौरव का अनुभव करने वाले विरले हैं । मैंने जाने या अनजाने कलम उठाई । काम पूरा करना था । बीच में छोड़कर भागना कायरता थी । इसके लिये अपनी आर्थिक बरबादी सह्य हुईं। कोई पुस्तक की स्तुति करता है या निन्दा, यह मेरे चिन्तन का विषय नहीं है। प्रकाशन के लिए प्रकाशकों के यहाँ चक्कर लगाता रहा । कुछ को छोड़कर सभी प्रकाशक, सरकारी प्रश्रय प्राप्त, सरकारी सहायता प्राप्त, विश्वविद्यालयों के प्रश्रय प्राप्त थे, उनकी दुकानदारी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी थी। रद्दी भी लेखकों से कागज या धन प्राप्त कर, छापने के आदी थे। वही पुस्तक प्रकाशित करना चाहते थे, जिसमें कहीं से, किसी प्रकार भी अधिक से अधिक लाभ की आशा थी। इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। उनकी दृष्टि व्यवसायी । वे घर लुटाने नहीं बैठे थे। उनके और लेखकों की दृष्टिकोणों के जमीन-आसमान का अन्तर था। सरकार की तरफ से लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक योजनायें बनी। योजना अखबारों में धूम-धाम से छपती थी। प्रचार का ढिढोरा पिटता। किन्तु उनकी सीमा कुछ प्रिय पात्र तक सीमित रह जाती थी। उनका दर्शन समाचारपत्रों में, सरकारी विज्ञप्तियों में, पुस्तकों के होते उद्घाटन समारोहों के छपने समाचारों में मिलता था। मेरे जैसे प्यासे लेखक, आकाश की ओर देखते, टक लगाये, प्यासे रह जाते थे। एक बूंद का सहस्त्रांश भी भूलकर मुख में नहीं पड़ सका। भारत में अनेक हिन्दी समितियाँ हैं। अनेक प्रकाशन संस्थायें सरकारी एवं अर्ध सरकारी है । मैंने पत्र लिखा । एकाध ने असमर्थता प्रकट की। शेष ने पत्रों को रद्दी की टोकरी में सुला दिया। काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने चार फार्म सन् १९६८ ई० में छापे, उसके पश्चात् टका-सा जबाब दे दिया। किन्तु मनुष्य एवं शासन ही सब कुछ नहीं है। एक अव्यक्त शक्ति और है । अनजाने कार्य करती है। योजना स्वयं बनाती है। स्वयं प्रेरणा देती है। कार्य करवाती है। निःसन्देह उसी अव्यक्त शक्ति की योजना से पुस्तकें प्रकाशित हो सकी हैं। दूसरा संस्करण भी होने लगा है। लेकिन जिन्हें लिखा था, उनकी निद्रा भंग न हुई। उनके फाइलों में पत्र उत्तर की प्रतीक्षा में पड़े-पड़े, निराशाग्नि में या तो जल गये, अथवा आँसू बहाते अपने ही आँसू में गल गये। हाँ-संस्थाओं तथा व्यक्तियों की तरफ से, मुफ्त प्रति भेजने के लिए पत्र यथा-क्रम अवश्य मिलते थे। उसमें भी डाक खर्च मुझे ही बहन करने की बात होती थी। सबका उत्तर देना मेरी सामर्थ्य के बाहर की बात थी। संस्कृत एवं काशी विश्वविद्यालय : लिखने-पढ़ने का सर्वोत्तम साधन काशी है। संस्कृत तथा काशी विश्वविद्यालय के पुस्तक भण्डार पूर्ण हैं । व्यक्तिगत तथा कई संस्थाओं एवं विद्यालयों के पुस्तकालय भी हैं। पुस्तके कोई भी प्राप्तकर, बैठकर पढ़ सकता है। इस सुविधा से मेरा काम बहुत हलका हो गया। निश्चित समय पहुंचने और लौटने के कारण जीवन संयमित हो गया। कुछ पुस्तकालयों के पुस्तकाध्यक्षों ने मेरे काम में रुचि लेकर, प्राप्य सामग्रियों की सूचना तथा उन्हें सुलभ कर, वास्तव में सरस्वती के सच्चे, उपासक रूप में अपने को प्रकट किया है। संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकाध्यक्ष श्री डॉ० लक्ष्मीनारायण तिवारी तथा काशी विश्वविद्यालय के सर्वश्री हरदेव शर्मा तथा उपपुस्तकाध्यक्ष श्री एम० एन० राघव हैं। उन लोगों ने खोज-खोजकर, कश्मीर सम्बन्धी ग्रन्थों को मुझे देने का प्रयास किया है । इस सीमा तक सहायता किये हैं कि स्वयं पुस्तक निकालकर, देते थे । उनसे कमी उऋण नहीं हो सकता। दुनिया में अर्थ एवं पद ही महत्त्व नहीं रखते। इसका अनुभव मैंने किया। जिनपर मुझे कभी अहसान नहीं किया, जिनका उपकार नहीं किया, जो अपरिचित थे, उनसे सबसे अधिक सहयोग एवं सहायता मिली है। वे सभी साधारण व्यक्ति थे। अपनी ६७ वर्ष की अवस्था में बिना किसी पारिश्रमिक, घर से पैसा खर्चकर, पढ़ना और लिखना, उनके सरल हृदय को अपील करता था, वह हर तरह की सहायता के लिए, सर्वदा तत्पर रहते थे। यह भावना मैंने पुस्तकालयों के निम्नवर्गीय कर्मचारियों में Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका देखा है । उन्हें जैसे मेरे इस ढलती उम्र में लगन से कार्य करते देखकर, दया आती थी। वे अपनी सहानुभूति का परिचय, दो-चार मधुर शब्द बोलकर, देते थे। एकाकी: मैं अकेला हूँ। किसी के जीवन निर्वाह का मुझपर भार नहीं है। घर पर सभी सुविधायें, जो इस शरीर को चलाने के लिए आवश्यक थी, उपलब्ध थी। इसमें मेरी स्त्री सहायक थी। हमारा विवाह सन् उन्नीस सौ छब्बीस ई० में ही हो गया था। वह मुझसे छ वर्ष छोटी है। पठित नहीं है। काशी नगर की ही रहने वाली है। मेरे मकान औरङ्गाबाद से उसका मकान गोवर्धन सराय दो फर्लाङ्ग से अधिक नहीं है । विवाह में लेन-देन का प्रश्न तत्कालीन प्रथा के अनुसार नहीं उठा था। दोनों ही कुटुम्ब कुलीन, सनातन धर्मावलम्बी तथा जमीन्दार थे । देशी घी, देशी चीनी, देशी वस्त्र, देशी वस्तुओं का प्रयोग होता था। बाजारू बनी चीजों का प्रयोग वजित था। बीमारी में औषधि भी वैद्य की होती थी। इस संस्कार में मेरी स्त्री पली थी। उसका वह संस्कार अभी कायम है। बिना स्नान किये भोजन नहीं बनाना चाहिए, लघु शंका पश्चात् हाथ पैर धोना, दीर्घ शंका पर, स्नान करना, किसी का स्पर्श भोजन तथा पानी नहीं पीना, जौ, चना, गेहूँ आदि धोकर पिसाना, बरतनों को माजकर चमकाना, आदि आचार संहितायें हमारे घर में रुढ़ हो गई है। कुत्ता, बिल्ली, जानवरों का स्पर्श होते ही, स्नान करना आवश्यक है। मैं छुआछुत नहीं मानता। सामाजिक कार्य कर्ता होने के कारण, मुसलमान और हरिजन का स्पर्श होता था, यह बात ज्ञात होने पर, मेरा स्पर्श किया, पानी और भोजन घर में कभी कोई नहीं करता था। दिल्ली संसद में मैं चुन कर गया । वहाँ बंगला मिला। सफाई करने वाला प्रतिदिन आता था। दिल्ली तथा पश्चिम भारत में स्पर्शास्पर्श का विचार नगण्य है । भंगी ने एक बालटी छू दिया। वह बड़ी-बड़ी नाराज हुई । बालटी अपवित्र हो गई। घर से निकाल कर फेंक दी गई। सफैया का आना और जाना केवल पुरीषालाय तथा, पनारों की नालियों तक सीमित रह गया। घर में प्रवेश निषेध था। इस प्रकार न जाने कितने बरतन घर और दिल्ली में फेंक दिये गये थे। दिल्ली का सफैया नाराज नहीं हुआ। उसने हँसकर कहा–'बाबू यह उनका धर्म-कर्म है । इससे क्या होता है।' भंगी के प्रेम में कमी नहीं हुई। उसे भोजन तथा अन्य सामान पूरा मिलता था। उसमें कभी शिथिलता नहीं हुई, जो आधुनिक युग के घरों में कठिन है । हमारे क्षेत्र के हिन्दू-मुसलमान सभी किसी न किसी काम से दिल्ली आते थे। उनके साथ एक दिन मुझे चाय पीते हुए, मेरी स्त्री ने देख लिया। उस दिन से हमारा पारस्परिक स्पर्श भी छूट गया। लेकिन स्नेह एवं भक्ति में कमी नहीं हुई। वह निरन्तर बढ़ती गयी। मुझे यह अनायास का ब्रह्मचर्य जीवन सुखकर लगा। मैं इतना लिख सका, शान्ति से कार्य कर सका, उसका श्रेय मेरी स्त्री को है। वही मकानों का किराया वसूल कराती थी । खेती कराती थी। गाँवों पर जाती थी। वहाँ से अन्न लाती थी। मकानों की मरम्मत कराती थी। टैक्स देती थी। हमारे लिए कपड़ा, साबुन, तेल, कागज, स्याही आदि सभी खरीद कर मगवाती थी। इस प्रकार मुझे सांसारिक झंझटों से छुट्टी मिल गई थी। मुझे किसी बात की आवश्यकता का अनुभव नहीं हुआ। . प्रातःकाल आसन प्राणायाम करने के पश्चात, ठीक छह बजे दो प्याला चाय, साढ़े नौ बजे दिन भोजन, पाँच बजे सायं दो प्याला चाय तथा रात्रि में दूध मिल जाता था। प्रातः या सायं काल कलेवा या Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैन राजतरंगिणी नाश्ता कभी जीवन में नहीं किया । अतएव उसकी चिन्ता या इच्छा नहीं थी । बाहर कुछ खरीदकर, खाने, की आदत नहीं थी । पान, सुरती, बीड़ी, सिगरेट या किसी प्रकार के व्यसन की आदत नहीं थी । उनसे दूर सर्वदा रहा हूँ । जन्म से ही शुद्ध निरामिष हूँ । घर में गाय रखना धर्म का अंग है। उससे शुद्ध दूध तथा घी मिल जाता है । खेती से अन्न, गुड़, खाड़ आदि आ जाते हैं। बाजार से तरकारी के कुछ नहीं खरीदना पड़ता है । अतिरिक्त, और जीवन व्यवस्थित हो गया । लिखने और पढ़ने के लिये पर्याप्त समय मिला। किसी प्रकार की सांसारिक चिन्ता न थी । मन स्वस्थ था । पुरानी स्मृतियाँ जागकर, कभी तंग करती, तो उनकी सीमा मन ही तक रह जाती । निराशा : घर में स्वदेशी का सन् १९०५ और खद्दर का सन् १९२० से व्यवहार होता है। दो जोड़ा धोती और दो कुरतों से वर्ष बीतता है । शरीर की चिन्ता मेरी स्त्री और मन की चिन्ता मेरे वश की बात थी । समाचार पत्र पढ़कर, राजनीतिक घटनाओं के चिन्तन में उलझता, आशा-निराशा में झूलता रहता । शिपिंग बोर्ड की चेयरमैनी, समुद्रों के सामरिक एवं व्यापारी जहाजों की गणना, उनका अध्ययन अब भी करता हूँ । नोट बनाता | देशों के नवपरिवहन तथा नवशक्ति की जिज्ञासा का अभ्यस्त हो गया | विश्व के देशों की प्रगति और भविष्य पर विचार करता रहता हूँ। मुझे जीवन में दुःख केवल एक बात का रहा है । सैनिक तथा व्यापारिक दोनों जहाजों का विशेषज्ञ होने पर, लोगों के यह जानने पर, किसी ने किसी प्रकार की जिज्ञासा मुझसे संसद से हटने के पश्चात नहीं की। वह जैसे संसद की देन थी । संसदीय जीवन के साथ समाप्त हो गयी । इस प्रकार की स्थिति भारत में ही शायद सम्भव है । हिन्दुस्तान जिंक लि० सरकारी संस्थान उदयपुर का कारखाना अपनी अध्यक्षता काल में निर्माण कराया । अपने समय में चलाया। प्रथम वर्ष में लाभ दिया । लेकिन वहाँ से हटना पड़ा । मैं सत्तारूढ़ दल में नहीं था । स्वतन्त्र विचारक था । दल का पुछिल्ला बनना पसन्द नहीं था । दल का खजाना भरना मेरे प्रकृति और बूते के बाहर की बात थी । कलकत्ता तीन मास में एक बार युनाइटेड कामर्शियल बैंक लि० के संचालक बोर्ड की बैठक में जाता हूँ । उस समय कलकत्ता मैदान के समीप विशाल गंगा नदी और उस पर चलते जहाजों तथा स्टोमरों को देखता रहता हूँ । मेरे जहाजों के अध्ययन की, जैसे यह अन्तिम अध्याय है । एक साथी : सन् १९७० से सन् १९७६ ई० मध्य मेरा साथी, कुत्ता टीपू था । अनजाने मेरे यहाँ आया । अनजाने चला भी गया । उसने मेरा साथ अवसरवादियों के समान नहीं त्यागा। रात में द्वार पर सोता था । दिन में घूम-धाम कर, पास आ जाता था । रखवाली करता था । रात में मैं दूध पीता था । उसके लिये आघ सेर अलग दूध आता था । हम दोनों साथ ही पीते थे। वह पीकर, तृप्त होकर दो चार बार जीभ बाहर निकाल कर, सिंह आसन पर बैठ कर मेरी ओर जिस कृतज्ञता से देखता था, वह कृतज्ञ दृष्टि मनुष्यों में दुर्लभ है। अकस्मात एक दिन वह नीचे लगभग में वह दो एक बार घूमकर, बिना शब्द किये, १० बजे दिन उतरा । मैं खाकर अखबार पढ़ रहा था । आँगन बिना रोये, बिना भूके, बिना आह खोचे, पैर पसार दिया । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका मर गया। मुख खुल गया। जबड़े से बाहर दन्त पक्ति निकल आयी। आगन से मेरी साली राजकुमारी बोली-'टीपू न जाने कैसा हो गया ।' मैं नीचे आया। देखते ही बोल उठा-मर गया। आँखें भर आयी। पास बैठ गया । गंगा जल मँगाया। उसके मुख में तुलसी दल के साथ छोड़ दिया। मैं जीवन में रोया नहीं था । आज रोया । उसे देखता रोय।। यह सोचकर रोया । इसे अब न देख सकूँगा । संसार से चल दिया। इसी तरह मैं भी एक दिन चल दूंगा। . कफन में लपेटा । सगड़ी पर रखा । फूल-माला चढ़ाया। परलोक यात्री को करबद्ध प्रणाम किया। मेरा एक नौकर रामजनम है। गंगा प्रवाह करने उसे लेकर चला। सगड़ी चली, दक्षिण ओर । जब तक सगड़ी दिखायी देती रही, भरी आँखों देखता रहा । इसलिये देखता रहा। उसे अब न देख सकूँगा । मेरे साथ न रह सकेगा। सगड़ी गली के मोड़पर लोप होने लगी। अंजलिबद्ध कर उठ गये। प्रणाम किया। चिन्तन करते हुये । शायद मरने पर उससे भेंट होगी। मरने पर जहाँ सब जाते हैं। वहीं वह भी गया होगा। वहीं मैं भी पहुँचूंगा। वहाँ उससे मिलूगा। उसका प्रेम पाऊँगा। स्नेह पाऊँगा । यह आशा, इस करुण काल में सुखकर लगी। आज भी, उसे याद करता हूँ, मन भर आता है। आँखें श्रद्धांजलि देती है। मन रोकर कहता है-कहीं यह स्नेह, मुझे मनुष्यों से मिला होता ? एक कुटुम्ब : इस दशक में एक कुटुम्ब से परिचय हुआ। यहाँ मुझे सहृदयता मिली । स्नेह मिला । संसार से विरक्त, स्नेह त्यागता है। प्रेम बन्धन शिथिल करता है । जगत से उपराम लेता है। किन्तु जगत से यह पलायन की प्रवृत्ति अच्छी नहीं है । संघर्षों से भागना कायरता है। गृहस्थ जीवन में रहकर, दैनिक जीवन के संघर्षों में रहकर, जगत के हास-विलास, भोग-रोग, गरीबी-अमीरी, सुख-दुःख, आशा-निराशा में रहकर, प्राणियों का जो पालन करता है, पद-पद पर वैयक्तिक सुखों को तिलांजलि देकर, कुटुम्ब के लिये क्षण-क्षण त्याग करता है, उस गृहस्थ से बढ़कर, भला इस दुनिया में कौन त्यागी होगा ? मुझे गृहस्थी पसन्द है। गृहस्थ का भरा-पुरा घर देखता है। मन प्रसन्न हो जाता है । जिस घर में, विवाद नहीं, कलह नहीं, दूसरों के लिये आदर, आरतों के लिये करुणा, कष्ट उठाकर दूसरों के कष्टों को दूर करने की प्रवृत्ति, देखता हूँ, तो सुख मिलता है। यदि भरे-पुरे घर में लक्ष्मी के स्थान पर, सरस्वती की पूजा होती है, तो सरस्वती की वाणी गूंजती है, घर पवित्रता से भर उठता है। जहाँ एक प्राणी दूसरे प्राणी का जहाँ आहार नहीं होता, जहाँ अन्न ही भोज्य है, जहाँ निरामिष वातावरण में मुक्त प्राण वायु मिलती है, वह घर नहीं पवित्र भूमि है । जहाँ स्त्री गृहिणी है, मधुर भाषिणी है, जहाँ अतिथि सेवा यज्ञ है, जहाँ गृहिणी सरस्वती की चिन्तक है, वह घर सरस्वती का जागृत मन्दिर है। जहाँ बाल-गोपाल खेलते हैं । माता-पिता स्नेह रखते हैं, जहां भय केवल कहानी है, वह घर पुण्य स्थली है। __ श्री लल्लनजी गोपाल के इस कुटुम्ब से, राजतरंगिणी भाष्य प्रणयन काल आरम्भ से सम्पर्क रहा है। उन्हीं के प्रेरणा पर, राजतरंगिणी मुद्रण का कार्य आरम्भ किया गया था। उनके यहाँ लम्बे दश वर्ष तक प्रायः प्रति दिन विचार गोष्ठी होती रही है। चाय मिलती थी। मिष्ठान्न मिलता था। अकेली गृहणी श्रीमती कान्ती देवी, बच्चों की सेवा करती थी। उन्हें पढ़ाती थी। भोजन बनाती थी। विश्वविद्याबय में पढ़ाती थी। इतने व्यस्त जीवन के पश्चात, अतिथि सत्कार का उनमें अप्रतिम उत्साह, आगन्तुकों के प्रति सहृदयता, देखकर, कोई भी इस गृहस्थ जीवन के वातावरण पर मुग्ध हो उठेगा। स्वयं लन्दन की पी-एच० डी० होते हुए विलायत की शिक्षा प्राप्त कर, भारतीय नारी अनुरूप व्यवहार, आज कल की पढ़ी लिखी महिलाओं के Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैन राजतरंगिणी लिये आदर्श अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित करता है । जिस घर में साध्वी नारी हो । वह घर नहीं मंगल आवास है । मंगल मन्दिर है । पवित्र स्थान है । सती का जागृत गेह है । श्री लल्लनजी स्वयं लन्दन के पी-एच० डी० हैं । हिन्दू विश्वविद्यालय में कला संकाय के डीन हैं । विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी के सदस्य हैं । भारतीय पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष हैं । किन्तु उनमें विद्या गर्व के स्थान पर सरलता, पद गौरव के स्थान पर, पद मर्मादा का निर्वाह और न जाने कितने अमित गुण हैं । मैं जो कुछ लिख सका, यह विशाल ग्रन्थ समाप्त कर सका, सबका श्रेय उन्हीं को है । इस दशक के अधिकांश सायंकाल उनके यहाँ विचार-विमर्श, ग्रन्थावलोकन, अप्रकाशित अनुसन्धान ग्रन्थपठन में लगे हैं। उनसे जब परिचय हुआ, तो वे रवीन्द्रपुरी में रहते थे । तत्पश्चात ईट पर ईंट बैठती, गुरुधाम में निजी मकान रूप में परिणत हो गयी । उनके पुत्र सर्वश्री उत्पल, पुष्कल, पंकज, नीरज एवं सरसिज माँ की गोद से खेलतेखेलते, मैदानों में खेलने लगे और मेरी पुस्तकें भी पत्राकार से खण्डाकार होती गयी । इतना लम्बा काल एक कुटुम्ब में, मेरे जैसे अपरिचित, विजातीय, वयस्क का कैसे बीत गया, यह स्वत: एक अनुसन्धान का विषय है | उनके प्रति, उनके कुटुम्ब के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिये कृतज्ञता शब्द लघु लगता है । एक स्नेही : एक कुटुम्ब और है । श्री बलरामदास जी जोहरी पुत्र श्री जमुनादास जौहरी प्रिन्सेप स्ट्रीट कलकत्ता । यहाँ मेरा प्रवाश काल बीतता था । उदयपुर जिक लिमिटेड (सरकारी) संस्थान के अध्यक्ष होने पर, पक्ष में एक दिन उनके यहाँ ठहरता था । कम्पनी का विशाल कार्यालय कलकत्ता कैनेग रोड पर था । मोटर, नौकर, चाकर, एयर कण्डीशन आतिथ्य स्थान, सब कुछ आधुनिक प्रमाधकों से पूर्ण सज्जित था । वहाँ मैं पहली बार गया । श्री बलराम जी को मालूम हुआ । वे अपने यहाँ चलने के लिए बोले । मैं उनके सत्कार स्नेहभाव से दब गया । उसी समय उनके दो कमरे वाले फ्लैट में पहुँच गया । युनाइटेड कमर्शियल बैंक का डाइरेक्टर होने पर पक्ष में एक बार संचालक मण्डल की बैठक में भाग लेने कलकत्ता आता था । इस प्रकार प्रतिसप्ताह बलराम जी के यहाँ ठहरना होता था । उनकी धर्मपत्नी श्रीमती प्रमिला देवी ने जिस सौजन्यता से आतिथ्य किया है, वह वर्णनातीत है । मैं आज भी युनाइटेड कमर्शियल बैंक लिमिटेड पुरानी कम्पनी का डाइरेक्टर हूँ। वर्ष में चार या पांच बार जाना होता है । यह एक अति कोमल सूत्र है । जिसके कारण अबतक मैं उस आतिथ्य से वंचित नहीं हुआ हूँ । समस्त राज तरंगिणी प्रणयन काल में इस कुटुम्ब से सम्बन्ध पूर्वक्त बना रहा। वहाँ ठहरने पर, पाण्डुलिपियों को ठीक करता था । श्रीमती प्रमिला देवी के सरल स्वभाव से इतना प्रभावित था कि मैं भात न भात खाता था । प्रातः एवं सायं काल जलपान न करने पर भी करता था । उनके स्नेहमय आतिथ्य के कारण मुझे कभी न कहने का साहस नहीं हुआ । वह हमारे नियम से इतनी परिचित हो गई थी कि ९ वर्षों के लम्बे काल में . मुझे कभी कुछ माँगना नहीं पड़ा । हमारे समय से चाय आ जाती थी । समय पर पानी मिल जाता था । समय पर खाना मिलता था । मैंने एक क्षण के लिए भी अनुभव नहीं किया। अपने घर से बाहर हूँ । उनके पुत्र चि० राजीव जौहरी ९ वर्षों से बढ़कर १८ वर्ष के हो गये और कुमारी नीरज जौहरी १० वर्ष से बढ़कर १९ वर्ष की जैसे वय प्राप्त करती गई, हमारी राजतरंगिणी का भी उसी प्रकार आकार बढ़ता गया । उनका काशी का प्रतिष्ठित कुटुम्ब है । यह गुजराती परिवार लगभग ४५० वर्ष पूर्व काशी में गुजरात के भड़ौच जिला, ग्राम मोड़ से आकर आवाद है । इसी कुटुम्ब के व्यवसाय की एक शाखा कलकत्ता में है । परिवार ने विशिष्ट महत्त्वपूर्ण स्थान काशी के सामाजिक जीवन में बना लिया है । उनके प्रति आभार प्रकट करना आभार शब्द मुझे छोटा लगता है । खाने पर भी, उनके यहाँ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १३ एक त्यागी : अलग रहता है। सन् १९२१ १० कहीं ऊँचा होता श्रीमहावीर त्यागी से काशी में सम्पर्क हो कोई घर-गृहस्थी त्यागने से त्यागी नहीं होता । सुस्थिर गृहस्थ, सन्त, विरागी, वनवासी से है। वह सांसारिक मायाजाल में रहते, पद्मपत्र तुल्य माया जल से परिचय होने के पूर्व उनके ज्येष्ठ भ्राता श्री धर्मवीर त्यागी से गया था। वह गणित के विद्वान है। प्रथम श्रेणी में विश्वविद्यालय से पास कर गान्धी जी के असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हो गये थे। तत्कालीन विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ स्व० डॉ० गणेश प्रसाद के प्रिय शिष्यों में है । विद्यालय त्याग के पश्चात् उन्होंने पुनः अध्ययन नहीं आरम्भ किया । श्री महावीर त्यागी से मेरा परिचय सन् १९२६ ई० में हुआ। कांग्रेस में हम दोनों ही कार्य करते ये वह देहरादून निवासी थे वहीं उनका कार्य क्षेत्र था। उत्तर प्रदेश की दो विरोधी सीमाओं पूर्वपश्चिम में रहने पर भी हमलोगों का सम्पर्क प्रदेशीय कमेटियों तथा अखिलभारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशनों में हो जाया करता था। हम दोनों गान्धी बादी थे। अतएव यह मित्रता कभी शिथिल नहीं हुयी । संसद में आने पर हमारा कार्य क्षेत्र और विस्तृत हो गया । त्यागी जी का जीवन उनके नाम के अनुरूप है। दिसम्बर ३१ सन् १८९९ ई० में उनका जन्म हुआ था। तत्पश्चात् देहरादून, हो गया । सन् १९२० ई० में प्रथम विश्वयुद्ध के सम्बन्ध में पूर्वी इरान में से उन्होंने असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के लिए सेनावृत्ति से हुआ सैनिक सेवा से उन्हें निवृत कर उनकी मासिक वृत्ति, से निर्वासित कर दिया गया । लगभग साढ़े सात वर्ष उन्होंने देश के लिए कारावास का जीवन व्यतीत ग्राम धनवरसी, जिला मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में रैन बसेरा में उनका आवास सैनिक अधिकारी थे। वहीं इस्तीफा दे दिया। उनका कोर्ट मार्शियल संचित धन आदि जब्त कर बलूचिस्तान किया हैं । इनकी पत्नी तथा कन्या ने भी आन्दोलन में भाग लेकर, जेल जीवन विधान सभा के सात वर्ष सदस्य रहने के पश्चात् भारतीय संविधान सभा के पत्नी को भी विधान सभा की सदस्या होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। संसद के सदस्य निरन्तर बने रहे। केन्द्रीय भारतीय विभागों के मन्त्री सन् १९५२ से १९६६ तक बने रहे मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया । व्यतीत किया है । उत्तर प्रदेश सदस्य चुने गये । उनकी स्वर्गीय उस समय से सन् १९७६ तक सरकार में राजस्व, सुरक्षा, पुनर्वास आदि अनेक ताशकन्द समझौता से सहमति न होने के कारण परिहास प्रिय तथा हाजिर जवाब एवं दूरदर्शी कोई उनकी ओर उँगली आजतक नहीं उठा 3 उनके जैसा, त्यागी निर्भीक, स्पष्टवक्ता, शिष्ट, होना दुर्लभ है। लम्बे राजनीतिक एवं विधायकत्व काल में सका। वह गरीब के गरीब रह गये । उनका दामन गन्दा नहीं हुआ । उनका जीवन कलंक कालिमा से रहित है सबसे बड़ी बात उनका अपने ऊपर स्वयं अनुशासन है। अपने ५० वर्षों के लम्बे काल में उनमें किसी प्रकार क्या चारित्रिक दोष मैंने नहीं देखा । मित्रधर्म पालन जानते हैं। मित्रों ने उनका साथ त्याग दिया परन्तु उन्होंने कभी मित्रों का साथ नहीं त्यागा । उनके रहन-सहन व्यवहार आचार-विचार में परिस्थितियों ने, पदों ने कभी अन्तर नहीं आने दिया । जन्मजात शुद्ध शाकाहारी हैं। जिसके कारण हमारी उनकी मित्रता अनायास हो गयी । , उनके जैसे दृढ़ संकल्प मनुष्य कम मिलते हैं। भारत विभाजन के समय जिस समय समस्त देश साम्प्रदायिकता की अग्नि में झुलस उठा उस समय उन्होंने सम्प्रदायों में शांति स्थापनार्थ भारत में स्वयं सेवकों का विशाल संगठन किया, जो त्यागी पुलिस फोर्स के नाम से प्रसिद्ध हो गया। उन्हें राजनीति में दवन्दियों के कारण वह स्थान नहीं मिल सका, जिसके वे पात्र थे और हैं। , Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी कश्मीर आज भारत के साथ है । उसमें एक बड़ा योगदान श्री महावीर त्यागी को है । स्वर्गीय श्री पं० जवाहर लाल से बच्चों के समान उनकी बराबर कहासुनी होती थी। लोग खड़े, उनका तमाशा देखते थे। रफी अहमद किदवाई के वे दाहिने हाथ थे । अप्रासंगिक होने के कारण वहाँ उसका लिखना उचित नहीं है। सन् १९७२-१९७६ ई० दिल्ली में वर्ष में दो-एक बार के प्रवास काल में उनके यहाँ मैं ठहरता था। राज तरंगिणी के कुछ सन्दर्भ ग्रन्थों को उनके यहाँ रख दिया था। दिल्ली के संसदीय तथा पुरातत्व विभाग के पुस्तकालयों में जो नोट बनाता था, उन्हें त्यागी जी के यहाँ बैठकर लिखता था। उनकी कन्या श्रीमती उमादेवी का आतिथ्य भूलना कठिन है। इस परिश्रम काल में उनके दोनों बाल नाती सर्वश्री नान तथा गिरीश के कारण स्वाभाविक वार्तालाप में दिमाग हलका हो जाता था। मैं गौरवान्वित हूँ, ऐसे महापुरुष का आतिथ्य प्राप्त कर । समर्पण : अर्धनारीश्वर के उपासक, राजतरंगिणी कारो पर किये गये, इस अन्तिम भाष्य को मैंने अपनी अर्धाङ्गिनी श्रीमती लीलावती देवी को समर्पण किया है। उसे मैंने आदर्श भारतीय नारी रूप में देखा है। मेरी अनेक पराधीन तथा स्वाधीनता कालीन जेल यात्राओं तथा जेल में लम्बे जीवन व्यतीत करने पर भी उसने कभी स्वप्न में भी विरोध भाव नहीं प्रकट किया। न उसे प्रसन्नता हुई और न दुःख । निरपेक्ष घर गृहस्थी का कार्य देखती रही। एक पुत्र की माता कुछ घण्टों के लिए बनी। तत्पचात् सन्तान रहित होने पर, भी उसे कभी निःसन्तान होने का दुःख नहीं हुआ। उसे तीन-चार खद्दर की धोतियाँ पर्याप्त थीं। आभूषण, वस्त्रादि लेने या पहनने की उसकी कभी रुचि नहीं हई। असंग्रही थी। लोभ से बहुत दूर थी। दान-पुण्य, लोगों को खिलाने-पिलाने, आतिथ्य सत्कार में उसे रस मिलता था। मैं कहाँ जाता हूँ, क्या करता हूँ, उसने कभी जिज्ञासा नहीं की। दिल्ली के लम्बे प्रवास में, कठिनता से दो तीन बार वहाँ गयी थी। उसे दिल्ली पसन्द नहीं आयी। उदयपुर में तीन वर्ष रहा। एक बार भी वहाँ नहीं गयी। गंगा स्नान तथा देवताओं के दर्शन में रुचि थी। मैं जो कुछ लिख सका, उसमें उसका सबसे बड़ा योगदान इसलिये है कि उसने मुझे घर गृहस्थी की चिन्ता से मुक्त कर दिया था। जेलों में कभी मुझसे भेंट करने नहीं गयी। उसे बाहर, निकलने में संकोच होता था। परदे की यह हालत थी कि विवाह के सोलह वर्ष पश्चात् तक मुझे उसे पहचानना कठिन था। पुरानी प्रथा के अनुसार पुरुषों का अलग मकान या आवास होता था। घर में बड़ों के सामने, पति से बात करना, उसके सामने निकलना, अनुचित समझा जाता था। एक बार दिल्ली में स्वर्गीय श्री पुरुषोत्तम दास टण्डन मेरे बंगले पर आये। उनसे घरेलू व्यवहार था। मैं अपनी स्त्री के साथ बैठा था। उससे बातें कर रहा था। टण्डन जी कमरे में आ गये । वह तुरन्त पलङ्ग के नीचे चली गयी। पलङ्ग पर बैठे हम और टण्डन जी घण्टों बात करते रहे। वह चुपचाप दम साधे पड़ी रही । टण्डन जी एक बार दो संसद सदस्यों स्वर्गीय सर्वश्री हरिहर नाथ शास्त्री एवं लाला अचिन्त्यराम की पत्नी को उसे देखने के लिए भेजा । उनके सामने न हुयी । दूसरे दिन टण्डन जी संसद में चर्चा करते रहेमैंने कभी न देखा और सुना कि स्त्री भी स्त्री से परदा करती हैं। वह स्पस्पशं का कड़ाई से पालन करती हैं। बिना हाथ पैर धोए कोई घर में खाना नहीं खा सकता। वह स्वयं भोजन बनाती है। बरतन नौकरानी के साफ कर जाने पर, स्वयं उन्हें जल से धोती है। घर का बर्तन सर्वदा चमकता रहता है। उन्हें देखकर मन प्रसन्न होता है, जैसे उसकी उज्वल पवित्रता बरतने में उतर आती है। यद्यपि मैं अकेला हूँ परन्तु घर पर तीस चालीस व्यक्तियों का भोजन बनता पाहा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका है । सम्बन्धियों के लड़के हमारे यहाँ रहकर, पढ़ते हैं। बाहर से लोग आते-जाते हैं। इतने मनुष्यों का भोजन रोज वह गत पचास वर्षों से बनाती है परन्तु कभी परिश्रम की शिकायत न की। हम लोग निरामिष है । उसका सादा भोजन स्वादिष्ट एवं रुचिकर होता है। आधुनिक महिलायें इसे, जड़ता प्रतिक्रिया वादिता और दकियानूसी मानेगी। परन्तु इस परम्परा में अमोघ शक्ति है । इसे भारतीय नारियों ने लाख-लाखों वर्षों से भारत की इस अमोघ शक्ति को बचा रखा है। उसने उन्हें शक्ति तो दी है देश को भी शक्तिहीन होने से बचाया है । उसे लगभग आठ वर्षों से पेट में टघूमर था। उसने कालान्तर में कैन्सर का रूप ले लिया। सितम्बर सन् १९७६ ई० में उसे कुछ दर्द मालूम हुआ। रामकृष्ण मिशन काशी में उसे दिखाया। कैन्सर की बात मालूम हुई। उससे न कहकर, स्पताल में भरती होने की बात कही गयी। वह स्पताल में भरती होने से बचने लगी। घर का काम-काज यथावत् करती रही । स्पताल में जाने का दिन निश्चित हो गया। उसने दो दिनों का समय और मांगा। गंगा स्नान करने गयी। देवताओं का दर्शन किया। गोदान किया। अन्नदान किया । गृहस्थी में जिसका जो कुछ देना-पावना था समाप्त किया। स्पताल में भरती होने के दिन पूर्ववत् भोजन बनाया और लोगों को खिलाया। आपरेशन होने के एक दिन पूर्व, मैं उससे मिलने गया। उसने प्रणाम कर, गलतियों के लिए क्षमा मांगा। मैंने बहुत पूछा। कोई इच्छा है ? उसने केवल यही कहा । हमारी कोई इच्छा नहीं है । कुछ रुपया रखा है । उससे क्रिया-कर्म करा दीजिएगा? सितम्बर १४ सन् १९७६ का दिन था। तीन दिनों से लगातार घोर वर्षा हो रही थी। बादल गरज रहे थे। बिजली कड़क रही थी। किसी को उसके जीने की आशा नहीं थी। ज्योतिषियों ने, हस्त रेखाविदों ने, जो अपने कुटुम्ब के हित चिन्तक थे, विज्ञ थे, आशा त्याग दिये थे। मैंने न आशा त्यागा था। न निराश हुआ। आपरेशन के समय वह शान्त थी। एक बार समझ लिया गया। वह आपरेशन टेबुल पर अन्तिम स्वाँस ले लेगी। किन्तु कुछ ही समय पश्चात् उसमें नव शक्ति उत्पन्न हो गयी। सफल आपरेशन हुआ। लगभग दो किलों का पत्थर जैसा कठोर मांस का लोथा पेट से निकला । बच्चेदानी में कैंसर फैल चुका था। वह भी साफ किया गया । डाक्टरों को आशा नहीं थी। वह जीवित रह सकेगी। किन्तु कुछ दिनों में आशातीत सुधार होने लगा। एक प्रतिशत भी किसी प्रकार का शारीरिक उत्पात नहीं हुआ। इन सारी परिस्थितियों में न तो वह घबड़ाई न उसे चिन्ता हुई । वह जीवित रहेगी या मरेगी। स्पताल में भरती होने के दिन से प्राइवेट केबिन में मेहतारानी, भंगी सबका आना बन्द हो गया। घर के ही लोग स्नानघर, आदि साफ करते थे । किसी गैर हिन्दू तथा अस्पृश्य दाई का आना वजित था। बात यहाँ तक बढ़ गयी थी। कुछ दाइयाँ दवा पिलाने के पहले कहा करती थी-वे ब्राह्मणी है। तथापि उसने स्पताल का जल ग्रहण नहीं किया। गंगा जल आता था। वही पीती थी। पका अन्न बिना स्नान किये कैसे खाया जाता अतएव फल ही एक मात्र आहार रह गया । डाक्टरों का कोई भी आदेश इस दिशा में कार्य न कर सका । आज यह भूमिका लिखते समय वह स्वस्थ है । चलती है। घूमती है । डाक्टरों के लिए यह स्वास्थ्य लाभ आश्चर्य का विषय है । अनुसन्धान का विषय है। उसके लिए भगवान की शक्ति है। जिस पर उसे अटूट विश्वास है। स्पताल की कोई भी दाई या व्यक्ति उसके स्पर्शा-पृश्य, खान-पान आदि से कभी नाराज नहीं हुआ। परिस्थितियों में अडिग रहना, स्वतः महान् शक्ति की परिचायक है। वह दूसरों के आदर का कारण बन जाता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जेनराजतरंगिणी आभार : पद्मभूषण ठाकूर जयदेव सिंह संगीत एवं दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान हैं। ओवर ने तत्कालीन राग, रागिनी, एवं वाद्य का प्रचुर उल्लेख किया है। कितने ही संगीत शास्त्र के पण्डितों से जिज्ञासा किया। कोई अध्ययन कर विषय पर प्रकाश न डाल सका। नई दिल्ली से ठाकुर साहब से परिचय था । वह संगीत विभाग आकाशवाणी के निर्देशक थे। उनसे चर्चा किया। सहज सहृदयता से श्रीवर लेकर अध्ययन किया। जहाँ मेरी पहुँच नहीं थी । रागों एवं वाद्यों के तत्कालीन एवं वर्तमान रूपों पर प्रकाश डाला है। ठाकुर साहब का वर्तमान जीवन राजर्षि अनुरूप है। वे हमारे महाल औरङ्गावाद वाराणसी के पास सिद्धगीर मुहल्ला में काशीवास करते हैं । काशी के आध्यात्मिक जीवन पर उनके अपने स्वयं विचार है । वे कहा करते हैं । काशी में एक प्रकार की स्पन्दन का अनुभव होता है। काशी का निवासी स्वतः अध्यात्म के पास पहुँचता है। मैंने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया था। तत्पश्चात् बाहर से आने वालों से सम्पर्क स्थापित किया । जिज्ञासा किया। कितने ही लोगों ने उत्तर दिया है। काशी में एक प्रकार की शान्ति है मुसलमानों ने उसे दूसरे शब्दों में कहा—यहाँ खामोशी महसूस होती है। अन्य ही पहुँचे लोगों ने बताया। उन्हें यहाँ से फकीरों, सन्तों की सुगन्धि मिलती है । यहाँ जन्म से ही, तथा कुटुम्ब के लम्बे ३०० वर्ष के निवास से काशी के जीवन से अभ्यस्त हो गया हूँ। इसलिए काशी के नैसगि रूप को पहचान नहीं सका था। मैं ठाकुर साहब के प्रति सादर अभार प्रकट करता हूँ । -- पुस्तक प्रस्तुत करने में श्री पशुपति प्रसाद द्विवेदी बाचार्य, एम० ए० प्राध्यापक, उत्तर रेलवे कालेज वाराणसी का आभारी हूँ । उनका सहयोग अन्य राज तरंगिणियों के समान, इस रचना काल में मिलता रहा है। उनका संस्कृत ज्ञान विगत दश वर्षों से गम्भीर होता गया है। उनके पारिश्रम एवं व्यवहार में समय अन्तर डालने में असमर्थ हो गया है । उनके सुशील स्वभाव एवं शोधक प्रवृत्ति के कारण मुझे, राहत मिलती रही है । उनके प्रति अपना आभार प्रकट करता हूँ । श्री विट्ठल दास जी चौखम्बा संस्कृत सीरीज़ ने अपनी स्वाभाविक सहृदयता से प्रकाशन का भार उठाया है। इसके लिए उनका कृतज्ञ हूँ । पुस्तक का प्रूफ श्री प्रेम नारायण शर्मा चौखम्बा ने देखा है । सर्वश्री अकबाल नारायण सिंह तथा माधव प्रसाद शर्मा प्रूफ पहुँचाने तथा लाने में जो सहायता प्रदान किये हैं, वह स्तुत्व है। वर्द्धमान मुद्रणालय के मालिक श्री चि० राजकुमार जैन पर जैसा कार्य समझ कर, पुस्तक मुद्रण करने की कृपा की है। मैं उक्त सभी महानुभावों का आभारी हैं, जिनके सहयोग बिना कार्य पूर्ण होना कठिन था । अन्त में उस अव्यक्त शक्ति को नमस्कार करता हूँ। जिसकी प्रेरणा से मैं इस कार्य में लगा । कितनी ही बार पुनः राजनीति में प्रवेश करने की इच्छा हुई परन्तु उस अव्यक्त शक्ति ने मुझे दुनिया से अलग रखकर, कार्य में रत रखा। उसकी कृपा से समस्त आठों खण्डों का कार्य समाप्त हुआ, अन्यथा मुझमें शक्ति तथा धैर्य कहा था ? · - रघुनाथ सिंह औरंगाबाद, वाराणसी नगर ९ नवम्बर सन् १९७६ ई० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्गम जैन तरंगिणी : राजतरंगिणी रचना परम्परा में जैन राज तरंगिणी का तृतीय स्थान हैं । इसके पूर्व कल्हण एवं जोनराज ने राजतरंगिणियों का प्रणयन किया था। श्रीवर पूर्व कालीन परम्परा का निर्वाह करता है । ग्रन्थ का शीर्षक राजतरंगिणी देता है। पूर्व दोनों राजतरंगिगियों और प्रस्तुत रचना में भेद प्रकट करने के लिए, जैन शब्द जोड़ दिया है। श्रीवर ने इतिपाठ के अतिरिक्त ग्रन्थ का पूरा नाम और कहीं नहीं लिखा है प्रारम्भ में वह केवल इतना लिखा है इसी जोनराज का शिष्य में पीवर पण्डित राजावली ग्रन्थ के शेष को पूर्ण करने के लिए उद्यत हूँ (१:१:७) तरंग तीन में वह ग्रन्थ का नाम जैन राजतरंगिणी न देकर केवल राजतरंगिणी लिखता है- 'अपने आँखों से देखे तथा स्मरण किये गये, राजाओं की विपत्ति वैभव, आदि विकृतियों के कारण, यह राजतरंगिणी किसमें वैराग्य नहीं उत्पन्न करेगी ?' ( ३:४ ) , श्रीवर राज कवि था । सुल्तान जैनुन आवदीन के प्रश्रय में वृद्धि प्राप्त किया था । स्वामी के प्रति आभार प्रकट करने के लिए, राजतरंगिणी के साथ सुल्तान जैनुल आबदीन का संक्षिप्त नाम 'जैन' जोड़ दिया है। तत्कालीन जगत के राज कवियों की यही परम्परा रही है "विक्रमांकदेवचरित', 'पृथ्वीराज विजय', 'कुमारपाल चरित' 'पृथ्वीराज', 'बिसलदेव' राम्रो आदि ग्रन्थ इसके ज्वलन्त उदाहरण है। जैनुल बावदीन के नाम पर जैन नगर, जैन दुर्ग, जैन कुल्पा, जैन कदल, जैन गंगा, जैन ग्राम, जैन गिर, जैन लंका, जैन वाटिका, जैन सर आदि रखे गये थे। उस श्रृंखला में राजतरंगिणी के साथ जैन जोड़कर, उसने परम्परा का अध्याय जैसे बन्द किया है । श्रीवर सुल्तान जेल आवदीन को जैन नृपति (३:४०२, ४:४०३) जैन भूप (२:१२७, ३:१३८, १४९, ५५६) जैन (४.५४ २०३०, ३:१५२, १५४) जैन महीपत (२:१३२, ३:२६५) आदि 'जेन' शब्द से सम्बोधित करता है । लादीन के जीवन काल में उसके नाम पर, संस्कृत में 'जैन तिलक' (१२:२४) जैन प्रका (१:४:३८) 'जैन विलास' आदि काव्यों की रचनाएँ की गयी थी। श्रीवर राज कवि था । राज कवि की बन्दना करता है। ( १:१:३) 'भूतकालीन जिस राज्य वृतान्त को अपनी वाणी की योग्यता से बन्दनीय है।' (३:२) राजकवि : कवि की बन्दना वह पुनः करता हैवर्तमान करता है, वह योगीश्वर कवि सुल्तान जैनुल आवदीन ने श्रीवर का लालन-पालन, पुत्रवत किया था। सुल्तान के प्रकट करते यह सिखता है" तत् तत् गुणों के आदान तथा एव सम्पत्ति के प्रदान पूर्वक ग्राम 3 ३ प्रति कृतज्ञता हेमादि अनु Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैन राजतरंगिणी ग्रहों से सुल्तान द्वारा पुत्रवत् वर्धित किया गया । अतएव उसके असीम प्रसाद की निस्कृति (विस्तार) की अभिलाषा से, उसके गुणों द्वारा आकृष्ट मन होकर, मैं उसके वृतान्त का वर्णन करता हूँ ।" ( १:१:११-१२) श्रीवर सुल्तान की सेवा में था । उसका वह स्पष्ट उल्लेख करता है - 'जिस नृप की जीविका का भोग, प्रतिग्रह एवं अनुग्रह प्राप्त किया, श्रीवर पण्डित ऋणमुक्त होने के लिये, उसका वृत्त वर्णन करता हूँ ।' (३ : ३ ) श्रीवर आभ्यासिक कवि है उसने गुरु जोन राज से शिक्षा प्राप्त किया था । साहित्य साधना का अभ्यास किया था। उसकी रचना मौलिक है । । राजतरंगिणी : तरंगिणी शब्द कल्हण के पूर्व भी संस्कृत साहित्य में प्रचलित था । कल्हण ने सर्वप्रथम राजतरंगिणी शब्द का प्रयोग इतिहास रचना के लिए किया है । कल्हण के महाकाव्य के कारण, राजतरंगिणी शब्द प्रसिद्ध होकर, पुरानी तरंगिणी शीर्षक ग्रन्थों का महत्व कम कर दिया । जोन राज ने कल्हण की राजतरंगिणी से प्रेरणा ली थी । तरंगिणी के सूखे प्रवाह को दो शताब्दियों पश्चात् पुनः प्रवाहित किया। उसके कारण धारा सूखने नहीं पायी । कल्हण ने कलियुग के प्रारम्भ से सन् ११४९ ई० का इतिहास प्रथम राजतरंगिणी में लिखा था । सन् १९४९ ई० से सन् १४५९ ई० का इतिहास जोन राज ने द्वितीय राजतरंगिणी में लिखा है । सन् १४५९ ई० से १४८६ ई० का इतिहास श्रीवर ने तृतीय अर्थात् जैनराज तरंगिणी रूप में प्रस्तुत किया है । चौथी राजतरंगिणी श्री प्राज्य भट्ट ने लिखा है । वह अप्राप्य है । उस राजतरंगिणी में सन् १४८६ से सन् १५१३ ई० का इतिहास है । उसके विषय में कोई नवीन सूचना अभी तक नहीं मिली है। उस ग्रन्थ के प्राप्त होने पर ही, साधिकार उसके विषय में कोई मत व्यक्त किया जा सकता है । अन्तिम अर्थात् पंच राजतरंगिणी का रचनाकार शुक है । प्राज्य भट्ट की राजतरंगिणी न मिलने के कारण, उसे चौथी राजतरंगिणी की संज्ञा कुछ लेखकों ने दी है। कलकत्ता तथा बम्बई संस्करणों में शुक राजतरंगिणी को प्राज्य कृत, चौथी राजतरंगिणी मानकर, गलतियाँ की गयी है । उसे चौथी राजतरंगिणी मानना संगत नहीं है । शुक ने शाहमीर वंश की पतनावस्था देखा था । उसने सन् १५९३ ई० से १५३८ ई० का इतिहास लिखा है । वह काव्य तथा कथावस्तु की दृष्टि से राजतरंगिणियों में चौथा ही स्थान रखती है । श्रीवर ने ग्रन्थ-कथा प्रसंग में ग्रन्थ का नाम 'जैन' राजतरंगिणी नहीं दिया है। केवल इति पाठ में 'जैन' शब्द राजतरंगिणी के पूर्व लिखा है । कुछ पाण्डु लिपियों में केवल राजतरंगिणी शीर्षक है । श्रीवर के गुरु जोन राज ने अपने ग्रन्थ का नाम राजतरंगिणी रखा था । शुक ने भी ग्रन्थ का नाम • राजतरंगिणी रखा है । श्रीवर क्यों 'जैन' नाम लिखा है ? कोई कारण होना चाहिए । श्रीवर के समय 'जैन विलास' 'जैन चरित', 'जैन तिलक' आदि ग्रन्थों की रचनाएँ हुई थी। उनमें केवल जैनुल आवदीन का ही चरित्र वर्णन है । उक्त ग्रन्थों के समान अपने ग्रन्थ की विशेषता दिखाने के लिए श्रीवर ने 'जैन' राजतरंगिणी नाम रख, उन ग्रन्थों की पंक्ति में श्रेष्ठ स्थान लेना चाहता था । यहाँ एक तर्क उपस्थित किया जा सकता है । प्रथम तरंग में लिखता है । वह जैनुल आवदीन और उसके पुत्र का चरित्र वर्णन करना चाहता था । जैन राजतरंगिणी का नाम तभी सार्थक माना जाता, जब उसमें केवल ज़ैनुल आवदीव का वर्णन होता । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १९ शीर्षक से ही ग्रन्थ का परिचय तथा रचना का उद्देश्य मालूम होता है । परन्तु श्रीवर ने चार तुल्लानों का वर्णन किया है। ऐसी परिस्थिति में 'जैन' वंश का इतिहास हो जाता है, न कि केवल जैनुल आबदीन का । श्रीवर ने इतिपाठ पाचवें सुल्तान फतहशाह के राज्य प्राप्ति के समय लिखा था । फतहशाह के राज्य प्राप्ति का वर्णन विस्तार के साथ मिलता है। उसके अन्तिम इतिपाठ में पाठ भेद बहुत अधिक मिलते हैं । कुछ प्रतियों में केवल राजतरंगिणी और कुछ में जैन शब्द जुड़ा है इसलिए क्रम एवं परम्परा को देखते हुए, इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 'जैन' शब्द कालान्तर में लिपिकों ने जोड़ दिया है । राजतरंगिणियों का ऐतिहासिक महत्त्व है । उनमें प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री है । कल्हण राजतरंगिणी के सातवें के उत्तरार्ध एवं आठवें तरंग का प्रत्यक्षदर्शी है। सातवें तरंग के अन्तिम चरण तथा पूरे आठवें तरंग की घटनाओं का अर्थात् सन् १०९८ से ११४९ ई० के वर्षों के इतिहास का उसे प्रामाणिक ज्ञान था । उसके इतिहास की प्रामाणिकता, उसके प्रत्यक्ष दर्शी होने के कारण है । कल्हण की राजतरंगिणी काश्मीर का गौरव उपस्थित करती है। जोन की राजतरंगिणी काश्मीर की पतनावस्था का भयंकर दृश्य उपस्थित करती है। श्रीवर की राजतरंगिणी सुख से दुःख की ओर ले जाती है । शुक में ग्राहमीर वंश के पतनावस्था का चित्रण है । जोनराज सन् १९४९ से १३८९ ई० की घटनाओं का प्रत्यक्षवर्ती नहीं है। परन्तु सन् १३८९ ई० से सन् १४५९ ई० सत्तर वर्ष की घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी हैं । इसी प्रकार श्रीवर सन् १४५९ से १४८६ ई० २७ वर्षों, प्राज्य भट्ट सन् १४८६ से वर्षों और शुक सन् १५१२ से १५१८६० अर्थात् २५ वर्षों के घटनाओं एवं इतिहास के कल्हण जोनराज, श्रीवर, प्राज्य भट्ट, एवं शुक सबने मिलकर प्रत्यक्षदर्शी रूप में २०० वर्षों का इतिहास लिखा है । इस रचना की ऐतिहासिकता एवं सत्यता में अविश्वास करना अनुचित होगा । १५१३ ई० २७ प्रत्यक्षदर्शी है। राजतरंगिणी शब्द उसकी व्युत्पत्ति तथा उसके इतिहास आदि के विषय में लेखक कृत कल्हण राजतरंगिणी प्रथम खण्ड की भूमिका पृष्ठों ४५-४९ तथा १७-२१ जोन कृत राजतरंगिणी में प्रकाश डाला गया है । उसे पुनः लिखना पुनरुक्ति दोष है । 1 ग्रन्थ योजना : श्रीवर ने राजतरंगिणी चार तरंगों में विभाजित किया है। प्रथम तरंग सात सगों में विभाजित है। परन्तु तरंग २, ३, एवं ४ में सर्ग नहीं है। कल्हण की राजतरंगिणी तरंगों में विभाजित है। जोनराज ने तरंगों एवं सर्गों में राजतरंगिणी विभाजित नहीं किया है । प्राज्य भट्ट के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता । शुक राजतरंगिणी भी तरंगों में विभाजित है। श्रीवर ने कल्हण के समान तरंगों में ग्रन्थ विभाजित करने के साथ ही साथ प्रथम तरंग को सात सर्गों में विभाजित किया है । विषय प्रतिपादन की दृष्टि से श्रीवर का वर्गीकरण उचित है। इतिपाठ : श्रीवर ने राजतरंगिणी लिखने की दो योजनाएँ बनाई थीं । प्रथम योजना के अनुसार, उसने प्रथम तरंग एवं दूसरी योजना के अनुसार द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ तरंग की रचना किया था। श्रीवर के प्रत्येक सर्ग एवं तरंग के इतिपाठ में वर्णित विषय का निर्देश किया है। आधुनिक रचना शैली के अनुसार सर्ग किया तरंग अथवा अध्याय का विषय शीर्षक में लिख दिया जाता है। पुराकालीन संस्कृत साहित्य में अध्याय किंवा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी सर्ग का शीर्षक इतिपाठ में देने की शैली थी। प्रथम सर्ग में मल्लशिला यद्ध वर्णन. द्वितीय में दुर्भिक्ष वर्णन, तृतीय में आदमखान निर्वासन तथा हाजीखान संयोग, चतुर्थ में पुष्प लीला, पंचम में क्रमसर यात्रा, षष्ठ में चित्रोपचय शिल्प वर्णन तथा सातवें सर्ग में प्रथम तरंग का प्रतिपाद्य विषय जैन शाहि वर्णन लिखा है। इसी प्रकार द्वितीय तरंग के इतिपाठ में हैदर शाह राज्य वृत्तान्त, तृतीय में हस्सन शाह राज्य वृत्तान्त तथा चतुर्थ में फतिह शाह राज्य प्राप्ति वर्णन है । कल्हण ने इतिपाठों में तरंगों के प्रतिपाद्य विषयों को नहीं लिखा है। उसने केवल तरंग समाप्ति लिखकर छोड़ दिया है । जोनराज ने मेरे मत से स्वयं इतिपाठ नहीं लिखा है। उसमें भी केवल तरंग समाप्त लिखकर तरंग बन्द किया गया है। श्रीवर ने अपने पूर्व राजतरंगिणीकारों कल्हण तथा जोनराज की अपेक्षा शीर्षक किंवा प्रतिपाद्य विषय लिखकर, पुरातन शैली को और विकसित किया है। शुक ने प्रथम तरंग के इतिपाठ में 'महम्मदशाहराजभ्रंशो नाम प्रथमस्तरंग.' लिखकर, श्रीवर का अनुकरण किया है। शुक ने द्वितीय तरंग का इतिपाठ लिखा ही नहीं है । अतएव प्रतिपाद्य विषय किंवा शीर्षक नहीं दिया गया है। कल्हण तथा श्रीवर के इतिपाठों में अन्तर है। कल्हण ने पिता तथा अपने नाम का उल्लेख और परिचय इतिपाठों में दिया है । अष्टम तरङ्ग के इतिपाठ में कल्हण अपने तथा अपने पिता के परिचय के साथ ही साथ राजतरंगिणी को महाकाव्य की संज्ञा भी दिया है। किन्तु श्रीवर तथा शुक ने केवल अपने नाम ही इतिपाठ में लिखे हैं। उसमें अपने वंश, पिता का नाम, परिचय तथा रचना काव्य या महाकाव्य है, न लिखकर, केवल राजतरंगिणी रचनाकार लिखकर, तरंग समाप्त किया है। नाम: श्रीवर ने इतिपाठों में अपना नाम श्रीवर लिखा है। कुटुम्ब अथवा कुल का परिचय नहीं देता। पिता का भी कहीं नाम नहीं दिया है। इसी प्रकार जन्मस्थान के विषय पर भी कुछ प्रकाश नहीं डालता। उसने सुल्तान हस्सन के प्रसंग में अपना नाम केवल श्रीवर लिखा है। इससे पता चलता है कि वह केवल श्रीवर नाम से ही पुकारा जाता था। उसके नाम के साथ कोई उपाधि नहीं थी। (३:२६३) शुक ने श्रीवर का उल्लेख करते हुए उसका नाम केवल श्रीवर लिखा है । इससे प्रकट होता है कि राजानक ओनराज के समान वह राजपदवी विभूषित कवि नहीं था। (शुक. १:६) इतिपाठों के प्रारम्भ में उसने अपनी संज्ञा श्रीवर पण्डित दी है। पण्डित शब्द केवल जाति का सूचक है | कल्हण ने भी अपने नाम के साथ पण्डित लिखा है (१:१:७)। इससे प्रकट होता है कि श्रीवर ब्राह्मण था । हिन्दू था। शिवभक्त था, अर्द्धनारी की वन्दना से यह स्पष्ट होता है। उसके वर्णन से प्रतीत होता है। श्रीनगर का निवासी था। श्रीनगर का अत्यधिक वर्णन किया है। श्रीवर अपने गोत्र, उपजाति के विषय में कोई सूचना नहीं देता। इतिपाठ में वह केवल पण्डित श्रीवर ही लिखता है। इससे प्रकट होता है। कल्हण अथवा जोनराज के समान किसी ख्यात वंश का नहीं था। साधारण ब्राह्मण कुल का था। जन्म मृत्युः जन्म के विषय में कुछ पता नहीं चलता। उसका जन्म कब हुआ था। मृत्यु का अनुमान लगाया जा सकता है। चतुर्थ तरंग के प्रणयन के पश्चात् उसको मृत्यु हई थी। श्रीवर ने चतुर्थ तरंग में अन्तिम बार लौकिक संवत् ४५६२ सन् १४८६ दिया है। जोनराज तथा शुक अपनी रचना के अन्त में इतिपाठ नहीं Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका २१ लिखे हैं। जिससे प्रकट होता है। ग्रन्थ बिना समाप्त किये ही उनकी अकस्मात् मृत्यु हो गई थी। श्रीवर ने अन्तिम चतुर्थ तरंग का इतिपाठ लिखा है। कल्हण अपने इतिपाठ में राजतरंगिणी समाप्ति की सूचना तरंग समाप्ति के साथ देता है। शुक के उल्लेख से पता चलता है कि जोनराज तथा श्रीवर ने मिलकर ६२ वर्षों के इतिहास की रचना की थी। श्रीवर ने सन् १४८६ ई० तक का इतिहास लिखा है। उसमें ६३ वर्ष घटा देने से सन् १४२४ ई० होता है। जैनुल आबदीन सन् १४१९ और १४२० ई० में सुल्तान हुआ था। श्रीवर ने अपने को जोनराज का शिष्य लिखा है। श्रीवर ने जोनराज की मृत्यु का समय १४५९ ई० दिया है। जोनराज का शिष्य बाल्यावस्था में ही श्रीवर रहा होगा। जोनराज की ख्याति पृथ्वीराज विजय भाष्य, किरातार्जुनीय, श्रीकष्ठ भाष्यों के कारण तत्कालीन संस्कृत जगत् में हो गयी थी। श्रीवर की मृत्यु सन् १४८६ ई० के समीप और उसकी आयु ६०, ७० वर्ष मान ली जाय तो, उसका जन्मकाल सन् १४९० ई० के पश्चात् ही ठहरता है। अनुमान के आधार पर जन्म काल सन् १४९०=१५०० ई० के अन्दर मान सकते हैं। तरंग समाप्ति की बात फतिहशाह राज्य प्राप्ति चतुर्थस्तरंग लिखता है। तरंग एवं राजतरंगिणी समाप्ति में अन्तर है। तरंग समाप्ति की बात लिखता है । जैन राजतरंगिणी समाप्ति की सूचना नहीं देता। इससे यह प्रकट होता है कि श्रीवर ने ग्रन्थ समाप्त नहीं किया था। उसे अपने मृत्यु की आशंका नहीं थी। वह अपने मृत्यु काल पर्यन्त के राजाओं का चरित लिखना चाहता था। जोनराज तथा शुक ने भी यही किया था। श्रीवर के ग्रन्थ लिखने की योजना कल्हण के निकट है। जोनराज तथा शुक की जो भी योजना रही हो, उसकी पूर्णता का दर्शन नहीं मिलता। वे ऐसे कवियों की रचनाएँ हैं, जो लिखते-लिखते अकस्मात् शान्त हो गये थे। अथवा इस योग्य नहीं थे कि, इतिपाठ आदि लिखकर, ग्रन्थ की पूर्णता या समापन करते। श्रीवर ने योजनाबद्ध रचना की है। उसने ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण घटनाओं एवं विषयों को सर्ग एवं तरंग बद्ध किया है। एक सुल्तान का चरित्र एक तरंग में लिखा है। प्रथम तरंग में जैनुल आबदीन, द्वितीय में सुल्तान हैदर शाह, तृतीय में सुल्तान हसनशाह तथा चतुर्थ में महम्मद शाह के राज प्राप्ति एवं समाप्ति का इतिहास लिखकर, प्रत्येक तरंग को अपने में पूर्ण बना दिया है। कल्हण ने प्रत्येक वंश का इतिहास एक-एक तरंग में पूर्ण किया है । जोनराज ने यह शैली नहीं अपनाया है । शुक ने श्रीवर की शैली की अपेक्षा जोनराज की शैली का अनुकरण किया है। श्रीवर ने जोनराज की अपेक्षा कल्हण की वर्णन शैली का अनुकरण किया है। चतुर्थ तरंग के पश्चात् भी अपने जीवन पर्यन्त श्रीवर राजतरंगिणी रचना क्रम जारी रखना चाहता था। चतुर्थ तरंग में राजतरंगिणी समाप्त न लिखने से यह स्पष्ट हो जाता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि श्रीवर की मृत्यु फतहशाह के प्रथम राज्यकाल के प्रथम चरण में हुई थी। फतहशाह का प्रथम राज्यकाल सन् १४८६ से १४९३ ई० है। फतहशाह के पश्चात् महम्मद शाह द्वितीय का राज्यकाल सन् १४९३ ई० से सन् १५०५ ई० है। यदि सन् १४९३ ई० तक श्रीवर जीवित रहता, तो अपने रचना एवं तरंगों की योजनानुसार, पंचम तरंग फतहशाह राज्यकाल समाप्ति तक अवश्य लिखता। उक्त कारणों से यह अनुमान लगाना तथ्यपूर्ण होगा कि श्रीवर की मृत्यु सन् १४८६ के पश्चात् और सन् १४९३ ई० के पूर्व हुई थी। सात वर्षों में किस वर्ष मृत्यु हुई थी कोई प्रमाण नहीं मिलता। यदि प्राज्य भट्ट की राजतरंगिणी मिल जाय, तो सम्भव है, इस विषय और श्रीवर के जीवन पर, कुछ और प्रकाश पड़ सकता है। श्रीवर के पश्चात प्राज्य भट्ट ने सन् १५१३ ई० का इतिहास लिखा है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी शुक लिखता है श्री जोनराज एवं विद्वान् श्रीवर ने बासठ वर्ष यावत दो मनोरमा राजावली ग्रन्थ ग्रन्थित किये थे । (शुक : १:६) जोनराज की मृत्यु सन् १४५९ ई० मे हई थी। श्रीवर अन्तिम लौकिक वर्ष ४५६२ = सन् १४८६ ई० देता है । इसी समय मुहम्मद शाह प्रथम बार राज्यच्युत और फतहशाह प्रथम बार काश्मीर का सुल्तान हुआ था। शिक्षा: श्रीवर स्वयं लिखता है राजतरंगिणी रचना करते हुए विद्वान् जोनराज ने ३५वें वर्ष (लो० : ४५३५ - सन् १४५९ ई०) शिव सायुज्यता प्राप्त किया। इसी जोनराज का शिष्य मैं श्रीवर पण्डित राजावली ग्रन्थ के शेष को पूर्ण करने के लिये उद्यत हूँ।" (१:१:६, ७) 'कहाँ मेरे उस गुरु का काव्य और कहाँ मन्दमति मेरा वर्ण मात्र की समानता से अकोल क्या कर्पूर हो सकता है ?' (१:१:८) इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रीवर का गुरु जोनराज था। द्वितीय राजतरगिणी का रचनाकार राजानक जोनराज संस्कृत साहित्य का प्रकाण्ड विद्वान् था। तत्कालीन राज्य की सर्वश्रेष्ठ उपाधि राजानक पदवी से विभूषित था। जैनुल आबदीन सुल्तान का राजकवि था। उसने मंखक कृत श्रीकण्ठ चरित, अज्ञात कविकृत पृथ्वीराज विजय, तथा भारविकृत 'किरातार्जुनीय' जैसे संस्कृत महाकाव्यों की टीका की थी। जोनराज सिद्धहस्त लेखक था। काव्य व्यञ्जना जानता था। उसने राजतरंगिणी में अलंकारो का यथा स्थान सुन्दरतापूर्वक प्रयोग किया है। जोनराज काव्य मर्मज्ञ था। रामायण, महाभारत, भास, वाण, कालिदास, जयानक, आदि कवियों की रचनाओं का अध्ययन किया था। ज्योतिष, दर्शन आदि का गम्भीर विद्वान् था। श्रीवर उसी महाकवि का शिष्य था। उसे इस बात का गौरव था। जोनराज का शिष्य था। श्रीवर ने जोनराज की शिष्य परम्परा का निर्वाह राजतरंगिणी की रचना कर किया है। श्रीवर की महत्ता इसी से प्रकट होती है कि वह जोनराज की महत्ता स्वीकार कर, उसके प्रति, अपने गुरु के प्रति, आभार एव आदर प्रकट करता है। राजतरंगिणी ज्ञान: जोनराज के पास पुस्तकालय था। साहित्य एवं इतिहास ग्रन्थों का संग्रह था। जोनराज ने स्वय काश्मीर के ३१० वर्षो का इतिहास लिपिबद्ध किया था। उसने कल्हणकाल से अपनी मृत्युकाल का इतिहास लिखा था। कल्हण की राजतरंगिणी का अध्ययन श्रीवर ने अपने गुरु के पास अवश्य किया होगा। उसका गुरु स्वयं इतिहास लिख रहा था। उसके पास तत्कालीन इतिहास ग्रन्थों का होना अनिवार्य था। श्रीवर के समय जोनराज ने अपनी राजतरगिणी का प्रणयन किया था। उन दिनों शिष्य गुरु की सहायता करते थे। गुरु के निवासस्थान पर, उनका अधिक समय व्यतीत होता था। यह परम्परा काशी मे बीसवी शताब्दी के . प्रथम दो दशकों तक मेरी जानकारी में प्रचलित थी। श्रीवर ने कल्हण कुत राजतरंगिणी से उपमा तथा अपने ग्रन्थ के लिये इतिहास सामग्री ली है। उसने ललितादित्य, जयापीड आदि राजाओ का उल्लेख किया है। ललितादित्य के इच्छा पत्र (वसीयत नामा) का भाव वह उद्धृत करता है-'यहाँ के नृपति सर्वदा अपना भेद रक्षित रखे, क्योंकि चार्वाकों के समान इन लोगो को परलोक से भय नहीं होता। ललितादित्य की निर्धारित इस नीति का जो उल्लंघन कर, परस्पर वैर करते है, वे मन्त्री नष्ट हो जाते है।' (३:२९७-२९८) द्रष्टव्य : रा०:३४:३४२-३५९) श्रीवर एक राजतरंगिणी की ओर सूचना देता है । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका २३ भाषा मे लिखी गयी दश राजाओं का शाहमीर से जैनुल आबदीन काल तक दश उसके समय दश राजाओं के चरित के साथ संस्कृत में एक और राजतरंगिणी ग्रन्थ था । उसका अनुवाद सुल्तान जैनुल आबदीन ने फारसी में कराया था - 'संस्कृत ग्रन्थ राजतरगिणी को फारसी भाषा द्वारा पढने योग्य कराया ।' सुल्तान हुए हैं। कोनराज ने दश सुल्तानों का वृत्तान्त लिखा है। यदि यह जोनकृत राजतरंगिणी होती तो, रचनाकार अपने गुरु जोनराज का उल्लेख इस प्रसंग में श्रीवर अवश्य करता । जोनराज की राजतरगिणी मे २४ राजाओं एवं सुल्तानों का चरित्र लिखा गया है। सम्भावना यही है कि इस राजतरंगिणी का रचनाकार कोई और व्यक्ति था । मूल ग्रन्थ तथा उसका फारसी अनुवाद अभी प्रकाश मे नही आया है। शुक इस ग्रन्थ का उल्लेख नहीं करता । अध्ययन : श्रीवर ने शास्त्रों एवं विविध विद्याओं का गम्भीर अध्ययन किया था । उसके ग्रन्थ अवलोकन से, संगीत शास्त्र भरत का नाट्य शास्त्र, धर्मशास्त्र, वैशेषिक दर्शन, योग दर्शन, कल्पशास्त्र, मोक्षोपम साहित्य, चार्वाक तथा कला मूलक ग्रन्थों के अध्ययन का आभास मिलता है । धीवर बृहद् कथा, गीत गोविन्द, योग वासिष्ठ आदि पुराण, हाटकेश्वर सहिता का राजतरंगिणी में उल्लेख करता है सुल्तानों को उन्हे पढ़कर सुनाया करता था (३.१ १.५:८० १२:८४, १५:०४, १.५:८६, १:४.१८, ३:५४२, २५७, १:५:८०, १:७३३ २०:५७) इससे प्रकट होता है कि उसने उनका अध्ययन किया था । गीतांगाधिपति : 1 काश्मीर के दशवें सुल्तान हसन शाह के समय श्रीवर गीत, नाटक, आदि का अधिकारी था। उसे 'गीतांगाचिपति' की उपाधि मिली थी। वह स्वयं दिखता है सुल्तान ने गायक वृन्द को मेरे सम्मुख उपस्थित करो - इस प्रकार मुझ गीतागाधिपति को आदेश दिया । वाद्य सहित वहावदीन, आदि वृन्द गायकों को स्थापित कर, नाम ग्रहण पूर्वक, सबको निवेदित किया (३:२४० - २४१ ) श्रीवर राजकवि के साथ ही साथ संगीत, नृत्य, गान, नाटक विभाग का अधिकारी था। वही इन सबका प्रबन्ध करता था । उसी के निदेशन पर, इस राजकीय विभाग का कार्य होता था । वह स्वयं लिखता है - 'उस समय मुझसे गीत गोविन्द के गीतों को सुनकर, राजा में गोविन्द भक्ति से पूर्ण कोई अपूर्व रस उत्पन्न हुआ । उस समय हम दोनों के मंजुल गीतनाद की कुंज में होने वाली प्रतिध्वनि राजगौरव वश वहाँ के किन्नरों द्वारा अनुगीत सदृश प्रतीत हो रही थी ।' (१:५.१०१, १०२) गीत - गोविन्द भक्ति रस मय गीत काव्य है । अनेक स्वर एवं लयों में गाया जाता है। काशी मे पहले गीत गोविन्द गायक सस्वर गाते थे । आजकल आधुनिक संगीत के चक्कर में लोग पुरातन राग एवं शास्त्रीय संगीत भूल गये है। श्रीवर लिखता है - 'जहाँ पर वापीगत हंस शब्द व्याज से मानो समीपस्थ गान करते थे । गायकों के गीत की प्रशंसा करते थे। (१:५:८) जहाँ पर इन्द्र के समान सत्रु को नीचा कर, सुखपूर्वक, गन्धर्व विद्या का आनन्द लेते हुए, सब दिन व्यतीत करता था' (१:५:९) । श्रीवर ने संगीत विद्या का स्थान-स्थान पर तरंगिणी में उल्लेख किया है । उसे संगीत के सब अंगो का पूर्ण ज्ञान था । वह लिखता है - 'राजा के सम्मुख कर्णाट के गायको ने केदार, गौड़, गान्धार, देख, बंगाल, तथा मालल राग गाया । ( १:२४५) धीवर अनेक , रागों का उल्लेख करता है। उससे प्रकट होता है । वह संगीतज्ञ था । संगीत शास्त्र का ज्ञाता मात्र नही Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन राजतरंगिणी था । स्वयं कुशल गायक एवं वीणावादक था । संगीत सम्बन्धी शंका समाधान करता था । वह स्वयं लिखता है - 'सभा में स्वनिर्मित, अनुगीत करते, उस गायक से सन्तुष्ट होकर, सुल्तान ने उसे प्रचुर सुवर्ण प्रदान किया । प्रबन्ध गीत में दक्ष, वह किसी समय सुल्तान के सम्मुख सर्व लीला नामक प्रबन्ध देशी भाषा मे गाया । अनभिज्ञता के कारण सुल्तान ने उसका लक्षण से पूछा । शीघ्र ही मैं भरत शास्त्र आदि का उदाहरण देकर, पद, पाठ स्वरो, एव ताल रागों से मनोहर, षडंग युक्त, उसे ( गीत ) सुनाया । उदार हृदय राजा सुनकर मुग्ध हो गया ।' उसके गीत का भंग वैकल्प जानकर, सुल्तान ने मुझसे कहा - ' गीत का दर्प करने वाले, इसके साथ सभामध्य वाद करो ।' 'ऐसा हो' - यह कहने पर दोनो में वाद (शास्त्रार्थ) कराया। सभा में वाद होने पर, गीत ग्रन्थ का अवलोकन करने से और मुझसे प्रबन्धों को सुनकर आश्चर्यान्वित वह गदन से बोला- 'अहो ! काश्मीरी !! तुम, शास्त्र वेत्ता एवं चतुर हो' - इस प्रकार कहकर, मुझे आलिंगन किया और स्पष्ट कहातुम मेरे गुरु हो । उस वाद विजय से प्रसन्न सुल्तान ने शीघ्र ही मुझे कौशेय वस्त्र प्रदान कर, परमानन्दित किया ।' (३:२५६-२६२) . गम्भीर विद्वान् माना जाता था । भरत नाट्यम शास्त्र, संगीत विद्या विद्वानों से वाद विवाद मे समर्थ उक्त उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है । श्रीवर संगीतशास्त्र का काश्मीर मे तथा राजदरबार में उसकी ख्याति थी । वह काश्मीर मे पारंगत, सर्वश्रेष्ठ विद्वान था । भारत की किसी भी संगीत परम्परा के था । उसने काश्मीर का गौरव बढाया था । उसकी इस विलक्षण बुद्धि एवं गरिमा के कारण सुल्तानों ने उसकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा को है सुल्तान हसन स्वयं संगीत विशारद था, उसे अपना गुरु मान लिया था । सुल्तान ने स्वयं गीत काव्य रचना फारसी एवं हिन्दुस्तानी भाषा मे की थी। जिससे उसकी सब प्रशंसा करते थे !' (२:२१४) श्रीवर ने प्रतीत होता है, संगीत, गीत, एवं नृत्यादि का जो वातावरण उपस्थित किया था, उससे काश्मीर मण्डल प्रभावित हुआ था । देश एव विदेश के गीत एव संगीतज्ञों का काश्मीर केन्द्र एक आकर्षण हो गया था । । नृत्य : श्रीवर संगीत के अतिरिक्त नाट्यशास्त्र एवं नृत्यकला विशारद था । उसने नाट्यशास्त्र एवं नृत्य के हाव-भावों का वर्णन किया है। काश्मीर में नाटक प्राचीन काल से प्रचलित थे । मुसलिम शासन होने पर भी नृत्य एवं गान, जनता भूल नही सकी थी। श्रीवर वर्णन करता है - 'जहाँ पर द्रष्टा एवं गायक भी अन्तःकरण से उत्सुक, अलंकार सहित, प्रबन्ध के ज्ञाता तथा सिद्धान्त श्रुत में ग्राम गत चारु स्वर, राग से मनोहर रस पूर्ण गीत तथा युवतियाँ शोभित थीं । मान से सुखी मन, विद्याविद्, संशय रहित तथा रग मंच के प्रति रंगीन रुचि रखने वाले थे । ({:४:६–८) 'वहाँ पर वह लोग प्रति ताल, एक ताल आदि बहुताल विभूषित तारा, तारा का ज्ञान प्रख्यात थे, जहाँ पर नाना लोग कला कलाप के वेत्ता, ( हाव-भाव ) प्रकट करते थे । लास्य ताण्डव नृत्य को जानने वाले नैनोत्सव एवं कामदेव का अस्त्र मूलउत्सवा नाम्नी गायिका किसके लिये मनोरंजक नहीं हुई । उनवास भावों तथा उतने ही तालों को प्रदर्शित करती वे पात्री स्त्रियाँ मूर्तिमती सदृश शोभित हो रही थी ।' (१:४:८, ११ ) 'रंगमंच पर दीपित, वे दीपमालायें देखने की इच्छा से आगत, नागों के फण पर स्थित मणिगण राजरूप सुन्दर अभिनय द्वारा सुल्तान समय के कुछ नर्तकियों का वर्णन सदृश शोभित हो रही थी । ( १:४. १६) श्रेष्ठ नटों ने कृष्ण चन्द्रावली मे उसे देखते का कौतूहल उत्पन्न कर दिया । ( ३:२३२ ) श्रीवर अपने Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ भूमिका करता है-रत्नमाला, दीपमाला, रूपमाला नाम्नी लासिकाएँ हाव, भाव से मनोहर नृत्य की । झम्पा, कम्पा से आकुल अग्रसर होती, सरसता की धारा से सर्वांगों से मनोहारिणी, प्रारम्भ किये गये अभिलिखित नृत्य के अनन्तर, तरल शोभायमान होते, हाव-भाव एवं अनुभाव से पूर्ण, उत्कण्ठा उत्पन्न करने वाले, कण्ठ से निकले, निरन्तर प्रनित, प्रचुर गीत प्रपञ्चों वाली, तिलक एवं रत्नों की माला से युक्त, सुरम्य शरीर वाली, यह पात्री कैसी भली लग रही है ? गुणियो का मद तथा प्रेक्षकों की आनन्द पात्री, नवीन लयों की विधात्री, रूप लावण्य की धात्री, सुललितगात्री, शुद्ध संगीत, गुणगणमणि पात्री, केवल रूपमाला पात्री थी। जिसका मुख पूर्ण चन्द्र ही है। विधाता ने सम्पूर्ण पर्वो से अवशिष्ट, जिसे यहाँ रख दिया। इस (मुख) की कान्ति से सूखा हुआ, अमृत बिन्दु सी मानो, नासिकाग्र पर स्थित, मौक्तिक के ब्याज से शोभित हो रहा है। इन नर्तकियों के कर्ण एवं शिर पर गुथे, लटकते, मुक्ताफल के ब्याज से लगता है कि मुख चन्द्र से लावण्यामृत की बूंदे निकल पड़ी है।' (३:२४७-२५१) अर्धनारीश्वर की वन्दना करते हुए श्रीवर अपनी नृत्य कला का ज्ञान प्रकट करता है-'यह दक्षिण पाद नर्तन की इच्छा से जहाँ पर आधार देता है, वही पर संचार संस्कार वश, वामचरण पग देना चाहता है। इस प्रकार सन्ध्या समय, जो मण्डलाकार शोभित पदकारी नृत्य करते है, वह भगवान् अर्धनारीश्वर सुखभाव प्रदान करे। (२:२) वीणावादक: कोई केवल गाना जानता है, कोई केवल नृत्य जानता है, कोई केवल वादन जानता है, कोई केवल कवि होता है, कोई केवल गीतकार होता है, कोई केवल दार्शनिक होता है, कोई केवल संगीत एवं नत्य शास्त्र का ज्ञाता होता है, परन्तु स्वतः गायक एवं नर्तक नही होता । परन्तु श्रीवर में उक्त सभी कलायें एवं गुण विद्यमान थे। शास्त्रीय संगीत को गन्धर्व विद्या के अन्तर्गत माना जाता था। सुल्तानों के काल में शास्त्रीय संगीत प्रचलित था। श्रीवर गन्धर्व विद्या पारङ्गत था। श्रीवर कुशल वीणावादक था। वह जिस प्रकार कण्ठ संगीत में प्रवीण था, उसी प्रकार वाद्य वादन कुशल था। वह केवल वीणा वादक ही नही था परन्तु अन्य विदेशी एवं देशी वीणा वादकों से प्रतियोगिता भी करता था। श्रीवर अपने वीणा वादन के प्रसंग मे स्वयं वर्णन करता है-खुरासान से आगत मल्ला वादक ने कूर्म वीणा वादन द्वारा महीपति का अतुल अनुग्रह प्राप्त किया (१:४:३२-३३) । म्लेच्छ वाणी में गीत कारक मल्लाज्य ने सुल्तान का उसी प्रकार अनुरंजन किया, जिस प्रकार नारद इन्द्र का । सर्व गीत विशारद एवं तुम्ब वीणा पर मैंने नवीन गीत आरम्भ कर, कौशल किया। मेरे साथ अन्य भी नृपाग्रगामी जाफराण आदि वीणा के साथ दुष्कर तुरुष्क राग गाये । सभा में हम लोगों के बारह राग के गीत गाते 'समय वीणा एवं कण्ठ से निकलते स्वर मानो प्रीति से ही एक हो गये थे। (१:४:३२-३५) सुल्तान हैदरशाह एवं हसनशाह स्वयं वीणा वादक थे। संगीतज्ञ थे-गीत गुणों का सागर खोजा अब्दुल कादिर का शिष्य मुल्ला डोदक सुल्तान हैदरशाह के वीणा वादन का गुरु था। मुल्ला डोदक से कूर्म वीणादि वाद्यों के गीत कौशल प्राप्त कर, जीवन पर्यन्त सुल्तान तन्त्रीवादन के बिना क्षण भर नही रहता था। (२:५७) सुल्तान स्वयं वीणावादकों को भी शिक्षा देता था।' (२:५८) श्रीवर ने म्लेच्छ वीणा, तुम्ब वीणा, कूर्म वीणा, एवं मोद वीणा चार प्रकार की वीणाओं का उल्लेख किया है। इनके भेद पर यथा स्थान प्रकाश डाला गया है। श्रीवर दस तन्त्र की बीणा बनाने का उल्लेख करता है। इस वीणा की संज्ञा वह मोद वीणा से देता है-'पिता से अधिक गुणी मल्ला (मुल्ला) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैन राजतरंगिणी हसन ने भी दश तन्त्रियो की मोद वीणा बनायी । राजा के आदेश पर तुम्ब वीणा धारी मैंने भी, पारसी गीत की कौशल पूर्वक भाषा गीत सामग्री प्रदर्शित की' । ( २:२३५, २३६ ) श्रीवर के वीणा वादन की कुशलता इसी से प्रकट होती है कि पारसी तथा भाषागीत को वीणा पर कुशलता पूर्वक गाता था । संगीतज्ञ : श्रीवर के कारण काश्मीर के सुल्तानों की ख्याति संगीत विद्यासंरक्षकों के रूप में हो गई थी । देश तथा विदेश से संगीतज्ञ मान, प्रतिष्ठा, आश्रय, अर्थ एवं संरक्षण हेतु काश्मीर में आने लगे थे । मीर मे गन्धवं विद्या का अर्थ शास्त्रीय संगीत से लिया जाता था (१:५:९) सर्वगुण सागर अब्दुल का शिष्य खुज्य राग, ताल आदि समन्वित, सरस गायक जैनुल आबदीन को प्रसन्न करता था । ( १ : ४ : ३१) हसन शाह के समय इसी प्रकार गीत काव्य कला मे प्रख्यात कदन विदेश से काश्मीर मे आया था । (३:२५४, २४५) वह प्रबन्ध गीत में दक्ष था । उसने 'सर्वलीला' नामक प्रबन्ध देशी भाषा में गाया था । (३:२५६) तत्कालीन काश्मीर मे श्रीवर के कारण शास्त्रीय संगीत को जो मान्यता मिली, उससे काश्मीरी संगीत विदेशी संगीत पद्धति के समक्ष उमडकर सामने आई । विदेशी संगीत ने चाहे काश्मीरी संगीत को प्रभावित किया हो, परन्तु उसका उन्मूलन नही कर सका । रक्षा के लिए शास्त्रार्थं वाद एवं स्वयं गाकर, भारतीय संगीत का मस्तक ऊँचा ख्याति उसके शास्त्रीय संगीत के कारण भारतवर्ष के गायक कदन ( गायक) से संगीतशास्त्र विषयक शास्त्रार्थ श्रीवर ने किया था । ( ३:५५९ ) श्रीवर के विजय से प्रसन्न होकर, हसन शाह ने कहा—'अहो काश्मीरी भी, तुम सर्वशास्त्र वेत्ता एवं चतुर हो ।' यह कहकर, राजा ने श्रीवर को आलिङ्गन कर, उसे अपना गुरु घोषित किया । (३ : २६६) श्रीवर को प्रचुर सम्पत्ति दिया । ( ३:२६३) राजाओं में फैल गई थी । श्रीवर भारतीय संगीत की करता था । काश्मीर की उसका पुत्र कुशल वीणा सम्पन्न प्रसन्न नवयुवक ( इसका परिणाम यह हुआ कि काश्मीर के सुल्तानों ने स्वयं केवल प्रश्रय ही नही दिया स्वयं निपुण शास्त्रीय संगीत के गायक हो गये । जैनुल आबदीन स्वयं गीत गोविन्द गाता था । वादक था । उसके पौत्र ने विदेश से गायको को बुलाया था - ' प्रचुर राजश्री से नृपति गीतवेत्ता वर्ग को लाकर, संगीत रसिक हो गया । ३:२३० ) सुल्तान जैनुल आबदीन, उसके पुत्र सुल्तान हैदर तथा पौत्र हस्सन स्वयं संस्कृत, समझते थे । बोलते थे । संगीत शास्त्र का अध्ययन करते थे । संगीतिज्ञों के साथ गाते थे । रस मर्मज्ञ थे । कलाविद् थे । ( ३:२३७) श्रीवर सुल्तान हसन के गायन का वर्णन करता है - 'जिससे तरु समुल्लसित होते है, मृग बश मे हो जाते है, देवता गण यंत्र में उतरते है, जो कि मूर्ख, विद्वान्, बालक, वृद्ध के दुःख-सुख मे प्रीतिकर होता है, वह श्रीनाद नामक रस मेरे लिए प्रिय हो ।' उस समय सुल्तान ने मधुर कण्ठ से राग के एक अलाप से बहुत से राग वाले सूत्र एवं ऊँचे गीत गाकर, हम लोगों को चकित कर दिया । ( ३:२३८, २३९) सुल्तान हसन के पिता सुल्तान हैदर के विषय में श्रीवर लिखता है - ' गीत गुणों का सागर अब्दुल कादिर का अन्तेवासी वीणावादक मुल्ला डोदक सुल्तान का गुरु था । इससे कूर्म वीणादि वाद्यों का गीतकौशल प्राप्तकर, जीवन पर्यन्त सुल्तान तन्त्री-वादन के बिना क्षणभर नहीं रह सकता था । व्यंजन धातुओं द्वारा तन्त्रीवाद्यविशेषज्ञ तथा वादन में प्रवीण सुल्तान स्वयं वीणावादकों को भी शिक्षा देता था ।' (२:५६-५८) राणा कुम्भ स्वयंवीणा वादक एवं शास्त्रीय संगीत का प्रख्यात विद्वान् था । उसने 'संगीतराज' ग्रन्थ की रचना की थी । गीत गोविन्द षर 'रसिक प्रिया' विशद टीका लिखी थी । राणा कुम्भ का A Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका २७. काश्मीर संगीत की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था । सुल्तान को भेंट भेजा था - 'राणा कुम्भ ने नारी कुंजर नामक वस्त्र भेजकर उस देश के उत्तम स्त्रियों के हृदय के कौतूहल को दूर किया । (१:६:१३) ग्वालियर के राजा हूगर सिंह संगीत प्रेमी थे। उन्होंने अपने राज्य में संगीतज्ञों के प्रथम की जो परम्परा चलाई थी, वह अक्षुण भारतीय स्वाधीनता के पूर्व तक स्थित थी। तानसेन आदि प्रसिद्ध संगीतज्ञ ग्वालियर की देन है। काश्मीर सुल्तान के संगीत प्रेम एवं प्रथम से आकर्षित होकर उन्होंने भी सुल्तान को भेंट भेजा था - 'गोपालपुर (ग्वालियर) के राजा डूंगर सिंह ने गीत, ताल, कला, वाद्य, नाट्य लक्षणों युक्त संगीत शिरोमणि एव संगीत चूडामणि नामक गीत ग्रन्थ विनोद हेतु सुल्तान के लिए भेजा (१:६:१५) संगीत चूड़ामणि चालुक्य वंशीय महाराज जगदेकमल्ल (सन् १९३४ ११४३) संगीत के प्रकाण्ड विद्वान् थे । उनकी राजधानी कल्याण थी । संगीत चूडामणि बृहद् ग्रन्थ के रचनाकार थे । " से रबाब : tara वाद्य की जन्मभूमि काश्मीर है । जो लोग रबाब को इरानी अथवा मध्य पश्चिम एशिया का वाद्य मानते है । उनका भ्रम श्रीवर दूर करता है - ' रबाब वाद्य का रचना कर्त्ता बहलोल आदि गायको ने तत् तत् प्रकार से कनकवर्षी सुल्तान की कृपा से क्या नही प्राप्त किया ?' (२:५९) काश्मीर में आज भी रबाब वादन सर्वप्रिय है। काश्मीर के स्वाविया भारतवर्ष में प्रसिद्ध है। ज्योतिष ज्ञान प्राचीन शैली के पण्डित, षट्शास्त्र के साथ ही साथ ज्योतिष का अध्ययन करते थे । श्रीवर के वर्णन से प्रकट होता है कि उसने फलित एवं गणित दोनों का ज्ञान प्राप्त किया था 'सभी प्राणियों के लिए ३६ वर्ष भयकारी होता है। महाभारत में पाहुवंशियां के विनाश होने से प्रसिद्ध है " ( १:२८) यह पुनः लिखता है - 'राजा द्वारा पूछे जाने पर ज्योतिषियों ने पाशु वृष्टि से इस वर्ष दुर्भिक्ष होना कहा । ' ( १:२:१०) ग्रहों तथा नक्षत्रों के फल तथा उनके गति प्रभाव का वर्णन श्रीवर ने किया है। ज्योतिषी होने के कारण श्रीवर ज्योतिष में विश्वास करता था । योग, लग्न, मुहूर्त आदि की घटनाओ का कारण माना है । जैनुल आबदीन के पुत्र मुगल बादशाह शाहजहाँ के पुत्रों के समान परस्पर सङ्घर्ष रत हो गये थे। उसका भी कारण वह ज्योतिष को ही देता है— 'निश्चय ही जातक योग के कारण पुत्रों से सुल्तान दुःखी हुआ, क्योकि उसके सुत स्थान मे पाप दृष्ट भौम था । ( १ : १९ : २६४ ) ( सूर्य की संक्रान्ति क्रूर दिनों मे हुई थी। उससे प्रजा के भविष्य में क्रूर फल की उत्पत्ति तथा विनाश का भय उत्पन्न हो गया था । ( १:७ : १६ ) आकाश में द्वितीया के चन्द्रमा का उत्तान होकर दिखाई पड़ना राजा के परिवर्तन योतक सदृश था (१:७. १८) । श्रीवर राजा तथा मन्त्रियो की गणना करता था। वह वही कर सकता था, जो प्रतिदिन कार्यो में गणना एवं ग्रहों की स्थिति का ज्ञाता होता था । वह लिखता है - 'मंगल वर्ष ( राजा मंगल) का वह मास, वर्णाचार का विपर्यास एवं पुर श्री के निर्वासन हो जाने पर निवास क्षयकारी हुआ।' (३:२९१) इस प्रकार वह राहु की उपमा देता है— 'राहु की छाया की तरह बढता आधिपत्य करने लगा । ( ३:४३८) ग्रहण की तरफ यहाँ संकेत किया गया है । ग्रहण जिसने ध्यानपूर्वक देखा है, वही इस श्लोक के अर्थ एवं भाव को समझ सकता है। राहु क्रूर किवा पाप ग्रह है । उसकी उपमा पुनः श्रीवर ने दी है— 'शस्त्राधिपत्य के अनुचिर निग्रह एवं अनुग्रहों के कारण, ग्रहों में राहु के समान, उन (मन्त्रियों) में वह क्रूर हो गया ।' क्रूर ग्रह का श्रीवर और उल्लेख करता है'क्रूर ग्रह के समान अलीशेर और हैदर उसके मुख, बाहू एवं कपाल पर प्रहार किये और उसे विवश कर दिये ।' (४:६००) ग्रहों के प्रभाव के विषय में धीवर लिखता है— कभी प्रसन्न होकर, सार्वजनिक सुख पैदा के ני Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैन राजतरंगिणी करता है, कभी कुटिल होकर जनता को ईति भीति में चकित कर देता है। इस प्रकार संसार को परिवर्तन पूर्वक नीचा-ऊँचा, फल देने वाले ग्रह के समान आश्चर्य है, विधि की गति विचित्र होती है।' (४:७२२) हिन्दू एवं मुसलमान दोनों ही शुभ लग्न में कार्य आरम्भ करते थे । यात्रा के लिए लग्न का विचार करते थे। मुसलिम बहुल देश हो जाने पर भी काश्मीर में पूर्व ज्योतिष संस्कारों का लोप नही हुआ था-'पुनः मार्गेश शुभ लग्न में निकल पड़ा और खान के बल भेदन का उपाय सोचने लगा।' (४:५३०) काश्मीर में ज्योतिष का अधिक प्रभाव था। मान्यता थी। सप्तग्रहों के अनुकूल, सातों दिन वस्त्रादि विभिन्न रंगो के धारण किये जाते थे—'सप्तग्रहों के अनुकूल सातों दिन, उसी वर्ण के वस्त्र से शोभित होने वाले बहराम, सुल्तान के समान, अष्ट योग प्राप्त करने वाले, उसकी भी तुच्छ जन की दशा हुई-लक्ष्मी को धिक्कार है।' (४:६२९) आयुर्वेद जान : श्रीवर चाहे कुशल वैद्य न रहा हो परन्तु उसे आयुर्वेद का ज्ञान था। तत्कालीन पण्डित परम्परा के अनुसार प्रत्येक पण्डित को सभी शास्त्रों का कुछ न कुछ अध्ययन करना पड़ता था। श्रीवर ने आयुर्वेद एवं चिकित्सा सम्बन्धी, जिन बातों का उल्लेख किया है, उनसे उसका आयुर्वेद ज्ञान प्रकट होता है। उनका प्रयोग उपमा के प्रसंग में किया है-'कुपुत्र के व्यसन के कारण सप्त प्रकृति से समृद्ध वह महामल्लेक पुर सप्तधातु पूर्ण शरीरवत् नष्ट हो गया ।' (१:७:६६) श्रीवर अपने आयुर्वेद ज्ञान का परिचय देता है क्योंकि सप्त धातु सम्बन्ध देह सदृश, सप्ताग ऊजित, राज को त्रिदोष के समान मेरे इन तीनों पुत्रों ने सन्दूषित कर दिया है।' (१७:११०) 'इसी समय दोष के समान अत्युग्र तीनो पुत्रों ने धातु सदृश, सप्त प्रकृति युक्त, देश को दूषित कर दिया।' (१:७:१८५) जैनुल आबदीन के अन्तिम अवस्था का सजीव वर्णन करता आयुर्वेदिक उपमा दी है-'मालूम पड़ता है, लक्ष्मी सदन, उसके बदन पर स्वेद परम्परा निकलती, भाग्य तरंगिणी के प्रवाह सदृश शोभित हो रही थी। निश्चय ही उसके जीवन रूपी रत्न का हरण करने से भीत तुल्य प्राण वायु, आयु का अपहरण करते हुए, क्षण मात्र के लिए गति तेज कर दी (१:७:२१८)।' सुल्तान की बीमारी का निदान भी श्रीवर करता है-'निरन्तर पान करने से राजा हैदरशाह का देह, बल एवं छवि क्षीण हो गयी थी। वह बात और शोणित रोग से ग्रसित हो गया था।' (२:१६०) उस समय आजकल के समान, औषधि एवं वैज्ञानिक चिकित्सा के साथ ही साथ, लोग मन्त्र एवं योग का भी आषय रोग शान्ति के लिए लेते थे। सुल्तान हैदरशाह की बीमारी में भी योगी से सहायता ली गयी थी-कोई योगी चिकित्सक, उसके विश्वस्त लोगों की बात न मानकर, विष से उग्र प्रभाव वाले औषध के प्रयोग से उसे कष्ट देने का प्रयास कर रहा था।' (२:१७१) विश्व के बड़े से बड़े व्यक्तियों को भी उनके अन्तिम काल में उचित चिकित्सा नहीं मिल सकी है। उनके पारिषद कुसंस्कारों के चक्कर में पड़कर, मृत्यु को और निकट बुला देते हैं। हसनशाह जैसे विद्वान् संगीतज्ञ के अन्तिम काल का वर्णन श्रीवर करता है'स्वामी को देखने नहीं देते थे, स्त्रियां ही अन्दर जाती थी। तत् तत् गारुडिकों के कहे गये, मन्त्र पाठ का निषेध करते थे। वैद्यों की कही चिकित्सा को अन्यथा कर देते थे। वहाँ भी अपने द्वारा बनायी गयी, खाने के लिए गुलिका (गोली) देते थे। (३:५४७-५४८) सुल्तान की बीमारी बढ़ती गयी। राज्य प्रासाद में स्त्रिय का प्रभाव था। उस स्थिति का श्रीवर वर्णन करता है-'उस समय मैं वैद्य गारुडिक एवं दृष्टकर्मा हूँगर्व करने वाले रुय्य भट्ट को स्त्री वैद्यों ने बुलाया। (३:५५०) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका २९ भरत शास्त्र श्रीवर ने भरत शास्त्र का अध्ययन किया था। वह इस विषय का अधिकारी किंवा प्रमाण माना जाता था। सन्देह होने पर, शंका समाधान करता था। उल्लेख मिलता है-'अनभिज्ञता के कारण राजा ने उसका लक्षण मुझसे पूछा। शीघ्र ही मैंने भरत शास्त्र (नाट्यशास्त्र) आदि का उदाहरण दिया। उन पद, पाठ, स्वरों एवं ताल रागों से मनोहर, षडंग युक्त, उस गीत को सुनकर, उदार हृदय सुल्तान मुग्ध हो गया।' (३:२५७, २५८) दर्शन ज्ञान: सुल्तान जैनुल आबदीन को श्रीवर ने 'दर्शन नाथ' कहा है। सुल्तान जैनुल आवदीन को मोक्षोपम संहिता श्रीवर सुनाता था-'संसार दुःख की शान्ति के लिए अनेक रात्रियों में 'श्री मोक्षोपम' संहिता सुनाया।' (१:७:१३२) मैंने अपने कण्ठस्वर की भंगिमा से, उसका वृत्त परिवर्तन करके व्याख्या की, जिससे राजा क्षणभर के लिए. शोक रहित हो गया।' (१:७:१३३) जैनल आबदीन को श्रीवर योग वासिष्ठ पढ़कर सुनाता था । उसका भाष्य करता था। मोक्षोपाय के लिए प्रसिद्ध वाल्मीकि मुनि कृत वासिष्ठ ब्रह्म दर्शन को राजा ने मेरे मुख से सुना। शान्त रसपूर्ण मेरी व्याख्या सुनकर राजा स्वप्न में भी उसी प्रकार उसका स्मरण बिया जिस प्रकार कामुक कान्ता के हाव-भाव किया करता है। (१:५:८०-८१) भाष्य से सुल्तान इतना प्रभावित हुआ था कि उसने स्वयं योग वासिष्ठ के आधार पर 'शिकायत' नामक पुस्तक की रचना की थी।' इस प्रकार सोचते हुए राजा ने फारसी भाषा में सर्व लोगों के निन्दा रूप अर्थ को प्रकट करने वाला 'शिकायत' नामक काव्य लिखा।' (१:७:१४६) सुल्तान हैदर शाह को भी दर्शन श्रीवर समझाता था। वह लिखता है-'पुराण धर्म शास्त्रों को तथा मोक्षोपाय आदि संहिताओ को सुनते हुए, राजा (सुल्तान) रातों में जागता रहता था' (२:२१५) जैनुल आबदीन के पौत्र तथा हैदर शाह के पुत्र का श्रीवर प्रिय पात्र था। उसे गीत तथा शास्त्र सुनाता था। वह लिखता है-'हसनशाह ने षड् दर्शनों का स्वयं अध्ययन किया था।' (३:२२) दर्शनों में श्रीवर ने वैशेषिक एवं योग के सिद्धान्तों एवं सूत्रों का उल्लेख किया है। प्रतीत होता है। अन्य दर्शनों के समान उक्त दोनों दर्शनों का उसने विशेष अध्ययन किया था। (३:१) नास्तिक दर्शनकारों मे उसने केवल चार्वाक का उल्लेख मात्र किया है । चार्वाकों को परलोक से भय नही होता। श्रीवर उन्हें अच्छी दृष्टि से नहीं देखता। श्रीवर मुसलिम सुल्तानों का राजकवि था। मुसलिम नास्तिकों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं । मुसलिम परलोक में विश्वास करते हैं। शैव भी लोक एवं परलोक का विचार करते है। परन्तु जिन्हे परलोक का भय नही, उन्हें किसी भी धर्म कर्म का भय नही होता। श्रीवर ने क्रमशः काश्मीर के तीन सुल्तानों, जैनुल आबदीन, हैदरशाह एवं हसनशाह को दर्शन एवं शास्त्रों को व्याख्याता रूप मे सुनाया था। उन्हे प्रभावित किया था। उनमें कट्टरता के स्थान पर, सहिष्णुता एवं उदारता भाव अंकुरित किया था। सिकन्दर बुत शिकन द्वारा प्रचारित, क्रूर एवं कट्टर, उग्र सम्प्रदायवाद के स्थान पर, उदार मौलिक धर्म एवं निरपेक्ष नीति की ओर सुल्तानों का विचार प्रवाह मोड़ दिया था। इस प्रकार अपने राज्य की महान सेवा की थी। योग : श्रीवर ने योग दर्शन का स्पष्ट बल्लेख न कर, उसके सिद्धान्तों का स्थान-स्थान पर परिचय दिया है। उसका योग दर्शन में प्रवेश था। उसने योगियों का जहाँ वर्णन किया है, वहाँ उसके शब्दों में श्रद्धा एवं भक्ति प्रगट Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैन राजतरंगिणी वह मांस नही, वह सस्य नही, वह फल योगियों की मद-मतता के कारण कहे , होती है। उसने कलेयर परिवर्तन का भी वर्णन किया है— 'यन में प्रवेश कर उन लोगों ने कौतूहल पूर्वक, एक नर कंकाल देखा, जिसके पास दीवाल स्थित था। वह नर चिरकाल तक तपस्या कर योग सिद्धि प्राप्त कर, सर्प के कंचुक के समान गुफा में शरीर त्याग दिया था । ' (१:१:५३) जैनुल आबदीन की योगियो के प्रति भक्ति वर्णन करता है - 'जहाँ पर सहस्रों योगियों के गनाद को बार-बार सुनने के कारण, मानो मानस नाग ने भी चक्षु को बन्द कर लिया था। वह अन्न नही, नहीं, वह भोग नहीं, जिन्हें राजा ने भोजन के समय नहीं खिलाया गये तीन प्रकार की अश्लीलता को भक्ति के कारण, राजा ने सहा, जो सामान्य लोगों के लिये भी असह्य थी। (१:३:४८:५०) द्वादशी के दिन सुन्दर कन्या, तम्बूरा, मुद्रा, दण्डादि देकर, योगियों को भारवाहक बना दिया था । ( १ : ३:५२ ) एक स्थान पर योगियों के पात्र पूजा हेतु जैन वाटिका नामक अन्न सत्र भोगों के कारण विस्मयावह था । पुष्करिणी मध्य, योगी चक्र के अन्दर प्रतिबिम्बित चन्द्रमा भी, जहाँ स्वाद की लिप्सा से ही जाता था। राजा ने सहस्रों योगियों को आँख मूंदने तक भोजन कराकर निष्क्रम्प कर दिया, फिर तृप्ति एवं समाधि से क्या लाभ ? ( १ : ५:४६ - ४८) 'जहाँ पर आनन्द निर्भर, योगियों का भोजन के थम से निकलने वाला पसीना, राजा को प्रसन्न करता था। योगियों के हाथों से लिप्त दधिपूर्ण भोजन के छल से मानो, उसी बीच योग से " शशिकला का स्राव ही शोभित हो रहा था ।' (१:५:५२-५३) श्रीवर गौरक्ष संहिताकार योगी गौरक्ष का उल्लेख करता है। उससे प्रकट होता है कि ओवर का झुकाव गोरक्ष योग पद्धति की ओर था ( १ : १:३१ ) । योगी गोरक्ष नाथ हठयोग के आचार्य थे । गोरक्ष नाथ जी नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते है । काश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त ने आदर के साथ अपने ग्रन्थों में गोरक्ष के गुरु मत्येन्द्र नाथ का उल्लेख किया है । रामायण-महाभारत 1 रामायण तथा महाभारत का श्रीवर ने अध्ययन किया था । उसने सर्वाधिक उपमाएँ रामायण तथा महाभारत की घटनाओ से दी है। राम के सेतुवस्य (७:३:१८) रावण पर राम की विजय (१:३:३७), जैनुल आबदीन का राम की तरह विजय कर लौटना, ( १:१:१९) लंका ( १ : ५:३५, ३९ ) विष्णु अवतार, (१ : ५: १०४ ) रघुनन्दन (१७१३६) राम के समक्ष परशुराम का आगमन (४:२६७) रावण एवं सन्मार्ग, (३.४८२ ) परशुराम का क्षत्रिय संहार, (२:१०२ ) राम का वन गमन, वालि सुग्रीव प्रसंग, राम-रावण युद्ध, (४:५४३) गंगावतरण (१:५:२४) आदे अनेक प्रसंगों का वर्णन किया है। जिससे प्रकट होता है कि श्रीवर ने रामायण का गम्भीर अध्ययन किया था। महाभारत से उसने कौरव पाण्डव युद्ध, यदुवंश संहार ( १:२:८) जैनुल आबदीन की उत्तरायण काल में मृत्यु, (१:७:२२४) कृष्ण का युद्ध के लिए सन्नद्ध होना, ( १ : १ : १४१) खाण्डव बनदाह, (३:२८७) गरूड़ (१:१:१०२) द्रोणाचार्य, भीष्म, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, शल्य, कौरव (१:१:६६) पार्क, ( १:१:३० ) यादव वृत्तान्त, (१:७:१६३) दुर्योधन के साथी शल्य द्वारा सहायता प्राप्त, धर्मराज के प्रति विद्रोह, कर्ण एवं कलह, धृतराष्ट्र वंश का अवसान, कौरवों तुल्य पराजय आदि उपमा देकर, काव्य का सौष्ठव बढाया हैं । ( ४:३४१) कौरव पाण्डप की उपमा उसने सैयिदों तथा काश्मीरियों के दो दलों से दी है । लिखता है इस प्रकार हैवत खां के कहने पर युद्ध के लिए सन्नद्ध बुद्धि, सैयिद पाण्डवों के ऊपर कौरवो के समान, उद्योग शील हो गये ( ४:१६४ ) ' पुराण: श्रीवर ने प्रतीत होता है, पुराणों का कम अध्ययन किया था। उसने पुराणों से बहुत कम उपमा एवं उदाहरण 1 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ३१ दिया है । उसने आदि पुराण का उल्लेख किया है। ( १:५:८८ ) आश्चर्य है, श्रीवर ने नीलमत पुराण तथा उसके विषय के सम्बन्ध में कुछ नही लिखा है। यद्यपि कल्हण तथा जोनराज दोनों ने नीलमत पुराण तथा तत्सम्बन्धी गाथाओं का उल्लेख किया है। नील मत पुराण के हराशज एवं सतीसर प्रकरण का उल्लेख किया है। परन्तु दोनो प्रकरण कल्हण की राजतरंगिणी में भी वर्णित है । शिक्षक : श्रीवर को जैनुल आबदीन ने पुत्रवत् पाला था । श्रीवर का आदर, उसका पुत्र हैदरशाह करता था। हैदरशाह ने हसन शाह का शिक्षक श्रीवर को नियुक्त किया था। श्रीवर स्वयं लिखता है-'राजा ने आदर कर, मुझको उस (राजकुमार) हसनको प्रदान किया और मैं प्रतिदिन पुस्तक लेकर बृहत् कथा का आख्यान सुनाता था।' (२:१५७) श्रीवर तीन सुलतानो का प्रिय पात्र रहा है। तीनों ही सुल्तान उसे स्नेह एवं आदर से देखते थे । उनका मनोरंजन दर्शन, साहित्य, इतिहास के अतिरिक्त, अपने गीत एवं पदों से करता था। व्याख्याता: श्रीवर स्वयं अपने लिये व्याख्याता शब्द का प्रयोग करता है। ( १:७:१३२-१३३ ) श्रीवर सुल्तानों को दशन शास्त्र पढाता था। दर्शन एवं शास्त्रों की व्याख्या करता था। संगीत शास्त्र सम्बन्धी विद्वानों से शास्त्रार्थ करता था । दर्शनों आदि की व्याख्या से दुसह स्थलों को बोधगम्य बनाता था। श्रीवर आजकल व्यासों के समान पेशेवर, कथा वाचक अथवा व्याख्याता नही था। उसका स्तर बहुत ऊँचा था। जन्म से ही राजसभा मे रहने के कारण, पठित तथा बहुश्रुत था। विचारणीय विषयों पर उसके मत का महत्त्व होता था। उसके मतों का मूल्य था। श्रीवर लिखता है-'मोक्षोपाय के लिये प्रसिद्ध वाल्मीकि मुनि कृत वासिष्ठ ब्रह्म दर्शन राजा ने मेरे मुख से सुना । (१:५:८०) शान्तरस पूर्ण मेरी व्याख्या सुनकर, राजा स्वप्न में भी, उसी प्रकार उसका स्मरण किया, जिस प्रकार कामुक कान्ता के हाव-भाव क्रियाओं का।' (१:५:८१) राजा मेरी व्याख्या सुनने से स्मृत एवं अपने अवस्था के सूचक, इस प्रकार बहुत से श्लोकों को पढा । (१:७.१३६) भाषा: हिन्दू राज्यकाल में काश्मीर की राजभाषा संस्कृत थी। स्त्रियाँ सुसंस्कृत काव्यमय भाषा बोलती थीं। महिलायें कविता करती थीं। भरत नाटय शास्त्र के आधार पर मनोरंजन एवं नाटकों का आयोजन होता था। शास्त्रीय संगीत होता था । संस्कृत काश्मीरी भाषा की आत्मा थी। मुसलिम काल में फारसी प्रचार के साथ काश्मीरी भाषा मे फारसी तथा अरबी शब्दो का बाहुल्य हो गया। सिकन्दर बुत शिकन के पश्चात, काश्मीर की पुरानी धारा को वेग से एक ओर मोड़कर, उसे मुसलिम भाषा में प्रवारित करने का कठोर प्रयास किया गया। परन्तु जनता धर्म के समान तुरन्त भाषा बदलने में असमर्थ थी। बोलचाल तथा पठन-पाठन की भाषा संस्कृत थी। श्रीवर ने जैनुल आबदीन, हैदरशाह तथा हसन शाह को संस्कृत पठित, विद्वान् रूप में चित्रित किया है। वे संस्कृत बोलते थे । संस्कृत साहित्य में रुचि लेते थे। शास्त्रीय संगीत को प्रोत्साहित करते थे। श्रीवर लिखता है-'राजा श्रीहर्ष हुआ, उस समय कविता के राज्य में जो लोग थे, वे सब कवि हुए थे, अधिक क्या कहे ? वे रसोइयाँ, स्त्री एवं बोझा ढोने वाले ही Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैनराजतरंगिणी क्यों न रहे हैं । आज भी उनके बनाये पद प्रति घर में हैं। राजा यदि गुणी एवं विद्या रसिक होता है, तो, लोक भी वैसा ही हो जाता है।' (१:५:६४) संस्कृत का प्रसार, उसका प्रभाव, विदेशी मुसलमानों को अखरता था। विदेशी मुसलमानों को काफी बड़ी संख्या काश्मीर में हो गयी थी। काश्मीरी एव गैर काश्मीरी का प्रश्न उठ खडा होता था। सुल्तान जैनुल आबदीन ने लोगों का ध्यान विद्यानुराग की ओर लगाकर, उन्हे एक दूसरे को समझने के लिये प्रेरित किया था। उसके लिये उसने देशी एवं विदेशी ग्रन्थो का अनुवाद कराया। श्रीवर लिखता है-'जो जिस भाषा मे प्रवीण है, वह उसी भाषा द्वारा उपदेश ग्रहण कर सकता है, लोक मे सब लोग नाना भाषा एवं लिपि नही जानते है (१:५:८२) अतएव संस्कृत भाषा आदि तथा फारसी भाषा में विशारद जनों द्वारा भाषा विपर्यय (अनुवाद) से तत तत् सब शास्त्रों को निर्मित कराया। (१:५:८०) धातु वाद, रस ग्रन्थ एवं कल्प शास्त्रों में उक्त गुणों को अपनी भाषा का अक्षर पढने के कारण यवन भी जानते है ।' (१:५:८४) संस्कृत भाषा में लिखी गयी दश राजाओ का ग्रन्थ राजतरंगिणी को फारसी भाषा द्वारा पढ़ने योग्य सुल्तान ने कराया। (१:५:८४) सुल्तान की युक्ति से म्लेच्छ लोग बृहत्कथा, तथा हाटकेश्वर संहिता, पुराणादि अपनी भाषा मे पढ़ते हैं' (१:५:८६) । चौथा सुल्तान मुहम्मद शाह केवल आठ वर्ष की अवस्था मे सिंहासन पर बैठा था। उसके ज्ञान एवं पाण्डित्य के विषय मे श्रीवर ने कुछ नही लिखा है। मन्त्रियों का प्रावल्य हो गया था। मन्त्री दल बदल के शिकार हो गये थे। हसन शाह के पश्चात् कला साहित्य आदि की तरफ देश की रुचि न होकर अन्तर्द्वन्द्व एवं संघर्षों में लग गयी। भारतीय तथा विदेशी मुसलमानों का प्रचुर प्रवेश काश्मीर में होने लगा। वे साहित्य, कला एवं दैनिक जीवन को प्रभावित करने लगे। शास्त्रीय संगीत के स्थान पर भाषा मे भी गीत लिखे जाने लगे-'प्रबन्ध गीत में दक्ष, वह किसी समय राजा के समक्ष सर्व लीला नामक प्रबन्ध देशी भाषा मे गाया।' (३:२५६) सुल्तान हैदर शाह के समय से फारसो एवं हिन्दुस्तानी भाषा में गीत काव्य की रचना होने लगी थी-'सुल्तान ने फारसी एवं हिन्दुस्तानी भाषा मे गीत काव्य की रचना की थी। जिससे कौन लोग उसकी प्रशंसा नही कर रहे थे।' (२:२१४) जैनुल आबदीन ने स्वयं 'शिकायत' ग्रन्थ की रचना की थी। वह फारसी मे लिखा था। इस समय संस्कृत का स्थान फारसी लेने लग गयी थी। यद्यपि भाषा में संस्कृत शब्दों का ही बाहुल्य था। संस्कृत का स्थान फारसी भाषा नही ले सकी परन्तु काश्मीरी भाषा की नवीन रूप-रेखा बनने लगी। काश्मीरी भाषा के लिए सत्रहवी शताब्दी तक भाषा या देश भाषा शब्द प्रचलित था। श्रीवर ने भाषा एवं देशभाषा दोनों का उल्लेख किया है। श्रीवर ने अप्रचलित शब्दो का प्रयोग किया है। वे शुद्ध परिष्कृत संस्कृत शब्द नहीं है। फारसी-अरबी नामों का संस्कृतकरण किया गया। असंस्कृत शब्दों का प्रयोग प्रचुर मिलता है-जैसे टोपी। (३:५५७) भाषा के अतिरिक्त, काश्मीर में स्थानीय बोलियाँ भी बोली जाती थी। उनमे पुगूली, किश्तवाड़ी, 'डोग, सिराजी, रामबनी, रिआसी आदि है। सिरामपुर से बाइबिल का प्रथम काश्मीरी भाषा का अनुवाद प्रथम संस्करण शारदा लिपि में ही प्रकाशित हुआ था। कालान्तर मे फारसी, रोमन लिपि और काश्मीरी भाषा मे अनुवाद प्रकाशित हुये थे। सन् १४०० से १५५० ई० में काश्मीरी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ३३ भाषा एवं साहित्य एक रूप लेने लगे। श्रीवर ने प्रबन्ध काव्य का बहुत उल्लेख किया है। यह प्रबन्ध का प्रथम काल माना जा सकता है । उसकी सर्वागीण उन्नति हुई सन् १५५०-१७५० ई० मध्य । काश्मीरी साहित्य मे गीत-गान तत्त्व का समावेश हुआ। हिन्दी, फारसी, भाषा में गीत सुने और गाये जाने लगे। जिनका स्पष्ट उल्लेख श्रीवर ने किया है। इसे गीत या द्वितीय काल काश्मीरी भाषा का मान सकते है। तत्कालीन काश्मीरी अनेक भाषाओं के समन्वय एवं मिश्रण की परिणाम थी। उस पर सीमान्तवर्ती, दरद तथा कोहिस्तानी भाषा का भी प्रभाव है । कुछ विद्वान् काश्मीरी की जननी इबरानी या हिब्रू का मूल मानते है। उनका मत वैसा ही है, जैसा काश्मीर का नाम बाग सुलेमान तथा शंकराचार्य का तख्ते सुलेमान रखना है। काश्मीरी पण्डितों का पत्रा या जन्तरी आज भी प्रतिवर्ष शारदा लिपि मे प्रकाशित होता है । यद्यपि संस्करण संख्या कम होती जा रही है । कुछ विद्वान् शारदा की जननी ब्राह्मी लिपि को मानते है। शारदा लिपि के साथ काश्मीरियों का धार्मिक एवं ऐतिहासिक सम्बन्ध है। काश्मीर का नाम शारदापीठ तथा शारदा देश प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है । शारदा काश्मीर की अधिष्ठात्री देवी है। इसी कारण काश्मीर की लिपि का नाम देश एवं देवी के नाम पर, शारदा पडा था। इसका प्रचार उत्तर पश्चिम भारत काश्मीर, पंजाब तथा सिन्ध में था । आधुनिक शारदा, टाकी, लण्डा, गुरुमुखी, डोगरी, चमोली तथा कोची आदि लिपियों की मूल प्राचीन शारदा लिपि है । चम्बा एवं सेगुल मे प्राप्त दसवीं तथा ग्यारहवीं शताब्दी के शिलालेखों मे शारदा लिपि के प्राचीन रूप का दर्शन होता है । श्रीवर के समय लिपि शारदा थी। पन्द्रहवीं शताब्दी तक काश्मीर मे शारदा लिपि प्रचलित थी। फारसी लिपि का प्रसार सुल्तान जैनुल आबदीन के समय हुआ था। सुल्तान मुहम्मदशाह के समय यवन अर्थात फारसी लिपि राजकीय कार्यों में प्रवेश करने लगी। राजकीय पत्र व्यवहार फारसी में होने लगे। श्रीवर लिखता है । 'इस प्रकार लेख का अर्थ विचार कर, मार्गेश आदि महान् लोग यवन (फारसी) लिपि में लिखा इस प्रकार का पत्र भेजे।' (४:१५३) फारसी भाषा का भी श्रीवर को कुछ ज्ञान था। वह लिखता है-'फारसी भाषा के काव्य में प्रजाओं के दोष के लिए, जो कहा गया है, वह शाप (दण्ड) श्रीमद जैन राजा के देश में फलित हुआ।' (२:१३२) सुल्तान लोग स्वयं इस काल मे फारसी, काश्मीरी तथा हिन्दुस्तानी में गीत काव्य आदि की रचना करने लगे थे। संस्कृत का स्वतः राज कार्य एवं सर्वसाधारण की बोल चाल की भाषा में लोप होने लगा। मुगलों ने फारसी लिपि स्वीकार की। अरबी लिपि नहीं अपनाया। अरबी धार्मिक कार्यों, यथा मसजिदों में सुभाषित अथवा कब्रों पर स्मारक लिखने के लिए प्रयोग में लायी जाती थी। मुगल दरबार में बढ़ते इरानी उमराओं के प्रभाव से फारसी लिपि मुगलों ने स्वीकार कर ली थी। फारसी सरकार की अन्तर्देशीय भाषा हो गयी। मुगलों का काश्मीर मे शासन हुआ, तो फारसी लिपि का प्रचार राजकीय स्तर पर किया गया। मुसलमान लोग जो शारदा लिपि में कार्य करते थे, उन्होंने फारसी लिपि पढ़ना और पढ़ाना आरम्भ किया। मुगलों के पश्चात् अफगान शासन काल मे भी फारसी लिपि का ही प्रभाव था। अफगानिस्तान में फारसी लिपि प्रचलित थी। उसी लिपि में कारोबार होते थे। सिखों के समय फारसी लिपि यथावत् बनी रही । डोगरा शासन में नागरी लिपि का प्रचार बढ़ा । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैनराजतरंगिणी हिन्दू-मुसलिम साम्प्रदायिक वैमनस्य के कारण फारसी लिपि मुसलमान तथा नागरी और शारदा हिन्दुओं की लिपि समझी जाने लगी। फल हुआ। मुसलमानों ने शारदा लिपि त्यागकर पूर्णतया फारसी लिपि अपना ली। आज काश्मीर की जनता फारसी लिपि तथा उर्दू जबान में काम करने लगी है। यद्यपि नागरी तथा हिन्दी प्रचार में कुछ प्रगति हुई है। स्वतंत्रता पूर्व, साम्प्रदायिक विष वमन के कारण, हिन्दू काश्मीरी और मुसलिम काश्मोरी मे नाम मात्र लिये भेद हो गये थे। उनमे शब्द प्रयोग एवं उच्चारण की दृष्टि से अन्तर है। साम्प्रदायिकता का प्रभाव जातियों पर भी पड़ा है। काश्मीर मे चार लिपियां प्रचलित हो गयी है। सबसे अधिक प्रचार फारमी लिपि का है । शारदा का प्रयोग बहुत कम होता है। किस्तवार के लोग टाकरी लिपि का प्रयोग करते थे। परन्तु आजादी के पश्चात् हिन्दुओं में प्रायः नागरी लिपि में कार्य आरम्भ हो गया है । किस्तवार में भी शारदा तथा टाकरी का स्थान देवनागरी लेती जा रही है। काव्य या महाकाव्य : काव्य या महाकव्य के सिद्धान्तों पर 'कल्ह' तथा 'जोन' राज तरंगिणी भाष्यों में विस्तृत प्रकाश डाल चुका हूँ। कल्हण एवं जोन राजतरंगिणी महाकाव्य है। श्रीवर की राजतरंगिणी काव्य मात्र है। यद्यपि श्रीवर स्वयं लिखता है-'काव्य गुण चर्चा के कारण नहीं, अपितु राज वृत्तान्त के अनुरोध से, सज्जन लोग मेरी वाणी को सुने और अपनी बुद्धि से जोड़े।' (३:५) कवि का सौजन्य है कि वह अपने काव्य को स्वयं काव्य नही मानता । काव्य गुण चर्चा ही वह प्रकट करता है । श्रीवर अपने ग्रन्थ को काव्य मानता था। 'भावी जनों की स्मृति के लिये यह रचना की है। अन्य पण्डित उस पर ललित काव्य की रचना करें। श्रीवर यह कामना करता है' । (३:६) वह अपनी रचना को काव्य तो मानता, परन्तु ललित काव्य नही मानता। उसने स्वयं अपने ग्रन्थ को इतिहास वर्णन लिखा है। इतिहास भी कल्हण एवं जोनराज कृत राजतरंगिणी के समान काव्य हो सकता है । साहित्यिक दृष्टि से श्रीवर की राजतरंगिणी उच्च कोटि की रचना है, जिसका दर्शन कल्हण तत्पश्चात् जोनराज कृत तरंगिणियों मे प्राप्त होता है। श्रीवर स्वयं कवि, इतिहासज्ञ, ज्योतिषी. नृत्य, गीतकार एवं गायक था। उसने संगीत, नाटय शास्त्र नृत्य आदि कलाओं पर प्रकाश डाला है। ग्रन्थ मे काव्य प्रतिभा मिलती है। इसमें गुरुत्व है, गाम्भीर्य एवं मर्यादा है। वस्तु प्रतिपादन की सरलता एवं पद लालित्य की विशेषता है । वह घटनाओं का वर्णन संयत एवं गम्भीर भाषा मे करता है। उसकी दृष्टि कहीं संकुचित एवं पूर्वाग्रह पूर्ण नही मालूम पड़ती है। श्रीवर ने जैनुल आबदीन का स्वर्ण युग एवं मुहम्मदशाह का गृहयुद्धों से जर्जरित, अराजक काश्मीर को भस्म होते देखा था। वह सैयिद एवं खान • विप्लव का प्रत्यक्षदर्शी था। उसकी भाषा घटनानुसार बदलती गयी है। श्रीवर भाव व्यंजना के लिये अलंकार, रस एवं उपमाओं का प्रयोग चातुरी से किया है। शैली में गरिमा है। शैली उदात्त है। पदों में औचित्य है। प्रतिभा है। उपमाओं का नवीनीकरण है। ज्योतिष, आयुर्वेद तथा संगीत शास्त्र के आधार पर उपमाओं का चयन है। श्रीवर रस एवं अलंकारों में पाठकों को न तो उलझाता है और न स्वयं उलझता है। घटनावलियों को सरल सुस्पष्ट भाषा में उपस्थित करता है। उनके समझने में कठिनता नही होती। अपना पाण्डित्य पद मे तथा भाव व्यंजना में अवश्य दिखाया है। उसके पदों में जीवन है। रस है। प्राण है। उसका काक्य प्रबन्ध काव्य है। पात्रों का Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका वैज्ञानिक चित्रण है। वैराग्य तथा अध्यात्म स्थान स्थान पर झलकता है। उसके अनेक पद सूक्ति संग्रह मे संकलित करने के योग्य है। अनुवाद: प्रस्तुत अनुवाद की शैली वही है, जिसका अनुकरण मैंने कल्हण तथा जोनराज एवं शुक में किया है। प्रत्येक पद का अनुवाद, जिसमें क्रिया मिल गयी है, एक ही पद में किया गया है। यदि क्रिया दूसरे पद मे मिली है, तो पद तोड़कर, अनुवाद किया गया है। उन शब्दों, जिनका श्रीवर के समय में क्या अर्थ होता था, निश्चित प्रामाणिक नहीं मालूम हुआ है, उन शब्दों को यथावत् रख दिया गया है। क्रिया, वचन, एवं लिंग का मूलरूप में अनुवाद किया गया है। अर्थ भाव के साथ किया है। पूर्वापर प्रयोग का ध्यान रखकर सीमा के बाहर, न जाने का भरसक प्रयास किया है। कितने ही तत्कालीन शब्द अप्रचलित हो गये हैं। उनका वह अर्थ आज नही है जो उस समय था। संस्कृत पदों मे अप्रचलित शब्दों के कारण कठिनाई होती है। कल्हण का अनुवाद परिष्कृत संस्कृत शैली होने के कारण, करना सरल है, परन्तु जोनराज तथा श्रीवर के अनुवाद में कठिनाई का बोध हुआ है । अनुवाद समझने के लिये काश्मीर का ऐतिहासिक एवं भौगोलिक ज्ञान होना आवश्यक है। श्रीवर की राजतरंगिणी का यह प्रथम अनुवाद है । विश्व की किसी भी भाषा में प्रथम है। अनुवाद में कठिनता का सामना करना पड़ा है। यह प्रथम भाष्य एवं टिप्पणी है। मैंने भविष्य के अनुवादको एवं भाष्यकारो के लिये मार्ग प्रशस्त किया है। अनुवाद की रोचकता बढ़ाने के लिये अपनी तरफ से कुछ नहीं जोड़ा है । अर्थ स्पष्ट करने के लिये, जहाँ शब्दों की आवश्यकता हुई है, उन्हे कोष्ट मे रख दिया है । मूल भाव तथा रचना को अछूता रखने का प्रयास किया है। जिन पदों के दो अर्थ होते है, उन दोनों को रख दिया है। पाद टिप्पणी में ऐतिहासिक व भौगोलिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व की सामग्रियों को देने का प्रयास किया है। प्रमाण के अभाव में अपना निश्चित मत किसी विषय अथवा स्थान निरूपण मे न देकर, उन्हे यथावत् छोड़ दिया है । भविष्य के रचनाकार अनुसन्धानों द्वारा इस को पूरा करेंगे। इतिहास : श्रीवर ने कल्हण एवं जोनराज कृत राजतरंगिणी पढ़ी थी । इतिहास लिखने की पृष्ठभूमि इस अध्ययन से तैयार हो गयी थी। श्रीवर की रचना सीमा बहुत ही मर्यादित है । जोनराज ने सन् १४५९ ई. तक का इतिहास लिखा था। उसके पूर्व का इतिहास कल्हण ने लिखा था। श्रीवर ने ललितादित्य का इच्छा पत्र (३:२९८) वुप्पदेव (४:४१३) आदि की बातों को लिखकर, यह प्रमाणित किया है, कि उसने अपने पूर्व लिखी कल्हण तथा जोनराज की राजतरंगिणियों का गहन अध्ययन किया था। इस परिस्थिती में श्रीवर या तो 'जैन विलास' 'जैन तिलक' 'जैन चरित, के समान समकालीन सुल्तानों का चरित ग्रन्थ लिखता अथवा अपनी प्रतिभा किसी काव्य ग्रन्थ रचना मे प्रकट करता । जैनुल आबदीन के चरित के सम्बन्ध में तत्कालीन कवियों के कई चरित ग्रन्थ लिखे जा चुके थे। श्रीवर के लिये जैनुल आबदीन के के सम्बन्ध में लिखने के लिये बहुत सीमित सीमा रह गयी थी। उसके गुरु ने जैनुल आबदिन के विषय में वह सब कुछ लिख दिया था, जो कुछ लिखा जा सकता था। जैनुल आबदीन का केवल ११ वर्षों का इतिहास श्रीवर लिख सकता था । सन् १४१९ से १४५९ ई० का विस्तृत इतिहास जोनराज लिख चुका था।श्रीवर के समकालीन जैनुल आबदीन, हैदर शाह, हसन शाह एवं मुहम्द शाह सुलतान थे। हैदर शाह ने २ वर्ष, हसन शाह . Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी ने, २१वर्ष तथा बालक मुहम्द शाह ने २ वर्ष तक राज्य किया था। उक्त सुल्तानों का राज्य काल स्वल्प था। उनके जीवन काल मे कोई महत्त्वपूर्ण घटनायें नही घटी थी। केवल पारस्परिक संघर्ष कुछ हुआ था। अतएव उसने किसी एक सुल्तान के विषय मे न लिखकर, २७ वर्षों का आँखों देखा इतिहास लिखना उचित समझा। श्रीवर पर्वकालीन इतिहास नही लिख रहा था। इसलिये वह पूर्वकालीन इतिहास ग्रन्थों तथा अपने इतिहास सामग्री के विषय में कुछ प्रकाश नहीं डालता । आँखों देखा इतिहास लिखा है। उसे किसी सहायक ग्रन्थ अथवा अन्य बाह्य स्रोतो की आवश्यकता नही थी। उसका सम्बन्ध बाल काल्य से ही सुल्तानों के साथ था। उसका पुत्रवत् पालन जैनुल आबदीन ने किया था। तत्कालीन सूक्ष्म से सूक्ष्म बार्ते विस्तार के साथ उसे मालूम थीं | जैनुल आबदीन की मृत्यु के पश्चात, हैदर शाह की उस पर कृपा थी। सुल्तान हसन शाह, उसे अपना गुरु मानता था। उसे इतिहास प्रणयन सम्बन्धी सभी बातें ज्ञात थी। यही कारण है। वर का वर्णन विस्तत है। तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि परिस्थितियों का उसकी रचना में सजीव चित्रण मिलता है। उसने अपने अनुभव एवं ज्ञान के कारण जीवनमय वर्णन किया है। उसने प्रथम तरंग में जैनुल आबदीन के उत्तरार्ध जीवन, तरंग द्वितीय में हैदर शाह, तरंग तृतीय में हसन शाह और चतुर्थ तरंग मे सात वर्षीय शिशु सुल्तान मुहम्मद शाह के दो वर्षों के शासन मे सैयिद्र, एवं खान विप्लव के साथ ही साथ, फतह शाह की राजप्राप्ति का वर्णन किया है। वह इसी से प्रकट है कि जैनुल आबदीन के ११ वर्षों का ८२० श्लोकों, हैदर शाह के २ वर्षों का २१९ श्लोकों, हसन शाह के १२ वर्षों का ५६४ श्लोकों तथा मुहम्मद शाह के २ वर्षों का ६५६ श्लोकों मे वर्णन किया है। कल्हण ने लौकिक संवत् ६२८ = कलि ६५३ से लौकिक संवत् ४२२५ वर्ष अर्थात् ३५९७ वर्षों का इतिहास ७८३०, जोनराज ३०० वर्षों का इतिहास ९७६ श्रीवर २७ वर्षो का इतिहास २२४१ तथा शुक ने २७ वर्षों का इतिहास ३९८ श्लोकों मे लिखा है। उक्त आँकड़ों से प्रकट होता है। श्रीवर ने विस्तार से इतिहास रचना की है। तत्कालीन किसी घटना का बिना उल्लेख किये नही छोड़ा है। यह केवल एक प्रत्यक्षदर्शी के लिये ही सम्भव था। उसका यह ऐतिहासिक संस्मरण इतिहास जगत् की अमूल्य निधि है। उसके विश्लेषण एवं गम्भीर अध्ययन से भारतीय तथा काश्मीर सीमान्त की अनेक अज्ञात बातें ज्ञात हो सकती है। श्रीवर का इतिहास प्रादेशिक है। जोनराज एवं शुक के समान है, काश्मीर का शुद्ध इतिहास है । उसका इतिहास वर्णन आधुनिक इतिहास वर्णन शैली के बहुत समीप है। ___इतिहास या संस्मरण : भूतकाल की बातें इतिहास में लिखी जाती है। कल्हण ने भूतकालीन तथा समकालीन राजाओं का वृत्तान्त लिखा है। जोनराज भी कल्हण के समान भूतकालीन तथा समकालीन सुल्तानों का वर्णन लिखा है। उक्त दोनों राजतरंगिणीकार भूत एवं वर्तमान दोनों कालों के राजाओं का इतिवृत्त लिखे थे। श्रीवर एवं शुक ने वर्तमान इतिहास लिखा है। समकालीन राजाओं का इतिवृत्त वर्णन किया है। भूतकालीन किसी राजा का वर्णन उनमें नहीं मिलता। अपनी आँखों देखी बाते लिखी है। उसका उद्देश्य आँखों देखा इतिवृत्त लिखना था। भूत एवं वर्तमान मे जितना अन्तर है, उतना ही भूत एवं वर्तमान इतिहास लिखने के दृष्टिकोणो में अन्तर है। वर्तमान इतिहास के पात्र एवं द्रष्टा उपस्थित रहते है। वे इतिहास की आलोचना-प्रत्यालोचना कर सकते है। विरोधी बातें होने पर, इतिहासकार विपत्ति मे पड़ सकता या। राज्य कृपा से वंचित हो सकता था। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ३७ श्रीवर एवं शुक की राजतरंगिणियाँ संस्मरण काव्य कही जायगी। वे संस्मरण की परिभाषा के निकट है। उन्होंने जो कुछ देखा, उसी को लिपिबद्ध किया है । तथापि उन्होंने राजतरंगिणी परम्परा का निर्वाह करते हुए, अपने ग्रन्थों को इतिहास का रूप यथा शक्ति देकर उसे इतिहास बनाया है । *, परन्तु वर्तमान इतिहास लिखना, भूतकालीन इतिहास के विवादास्पद होने पर बचत हो सकती है खतरे से खाली उस समय नहीं था । अधिक निकट कही जायगी। संस्कृत कवि कम लिखते है संस्मरण लिखने की प्रथा संस्कृत एक प्रकार से लिखते ही नही । । । आत्म चरित एवं संस्मरण में अन्तर है। आत्मचरित में रचना श्रीवर की रचना संस्मरण के साहित्य में नही मिलती। अपने विषय में संस्मरण आत्म चरित के अन्तर्गत आता है कार अपना जीवन वृत्त लिखता है संस्मरण में रचनाकार अपने समय की घटनाओं का वर्णन करता है। संस्मरण, लेखक जो स्वयं देखता है, अनुभव करता है, उसी का वर्णन करता है । उसके वर्णन मे उसकी अनुभूति एवं संवेदनायें रहती है । संस्मरण जीवनी नहीं है । अन्य व्यक्तियों के विषय में जो लिखा जाता है, वह जीवनी के निकट है । । कथा का प्रमुख पात्र स्वयं होता है । आँखों देला इतिहास लिखता है। श्रीवर ने स्वयं लिखा है कि वह राजावली ग्रन्थ लिख रहा था । उसकी राजतरंगिणी इतिहास एवं संस्मरण का मिश्रण है। आज वह भूतकालीन बात होने के कारण इतिहास है । और समकालीन इतिवृत्त होने के कारण संस्मरण मात्र है । उसमें दोनों की झलक मिलती है । संस्मरण के निकट होते भी, उसे इतिहास माना गया है । इस इतिहास का क्रम उसके नाम से प्रकट होता है। इतिहास के लिये रूढ़ हो गया है । राजतरंगिणी नाम ही काश्मीर इतिहास प्रयोजन : " श्रीवर रचना का कारण उपस्थित करता है। प्रथम कारण जोनराज के छोड़े काम को पूरा करना था । 'इसी जोनराज का शिष्य मै श्रीवर पण्डित, राजावली ग्रन्थ के शेष को पूरा करने के लिये उद्यत हूँ' ( १ : १:७ ) | वह अपने गुरु जोनराज के सन्दर्भ मे पुनः लिखता है - 'किसी कारण से मेरे गुरु ने नही कहा (लिखा था, उस अवशिष्ट यागी को यथामति का ' (१:१९:१६) " द्वितीय कारण, वह अपने समय के सुल्तानों का वृतान्त लिखकर उनके ऋण से उऋण होना चाहता था - 'सज्जन लोग राजवृत्तान्त के अनुरोध से, न कि काव्य गुणों की इच्छा से मेरी वाणी सुनें। अपनी बुद्धि 1 से योजित करें (१ : १:९) अथवा सुल्तानों के वृत्तान्त स्मरण हेतु यह श्रम किया जा रहा है। ललित काव्य की रचना अन्य पण्डित करें। ( १ : १:१० ) तत् तत् गुणों के आदान तथा स्वसम्पत्ति के प्रदान पूर्वक, ग्राम, हेम आदि अनुग्रहो से सुल्तान द्वारा पुत्रवत् ( मैं ) सम्बंधित किया गया ( १ : १ : ११) अतएव उसके असीम प्रसाद की निष्कृति ( निस्तार) की अभिलाषा से, उसके गुणों द्वारा आकृष्ट मन होकर मैं उसका वृत्तान्त वर्णन करता हूँ । ' (१:१:१२ ) वह पुन: सुल्तान द्वारा प्रदत्त प्रतिष्ठा, दान, सम्मान से उऋण होने की बात लिखता है - 'आत्मज सहित इस नृप के राज वर्णन से ( राज्य प्राप्ति ) प्रतिष्ठा दान, सम्मान, विधान एवं गुणों से निष्कृति प्राप्त की जा सकती है।' (१:१:१७) कण की राजतरक्षिणी का उद्देश्य उपदेशात्मक के साथ ही साथ कलि से सन् १९४८ - ११४९ का इतिहास उपस्थित करना था। जोनराज का उद्देश्य, कल्हण के क्रम को जारी रखते हुए, अपने समयतक का इतिहास सुल्तान जैनुल प्रस्तुत करना था । आबदीन के आदेश पर Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी कल्हण एवं जोनराज से सर्वथा भिन्न श्रीवर के इतिहास लिखने का प्रयोजन था। वह एक कुशल राजकवि के समान अपने स्वामी की कृषाओं, उपकारों का बदला, उनके चरित, उनके इतिहास, उनकी कीति को लिखकर, अमर कर, चुकाना चाहता था। प्रतीत होता है। श्रीवर जैनुल आबदीन तथा हैदरशाह के वत्तान्तों का वर्णन करना चाहता था। उसकी यही प्रारम्भिक योजना प्रतीत होती है। क्योंकि प्रथम तथा द्वितीय तरंग में उनका क्रमशः वृत्तान्त वर्णन किया गया है। द्वितीय तरंग के प्रारम्भ में वह अपनी रचना का कारण उपस्थित नहीं करता। तरंग तृतीय तथा चतुर्थ उसकी दूसरी योजना है। वह समझता था। उसका स्वतः हैदरशाह के राज्यकाल मे ढलती उम्र के कारण अवसान हो जायगा। हैदर शाह का राज्यकाल इतना लम्बा होगा कि वह ग्रन्थ की समाप्ति तक शायद ही जीवित रह सकेगा। तृतीय तरंग के प्रारम्भ में वह इतिहास लिखने का पुनः कारण उपस्थित करता है-'जिस नृपति (हसन शाह) की जीविका का भोग किया, प्रतिग्रह एवं अनुग्रह प्राप्त किया, श्रीवर पण्डित अपने को ऋण मुक्त होने के लिये, उसका वृत्तान्त वर्णन कर रहा हूँ।' (३:३) तृतीय तरंग का नायक सुस्तान हसन शाह है । श्रीवर को सुल्तान अपना गुरु मानता था। उसने श्रीवर पर अनुग्रह किया था। अतएव यह स्वाभाविक है कि श्रीवर ने हसन शाह के वृत्त वर्णन की योजना द्वितीय तरंग लिखने के पश्चात् बनायी थी। . चतुर्थ तरंग मे वह प्रथम तथा तृतीय तरंग के समान इतिहास लिखने का कारण उपस्थित नही करता। हसन शाह का ही पुत्र मुहम्मद शाह था। अतएव बालक सुल्तान के पिता के अनुग्रह का स्मरण कर, उसके वृत्तान्त लिखने की योजना बना ली। उसकी लेखनी मुहम्मद शाह के राज्यच्युत होने तथा फतह शाह के राज्य ग्रहण करने के साथ ही विश्राम करती है। यदि श्रीवर फ़तहशाह के राज्यकाल मे जीवित भी रहा होगा, तो उसने लिखने का प्रयास इसलिये न किया होगा कि फतहशाह का उस पर कोई अनुग्रह नहीं था। उसके स्वामी के पुत्र को फतहशाह ने राज्यच्युत किया था। राज्य उत्तराधिकार से नही बल्कि षडयन्त्रों एवं सेना के बल पर प्राप्त किया था। अतएव फतहशाह के प्रति उसका अन्य चारो सुल्तानों के समान आदर एव स्नेह न होना स्वाभाविक है। समकालीन इतिहास ज्ञान : श्रीवर ने समकालीन, सीमान्त, तथा भारत के राजाओं के विषय में कुछ सूचनायें दी है। आधुनिक अनुसन्धानो से वे ठीक उतरी हैं। कुछ का निश्चित पता अभी नहीं मिल सका है। आशा की जाती है। अनुसन्धान होने पर, उनकी ऐतिहासिकता सिद्ध होगी । सिन्धु के सुल्तान कायम दीन (१:७:४०, १:७.२०३). ग्वालियर के राजा डूंगर सिंह (१:६:१४), राजपुरी के जयसिंह (२:१४५), मद्र के राजा माणिक्य देव, (१:१:४७, २:१०७), काष्टवाढ के राजा दौलतसिंह (४:२:११), मेवाड़ के राणा कुम्भ (१:६:१३), ग्वालियर के राजा की मृत्यु पश्चात् वहां के राजा कीर्ति सिंह, दिल्लीपति बहलोल लोदी (१:६:१७), खुरासान पति अबूसैद (१:६:२४), गुजरात के सुल्तान महम्मद (१:६:२५), मद्रमण्डल के राजा अजयदेव (३:११८), राजपुरी के शृंगारसिंह (४:४१०), मद्र देशस्थ परशुराम (४:२६६), भोडन राजा भीमवर (४.२१७) का नाम श्रीवर देता है। इनके अतिरिक्त चिभ देश (२:१४८), शाहिभंग (४:२११), पंचनद जसरथ तथा उसके पुत्र शाहमसूद (१:७:६५), गौड़ (बंगाल), माडव्य (मालवा) (१:१:१०), सुराष्ट्र (सौराष्ट्र) (१:६:१७), दिल्लीपति बहलोल लोदी (१:६:१९७), इब्राहीम लोदी, वान्दर पाल (१:५९१) तथा मक्का, गिलान, मिश्र (१:६:२६), इराक के सुल्तानों (१:७:२९) का उल्लेख बिना उनका नाम दिये करता है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका श्रीवर में विदेशों के तत्कालीन सुल्तानों का भी उल्लेख किया है इतिहास से उनकी प्रामाणिकता सिद्ध हो चुकी है उनमें विशेष उल्लेखनीय सुरासान के सुल्तान अबूसंद है। पंचनद के राजा ने ताजिक छोड़ा सुल्तान को भेंट किया था। वह मुल्तात का मित्र था (१:३:६) | मुगलों और जमू के राजा मे युद्ध हुआ था। उसमें सुल्तान जैनुल आबदीन का ज्येष्ठ पुत्र बहराम खाँ राजा के पक्ष से लड़ता मारा गया था। यह बात इतिहास से सिद्ध हो चुकी है । ( २:१० | समकालीन रचना : नोत्य सोम ने 'जैन चरित' (१:४:२०) योष भट्ट ने 'जैन प्रकाश' (१:४० ३८) भट्टावतार ने 'विकास' ( १ : ४:३०) जैनुल आबदीन ने 'शिकात ' (१:७ : १ने ६) लिखा था । 'सर्वलीला' प्रबन्ध देशी भाषा मे गीत ग्रन्थ था ( ३:२५६ ) | परन्तु उसके रचनाकार पर श्रीवर प्रकाश नही डालता । ३९ रचनाकाल : । प्रथम तरंग मे श्रीवर ने राजतरंगिणी एक साथ नही लिखी है। प्रथम दो तरंग उसने एक साथ लिखा था लिखता है। जैनुल आबदीन एवं उसके पुत्र वर साहू का वृत्तान्त वर्णन करना चाहता था प्रथम, द्वितीय एवं तृतीयतरंग श्रीवर ने मंगलाचरण एवं वन्दना के साथ आरम्भ किया है । परन्तु चतुर्थ तरंग मे वन्दना नहीं की गयी है । चतुर्थ तरंग तृतीय तरंग का रचना क्रम है। तृतीय तथा चतुर्थ तरंगो का एक वर्गीकरण किया जा सकता है । उसमे हसन शाह तथा मुहम्मद शाह का वृत्त वर्णन है । परन्तु द्वितीय एवं । प्रथम तथा द्वितीय धीवर प्रथम तथा तृतीय तरंगों में ग्रन्थ लिखने का उद्देश्य उपस्थित करता है चतुर्थ तरंगों में ग्रन्थ की योजना तथा उसके प्रणयन का कारण उपस्थित नही करता सरंग इसलिये एक और तृतीय तथा चतुर्थ तरंग दूसरे वर्ग में रखा जा सकता है। प्रथम तथा द्वितीय तरंग की रचना का एक काल तथा तृतीय एवं चतुर्थ तरंग की रचना का दूसरा काल है । प्रथम तरंग में चार सुल्तान के इतिहास वर्णन का उल्लेख, न कर केवल नृप एवं आत्मज शब्द का प्रयोग करता है । नृप से तात्पर्य जैनुल आबदीन तथा आत्मज से अर्थ पुत्र सुल्तान हैदर शाह से है। प्रथम तरंग में उसने जैनुल आबदीन के जोनराज द्वारा लिखित शेष वर्णन पूरा करने के लिये लेखनीं उठायी थी। उसके रचना का समय सन् १५५९ ई० के पश्चात् है उसकी योजना चाहे जोगराज के छोड़े कार्य को पूर्ण करने की क्यों न रही हो परन्तु योजना समयानुसार परिवर्तित होती गयी । जैनुल आबदीन के बारह वर्षों का इतिहास लिखना चाहता था । उसने (श्लोक १:१:१७ ) मे - 'सात्मजस्य नृपस्य ' लिखा है । तात्पर्य है । नृप के राज्य का वर्णन, उसके पुत्र सहित करना चाहता था । वहाँ उसने द्विवचन शब्द नृप के लिये नही प्रयोग किया है । इसका अर्थ है कि प्रथम योजना केवल एक नृप जैनुल आबदीन का चरित्र वर्णन मात्र था । उसे वर्णित कर, वह उसके पुत्र का भी वर्णन करना चाहता था । यदि हैदर शाह उस समय सुल्तान होता, तो नृप शब्द द्विवचन मे लिखता । आत्मज मात्र न लिखता । इससे प्रकट होता है कि प्रथम तरंग का आरम्भ उसने जैनुल आबदीन के समय किया था । = सर्व प्रथम वह शक संवत् १३८६ = लौकिक ( १ : १:७६ ) । निष्कर्ष निकलता है कि उसने इस समय के उसने जैनुल आबदीन के अन्तिम समय का विस्तार के साथ १५५९ के पश्चात् सन् १५६४ ई० का उल्लेख करता है । ४५४० = सन् १४६४ का पश्चात् ही रचना कार्य मे वर्णन किया है। सन् १४६४ ई० के उल्लेख करता है हाथ लगाया था । उसने जोनराज की मृत्यु सन् पश्चात् वह पुनः पीछे सन् Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैनराजतरंगिणी १४५२, १४६०, १४६३, १४५९, १४५७, १४३९, १४६४, १४६३ तथा १४७० ई० क्रम से दिया है। द्वितीय तरंग के पश्चात् संवत् का क्रम ठीक चलता है। इससे प्रकट है कि श्रीवर ने सन् १४६४ ई० के पूर्व रचना मे हाथ नहीं लगाया था। जैनुल आबदीन की मृत्यु के पश्चात् सन् १४७० ई० से वह घटना क्रम सन् वार देता है। इस प्रकार इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि श्रीवर ने राजतरंगिणी लिखना सन् १४६४ ई० के पश्चात् प्रारम्भ किया था। प्रथम तरंग निससन्देह उसने जैनुल आबदीन की मृत्यु पश्चात् लिखा था । जैनुल आबदीन के पुत्र हैदर शाह की मृत्यु सन् १४७२ ई० मे हई थी। उसने केवल दो वर्ष शासन किया था। इससे प्रकट होता है कि उसने द्वितीय तरंग की रचना सन् १४७२ ई० के पश्चात् की थी। श्रीवर ने चाहे लिखने का क्रम जैनुल आबदीन के समय आरम्भ किया हो, परन्तु प्रथम तरंग का समापन सुल्तान की मृत्यु पश्चात् हुआ था। तृतीय तथा चतुर्थ तरंग एक साथ लिखा गया था। इसका आभास तरंग तीन के तृतीय श्लोक से मिलता है । वह लिखता है-'जिस नृपति की जीविका का भोग किया, अनुग्रह एवं प्रतिग्रह प्राप्त किया, मैं श्रीवर पण्डित अपने को ऋण मुक्त होने के लिये उसका वृत्त वर्णन करूंगा।' (३:३) सुल्तान ने उस पर जो उपकार किया था, उससे उऋण होने की भावना से ग्रन्थ रचना में उसने पुनः हाथ लगाया था। तृतीय तथा चतुर्थ तरंगों में वर्ष क्रम बिल्कुल ठीक दिया गया है। कही व्यतिक्रम नही हुआ है। पूर्व घटना का वर्णन न कर, सन् १४७२ ई० से सन् १४८६ ई० तक की घटनाओं का क्रम से वर्णन किया है। इससे प्रकट होता है। हसन शाह की मृत्यु के पश्चात् तृतीय तरंग लिखने मे हाथ लगाया और सन् १४८६ मे समाप्त किया। तृतीय तथा चतुर्थ तरग सन् १४८४ के मध्य दो मास कृष्णाजन्म नवमी से १४८६ की रचना है । इस प्रकार प्रथम तथा द्वितीय तरंगो का रचना काल सन् १४७० ई० के पश्चात् तथा सन् १४७२ ई० के लगभग हुआ था। मंगलाचरण : कल्हण, जोनराज एवं शुक ने प्रत्येक तरंगों के आरम्भ मे मंगलाचरण एवं वन्दना लिखी है। श्रीवर के इस व्यतिक्रम का यही कारण है कि प्रथम तरंग का मंगलाचरण लिखकर, द्वितीय तरंग और तृतीय तरंग का मंगलाचरण लिखकर चौथे तरंग को तृतीय तरंग का रचना क्रम मान लिया है। श्रीवर ने तरंग प्रथम तथा तरंग तृतीय में मंगलाचरण लिखा है। तरंग दो तथाचार बिना मंगलाचरण के आरम्भ किया गया है। कल्हण ने मंगलाचरणों में यश, जय, रक्षा, पाप क्षय एवं प्रसन्नता की कामना की है। जोनराज ने मंगलाचरण में लोक के सद्भाव एवं सम्पत्ति की कामना की है। उस ने मंगल कामना के लिये, किसी देवी या देवता का स्मरण नहीं किया है। उसने लोक कल्याण की कामना की है। श्रीवर जोनराज का. शिष्य है। उसने कल्हण, जोनराज के मंगलाचरण को पढ़ा था। उनके दर्शन का ज्ञान था। कल्हण प्रत्येक तरंग का आरम्भ अर्धनारीश्वर की वन्दना से किया हैं। जोनराज ने कल्हण का अनुकरण कर, अर्धनारीश्वर की वन्दना की है। श्रीवर कल्हण एवं जोनराज का अनुकरण करता अर्धनारीश्वर की वन्दना किया है। श्रीवर के पश्चात् शुक ने भी अर्धनारीश्वर की वन्दना की है। चारों राजतरंगिणी कारों ने अर्धनारीश्वर की आराधना की है। किन्तु चारों का दृष्टिकोण भिन्न है। कल्हण हिन्दू कालीन कवि था। काश्मीर स्वतन्त्र था। राजभाषा संस्कृत थी। संस्कृत काव्य का कश्मीर केन्द्र था। दर्शन, योग एवं तन्त्रों का केन्द्र था। कल्हण राजकवि नहीं था। किसी का आश्रित नहीं था। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ भूमिका किसी को प्रसन्न करने के लिये, उसने लेखनी नही उठायी थी। परन्तु जोनराज, श्रीवर तथा शुक तीनों ही मुसलिम कालीन कवि हैं। तीनों राजकवि थे। तीनों सुल्तानों के आश्रित थे। तीनों ने पतनोन्मुख काश्मीर का दर्शन किया था। कल्हण तथा अन्य तीनों राजतरंगिणीकारों के दृष्टिकोणों मे कालान्तर के कारण भेद होना स्वाभाविक है। __ जोनराज सुल्तान को कुछ कम प्रसन्न करने की इच्छा रखता था। उसके समय काश्मीर की जनता हिन्दू से मुसलमान हुई थी। मन्दिर टूटे थे। उसने मन्दिरों की गरिमा देखी थी। उनका खंडहर होना देखा था । जोनराज की भाषा में वेदना है । उसे वह अपने काव्य प्रवाह मे भी भूल नही सका है। श्रीवर तथा शुक काश्मीर का प्राचीन वैभव नहीं देखे बे। उन्होंने मन्दिरों के ध्वंसावशेषों को देखा था। हिन्दुओं का उत्पीड़न देखा था। दमन देखा था। परिस्थितियों ने उन्हें भाग्यवादी बना दिया था। इसकी झलक श्रीवर के मंगलाचरण एवं रचना मे मिलती है। श्रीवर ने मंगलाचरण में विचित्र कामना की है। वह भगवान् से कामना करता है। अर्धनारीश्वर अद्वैता भावना दे। श्रीवर के मंगलाचरण से स्पष्ट प्रकट होता है। वह अद्वैतवादी था। अद्वैत दर्शन से प्रभावित था । श्रीवर का यह अद्वैत वाद, यह एकेश्वर वाद, तत्कालीन मुसलिम एकेश्वर वाद के कठोर सिद्धान्तों से प्रभावित है। श्रीवर भी अन्य काश्मीरियों के समान था। उसने प्रथम तथा तृतीय तरंगों के मंगलाचरण में शिव को नमस्कार किया है। कवि बन्दना: प्रत्येक राजतरंगिणीकार ने कवि बन्दना की है - 'पदन्यास के कारण मनोहारी, क्षीर-नीर विवेकी, वे राजकवि वन्दनीय है, जो सरस शब्दों के कारण प्रख्यात हुए है। अनित्यता रूप अन्धकार से युक्त, स्वामी शून्य, इस महीतल पर, काव्य दीपक के अतिरिक्त, कोन अतीत वस्तु को प्रकाशित कर सकता है ? ब्रह्मा जिन राजाओं के नश्वर शरीर की रचना करता है, इन्ही के कीर्तिमय शरीर को जगत् मे कल्प पर्यन्त जोनराज स्थायी करता है।' (१:१:६-५) श्रीवर ने कल्हण के निम्नलिखित भाव को दूसरे शब्दों में रख दिया है-'सुधा धारा को भी मातकरने वाले कवियों का गुण वन्दनीय है। जिनके कारण उनकी तथा दूसरों की यशःकाया स्थिर रहती है।' (राः१:३:) कल्हण और लिखता है-'जिन राजाओं की छत्रछाया में पृथ्वी निर्भय रही, वे राजा भी जिस कवि कर्म के बिना स्मृति पथ पर नहीं आते, उस कवि कर्म को नमन है ।' (राः१:४६) जोनराज कवि की वन्दना नहीं करता। परन्तु राजाओं के जीवित रहने का कारण कवि को देता है-'तदुपरान्त देशादि दोष अथवा उन (राजाओं) के अभाग्यों के कारण किसी कवि ने वाक्य सुधा से अन्य नृपों को जीवित नहीं किया' (श्लोक ६) । वह और लिखता है-'मैने राज उदंत कथाओं का सूत्रपात मात्र किया है, (अब) इस विषय में चतुर कवि शिल्पी रचना करें।' (श्लोक १७) शुक ने भी कवि बन्दना की है-'सुन्दर पदों से शोभन, अविरल अनुप्रास युक्त, शुभ्र नाना प्रकार के अर्थो से अनुगत, मान्य सुकवियों के ललित भावों से अन्वित, श्लोकों के रचनाकार, तर्क वितर्क से कुशल मति, कवि का प्रमाणन्वित वाक्यवन्ध है, जिसकी क्रान्ति से नृपों की कीति, वस्तु रचना, सब ओर से देदीप्यमान हो उठती है।' (१:४) तरंग तृतीय के मंगलाचरण मे श्रीवर पुनः कवि की बन्दना करता है-'भूतकालीन जिस राज वृत्तान्त को अपनी वाणी की योग्यता से वर्तमान करता है, वह योगीश्वर कवि बन्दनीय है। ( ३:२) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनराजतरंगिणी राजतरंगिणीकारों ने कवि प्रशंसा की परम्परा का निर्वाह किया है। जोनराज का कवियों के प्रति रोष प्रकट होता है । दोष देता है। उन्होने राजाओं का जीवन वृत्त क्यों नही लिखा ? अतएव जोनराज ने कवियों की स्पष्ट रूप से बन्दना नहीं की है। उद्देश्य : चारों राजतरंगिणीकारों के रचना का उद्देश्य भिन्न है। कल्हण का उद्देश्य राजतरंगिणी को इतिहास के साथ उपदेशात्मक ग्रन्थ बनाना था। वह स्वयं लिखता है-'उसकी राजतरंगिणी भविष्य के राजाओं का मार्ग निर्देशन करेगी' (रा:१:३१) जोनराज का उद्देश्य सर्वथा भिन्न था-'राजपथिकों के दर्प पलानि से समुत्पन्न, ताप परम्परा को हरने के लिये, भविष्य में फलप्रद काव्य म समरोपित किया है। (श्लोक ८) कवियों के उपयोग्य मेरी वाणी स्वान्तः सिद्ध के लिये ही है।। श्लोक १६) उसकी रचना का तात्कालिक कारण जैनुल आबदीन के सर्वाधिकारी श्री शीर्य भट्ट का आदेश था। वह लिखता है-'सभी धर्माधिकारों पर नियुक्त, दयालु श्री शीय भट्ट के मुख से सादर आज्ञा प्राप्त कर, इस समय राजावली को पूर्ण करने के लिये, अपनी बुद्धि अनुरूप, मेरा यह उद्यम है, न कि कवि होने की अभिलाषा।' (श्लोक ११, १२) जोनराज का उद्देश्य काश्मीर के इतिहास को अपने समय तक पूर्ण करने के साथ ही साथ, सुल्तान जिसका वह राजकवि। था, आदेश पालन, करना था। श्रीवर ने जोनराज की शेष रचना को पूर्ण करने के अतिरिक्त अपना उद्देश्य स्पष्ट किया है-'सज्जन लोग राज वृत्तान्त के अनुरोध से, मेरी वाणी सुने और अपनी बुद्धि से योजित करे। अथवा नप बत्तान्त के स्मरण हेतु, श्रम किया जा रहा है। ललित काव्य की रचना अन्य पण्डित करें (१:१:९,१०) किसी कारण से मेरे गुरु (जोनराज) ने जिसे नही कहा ( लिखा) था, उस अव शिष्ट वाणी को यथा मति कहँगा (लिखुंगा)। (१:१:१६) अनेक विपत्तियों तथा वैभव के स्मरण से, जैन तरंगिणी किसमें वैराग्य नहीं पैदा कर देगी।' (१:१:१८) श्रीवर तत्कालीन राजनीति से खिन्न हो गया था। पिता-पुत्र, भाई-भाई के संघर्षों ने काश्मीर की सुव्यवस्था बिगाड दी थी। स्वार्थपरता, पद लोलुपता, अर्थ मोह ने मनुष्य को पशु बना दिया था। किसी पर विश्वास करना कठिन था। श्रीवर को इस स्थिति से स्वय विराग हो गया था। उसने अपने विरक्त भाव को स्थान स्थान पर व्यक्त किया है-'कल्पान्त तक, स्थिरता की आशा से, कोटि-कोटि घन देकर, जो निर्माण किया गया, वह जलकर भस्म हो गया ।' (४:३२७) दृष्टिकोण : श्रीवर निरपेक्ष चिन्त्य विद् था। दूसरा कुछ, उस काल में हो भी नहीं सकता था। हिन्दुओं का स्तर समाज में ऊँचा नही था। राजनीति मे स्थान नहीं था । सुल्तान सैयिदों तथा विदेशी मुसलमानों से प्रभावित थे । विदेशी भाषा अरबी तथा फारसी पढने-पढ़ाने पर बल दिया जाता था। हिन्दुओं की स्थिति अच्छी नहीं थी। श्रीवर यद्यपि धर्म निरपेक्ष था, तथापि उसने विचारों को स्वतंत्रतापूर्वक प्रकट किया है। उसने हिन्दू आचार-विचार, संस्कार एवं परम्परा का गर्व करते हुए, समर्थन किया है। आलोचना प्रत्यालोचना नहीं करता। परन्तु अपनी बात स्पष्ट सरल शब्दों मे निर्भीकता पूर्वक व्यक्त करता है। वह अपने आश्रयदाता सुल्तानों से भयभीत नही था । जहाँ उनकी प्रशंसा करना चाहिए था, वहाँ प्रशंसा किया है। जहाँ आलोचना की आवश्यकता पड़ी है, कटु आलोचना में संकोच नही किया है। उसका दृष्टिकोण उदार है । वह व्यर्थ की Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ४३ आलोचना - प्रत्यालोचना एवं विवादों में नही उलता । इसका अभाव जोनराज तथा शुक में मिलता है । वे अपने आश्रयदाता सुल्तानों के धार्मिक विषयो पर कुछ व्यक्त न कर, उससे बचना चाहते थे । श्रीवर ने अपने विचारों को दृढ़ता पूर्वक प्रकट किया है। उसने सुल्तानी तथा मुसलिम धर्म के रीति रिवाजो की आलोचना भी की है। वह मृतक संस्कार के संदर्भ मे स्पष्ट बती भाषा में गाड़ने की अपेक्षा दाह संस्कार को अच्छा मानकर, उसका समर्थन किया है । उसका तर्क आज भी मान्य हैं । जगत् दाह संस्कार की ओर, ईसाई, शिन्तो, कनफ्यूसस अथवा मुसलिम धर्मानुयायियों के होने पर भी बढ़ रहा है। श्रीवर लिखता है - 'जो अपने देह मे स्थित अपने आयु की अवधि जानता है, और मित्रता के कारण अन्तक, जिसके आधीन होता है, उसी के लिए साजिर कर्म करना उचित है, म्लेच्छों का यह दुर्व्यसन मात्र है, यह मेरा मत है। (२:९०) प्रत्येक सामान्य जन सैकड़ों हाथ भूमि घेरने में रत रहता है और दूसरे का प्रवेश यत्न पूर्वक नही होने देता, क्या उसे लज्जा नहीं आती ? मुसलिम शास्त्रो मे सुना गया है कि यदि शव भूतल पर छोटी शिलायें स्थापित कर दी जाय, तो उसके परलोक जाने पर सुख मिलता है । अहो ! आश्चर्य है !! इस लोभ के माहात्म्य पर, जो कि जीवित की तरह मृत भी शवाजिर के व्याज से भूमि का आवरण ( घेराव ) करते है । अन्य (हिन्दू) दर्शन का आचरण ही श्रेष्ठ है, जहाँ हस्त मात्र भूतल पर नित्य करोड़ों दग्ध होते है, तथापि वह उसी प्रकार खाली रहता है । इस प्रकार प्रसंग वश, यहाँ जो अनुचित निन्दा की है, मुसलमान लोग उसे क्षमा करेंगे, क्योकि कवि की वाणी निरंकुश होती है ।' (२:९०-९७ ) , वैराग्य है श्रीवर ने चारों तरंगों मे चार उद्देश्य किंवा कामना की है। प्रथम तरंग का स्थायी भाव जोनराज के शेष इतिहास अर्थात् जैनुल आबदीन के अपूर्ण चरित्र को पूरा करना था । राज्य वृत्तान्त के अनुरोध से वह अपनी बाणी पाठकों को सुनाना चाहता सुल्तान ने उस पर जो उपकार किया था, उसकी निष्कृति के लिये रचना पर, तत्पर हुआ था । द्वितीय तरंग में सुख भाव की कामना की है। तृतीय तरंग की रचना जिस सुल्तान की जीविका का भोग किया था, उससे उऋण होने के लिए, हसन शाह का चरित लिखा है । परन्तु तृतीय एवं चतुर्थ तरंग का स्थायी भाव वैराग्य है । वह लिखता है - 'अपनी आँखों से देखे, स्मरण किये गये, राजाओं के विपत्ति, वैभव आदि विकृतियों के कारण यह राजतरंगिणी किसमे वैराग्य नहीं पैदा करेगी । ' ( ३:४) श्रीवर ने बहराम लां के कारागार में उठते उद्गार मन्त्रियों एवं सेनानायकों की स्वार्थ परता, काश्मीरियों एवं सैयिदों के रक्त रंजित घटना क्रमों, क्रूरता की पराकाष्ठा, घमण्डी घनिकों का शोषण और आततायियों का पीड़क होना, वंशजों के रक्त से हाथ रगना, पद च्युत होते ही श्रीहीन हो जाना, स्वार्थ के लिये नाना प्रकार के कुकर्म विभव का लोप पराभव का कष्ट किचित् स्वार्थ पूर्ति के लिये आचरण का त्याग आदि पेटनाओं के कारण तृतीय तथा चतुर्थ तरंग में पद पद पर वैराग्य उत्पन्न होता है। जंगल आवदीन भी अपने पुत्रों के व्यवहार से जीवन से से आच्छादित है, जीर्ण एवं है ।' (१:७१:४४ ) 2 I ऊब गया था । वह कहता है - 'देह रूप यह कुटीर, जो केश रूप तृणों छिद्रयुक्त हो गयी है, मन रूपी मूर्ति को यह रुचिकर नहीं लग रही धीवर मे वीरशृंगारादि । जीवन के संघर्ष, स्वार्थ कल्हण का स्थायी भाव शान्त रस है। जोनराज का स्थायी करुण रस है। भाव सभी रसोंका दर्शन मिलता है परन्तु वैराग्य भावना सर्वदा परिलक्षित होती है लोलुपता, ऐश्वर्य एवं लक्ष्मी की पंचलता आदि के कारण श्रीबर के वर्णन से होता है। मन में विराग उत्पन्न Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनराजतरंगिणी भूगोल : श्रीवर को काश्मीर के भूगोल का ज्ञान था । परन्तु काश्मीर के बाह्य देशो का उसे वास्तविक ज्ञान नही था । काश्मीर के बाहरी स्थानों का वर्णन उसने सुनकर लिखा है । उनके सम्बन्ध में विशेष परिचय नही देता । उसने कल्हण के समान पर्यटन नही किया था । मद्र का उल्लेख किया है । परन्तु मद्र भूखण्ड का परिचय नही देता । । प्राचीन संस्कृत नाम, जो उस समय प्रचलित थे, लिखा है । अनेक स्थान प्राचीन नया रूप एवं नाम ग्रहण कर लिये थे श्रीवर उनका तुलनात्मक परिचय नहीं देता, ताकि उन स्थानों का निश्चय किया जा सके । उसने प्राचीन स्थान के नामों मे - अवन्तिपुर ( १:४:४, ३:४२ ), अर्धवन ( ३:४२५, ४:४८ ), इक्षिका ( २:११, ३:२५ ), शूरपुर : ( १:१:१०, ), शूरपुर अध्ववन ( ३४२७ ), सुप्त सुमन ( १ : १: १२४ ), मल्लशिला ( १:१:७, ४:४५६), पणोत्स ( १७:८०, २०८,२:६८), अभ्यन्तर कोट (१:७:८१), विषु लाटा ( १:७:२०५), सुय्य पुर (१.३:११, १:७:२०७ ), अमृत उपवन (२:४२), वलाय मठ (२:१४०), खुय्याश्रम ( ३.३४७), खेरी ( ४:१८७, ४४८, ४५५), क्षिप्तिका (३:१८६), कराल (३:१९१,४:४५७ ), वैश्रवणगिर ( ३ : ५११ ), देवसर ( ३:१०३), वहुरूप ( ३१५७), दिल्लीपुर ( ३: १५८ ), दुग्धाश्रम ( ३:१७१, ४:१०९ ), कर्कोट द्रंग ( ३:४५७), काष्टील ( ४:२४० ) काष्टवाट (४:२११), कालीधारा (४:२१८), कुमार सर ( १:५ : १०६), कुलोद्धरण नाग ( ३ : १७८), क्रमसर (१:५:९६), १:६:१), क्रमराज (३:४१), क्षेम गौरीश्वर ( १ : ६१:७३), जयापीड़ पुर (१:३:३३, ३७,४.५३५), त्रिपुरेश्वर (१:५:१५३५७), दामोदर उद्र ( ४.६१५ ), दिद्दा मठ ( ३:१७१), द्रंग ( ४ : ५७७), दुग्धाश्रम ( ४ : १०९), नाग्राम ( ४:३४७), नीलाश्व ( ४ : १००), नौबन्धन (१:५:८८, १०५), पद्म पुर ( ४ : ३४२), परिहास पुर (४:३५०), पुराण तक्षक स्थान ( ४ : २५१), पूर्वाधिष्ठान ( ४ : २८८ ), प्रद्युम्नाचल ( १:७:१०४), भेदा या भेद ( ४ : ४९२ ), भांगिला : ( ४ : १०७, ४:६१४), मक्षिकाश्रम ( ४:३४९), मडवराज ( ४.४४३), लोष्ट विहार ( ४:१२१,१८९), लंका ( १:५:३४ ), लम्बोदरी (१ : ३:८), वामपार्श्व ( ४ : २३९), विजयेश (३ : १७८), विशप्रस्थ ( ४.९७,१९१, ६३८, १:७:३), शमाला ( ४:१०७), सतीसर ( ४ : १९ ), समुद्र मठ ( ४ : १२० ), समुद्र कोट (१.५:१३), सिन्धु संगम ( १५:५५), श्री पर्वत ( १:७ : ३, १ : ५०३६) सुरेश्वरी (१४:३३,४०), स्कन्द वन ( ४:१२२), हस्तवालिका (४:२५२), एवं हस्तिकर्ण (१ : ५:५५), का नाम दिया है । श्रीवर कुछ नवीन स्थानो का नाम देता है । जिनमे कुछ का पता लग गया है और कुछ का मूल स्थान अज्ञात है । उनका यथा स्थान वर्णन किया गया है । अनेक्षा (३:१८२), अमृत वाटी ( ४.३५), अलाभ पुर ( ४ : ३१५), कुटी पाटीश्वर ( २:१५३), कुद्दद्दीन पुर ( १: ३ : ८४ ), कुतुबुद्दीन पुर ( ४:१४५), कुद्ददेन पुर ( ३:८० ), गुसिकोड्डार ( ४:४६१४ : ५ : २७ ), गुलिका वाटिका ( ३ : २७६ ), ग्रहण ( ४:४०९), जैन नगर, ( ४:१२० ), ज्याल द्रागड ( ४ : २०४, ३९६), ज्यमाल मैरुग ( ३:५११), डुल्ल पुर ( ३:५५ ), ग्रामगामा (४:४६३), धारा तीर्थ (३ : ९३), नैपुर ( ४:१२१), पंचगह्वर (३:१०१, ४:२१२), पूपामठ (४:२६१), पाखुआ (४ : ३०४), बड़वी विषय ( ४:१३४), वालेश्वर (२:१४५), ब्रह्म मण्डल ( ५:५६९), भैरवगल (४.५२४, ५८४), मलिकपुर ( ४:१८९), मुक्ता मूल नाग ( ४:६३), मावरी (३:५४ ), मृगवाट ( ३: १९८), रज्ज पुर (१:७:१३), रुद्रवन (४:१२५), रुद्र विहार ( ४:१३५), लक्ष्मी पुर (२:१४), लुद्रभट्ट विहार ( ४ : १७५), वितस्ता नाड (४:२१,६६,६७), शस्त्र गल (४२१७), सतीपुष्टा ( ३: १८६), सात दैवत (६:१६), सग्राम (३:२५), सालोर (१:७ : २५०), हिन्दू वाट ( १ : १ : ५१), हेलालपुर (१:३:४२ ), कत्थवाड ( ४ : ६०४), कल्पवाट (४:६०४), कल्याणपुर ( ४ : ४६२,५०० ), काचगल ( ४ : ५८६), क्रमराज्यपुर ( ३:४१ ), खान मरुग Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (४.६३), (४:५५६), जुहिलामठ, (४.६१), चक्कवाड (४:४६४), चटिकासार (४.६१३), छुन्दानक (४:३७१), जम्भ वाट (४ ५६६) तारवल (१:७:२), दीनार कोट (२:१४८), दुर्गापुर (१:३:२१,) नन्दपुर (४:११८), मंगलादेवी (२:१४८), मंगलनाड (४:५१२), मानस नगर (१:३:४८), सिकन्दर पुरी (२:४२), सिद्धपुरी (१:५:४३), सुप्रसनमन (१:१:११४), सुमनो वाट (२:१२१,४:२६२), का उल्लेख किया है। श्रीवर ने सीमान्त तथा भारतवर्ष के देश-प्रदेश के कुछ प्राचीन तथा कुछ अपने समय के प्रचलित नाम दिये है। उनका विस्तृत विवरण नही देता। उनका यथास्थान वर्णन किया गया है। प्राचीन देशों में अभिसार (१:५:२२), उत्तरा पथ (४:३३६), किन्नर (१:६.७), गान्धार (३:२४५), गुर्जर (१:६:२५), गौड़ (१:२५; १:६:१०; ३:२४५), जालन्धर (४:४०६), दर्वाभिसार (१५:२२), पचनद (१:६:६), पांचाल (३:४२), भुट्ट (३:२२), भद्र (२:६८), माण्डव (१:६:१०), वाराणसी (१:५:४०), विष्णु पर्वत (१:५:९८), सिन्धु देश (१:७:३४,४७,२०५,४:१०९), सुराष्ट्र (१:६:१७), स्यालकोट (३:३४०) का उल्लेख किया है। विदेशों के भी कुछ नाम दिये है-इराक (१:७:५९), खुरासान (१:४:३२,१:६:२५), गिलान (१:६:२६), ताजिक (१:६:६), दरद (१:३:९५), मक्का (१:४:३२), मिश्र (१:६:३१)।। ___ अप्रचलित नामों में-गोपालपुर (१:६:१४), घोष देश (१:४:५०), चिभ देश (१:१.१७,२:१४८), तुरुष्क देश (४:४२७), शाहिभंग (४:२१२) नाम दिया है । जिनका पता अन्य स्रोतो से खोजना पड़ता है। नदियो मे 'ज्यलमं'-झेलम = वितस्ता (२:१५१), महासरित (१:४:२९,३:२७६,७७,१:५:५७), विशोका (१:३:८,१३,१५,३९), तिलप्रस्था (१:५:३५) तथा सिन्धु का नाम देता है। यहाँ प्रथम बार झेलम का उसके प्रचलित वर्तमान नाम से लिखा है। ____ काश्मीर मण्डल के स्थानों का सामान्य ज्ञान श्रीवर को था। उसने जितना बड़ा ग्रन्थ लिखा है, उसके अनुपात से भौगोलिक परिचय बहुत कम दिया है। उसने जिन स्थानों का नाम दिया है, उसमे कुछ को छोड़कर, शेष का पता लग जाता है। उसका भौगोलिक वर्णन ठीक है। सीमान्त तथा बाह्य देशों का न तो उसने भौगोलिक वर्णन किया है और न उनका परिचय देता है। वे सम्भवतः उस समय इतने प्रचलित नही थे कि उनके परिचय देने की आवश्यकता होती । निर्माण : श्रीवर के काल में निर्माण बहुत हुए थे। उनमे प्रमुख-जैन तिलक (१:३:३४), हेलापुर (१:३:४३), जैन सर (१:६:१), नवीन राजनिवास-जयापीड़पुर (१:३:४४), कुल्या निर्माण (१:५:१२८), जैन नगर में राजधानी निर्माण लौ०:४५१५ = सन् १४३९ ई० (१:५:४), ग्राम निर्माण (१:५:१३), सरोवर निर्माण (१.५:३०), कुलोद्धरण नाग पर राजगृह निर्माण (१:६:३), बारहमूला मे नवीन आवास निर्माण (१:७:४२), दिद्दामठ नदी तटपर राजधानी निर्माण (३:१७१), गुलरवातून द्वारा मदरसा निर्माण (३:१७५), श्रीनगर मे खानकाह निर्माण (३:१७७), अनेक्षा उद्यान में गृह निर्माण (३:१८२), सुय्यपुर मे राजधानी (३:१८१) तथा विजयेश्वर मे नदी तट पर राजगृह का नवीनीकरण किया गया (३:१७९)। कुलोद्धरण नागपर राजवास का जीर्णोद्धार (३:१७८), अग्निदग्ध सुय्यपुर का नवनिर्माण (१:१९५), (१:७:४३), लहर राजवास का जीर्णोद्धार (१:५:१३,१४) किया गया था, आयुक्त अहमद के पुत्र नौराज आयुक्त ने नवीन मठ के साथ नगर मे क्षिप्तिका तथा नवीन शेलसेतु निर्माण कराया (३:१८८) । ताजभट्ट ने कराल देश मे जैनपुरी के मध्य मठ निर्माण कराया (३:१९१)। राजा ने वलाढ्य मठ के अन्दर खानकाह (३:१९३) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनराजतरंगिणी तथा अपनी जन्मभूमि मे नवीन विहार बनवाया (३.१९३-१९४)। उसने मण्डल मे मठ अग्रहार मसजिद विहार एवं गृह पक्तियों से तीस-बीस प्रतिष्ठाएँ की (१:१९५) । आयुक्त अहमद ने मसजिद, हुजरा एवं खानकाह बनवाया (१:१८४) फिर्य डामर ने जैन नगर मे सुन्दर सत्र वाला मसजिद, हुजरा सहित खानकाह बनवाया (३:१९७) । बोधा खातून ने मृगवाट में दग्ध मठ का नवीनीकरण किया (३:१९८)। रिगक और नुत्थक ने क्रमराज्य में दो मठ निर्माण कराया (३.१९०)। मोमरा खातून ने जैन नगर में नवनि मठ बनवाया (३:१९९)। जयराज, राजपुरी वंशीय ने सिकन्दरपुर के निकट नवीन खानकाह निर्माण कराया (३:२००)। फेर ठक्कुर ने विजयेश्वर नदी तट पर मठ निर्माण कराया (३:२०२)। हिन्दू तथा बौद्धों द्वारा भी एक निर्माण का पता चलता है। सय्य भाण्डपति ने विजयेश्वर में विहार बनवाया, जो धर्म संघादि उपहार से बौद्ध मार्ग सदश शोभित था (२:२०३)। लक्ष्ममेर आदि श्रेष्ठवणिकों ने भीम स्वामी गणेश का शैलमय नवीन प्रसाद निर्माण कराया (३.२०४) । छिछली भूमि पर राजा ने सरोवर खुदवाकर, उसमें कमल, शृगाट (सिंघाड़ा) भोजनोपयोगी पादप लगवाये । जातियाँ: श्रीवर ने जातियों के विषय में बहुत लिखा है। मुसलमान हो जाने पर भी हिन्दू जाति-पात छोड़ न सके थे। अपने पूर्व जाति एवं उपजाति का पुछिल्ला साथ लगाये रखे। जातियों मे खश (४:११३,२१२,४९४, ६५०), चक (१.१:४०,४:५८५), आभीर (१:१:२५), किरात (१:५:५८,३:२९०), दरद (१:३:९५), किन्नर (१:५:१०,१:६:७), राजपूत (४:४६५,५२७), सैयिद (३:१६०), तुरुष्क तथा काश्मीरी थे । काश्मीरियों में अनेक उपजातियाँ, ठक्कुर (१:१:४४,३:४६३,४:१०४), डामर (१:१.९४,१३३), प्रतिहार (१:१:९२,१५१), राजानक (१:१:८८), मार्गेश (१:१:९२,१५२), तेन्त्री (१:१:९४,१३३), लवण्य-लुन (१:३:६९,७०), डोम्ब (४:१६९,४७४), चाण्डाल (१:१:३८,४.९९), नायक (४:४१५,४४२), रावत्र (२:२१२,४:३३९), आयुक्त (२:१७३,१८१,३:३७०,३८०,३९४,४००) के अतिरिक्त सिद्ध थे (३:५०९) जातियों का उल्लेख श्रीवर ने किया है। उनका विस्तार के साथ यथास्थान वर्णन मिलेगा। हिन्दुओं में केवल एक ही जाति ब्राह्मणो का उल्लेख मिलता है। उनमे राजानक तथा भट्ट ब्राह्मण वर्गों का बहुत उल्लेख है। धर्म: श्रीवर के समय काश्मीर मुसलिम बहुल प्रदेश था। मुसलिम धर्म मे सुन्नी एवं शीया दोनों सम्प्रदाय थे। सूफियों की भी संख्या थी। चक जाति शीया थी । शेष सम्प्रदाय सुन्नी एवं उनके उप सम्प्रदाय थे। मुसलिम सूफियों के अतिरिक्त ऋषियों, दरवेशों एवं पीरों की भो परम्परा थी। हिन्दू-जाति प्रायः शैव मतावलम्बी थी। उनमे तन्त्र तथा वैष्णव मत का भी कुछ प्रचार था। हिन्दुओं के मुसलमान हो जाने पर भी, पुरातन धार्मिक संस्कार जनता में व्याप्त थे। श्रीवर ने चतुष्पाद धर्म का बहुत उल्लेख किया है। हिन्दुओं में सनातन धर्म पर आस्था बनी थी। हिन्दुओं में मूर्तिपूजा प्रचलित थी। सिकन्दर बुत शिकन के प्रतिमा भंग के पश्चात भी जैनुल आबदीन के समय प्रतिमाएं स्थापित की गयीं । गृहों में गृह देवताओं की पूजा होती थी (१:३:१७)। . बौद्ध-बौद्ध धर्म भारत में लोप हो गया था। फिर भी भारत के सीमान्त प्रदेशों में किसी न किसी रूप में प्रचलित था। सुदूर पूर्व में बंगला देश के पूर्वीय खण्ड, भारत के उत्तर, भूटान, सिक्किम, नेपाल, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका लद्दाख में आज भी है। काश्मीर में बौद्ध एवं हिन्दू धर्म एक साथ माना जाता था। जनता भगवान् बुद्ध की पूजा अवतार रूप में करती थी। श्रीवर के वर्णन से प्रगट होता है कि पन्द्रहवी शताब्दी में कुछ बौद्ध धर्मावलम्बी काश्मीर में थे । जनता शेष भारत के समान बुद्ध भगवान् की पूजा भूल नहीं सकी थी। श्रीवर का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है'सय्य भाण्डपति ने विजयेश्वर में विहार बनवाया, जो धर्म संघादि उपहार से, बौद्ध मार्ग सदृश शोभित हुआ।' (३:२०३) श्रीवर स्वयं प्रत्यक्षदर्शी था। अतएव उसका वर्णन अविश्वनीय नही है। लद्दाखी बौद्ध काश्मीर के खण्डित बौद्ध उपासना स्थलों पर शताब्दियों तक आते रहे। जैसे जरूसलम में यहूदी पुराने टूटे, मन्दिर की दीवाल पर, जाकर माथा, इसराइल राष्ट्र बनने के पूर्व टेकते थे। पूर्वकाल की स्मृति में आँसू बहाते थे। जिसके कारण दिवाल का नाम ही वीपिंग वाल हो गया था। भारत में भी मथुरा के जन्म स्थान, अयोध्या के जन्मभूमि तथा काशी में विश्वनाथजी के भग्न मन्दिर ज्ञानवापी में पूजा और यात्रा आज भी की जाती है। तन्त्र-तन्त्र पुरातन दार्शनिक धर्म का स्थान ले रहा था। यह क्रिया तन्त्रो के उदय के साथ काश्मीर में आरम्भ हो गयी थी। शैव, वैष्णव, गाणपत्य, सौर आदि अनेक तन्त्रों की शाखा प्रशाखाओं का केन्द्र काश्मीर था। तन्त्र के विकास में काश्मीर ने यथेष्ट योगदान किया है। श्रीवर ने गण चक्रोत्सव आदि तान्त्रिक क्रियाओं का उल्लेख किया है (१:३:४६)। निर्माण-पूर्वकालीन देवस्थान खानकाह, मसजिद, हुजरा, मदरसा, जियारत आदि मे परिणत कर लिये गये थे (३:१९४) श्रीवर मुसलिमों द्वारा विहार, मठ आदि निर्माण का उल्लेख करता है, तो उनका अर्थ मुसलिम धार्मिक निर्माणों से लगाना चाहिए । श्रीवर ने इसे स्वयं लिखा है-'गोला खातून नाम की रानी, जो राजमाता थी। उसने भी मदरसा नाम से विशाल धर्मशाला का निर्माण कराया' (३:१७५)। सुल्तान जैनुल आबदीन के पश्चात् राज्य की सहिष्णु नीति पुनः बदल गयी। मुसलिम शरियत के अनुसार नवीन देवस्थानों का निर्माण नहीं किया जा सकता था। परन्तु प्राचीन की मरम्मत की जा सकती थी। तथापि कुछ उदाहरण मिलते है । हिन्दुओ ने निर्माण कार्य किया था। वे अपवाद मात्र है। धर्म विपर्यय के परिणाम के विषय मे श्रीवर लिखता है-'इस देश मे जब लोग प्रवंचना द्वारा (धन) संचय करते है और तत्-तत् धर्म विपर्यय के कारण अपनी मायावी निस्सारता प्रकट कर देते है, उस समय विविध प्रकार के उपद्रवों से उत्पन्न तूफान, अग्निदाह, प्रचण्ड हिमपात से घोर शीत एवं रोगादि प्रजा को पीड़ित करते है' (३:२६९) । काश्मीरी मुसलमान हिन्दू रीति रिवाज को तिलांजलि नहीं दे सके थे। ये पुराने रीति रिवाजों को मानते थे । सुल्तान जैनुल आबदीन स्वयं हिन्दू रीति रिवाज को मानता था । उत्सवों में भाग लेता था। विजयेश्वर आदि की यात्रा भी करता था। शारदापीठ जो अब पाकिस्तान में है, वहाँ की भी यात्रा किया था। उसने दीप मालिका (१:४:१३,१:४:४१) चैत्रोत्सव पुष्पलीला (१.४:२) यात्रा (१:५:१२) नागयात्रा (१:३:४६) वितस्ता जन्म (३:५३) आदि में भाग लिया था। जैनुल आबदीन के पश्चात् भी राजकुटुम्ब रीति रिवाज को मानता रहा। श्रीवर वर्णन करता है-'हिन्दुओं के आचार रूपी कमल के लिये, रवि प्रभा सदृश, उसे स्मरण कर, सब लोग उस गोला खातून के लिये रुदन किये' (३:२१६)। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी सामाजिक स्थिति : समाज अवनति की ओर बढ़ रहा था। चरित्र का लोप हो रहा था । भ्रष्टाचार व्याप्त था। जैनुल आबदीन के समय काश्मीर जितना ही उठा था, उसकी मृत्यु के पश्चात् उतना ही गिरने लगा। जैनुल आबदीन काल का वर्णन करते श्रीवर लिखता है-'जैनुलआवदीन के राज्य मे प्रजा षड्दर्शन रत, स्वधर्म निरत, आतंक रहित एवं ईति भय मुक्त थी।' (४.५०२) सिकन्दर बुत शिकन के अत्याचार एवं धर्मोन्माद के कारण हिन्दुओं की स्थिति अत्यन्त बिगड गयी थी। जैनुल आबदीन ने पिता की नीति त्यागकर, सहिष्णु नीति स्वीकार किया था। श्रीवर लिखता है-'कुछ समय पूर्व पृथ्वीपति सिकन्दर ने यवनों से प्रेरित होकर, समस्त पुस्तकों को, तृणाग्नि के समान पूर्णरूप से जला दिया। उस समय मुसलमानों के तेज उपद्रव के कारण, सब विद्वान् समस्त पुस्तकें लेकर, दिगन्तर (विदेश) चले गये। अधिक क्या वर्णन करें, इस देश मे ब्राह्मणों की तरह सभी ग्रन्थ, उसी प्रकार कथा शेष रह गये, जिस प्रकार हिमागम के समय कमल । सुमनोवल्लम नप (जैनुल आबदीन) ने पृथ्वी को भूषित कर, उसी प्रकार सबको नवीन बना दिया, जिस प्रकार वसन्त ऋतु भ्रमरों को' (१:५:७५-७८) । जैनुल आबदीन के समय देश विकसित था। आर्थिक व्यवस्था सुदढ थी। उसके परिश्रम का लाभ, उसके पुत्र तथा पौत्रों ने उठाया। विदेशी आक्रमणों से निरापद होने के कारण सौराज्य से सुखी लोगों में विवाहोत्साव, सुन्दर भवन, नाटक,यात्रा,मंगल कार्यो, के अतिरिक्त दूसरी चिन्ता नही होती थी। (३:१७०) फल यह हुआ कि समाज गिरता गया । उस राजा के स्वर्ग गत होने पर, इस मण्डल मे आचार-विचार नष्ट हो गया (४:५०३)। दुर्बल सुल्तान स्त्रियों के चक्कर में पड़ गये थे। श्रीवर लिखता है कि हसन शाह का राज्य स्त्री के आधीन देखकर, सशोक लोग यह श्लोक पढ़ते देखे गये-'बिना नायक लोक का विनाश हो जाता है, शिशु जिनका नायक होता है, उनका नाश होता है, स्त्री नायक वालों का विनाश होता है और वहुनायक वालों का नाश होता है । (३:४७३-४७४) राजप्रासाद मे स्त्रियों की इतनी प्रधानता हो गयी थी कि हसन शाह की बीमारी का दुखान्त वर्णन श्रीवर करता है-'स्वामी को देखने नहीं देते। स्त्रियाँ ही अन्दर जाती थी, तत-तत गारुडिको के कहे गये, मन्त्र पाठ निषेध करते थे। वैद्यों की ही चिकित्सा को अन्यथा कर देते और अपने द्वारा बनायी गयी, खाने की गुलिका देते थे।' (३:५४७-५४८) स्त्रियाँ वैद्यों आदि का प्रबन्ध करने लगी थी-'उस समय मैं वैद्य गाडिक एवं दृष्टकर्मा हूँ, कहने वाले, रूप भट्ट को स्त्री वैद्यों ने बुलाया।' (३:५५०) मद्यपान: मद्यपान मुसलिम तथा हिन्दू दोनों में प्रचलित था। मधुशालायें थी। वहाँ सुरापान होता था। श्रीवर वर्णन करता है-वे मधुशाला मे मण्ड, मत्स्य, कुण्डों से मधु पीकर, भाँड़ के समान, मद से उद्दण्ड होकर, श्वासों से भाण्ड बजाने लगे। (१:३:७३) बखारो से चावलों को, घरो से बकरो को, वीटिकाओं से मद्य को लेकर, उन बलकारियों ने स्वयं भोग किया ।' (१:३:७४) उक्त उद्धरणो से प्रकट होता है कि मधुशालायें थी तथा वीटिकाओं पर भी शराब बिकती थी। काश्मीरी यद्यपि मुसलमान हो गये थे, उनके लिए शराब पीना हराम था, तथापि शराब का जितना प्रसार इस काल में हुआ, इतना पूर्व काल में नही था। सुल्तान जैनुल आबदीन उत्सव या भोज के समयकादम्बरी, (सुरा), क्षीर, व्यञ्जनादि से परिपूर्ण कर, सब लोगो को इच्छानुसार भोजन कराता था। भोजन (१:३:४७) तथा स्वयं पान क्रीड़ा करता था। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ४९ (१:४:४४) मद्यपान की बुराई श्रीवर करता है-'चषक में मद्य, जो लाल रंग धारण करता है, मानो मद्यपान मे प्रवृत्त लोगों के हृदयरक्त से ही रक्त वर्ण होता है।' (१:७:६७) जैनुल आबदीन अति मद्यपान का घोर विरोधी था। उसका पुत्र हाजी खाँ (हैदरशाह) अत्यन्त मद्यपान करता था। उसे समझाते हुए, सुल्तान ने कहा-'यादव संहार, अनेक राजाओं का नाश, मलिक जसरथ, शाहमसौद, सभी अपनी प्रतिष्ठा तथा सम्मान खोकर समाप्त हो गये थे।' (१:७:६३-६५) सुल्तान अपने पुत्र हाजी खाँ को उपदेश देता है-'शरीरधारियों के लिए, इस मद्य के समान कोई शत्रु नही है, सेवित शत्र हितकारी होता है और अति सेवित मद्य मार डालता है। सुरा में मदमत्त जन, जो अनुचित कार्य करते है, उन्मत्त भी वह नही करेगा, क्योंकि वह उससे भागता है। मद्यरूप वैताल हास्य एवं रोदन क्रिया युक्त, हृदय में प्रवेश करके, क्षण भर मे किनके प्राणों का हरण नहीं कर लेता ?' (१:७:६८-७०) हाजी खाँ जब हैदरशाह के नाम से जैनुल आबदीन के पश्चात् सुल्तान हुआ, तो मद्यपान खुलेआम आरम्भ हो गया। सुल्तान जब खुलकर, शराब पीता था, तो जनता मे मद्यनिषेध नीति चल नही सकती। श्रीवर उस समय की अवस्था का उल्लेख करता है-'मद्य लीला व्यसन के कारण, बाह्य देश के समान, उस राज्य में भी अंगूर के समान, गुड़ से बने सुरा का प्राचुर्य हो गया था। सर्व भोग पराङ्मुख राजा के मद्य के प्रति रसिक हो जाने पर, खाँड़ आदि ईख के विकार सुलभ नही रह गये, शीरा (शराब) हो गये। (२:५४-५५) हैदरशाह की मृत्यु का तात्कालिक कारण सुरापान था-'उसी अवसर पर, मानो मृत्यु से प्रेरित होकर, राजा भृत्यों के साथ मद्यपान करने के लिए, राजप्रासाद पर चढ़ा। वहाँ पुष्कर सौघ के अन्दर, काँच मण्डप मे लीला पूर्वक दौड़ते हुए, गिर पड़ा। नाक से बहते रुधिर से वह विक्षुब्ध हो गया। भृत्यु उसकी काँख में हाथ डालकर, शयन मण्डप में ले गये। नष्ट छाया दर्पण तुल्य, वह शयन पर पड़ गया।' (२:१६८-१७०) हैदरशाह के पश्चात् सुल्तान हसनशाह के समय श्रीवर पान लीला (३:२६) का वर्णन करता है । तत्कालीन समाज मे सुरा पान फैशन हो गया था। जनता मुक्त रूप से मदिरा सेवन करती थी। सुल्तान खुले दरबार में मदिरा पीता था। नर्तकियों के हाथों से मद पात्र प्रसन्नतापूर्वक लेता था-'इस प्रकार प्रशंसा करते हुए, नवयुवक राजा ने लीला मित्रों के साथ, उन (नर्तकियों) से मद्यपात्र ग्रहण किया।' (३२५२) सुल्तान अपने मन्त्रियों आदि के साथ पान लीला करते थे। मदमत्त हो जाते थे । एक दूसरे पर वृष्णियों के समान वाक् वाण प्रहार करते थे। (३:३६६, ३६७) इससे प्रकट होता है, सुल्तान खुलकर मद पान करता था। उसका अनुकरण दरबारी तथा जनता करती थी। मुहम्मदशाह के समय सैयिद विप्लव के प्रसंग मे श्रीवर के लेख से प्रकट होता है कि मदिरा पान जनता में व्याप्त था। शकुन: श्रीवर ने शकुनों का बहुत उल्लेख किया है। काश्मीरी शकुन एवं अपशकुन पर विश्वास करते थे । जनता मुसलमान हो जाने पर भी पूर्व हिन्दू संस्कार त्याग नहीं सकी थी। मुहम्मद बालक सुल्तान था । अभिषेक के पश्चात् प्रदर्शित सामग्रियों मे केवल धनुष पर ही हाथ रखा । धनुष शुभशकुन माना जाता है । शाकुनिकों ने इसका अर्थ लगाया कि उसके राज्य काल में युद्ध होता रहेगा। (४:५) जैनुल आबदीन के विरुद्ध आदम खाँ ने जब संघर्ष का विचार किया तो, फिर्य डायर एवं ताज तन्त्री ने कहा-'कल्याण मंगलकारी शकुन नहीं है। देश एवं पर्वत दुर्गम है। वह तुम्हारे पिता है । इसलिये हमलोगों के युद्ध का समय नहीं है । (१:१:१०४) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी फतह सौ काश्मीर में जब राज्य प्राप्ति के लिए प्रवेश किया, तो उसका सामना करने के लिए सुल्तान मुहम्मद सहित जहाँगीर गुसिक स्थान में शिविर लगाया । जहाँगीर स्वयं शकुनविद् था । श्रीवर उसके सन्दर्भ में लिखता है - 'उसके अश्वारोहण के समय अश्व त्रस्त हो गया । क्रोध से निष्ठुर, वह शकुन जानकार होने पर भी, क्षण भर नहीं ठहरा । (४:५२८) ७० , अपशकुन श्रीवर ने अपशकुनों का अत्यधिक वर्णन किया है। उससे शकून शास्त्र के गम्भीर अध्ययन का बोष होता है । उसके अनुसार निम्न लिखित अपशकुन होते हैं। घटना क्रम से उनका वर्णन कर प्रमाणित किया है कि अपशकुन का प्रभाव पड़ता है— रात्रि में केतु दिखाई देना ( १:१:१७४), धूल वर्षा से दुर्भिक्ष पड़ना (१:१:१०, १: ३ : ३ ), कुत्तों का रोना ( १ : ७:१४) एक पक्ष में चन्द्र एवं सूर्य ग्रहण का लगना (१ : ७ : १५ ) उल्लू का बोलना (१:७:१७-१८), भूकम्प (२:११४), घोड़ी को युगल बच्चा होना ( २:११८), कुलिया से बिडाल बच्चा होना ( २ : ११९), दिन में सिंह आदि हिंसक पशुओं का भ्रमण ( २:११९), सदानन्दी वृक्ष का फलयुक्त होना, अनार वृक्ष का राजगृह के समीप जड़ से फूलना (२:१२० ), वस्त्र पर घर वर्षा (२:१२१), चील्ह पक्षी द्वारा मार्गावरोध (३:३७६), अश्व का पैर से छाती पीटना, आँसू बहाना (३:३७७), सर्प का रास्ता काटना (३:५२९, ४:७२), रात्रि में भैंसा देखना, आसन्न मृत्यु ( ३: ५५१), यमका महिष देखना ( ३:५५५), घोड़ेपर चढ़ते समय रकाब टूटना ( ४:३०), रात्रि में उल्कापात, बार बार भूकम्प (४:२१४, ३५९) आदि । गोबध : काश्मीरी मुसलमानों में गोवध प्रचलित नहीं था। विदेशी मुसलमान व्यापारी, विदेशी संविद तथा तुर्क मुसलमानों का काश्मीर में प्रवेश हो गया था। उनकी स्थिति दिन पर दिन मजबूत होती गई। संस्था बढ़ती गई । काश्मीरी मुसलमानों के विरोधी थे । काश्मीर में काश्मीरी मुसलमान तथा विदेशी मुसलमानों में संघर्ष की स्थिति सर्वदा आसन्न रहती थी। उनका यथा स्थान उल्लेख किया गया है । 1 काश्मीरी मुसलमानों में गोबध निषेध संस्कार मजबूत था । वे हिन्दू आचार-विचार रखते थे । काश्मीर पर आने वाली अनेक विपत्तियों का कारण काश्मीरी गोबध मानते थे । श्रीवर ने इसका विस्तार से वर्णन किया है - ' किसी समय, जन्म से हिन्दू आचार वाले, पौर वणिकों ने जो मौसुल ( मुसलिम ) वल्लभ थे, नगर में गोबध किया । ( ३:२७० ) उन दुराशयों ने जहाँ पर गायों की हत्या की थी और उनका मांस खाया था, वह बिहार, वह नगर, शुद्धि हेतु, स्वयं को अग्नि में डाल दिया ।' (३:२७१) अर्थात् उस स्थान तथा नगर में अग्नि लग गई और गोमांस खाने वाले स्थान सहित नगर सहित भस्म हो गये। 'देश में अकस्मात् सैकड़ों उत्पातों से युक्त, विघ्नपात से दु:सह, नैऋत्य दिशा की वायु उठी । ( ३:२७२ ) पचपन (लौ० ४५५५ सन् १४७९ ई०) वर्ष प्रवरेशपुर (श्रीनगर) के अन्दर गौ सैनिकों (गोवधिकों) के आपणों ( बाजारों) के समीप से अकस्मात् अग्नि उत्पन्न हुई । ( ३:२७५) मारी तट के एक भाग में स्थित वह (अग्नि) गुलिका वाटिका तक फैल गई। क्षण भर में नगर भूमिदाह से दग्ध अरण्य सदृश हो गया । (६:२७६) अग्नि] फलते-फैलते सिकन्दर द्वारा निर्मित बृहन्मसजिद ( ईदगाह ) तक स्वतः पहुँचकर उसे भी भस्म कर डाला 'कल्पाग्नि से निर्दग्ध, विश्व की ज्वाला पुंज का भ्रम करते हुए (यह) क्षण मात्र में मिति मात्र रह गई।' (३ : २८५) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका मुहम्मद शाह के राज्यकाल में सैयदों के क्रूर गौ वध की उपमा देते, श्रीवर लिखता हैजिस प्रकार गो का वध करने से पाप का भय नहीं हुआ था, उसी प्रकार सैयिदों के वध में मद्रों को घृणा नहीं हई। (४:५०) सैयिदों ने ही अत्याचार नहीं किया, उनके सेवक भी काश्मीरियों को चिढ़ाने के लिए गौवध करते थे-'विरोधियों का घर लूटते तथा उनका धन अपहरण करते, सैयिद भृत्य गोवध आदि के द्वारा प्रजाओं में भय व्याप्त कर दिये थे।' (४:१२४) काश्मीरी एवं सैयिदों के युद्ध में भी गो वध का प्रश्न खड़ा हो गया था। काश्मीरियों को आतंकित करने के लिए, गोवध आदि का भय सैयिद दिलाते थे। सैयिद विप्लव काल में युद्ध के समय काश्मीरियों के सन्धि प्रस्ताव का उत्तर देते, सैयिदों ने कहा-'तुरुष्कों को किस वस्तु को घृणा है ? हम लोग सर्व मांस भोजी है । जब तक पुरुष, पशु, गोमांस पर्याप्त है, तब तक स्थित रहेंगे।' (४:२४५) सैयिदों के पराजय का कारण श्रीवर देता है-'उसके भृत्यों ने देश को लूटा था, नगर मैं गोवध किया था' । श्रीवर गोवध पर अपना मत व्यक्त करता है-'उस राजा के स्वर्ग गत होने पर, इस मण्डल में आचार-विचार नष्ट हो गये और प्रजा के दुराचार से ही लोगों का विनाश हुआ--यह मेरा मत है । (४:५०३) जैसा कि कुछ वणिकों ने हिन्दुओचित अपना आचार त्याग कर, पुर में मारकर, गोभक्षण किये ।' (४:५०४) जैनुल आबदीन ने गोहत्या राज्यादेश से बन्द करा दिया था। पक्षी हत्या : काश्मीरियों में पक्षियों की हत्या या उनका शिकार खेलना वजित था। परन्तु विदेशी सैयिद वाज पालते थे । वाज से शिकार करते थे। पक्षियों का मांस खाते थे। पक्षियों की हिंसा करते थे। उनके भृत्य भी पक्षियों की हिंसा में रुचि लेते थे । श्रीवर दुःख प्रकट करता है-'सतीसर (काश्मीर) में पक्षियों की जो निश्चल सुखद स्थिति थी, उनकी उस स्थिति को, मांस की आशा से, श्यैन एवं भृत्यों ने दूर कर दिया। (४:१९) अपने पक्षी (श्यन-वाज) से पक्षियों को पकड़ने वाले, अपने पीछे भोजान्य सम्पत्ति युक्त स्वातंत्र्य प्राप्ति से गर्वान्ध, (वे) काश्मीरियों का अनादर करने लगे। (४:२२) 'उसके भृत्यों ने देश को लूटा, नगर में गोवध किया था, मानो भृत्यों के अपराध के कारण ही उनकी यह दशा हुई ।' (४:३०९) पाप: श्रीवर ने पाप-पुण्य को देश तथा मनुष्य की उन्नति अवनति का कारण बताया है । पाप के परिणाम के विषय में लिखता है-'जो जिस प्रकार अजित किया गया, शीघ्र ही शत्रुओं ने, उसी प्रकार (उसे) अपहृत कर लिया। पाप द्वारा अर्जित सम्पत्तियाँ चिरकाल तक घरों में नहीं रहतीं।' (४:३८८) फतहशाह के राज्य प्राप्त करने पर, निन्दित पाप का फल इन तीनों को मिला यह, उनके मरने के समय श्रीवर के अनुसार लोगों ने देखा। सुल्तान तथा खान की सेना में सन्धि नहीं हुई, उसका भी दोष श्रीवर प्रजा का पाप देता है (४:५१९) पाप के प्रक्षालित करने के विषय में सुन्दर युक्ति देता है-'विद्या तीर्थ पर शास्त्रज्ञ, सत्य तीर्थ पर साधुजन, गंगा तीर्थ पर सब मुनिजन, अध्यात्म तीर्घ पर योगी, लज्जा तीर्थ पर कुल युवतियां, दान तीर्थ पर वदान्य (उदार), धारा तीर्थ पर धरणीपति पाप को प्रक्षालित करते हैं।' (३:९३) पुण्य : पुण्य के कारण राज्य की उन्नति होती है। उसका उल्लेख श्रीवर करता है-'क्षमाशील स्वामी, कृतज्ञ, एवं गर्व रहित मन्त्री का संयोग प्रजाओं के पुण्य से बहुत दिनों पर देखा गया।' (३:३४) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी श्रीवर पुनः लिखता है-'मंगल वर्ष का वह मास वर्णाचार का विपर्यास एवं पुरश्री के निर्वासन हो जाने पर, निवास भयकारी हआ। अथवा पूर्व कर्ताओं के पुण्य क्षय हो जाने पर, नवीन कत्ताओं के निर्माण कीर्ति हेतु विधि (इस प्रकार) करता है।' (३:२९१, २९२) श्रीवर बलवती भाषा में लिखता है'निश्चय ही पुण्य के बिना अभिलाषाएँ पूर्ण नहीं होती।' (१:७।१९८) शाप: श्रीवर ने शाप को बहुत महत्त्व दिया है। शाप का परिणाम होता है। उसने तत्कालीन काश्मीरी जनता के मनोभावों को प्रकट किया है । मुसलिम दर्शन शाप में विश्वास नहीं करता परन्तु काश्मीरी मुसलमानों में यह संस्कार आज से तीन सौ वर्ष पहले पूर्णरूपेण विद्यमान था। सुल्तान जैनुल आबदीन अपने पुत्र को शाप देता है-'तुम्हें धिक्कार है, जो कि तुमने मुझे त्यागकर, दूसरे को पिता स्वीकार किया। हे मूढ़ !! मेरे वचन का जो उल्लंघन कर, जो दृष्टि की है, उसका शीघ्र ही नाश होगा, इसमें सन्देह नहीं है। (१:७:९५-९६) मेरे द्वेषी जो सुतादि है, वे भी चिरकाल तक स्थित नहीं रहेंगे, धान्यफल का भोग कर, क्या शलभ( टिड्डी) नष्ट नहीं हो जाते ? (१:७:११७) इस समय युक्ति से, इस जीवन के निकल जाने की इच्छा करता हूँ, जिससे सब पुत्रों का मनोरथ पूर्ण हो जायगा ।' (१:७:११८) इस प्रकार उद्विग्न एवं दुःखी सुल्तान जप परायण होकर, श्वास लेते हुए शाप दिया-'उनकी स्मृति मात्र शेष रह जायगी।' (१:७:१७१) . जैनुल आबदीन ने अपने मन्त्रियों तथा सभासदों को भी राज्य में अराजकता फैलाने के कारण शाप दिया। वह शाप भी सुल्तान के मृत्यु के पश्चात् फलित हुआ-'श्री जैन भूपति की जो भव्यकारक सभा थी, वह सब एक ही वर्ष में, उसके शाप से स्वप्नवत् हो गयी।' (१:७:२७४) पुत्र हैदरशाह को भी जैनुल आबदीन ने शाप दिया था। श्रीवर पुत्र हैदर खाँ के मरने का कारण पिता का शाप देता है-'निश्चय ही पितृशाप एवं तत् तत् पाप से दूषित वह, जल्दी से हिम पुंज के समान, विलय हो गया।' (२:२०७) श्रीवर पाप परिणाम का भी वर्णन करता है । वह खुली घोषणा करता है । शाप का फल होता है । उससे वचना कठिन है-'अथवा वह पिता (सुल्तान) का शाप ही उसके लिए फलित हुआ, जो अपने देश में आने पर भी (आदम खाँ) परदेश में मरा।' (२:११२) श्रीवर शाप की मान्यता फारसी ग्रन्थों के आधार पर देता है कि हिन्दुओं के समान मुसलमानों में भी शाप का परिणाम होता है-'पारसी भाषा के काव्य में प्रजाओं के दोष के लिए, जो कहा गया है, वह शाप श्रीमत् जैन सुल्तान के देश में फलित हुआ।' (२:१३२) जैनुल आबदीन के शाप के विषय में श्रीवर और लिखता है- 'कुछ लोग कहते थे यह पिता का • शाप से विमढ़ हो गया था, (३:८) जैसा कि किसी समय पिता से विवाद होने पर कहा-'बहुत बार तुम्हे युद्ध में देखा है, तो जहाँ मैं युद्ध के लिये समर्थ नहीं था तथा दीन एवं खंग धारा चाह रहा था, वहाँ तुम बहुत घमण्डी थे, क्या कहूँ ? दुष्ट बुद्धि तुम्हारे उत्पादन योग्य नेत्रों को देख रहा हूँ, अतः शीघ्र ही नष्ट एवं पश्चात्ताप युक्त होगे।' (३:९४,९६) कालान्तर में भाई द्वारा ही बहराम खां की आंखें निकाल ली गयीं । श्रीवर परिणाम पर, दुःख प्रकट करता है-'स्वामित्य नष्ट हुआ,.भृत्य मारे गये, नया पराभव प्राप्त हुआ, श्रृंखला बद्धों से बन्धन मिला, नेत्रोपाटन की व्यथा हुई। इस प्रकार, वह अन्धा राजपुत्र, चिरकाल तक अपने दुःख को स्मरण करते हुए, पुरानी कथाओं में भी अपने समान किसी को नहीं माना । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ५३ ( ३: ११९, १२० ) इस प्रकार तीन वर्ष तक महान् दुःख' का अनुभव कर, दुःख से अस्थि पंजर शेष मात्र शरीर, वह कष्ट पूर्वक उसी में विनष्ट हो गया ।' (३:१२३), जैनुल आबदीन सुल्तान ने अपने विरोधियों को शाप दिया था। उसका परिणाम उन्हें भुगतान पड़ा। धीवर लिखता है उस जैन भूपति का यह विनाशका शाप, राज्य का अहित चाहने वालों लोगों के कुल पर हाथ फैलाया । ( ३:१४९ ) बहराम खां का नेत्रोत्पाटन जोन राजानक के कारण हुआ था । प्रजा ने उसे शाप दिया था । उस शाप का फल जोन राजानक को भोगना पड़ा। श्रीवर लिखता है - 'जोनराजानक, बहराम खां के नेत्रोत्पाटन के कारण, अपने शरीर को प्रजा के शाप का पात्र बना लिया' ( ४:३६९) जहांगीर कारागार में दु:खी होकर अपने विरोधियों को शाप दिया- 'यदि मैं सुविशुद्ध हूँ, तो मेरा द्रोह करने वाले ये मार्गेश, ताज भट्टादि थोड़े ही दिनों में इसका फल पायें ।' (३:४१८) श्रीवर लिखता है -' बन्धन में स्थित, दुःख से दग्ध, इस प्रकार जो कहा, शीघ्र उसका फल देखकर लोग आश्चर्य किये। ( ३:४१९) प्रजादोष देश पर विपत्ति आदि आने का कारण प्रजा का दोष श्रीवर देता है। प्रजा के पुण्य से जिस प्रकार, देश में समृद्धि होती है, उसी प्रकार देश की दुर्दशा भी प्रजा के दोष के कारण होती है उस राजा के स्वर्ग गत होने पर, इस मण्डल में आचार-विचार नष्ट हो गया और प्रजा के दुराचार से ही लोगों का विनाश हुआ— यह मेरा मत है ।' (४:५०३) यदि राजा को दुःख होता है, तो उसका कारण भी प्रजा का दोष ही है — 'दुष्ट पुत्रों से, जो वह (जैनुल आबदीन) व्यथित हुआ, यह हम लोगों का भाग्य विपर्यय ही है। इस प्रकार मार्ग में रुदन एवं क्रन्दन पूर्वक, पुरवासियों की वाणी सुनकर, पाद दाह की व्यथा से पीड़ित भी नृप नगर से निकल पड़ा । ' (१ : ३ : १०५ ) यदि देश में बाढ़ आ जाती है, फसलें नष्ट हो जाती हैं, तो उनका भी कारण प्रजा का दोष ही है - 'पुराणों में प्रसिद्ध, शोकनाशिनी, विशोका नदी प्रजा के भाग्य विपर्यय के कारण, उस समय विपरीत अर्थ वाली हो गयी थी । ' ( १ : ३ : १५ ) ( प्रजा के भाग्य विपर्यय के कारण सब लोगों को कष्ट देने के लिये छवि हीन होकर आतुर राजा कल्पान्त के सूर्य सदृश अस्त होने लगा ।' (१:७:२१५ ) सुल्तान हैदर शाह के बुरे कर्मों का कारण भी प्रजा का भाग्य विपर्यय श्रीवर बताता है - 'दुष्ट मन्त्रियों द्वारा प्रेरित, मद से चेतना रहित, राजा प्रजाओं के भाग्य विपर्यास के कारण, अविवेक पूर्ण कार्य करने लगा ।' (२:४१ ) श्रीवर मुसलिम रचनाओं का भी उल्लेख करता है कि वे भी उसके सिद्धान्त का समर्थन करते है । (२:१३२) जोनराज ने देश दोष का कारण प्रजा के भाग्य विपर्यय को माना है । (श्लोक : ५९७) कल्हण ने भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया है । (रा: १:३२५, २:४५, ४:६२० ) अन्त में श्रीवर लिखता है - ' पत्र, पुष्प तथा फल से सुन्दर वृक्ष, एवं तरल तरंगों से युक्त नदियाँ, शब्द युक्त पिक आदि जो होते हैं, वे हिम ऋतु में क्रमशः शीर्ण, शुष्क एवं मूक हो जाते हैं । काल विपर्यय से क्या नहीं होता ?' ( ४:६३५) भाग्य : श्रीवर भाग्यवादी है । मुसलिम दर्शन किस्मत सिद्धान्तो से अछूता नहीं है । उसने भाग्य को घटनाओं, दुर्भाग्य एक सौभाग्य का कारण माना है। प्रथम सर्ग में श्रीवर ने अपना विचार प्रकट किया है। हाजी खाँ ( सुल्तान हैदर शाह) जब अपने पिता के विरुद्ध राज्य प्राप्तिकी लालसा और उसे राज्यच्युत कर स्वयं सुल्तान Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी बनने के लिये काश्मीर में प्रवेश किया। शूरपुर पहुँच गया। सुल्तान भी ससैन्य वहाँ पहुँचा। युद्ध के पूर्व पुत्र के पास सन्देश भेजा-'मेरे आदेश के बिना किस लिये देश में आये हो ? अपने भाग्योदय के बिना बल से किसने राज्य प्राप्त किया है।' (१:१:१२ ) पुनः वह दुहराता है -'विनाश उपस्थित होने पर, अभागों की पुत्र के प्रति विपरीत एवं परसेवक पर विश्वास बुद्धि हो जाती है।' (४:३९१) 'प्रिय उपदेश सुनने में कष्टप्रद लगते हैं, 'गत भाग्य प्राणियों को उपदेश की वाणी सुनने में अप्रिय लगती है और विपत्ति के उदय के समय मैंने क्यों नहीं सुना ? इस प्रकार दु:खी होते हैं।' (१:७:७५) पुण्यात्मा एवं परोपकारियों को भी भाग्य नहीं छोड़ता। 'तरुवरों के सदृश, अति उन्नत फलप्रद वितत (विस्तृत) एवं उन्नत शाखाओं से युक्त द्विजप्रियता के कारण ख्यात, शुभ मार्ग पर स्थित, सर्वजनोपयोगी, पृथ्वीधरों को, दुष्ट वायु, समान विधाता नष्ट कर देता है' (१:७:१८४) बुद्धि भी भाग्यकी अनुसरण करने लगती है । बुद्धि बदल जाती है।' (१:७:१९९) जैनुल आबदीन के पश्चात्, जब प्रजा सतायी जाने लगी, तो उसने राजा की मृत्यु का कारण दैव को दिया-क्या हम लोगों के रक्षक वृद्ध राजा को दैव ने मार डाला?' (२:१३४) श्रीवर इसी सिद्धान्त का दृष्टान्त के साथ प्रतिपादन करता है-'राम यदि घर से वन न गये होते, और बालि द्वारा पद अपहृत कर लिये जाने पर, सुग्रीव क्रोध से न लड़ता, तो रावण द्वारा प्रताडित होकर, (राम) लंका पहुंचकर, युद्ध में शत्रुओं को मारकर, विजेता राम कैसे होते ? विधाता ही कल्याण के लिये सुख एवं दुःख दोनो संयोग उपस्थित करता है । (४:५४३) मनुष्य सोचता कुछ है, होता है कुछ । योजना बनाता है। योजना अकस्मात् समाप्त हो जाती है । परिश्रम करता है । व्यर्थ हो जाता है । जिस कार्य में हाथ लगाता है । विफलता होती है जैसे कोई अव्यक्त शक्ति कार्य करती है । इसका वर्णन सुन्दर भाषा में श्रीवर करता है-'शीघ्र ही पूर्ण पदवी प्राप्त कर ली, यह शत्रु वर्गजीत कर लिया गया, अशेष कोश मेरे घर आ गया, भृत्य वर्ग वर्म युक्त हो गये, इस प्रकार वैभव से गर्वीला मनुष्य, जब तक सोचता है, तब तक, उसके विरुद्ध हुआ विधाता, स्वप्नवत् सब नष्ट कर देता है।' (३:४०९) 'उद्यान में चंचरीकों के समान, महोदधि में कुल्याओं के समान, स्त्रियाँ एवं सम्पत्तियाँ भाग्यशाली के पास जाती हैं।' (३:१६६) 'सूर्यवार के दिन नृपालय को नहीं जाना चाहिए-तुम्हारे साथ द्रोह होगा-'इस प्रकार स्वप्न में पिता के कहने पर भी दैवविमोहित होकर वह चला गया।' (४:२९ ) मनुष्य की मृत्यु निश्चित है, ललाट रेखा में वह लिखी है। श्रीवर इसमें अटूट विश्वास करता था-'विधाता के विधान के अनुसार प्राणी का मरण निश्चित है, उसी प्रकार अवश्यम्भावी को कौन अन्यथा करने में समर्थ हो सकता है ? (४:१५२) विधाता के प्रतिकुलता के विषय में लिखता है-'जबतक राजा एवं प्रजा पर विधाता प्रतिकूल रहता है, तब तक दायाद (उत्तराधिकार) से उत्पन्न दुःख स्थिति सैकड़ों उपायों से दूर नहीं होती, दुष्ट व्याधि (मानसिक कष्ट) शरीर के विनष्ट कर दिये जाने पर औषधियों के प्रयोग से जड़ जमाये रोग, कैसे दूर हो सकते हैं ?' (४:५५३) भावी को कोई नहीं रोक सकता। इस मत पर श्रीवर दृढ़ है--'वाण वर्षा मध्य, अश्व रोककर, मसोद नायक ने प्राण त्याग कर दिया । भावी कौन लाँध सकता है ?' (४:५९७) बहराम खां ने अपने लीला के लिए जिस राजवास को बनवाया था, वही उसके बन्धन के लिये काम आया। भवितव्यता को कौन जान सकता है ?' (३:१२२) उसी राजवास में उसने राज सुख प्राप्त किया। ऐश्वर्य Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भोगा और वहीं वह बन्दी बना, वहीं उसकी आँख फोड़ी गयी और वहीं तीन वर्ष यातना भोग कर मर गया। श्रीवर बलवती भाषा में लिखता है-'विधाता बलवान् होता है न कि पुरुष ।' (४:३४६) 'विधाता के प्रतिकूल होने पर, राजपुरुष, पाप, पुण्य, दक्षता पर अपना दूषण, स्तुति कुछ नहीं समझता । (४:३८९) 'विधाता के विपरीत कहाँ गति है।' (४:३९४) 'जब तक मनुष्य एक कार्य की चिन्ता त्यागता है, तब तक विधाता, उसके लिये दूसरी चिन्ता का विषय उपस्थित कर देता है। पूर्णिमा आने पर, चन्द्रमा को कृशता समाप्त होते ही, कान्ति के हरणकर्ता ग्रहण का भय उपस्थित हो जाता है।' (४:४००) श्रीवर भाग्य को ही मानव की उन्नति-अवनति का कारण मानता है-कल्पना से परे, विचित्र काकतालीवत् वायुपुंज जिस प्रकार संरूढ़ किसी वृक्ष को गिरा देता है और गिरने योग्य को उठा देता है, उसी प्रकार विधाता भी किसी प्रवृद्ध पुरुष को अनवसर ही, अवनति के गर्त में गिरा देता है और किसी गिरने योग्य को उन्नत कर देता है।' (४:४९७) विधाता के विषय में लिखता है-कभी प्रसन्न होकर, सार्वजनिक सुख पैदा करता है, कभी कुटिल होकर, जनता को इति भीति से चकित कर देता है, इस प्रकार संसार को परिवर्तन पूर्वक नीचा, ऊँचा, फल देने वाले, ग्रह के आकाश गति के समान, आश्चर्य है, विधि की गति विचित्र होती है ?' (४:५२२) श्रीवर एक और उदाहरण उपस्थित करता है-'आश्चर्य है तीन बार आने से भी हैदर शाह, जो कार्य नहीं कर सका, वह विधिवश, हीनबल होने पर भी फतह खाँ ने कर लिया।' (४:६१८) इसी प्रकार श्रीवर लक्ष्मी किंवा सम्पदा का भी वर्णन करता है-'प्रजाओं के विनाश हेतु उस देश के कष्टप्रद दुष्टों ने त्राण रहित आदम खाँ को लक्ष्मी एवं भाग्य से वंचित कर दिया।' (१:३:१००) श्रीवर उदाहरण देता है-'ज्येष्ठ (आदम खाँ) शौर्य एवं सेना युक्त होकर भी, तथा जन्म भूभि प्राप्त करके भी, धन प्रपंच प्राप्त कर लिया, किन्तु प्रयत्न करने पर भी, वह समुचित रूप से राज्य नहीं प्राप्त कर सका। निश्चय ही भाग्य के बिना वांच्छित अर्थ की सिद्धि नहीं होती' (२:१११) इस भाग्यवाद को श्रीवर इतनी दूर तक खींचकर ले गया कि युद्ध में स्थित सेना भाग्य से नियन्त्रित होकर, युद्ध नहीं करती-गरम होते मार्गेश, स्फुरित युद्धेच्छुक लोग, उनके भाग्य से नियन्त्रित सदृश होकर, उन लोगों से युद्ध न कर सके ।' (३:३८८) धूमकेतु : धूमकेतु या केतु तथा उल्कापात का क्या प्रभाव देश, राजा तथा प्रजा पर पड़ता है, इसका उल्लेख श्रीवर ने बहुत किया है-'सुखी राजा का अपने जनों से विरोध होना शाप है, जो कि विकसित होते रूप नलिनी के लिये हिमपुंज, लोक के विनाश हेतु उदित महाक्षयकारी धूमकेतु एवं विघ्न में लगे दुष्ट उलूकों के लिये निशान्धकार है।' (१:१:१७४) रात को उत्तर दिशा में ईति (अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि) के आगमन के लिये सेतु तथा सर्वजन क्षय के हेतु धूमकेतु दिखाई दिया।' (१:७.१०) धूमकेतु अनिष्ट का सूचक होता है-'पूर्व दिशा की ओर आकाश में अनिष्ट सूचक, विस्तृत पुच्छ केतु (पुच्छल तारा) उदित हुआ। बहराम खाँ ने उसे पहले देखा। (२:११६) उसका दूर तक विस्तृत काल कुन्त सदृश, पूछ को दिन में भी; पश्चिम दिशा की ओर स्फुरित Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैन राजतरंगिणी होते, लोगों ने देखा ।' (१:११७) कुछ ही समय पश्चात् बहराम खाँ बन्दी बनाया गया । उसकी आँखें फोड़ दी गयीं । बन्दीगृह में तीन वर्ष लम्बा जीवन व्यतीत कर वहीं मर गया । संस्कार: धर्म परिवर्तन के पश्चात् भी काश्मीरी मुसलिम जनता का पूर्व संस्कार बना रहा। वे भूत-प्रेत में विश्वास करते थे । सुल्तान हैदर शाह काच मण्डप में गिर गया । आघात के कारण कालान्तर में मृत्यु हो गयी । किन्तु उसकी मृत्यु का कारण जनता ने भूत उपद्रव मान लिया । श्रीवर लिखता है - ' इस प्रकार कुछ लोग कहते हैं--'उन्नत स्तम्भ वाले मण्डप में वेताल रहता था । उग्र क्रोध करके, उसी ने अपनी कृपाण से राजा को खण्डित कर दिया । ' (२:२०२ ) श्रीवर देवताओं के कोप का वर्णन करता है । पूर्वकाल में कुछ देवता, जिन्हें सैय्यदों ने जलाया और लूटा था, उनके कोप के कारण सैय्यदों की विजय नहीं हुई – 'किन्तु पहले देश के कुछ देवता लूटे एवं जलाये गये थे, अतः कुपित वे देवता, उन सैयिदों को विजय के लिये कैसे बुद्धि देते ।' ( ४:१९३) पुल टूट जाने के कारण उभय पक्षों की सेना वितस्ता में डूब गयी । उसका कारण वितस्ता नदी का क्रोध दिया गया है- 'निश्चय ही वितस्ता रूप धारिणी, शारदा देवी ने उनके अधर्म के क्रोध से, दोनों सेनाओं का ग्रास कर लिया । ( ४:१९६) उत्तरायण : एवं मृत्यु के लिये अच्छा मानते थे । जैनुल ४४९६ ( लौ० ) वर्ष के, उत्तरायण काल के अन्त, हिन्दू मुसलमान दोनों ही उत्तरायण के समय शुभ कार्य आवदीन के मृत्यु प्रसंग में श्रीवर लिखता है - 'सुल्तान ने ज्येष्ठ मास में राज्य प्राप्त किया और उसी माम के साथ अन्तर्हित हुआ ।' (१:७ : २२४ ) सती : • काश्मीर में सती प्रथा प्रचलित थी । कुलीन स्त्रियाँ सती होने में गर्व का अनुभव करती थीं। सिकन्दर बुत्त शिकन ने सती प्रथा बन्द कर दी थी । जैनुल आबदीन ने सती प्रथा बन्द न कर, सती होने वाली की इच्छा पर छोड़ दिया था । जैनुल आबदीन के पश्चात् श्रीवर तथा शुक दोनों की राजतरंगिणियों में सती होने का उल्लेख नहीं मिलता। उससे प्रकट होता है । । सती प्रथा काश्मीर में लुप्त हो गयी थी । श्रीवर लिखता है--' बाह्य देश की नीति के अनुसार, जहाँ पर नारियाँ चितारोहण कर, प्रिय का अनुगमन करती थीं और राजा उन्हें वारित नहीं करता था । ' (१:५:६१) • शवदाह : श्रीनगर का प्राचीन श्मशान वितस्ता तथा मारी संगम पर था । कल्हण के समय जिस मारी वितस्ता संगम पर श्मशान था, वहीं पर श्रीवर के समय भी था । संगम पर दाह करना पुण्य एवं मुक्तिप्रद माना जाता था - 'नगर में मृतकों का दाह करने से स्वर्ग प्रद, वह मारी संगम, वितस्ता के संग से प्रख्यात हो गया । (१:५:५६) दाह समय पर, क्षेत्र पाल, पंचवारिक भृत्य, पुरवासियों से शवदाह का शुल्क ग्रहण करते थे । (१:५:५७ ) एक समय अपने पिता की मृत्यु पर मैंने सुल्तान से शुल्क की बात कही, तो उन किरातों को दण्ड देकर शव शुल्क निवारित कर दिया ( १ : ५:५८ ) उसी समय से नगर में उस स्थान पर, दर्शन द्वेषी म्लेच्छों के हृदय के साथ विमानी (सामान्य) जन जलाये जाते थे । ' (१:५:५९) सिकन्दर बुतशिकन के समय Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ५७ शव यात्रा तथा शवदाह पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। अस्थियों को प्रवाहित करने की आज्ञा नहीं थी । प्रतिबन्ध हटने पर, श्रीवर प्रसन्न शब्दों में वर्णन करता है- 'हम लोग प्रतिबन्ध रहित हो गये'इसलिये मानो शिविका नाच रही थी, जिनके साथ में छप लिये एवं याच ध्वनि करने वालों को किन लोगों ने नहीं देखा ? ' (१:५:६० ) हिन्दुओं की अन्येष्टि क्रिया भारतवर्ष में शास्त्रानुसार होती है। वहीं कहीं लौकिक कुछ रीति रिवाज भी थे । उनका यथास्थान वर्णन किया गया है । - अन्त्येष्टि एवं शोक : 1 मुसलमान लोग कब्र में शव दफन करते हैं। शव यात्रा की प्रथा हिन्दू मुसलमान दोनों में थी । शिविका का प्रयोग हिन्दू एवं मुसलमान दोनों करते थे । जैनुल आबदीन के प्रसंग में श्रीवर लिखता है - 'करणी रथ पर स्थित, शव पर चलते, छत्र एवं चामर के व्याज से मानों शोक के ही कारण, सूर्य एवं चन्द्रमा आकाश में विचलित हो रहे थे । ( १ : ७ : २२२ ) जो शव एवं शिव हो गया था, उसे रोते मन्त्री छत्र एवं चामर से शोभित करके, शिविका में शवाजिर ( कब्रिस्तान) ले गये ।' ( १:७ : २२६) मुसलमानों में मृत्यु पश्चात् रोने की प्रथा नहीं है। परन्तु हिन्दू प्रथा के अनुसार, उस समय लोग रोते थे शोक मनाते थे— 'रोते पुर वासियों के कारण उत्पन्न, तीव्र रोवन की ध्वनि से मानो अत्यधिक शोक के कारण, दिशाएँ ही आक्रन्दन से मुखरित हो उठीं। ( १:७:२२८) जैनुल आबदीन की मृत्यु के समय लोगों के शोक रुदन आदि का वर्णन श्रीवर करता है इसी प्रकार पुत्र सुल्तान हैदरशाह की मृत्यु पर भी कहता है- 'उसके सेवक, स्वामी के अनुग्रह का स्मरण करके, वक्षस्थल पीटकर, रुदन कर रहे थे, जिससे दिशायें मुखरित हो रही थीं ।' (२:२१२ ) नरेश्वर को कर्णीरथ ( ताबूत) से उठाकर एक वस्त्र से परिवेष्ठित कर पिता (सिकन्दर बुत शिकन) के पास भूगर्भं (कन ) में रख दिया । अपने मुस्लिम आचार के कारण, मुखावलोकन करके, सब लोग मुट्ठी भर मिट्टी डाले । ' (१:७:२३२) मरने पर दान करने की प्रथा थी । हिन्दू लोग महापात्र को दान देते हैं । गरीबों को भोजन कराते हैं । सुल्तान हैदरशाह ने कब्रिस्तान में ही, पिता को मिट्टी देने के पश्चात्, सालौर ग्राम ग्रीष्म ऋतु में लोगों को पानी पिलाने के लिए दान किया था। इसी प्रकार अनेक पौसरों अर्थात् प्याऊ चलाने के लिए भूमि दान किया । (१:७:१५०, १५१ ) सुल्तान हैदरशाह की स्त्री तथा सुल्तान हसनशाह की माँ गोला खातून की मृत्यु पर, उसके स्मरण एवं पुण्य हेतु - - ' सुल्तान ने उस (माता) के पुण्य समृद्धि के लिए, उसके घन द्वारा शाहेभदेनपुर ( शहाबुद्दीन पुरी) के अन्दर नवीन विशाल नोका पुल बनाने का आदेश दिया । ( ३:२१९ ) सुल्तान ने अपनी माता के पुण्य के लिए दान भी किया। बीमारी के समय दान पुण्य करने की प्रथा प्रचलित थी । ब्राह्मण और मुसलमान दोनों को दान दिया जाता था परन्तु हसनशाह की मृत्यु पर सैंथियों ने दान ब्राह्मणों को न देकर, केवल सैयिदों को दिया । शोक काल में काला वस्त्र पहनने की प्रथा मुसलमानों में थी । उल्लेख मिलता है कि हसनशाह अपनी माता की मृत्यु के पश्चात् सात दिन तक शोक मनाया और काला वस्त्र धारण किया । ( ३:२१७, २१८) हसनशाह की मृत्यु के समय भी सात दिनों तक शोक मनाया गया था - 'प्रात: प्रातः आकर सात दिनों तक, सैयिदों ने रुदित ध्वनि से निश्रित करके वेदों (कुरान शरीक) का अध्ययन किया ।' (३:५५९) कब्र के ऊपर तत्पश्चात् एक बड़ा सुन्दर गढ़ा शिला खण्ड रख दिया गया । ( १:७:२५६) शुक्रवार के दिन लोन सुल्तान के कब्र पर एकत्रित होते थे। ८ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी सुल्तान हैदरशाह की अन्त्येष्टि के प्रसंग में श्रीवर लिखता है-'नगर को निष्कंटक जानकर, निःशंक वह राजपुत्र शिविकारूढ़ पिता को शवाजिर में ले गया। एक वस्त्र से आच्छादित, उस शव को मंजूषिका से निकालकर, वहाँ (उसके) पिता के चरण के समीप, भगर्त (कब्र) में डाल दिया। सब लोग उसे मिट्टी मात्र जानकर, उसका मुखावलोकन किये और उस पर मुठीभर मिट्टी डाले। गत (कब्र) को भरकर, एक मध्योन्नत शिला स्थापित कर दिये। लोगों को यह सचित करने के लिए कि युद्ध में वह कठोर था (२:२०८ २१२) सुल्तान जैनुल आबदीन और हैदरशाह के समान हसनशाह के मरने पर भी कब्र पर पत्थर लगाया गया था--'इस प्रकार लोगों ने शवाजिर में प्रस्तर को रचना मात्र से अवशेष स्थित नप समुदाय के प्रति शोक प्रकट किया। (३:५६३) सुस्तान हसनशाह की मृत्यु लौकिक ४५६० = सन् १४८४ ई० में हुई थी। उसको मृत्यु पर समस्त जनता ने आक्रन्दन किया था। मत्यु के दिन उसकी शव यात्रा आरम्भ हुई–'प्रातःकाल छत्र-चामर युक्त, यान पर आरोपित कर, सेवक सहित, सब सैयिद लोग पित शवाजिर ले गये। जैनुल आबदीन की मृत्यु पर जनता उस प्रकार दुःखी नहीं हुई, जिस प्रकार इसकी मृत्यु पर, शरण रहित होने पर, दुखी हुई।' (३:५५५, ५५६) केवल एक वस्त्र के साथ सुल्तान जैनुल आबदीन तथा हैदरशाह को दफन किया गया था। 'नरेश्वर (जैनुल आबदीन) को कीरथ से उठाकर तथा एक वस्त्र से परिवेष्ठित कर पिता के पास भूगर्भ (कब्र) में रख दिया।' (१:७:२८१) हैदरशाह के प्रसंग में भी एक वस्त्र का उल्लेख है--'एक वस्त्र से आच्छादित उस शव को मंजषिका से निकाल कर, वहाँ (उसके) पिता के चरण के समीप भूगर्त (कब्र) में डाल दिया ।' (२:२०९)। परन्तु हसनशाह के प्रसंग में प्रचुर वस्त्र का उल्लेख श्रीवर करता है-'प्रचुर वस्त्र पूर्ण उस गर्त के पत्थर पर मन्त्रियों ने मस्तक पर बेठन, सुन्दर उद्बन्ध एवं उज्वल टोपी लगायी।' (३:५५७) टोपी लगाने का यह लौकिक रिवाज इस समय से आरम्भ होता है। फतहशाह की मृत्यु पर अली हमदानी की टोपो उसकी इच्छानुसार, उसके सर पर लगाकर दफन किया गया था। मुसलमानों में मरसिया अर्थात शोक गीत गाने की प्रथा है। यह प्रथा अरबी एवं फारसी पद्धति पर आधारित है । उर्दू में दिवंगत की याद में मरसिया लिखा जाता है । प्रारम्भ में मरसिया हजरत इमाम हसन एवं हुसेन की स्मृति में लिखे जाने के कारण प्रसिद्धि पाया था। कालान्तर में मरसिया पढ़कर शोक प्रदर्शन सुल्तानों तथा अन्य व्यक्तियों के लिए भी किया जाने लगा। मुहर्रम के समय मरसिया पढ़ते और गाते है। दिवंगत के गुणों का बखान करते हैं। श्रीवर पर तत्कालीन अरबी, फारसी तथा देशी भाषा के मरसिया की छाप, उसके शोक शैली पर लिखे पदों में मिलते है। जैनुल आबदीन की मत्य के पश्चात् हाजी खाँ अर्थात् हैदर शाह से शोकोद्गार श्रीवर ने प्रकट कराया है। वह तत्कालीन मरसिया साहित्य का प्रभाव प्रतीत होता है । (१:७:२३६-२४९) हैदर शाह की मृत्यु पर मुहर्रम में जिस प्रकार छाती पीटकर मरसिया पढ़ते, शोक प्रकट करते थे, उसी प्रकार श्रीवर ने शोक प्रकट करने का दृश्य उपस्थित किया है। (२:२१२) इसी प्रकार सुल्तान हसनशाह की मृत्यु पर श्रीवर ने कुछ पद लिखे हैं। (३:५५४-५६३) उत्तराधिकार : शाहमीर वंश में उत्तराधिकार अनियमित क्रम से चला। शाहमीर का पुत्र जमशेद सुल्तान हुआ । जमशेद के पश्चात् उसका भाई अलाउद्दीन सुल्तान हुआ।। अलाउद्दीन के पश्चात् उसका प्रथम पुत्र शिहाबुद्दीन Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ५९ सुल्तान हुआ । शिहाबुद्दीन का उत्तराधिकार उसका भाई कुतुबुद्दीन ने प्राप्त किया। कुतुबुद्दीन के पश्चात् उसका पुत्र सिकन्दर बुतशिकन, तत्पश्चात् उसका पुत्र अलीशाह और अलीशाह के पश्चात् उसका भाई जैनुल आबदीन और जैनुल आबदीन के पश्चात उसका पुत्र हैदरशाह और हैदरशाह के पश्चात् उसका पुत्र हसन शाह और हसन शाह के पश्चात् उसका पुत्र मुहम्मद शाह सुल्तान बना था। जोनराज एवं धीवर ने इन्हीं सुल्तानों का वर्णन किया है। , उत्तराधिकार किसी सिद्धान्त पर शाहमीर वश में नहीं होता था जिसकी शक्ति होती थी, वह उत्तराधिकारी बन बैठता था। शाहगीर वंश के सुल्तान अल्लाउद्दीन, कुतुबुद्दीन, जैनुल आबदीन, अलीशाह, शमशुद्दीन (द्वितीय) हसन साहू ने अपने भाइयों से राज्य प्राप्त किया था। नय सुल्तान जमशेद सिकन्दर, अलीशाह, हैदरशाह, हसनशाह, एवं मुहम्मद इब्राहीम, नाजुक तथा हवीब शाह अपने पिता के उत्तराधिकारी हुए थे । शाहमीर वंश में जैनुल आबदीन के पश्चात् हैदरशाह, हसनशाह, मुहम्मद शाह ने क्रमशः पैतृक उत्तराधिकार प्राप्त किया था। जैनुल आबदीन ज्येष्ठ पुत्र के उत्तराधिकार की मान्यता स्वीकार करता है परन्तु राज्य हित की दृष्टि से ज्येष्ठ पुत्र के उत्तराधिकारी होने की सहमति नहीं देता । ( १ : ७ : १०३ ) अपने तीनों पुत्रों के अयोग्य होने पर उसने उत्तराधिकार का निश्चय न कर कहा'जीवन पर्यन्त मैं स्वयं राज्य किसी को न दूँगा। मेरे मरने पर जिसके पास बल हो, वह प्राप्त करे, यही मेरा मत है' (१:७:१०६) हसन शाह के उत्तराधिकार के समय उसका पितृव्य बहराम खाँ, राज्य लेना चाहता था । बहराम खाँ ने अपना अधिकार प्रकट करते हुए, सब सचिवों को बुलाकर बोला- 'पिता का क्रमागत राज्य मुझ पुत्र के लिये ही उचित है । ज्येष्ठ होने पर भी, राज्य प्राप्ति प्रयत्नशील, यह कनिष्ठ पितृव्य, कौन होता है । ( ३:४४) श्रीवर लिखता है - 'पितृव्य के आगमन से विह्वल राजा ( हसन शाह) सुय्यपुर पहुँचा । सब सचिवों को बुलाकर सभा मध्य कहा - 'पिता का क्रमागत राज्य मुझ पुत्र के लिये ही उचित है । ज्येष्ठ होने पर भी राजप्राप्ति प्रयत्नशील यह कनिष्ठ पितृव्य कौन होता है ? पृथ्वी वीर भोग्य वसुन्धरा होने पर, दोनों में यह कौन सी नीति है ? युद्ध द्वारा विजयी (काश्मीर) मण्डल का अधिकारी है ।' उत्तराधिकार ज्येष्ठ को ही मिलता है। इस प्रकार राज्य का उत्तराधिकारी हैदर शाह था न कि बहराम खाँ । बहराम खाँ यद्यपि आयु में अधिक था परन्तु यह कोई कारण उसके उत्तराधिकारी होने का नहीं था। क्योंकि उत्तराधिकार ज्येष्ठ पुत्र को पिता के पश्चात् जाता था। ( ३:४४, ४५) हसन अपने पिता का एक मात्र ज्येष्ठ पुत्र था। उत्तराधिकार बड़े भाई से छोटे भाई को न जाकर पुत्र को • मिलना चाहिए । यदि कोई शक्ति से भी अधिकार करना चाहे, तो उसका यह कार्य नियमतः उचित नहीं कहा जायगा । बहराम खाँ जब पराजित हो गया, तो उसे धर्म विजय कहा गया और उससे यही कहा गया- 'देव द्वारा दिया गया, इस क्रम प्राप्त राज्य का भोग कीजिये । भाग्य ने इस धर्म विजय को फलित किया है' (३:७५) हसन शाह मरने लगा, तो मुहम्मद शाह की उम्र केवल सात वर्ष की थी। हसन शाह ने स्वयं मृत्यु काल आसन्न देखकर आदेश दिया था कि राज्य का उत्तराधिकारी आदम खाँ का पुत्र बनाया जाय अथवा रानी की इच्छानुसार कार्य किया जाय। रानी ने अपने पिता सैयद को सलाह दी कि युवा बहराम खाँ के पुत्र को सुल्तान तथा ज्येष्ठ पुत्र मुहम्मद को युवराज पद पर अभिषिक्त किया जाय । हसन शाह की रानी ने भी बहराम के पुत्र को ही राजा बनाना चाहा । ( ३: ५६४ ) किन्तु सैयिदों ने तीन Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी दिन बीत जाने के पश्चात् हसन खाँ के पुत्र मुहम्मद खाँ को राज्य देने का निश्चय किया। हसन की रानी तथा मुहम्मद शाह की माता सैयद वंश की थी। सैयिदों ने राज्य में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए, हसन शाह के ज्येष्ठ पुत्र को राज्य देने का निश्चय किया। उसे काश्मीर का सुल्तान बना दिया । श्रीवर उत्तराधिकार एवं राज्य प्राप्ति की लोलुपता हेतु होते संघर्ष एवं युद्धों तथा उनसे होते, देश की दुर्दशा देखकर दुःखित होकर मार्मिक शब्दों में अपना विचार प्रकट करता है।-'ईति, आतंक आदि दुःखों के साथ (रहकर) इस देश में जीना अच्छा है किन्तु (इस देश में) राजा के सर्वनाशकारी बहुत सन्तानें न हो।' (१:३:१०१) श्रीवर अपने मत का पुनः समर्थन उदाहरण के साथ करता है-'जब मलिक जसरथ द्वारा बांधकर, सुल्तान अलीशाह मार डाला गया, भ्रातृद्वेष वंश काश्मीरियों का महान् विनाश हुआ, उसी प्रकार पुत्र द्वेष के कारण, इस जैन राज्य का देखा जा रहा है। राजा के घर विनाशकारी बहुत सन्तति न हो।' (१:३:१०७) मृगया : शिकार खेलने की प्रथा काश्मीर में प्रचलित थी। शिकार में शिकारी कुत्तों तथा बाज का भी प्रयोग किया जाता था । जैनुल आबदीन के दुर्बल होने पर, उसके समय ही, उसके पुत्र मन्त्रो अनुशासनहीन होकर, शिकार खेलने लगे थे–'प्रचुर भय के प्रति उदासीन, शास्त्र के प्रति नहीं, अपितु काम शास्त्र के प्रति रसिक, केवल मृगया में आसक्त होकर, कुत्तों द्वारा चमत्कार करता था। सरोवर अथवा अरण्य में जहाँ कहीं भी रहते, उस मृगया रसिक के लिए रात्रि दिन सदश हो गई थी। अन्य नीचता क्या कही जाय, जिसके भृत्य, छुद्र व्यापारी के समान बाज द्वारा पक्षी समूहों को एकत्रित कर, नगर में विक्रय करते थे।' (१:३:६२-६४) श्रीवर ने म्लेच्छों की हिंसा की निन्दा की है। म्लेच्छ विदेशी मुसलमान अथवा उनसे उत्पन्न सन्ताने थी। उनकी उपमा अनेकों जलप्लावन से देता है, जो देश का नाश कर, अकाल की स्थिति उत्पन्न करते हैं-'समक्ष के पशु, गाय, प्राणी, गृह, धान्यादि का हरण कर्ता, वह जलापूर (बाढ़) म्लेच्छों के हिंसा सदृश भयप्रद हो गया था।' (१:३:१२) जल तथा वन में शिकार खेलने की प्रथा थी। जल में पक्षियों तथा वन में पशुओं के शिकार द्वारा जीव हत्या काश्मीर में विदेशी सैयिदों ने चलायी थी-'मृगया रसिक सैयिद लोग, उसी प्रकार के उस राजा को भी, माघ मास में विषय, राष्ट्र आदि के मृग समूहों को मारने (शिकार) के लिए ले गये । (३:५०२) सैयिदों एवं सैन्य के साथ राजा जहाँ-जहाँ निवास किया, वे दिशायें पीड़ित होते, जनों के आक्रन्दन से मुखरित हो उठी । (३:५०३) राजा की सेना पर्वत पर चारों दिशाओं में पंक्ति बद्ध होकर, जहाँ पर निवास की, वहाँ पर द्राक्षा लताच्छेदन के शोक से अति निष्ठुर वाणी एवं प्रचुर क्रन्दन ध्वनि उठती थी। (३:५०४) वहाँ पर अत्यन्त सुखद एवं शान्तपूर्ण पर्वत हिंसक कटकों से उसी प्रकार आक्रान्त हो गये, जिस प्रकार दुर्जनों से साधुजन । (३:५०५) उनको वहाँ आया देखकर, सैयिद बहुत प्रसन्न हुए, जिनकी जीभ बाहर निकली थी, और स्फुरित होते रक्त से, जिनका मुख सिक्त था और जो श्वानों से आबृत थे। (३:५०७) 'मोटे ताजे हमलोगों को हर लो और दुर्बल बच्चों को मत मारों'-मानो इस कहने के लिये ही बच्चों सहित वे मृग राजा के सम्मुख आये थे । (३:५०८) क्रन्दन पूर्वक आयी एवं रुधिर से भीगी उन हरिणियों को मारकर, निर्दयी सैयिदों ने उनके गर्भ से भूमि भर दिया। (३:५१२) उनके वध से तृप्त न होकर, उन पर्वतों को मृग रहित करके, सायंकाल श्रान्त, उस राजा ने घोष समूहों की बस्ती को आक्रान्त करने का आदेश दिया ।' (३:५१३) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ६१ श्रीवर मृगया द्वारा निर्दोष जीव हत्या का विरोधी था । वह धिक्कारता है - 'राजा के मृगयाव्यसन को धिक्कार है, जो कि फल नहीं भोगते, मुगों के व्याज से लोगों का ही स्पष्ट रूप से शिकार किया जाता है, (३:५१८ ) जहाँ पर पशुओं के समान सैकड़ों बार मृग समूहों को बाँध (घेर) कर मारा जाता है, वह मृगया विनोद हेतु है, तो वधिक कर्म और क्या है ? (३:५१९) अश्वारोहियों का यह श्रम सचल लक्ष्य पर तो स्मृहणीय है किन्तु धनुर्धारियों का बद्ध मृग पर क्या यह शराभ्यास प्रशंसनीय है ?' (३:५२० ) श्रीवर मृगया का विरोधी नहीं है परन्तु वह पशुओं को घेर कर मारने, उन्हें अपनी रक्षा का बिना अवसर दिये, हत्या करने का विरोधी है । इसीलिये उक्त श्लोक में 'सचल लक्ष्य' का उल्लेखकर, मृगया पर पुनः विचार प्रकट करता है—' क्षत्रियों को तृणभोजियों की आनन्दमयी मृगया करनी चाहिए, अत्यन्त व्यसन युक्त नहीं, अति सर्वत्र गहित होता है। ( ३:५२१) महापथसर तीर एवं गिरि के मृग समूहों को राजा ने आकर उसी तरह वध से निःशेष कर दिया, (३:५२२ ) इत्यादि कुछ अनुचित मृगया दोष किया, जिसे देखलर, भावी मृगया प्रेमियों को भय होना चाहिए। (६:५२३) श्रीवर इस प्राणि हिंसा का परिणाम राजा की बीमारी तत्पश्चात्, उसकी मृत्यु का कारण लिखता है - 'आखेट करके, राजधानी पहुँचकर राजा का शरीर ग्रहणी ( संग्रहणी) रोग से अस्वस्थ हो गया । (३:५२४)' कुछ लोगों ने कहा - ' मृगया दोष से देवता कुपित हो गये, जिससे वहीं पर, उसे अतिसार रोग का आरम्भ हुआ ।' (३:५२५) - राजा बीमारी के पश्चात् भी मृगया से विरत नहीं हुआ । वह सर्वोत्सव के लिये जा रहा था । मार्ग में सर्प ने रास्ता काट दिया। उसने सर्प की हत्या बाणों से कर दी । वहाँ से शीघ्र ही भृत्य सहित नौकारूढ़ होकर, दिनभर उत्कण्ठा दूर करने के लिये, बाजों द्वारा पक्षियों का वध किया । (६:५३४) वाजों ने पक्षियों को पकड़कर, सुल्तान के सम्मुख ढेर लगा दिया । ( ३: ५३५ ) वहाँ से लौटकर, राजा ने उन सैंयिदों को छोड़ दिया और शय्या पर स्थित रहकर मैं स्वस्थ नहीं हूँ, इस प्रकार से अपना रोग रानी को ज्ञात करा दिया। ( ३:५३६) बीमारी से सुल्तान उठ न सका। उसकी दुःखान्त मृत्यु हो गयी । (३:५५४) मुहम्मद शाह के शासन काल में बाजों से शिकार करना एक व्यसन हो गया था। ( ४:१६) परिणाम यह हुआ कि स्त्री एवं स्पेन लीला व्यसन में राज वर्ग लगकर काश्मीर की अवनति का मार्ग प्रशस्त किये । जीव हत्या श्रीवर बताता है। काश्मीरी और संकेत श्रीवर इस पशु एवं पक्षि हत्या को देता विनाशकारी संघर्ष किया विप्लव हुआ। उस सैयिदों के नाश का कारण अनावश्यक शिकार द्वारा सैविदों का विचार तथा मन नहीं मिलता था। इसका भी है, जिसके कारण संयिदों एवं काश्मीरियों में दलबन्दी हुई। विप्लव में काश्मीरी विजयी हुए । सैयिदों का नाश हो गया। सैयिदों की जीव हिंसा के विषय में श्रीवर लिखता है - 'पहिले ही शकुनापेक्षी लोग, नवीन भूपाल ( मुहम्मद शाह) को लकेर नाव से वितस्ता नाड गये । (४:२१) अपने पक्षि ( श्येन - बाज) से पक्षियों को पकड़ने वाले, अपने पीछे भोज्यान्न सम्पत्ति युक्त, स्वतन्त्र प्राप्ति से गर्वान्ध (वे ) काश्मीरियों का अनादर किये, ( ४:२२) मानो पुनः न आने के लिये पक्षियों का नाश कर, एक बार अपने लोगों (संवियों) से मिलकर मन्त्रणा किये।' (४:२४) वर्जित किया गया था । हैदर शाह के समय जबतक जैनुल आबदीन के समय पशु-पक्षी हत्या, शिकार आदि केवल व्यसन अथवा खेलादि में करना राजदरबार में काश्मीरी सामन्तों एवं कुलीनों का काश्मीर की पुरातन परम्परा का पालन किया जाता प्राबल्य था, निरर्थक पशु एवं पक्षी हत्या वर्जित थी । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन राजतरंगिणी था। सैयिदों का प्राबल्य जब राजदरबार में मुहम्मद शाह की माता एवं हसन शाह की संयद वशीय रानी के कारण हो गया तो काश्मीर की पुरानी परम्परा को विदेशी होने के कारण सैयिद बालक नही करने लगे, जिससे जनता एवं संविदों के बीच खाई पड़ती चली गयी जो सैविदों के नाश का कारण हुआ। क्रूरता: काश्मीरी स्वभावत: क्रूर नही होते । हिसा को प्रवृत्ति उनमें नही होती । उनको प्रकृति की यह देन है । प्रकृति उन पर दयालु है । काश्मीर धन, धान्य, सुन्दर एवं जल पूर्ण है । उत्तम पर्वतों से यदि आवृत है, तो समतल मैदान भी है। प्रकृति ने उसे सब कुछ दिया है, जो मिलना चाहिए या इस वातावरण के प्राणी, विचारशील होते है । रचनात्मक प्रवृत्ति होती है। प्रकृति जिस देश एवं प्रदेश मे क्रूर होती है, वहाँ मानव को दैनिक जीवन के लिये घोर परिश्रम एवं संघर्ष करने वाला बना देती है। क्रूर प्रकृति से पग-पग पर लड़ना पड़ता है। प्रकृति से बया की आशा नहीं होती। वहाँ का प्राणी स्वभावतः उम्र, संघर्षशील एवं क्रूर होता है। शाहमीर वंश के शासन होने पर शनैः शनैः काश्मीर मे विदेशियों का प्रवेश होने लगा, जहाँ प्राकृतिक वातावरण राजनैतिक एवं आर्थिक दृष्टियों से कठोर था खुरासान, तुर्किस्तान सीमान्त पर्वतीय प्रदेशों के लोगों का काश्मीर में प्रवेश होने लगा । मुसलिम शासन होने के कारण उन्हे सुविधा मिलने लगी । काश्मीर मे मुसलमानों की आबादी कम थी हिन्दुओं से मुसलमानों ने राज्य लिया था। अतएव सुल्तान अपनी स्थिति सुदृढ बनाने के लिये मुसलिम समर्थक जनता चाहते थे। अतएव काश्मीर में अबाध गति से विदेशी मुसलमानों का प्रवेश होने लगा । कालान्तर में वे ही कश्मीर के मुसलमानों के लिये समस्या बन गये । वे काश्मीरी रहन-सहन एव प्रकृति से परिचित नही थे। उनके आगमन के साथ हिंसा एवं क्रूरता ने काश्मीर में प्रवेश किया, जो पहले अज्ञात थी। कुछ क्रूर घटनाओं का वर्णन पूर्व शाहमीरी वंश के इतिहास में मिलता है, परन्तु वे अपवाद मात्र है । तत्कालीन काल तथा उसके पश्चात् होने वाली क्रूरताओं के अनुपात मे नगण्य है । धार्मिक क्रूरता सिकन्दर बुतशिकन तथा अलीशाह के समय चरम सीमा पर पहुँच गयी थी परन्तु काश्मीर के मुसलिम बहुल होने पर, जो क्रूरता पहले हिन्दुओं पर होती थी, वही क्रूरता आपस में एक दूसरे पर होने लगे । राज लिप्सा, पद प्राप्ति, आर्थिक शोषण, उत्तराधिकार के लिये संघर्ष एवं सार्वजनिक क्रूरता का अध्याय खुल गया । 1 जैनुल आबदीन काल में क्रूरता का दर्शन नही मिलता। परन्तु उसके अत्यन्त दुर्बल हो जाने पुत्रों के राज्य लिप्सा के कारण, क्रूरता ने भी पदार्पण किया। आदम खाँ का उसके अनुज हाजी खाँ से शूरपुर में संघर्ष हुआ तो शूरपुर में बारात लेकर आये बारातियों को निरपराध मार डाला। ( १:१:१६४) 1 हाजी खाँ (हैदर शाह) जब पिता के साथ युद्ध करने आया, तो पिता ने ब्राह्मण दूत पुत्र के पास भेजा । दूत की बात सुनते ही, हाजी स के सैनिकों ने उसका कान काट लिया। दूतों पर क्रूरता का यह प्रथम उदाहरण मिलता है। (१:१:१२७) हाजी लो स्वयं इस क्रूर कर्म को देखकर, लज्जित हो गया था। (१:१:१२८) संघर्ष से परीशान होकर, दयालु जैनुल आबदीन में भय प्रदर्शन का भूत प्रवेश कर गया था'राजा ने नगर में जाकर, संग्राम में मृत वीरों के खिन्न मस्तक पंक्तियों से मुखागार ( मीनार ) का निर्माण कराया । ' (१:१:१७२) जैनुल आबदीन के पश्चात् क्रूरता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी थी । हैदर शाह का विश्वासपात्र भूत्य पूर्ण नापित था, वह लोगों का अंग विच्छेद करा देता था । यह उसके लिये साधारण बात हो गयी थी । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (२:४६६) उसने ठक्कुरादि जैनुल आबदीन के विश्वासपात्रों को आरों से चिरवा दिया। (२.४५) मार्ग से अनायास लोगों को पकडकर, पाँच छः व्यक्तियों को एक साथ सूली पर चढवा दिया। (७:४८) वैदूर्य भिषग को दूषक एवं परपक्षगामी जानकर हाथ, नाक और ओष्ट पल्लव कटवा लिया। (२:५०) शिख ज्यादा नोनक आदि सभ्रान्त पाँच छः व्यक्तियों की जीभ, नाक एवं हाथ कटवा दिया। लोग इतने आतंकित हो गये थे कि भय से स्वयं वितस्ता में डूबकर, भीम एवं जज्ज के समान प्राण विसर्जन कर देते थे । (२:५३) राजा स्वयं क्रूर हत्या के लिये प्रेरणा देता था। उसने हसन आदि की हत्या के लिये आदेश दिया-'उन्हें प्रातःकाल युक्ति पूर्वक लाकर वध कर देना चाहिए।' (२:७४) हसन जिसने राजा का तिलक किया था वह तथा मेर काक आदि पाँच छः व्यक्ति राजदरबार मे बहुमूल्य आस्तरण पर बैठे थे। राज्यादेश की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसी समय राजा ने उनका अचानक वध करा दिया । (२:७८) विद्या व्यसनी, गुणी; अहमद, जब राजगृह में लिख रहा था, उसी समय अकस्मात् उसे मार डाला गया। (२:८१) राजप्रासाद प्रांगण में अहमद आदि उच्च पदाधिकारी एवं मन्त्रीगण मारे गये। उनका शव उनके कुटुम्बियो को नही दिया गया। श्रीवर लिखता है-'अनाथ सदश उन लोगो को चाण्डालों ने रात्रि मे वहाँ से ले जाकर, प्रद्युम्न गिरि (शारिका पर्वत) के पाद मूल मै भूगर्त (कब्र) मे निवेशित कर इट्टिका (ईंटों) से ढक दिये । (२:८८) ___ सुल्तान हैदर शाह कितना क्रूर था इसी से प्रकट होता है-'राजा राजप्रासाद पर आरूढ़ होकर, अपने पाँचगृहों को जलते हुए देखकर, सन्तुष्ट होकर, पान लीला करने लगा।' (२:१४२) यह रोम सम्राट नीरो की क्रूरता का स्मरण दिलाता है, जो जलते रोम को देखकर प्रसन्न होकर, गाने लगा था। हसन शाह के समय क्रूरता और तीव्र हो गयी । हसन शाह ने जैनुल आबदीन के पुत्र बहराम खाँ की आँख फोड़ दी। बहराम खाँ को आँखों पर पहले रूई रक्खी गयी। तत्पश्चात् गर्म लोहे की शालिका, आँखों में धंसा दी गयी, उस समय, किसी दिन के राजसुख भोगने वाले, बहराम खाँ को जो पीड़ा हुई, उसका वर्णन श्रीवर करने में अपने को असमर्थ पाता है। (३:१०७-१०८) अभिमन्यु प्रतिहार की प्रेरणा पर हसन शाह ने बहराम खाँ का नेत्रोत्पाटन कराया था। कुछ ही समय पश्चात् अभिमन्यु प्रतिहार सुल्तान का कोपभाजन बन गया। बन्दी बना लिया गया। श्रीवर लिखता है-'बहराम के जैसी अति दुःसह व्यथा हुई थी, उसने भी नेत्रोत्पाटन द्वारा वैसी व्यथा का अनुभव किया। वह दूसरे द्वारा कही नही जा सकती।' (३:१३०-१३३) सैयिदों के अत्याचार की कहानी अत्यन्त भयंकर है। वे मानवता एवं क्रूरता की सीमा पार कर गये थे-'वैद्य पण्डित यवनेश्वर को सैयिदों ने मारकर, उसके चन्दन लिप्तांग काटे मस्तक को, राजपथ पर रख दिया। (४:१८५-१८६) सैयिदों ने कटे शिरो राशि को वितस्ता तटपर, कोलों पर रखकर, उनके द्वारा जनता में भय उत्पन्न करने के लिये दीपधर सदृश काष्ट रख दिये।' (४ १९७-१९८) __ शव वितस्ता में फेंक दिये जाते थे। वे फूल जाते थे। तैरते दुर्घन्ध करते थे । महापद्मासर (उलर लेक) में बहते, चले जाते थे । उनका अन्तिम संस्कार करने का भी कोई विचार नहीं करता था। (४:१९९) वितस्ता के दोनों तटों पर आने वाली स्त्रियों को, वाणों से बिद्धकर, अंग विदीर्ण कर देना, साधारण बात थी। (४:२०६) वितस्ता तटपर, रोक कर, प्रति दिन दो तीन व्यक्तियों को सूली पर चढा देते थे। सम्भ्रान्त, सामन्तों एवं सैनिक पदाधिकारियों के शव लावारिसों तुल्य सड़कों पर फेंक दिये जाते थे। श्रीवर करुण वर्णन करता है-'रूई की गही पर रखे, उपधान के स्पर्श का उत्तम सुख प्राप्त करने बाले, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैनराजतरंगिणी सुन्दर शृङ्गार परिपूर्ण वे भूमि पर नग्नावस्था में काक, कुक्कुट, वकों के भोजन बनते, खाये गये । मेदा, मांस, मसा से निकलते कृमियो सहित तथा दुर्गन्ध युक्त देखे गये । (४:१९०) मलिकपुर से लोष्ट बिहार तक सड़क पर इन्धन समूह के समान शव रखे हुए थे। इसी प्रकार के पुनः एक दृश्य का धीवर वर्णन करता है-समुद्र मठ से लेकर, पूर्वाधिष्ठान तक, मार्गों में इन्धन के गट्ठर के समान निर्वस्त्र शव पड़े हुए थे। (४:२८८) अधिकारियों का वध बिना न्याय किये ही कर दिया जाता था । उनके शवों के साथ क्रूरता की जाती थी। 'राजप्रासाद के प्रांगण से, चाण्डालों ने गुल्फों मे रस्सी बांधकर उन्हे (ताज एवं याजक) को खींचा, उनके शरीर के अंग मल युक्त हो गये थे । वे कुत्तों के भोजन बने ।' (४:६९) सैनिकों के पराजित होने पर, उनका मस्तक काटकर, उन्हे डण्डो पर टाँग दिया जाता था-'साहसी वीर तैरकर शीघ्र नदी पार चले गये, फिर छेदन कर, तत् तत् लोगों को मार कर, वितस्ता तट पर ही, उन्हे दण्ड पर आरोपित कर दिये।' (४:१३०) सबसे दयनीय दशा बहराम के पुत्र युसुफ की हुई। वह निरपराध था । बन्दी था। तीन वर्ष बन्दी जीवन के पश्चात् उसके पिता बहराम की मृत्यु हो गयी। पिता की मृत्यु पश्चात् भी बन्दी बना रहा। इसी बीच राज्य मे दो विरोधी दल हो गये। एक दल राजानक आदि ने बहराम के पुत्र युसुफ को परनाले के मार्ग से बन्दीगृह से मुक्त किया । (४:७६) सामने शत्रु सेना थी। युसुफ दुर्बल था। आगे-पीछे कहीं जाने मे समर्थ हीन था। अलीखां ने सन्देह किया। विरोधी दल राजनीतिक लाभ उठाने की दृष्टि से युसुफ को मुक्त किया था। अलीखां ने राजपुत्र युसुफ को आश्वासन दिया। सुरक्षित रहेगा। किन्तु अलीखा ने श्रीवर के शब्दों में उसे इस प्रकार मारा जैसे हरिण को सिंह मारता है। (४.७८) क्षण मात्र के लिए नहीं विचार किया। युसुफ तीन वर्षों से ऊपर कारागार में था। उसने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं था। उसका एक मात्र दोष था। वह राजवंश मे उत्पन्न हुआ था। वह अपनी इच्छा से बन्दीगृह से मुक्त नहीं हुआ था। मुक्त होते ही उसकी हत्या कर दी गयी। अनाथ युवक चौबीस वर्षीय (४:८६) राजपुत्र युसुफ, समझ न सका, वह क्यों मुक्त किया गया और उसकी क्यों हत्या की जा रही थी। इस प्रकार की अनेक घटनाएँ प्रायः उन दिनों काश्मीर मे घटा करती थी। उनके लोग आदी हो गये थे। (४:७६-७८) श्रीवर कितना मार्मिक वर्णन करता है-अच्छा है, मनुष्यों का जन्म सामान्य घर में हो, दुःखप्रद राजगृह मे न हो, सामान्य जन अरुचिकर एवं छोटे वस्त्र के एक भाग पर, शयन कर लेते है, किन्तु राजा (राजयुगल) सुन्दर एवं बड़े देश में भी नहीं समाते । प्रतिमा भंग : सिकन्दर बुतशिकन के समय देश में प्रतिमाएँ भंग कर दी गयी थीं। कोई ग्राम नही था, जहां मूर्तियां नही तोड़ी गयीं, जहां जबर्दस्ती लोग मुसलिम धर्म में दीक्षित न किये गये। अलीशाह ने सिकन्दर बतशिकन के हिन्दूउत्पीड़न उत्पाटन एवं संहार नीति को जारी रखा । जैनुल आबदीन के शासन काल में हिन्दुओं को कुछ राहत मिली थी। मन्दिरों के जीर्णोद्धार का भी आदेश दिया था। बाहर से हिन्दू-बुलाकर, पुनः काश्मीर मे आबाद किये गये थे। परन्तु हैदर शाह का शासन होने पर, हिन्दुओं का उत्पीड़न, एवं दमन आरम्भ हो गया-'राजा (सुल्तान) ने द्विजों को पीडित करने का आदेश दिया। राजा ने अजर, अमर, बद्ध आदि सेवक ब्राह्मणों के भी हाथ, नाक कटवा दिये। उन दिनों भट्टों के लूटे जानेपर, जातीय वेश त्यागकर, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका मैं यह नहीं हूँ, 'मैं यह नही हूँ' इस प्रकार कहने लगे । म्लेच्छों की प्रेरणा से राजा ने वहु खातक प्रमुख इष्ट देवो की, मूर्तियों को तोड़ने का आदेश दिया। गुण परीक्षा के कारण जैन राजा ने जिन लोगों को भूमि दी थी, उनसे उसके अधिकारियों ने अकारण ही हृत कर लिया । (२:१२३-१२७) हैदर शाह के पश्चात् उसका पुत्र हसन शाह सुल्तान हुआ। उसके समय में प्रतिमा भंग का क्रम जारी रहा-'राजा ने अर्ध निष्पन्न प्रतिष्ठा, को निलुंठित कर, नगर मे पिता के पुण्य के लिये खानकाह निर्मित कराया।' (३:१७७) भारतवर्ष में भी जहाँ मन्दिर नष्ट किये जाते थे, वहाँ जियारत, खानकाह, मसजिद अथवा कब्रिस्तान बना दिया जाता था। यह क्रम जैनुल आबदीन के पश्चात् पुनः जारी हो गया । सुल्तान निरंकुश था । उसपर किसी सभा, परिषद् आदि का वन्धन नही था। उसकी इच्छा ही उसका न्याय था। किसी को अनायास बिना न्याय का अवसर दिये, बिना इन्साफ किये, दण्ड देना, साधारण बात थी। पूर्ववती हिन्दू राजाओं तथा सुल्तानों के न्याय के विषय मे विशेष चर्चायें की गयी है। परन्तु श्रीवर ने अपने समकालीन हैदर शाह, हसन शाह तथा मुहम्मद शाह की न्यायप्रियता के विषय मे कुछ नहीं लिखा है। जैनुल आबदीन न्यायप्रिय सुल्तान था। इसमें सन्देह नहीं है। किसी को कारागार में रख देना, साधारण बात थी। क्रोधित होकर, सुल्तान हसन ने अवतार सिंह आदि को बिना न्याय किये, कारागार मे रख दिया। (३:१००) अनेक प्रतिहार गण सुल्तान का कोप भाजन होने पर, कारागार में रख दिये गये । तत्पश्चात् उनकी आँखें फोड़ दी गयी। (३:१३१) दो वर्ष जेल में रहकर, वही बहराम खां की तरह मारे गये । (३:१३५) बहराम खां का पुत्र युसुफ था। वह निर्दोष था। पिता के कारण, राजवंशीय होने के कारण, बन्दी बना दिया गया। वह निर्दोष, मुक्त होते ही, मार डाला गया। सेनाधिकारिया एव मन्त्रियों को भी इसी प्रकार, बिना विचार, कारागार में डाल दिया जाता था। (३:३९९) सम्पत्ति हरण सामान्य बात थी। सुल्तान असन्तुष्ट होने पर, किसी दिन के प्रिय पात्रों, मत्रियों एवं सामन्तों की सम्पत्ति बिना विचार, हरण कर लेता था। (३:१४८) सुल्तान किसी के सम्मुख उत्तरदायी नहीं था। निरंकुश था। मंत्री भी सत्ता पाकर निरंकुश हो जाते थे । विरोधियों किंवा जिनपर किंचित मात्र शंका होती थी, उन्हे निर्वासित कर दिया जाता था । (३:१५५) काल गणना: श्रीवर पहला समय सप्तर्षि ४५३५ = सन् १४५९ ई० जोनराज की मृत्यु का देता है। ४५४६ सन् १४७० ई० = सप्तर्षि लौकिक संवत् ४५४६ जैनुल आबदीन की मृत्य का उल्लेख करता है । सन् १४५९ से १४७० ई० के मध्यवर्ती काल मे समयों के घटना क्रमो से लौ० ४५३८ = १४६२ ई० (१:३:२), लौ० ४५३९ = सन् १४६३ ई० (१:५:३९), लौ० ४५३९ - सन् १४६३ ई० (१:५:८९), लौ० ४५४० = १४६४ ई० (१:१:७६, १:१:७७) दिया है । इनके बीच उसने लौ० ४४९६ = सन् १४२० ई० (१:७:२२४), लौ० ४५१५ = १४३९ ई० (१:५:४), लौ० ४५२८ = १४५२ ई० (१:७:८६,१:३:९३), लौ० ४५३३ = १४५७ ई० (१:३:११५), लौ० ४५३५ = १४५९ ई० (१:३:९३) लो० ४५३६ = सन् १४६० ई० (१:३.२), लौ० ४५३८ = सन् १३६२ ई० (१:३:२), तथा लो. ४५३९ = सन् १४६३ ई० दिया है। लौकिक या सप्तर्षि संवत् ४५४६ = सन् १४७० ई० के पश्चात् श्रीवर ने काल गणना, क्रमानुसार Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैन राजतरंगिणी दो है । उसकी काल गणना ठीक है। उसने जिस संवत् वर्ष का उल्लेख घटनाओं के सन्दर्भ में किया है, वे अन्य स्रोतों से भी प्रमाणित होते हैं। सन् १४७० ई० के पश्चात् उसने लो० ४५४८ = सन् १४७२ ई० (२:२० १) लौ० ४५५० = सन् १४०४ ६० (३:१७१), लौ० ४५५४- सन् १४७८६० (३:२२६), डी० ४५५५ - सन् १४७९ ई० (३:२७५), कौ०४५६० सन् १४८४ ई० (३:५५४, ४:९२) लो० ४५६१सन् १४८५ ई० (४:४९९), तथा लौ० ४५६२ - सन् १४८६ ई० (४.५७६, ५८०,६३७) दिया है। उसकी काल गणना ठीक मिलती है। = अन्नसत्र : प्राचीन हिन्दू राजाओं की अनेक प्रचाएँ सुल्तानों ने जारी रखी जैनुल आबदीन ने त्रिपुरेश्वर (१:५:१५), वाराह क्षेत्र (१:५:१६), पद्मपुर (१:५:२० ) विजयेश्वर (१.५:२१) शूरपूर (१:५:२२), सतीपुष्प (२:१८६) जैन वाटिका (१३५४६) में मनुष्यों तथा वितस्ता सिन्धु संगम पर मछलियों के लिए अनसन खोला था । धीवर लिखता है— वितस्ता सिन्धु संगम पर अम्नसत्र से नित्य तृप्त मत्स्यों से छोटी मछलियों को अभयदान मिल गया । ' (१ : ५:१७) बड़ी मछछियों का पेट इतना भर जाता था कि वे छोटी मछलियों को नहीं खाती थीं। हशन शाह के समय फिर्य डामर ने मसजिद में अन्न सत्र स्थापित किया था - 'उस फिर्य डामर ने जैन नगर में सुन्दर सत्र वाला मसोद ( मसजिद) और हुजिरा ( हुजरा) से सुन्दर खानकाह निर्मित करावा ।' ( ३.१९७) मुसलिम विद्यार्थियों के लिए खानकाह मे भोजन का प्रबन्ध होता था । मसजिदों मे अन्न सत्र की व्यवस्था थी । अभिषेक सुल्तान सिंहासनासीन होने पर, अभिषेक नाम रखते थे। शाही खां का अभिषेक नाम जैनुल आबदीन, हाजी खां का हैदर शाह, मुहम्मद खां का मुहम्मद शाह था । हिन्दुओं में भी अभिषेक नाम रखा जाता था । श्रीवर ने जेनुल आबदीन के अन्तिम चरणों का इतिहास लिखा है किन्तु अन्य तीनो सुलतानों हैदर शाह, हसन शाह एवं मुहम्मद शाह के अभिषेक का वर्णन किया है । उनसे तत्कालीन अभिषेक प्रथा पर प्रकाश पड़ता है । राज्याभिषेक के दिन नगर में दीपमालिका होती थी। नगर सजाया जाता था । उत्सव होता था । (२:४) राजधानी अर्थात् राजप्रासाद प्रांगण मे स्वर्ण सिंहासन अथवा रजत आसन रखा जाता था । जैनुल आबदीन का सिंहासन त्रिकोणीय था । ( १:५ : १०) सुल्तान सिंहासन पर बैठता था । अनुज एवं आत्मज तथा अन्य सम्बन्धी उसके पाश्वं मे रहते थे राज्याधिकारी शुभ्र वस्त्र पहनते थे । काश्मीर के सुल्तानों का अभिषेक हिन्दू एवं मुसलिम दोनों पद्धतियों से होता था । इस अवसर पर होम किया जाता था । दान दिया जाता था । सिंहासनस्थ सुल्तान का तिलक होता था । हैदर शाह का तिलक हस्सन केशिश ने किया था मुसलिम के पश्चात् हिन्दू रीति से अभिषेक किया जाता था। हिन्दू रीति के अनुसार उस पर छत्र एवं चमर लगता था । सिकन्दर बुत शिकन के पूर्व सुल्तान मुकुट धारण करते थे, तत्पश्चात् मुकुट का स्थान ताज ने ले लिया । अन्य उच्च पदस्थ तथा प्रियगण भी राजा का तिलक करते थे। (२:२०६) इस अवसर पर सम्बन्धियों को जागीर दी जाती थी। हैदर शाह ने अपने कनिष्ठ भ्राता बहराम खां Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ भूमिका को नाग्राम की जागीर दी थी। (२:१०) अपने पुत्र को क्रमराज्य एवं इक्षिका का स्वामी बनाया था। (२:११) उसके प्रिय पात्र रावत्र एवं लोलक आदि अतुल प्रसाद अभिषेक के अवसर पर प्राप्त किये थे। (२:१२) सुल्तान के अन्य सेवक भी अपने पूर्व सेवा पुरस्कार स्वरूप में उच्च एवं निम्न ग्राम प्राप्त किये। (२:१३) युवराज की भी घोषणा की जाती थी । हसन को सुल्तान ने युवराज बनाया था। अन्य दरबारियो तथा अधिकारियों को उनके पद के अनुसार, उपहार, खिताब, खिलअत देकर, सम्मान किया जाता था। सीमान्त के राजगण तथा काश्मीर मण्डल के सामन्त आमन्त्रित किये जाते थे। आज भी प्रथा है। मित्र देशो के राजा, राष्ट्रपति अथवा प्रतिनिधि अभिषेक मे भाग लेते है । आगत राजाओं का उनके पदानुरूप, अलकार, उपहार आदि देकर, सम्मान किया जाता था। हैदर शाह के अभिषेक के समय राजपुरी के राजा तथा सिन्धु पति उपस्थित थे । मन्त्री, सेनापति, पुरगामी, सुवर्णकटारी तथा सुन्दर कमरबन्दों से सुशोभित दरबार में उपस्थित रहते थे। सेवकों को वस्त्र आभूषण आदि दिया जाता था। (२:१४-१८) हसन शाह का अभिषेक भी प्रायः इसी प्रकार किया गया था। निर्मल वस्त्र धारण कर राजा सिंहासन पर बैठा था । मल्लेक तथा आयुक्त अहमद ने राजा का तिलक किया था। सुल्तान पर स्वर्ण कुसुमों की वृष्टि की गयी थी। अभिषेक के समय हिन्दू राजा के समान, मन्त्र के साथ जल एवं पुष्प से अभिषेक किया जाता था। हसन के समय रजत आसन रखा गया था। स्वर्ण मुसलिम विधि, संहितानुसार हराम माना जाता है । अतः सैयिदों के प्रभाव के कारण स्वर्ण के स्थान पर रजत सिंहासन रखा गया। आसन किंवा सिंहासन पर छत्र लगा था। अभिषेक काल मे होम किया गया था। बाजा बजते थे। स्थान लाल एवं श्वेत ध्वज मालाओं आदि से खूब सजाया जाता था। पूर्व काल में मालूम होता है, वस्त्र दिया जाता था। परन्तु श्रीवर ने हसन के अभिषेक काल मे कौशेय अर्थात् रेशमी वस्त्र भृत्यों एवं पदाधिकारियो को देने का उल्लेख किया है । (३:८-१३) मुहम्मद खां सात वर्ष का बालक था। उसका अभिषेक नाम मुहम्मद शाह रखकर सिंहासन पर बैठाया गया । वह रजत के सिहासन पर बैठा । छत्र लगाया गया । शुभ्र अगुक पर, छपे कुमकुम से लोहित कान्ति वाले परिधान मे सैयिद भावी द्रोह के कारण निकले हुए रक्त से सिक्त सदृश शोभित हो रहे थे । (४:७) सुल्तान का कनिष्ठ भ्राता होस्सन वाल नृपति के समीप अभिषेक के समय था । बाजा बज रहा था। राजप्रासाद के प्रांगण में अभिषेक उत्सव आयोजित था। उस उत्सव में सैयिदों ने परिधान प्रसाधनों द्वारा समस्त नप अनुचरों को सन्तुष्ट किया । (४:१०-१२) अपने पिता हैदर शाह के समान हसन शाह ने भी आयुक्त मल्लेक अहमद को संग्राम तथा नाग्राम (३:२४), आयुक्त नौरुज को इक्षिका (३:२५), जागीर तथा सेवको को कौशेय वस्त्र दिया । (३:१६, १७) जोन राजानक आदि भी पूर्व सेवानुसार छोटे-बड़े ग्राम जागीर मे पाये। (३:३०) सुल्तान ने अपने बालसखा ताज-भट्ट को अपना दूत इसी समय नियुक्त किया। (३:२८) आयुक्त अहमद सचिव नियुक्त किया गया। (३:२३) इस समय बन्दियों को कारागार से मुक्त कर, उन्हे भुट्ट देश मे निष्कासित कर दिया गया। युवराज जैनुल आबदीन ने ज्येष्ठ पुत्र आदम खां को युवराज बनाया। वह युवराज पद पर पांच या छः वर्षों तक Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी वना रहा। (१.२:५) काश्मीर के सुल्तान हिन्दू प्रथानुसार, युवराज नियुक्त करते थे। जमशेद ने अपने कनिष्ठ भ्राता अलाउद्दीन, सुल्तान कुतुबुद्दीन ने हस्सन, मुहम्मद शाह ने शाह सिकन्दर को युवराज बनाया था। युवराज, ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ भ्राता प्रायः बनाये जाते थे। युवराज नियुक्त करने का एक मात्र अधिकार सुल्तान को था। जैनुल आबदीन ने प्रथम युवराज अपने कनिष्ठ भ्राता महमूद, तत्पश्चात् आदम खां, (१:२.५) और अन्त मे हाजी खा (१:३:११७) को नियुक्त किया था। हैदर शाह के समय में ही विद्रोहियों ने बहराम खा को सिंहासन तथा भतीजा हसन शाह पुत्र हैदर शाह को युवराज बनाने का प्रस्तान रखा था । किन्तु बहराम खां ने प्रस्ताव ठुकरा दिया । (२:१८९) मन्त्री : जैनुल आबदीन के समय मंत्रिसभा थी।' (१:७:५२) आधुनिक मन्त्रिमण्डल के समान थी। सुल्तान मन्त्रिसभा मे बैठता था। विचार विनिमय होता था। परन्तु मन्त्री की सलाह मानने के लिए सुल्तान बाध्य नही था। राजा मन्त्रिसभा मे अपने कुटुम्ब के विषय तथा कुल सम्बन्धी बातो पर भी विचार और मत जाहिर करता था । (१:७:५८) जैनुल आबदीन मन्त्रि-सभा का आदर करता था । मन्त्रीगण सुल्तान के राज्य त्याग तथा उत्तराधिकारी बनाने के लिए भी सलाह देते थे। (१:७:१००) जैनुल आबदीन को जव सलाह दी गयी कि वह किसी एक पुत्र को अधिकार दे, तो वह सलाह मानने से इन्कार करते हुए, उत्तर दिया-'ज्येष्ठ (पुत्र) श्रेष्ठ है, किन्तु उसमें कार्पण्य है। अतएव उसके कारण इस प्रकार के सेवक नही रहेगे कि राज्य दृढ़ हो सके । मध्यम अतीव दाता है। इसके पास प्रद्युम्नाचल सदश धन होते, इसके व्यय मे कर्ष मात्र अवशिष्ट नहीं रहेगा। दुष्टबुद्धि कनिष्ठ पापनिष्ठ है, शीघ्र ही सभा नष्ट हो जायगी।' (१:७:१०३-१०५) इससे प्रकट होता है कि मत्रि-सभा का सुल्तान कितना महत्त्व देता है। जैनुल आबदीन के पुत्र, पोत्र तथा प्रपौत्र के राजत्व काल मे स्थिति बदल गई। मन्त्री शक्तिशाली होते गये। मन्त्री पद प्राप्त करने के लिए, परस्पर संघर्ष होने लगे। सुल्तान निरपेक्ष हो गये थे । मन्त्री इच्छानुसार कार्य करते थे। सुल्तान नही, मन्त्री निरंकुश थे। उनके वैमनस्य एवं संघर्ष के कारण काश्मीर मण्डल की दुर्दशा हो गई। उनपर दुःख प्रकट करता श्रीवर लिखता है-'हिम मार्ग, इस मण्डल में यद्यपि भूपालों के दुर्व्यसन से उत्पन्न दोष नाश करने में समर्थ होते है किन्तु परस्पर मन्त्रियों के वैर से समुत्थित दोष क्षण मात्र में समस्त राज्य को नष्ट कर देते है। (३:२९५) समुदाय से शोभित सप्तधातु का अंग से युक्त शक्तिसमृद्धि सुभग (राज्य या शरीर) यद्यपि सर्व वीर्य कार्य में सक्षम रहता है किन्तु जहाँपर वातादि दोष सदृश परस्पर द्वेषी महामन्त्री होते है, वहाँ राज देह के समान, शीघ्र गल जाते हैं (३:२९६) असाध्य रोग, महाविष, ज्वालायुक्त सर्प एवं अग्नि इतना भयकारी नही होता, जितना कि इस देश में मन्त्रियों का द्वेष भयकारी हुआ है।' (३:३०२) मन्त्रियों ने स्वार्थों के कारण देश की राजनैतिक परिस्थिति बिगाड़ दी थी। उनकी निष्ठा किसी के प्रति नहीं थी। ढलते हुए लोकतन्त्र के समान दल-बदल साधारण बात थी। श्रीवर इस दशा पर दुःख प्रकट करता है-'अधिक क्या कहा जाय, दिन में जो लोग स्पष्ट रूप से सैयिदो के पास रहते थे, वे निर्लज्ज काश्मीरी सेना मे दिखाई पड़े । नियन्त्रण रहित लोग यहाँ से आते, वहाँ से जाते, इस प्रकार शिथिल आज्ञा वाले, उस बालक राजा के समय विप्लव उठ खड़ा हुआ। (४:२२८-२२९) सचिवों के सन्दर्भ में श्रीवर लिखता है-'सुशस्त्र, संग्रही एवं शत्र से रक्षार्थी व्यवस्था करने वाले सचिव, एक तरफ हो जाते है, तब राजश्री नौका के समान डूब जाती है।' (४.६०३) श्रीवर चेतावनी Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका देता है-'काश्मीर के प्रभावशाली लोगों में जब अपना मतभेद हो जाता है, तो राज्य नष्ट हो जाता है और बहिर्देशीय कौन से खस खुश नहीं होते ? लूट एवं दाह के कारण लोग दुःखी होते है और धन देखते है । धीर एवं वीर युक्त होकर भी, सेना नष्ट हो जाती है और शत्रु सम्पत्ति खोजता है । (४.४५२) सभा: मुसलिम काल में देखा गया है कि पूर्व राजाओ की राजधानी सामर्थ्य होने पर, सुल्तान बदल देते थे। दिल्ली इसी प्रकार कितने हो बार बसाई गई थी। मन्त्री बदल दिये जाते थे। नवीन सुल्तान अपनी इच्छानुसार मन्त्रियों का चयन करता था । सिंहासनासीन राजा की सभा पुत्र या उत्तराधिकारी अथवा राज्य हड़पने वाले का विरोध करती है, राजा का साथ देती है अतएव पुत्र, उत्तराधिकारी अथवा राजहर्ता, जब शक्ति में आता है, तो पुरानी सभा, मंत्री एवं पदाधिकारी बदल देता है। उन्हें अपराधी मानता है । क्योकि उन्होंने उसका विरोध किया था? जैनुल आवदीन ने विरोधी होने के कारण सभा को शाप दिया था। वह सभा भव्य थी, किन्तु एक ही वर्ष मे समाप्त हो गई। (१:७:२७४) हैदर शाह ने शासन प्राप्त करने पर, पिता जैनुल आबदीन की सभा समाप्त कर दी-'कार्यों में विशारद एवं योग्य पिता की जो सभा थी, राजा ने पूर्व अपकार का स्मरण कर, सब समाप्त कर दी।' (२:१०३) __हसन शाह के समय मन्त्री-सभा का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। राजा मन्त्रि सभा में विचार विमर्श करता था (३:५०) हसन शाह के समय मे सभा पनप नही सकी। श्रीवर लिखता है-'मुसलमान राजाओं को जो सभा थी, वह सब थोड़े ही समय मे स्वप्नोपम हो गयी। (३:१४१) सुल्तान राजसभा किवां मन्त्रिपरिषद् की उपेक्षा करने लगे। देश में किस प्रकार के आतंक की आशंका न होने पर, सुल्तान व्यसनी हो गये । रसिक हो गये। सभा भी राज-काज के स्थान पर रसिक हो गयी। (३:१६९) सभा अनेक विषयों पर विचार प्रकट करती थी। मन्त्रिसभा मे कला विद्, सगीतज्ञ आदि गुणी जन रहते थे—'राजा हस्सनेन्द्र संगीत में निपुण था। इस प्रकार एक-एक गुण से पूर्ण प्रसिद्ध नप मण्डली को लोगों ने इस मण्डल में देखा' । (३:२६७) किन्तु जब राजसभा मे राग-द्वेष उत्पन्न होता है, तो वह देश का सर्वनाश कर देती है'आश्चर्य है सर्वनाशक, यह द्वेष-पिशाच राजसभा मे उत्पन्न हुआ और कोई मन्त्री उसे जीत नहीं सका।' (३:३०१) मुहम्मद शाह शिशु राजा था। श्रीवर ने उसका राज्य काल केवल दो वर्ष देखा था। उसके समय में सभा नाम मात्र थी। उसमें कोई स्वतन्त्रता पूर्वक विचार प्रकट नही कर सकता था-'यदि धर्म बुद्धि से कोई दीन रक्षा हेतु प्रवृत्त हुआ, तो राजसभा में ही, वह उनके (मन्त्रियों) के दुरुत्तरों से अभद्रता का पात्र बनता था।' (४:३७६) इससे प्रकट होता है कि राजसभा मे जनता विज्ञप्ति काल में विज्ञप्ति करती थी। विचार प्रकट करती थी। मन्त्री उसपर अपना मत या उत्तर देते थे। इस समय सभा दुर्बल हो गयी थी। उसका ढाँचा मात्र शेष रह गया था। इस सभा की दयनीय स्थिति का वर्णन करते हुए श्रीवर लिखता है-'जो प्रमुख भागी लोग राजसभा में देखे गये थे, वे भी, बिना शस्त्र के, लोगों के समान अपूर्व सन्त्रास पूर्वक आये । (४:४७८) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैन राजतरंगिणी मोक्षपत्र (खते रुखरात) : काश्मीर में हिन्दू राजाओं के समय से ही यातायात एवं आवागमन पर नियन्त्रण था। राज्य की सुरक्षा दृष्टि से यह व्यवस्था की गयी थी । यह व्यवस्था कुछ समय पूर्व तक प्रचलित थी। सुल्तानों के समय काश्मीर में आने के लिये राज्य अनुमति आवश्यक थी बहिर्गमन के लिये भी राजाज्ञा आवश्यक थी। दर्रो अर्थात् संकट किंवा द्वार पर आज्ञापत्र कड़ाई के साथ देखे जाते थे । मद्र के सैनिक काश्मीर मे थे । उन्हें जाने के लिये कहा गया उन्हे देखकर सत्ताधारी सैयिद शक्ति हो बोले-'प्रतिमुक्त दिये जाने पर भी (तुम लोग ) अपने देश को नही जा रहे हो ? किसलिये आये हो ?' इस प्रकार आगत उन लोगों को देखते ही हर्षपूर्वक सिंह भट्ट द्विज ने कहा तुम लोगों से हमे मार्ग मुक्ति पत्र नहीं प्राप्त हुआ है। हम लोग कैसे जाँय ?' – सैयिदों ने उत्तर दिया- 'आज तुम लोगों को प्रतिमुक्त (मोक्ष) पत्र मिलेगा ।' ( ४ : ४१-४२) C दल : श्रीवर ने फादमीर के तत्कालीन बलबन्दी का विस्तार से वर्णन किया है। राजानक, ठक्कुर, डामर, प्रतिहार, सैयद खसों का संगठित दल था। इनके अतिरिक्त प्रतिहार, सैयिद, माग्रे एवं चक्र (चकों) का सैनिक किंवा अर्ध सैनिक दल था। मद्रों का कोई दल नहीं था। लेकिन उनके सैनिक कायमीर की राजनीति को प्रभावित करते थे। वे प्रायः काश्मीर के किसी न किसी दल की पक्ष से सहायतार्थ बुलाये जाते थे। सत्ता प्राप्ति के लिये वे परस्पर संघर्ष करते थे । इन दलों में जबतक, काश्मीरी थे, देश के लिये खतरा नही था । परन्तु काश्मीरियों का एक दल, दूसरे पर अधिकार एवं उन्हें पराजित करने के लिये विदेशी मद्र, लस, तुरुष्क तथा सैविदों से सहायता लेने लगा। जो लोग काश्मीर के किसी दल की सहायता करने के लिये आये थे, वे स्वयं सत्ता हस्तगत करने का षडयन्त्र करने लगे । हिन्दू काल मे डामर एवं लवण्यों का दल था । वे काश्मीरी थे परन्तु मुसलिम काल मे विदेशी मुसलमानों के आगमन तथा उनके उपनिवेश काश्मीर मे बन जाने के कारण स्थिति सर्वदा विस्फोटक रहती थी। जैनुल आबदीन एवं उसके पुत्रों में संघर्ष के कारण एक ऐसा दल बन गया, जिसकी निष्ठा किसी एक के साथ नहीं थी। वे दोनों पक्षों से धन तथा वेतन लेते ये जैनुल आबदीन के अन्तिम चरण में दल बदल की अवस्था हो गयी थी—'आज जो अपने पास दिखाई दिये, प्रात ( हाजी ) खान के पास सुने गये, इस प्रकार सारस सदृश सेवक कहीं भी स्थिर नही हुए (१:७.१५२) '' सैयदों ने राजवंश से सम्बन्ध कर लिया था। उनकी प्रधानता दरबार में हो गयी । प्रभाव बढ़ गया सुल्तानों से जब उनकी कम्याओं के पुत्र होने लगे, तो उन्होंने मन्त्रित्व आदि उत्तरदायित्वपूर्ण पद प्राप्त किया । काश्मीरियों की बाते अखरने लगी । सैयिदों का झुकाव काश्मीरियों की अपेक्षा विदेशी मुसलिमों तथा अपने विदेशी भाई-बन्दों की ओर अधिक था काश्मीर मे हसन शाह तथा मुहम्मद शाह के समय स्पष्टतया दो दल हो गये । दोनों सत्ता प्राप्ति के लिये एक दूसरे के खून के प्यासे थे । काश्मीर गृहयुद्ध तथा संघर्ष में भस्म होने लगा । श्रीवर लिखता है - 'मार्गपति का एक पक्ष, ठक्कुरो का दूसरा, तीसरा राजानक का, दीप्ति में सब अग्नि के समान चमक रहे थे । ( ४:३५३) वह बालक राजा आत्मा के समान निष्क्रिय एवं साक्षी मात्र था । उस समय सम्पूर्ण राजतन्त्र मन्त्रियों द्वारा सम्पन्न होता था । ' ( ४०३५४ ) विदेशी हिन्दू काल से ही विदेशियों का आगमन काश्मीर में होने लगा था। सीमान्त अफगानिस्तान, फारस, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका तुर्किस्तान, भारत मे अनिश्चित स्थिति तथा राजनीतिक कारणों से काश्मीर में तुरुष्क शरण लेने लगे। हिन्दू राजाओं की सेना मे भी विदेशी थे। विदेशी राजसेवक शाहमीर ने ही काश्मीर मे मुसलिम राज्य स्थापित किया था। काश्मीर मे विदेशियो के उपनिवेश थे। सैयिद विदेशी ये। उनकी आबादी बढ़ गयी थी। वे दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली होते गये। काश्मीरी एवं विदेशी मुसलमानो का अन्तर प्रारम्भ में नहीं प्रकट होता था। सभी एक धर्मानुयायी थे। हिन्दुओं के विरुद्ध सब एक थे। काश्मीर के राजवंश में विवाह द्वारा विदेशियों ने प्रभाव बढा लिया। विदेशी मुसलमानो के प्रति काश्मीरी मुसलमानों को प्रारम्भ मे स्नेह था। उनके आगमन का स्वागत करते थे। परन्तु जैसे-जैसे दिन बीतता गया, स्थिति बदलती गयी। राजनीतिक स्वार्थो एवं शक्ति प्राप्ति की दृष्टि ने काश्मीरी तथा गैर काश्मीरियों में भेद उत्पन्न कर दिया । हिन्दू जनता के मुसलिम हो जाने पर, हिन्दुओं का विरोध न होने पर, मुसलिम परस्पर विभाजित हो गये। काश्मीरी तथा गैर काश्मीरियों का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। अनेक विप्लवो एवं संघर्षों का जन्म हुआ । उनका यथा स्थान वर्णन किया है। सैयिद : सैयिद वंश के विषय में ख्याति थी। वे पैगम्बर हजरत मुहम्मद के वंश परम्परा मे थे। पहले जैनुल आबदीन ने आगत सैयिद नासिर आदि को पैगम्बर बंशीय पूज्य एवं महागुणी जानकर, उन्नतासन प्रदान कर, स्पर्शादि से अतुल सत्कार किया और जिन्हे अपनी पुत्री प्रदान कर, सम्मान पूर्वक उन्हे राष्ट्राधिपति बना दिया। (३:१५३-१५४) राजा की पुत्री से विवाह के कारण, वह रूप आदि राष्ट्राधिपत्य के नित्य सुख को भोगने वाले, चिरकाल तक नृपवत् आचरण करते रहे।' (३:१५७) काश्मीर में द्विजों के प्रति आदर भाव था। द्विज अवध्य थे। विद्या के कारण पूजनीय थे। पठनपाठन, पूजा-पाठ उनका कार्य था। जो ब्राह्मण मुसलमान हो गये, वे भी अपनी उपाधि भट आदि नही त्यागे। सैयिदों ने इस स्थिति से लाभ उठाया। पैगम्बर वंशीय होने से उनके प्रति आदर अवश्य था किन्तु साधारण जनता में वे पूजनीय एवं श्रद्धा के पात्र नहीं बन सके। सैयिदों ने घोषित किया । वे हिन्दू ब्राह्मणों के समान मुसलमान ब्राह्मण है। बात जम गयी। इससे उन्हे सर्वत्र आदर मिल गया। काश्मीरी हिन्दू ब्राह्मण जन्मना ब्राह्मण होने का गर्व करते थे। इसलिये मुसलिम धर्म में परिवर्तित हिन्दुओं को म्लेच्छ कहते थे। सैयिदो की स्थिति हिन्दू ब्राह्मणो तुल्य हो गयी थी। इस भाव को श्रीवर प्रकट करता है-'इन मारे गये, राज सैयिदो को जो द्विज है, मैं कैसे देख सकूँगा? इसलिये मानो क्रोध से रुष्ट होकर, सूर्य लोकान्तर चले गये।' (४:८८) __ सैयिद अभिमानी हो गये । मर्यादा का उल्लघन करने लगे। वंश परम्परा की तथाकथित पवित्रता के कारण, सुल्तानों ने उनकी कन्या ग्रहण की। जैनुल आबदीन की रानी बोधा खातून सैयिद वंशीय थी। (१:७:४७) सैयिद उद्धत हो गये थे। जैनुल आबदीन ने कुछ सैयिदों को निष्कासित कर दिया। हसन शाह ने सैयिद जमाल आदि को उपद्रवी जानकर, पहले सम्पत्ति से वंचित किया। अनन्तर देश से निकाल दिया। सैयिद नासिर स्वयं देश त्यागकर, बाहर चलाभाया । सुल्तान की पुत्री से विवाह के कारण बहुरूप आदि राष्ट्राधिपत्य के सुखभोगी, जो चिरकाल तक नृपवत् आचरण करते थे, वे लोग भी दिल्ली आदि चले गये । बाहर जानेपर, वे सुखी नहीं रह सके, उनकी स्थिति बिगड़ती गयी। (३:१५५-१५८) सैयिद यद्यपि Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी कश्मीरियों के यहाँ विवाह आदि सम्बन्ध करते थे, परन्तु वे हिल-मिल नहीं सके । काश्मीरियों की उपेक्षा करते थे। मार्गे जहांगीर ने अपनी बहन की प्रतिष्ठा मे कमी देखकर निर्मुक्ति पत्र ( तलाक) दिलवा दिया ।' (३:१६३) ७२ " " रानी सैयियों का पक्ष करती थी। राज्य प्रासाद मे काश्मीरी एवं संविद दो पक्ष हो गये। सैयिद रानी का प्रश्रय पाकर बली तथा राजकार्य में हस्तक्षेप करने करने लगे। यदि संविदों को कुछ कहा जाता, तो रानी क्रुद्ध हो जाती । श्रीवर लिखता है - 'जहाँगीर मार्गेश ने एकान्त मे राजा से एक बार कहाहे ! राजन् ! निष्कासित संयिद, जो इस निष्कण्टक राज्य मे ले आये गये हैं, यह स्वयं अपना अनर्थ किया गया है । जिस प्रकार जैनुल आबदीन के पौत्र तुम, राज्य करने के योग्य हो, उसी प्रकार उसका दौहित्र मियाँ मुहम्मद भी आ गया है। तुहरूको से आश्वस्त मन वाले वे संविद सर्वदा शंकनीय है। मास पर गुड की तरह, राज्य पर, जिनकी लुब्ध दृष्टि रहती है । हे ! राजन् ! बहुभार्यां वाले आपके लिये एक प्रिया के प्रति आसक्ति ठीक नही है । एक लता मे निरन्तर रत भृंग की कौन प्रशसा करेगा ? हे ! राजन् ! यदि तुम स्त्री के आधीन न होते, तो तुम्हारा सब कार्य सिद्ध होता । अतः हे ! प्रभो ! स्त्री वशवर्ती मत हो ।' चंचल राजा यह उपदेश सुनकर रात्रि में मोहवश सब बातें रानी से कह दिया। भयावह सर्पिणी के समान रानी क्रुद्ध होकर पितृ ( संविद) पक्ष में आदर भाव वाली मार्गपति का अनिष्ट चिन्तन करने लगी। (३:४४०-४५४) श्रीवर के अनुसार वे भिक्षुकों के समान काश्मीर मे आकर राज सम्मान प्राप्त कर सैयिद सम्पत्ति युक्त हो गये थे— 'कणभोगी विदेशी जो इस देश मे आये, सम्पत्ति युक्त हो गये और गर्भ से निकले हुए के समान, आत्मचरित भूल गये प्रजा पीड़न करने लगे। इसी पाप भार से उनका वैभव नष्ट हो गया। सुल्तान द्वारा निष्कासित कर दिये सरोवर से निकाले गये, मत्स्य के समान, प्राण नाश के भय से व्याकुल हो गये । ( ३:१५९ ) जैनुल आबदीन दूरदर्शी था । सैंयिदों के खतरे को समझ गया । सैयिद यौन सम्बन्धों के कारण राज्य प्रासाद मे प्रवेश पा चुके थे उन्हें काश्मीर की संस्कृति सभ्यता में आस्था नही थी। उनके स्वार्थ एव स्वनिष्ट दृष्टिकोण के कारण, जैनुल आबदीन उन्हे काश्मीर से निष्कासित करना चाहता था । परन्तु असफल रहा। हसन शाह ने उस कार्य को पूरा किया। 'जेल लावनीन संयिद निष्कासन को नहीं सम्पन्न कर पाया, इसके पौत्र ( हसन शाह) ने अनायास ही कर दिया ऐसा लोगो ने कहा ' ( ३:१६८ ) 3 , । सैयद काश्मीर से निष्कासित कर दिये गये - परन्तु मल्लिक दल पुनः सैयिदो को बुलाने का विचार करने लगा । उनके आगमन से उनका दल मजबूत हो जायगा । ( ३: ३३० ) यह बात उनके मन मे बैठ गई थी। सैयिद लोग दिल्ली में रहते थे । उनके पास काश्मीर आने के लिए संदेश भेजा । ( ३:३३१ ) किन्तु काश्मीरी देशभक्त कुलीन वर्ग, तथा तीक्ष्णों ने सैयिद आगमन का विरोध किया । ( ३:३३४ ) सावधान किया उनके आने से सर्वनाश होगा। सेयिदों के आगमन की बात सुनकर, फिर्य डामर ने अहमद आयुक्त को सावधान किया- 'तुम दुर्धर देश के कष्ट, तुकों के लिए अत्यधिक सहायक एवं यत्न पूर्वक निष्कासित सैपियों को मत प्रवेश दो । (३:३३७) उनके आने से सर्वनाश होगा (३ : ३३८ ) अपनी मृत्यु का कारण होगा ।' (३:३४१) किन्तु आयुक्त ने बात नहीं मानी। सैथियों ने काश्मीर मे प्रवेश किया 1 मियाँ हस्सन सर्व प्रथम सुल्ताल के सम्मुख उपस्थित हुआ । ३:३४६) मलिक ने रखीयाचम प्रदेश संवियों को जागीर मे दिया। (१:३४७) संविद हसन को सीधा देशाधिकार दिया गया। ( ३: ३४८) वही मल्लिक के नाश का कारण हुआ । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका सैयिदों ने आते ही राजदरबार में अपना प्रभुत्व रानी के माध्यम से बढा लिया। ताजभट्ट की स्त्री के अपहरण की इच्छा से, उसे बन्दी गृह मे डाल दिया। (३:३५२-६०) सैयिदों ने भेद नीति से सुल्तान को आयुक्त के विरुद्ध कर दिया। सुल्तान ने आयुक्त के प्रति, अपनी नाराजगी, राज-सभा में व्यक्त कर दी। (३:३६९-३७१) सुल्तान ने युसुफ खाँ को उसके अभिभावकत्व से हटाकर, जोन राजानक के अभिभावकत्व मे रख दिया। (३:३७७) सैयिदों की सहायता से ताजभट्ट ने मुक्त होकर, राजधानी का आगन रौंद डाला। (३:३८२) राजप्रासाद का पश्चिम द्वार जला दिया। (३:३८३) राजा ने मल्लिक के पुत्र नोरुज को कारा में डाल दिया। (३:३९७) सैयिदों के पूर्ण अधिकार प्राप्त करने की भूमिका तेयार हो गई । (३:३९९) आयुवत का सब धन हरण कर लिया (३:४०१) जहाँगीर ने पश्चात्ताप किया। कारागार मे जुग भट्ट उससे सुवर्ण संग्रह राजा के लिए माँगने गया। क्रुद्ध होकर, उसने उत्तर दिया-'दिशाओं में भागे हुए भयभीत सैयिदों को लाकर, मैंने (उन्हे) सम्बधित किया। इस राजा के कृतघ्न होने पर, वे ही मेरे द्रोही हो गये। (३:४१३) सैयिदों का मन बढ़ता गया। शोषण नीति अपनायी। सैयिदों के अधिकारी जन 'आनन्द पुष्प' 'दीनारखण्ड' की प्राप्ति आदि नामो से, प्रजा पीड़न पूर्वक, धन संग्रह किये। (३:४२२) सैयिदों ने अधिकार प्राप्त होते ही; दूतों को भेजकर, सैयद नासिर आदि को बाहर से बुलाया। (३:४२६) किन्तु नासिर काश्मीर में प्रवेश करते ही, ज्वर से मर गया (३:४२९) राजमहिषी के भाग्य रूप सौभाषय से, सम्प्राप्त विभव से ऊजित, सैयिद काश्मीरियों की तृण बराबर भी नही समझते थे । (३:४२३) राजा उनके आदेशों का आँख मूद कर पालन करता था । (३:४३४) राजमहिषी के कारण नारियों का प्राबल्य राज्य में हो गया। (३:४३५) स्त्रियाँ राजा की अन्तरंग हो गईं न कि मन्त्री तथा सेवक । (३:४७१) राज्य स्त्रियों के आधीन था। (३:४७५) सैयद तथा उनके अधिकारी घूस, कौशल पूर्वक प्रजा पीडन तथा स्त्री व्यसन में लिप्त हो गये। (३:४६) सैयिद अधिकारी राहु के समान, समस्त मण्डल को आक्रान्त कर लिए। (३:४७८) सैयिदो ने विरोधियों का संहार आरम्भ किया। (३:४४४) सैयिद मियाँ मुहम्मद जैनुल आबदीन का दौहित्र था। वह भी काश्मीर मे प्रभाव विस्तार करने लगा। (४:४४८) 'सैयिदों तथा भार्या के आधीन बुद्धि हीन राजा, भृत्य कार्यों मे तटस्थ और व्यवहार विशृङ्खलित हो गया । (३.४६९) काश्मीरी पुरुष रत्नों को सैयिदों ने उत्पाटित कर दिया। लोग प्राण रक्षा के लिए, बाहर चले गये। सैयिदों और काश्मीरियों में स्पर्धा हो गई। (३:४७७) श्रीवर लिखता है-'दुराग्रहों से ग्रस्त संस्कार वाला, वह मियाँ हस्सन विश्वस्तजनों के कहने पर भी, रावण के समान, सन्मार्ग पर नही चला (३:४८२) ।' सैयिदों के कारण परशुराम आदि मद्र देशवासी अपने अनिष्ट की आशंका कर, काश्मीर देश से बाहर जाने की आज्ञा माँगे (३:४९८) __ सैयिदों ने राजा को दुर्बल बना दिया। राजकार्य से मन हटाने के लिए, मृग समूहों का शिकार हेतु उसे ले गये । (३:५०३) श्रीवर एक काश्मीरी होने के कारण शोक प्रकट करता । सैयिदों के सेवकगण जनता के पशु तथा मद्य आदि अपहृत कर, अपना घर भरने लगे । (३:५१६) सैयिदों की अलग एक सभा मण्डली बन गई, जिसमें काश्मीरी नही थे । (३:५३३) सुल्तान हसन शाह मृत्यु-मुख हो गया। उसने सैयिद हस्सन को बुलाकर कहा-'मैं जीवित नहीं रहूँगा। मेरे शिशु राज्य योग्य नहीं हैं । बहराम खाँ का पुत्र बन्दी है। मेरे पुत्रों की रक्षा नही Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैनराजतरंगिणी करेगा। अच्छा है। आदम खाँ के सन्तान (फतह खाँ) को लाकर अभिषिक्त करो। (३:५४०-५४१) अथवा आपकी यह कन्या, (राजमहिषी) जो कहे, वह करो' (३:५४२) सैयिदों ने सुल्तान की इच्छा के विपरीत कार्य किया। आदम खां का पुत्र सैयिद वंशीय कन्या से नही था । अतएव सैयिदो ने सुल्तान की मृत्यु के पश्चात् उसके और अपनी कन्या के पुत्र मुहम्मद खाँ को जिसकी उम्र केवल सात वर्ष थी, सुल्तान बनाकर, राजतन्त्र पर पूरा अधिकार कर लिया। सैयिद विप्लव तथा खान विप्लव : श्रीवर दो विप्लवों का वर्णन करता है-खान विप्लव तथा सैयिद विप्लव । सैयिदों का विप्लव खान विप्लव की अपेक्षा अधिक भयंकर था । सैयिदो का विप्लव लौकिक वर्ष ४५६० = सन् १४८४ ई०, वैशाख मास चतुर्दशी को हुआ था। सैयिदों ने काश्मीर पर अधिकार करने का प्रयास किया। वे सभी राजकीय स्थानों पर नियन्त्रण चाहते थे। काश्मीरी कुलीन तथा सामन्त वर्ग को यह बात खलने लगी। सैयिद एवं काश्मीरियों में संघर्ष छिड़ गया। एक दूसरे को मिटाने के लिए कटिबद्ध हो गये। सैयिदों को राजप्रासादीय समर्थन प्राप्त था। परन्तु केवल प्रासादीय समर्थन द्वारा सैयिद स्थिति सुदृढ करने में सफल नहीं हो सके । काश्मीरी जनता उनके कुव्यवहारो, गर्व एवं शोषण से ऊब गई थी। बहराम खाँ के चौबीस वर्षीय पुत्र युसुफ की अनायास हत्या कर दी गई । जनता क्षुब्ध हो गई। जनता की सहानुभूति सैयिदों ने खो दी। सैयिदो ने सुल्तान पर कड़ा नियन्त्रण रखा था। बिना अनुमति अन्तः पुर में प्रवेश वजित था। (४:१५) सैयिद काश्मीरी विद्वान् एवं शास्त्रज्ञों की निन्दा करते थे। घर मे वे कामिनियों से घिरे रहते थे। ऐश करते थे। बाहर वाज पक्षी से शिकार खेलते थे । (४:१६) दोषपूर्ण व्यवहार, वलि, क्रूराचारी, अभिमानी, लोभ के कारण दुरूह, यमदूत तुल्य कष्टदायक, दुःशीलता के कारण अधिकार अनभिगम्य, मात्सर्य युक्त, उन सैयिदों से प्रजासहित सब सेवक विरक्त हो गये । (४:१७) सैयिद काश्मीरियों को द्वेष दृष्टि से देखते थे। उनका अनादर करते थे। (४:२२) काश्मीरियो की जो भी पुरानी एवं प्रचलित मान्यतायें थीं, उनके विरोधी थे। सैयिदों ने काश्मीरियों के विरुद्ध मन्त्रणा आरम्भ की। काश्मीरियो के विरुद्ध योजना बनने लगी। काश्मीरी सतर्क हो गये । मद्र निवासी काश्मीर मे बडी संख्या में थे। वे भी शंकित हो गये । काश्मीरी और कद्र मिल गये । (४:२४) उनका मोर्चा सैयिदों के विरुद्ध बन गया। मद्रो ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। सैयिदों के विरुद्ध विद्रोह के लिये कृतसंकल्प हो गये। (४:२५) । षड्यन्त्र का पता रानी को लगा । सैयिदों को सतर्क किया । उद्धत सैयिदों ने बात अनसुनी कर दी। (४.२८-३०) काश्मीरी जोन राजानक आदि ने मद्रों को भड़का दिया। मद्र उत्तेजित हो गये। सैयिदो का बध करने का निश्चय किये । अमृतवाडी में सैयिद एकत्रित थे। मद्र नेता परशुराम ने वहाँ प्रवेश किया। चतुःखण्ड मण्डप पर स्थित, सैयिद आगत मद्रों को देखकर शंकित हो गये। (४:४०) सैयिदों का पक्षपाती सिंह भट्ट था। परशुराम ने सर्वप्रथम उसका बध कर दिया (४:४३)। सैयिद जब तक सावधान होते, मद्रों ने हमला कर उनका सफाया कर दिया । (४:४६) तीस सैयिद मार डाले गये। (४.४८) घर में जिस प्रकार गौ का बध करने से पाप का भय (सैयिदों) को नही हुआ था, उसी प्रकार सैयिदों के बध से मद्रों को घृणा नहीं हुई। (४:५०) उनकी लाशें नग्न अनाथ तुल्य पड़ी रही। राज प्रासाद के फाटक में आग लग गयी। मद्र सहित, विद्रोही दल, राजा के घोड़ों पर चढ़कर, मुक्तामूलक नाग के समीप पहुँच गया। वहां परस्पर मन्त्रणा हुई। निश्चय हुआ। सैयिदों से युद्ध Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका कर, शेप का भी काम तमाम कर दिया जाय । ( ४:६३-६४ ) सुल्तान सैयिदों का पक्ष करता है, रानी सैयिद कन्या होने के कारण सैयिदो का पक्ष करती है, अतएव काश्मीरियों ने बहराम खां के पुत्र को बन्धन मुक्त कर दिया । यिद शंकित हो गये । किन्तु बहराम खा के पुत्र की अकारण हत्या कर दी गयी । ( ४.७८) काश्मीर जनता उनके इस लोमहर्षण पूर्ण हत्या से क्रुद्ध हो गयी लूट-पाट होने लगी सुभग एवं सुन्दर वेश युक्त होकर, राज गृह मे जो लोग प्रवेश किये थे, जिनके घोड़ों की टापों से उठी धूलो से भूमि अन्धकारमय हो गयी थी, वे लोग ही, दो तीन शिविकाओं मे जीर्ण वस्त्र युक्त, गिरते रक्त धारा सहित नृप गृह से निकले। (४.९१) सैविदों ने वितस्ता नदी पर मोर्चेबन्दी की जलाल ठाकुर आदि काश्मीरियों ने मौका सेतु बन्ध काट दिया। काश्मीरी मद्रों से समझौता कर लिये। ( ४:९६) संविदों ने विप्रस्य में शिविर लगाया । ( ४.९७ ) यिदों की सत्ता काश्मीर मण्डल से समाप्त हो गयी थी। केवल श्रीनगर उनके अधिकार में था । ( ४:९९ ) सैविदों ने धनबल पर सेना संघठित करना चाहा, जिन्हें कभी एक कौड़ी भी नहीं मिली थी। वे स्वर्ण एवं रुपया हाथ में लिये घूमने लगे कारीगर और गाडीवानों ने भी संविदों से धन लेकर शस्त्र ग्रहण कर लिया। ( ४.९९-१००) राजकीय अश्वो पर सैविदों के नौकर, सड़कों पर घूमने लगे। (४:११) काश्मीरी सामन्त पारस्परिक विरोध भूल कर संयिदों से राज सत्ता प्राप्त करने के लिए, एक सूत्र बद्ध हो गये । जाल डागर मे काश्मीरी सेभा एकत्रित हुई। नगर मे मद्र लोगों ने अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली । यह समाचार फैलते हो चारों ओर से आकर सशस्त्र काश्मीरी संघठित हो गये धन नहीं था । कोशाभाव में, वे धान्य संभार, नाविकों द्वारा मंगाकर वेतन देने लगे । ( ४:११० ) । काश्मीरियों के पास काश्मीरी और संविदों की सेनाएं वितस्ता के आर पार शिविर लगाये थी। प्रतिदिन संघर्ष होता था । ( ४.११२) इस उपद्रव काल में अवांछनीय तत्त्व उभड़ आये । लूट पाट एवं जनता को पीड़ित करने लगे । (४:११०) सैयिदों ने रक्षार्थ पाँच हाथ चौड़ी खाई खुदवाई | ( ४ : १२२) रुद्र राजानक के निकट एक दूसरी खाई खोदी गयी। नगर मे लकड़ी का अभाव होने पर, दिद्दामठ एवं रुद्र वन के गृहों से लकडियाँ ले ली गयी । राज्य प्रासाद प्रांगण अश्वारोही स्वच्छन्दता पूर्वक नित्य घूमते थे । में संघर्ष के साथ ही साथ घरों मे आग लगाने का भी कार्यक्रम राजानक हसन ने आरम्भ किया । ( ४ : १२२) उस समय पारस्परिक भय से, नष्ट धैर्य सैयिदों एवं काश्मीरियों की सैन्य स्थिति काकतालीय न्याय जैसी हो गयी थी । ( ४:१२९) लोगों के मस्तक काटकर लाठी पर टांग दिये जाते थे । ( ४:१३० ) पद्मपुर आदि स्थानों में लूट मार होने लगी । विप्लव को अग्नि ग्रामों तक पहुँच गयी । एक पक्ष दूसरे के गृहों में आग लगा देता था। लहर आदि स्थान अग्निदाह मे भस्म हो गये। ( ४:१३५) काश्मीरियों ने जहाँगीर मार्गेश को सन्देश भेजा— 'विजय के लिए इच्छुक हम सब काश्मीर मण्डल मे फँसे है, और पुर मात्र में अवशिष्ट वे सैयिद घिरे है । (४.१३९) वहाँ शीघ्र आकर, राज्य की रक्षा करनी चाहिए । अन्यथा सेविद पुत्र शिशु सुल्तान का राज्य नहीं स्थापित करेगा । ( ४:१४३) जहाँगीर मार्गेश अविलम्ब पर्णोत्स ( पूछ) मार्ग से सदल बल काश्मीर के लिए ही प्रस्थान किया । ( ४:१४४) उसके आगमन का समाचार सुनते ही सेविद काँप उठे ( ४:१४५) सेवियों ने सन्धि का प्रस्ताव रखा । ( ४:१४६) फारसी लिपि में मार्गेश ने उत्तर दिया- ' बहराम खाँ आत्मज ( युसुफ ) राजपुत्र को किस लिये मारा गया ? ( ४:१५४) नुरुल्ला आदि के वध के कारण, यहाँ किसको आप लोगों पर विश्वास होगा ? Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैनराजतरंगिणी और यहाँ शिशु राज का कोश लूट लिया गया है। राज द्वार पर केवल एक लोहे की घंटिका मात्र शेष रह गयी है।' (४:१५५, १५६) । सन्धि के लिए सैयिदों को शर्त भेजा गया। दूतने कहा-'शिशु सुल्तान का जो धन अपहरण किया गया है। वह कोश मे रख दे, शस्त्र त्याग दे, पश्चात् सन्धि की मन्त्रणा की जाय।' (४:१५९) सैयिदों ने काश्मीरियों के सन्धि शर्त को नही माना। (४:१६२) सैयिद कौरवों के समान, पाण्डव काश्मीरियों से, युद्ध करने के लिए सन्नद्ध हो गये । (४.१६४) काश्मीरी सेना सैयिदों से युद्धार्थ श्रीनर पहुँची। (४:१६५) डोम्ब आदि इस स्थिति से लाभ उठाये। रण त्यागकर, लूट पाट करने लगे। (४:१६९) सैयिदों को विजय सन्देहास्पद हो गयी। तथापि वे युद्ध हेतु सम्मुख आये। (४:१७२, १७३) घोर युद्ध आरम्भ हुआ। युद्ध दर्शक पुरवासी भी मारे गये। (४:१८२) सैयिदों ने ब्राह्मणों के घर स्थित परदेशियों को भी, यह कर मार डाला कि वे मद्र निवासी थे। (४:१८३) सैयिदों ने वैद्य पण्डित यवनेश्वर को, जो घर मे बैठा था, अकारण मार दिया। (४:१८५) लोगों को भयभीत करने के लिए उसका मस्तक राजपथ पर रख दिया गया । (४:१८७) मलिकपुर से लोष्ट विहार तक मृत शव इन्धन की लकड़ी की तरह पड़े थे। (४:१८९) । सैयिदों को इस युद्ध मे तात्कालिक विजय मिल गयी। सैयिदों ने वामप्रस्थ मे बाजा बजाकर, विजयोत्सव मनाया । (४:१९१) सैयिदों ने गलती की। काश्मीरियों का पीछा नहीं किया। काश्मीरी पुनः संघटित हो गये। दोनों सेनाओं का सामना हुआ । वितस्ता पुल टूट गया। दोनों पक्षों के अनेक सैनिक ड्ब मरे । (४.१९५) नागरिक युद्ध देखने आये। सैयिदों ने उनके सम्मुख छिन्न मुण्डराशि रख दी। (४:१९७) लट्ठों पर मुण्ड भयभीत करने के लिए लगा दिये गये । (४:१९८) काश्मीरी हतोत्साहित नहीं हुए। पुनः चारों ओर से एकत्रित हो गये। समस्त काश्मीर मण्डल में सै यिदों के विरुद्ध लड़ने के लिए आह्वान किया गया । धनघोर युद्ध हुआ। वितस्ता में स्त्रियाँ जल भरने गयी थी। बाणों से उनका अंग विदीर्ण हो गया। वे वही मर गयी। काष्टवाट के दौलत सिंह, मल्हड़ हस, शाहि भंग के राजपुत्र, सिन्धुपति वंशीय, पथगह्वर के वीर, खश, म्लेच्छ एवं अन्य लोग भी आकर, घेरा डाल दिये । काश्मीरी विजय प्राप्त नहीं कर सके। सैयिदो के आह्वानन पर तातार खां ने तुरुष्क की सेना सहायतार्थ भेजी। (४:२१६) किन्तु काश्मीरियो ने युद्ध की नवीन योजना बनायी। काश्मीरी गुरेला नीति का वरण किये । सैयिदों पर छापा मारकर, अस्त्र, शस्त्रादि अपहृत करते थे। (४:२२७) दो मास तक संघर्ष चलता रहा। कोई भी दल शिथिल नही हुआ। (४:२३१) एक दूसरे के सैनिकों को पकड़कर, शूली आदि पर चढ़ाकर मारने लगे। काश्मीरियों का घेरा दृढ़ होता गया। उन्होंने सैयिदो को सन्देश भेजा-'केवल नगर मे रहकर कितने दिन तक वे ठहरेंगे ? अन्न या सहायता नही मिलेगी।' सैयिदों ने उत्तर दिया--'अन्न की कमी से भूख की पीड़ा से, अथवा भय से, वहाँ से नही जायेगे । तुरुषकों को किस वस्तु से घृणा है ? हम लोग सर्व मांस भोजी है । जब तक पशु, गो मांस, पर्याप्त है, तब तक रहेंगे। सैयिद बली थे। अतएव काश्मीरियों ने नीति से काम लिया। सेना को तीन भागों में विभक्त किया । मद्र सैनिकों ने विजय या वीर गति प्राप्त करने की प्रतिज्ञा की। (४:२५०) काश्मीरियों ने स्व पक्ष सैनिकों के पहचान के लिए उनके शिर पर पत्र शाखा रख दिया। दोनों ओर से काश्मीरी सैनिक होने के कारण पता नही चलता था। कौन किस पक्ष का सैनिक था। (४:२५४) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ७७ मद्र ब्यूह बद्ध हो गये । सैयिदों से पुनः युद्ध आरम्भ हुआ। (४:२६५) परशुराम ने युद्ध के प्रारम्भ में सामयिक भाषण दिया-'हे वीरो! समर में प्रसन्नता पूर्वक युद्ध करो। पीछे मत हटो। ये निर्दयी सैयिद विजयी होंगे, तो क्रोध के कारण सर्वस्व हर लेंगे। यदि विजय प्राप्त करोगे, तो अपने वैभव से सुख मिलेगा।' (४:२६६) मद्रों और सैयिदो के मध्य घनघोर युद्ध होने लगा। मद्र एवं काश्मीरी वीर एक साथ युद्ध रत थे। दोनों का लक्ष्य सैयिदों का पराभव था। (४.२७२) सैयिद सम्मिलित सेना के सम्मुख टिक नही सके । काश्मीरियों की विजय हुई। (४:२८५) समुद्र मठ से पूराधिष्ठान तक शवों के समूह इन्धन के समान पड़े थे । (४:२८८) रुद्र बिहार मे सैयिदों ने अग्निदाह किया था। इससे क्रुद्ध होकर मार्गपति ने अलाभपुर जलाने के लिये आग लगा दी। (४:३१५) सैयिद हमदान का खानकाह भी अग्नि दाह में भस्म हो गया (४:३१७) इस भयंकर स्थिति में चाण्डालों ने नगर लूटा। (४:३१८) दरिद्र अमीर और अमीर दरिद्र हो गये । (४:३१९) युद्ध भूमि मे पड़े शवों पर जो आभूषण या कुछ द्रव्य थे, उसे भी लोगों ने लूट लिया। (४:३२०) लुटेरे परस्पर लूट के लिए लड़ने लगे। मत्स्य न्याय प्रच्छन्न हो उठा। (४:३२१) विटों ने कुमारी कन्याओं एवं स्त्रियो के साथ बलात्कार किया। (४:३२६) दस्यु लोग मदमत्त होकर लोगों को पीड़ित करने लगे। (४:३२८) कितने ही लोगो का संचित धन नष्ट हो गया। कितने वन्धु वियोग से दुःखी हो गये। कितनों की भूमि जबर्दस्ती छीन ली गयी । (४:३३३) सौ में कोई एक सुखी था। लौ० ४५६० = सन् १४८४ ई०, के श्रावण मास मे यह विजय प्राप्त हुई थी। इस युद्ध मे लगभग दो सहस्र व्यक्ति मारे गये थे। (४:३३२) श्रीवर उपसंहार मे लिखता है-'सैयिद वध से पहले अंकुरित, क्रम से पल्लवित, पारस्परिक वैर वृक्ष, उस दिन फलित हो गया' । (४:३३३) आततायी पुरवासियों को दुःखी करते थे। लोगों की कृषि फल हर लेते थे । बार बार भूमि में फलयुक्त वृक्षों का इन्धन के लिये तुरन्त उच्छेद किया गया। इस प्रकार सैयिदों के द्वेष के कारण चारों ओर प्रवरपुर मे महान उपद्रव हुआ। (४:३३४) काश्मीरियों द्वारा त्यक्त अली खा प्रमुख सैयिद नाम मात्र के लिये अवशिष्ट रह गये। (४:३३५) मन्त्रियों ने मरुतों के समान, उस बाल चन्द्र (सुल्तान) को, सैयिद रूप मेघ पुंज से रहितकर, पुरवासियों को आनन्दित किया। (४:३४०) मन्त्रियों ने सब सम्पत्ति अपहृत कर, कुटुम्ब सहित अली खान आदि सैयिदों को मण्डल से निर्वासित कर दिया। (४:३४४) काश्मीरी मन्त्रियों के एक मत हो जाने पर, अविशंकित परशुराम सत्कार प्राप्त कर, अपने देश (मद्र) लौट गया। (४:३४४) विधाता के विपरीत होने पर, कहीं गति नहीं है । (४.३९४) शिशु सुल्तान सैयिदों के कठोर हस्त से मुक्त हुआ। (४:४३९) खानविप्लव: 'पूर्व के सैयिद विप्लव की अपेक्षा खान का यह विप्लव बड़ा था। पाद रोग की अपेक्षा, गले का रोग अधिक भयावह होता है । (४:४४५) यह विप्लव लौकिक वर्ष ४५६१ = सन् १४८५ ई० में हुआ था। (४:४९९) आदम खा का फतह खां पुत्र, जैनुल आबदीन का पौत्र तथा सुल्तान मुहम्मद खां का चाचा था। ज्येष्ठ पुत्र होने पर भी आदम खां राज्य प्राप्त नहीं कर सका । मझला भाई हैदर शाह सुल्तान बन गया । हैदर शाह के पश्चात् उत्तराधिकार उसी के वंश मे चलता गया । मुहम्मद शाह उसका पौत्र था । जैनुल आबदीन का प्रपौत्र था। फतह खां ने अपने पैतृक राज्य प्राप्त करने का संकल्प किया। आदम खां की मृत्यु मद्र मण्डल में हो हो गयी थी। वही फतह खां शिवरात्रि के दिन पैदा हुआ था । आदम खां राजा मद्र के पक्ष से युद्ध करता Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैनराजतरंगिणी . : मार। गया था। फतह खा नाना के घर पला था। तातार खां उसका रक्षक था। फतह खां कुछ दिनों तक जालन्धर में निवास किया था। सैयिदो के भय से बहिर्गत मार्गेश जहाँगीर ने पितामह का राज्य प्राप्त करने के लिये फतह खा को पत्र लिखा । तातार खा की मृत्यु पश्चात् उसके पुत्र हस्सन खां ने फतेह खा का पालन पोषण किया था । फतह खां राज्य प्राप्ति हेतु काश्मीर मण्डल की ओर प्रस्थान किया। शृगार उसे राजपुरी लाया । राजपुरी का राजा मार्गश इब्राहीम से द्वेष रखता था। फतह खां को आश्रय दिया। राजाजनक, ठक्कुर दौलत आदि डामर फतह खां से मिल गये । मसोद राजानक ने भी खान का पक्ष ग्रहण किया । (४:४०९-४१४) काश्मीर के अवाछनीय तत्त्व, अपराधी, ऋणी जो भृत्य के समान सेवक बना लिये गये थे, चोर विट एवं दरिद्र खान के आगमन से प्रसन्न हो गये। उन्हे लूट-मार करने का सुन्दर अवसर दिखायी पड़ने लगा । (४:४१६) राज्य वैभव एवं राजकीय पदलोलुप खान की सेवा में उपस्थित हो गये । (४:४१७) काश्मीर मण्डल का राजा शिशु था। सत्ता मार्गेश तथा मन्त्रियों मे थी। लोभी चारों ओर से खान के पास अन्य आश्रय त्याग कर आने लगे । (४:४१९) खान बढ़ने लगा। उसकी वार्ता सुनकर, लोग कम्पित हो उठे । खान के पूर्व मार्गपति के पास खान के मन्त्रियों ने पत्र भेजा-'आपके लेखो द्वारा तुरुष्क देश से इस खान को काश्मीर तुम्हीं लाये हो। हे ! मार्गपति ! आप कुलस्वामी भी कैसे उपेक्षा कर रहे है ? स्वयं किया हुआ पाप पश्चात्ताप के लिए कैसे हो गया ? शिशु के ऊपर राज्य भार डाल कर, दूसरे लोग मण्डल का उपभोग कर रहे है । व्यवहारोचित एवं शुद्ध, यह क्यो बाहर रहे ? अथवा यदि मण्डल मे उसका पितृभाग दे देते हो, तो वह काश्मीर के बाहर ही स्थित रहकर और भीतर यह राजा बना रहे । यदि यह शर्ते स्वीकार नही है, तो युद्ध मे दोनों सेनाओं के बध का दोष आप पर होगा।' (४:४२७-४३०) मागेंश ने उत्तर भेजा-काश्मीर भूमि पार्वती है, वहाँ का राजा शिवांशज है। कल्याणेछुचक विद्वानों को दुष्ट होने पर भी, उसकी उपेक्षा या अपमान नहीं करना चाहिए। इस देश में तपस्या द्वारा राज्य प्राप्त होता है, न कि पराक्रमों से अन्यथा आदम खाँ आदि लोगों ने अपने क्रमागत राज्य को क्यों नही पाया? जिस क्रम से वह आया, उसे त्यागकर राजा के रहते विघ्न हेतु उसे प्रवेश कैसे दिया जाय ? यदि यह खान मेरा मत मानता है, तो सर्वथा पूजनीय है । अरुण को अग्रसर कर, उदयोन्मुख सूर्य पूजित होता है । कृतघ्न भाव प्राप्त, सम्पत्तियाँ, चिर काल तक मनुष्यो के सुख के लिए नही होती, अवश्य व्यसन युक्त भोग शरीर के रोग के लिए ही होते है। मैंने उसे राजा नही बनाया है। दूसरों ने उसे राजा बनाया है । मैं उसकी रक्षा कर रहा हूँ। क्या राजा को सैयिदों के हाथों से मुक्तकर, अब आप लोगों के हाथों सौप दूँ ? (४:४३३-४४०) खान का प्रथम बार काश्मीर प्रवेश खान की सेना ने काश्मीर में प्रवेश किया। साथ ही डोम्ब, तथा खसादि लूट-मार पर तत्पर हो गये । मार्गों पर पथिक, चोरों द्वारा लूट लिये जाते थे। निर्बलों पर बलवान हावी हो गये थे। नृप रहित देश तुल्य, अराजकता फैल गई। जनता अरक्षित थी। रक्षा हेतु निवास त्यागकर, पशुधन आदि सहित दक्षिण चली गई। (४:४४०-४६) खान की सेना खेरी तथा अर्धवन राष्ट्रों में प्रवेश की। खान की तात्कालिक विजय हुई। भागसिंह खान का सलाहकार था। उसके कारण बिना अवरोध खान काश्मीर पहुँच गया। मल्ल शिला पर शिविर लगाया। सैनिकों ने कराल देश के निरालम्ब निवासियों को लूट लिया। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ७९ पूर्व काल में सैयिदों के अभ्यस्त एवं रखी वस्तुओं के लूटे जाने के अनुभवी, पुरवासी लोग भयभीत होकर, गृह सम्पत्ति को पुर से गाँवों में रख दिये । ( ४४५९) नगर में लूट होने लगी । नगरी मुषित वारांगना सदृश, उत्तम नही रह गई । (४ : ४६०) मार्गेश सुल्तान सहित गुसिकोड्डार में शिविर लगाया । ( ४:४३१) सेना को तीन भागों में विभक्त किया। ( ४:४३२) खान मार्गेश ने उसका पीछा किया । खान भी खान मरुग स्थान पर स्थित हो गया ( ४:४६३) कल्याणपुर गया विचित्र स्थिति थी खान पक्ष में काश्मीरी और विदेशी थे सुल्तान पक्ष में केवल कायमीरी थे । (४:४६६) खान तथा सुल्तान की सेना में विकट वृद्ध होने लगा। मार्गेश ने अद्भुत रणकौशल का परिचय दिया। काश्मीरी सेना पलायित हो गयी। परन्तु इस झूठी अफवाह के सुनते ही पुनः छोटी खान गिरफ्तार हो गया है। (४.४८६) पान के शिविर में अव्यवस्था फैल गयी। शृंगार सिंह आदि काश्मीरी सैन्य में उत्पन्न नवीन उत्साह देखकर भाग खड़े हुए। पलायित सेना को खसों तथा डामरों ने खूब लूटा | संघर्ष के पश्चात् जहाँगीर मार्गेश सुल्तान को साथ ले जमाल मरुग पहुँचा । ( ४:५११) सन्देह पर, मगल नाड ग्राम जला दिया गया । ( ४:५१२) लोगों के पास तन ढकने के लिए वस्त्र नही रह गया । ( ४:५१५ ) मार्गेश युद्ध में विजयी हुआ। श्रीनगर में विजयोत्सव मनाया गया । खान पक्ष में गये लोगों को दण्डित किया गया । खान का द्वितीय बार प्रवेश : भैरव गल में स्थित खान ने द्वितीय बार पुनः काश्मीर प्रवेश का विचार किया। (४.५२४) दो मास रहकर, सैनिकों के साथ उसका पुन. आगमन हुआ । शूरपुर पहुँचा । जहाँगीर मार्गेश सुल्तान सहित सामना हेतु आया । ( ४:५२६ ) इस समय का बन्धन मुक्त सेफ डामर खान से मिल गया । मुख्य सलाहकार बन गया। (४:५४२) मार्गपति ने पुनः सन्धिहेतु खान के पास दूत भेजा । ( ४:५४८ ) खान की सेना मे फूट पड़ गयी। खान भयभीत हो गया । सेना सहित पीछे हट गया । ( ४.५५५) काश्मीर मण्डल की बुरी अवस्था थी । शासन व्यवस्था नही रह गयी थी । परस्पर ईर्ष्या-द्वेष के कारण, जो जिसे चाहता, मार देता था। न्याय का दर्शन दुर्लभ था । नगर मे डेढ़पल नमक का मूल्य २५ दीनार हो गया था । ( ४-५७९) खान का तृतीय बार कश्मीर प्रवेश लोकिक वर्ष ४५६२ सन् १४८६६० मे खान ने काश्मीर मे तृतीय वार मार्गेश ने अपनी शक्ति ठीक न देखकर, कुटिल नीति अपनायी (४०५८०) दौहित्र खान मोर सिकन्दर का कम्पनाधिपति बनाया। स्थाम ( सैनिक छाउनी) मे भेज दिया । (४.५८१) भैरव गलत स्थान पर खान पहुँच गया। मार्गेश शूरपुर में उसका मार्गांवरोध करने के लिए सुल्तान के साथ पहुँचा। ( ४:५८४) बावण मास में खान काचगल मध्य पहुँच गया (४:५८६) खान तथा मार्गे की सेना में कुछ संघर्ष हुआ। युद्ध में कुछ सैविद सैनिक, जो सुस्तान के पक्ष में में मारे गये (४:५९१) मुसि । - कोडर में युद्ध हुआ। धीवर लिखता है तो सैविद के युद्ध में, और न खान के भट क्षय नहीं हुआ, जैसा कि गुसिकोड्डार के युद्ध में हुआ ।' (४.५९३ ) इस स्थिति का दुर्बलों को पीडित करने लगे । - प्रवेश का विचार किया। मार्गेश ने हाजी खाँ के प्रथम युद्ध मे बैसा लाभ उठाकर बली खान के विदेशी सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। ( ४:६०४) खान पुन: लौट गया। झूठी अफवाह फैलायी गयी। सुल्तान की सेना ने खान को बन्दी बना लिया। ( ४:६०५ ) खान की सेना का साहस टूट Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी गया । खान तीसरी बार काश्मीर मण्डल में प्रवेश और बाहर निकल कर पर्णोत्स ( पूछ ) पहुँचा । मार्गेश चिन्तित हो गया । उसकी मन स्थिति का श्रीवर वर्णन करता है - 'समय अधर्म बहुल हो गया है। सभी लोग द्रोह परायण है । राजा बालक है । मन्त्रि मण्डल स्वेच्छाचारी है। अपने लोग नियन्त्रणहीन है । खान पक्ष मे जाने के लिए उत्सुक है। पुरवासी अनुराग एवं राजगृह कोश रहित है, सर्व सामर्थ्यं रहित सत्ता मुझ वृद्ध के लिए नहीं रह गई है।' शस्त्राघात से चिन्तित मार्गेश अपने घर मे दो मास तक पड़ा रहा ।' (४:६०८-६१०) ८० 1 खान का चौथी बार काश्मीर प्रवेश : खान घटिका सार पर्वत से काश्मीर गये सैनिकों के साथ चौथी बार राज्य प्राप्ति की इच्छा से लोट आया। मार्ग के गाँवों मे आग लगा दी गयी। यह स्थिति देखकर, खान पुनः सेना लेकर युद्ध के लिए निकला । (४६१४ ) थोडी सेना होने पर भी काश्मीरी सेना को खान ने परास्त कर दिया । ( ४:६१९ ) देश में अराजकता फैल गई। खसो और डाकुओं ने जनपदों को लूटा। उनके भय से गंगी स्त्रियों एवं पुरुष घर वार छोड़कर भाग गये । श्रीवर लिखता है - 'गरजते हुए दुष्ट खश डाकुओं ने जनपदो को लूट लिया । उनके भय से सब कुछ त्याग कर नरनारी नग्न ही चली गईं। मार्ग मे भी पूर्वापकार स्मरण कर बहुत से बली लोगो की अबलाओं को मार डाला । वह राज विपर्यय कल्पान्त काल के सदृश अति नयकारी था । ( ४.६३३) नगर मे धनियों के उस दुःसह सर्वस्व लुण्ठन के समय, दरिद्र अतिधनी एवं अतिधनी दारिद्र्य के भागी हो गये । (४६३४) पत्र, पुष्प, एवं फल से सुन्दर वृक्ष एवं तरल तरगों से युक्त नदियाँ, शब्द युक्त पिक आदि जो होते है, वे हिम ऋतु मे क्रमशः शीर्ण, शुष्क एवं मूक हो जाते है— काल विपर्यय से क्या नहीं होता ? (४:६३५) उस राजा के बल सहित नष्ट हो जाने पर वे राज वल्लभ जन, वे सुन्दर स्त्रिय वे सेवक, कथावशेष हो गये ।' (४.६३६) 1 राजविपर्यय के समय उस नगर में खसों ने दाह के अतिरिक्त सैयिदोपद्रव में होने वाले वध की अपेक्षा अधिक लूट की। ( ४:६४१) कुछ प्रधान वणिक, जो करोडों के संग्रह से वंचित हो गये थे, वे तृण मात्र से अंगों को ढककर, प्राणों की रक्षा कर, स्थिर रहे । ( ४:६४२) 'यदि जीत होगी, तो तुम लोगो को तीन दिन प्रलोभन देने पर, मन्त्री लोग सापेक्ष हो गये । उसी प्रकार काश्मीर में विदेशियों ने किया। तक लूट की छूट दूँगा, इस प्रकार विदेशियों द्वारा उत्कोच ( ४:६४३) जिस प्रकार काश्मीरी बाहर जाकर लूट किये थे, समय पर क्या-क्या देखा नही जाता ? ' ( ४ : ६४४) रक्षित किया था, उसे भी ले लिया चारों ओर फैलाकर मैं छुट गया कुछ लोगों ने धन सहित कुम्भो को जो पक्षियों के तालाबों में ( ४:६४८) कुछ लोगों ने टूटे-फूटे भाण्ड एवं करण्ड आदि को घर में हूँ।' इस व्याज से खसों को भी ठग लिया । ( ४:६५०) नगर में धनिकों द्वारा गर्त में हर कदम पर रखे गये, धनों से उस समय वसुन्धरा वास्तव में (वसुन्धरा) धन को धारण करने वाली हो गई थी। ( ४:६५२) राजविपर्यय पर श्रीवर अपना मत व्यक्त करता है— 'वह राजविपर्यय सार्वजनिक कोश रूप, सर्प को दूर करने के लिए डिण्डिम, (नगाड़ा- डुग्गी), द्वेषी प्राचीन सेवक रूप कमल बन के लिए हेमन्त काल का उदय, भूपति के पृथ्वी रूप मधु गोलक (छत्ता) पर स्थित मधुमक्खी समूह के लिए घूमोद्गम तथा नृप सभा रूप उद्यान द्रुमावली के लिए वसन्त ऋतु था । ( ४:६५४) पुष्प लीला : जैनुल आबदीन चैत्र मास में पुष्पलीला उत्सव हेतु पुत्रसहित नौफारूड, महवराज्य गया। (१.४:४२ ) राजा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ भूमिका वितत्सा में नाव पर अवन्तिपुर और वहाँ से विजयेश्वर गया । (१:४:४) विजयेश्वर में उसने उत्सव में भाग लिया । वहाँ नाटक, संगीत, नृत्य, गान होता था । (१ ४:५-११) हैदर शाह के समय मे श्रीवर पुष्पलीला का उल्लेख करता है । हैदर शाह भी मडव राज्य पुष्प लीला के लिये गया था। (२:११४) सुल्तान हसन शाह के पुष्प लीला का उल्लेख श्रीवर करता है-'राजा सैयिद सहित, कुसुम क्रीड़ा करने के लिये, भवनोपम मे उसी प्रकार गया, जिस प्रकार इन्द्र चैत्ररथ मे । पुष्प लीला करके, नौका से आकर, महीपति ने मार्गेश नौरुज के साथ पान लीला की ।' (३:३६५,३६६) सुल्तान मुहम्मद शाह शिशु था। गृह युद्ध आरम्भ था। अतएव पुष्प लीला का उल्लेख स्वल्प दो वर्षों के राज्यकाल मे श्रीवर ने नहीं किया है। पुष्प लीला के सन्दर्भ में विस्तार के साथ यथा स्थान वर्णन किया गया है। श्रीवर ने पुष्प लीला नामक चतुर्थ सर्ग, तरंग प्रथम मे लिखा है। इससे प्रकट होता है। पुष्प लीला का महत्त्व काश्मीरी जीवन मे था। तोप-बारूद : आतिशबाजी: जैनुल आबदीन के समय बारूद का प्रवेश काश्मीर में हुआ था । विदेशी शिल्पियों द्वारा बारूद बनाने की कला आयी । आतिशबाजी का रोचक वर्णन श्रीवर करता है-'अंगार क्षार, सोरा, चूर्ण आदि गन्धक औषध युक्त रागो से शिल्पियों द्वारा की गयी लीला ने दर्शकों का मनोरंजन किया। औषध पूर्ण नाल से निकलते, घने अग्निकण कुसुम से पूर्णलता का भ्रम उत्पन्न कर रहे थे। सलिलान्तर से निर्गत सर्पाकार अग्नि ज्वाला प्रेक्षक लोगों मे वास, आश्चर्य एवं भय का उदय कर रही थी।' (१:४:१९-२१) उत्सव, शादी आदि के अवसर पर चीं, बाण, फुहारा, गुब्बाड़ा, अनार, चादर आदि आतिशबाजियां छोड़ी जाती है। श्रीवर के समय इसका प्रवेश काश्मीर में हुआ था । अतएव उसने साहित्यिक वर्णन किया है । (१:४:२१-२९) गोली, गोला का भी इसी प्रकार श्रीवर वर्णन करता है-'शिल्पियों ने वज्र के विविध प्रकार प्रदर्शित किये। जिसमे वीरजनों के कम्पित करने वाली ध्वनि सुनी गयी । (१:१:७२) शिल्पियों द्वारा निर्मित तत् तत् धातु मय नवीन यन्त्र भाण्ड प्रकारों को सुल्तान ले आया।' (१:१:७३) श्रीवर तोप निर्माण का समय भी देता है-'एकतालीसवें (लौ० ४५४१ = सन् १४६५ ई०) मे इस यन्त्र भाण्ड का निर्माण किया। लोक में मौसुल (मुसलिम) भाषा मे तोप और लोक में काण्ड नाम से प्रसिद्ध हुआ।' (१:१:७७) आकाशीय बिजली को वज्र कहते है। बिजली कड़क द्वारा जितना तीव्र घोष होता है, वैसा ही तोप आदि के छोड़ने से होता था। उसकी तुलना वज्र से कर, उसका नाम ही वज्र रख दिया गया था। नौका युद्ध : समुद्र में ही नाविक युद्ध नहीं करते थे, समुद्र मे ही केवल जहाजी युद्ध नही होता था, काश्मीर में भी नाविक सेना थी। उसका अधिपति नाबिकाधिपति कहा जाता था। सैय्यद-काश्मीरियों के संघर्ष प्रसंग में श्रीवर वर्णन करता है-'देव नामक शाकुनिक ने जो कि नाविकाधिपति था, नौका युद्ध द्वारा उत्तम वीरों का विनाश किया।' (४:१७३) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जैनराजतरंगिणी राजा : मुसलिम राजनीतिशास्त्र देवाधिराज एवं धर्म निगडित राज्य में विश्वास करता है। राज्य एवं धर्म में अन्तर नहीं मानता। दोनों को एक तुला के दो पलडे समझता है। मुसलिम राजशास्त्र धर्म निरपेक्ष राज्य सिद्धान्त स्वीकार नही करता । कुछ सुल्तान एवं बादशाह हुए है। उन्होंने राज्य को धर्म से अलग रखने का प्रयास किया | भारत में अलाउद्दीन खिलजी ने इस दिशा मे चलने का सर्वप्रथम प्रयास किया था। शेरशाह सूरी विद्वान् के साथ ही साथ व्यावहारिक व्यक्ति था । उसने भी लौकिक राज्य के आधार पर कार्य करने का प्रयास किया था । अकबर ने लौकिक राज्य के आधार पर राज्य का ढाँचा खड़ा किया था । किन्तु यह सब सुल्तान मुसलिम सुल्तानों की लम्बी परम्परा में अपवाद मात्र है । काश्मीर में प्रारम्भ के कुछ सुल्तान लौकिक राज्य सिद्धान्त का अनुसरण किये थे । उस समय काश्मीर की जनता हिन्दू बहुल थी । सिकन्दर बुतशिकन तथा अलीशाह के समय काश्मीर का मुसलिमीकरण हो गया । अतएव हिन्दुओ पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध जजिया, आदि लगाये गये थे । सिकन्दर के पुत्र एवं अलीशाह का कनिष्ठ भ्राता जैनुल आबदीन के समय घारा वदली । लौकिक राज्य की झलक दिखाई पड़ने लगी । जनता की रुचि रचनात्मक कार्य एव ज्ञानार्जन करने की ओर हुई । जोनराज ने जैनुल आबदीन को अवतार माना था । ( जौन: ९७३ ) श्रीवर जोनराज की शिष्य था । वह भी जैनुल आबदीन को देव का अंश मानता था - 'जहाँ पर कामदेव शिवांश राजा को जीतने के लिये, राजसभा के ब्याज से अपना बहुत रूप बनाकर, भावासक्त हो गया था ।' (१ : ४ : ५ ) श्रीवर सुल्तान को शिवांश मानता था । आगे चलकर सुल्तान ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव का अंश मान लिया । 'गिरती हुई जलधारा के शब्द ब्याज से, ब्रह्मा, अच्युतेग एवं शिव के अंशभूत राजा से कुशल प्रश्न किये । ( ९:५:९७) वास्तव में विष्णु अवतार उस राजा ने अपने पद पराक्रम को जानने के लिए भक्तिपूर्वक तीन बार प्रदिक्षणा की ।' जहाँ पर भी कहीं उपमा देने का अवसर मिला है, आबदीन की तुलना की है । बह जैनुल आबदीन को मानता था । ( १:६:११ ) इसी प्रकार श्रीवर ने (१:७:१३५) जैनुल आबदीन को उसने राम तुल्य (१:१:१९, २२) श्रीवर ने दैवी शक्तिधारी पुरुषों से जैनुल युधिष्ठिर के समान धर्मात्मा, सत्यवादी एवं न्यायी जैनुल आबदीन की तुलना रघुनन्दन से की है । राजा तथा धर्मराज सदृश न्यायी चित्रित किया है । अन्य सुल्तान हैदर शाह, हसन शाह एवं मुहम्मद शाह को देवांश अथवा अवतार नहीं मानता । मुसलमानों द्वारा मानते इस मान्यता को श्रीवर दुहराता है कि काश्मीर का सुल्तान शिवांशज है । उस पर पराक्रम से नही तपस्या से विजय प्राप्त की जा सकती है । ( ४:३३१-३३४) कल्हण का आदर्श राजा अशोक, कनिष्क, मेघवाहन है, दिग्विजयी राजा ललितादित्य एवं जयापीड है । जोनराज का आदर्श राजा शिहाबुद्दीन तथा जैनुल आबदीन हैं । श्रीवर का आदर्श राजा जैनुल आबदीन है । कला, संगीत, नृत्य, गान की दृष्टि से उसने हसन शाह को आदर्श राजा माना है । किन्तु श्रीवर राजा पर अति विश्वास का विरोधी है, वह लिखता है - 'विभव के कारण प्रसिद्ध, प्रभावशाली, राजा का प्रिय पात्र हूँ, आत्मनिष्ठ इस मान को त्याग दो, गन्धर्व नगर, कुसुम्भ राग, वेश्या रस, नृपति की स्थिरता की आशा कहाँ से हो सकती है ?' (३:४०८ ) * राजा का कर्तव्य : भाग्यवादी होते हुए भी, श्रीवर राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन स्थान-स्थान पर किया है। राजा को गुणी, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ८३ दानी, ज्ञानियों का आदर करना चाहिए। उसने जनल आबदीन की इन गुणों के कारण प्रशंसा की है'कल्प वृक्ष उस राजा के समीप भुंगो के समान, दूर-दूर से सुन्दर शिल्प रचना करने वाले, कौन शिल्पी नही आये ?' (१:३:२७) जैनुल आबदीन शाह खर्च नहीं था। अपने पुत्रों से जब वह दुःखी था तो मन्त्रियो ने राजा से पूछा'हे देव ! यदि यही निर्णय है, तो क्यों इस महान् कोश की रक्षा कर रहे है ?' जैनुल आबदीन का व्यावहारिक उत्तर ललितादित्य के वसीयतनामा का स्मरण दिला देता है-'मेरा वह हेतु सुनिए, जिससे यह पूर्ण कोश धारण किये हूँ। मेरे मरने पर, मेरा राज्य यदि कोई मेरा पुत्र प्राप्त करेगा, तो मेरे संचय से तृप्त होकर, प्रजा का धन त्याग देगा। मुझे यह प्रजा पुत्र से अधिक रक्षणीय प्रतीत होती है। अतएव उस संचय से, उसकी भावी पीड़ा का हरण करूंगा। राजा पूर्ण होने पर विलास करता है। रिक्त होने पर, प्रजा पीड़न करता है। तृप्त सिह गुहा में रमता है। क्षुधार्थ वन के जन्तु वर्ग को खाता है। मेरे संग्रह के उपकार से, भावी पीडा रहित जन, उत्तरकाल के ज्ञाता, मेरी गर्हणा (निन्दा) नही करेगे। पूर्ण राजगृह से अन्य उपकारी पूर्ण होये, यदि धन समुद्र से जल न ले जाते, तो भूमि पर क्या बरसाते ? सर्वरुचिकर राजा की जो सामग्री होती है, वह चिरकाल से उत्पन्न होने वाले केवल धन के द्वारा होती है। वृक्ष से फल, पत्र, पुष्प, जो कुछ निकलता है, वह सब पृथ्वी के अन्दर रहने वाला रस गुण ही है।' (१:७:११९-१२६) जैनुल आबदीन प्रजा की मनोवृत्ति एवं आन्तरिक स्थिति जानने के लिए गुप्तचर रखता थाश्रीवर लिखता है-'अपने एवं दूसरे के वृत्तान्त का, नित्य अन्वेषणकर्ता, उस राजा को गुप्तचरो द्वारा प्रजाओं का केवल स्वप्न वृत्तान्त ही अविदित था।' (१:१:३६) राजा के विषय में श्रीवर लिखता है-'कोई सुकृति नृपति, आत्मा सदृश होता है। उसे प्रजा उसी प्रकार प्रिय होती, जिस प्रकार आत्मा को प्रकृति । उसी के सुख एवं वृद्धि से सुखी एवं उसी के दुःख से दुःखी होता है।' (१:३:३२) जैनुल आबदीन ने पुत्रो के प्रजापीडन के कारण उनके त्याग का निश्चय किया था-'सों के समान मेरे पुत्रों ने राज्याग को डस लिया है। उनका त्याग ही एकमात्र उचित उपाय है । अन्यथा मुझे सुख नहीं।' (१:७:१४५) जैनुल आबदीन का पुत्र हैदर शाह भी गुप्तचर रखता था। उनके द्वारा वह जनता की मनोवृत्ति जानने का प्रयास करता था। (२:२४) पुत्रवत् प्रजा पालन राजा का कर्तव्य है। हैदर शाह के राज्य की अधोवस्था देखकर, श्रीवर लिखता है-'इस देश में पहले राजाओ द्वारा पुत्रवत् रक्षित, प्रजाओ को जिसने अधिकार प्राप्त कर, कुकर्मो द्वारा अति दुःखित कर दिया।' (२:४५) राजा का कर्तव्य प्रजा का पुत्रवत् पालन करना है। हिन्दू और मुसलिम दोनों नीतियाँ इसे मानती हैं। राजशास्त्र: श्रीवर को राजशास्त्र का ज्ञान था। उसने अर्थशास्त्र एवं स्मृतियों का अध्ययन किया था। उसने जिन प्राविधिक एवं पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है, उनसे उसके ज्ञान एवं गम्भीरत्व का पता चलता है। राज्य के सप्तांग सिद्धान्त की तुलना वह शरीर के सप्त धातु से कर, अपने पाण्डित्य का परिचय दिया है। उसका राज्यसिद्धान्त यहाँ पर शरीर राज्य सिद्धान्त से मिलता है-'क्यों कि सप्त धातु सम्बद्ध, शरीर सदृश, सप्तांग अजित राज को, त्रिदोषों के समान, मेरे इन तीनों पुत्रों ने सन्दूषित कर दिया है।' (१:७:११०) 'इसी समय दोष के समान अत्युन तीनों पुत्रों ने धातु सदृश, सप्त प्रकृति युक्त, देश को दूषित कर दिया।' (१:७:१८५) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैनराजतरंगिणी 'समुदय से शीभित सप्तधातु या अंग से युक्त शक्ति समृद्धि, सुभग, (राज्य या शरीर) यद्यपि सर्व कार्य में सक्षम रहता है, किन्तु जहाँपर वातादि दोष सदृश परस्पर द्वेषी मन्त्री होते है, वह राज्य, शरीर के समान शीघ्र गल जाता है (२:२९६) सप्ताग सुभग यह राज्य मेरा है, यह जिसने कहा था, अन्तस्थिति मे उसका अपना शरीर भी उसका नहीं हुआ। (३:५६२) उसकी उद्वेजित कन्या सदृश, सप्ताग सहित राज्य सम्पत्ति , रिपु के पराभव करने के लिये ही मानों, उसके घर चली आयी थी।' (४:१४) महात्मा गान्धी ने राम राज्य की कल्पना की थी। श्रीवर ने जैनुल आबदीन के राज्य की तुलना रामराज से की है । (१:१।१९) प्राचीन काल के समान काश्मीर सुल्तानों के समय भी दूत भेजने की परम्परा थी। मुख्यतः युद्ध रोकने अथवा सन्धि करने या समझाने के लिये दूत भेजे जाते थे। दूतों का वर्णन जोनराज ने किया है। काश्मीर में प्राय: ब्राह्मण ही दूत कार्य करते थे। (जोन : ४७०) यदि दूत विरोधी पक्ष द्वारा बन्दी बना लिया जाता अथवा उसे शारीरिक कष्ट दिया जाता था, तो यह राज्य के प्रति तथा राजा के प्रति किया गया अपमान माना जाता था। इसी प्रश्न को लेकर युद्ध भी हो जाता था। सुल्तान कुतुबुद्दीन के दूत के साथ बुरा व्यवहार किया गया, तो सुल्तान क्रोधित होकर अपराधियों को दण्ड देने पर तत्पर हो गया। (जोन : ४७१) जैनुल आबदीन के दूत के साथ, उसके पुत्र हाजी खा के सेनानायको ने दुर्व्यवहार किया तो, हाजी खां स्वयं लज्जित हो गया। (१.१:१२७-१२८) जैनुल आबदीन ने ब्राह्मण दूत की दुरवस्था देखी, तो युद्ध के लिये तुरन्त सत्रद्ध हो गया। (१:१:१४१) अन्य सुल्तानों के समय भी दूत सन्देह वाहक रूप सन्धि प्रस्ताव लेकर जाते थे। मान्यता थी। दूत के साथ सज्जनता का व्यवहार और उसका पद गौरव राष्ट्र के प्रतिनिधित्व रूप माना जाय । सुल्तान जैनुल आबदीन अपने विद्रोही पुत्र आदम खा के पास भी राजदूत भेजा था । (१,३.७८) हसन शाह सुल्तान होने पर अपने बाल काल के सेवक मल्लिक ताज भट्ट को दूत का अधिकार दिया । ताज भट्ट समग्र राज्य मे विग्रह एवं निग्रह विषयों मे राजा की जिह्व सदृश हो गया था । (३:२७, २८) देश के बाहर दूत भेजने तथा रखने की प्रथा थी। श्रीवर एक ऐसे दूत का वर्णन करता है, जो राज्य में ही रहता था। श्रीवर ने उसे राजा की जिह्वा लिखा है । इससे प्रकट होता है कि सुल्तानों के समय इस प्रकार के दूत की भी नियुक्ति होती थी, जो राजा का विश्वास पात्र होता था। राजा के अन्तःकरण की बातें जानता था। उसका वचन राजा का वचन समझा जाता था। वह दूत के समान राजा का प्रतिनिधि देश में होता था। उसे फारसी इतिहासकार 'वकील' भी कहते है। देश भक्ति : श्रीवर देश भक्त था। काश्मीर की बोधात्मा का कल्हण ने दर्शन किया था। उसने सगौरव काश्मीर का वर्णन किया है। काश्मीर उसके लिये जन्म भूमि के साथ पण्य भूमि थी। उसे अपने धर्म, संस्कृति एवं परम्परा का अभिमान था। दिग्विजयो के वर्णन प्रसंग में उसकी देश भक्ति मुखरित हो उठती है। काश्मीर के लिये उसकी श्रद्धा एवं भक्ति पूर्ण गरिमा के साथ प्रकट होती है । जोनराज में देश भक्ति की उतनी भावना नही पाते, जितना कल्हण की राजतरंगिणी में मिलता है। उसकी देश भक्ति तत्कालीन परिस्थितियों के कारण दबी थी। श्रीवर में देश भक्ति मुखरित हो उठी है। काश्मीर में काश्मीरी और विदेशी सैयिदो के दो दल हो गये थे । श्रीवर काश्मीरियों की खुल कर प्रशंसा करता है। काश्मीर के लिये त्याग की भावना लोगों में Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ८५ जागृत करता है। काश्मीरियों को उठाता है। उसका इन स्थानों का वर्णन किसी देश भक्त के व्याख्यान का रूप ले लेता है । , श्रीवर सैमियो तथा विदेशी तुरुष्कों के विरुद्ध या जिन्हें काश्मीर के बाचार, विचार एवं परम्परा में कोई आस्था नहीं थी । वह अपने धर्म के लिए गर्व करता था। उसे हिन्दू होने का गर्व था । वह मुसलिम दर्शन की बहुत बातों का विरोधी था उसने इसकी चिन्ता मुहूर्त मात्र के लिए भी नहीं की कि वह मुसलिम शासित देश में निवास कर रहा था । सुल्तानों का राज कवि था । सुल्तान का गुरु था । जहाँ भी कहीं अवसर आया है, अपनी देश भक्ति का परिचय दिया है, जिसका अभाव जोनराज एवं शुक में खटकता है। कर : सुल्तान जैनुल आबदीन ने जैन गिर क्षेत्र में कर का अनुदान सप्तांय रखा था उसने आदेशों को ताम्र पत्र पर अंकित कराकर सर्वसाधारण की जानकारी के लिए गवा दिया यहाँ पर मैने धन से भूमि को सम्पन्न बनाकर कृषि पूर्ण कर दिया है। आप लोग सातवीं अंश ग्रहण करें ।' (१ : ३:३७ ) फारसी लेखों से पता चलता है कि कुछ स्थानों पर खराज चार मे एक और कुछ स्थानों में सात में से एक भाग लिया जाता था। काश्मीर से बाहर जाने वाले लोगों को शुल्क देना पड़ता था। यह प्रथा प्राचीन यो परन्तु जैनुल आबदीन ने शुल्क उठा दिया था । इसका आभास मिलता है । ( १:५ : २२) से सुधार : अपराधियों के सुधार का प्रयास किया गया। अनुल आबदीन ने चोर, चाण्डाल आततायियों के पैरों में बेड़ी डलवा कर उनसे मिट्टी खोदने का कार्य कराया था। आज कल भी कारागारों मे बन्दियों के एक पैर में लोहे का कड़ा डालकर, जेल से बाहर कृषि, खेत जोतने बोने, पानी निकालने तथा निर्माण कार्य कराने पर लगाते है । 'उसने निवासियों को कृषि हेतु आदेश देकर चोर, चण्डाल, आदि के पैरों में श्रृंखला बद्ध कराकर, पहरेदारों के नियन्त्रण में कार्य करने तथा उनसे बलात् मिट्टी का कार्य कराया । ' (१:१:३८ ) सुल्तान जैनुल आबदीन ने राज्यादेशों को ताम्र पत्रों पर खुदवा कर स्थान-स्थान पर लगवा दिया था । गृहस्थों से कोई राजकर्मचारी एक कौड़ी भी अनियमित रूप से नही ले सकता था । ( १:१:३७ ) सुल्तान के जिन न्यायाधीशों ने घूस लिया था, उनसे घूस दाता को धन वापस दिला दिया । बेकार अर्थात् जीविका त्रस्त लोगो के लिये, जो चोरी आदि कर, अपनी जीविका चलाते थे, उनके लिए, वृत्ति प्रदान कर उन्हें काम पर लगाया था। ( १:१:३९ ) कोई भी व्यक्ति राज्य में बेकार नही था । परिणाम हुआ कि लोग अपने कामों मे लग गये । समाज में दुराचार, अनाचार स्वतः दूर हो गया । यदि एक राज्य में कोई जाति या वर्ग दुष्टता करता था, तो उन्हें जेलों में बन्द करने की अपेक्षा, उनकी भूमि हर कर, दूसरे स्थान पर, उन्हें भूमि देकर, आबाद किया जाता था । क्रमराज्य में स्थित चक्र (क) आदि दुष्टों की भूमि सुल्तान ने अपहृत कर, उन्हे वृत्ति प्रदान कर, मडव राज्य मे रखा । (१.१:४० ) करुणा के साथ ही साथ सुल्तान में राजा का उग्र रूप भी था । उसकी तुलना धर्मराज (यम) से करते हुए श्रीवर लिखता है - 'अपराध के अनुसार पापी शत्रुओ ने नरक यातनाये प्राप्त की । ( १ : १:२२ ) सुल्तान तानाशाह नहीं था । न्यायालय की व्यवस्था की थी । अपराध के अनुसार दण्ड दिया जाता था । " सुल्तान कठोर दण्ड का पक्षपाती नहीं था । सुधार वादी था । सरल दण्ड देकर माय आततायी प्रवृत्तियों का परिवर्तित कर देना चाहता था । श्रीवर लिखता है— 'राजा द्वारा नीति से ही तस्कर उपद्रव Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जेनराजतरंगिणी शान्त कर दिये जाने पर, पथिक गृह के समान यन में भी सुख पूर्वक शयन करते थे'। (१:१:४१) हसन शाह के काल मे चोरी, लूट के साथ घर लूटने का दण्ड ही समाप्त हो गया था। ( ३:२०९ ) , भिकाल में भ्रष्टाचारी वणिको ने लोगों की अमूल्य सम्पत्ति लेकर बहुत मंहगा धान बेचा था। सामान्य समय आते ही सुल्तान ने वणिकों में उचित मूल्य दिलाकर शेष धन वापस दिला दिया ( १:२:३२ ) इसी काल मे सुल्तान ने भोजपत्र पर लिखे गये ऋणी एवं ऋणदाता की व्यवस्था को समाप्त कर दिया । ( १:२:३४) दुर्भिक्ष का लाभ उठाकर, धनिकों ने गरीबो से ऋण पत्र लिला लिया था। आज भी दिहातो, में कुछ धन देकर, ज्यादा रुपयों का ऋण पत्र लिखाते है । सादे कागज पर दस्तखत कराकर रख लिया जाता है । सुल्तान ने भोजपत्र पर इस प्रकार के लेखो की मान्यता समाप्त कर दी । क्योकि वे गरीब जनता एवं प्राकृतिक कोप का लाभ उठाकर लिखाये गये थे । अभिभावक : सुल्तान राजपुत्रों को किसी सामन्त, मन्त्री, किंवा किसी कुलीन वर्ग के व्यक्ति अभिभावकत्व में रख देते थे । सुल्तान जैनुल आबदीन अपने दो पुत्रो का अभिभावक दो ठाकुरों हस्सन एवं हुस्सन को बनाया था । प्रत्येक पुत्र एक-एक ठाकुर के अभिभावकत्व में रहता था । ( १:१:५९ ) हसन शाह ने अपने पुत्र मुहम्मद, जो कालान्तर में सुल्तान मुहम्मद हुआ था, तावी भट्ट के अभिभावकत्व में रख दिया था । (३ : २२५) अपने दूसरे पुत्र होस्सन को मलिक नौरोज को दिया था । ( ३:३२७) युसुफ खा जोन राजानक के अभिभावकत्व में था । उत्सव : सुल्तान जैनुल आबदीन वितस्ता जन्मोत्सव उत्साह से मनाता था । दीप मालिका होती थी । गाना, बजाना, नृत्य होता था । सुल्तान सजी नाव पर वितस्ता भ्रमण करता था। संगीतों से तट गूंज उठता था । वितस्ता दीपदान किया जाता था । तटों पर दीप मालिका सजती थी । काश्मीरी ललनाये वितस्ता पुलिन मे पूजा करने आती थी। समस्त रात्रि नृत्य, गीत एवं संगीत में सुल्तान जैनुल आबदीन अपना जन्मोत्सव मनाता था । उस दिन देश विदेश से लोग आते थे । उन्हें उपहार एवं पदवियाँ दी जाती थीं । राजा के जन्म दिवस के उत्सव पर, राजपुरीय जयसिंह का राज तिलक किया गया था। ( १:३:४० ) इसी प्रकार वंत्रोत्सव मनाया जाता था । (१:४:२) हैदर शाह का राज्य ग्रहणोत्सव प्रति वर्ष मनाया जाता था । ( २:४) सुल्तान लोग पुत्रों का जन्मोत्सव मनाते थे। हसन शाह ने लौकिक ४५५४ = सन् १४७८ ई० में पुत्र मुहम्मद का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया था। उत्सव से नृत्य गान एवं नाटक का आयोजन होता था। सामन्त, सचिव आदि को उपहार दिया जाता था । जनता भी मुक्त हस्त, उत्सव मे भाग लेने वाले (३:२२७-२२९) कलाकारों को दान देती थी । उच्च अधिकारी भी अपना जन्मोत्सव धूमधाम से मनाते थे। ( ३:४०६) हिन्दू नाग यात्रा, पैत्रोत्सव तथा मुसलमान ईद उत्सव (३ : २८६ ) सर्वोत्सव (३ : ५३३) मनाते थे । वीरगति भारतीय मान्यता है। युद्ध क्षेत्र मे वीरगति प्राप्त व्यक्ति स्वर्गं प्राप्त करता है। मुसलमान विश्वास करते हैं। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका धर्म युद्ध करने वाले को बिहिस्त मिलता है । मुजाहिदों को जन्नत मिलता है। काश्मीर की सलिम इसमे विश्वास करती थी । जन्नत मे वीरों को सुन्दर स्त्रियाँ मिलती है । उन्हे वहाँ ऐश्वर्य मिलता है । श्रीवर इस मान्यता का वर्णन करता है— उस रण प्रागण में अहमद प्रतीहार प्रमुख वीर लोग, शौर्य प्रदचित करते हुए, स्वर्गीय स्त्रियों के सुख भागी बने। ( ४:१७८) किसी बोर सुन्दर युवक की मृत्यु पर काश्मीरी अंगनायें शोक करती है—'मृत उसके रूप का स्मरण कर पुर की अंगनायें बहती है ऐसा सुन्दर रूप हम कहीं नहीं देखती है। यह सुन्दर रूप मानुष स्त्रियों के योग्य नहीं, इसलिये देवियाँ स्वर्ग ले जा रही है क्या, जो यहाँ मृत पड़ा है ? ( ४:१७९, १८०) वहाँ पर सुभटो के साथ युद्ध करते हुए कुछ वैयिय भट पीछे छूटने के कारण स्वर्ग स्त्री सुख के भागी बने । ' ( ४:५९१ ) ८७ दर्शन : श्रीवर ने जैनुल आवदोन को दर्शन सुनाते हुए अपना विचार प्रकट किया है—'आकाश वर्ण सदृश जाग्रत सज्जन व्यक्ति का, आकाश वर्ण सदृश उस भ्रम का, पुन. स्मरण तथा विस्मरण कर जाना श्रेष्ठ है । संसार को दीर्घकालिक स्वप्न सदृश अथवा दीर्घकाल का प्रिय दर्शन अथवा दीर्घकालिक मनो राज्य जानिये । यदि जन्म, जरा, मरण न हो, अथवा यदि इष्ट, वियोग का भय न हो, यदि वे सब अनित्य न हो, तो इस जन्म मे किसको रति नही होती ? जैसे-जैसे निवृत्त होता है, वैसे-वैसे मुक्त होता है । चारो ओर से निवृत्त हो जाने से अणु मात्र दुःख का अनुभव नहीं करता' (१:७:१३४-१३७) सुल्तान के समय दर्शन का अध्ययन अध्यापन होता था। धीवर लिखता है-प दर्शनों की क्रियाये जिसके वृत्त को उसी प्रकार अनुरंजित की जिस प्रकार सुमनो मे आह्लाद दायिनी (छ) ऋतुएँ नन्दन को ।' ( १:१:२८) सतीसर श्रीवर के समय भी काश्मीर सतीसर नाम से ख्यात था । ( १ : १:८५ ) श्रीवर देश का नाम काश्मीर न देकर सती देश देता है - 'निश्चय ही काली धारा के ब्याज से भगवती काली, सती देश के हित इच्छा से उनका भक्षण कर लिया । ( ४.२१८) फतेह खान काश्मीर पर राज्य लेने की इच्छा से आक्रमण किया। सुल्तान मुहम्मद खाँ को हटाकर स्वयं सुल्तान बनना चाहा। मार्गेश इब्राहीम बालक सुल्तान मुहम्मद शाह का अभिभावक तथा मन्त्री था । फतेह खान को सन्देश भेजा था । वह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । तत्कालीन काश्मीरी मुसलमान काश्मीर की परम्परा तथा उसके इतिहास मे विश्वास करते थे- 'भो ! भो । मण्डल रक्षक, नृप सम्पत्तियों के भोक्ता एवं सर्वथा हित कर्ता गण, पुराणोक्त, इस पर विचार करो राजा शिवां-शज है, कल्याणोच्छुक विद्वानों को, दुष्ट होने पर भी चाहिए, इस देश मे तपस्या द्वारा राज्य प्राप्त होता है, न कि पराक्रमो से ने अपने क्रमागत ( राज्य ) को क्यों नही प्राप्त किया ? चिरकाल तक (४:४३२-४३४) काश्मीर भूमि पार्वती है, वहाँ का उसकी उपेक्षा या अपमान नही करनी अन्यथा आदम खान आदि लोगों अनौचित्त्व फलित नहीं होता ।' - बुभिक्ष: लौकिक ४५३६ = सन् १४६० ई० मे भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। 'इस वर्ष यंत्र मास में अकस्मात आकाश से चूल दृष्टि हुई दुर्भिक्ष काल का सन्देश वाहक था। छत्तीस वर्ष सबके लिए भयकारी होता है क्योंकि इसी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जैनराजतरंगिणी वर्ष में यदुवंश का विनाश हआ था।' ज्योतिषियों ने धूल वर्षा का फल दुभिक्ष बताया था। मार्ग शीर्ष मास मे भयंकर हिमपात हुआ। समस्त काश्मीर उपत्यका जैसे शोक प्रतीक श्वेत वस्त्र धारण कर ली थी। अकाल भयावह था। चोर घरों से स्वर्ण इत्यादि त्यागकर अन्न लेते थे। भीख मांगने वालों का झुण्ड घूमाता था। शाक, मूल एवं फल का आहार कर, जनता जैसे प्रतिदिन व्रत करती थी। थोड़ा शाक तथा चावल पका कर, कुछ लोगों ने जीवन धारण किया ।' चावल महँगा था। घी, नमक, तेल सस्ता हो गया था। काश्मीर धनधान्य पूर्ण देश था । यह बात केवल कहानी मात्र शेष रह गयी थी। पूर्वकाल में तीन सौ दीनार से एक खारीधान मिलता था । दुर्भिक्ष समय में पन्द्रह सौ दीनार में एक खारीधान प्राप्त नही होता था। सुल्तान ने राज्य कोश द्वारा किसी प्रकार धान मँगाकर, प्रजा का पालन किया। श्रीवर उत्तम उपमा देता है-'राजाओं के उपद्रवकाल मे चोर, और अन्धकार मे अभिसारिकायें तथा दुर्भिक्ष मे धान्य विक्रेता लोग सन्तुष्ट होते हैं। (१:२:३१) जिन भ्रष्टाचारी वणिकों ने अधिक मूल्य पर धान बेचा था। सामान्य स्थिति लौटते ही सुल्तान ने लोगों का धन पहले मूल्य पर वापस दिला दिया। (१.२:३२) दुर्भिक्ष काल मे लोग अखरोट खाते थे। राजा ने उन्हे काम देने के लिए वृक्षों से तेल निकालने का आदेश दिया। (१:२३३) इसी प्रकार ऋणी एवं ऋण दाता की व्यवस्था सुल्तान ने समाप्त कर दिया। (१.३:३४) धनिकों ने गरीबों की गरीबी का लाभ उठाकर, थोड़ा धन देकर, अधिक ऋण पत्र लिखा लिया था। उन्हे अवैधानिक करार दे दिया। इस दुभिक्ष काल मे काश्मीर मण्डल मे चौसठ कलाये, शिल्प, विद्या, सौभाग्य सब कुछ निष्प्रयोजन हो गया था। (१:२:३५) श्रीवर कितना सुन्दर लिखता है-'पद, वाक्य, तर्क, नवीन काव्य, कथा, गीत, वाद्य, रस, नृत्य, कलाये, तथा सुरति प्रपंच मेंदक्ष वनिताये, भूखे को सुख नही देती।' (१:२:३६) श्रीवर ने प्रथम तरंग के द्वितीय सर्ग का नाम दुर्भिक्ष वर्णन रखा है। प्रथम तरंग के सातवे सर्ग में श्रीवर ने काश्मीर के एक और दुभिक्ष का वर्णन किया है । अनावृष्टि के कारण काश्मीर तथा बाहरी देशों में घोर दभिक्ष पड़ा । दूसरे देशों से क्षुधा पीडित दलो का काश्मीर में आगमन होने लगा। सुल्तान की जिज्ञासा पर वे आगन्तुक बोले-'हे, राजन् !! अनेक देशों में वृष्टि के अभाव से चारों ओर से सबका अन्तकारी, काल सदृश दुष्काल उपस्थित हुआ है । (१:७:२१) भूख से पीड़ित कुत्ते आदि शून्य गृह स्थित, शव समूहों को निःशेष कर, एक दूसरे का मास खाने लगे है। (१:७२३) हे ! राजन स्पर्श एवं जठन के का जिन प्रायश्चित करते देखा गया वे द्विजश्रेष्ठ भी सर्वभक्षी बन गये । (१:७.२४) भक्ष्य पदार्थ को देखने में अक्षम होकर, विप्र स्त्रियाँ, सविष पका अन्न खाकर, अपनी तथा अन्य को प्राणो रहित कर दी। (१:७:२५) ग्राम एवं पुर मानव शून्य हो गये। (१:७:२६) पृथ्वी पर क्षुधार्थ तप्त कुंक्षभरी (पेटू) जन, पत्नी के प्रति प्रेम, पुत्र के प्रति स्नेह, पिता के प्रति दक्षिण्य, भाव भूल गये। (१:७:२७) 'खुरासान का सुल्तान अकाल के कारण शत्रु भूमि में चला गया था। कोटि सैन्य युक्त उस अवूसैद को रण मध्य इराक के सुल्तान ने मार डाला । (१:७:२९) प्राण रक्षा हेतु उस युद्ध में हुए असख्य तुरुष्कों एवं राजाओ का क्षय हुआ (१:७:३०) एक राजा दूसरे से अन्न के लिये युद्ध करने लगे। (१:७:२१) सुल्तान जैनुल आबदीन ने आगन्तुक उन क्षुधा पीड़ितों की रक्षा किया। (१:७:३३) जल प्लावन : काश्मीर के तीन घोर प्राकृतिक शत्र थे-तुषारपात, जल प्लावन एवं अग्नि दाह । तीनों ही के कारण काश्मीर की समृद्धि अकस्मात अवरुद्ध हो जाती थी। तुषारपात एवं जल प्लावन प्रकृति की क्रूर दृष्टि एवं 10.00) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका अग्निदाह काश्मीर में बने काष्ट के भवनों तथा आततायियों के कारण होता था। यदि एक स्थान पर अग्नि लगती थी, तो मुहल्ला साफ हो जाता था । अग्नि पर नियन्त्रण पाना कठिन होता था। लौकिक : ४५३६ = सन् १४६० ई० में दुभिक्ष हुआ था। दो वर्ष बीतते-बीतते लौकिक ४५३८सन् १४६२ ई० में वृष्टि के साथ आकाश से घूल वर्षा हुई । (१:३:३) भयंकर वर्षा होने लगी। पादप जैसे अश्रु बिन्दु गिराने लगे। वितस्ता, लेदरी, सिन्धु, भिप्तिका ने अपनी उग्र बाढ़ से, तट भूमि डुवा दिया । जल प्रवाह कुपथगामी हो गया। वक्षादि जड़ से उखड़ने लगे। पशु, पक्षी, प्राणी, गृह, धान्यादि सबका हरण जल प्लावन करने लगा। विशोका नदी का जल विजयेश्वर में प्रवेश कर गया। घर डूब गये। विशोका ने अपना नाम गुण भूलकर चारों ओर शोक उत्पन्न कर दिया। वितस्ता पर सुल्तान जैनुल आबदीन द्वारा जैन कदल में निर्मित गृह पंक्ति, जलमग्न एवं भग्न हो गई। श्रीनगर मे जल आ गया । उलर लेक (महापद्यसर) का जल दुर्गपुर के अन्दर प्रवेश कर गया। उलर लेक-जैसे ही, उसके समीप बाढ़ के कारण दूसरे सरोवर होने लगे थे । स्थानीय मकान जल मे डूब गये। वितस्ता का प्रवाह उलट गया। कृषि जल मे डूब गई । राजा नाव पर चढकर, बाढ़ का दृश्य देखने तथा प्रजा को आश्वासन देने के लिए भ्रमण करने लगा । जल से आबादी की रक्षा करने के लिए, सुल्तान ने जयापीडपुर के समीप, जैन तिलक नगर की स्थापना की। दुराचार: समाज का जब पतन होता है, तो दुराचार फैलता है। समाज का पतन उसी समय होता है, जब जनता की बुराई के प्रति प्रतिरोधात्मक शक्ति समाप्त हो जाती है । जैनुल आबदीन अस्वस्थ रहने लगा। दुर्बल हो गया। उसके पुत्र उच्छृङ्खल हो गये। सुल्तान राज कार्य मे उदासीन हो गया। ज्येष्ठ पुत्र आदम खाँ राजकीय गौरव एवं मर्यादाएँ समाप्त कर, व्यसनी हो गया। श्रीवर लिखता है-'अनिष्ट सदृश वह पापी जहाँ-जहाँ पर बैठा, वहाँ पीड़ित ग्रामीणों के आक्रन्दन से दिशाएँ मुखरित हो उठी । उपग्रह सदृश अति उग्र उसने प्रसाद एवं कठोरतापूर्वक, दान देकर दृढ की गई पृथ्वी को पद-पद पर अपहृत कर लिया। लोभ ग्रस्त उसने कही रीति से, कहीं भीति से, कहीं नीति से, विलोभित करता हुआ, बलात्कार पूर्वक, कितने धनों का अपपरण नहीं किया ? लोभ वश वह सामान्यजनों के समान लवन्यों के घर मित्रता का बहाना बनाते हुए जाकर उन लवन्यों को धन से ठग लिया। युक्ति पूर्वक लाई गई जार कृत भयभीत स्त्रियों को प्रताड़ित करते हुए, उसके सेवक समूह ने उसके कहने पर, ग्रामीणों को दण्डित किया। उस समय अति उग्र वह विनिग्रह स्थानों पर सावधान मति होकर तार्किक की तरह राष्ट्रियों के लिए दुर्जय हो गया। जिसके गृह में सुन्दर स्त्री, बहन, बेटी आदि थी, बलात् प्रवेश कर, उसके निर्लज्ज सेवकों ने भोग किया । (१.३६६-७३) सुल्तान अपने पुत्र तथा राज सेवकों का ब्यवहार सुनकर, इतना दुःखो हुआ कि वह राजप्रासाद से लज्जा के कारण बाहर नहीं निकल सका।' डल लेक : सर्व प्रथम श्रीवर ने 'डल' शब्द का प्रयोग किया है। एक स्थान पर केवल 'डल' (१:५:३२) और दूसरे स्थान पर 'डल सर' शब्दों का उल्लेख मिलता है। (४:११८) प्रथम स्थान पर 'डल' का वर्णन करते समय, उसे अगाध सरोवर लिखा है। उसके पूर्व इसका नाम सुरेश्वरी सर था । ज्येष्ठ रुद्र समीपस्थ, सर से भी इसे अभिहित किया गया है। एक मत है कि 'डल' तिब्बती शब्द है। अर्थ निस्तब्धता अथवा खामोशी होता है। १२ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरगिणी श्रीवर डल के तत्कालीन रूप का वर्णन करता है। श्लोक (१:५:३२) मे पुराना नाम 'सुरेश्वरी सर' लिखता है। जिससे इसका परिचय मिल जाता है। निश्चय हो जाता है। सुरेश्वरी सरका नाम ही डल सरोवर है । -'राजधानी तक वहाँ सुरेश्वरी का सरोवर है। उसमे निर्मलाकाश से चन्द्रमा सदृश नौकारूढ़ होकर, नित्य विचरण करता था। जिसमे अरत्रि (डाड़ा-चम्पा) रूप पत्र वाले, उड़ते हुए, पट से सुन्दर, शाकुनिको से अन्वित, राजा के पोत पक्षि शावक सदृश, शोभित हो रहे थे। जहाँ पर त्रिपुरेश्वर से आयी, तिलप्रस्था नदी, मानों लका को देखने के लिये, उत्सुक होकर सुटंक की ओर जाती है । छ कोश तक विस्तृत, श्री पर्वत भी, तीर्थ स्नान के फल की प्राप्ति की इच्छा से, अपने संसर्ग के व्याज से, मानो रात दिन स्नान करता है । जहाँ जल में प्रतिबिम्बित द्रुम शैवाल की तरह, पर्वत कच्छप की तरह, एव नगरियाँ नाग लोक की तरह, लगती थी। लोग देखते थे कि चलते तण एवं भूमि के शालि पुज मानो कमलों की सुगन्धि प्राप्त करने के लिये आनत हो रहे है। युगल लंका (रूप लंव-सोन लंक) देखने के कारण अपने दो उदय भ्रम से, सूर्य मानों प्रतिवर्ष दो अयन करते हुए जाते है । जिसके तट पर, तीर्थ पंक्ति शोभित, मुक्ति एवं विमुक्ति प्रद सुरेश्वरी क्षेत्र वाराणसी से भी अधिक शोभित होता है। बिहारों एवं अग्रहारों से सुकृत, कर्मठ मठों से श्रम निवारक, आश्रमों तथा राजनिवासों से स्वर्ग बना दिया था।' (१:५:३३-४१) सुल्तान ने सिद्धपुरी नामक प्रसिद्ध राजभवन का वहाँ निर्माण कराया था। (१:५:४३) श्रावर ने डल मे तैरते खेतों का भी उल्लेख किया है। इससे प्रकट होता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्व भी डल में तैरते खेत थे। मैंने डल में इन खेतों को देखा है। श्रीवर का वर्णन आज भी सत्य है । तैरता खेत, घास, फूस, लकड़ी आदि एकत्रित कर बनाया जाता है । घास फूस पर मट्टी रख दी जाती है। उसी मिट्टी पर पौधे लगते है। खेतो को जल मे खीचकर कही भी ले जाया जा सकता है। गत शताब्दी मे तैरते खेतो की चोरी भी होती थी। श्रीवर लिखता है-'सब प्रकार के तणों द्वारा प्रवाह का निर्धारण करने से उत्पन्न, संचरणशील भूमि को राजा ने अपनी बुद्धि से उर्वरा एवं फलवती बनाया था। एक स्थान पर योगियों के पात्र पूजा हेतु जैन वाटिका नामक अन्नसत्र भोगों के कारण विस्मयावह था।' (१:५:४५,४६) __ डल लेक समीपस्थ भूमि पर उस काल मे शाली की खेती होती थी। आज भी होती है। (१:५:५०) डल के तट गोपाद्रि गिरि के पश्चिमी छोर दुर्गा-गलिका से षडहदवन (हरवान) तक डल के दक्षिणी तथा पूर्वीय तट पर पर्वतमाला चलो गयी है। डल तथा पर्वत के मध्य संकीर्ण उपजाऊ समथल भूमि है। वहाँ पर मृग घूमते थे। उनके मृगया की ध्वनि सुनायी पड़ती थी। (१:५।५१) डल के समीप ही वितस्ता मे मारी सगम है । वही मृतको का दाह संस्कार उस समय होता था। (१:५:५६) संगम पर हिन्दू नारियाँ सती होती थी। (१:५:६१) सुल्तान ने संगम पर एक विस्तृत विहार का निर्माण पुरवासियो की सुविधा के लिये कराया था। (१:५:६२) श्रीनगर मे डल का तट सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन का केन्द्र था। यहाँ पर सुल्तान ने छात्रशालायें बनवायी, जिनसे तर्क एव व्याकरण का शब्द सुना जाता था। (१:५:६५) तीर्थयात्रा : सुल्तान जैनुल आबदीन पुराण सुनता था। एक समय उसने आदि पुराण में नौबन्धन तीर्थ यात्रा का वर्णन सुना । तीर्थ यात्रा के लिए उत्सुक हो गया। सुल्तान लौकिक : ४५३९ = सन् १४६३ ई. पितृपक्ष के अन्तिम दिन यात्रा देखने की इच्छावश विजयेश्वर गया। (१:५:८८-८९) वहाँ रंग मण्डप देखकर, सेना सहित बान्दरपाल आदि राजा प्रसन्न हो गये। (१:५:९१) अमावस्या के दिन वहाँ झुण्ड की झुण्ड महिलायें आयी। (१:५:९३) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका सुल्तान दोनों पुत्र हाजी खाँ तथा बहराम खाँ के साथ विजयेश्वर से प्रस्थान कर, तीन दिनों की यात्रा पश्चात् क्रमसर पहुँचा। (१:५:९५-९६) उसने धीवरो द्वारा चालित नौका पर श्रीवर तथा सिंह भट्ट को लेकर सरोवर (१:५:९९) तटपर, नौका बाँधकर, आगम से सिद्ध नौ बन्धन गिर का साक्षात्कार किया। (१:५:१०५) सुल्तान कुमार सर तक पहुंचा। (१.५:१०६) नौ बन्धन की तीर्थ यात्रा समाप्त कर, श्रीनगर लौट आया। (१.५:१०८) जोनराज ने सुल्तान जैनुल आबदीन के शारदी, बिजयेश्वर, बारहमूला तीर्थ स्थानों की यात्रा का विस्तृत विवरण लिखा है। मूल्यांकन : श्रीवर शाहमीर वंश के सुल्तानों का स्वयं मूल्यांकन करता है । वह आज भी सत्य है-'शेसदीन (शाहमीर) नयज्ञ (नीतिज), अलाभदीन (अलाउद्दीन) मन्त्री, शाहाबुद्दीन (शिहाबुद्दीन) विवेचक था। (३:२६४) श्री सेकन्धर (सिकन्दर वुत शिकन) यवन धर्म प्रेमी और अलीशाह दाता हुआ। (३:२६५) श्रीमान् जैनुल आबदीन भूपति सर्वशास्त्र प्रेमी तथा सर्वभाषा के काव्यों में विचक्षण था। राजा हैदरशाह वीणा एवं मन्त्री वाद्य विशारद था। (३:२६६) राजा हस्सनेन्द्र (हसन) संगीत में निपुण था। इस प्रकार एक-एक गुण से पूर्ण प्रसिद्ध नृप मण्डली को लोगों ने इस मण्डल में देखा।' (३:२६७) महिलाओं का स्थान : कल्हण ने महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष स्थान दिया है। वे राजाओ की अभिभावक थी। सिंहासन को सुशोभित करती थी। कल्हण उन्हें आदर की दृष्टि से देखता है। वे पुरुषों के साथ सर्वत्र उत्सवों में भाग लेती थी। स्वजातीय विवाह प्रचलित था। परन्तु विजातीय विवाहो को मान्यता दी जाती थी। प्रारम्भिक मुसलिम काल में जोनराज के अनुसार हिन्दू एवं मुसलमानों मे विवाह सम्बन्ध होता था। हिन्दू मुसलिम कन्या नहीं ग्रहण करते थे। मुसलमान हिन्दू कन्याओं से विवाह करते थे । जैनुल आबदीन के पश्चात् हिन्दुओ में जाति बन्धन कठोर होता गया । अतजातीय विवाह प्रथा समाप्त हो गयी। विवाह दूतों अथवा सम्बन्धियों के माध्यम से होता था। मुसलमानों में विवाह के समय पत्र लिखा जाता था। हिन्दुओं मे विवाह संस्कार तथा पत्र भी लिखा जाता था। हिन्दुओ ने अपनी प्रथा कायम रखते हुए, मुसलमानी प्रथा भी स्वीकार कर लो थी। हिन्दू और मुसलमान दोनों की वरयात्रा होती थी। (१:१६४) विवाह उत्सव होता था। (३:२७०) वारात आती थी। धूम-धाम तथा भोज-भात होता था। हिन्दुओं में स्त्री परित्याग किंवा तलाक प्रथा नही थी। मुसलमानों में तलाक प्रथा प्रचलित थी। तलाक के समय परित्याग चीरिका लिखी जाती थी। जैनुल आबदीन के पश्चात् महिलायों का स्थान पीछे हटता गया। राज कुल का विवाह सैयिदों तथा विदेशी मुसलमानों मे होने लगा। मुसलिम स्त्रियाँ नियमों एवं विधियों का कठोरता पूर्वक पालन करती थी। अतएव महिलाओं का उल्लेख नहीं मिलता । सुल्तानों की कन्याओं के नाम का पता भी नही चलता । केवल सैयद वंशीय वोधा, हयात खातून तथा मोमरा खातून का उल्लेख मिलता है। वे सैयिद वंशीय रानियाँ थीं। उनका वर्णन श्रीवर ने प्रासादीय षणयन्त्रों तथा प्रतिष्ठाओं के प्रसंग में किया है। उत्तर मुसलिम काल मे महिलाओं की स्वतन्त्रता लुप्त हो गई थी। __कुछ गायिका तथा नृत्य करने वाली स्त्रियों का नाम अवश्य श्रीवर देता है। परन्तु वे पेशेवर हैं। उनका कुलीन समाज में कोई स्थान नहीं था । हिन्दुओं में सती प्रथा का लोप हो गया था। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी स्रोत : जोनराज कृत राजतरंगिणी भाष्य मे जिन पुस्तकों का उल्लेख किया गया है वे ही इस पुस्तक के स्रोत है। संस्कृत पुस्तको की अपेक्षा फारसी पुस्तके अधिक स्रोत का कार्य करती है। पाण्डुलिपियो की माइक्रोफिल्म रिसर्च विभाग जम्मू काश्मीर सरकार से प्राप्त हुई है। मूल संस्कृत पाण्डुलिपियाँ वाराणसेय संस्कृत तथा काशी विश्वविद्यालय से प्राप्त किया है। श्रीवर अपने इतिहास का स्वयं प्रत्यक्षदर्शी स्वयं साक्षी था। आखों देखा इतिहास लिखा है। इस राजतरंगिणी मे अन्य स्रोतों का महत्त्व नगण्य है। श्रीवर के पूर्व लिखे, इतिहास ग्रन्थ नहीं मिलते । उसकी समकालीन रचनायें भी नहीं मिलती। फारसी ग्रन्थ जो भी प्राप्य है, उनका आधार स्वयं श्रीवर है। श्रीवर के अनुवाद के आधार पर ही फारसी इतिहास लेखकों ने अपनी रचनायें की है। पाठ की अशुद्धि तथा संस्कृत का ज्ञान न होने के कारण नामों के उच्चारणों में अन्तर पड गया है । तथापि फारसी रचनायें जिन स्थानों पर श्रीवर शान्त है, कुछ प्रकाश डालती है । इस विषय पर द्रष्टव्य है। जोनकृत राजतरंगिणी तथा शुक कृत राजतरंगिणी 'स्रोत' शीर्षक । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरंग: जैनुल आबदीन (सन् १४१९-१४७० ई० एक तरंग) :. जैनुल आबदीन प्रथम बार सन् १४१९ ई० मे सुल्तान बना था। परन्तु मार्गशीर्ष लौकिक ४४९५ = सन् १४१९ ई० में अली शाह ने कनिष्ठ भ्राता जैनुल आबदीन से राज्य वापस ले लिया। ज्येष्ठ सप्तर्षि किंवा लौ० ४४९६ = १४२० ई० में पुन: जैनुल आबदीन ने राज्य प्राप्त किया। जोनराज ने जैनुल आबदीन के राज्यकाल का वर्णन सन् १४५९ ई. तक किया है। तत्पश्चात् १४५९ ई० से १४७० ई० का वर्णन श्रीवर ने लिखा है। ग्यारह वर्षों का इतिहास श्रीवर ने प्रथम तरंग के सात सर्गों में लिखा है। जोनराज ने ३९ वर्षों का इतिहास २२३ श्लोकों तथा श्रीवर ने ११ वर्षों का इतिहास ८०२ श्लोकों में लिखा है। श्रीवर का वर्णन सविस्तार है । श्रीवर प्रारम्भ में ही सुल्तान की तुलना रघुनन्दन एवं धर्मराज से कर, उसकी प्रशस्ति वर्णन करता है। सुल्तान ने अनुद्विग्न मन, काव्य, शास्त्र श्रवण, गीत, न्याय एवं वीरता के चमत्कार से, काल यापन किया था। सुल्तान शाहमीर वंश का अन्तिम सुल्तान था, जिसने काश्मीर के बाहर सेना सहित अभियान कर विजय प्राप्त की थी। गुप्तचरों द्वारा प्रजा के सुख-दुःख का ज्ञान रखता था। सुल्तान के आदमखाँ हाजी खाँ, बहराम खाँ, एवं जसरथ पुत्र थे। जसरथ का बाल्यावस्था मे देहान्त हो गया था। शेष तीनों पुत्र जीवनोपरान्त तक जीवित थे। आदम खाँ राज्य प्राप्त नहीं कर सका। जम्मू के राजपक्ष से यवनों द्वारा युद्ध में मारा गया। हाजी खाँ सुल्तान बना। बहराम खाँ को हाजी खाँ के पुत्र ने अन्धा बना दिया। कारागार में रख दिया। तीन वर्षों के पश्चात् उसकी मृत्यु हो गयी। आदम खाँ तथा हाजी खाँ मे जीवन पर्यन्त द्वेष एवं संघर्ष की स्थिति बनी रही। सुल्तान ने पुत्रों में संघर्ष बचाने के लिये, आदम खां को काश्मीर से बाहर जाने का आदेश दिया था। इसी सयय देश में बारूद का प्रयोग आरम्भ हुआ। तोप का काश्मीर में लौकिक ४५४१ वर्ष = सन् १४६५ ई० निर्माण किया गया। भुट्टों को आदम खां जीत कर आया। तुरन्त दूसरे भ्राता हाजी खां को सुल्तान ने लोहराद्रि जाने की आज्ञा दे दी। परन्तु लो० ४५२८ = सन् १४५२ ई० मे रावत्र, लवलादि द्वारा प्रेरित खान पुनः काश्मीर आने को प्रयास किया। हाजी खां शोपुर मार्ग से राजपुरी त्याग कर काश्मीर आया। हाजी खां के विद्रोह तथा ससैन्य काश्मीर में प्रवेश की बात सुनकर, सुल्तान सामना करने के लिए ससैन्य प्रस्थान किया। मल्लशिला समीप दोनों पक्ष की सेनायें युद्धार्थ सन्नद्ध हो गयी। युद्ध के पूर्व सुल्तान ने पुत्र हाजी खां के पास दूत भेजा। हाजी खा के सैनिकों ने दूत का नाक-कान काटकर, उसे विरूप कर दिया। इस अभद्र एवं क्रूर व्यवहार को देख कर, सुल्तान क्रुद्ध हो गया। युद्ध के लिए निकला। युद्ध में खान हतोत्साह हो गया। प्राण रक्षा हेतु आर्तनाद करने लगा। रण में बीर धात्री पुत्र ठक्कुर हसन, हुस्सन, सुवर्णमिह एवं Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ जैन राजतरंगिणी गंगा वीरगति प्राप्त किये। सुल्तान ने पुत्र हाजी खां तथा उसके सैन्य का अद्भुत पराक्रम देखकर अपना । पुनर्जन्म माना । युद्ध पश्चात् हाजी खां पराङ्मुख हुआ । चिभ देश चला गया का कोई किसी भी अवस्था मे वध न करे । सुल्तान ससैन्य श्रीनगर लौट गया। पर आदम खाँ को प्राथमिकता देने का विचार किया । क्रमराज आदम खाँ को दे सुल्तान ने आज्ञा दी । पुत्र सुल्तान हाजी खाँ के स्थान दिया । लौकिक संवत् ४५३६ = सन् १४६० ई० मे दुर्भिक्ष पडा । मार्गशीर्ष मे हिमपात हुआ । तेल, घी, नमक आदि अन्न से सस्ते हो गये थे । कन्द पर जीवन निर्वाह होने लगा। तीन सौ दीनार का एक खारी चावल मिलता था । पश्चात् १५ सौ दीनार में भी एक खारी धान मिलना कठिन हो गया । सुल्तान ने कोश के माध्यम से, कुछ मास तक प्रजा की रक्षा की। लौकिक ४९३८ = सन् १४६२ ई० में घनघोर वृष्टि हुई । जल प्लावन ने फसल नष्ट कर दिया। नदियाँ उमड़ पड़ीं। विशोक का जल विजयेश्वर में तथा महापद्मसर का दुर्गपुर मे प्रवेश किया। सुल्तान ने कृषकों तथा जनता की रक्षा की। सुल्तान ने बाढ से रक्षा के लिये स्थान-स्थान पर नगर, ग्राम तथा आबादी निर्माण की योजना कार्यान्वित की । राजा जन्म दिवस का उत्सव उत्साह पूर्वक मनाता था। विदेश के राजाओं को भी सम्मान एवं उपहार दिया जाता था । संगीत सभा में सुल्तान कनक वृष्टि करता था । सुल्तान ने अन्न सत्र योगियों, फकीरो एवं गरीबों के क्षुधा शान्ति के लिये खुलवाया । योगियों का सुल्तान सत्कार करता था । सुल्तान वितस्ता जन्मोत्सव, उत्साह से मनाता था । दीप मालिका होती थी । संगीत होता था । लोग दान पुण्य करते थे । स्त्रियां पूजा करती थीं । आदम खाँ ने इसी समय, काश्मीर पर, ससैन्य आक्रमण किया । सुल्तान के मंत्री अविश्वासी एवं दुष्ट हो गये थे । वे स्वार्थी किसी न किसी पुत्र को उभाड़ते थे । संघर्ष की प्रेरणा देते थे। मंत्री गण कुत्तों से शिकार करते थे । स्त्री व्यसन में थे । वाज द्वारा शिकार किया जाता था। आदम खाँ तथा उसके सैनिकों का सैनिक स्तर गिर गया। किसी की सुन्दर बहु-बेटी रक्षित नही थी । शराब का दौर चलता था । सुल्तान पुत्र के कुकृत्यों से दुखी हो गया। आशंकित था । सैनिक तैयारी करने लगा । आदम खाँ के नगर में प्रवेश किया । पिता पुत्र मे युद्ध आसन्न था । सुल्तान विवश हो गया। हाजी खाँ को सहायतार्थ बुलाया । पिशुनों के कारण आदम खाँ और सुल्तान मे पुनः मनमुटाव हो गया। भयंकर युद्ध हुआ । इस समय एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया था, जो दोनों पक्षों से आर्थिक लाभ उठाता था । उनकी किसी के प्रति निष्ठा नहीं थी । सुल्तान ससेन्य सुय्यपुर पहुँच गया । दोनों तटों पर पिता एवं पुत्र की सेनायें स्थित हो गयी । हाजी खाँ पूछ से चलता, काश्मीर मण्डल पहुँच गया। सुल्तान के कारण कनिष्ठ पुत्र बहराम खाँ एवं हाजी खाँ दोनों भाइयो में मित्रता हो गयी । आदम खाँ अकेला हो गया। काश्मीर त्याग दिया । विदेश चला गया। वह शाहिभंग पथ से सिन्धु पार कर, सिन्धुपति के पास पहुँचा । सुल्तान लौकिक वर्ष ४५३३ = सन् १४५७ ई० में प्रवेश किया। हाजी खाँ को सुल्तान ने युवराज बना दिया । हाजी खाँ एवं सुल्तान राजकाज तथा उत्सवों में भाग लेते थे । चैत्रोत्सव में राजा पुष्प लीला की इच्छा से, नाव द्वारा मडवराज गया। राजा अवन्तिपुर एवं विजयेश्वर के राजभवनों में निवास करता था । यात्राओं में रंगमंच बनता था। नाटक होता था। नर-नारियों के साथ गान एवं नृत्य में समय व्यतीत होता था । आतिशबाजी होती थी । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ९५ सुल्तान खुरासान के मुल्ला जादक से कूर्मवीणा, श्रीवर से तुम्ब वीणा वादन सुनता था। जाफराण आदि से दुष्कर तुरुष्क रागो से गजा मनोविनोद करता था। उस समय वीणा एवं कण्ठ का स्वर एक जैसा प्रतीत होता था। नोत्थ सोम ने 'जैन चरित' लिखा था। वह राजा का निकटवर्ती था। देशी काश्मीरी भाषा का पण्डित बोध भट्ट ने 'जैन प्रकाश' नाटक की रचना की थी। 'शाहनामा' में पारगत भट्टावतार ने 'जैन विलास' नामक ग्रन्थ लिखा था। राजा बीणा, तुम्ब एवं रबाब वाद्यों का वादन सुनकर, प्रसन्न होता था। विद्वान् गायक एवं भृत्यों पर राजा कनकवर्षा करता था। पुष्प लीला समाप्त कर, राजा पुनः श्रीनगर लौट आया। राजा ने लहर दुर्ग की यात्रा की। उसने अनेक अन्नसत्र खोले । कृषि की उन्नति के लिये सुधार किये। चारों ओर धान की ढेरियाँ लगी दिखाई देती थी। कुल्या एवं नहरो से सिंचाई की प्रचुर व्यवस्था की गयी। छिछली भूमि मे सरोवर खुदवाकर, कमल तथा सिंघाडा लगाये गये । तैरते खेतों को भी उपजाऊ बनाया गया। मारी नदी को हस्तिकर्ण क्षेत्र में प्रविष्ट करा कर, सिन्धु वितस्ता सगम तक का क्षेत्र धान्यमय कर दिया। स्मशान मे बिना शुल्क दिए लोग शव दाह करने लगे। जैनुल आबदीन के समय विद्याओं की उन्नति हुई। सभी प्रकार की कलायें तथा विद्याएँ विकसित हुई । बीनने के लिए तुरी तथा वेमा का प्रयोग किया गया। पुस्तकों का अनुवाद किया गया। सर्वसाधारण का ज्ञान भण्डार भरने लगा। सिकन्दर बुतशिकन के समय जो लोग विदेशों में चले गये थे, वे पुन. देश में बुलाये गये। पुराण, तर्क, मीमासा एवं अन्य ग्रन्थ बाहर से मँगाकर उनका अध्ययन आरम्भ किया गया। जो जिस भाषा के प्रवीण था, उसे उसी भाषा में पढाया जाता था। धातु वाद, पथ ग्रन्थ, एवं कल्पशास्त्रों का अनुवाद किया गया। मुसलमान भी उनका अध्ययन करने लगे। बृहत्कथा सार एव हाटकेश्वर संहिता का भी अनुवाद हुआ। सुल्तान ने आदि पुराण, सुनकर, नौ बन्धन तीर्थ यात्रा लौकिक ४५३९ = सन् १४६३ ई० मे की। इस यात्रा मे उसके दोनों पुत्र हाजी खाँ और बहराम खाँ साथ थे। सुल्तान यात्रा कर, नाव से लौटा । नाव पर श्रीवर ने सुल्तान को गीत गोविन्द गा कर सुनाया। सुल्तान की कीर्ति काश्मीर के बाहर फैल गयी थी। भारत तथा सीमान्त स्थित अनेक राजा उसे उपहार भेजते थे । पंजाब के शासक ने ताजिक घोड़ा भेजा। मालवा तथा गौड़ के शासकों ने वस्त्र भेजा। सुल्तान ने भी सुन्दर भाषा मे काव्य लिखकर द्रव्य सहित बदले में उनके पास भेजा। राणा कुम्भ ने कुंजर नामक वस्त्र भेजा। ग्वालियर के राजा डुगर सिंह ने' 'संगीत शिरोमणि' 'संगीत चूड़ामणि' नामक ग्रन्थ भेजा। उसके पुत्र कीर्ति सिंह ने पिता का सम्बन्ध पूर्ववत् कायम रखा। सौराष्ट्र के शासक ने अश्व भेजा। बहलोल लोदी ने सुल्तान से मित्रता कर ली। खुरासान का सुल्तान अबूसैद ने घोड़ा और खच्चर भेजा। गुजरात के सुल्तान ने वस्त्र भेजा। गिलान, मिश्र, मक्का के सुल्तानों ने भी सुल्तान को भेंटें भेजी। बाहर से अनेक संगीत कलाकार, मदारी, सभी प्रदर्शन तथा द्रव्य प्राप्ति की आशा से काश्मीर प्रदेश आने लगे। उल्का पात आदि अपशकुनों के कारण किसी अशुभ कार्य की सूचना मिलने लगी। अकाल के कारण अन्न प्राप्ति के लिए एक देश, दूसरे देश तथा एक सुल्तान दूसरे सुल्तान पर आक्रमण करने लगे। खुरासान के सुल्तान अबूसैद ने इराक के सुल्तान पर अन्न हेतु आक्रमण किया। युद्ध हुआ। अबूसद बन्दी Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी बना । मार डाला गया । सुल्तान के जीवन के अन्तिम चरण में बोघा खातून उसकी पत्नी का अन्तकाल हो गया । वह सैयिद वशीय थी। सिन्धुपति सुल्तान का भगिनीपुत्र था। वह इब्राहीम लोदी द्वारा परास्त किया गया। मारा गया । राजा के विश्वस्त मंत्री एवं साथी भी मारे गये। वह पथभ्रष्ट गज तुल्य हो गया। हाजी खां अत्यधिक मद पीता था। उसे अतिसार हो गया। सुल्तान ने पुत्र को मद्यपान से विरत करने की चेष्टा की, परन्तु विफल रहा। मन्त्रियों ने आदम खाँ को विदेश से पुनः काश्मीर में राज्य करने के लिए आमन्त्रित किया। राजा उसका आगमन सुनकर भी, उदासीन रहा । हाजी खाँ का पुत्र हसन खाँ का आगमन सुनकर राजपुरी से पर्णोत्स पहुँच गया । चाचा और भतीजा मे प्रचण्ड युद्ध हुआ। सुल्तान ने बहराम खां को उत्तराधिकार देना चाहा। परन्तु उसने अस्वीकार कर दिया। आदम खाँ यद्यपि काश्मीर आया परन्तु आत्मरक्षा में समर्थ नहीं हो सका । पुत्रो का रक्तपात एवं राज्य लिप्सा देखकर, सुल्तान में विराग स्फुरित हो गया। वह श्रीवर से रात्रि में मोक्षोपम संहिता सुनाता था । 'शिकायत' नामक फारसी भाषा मे ग्रन्थ भी लिखा। इस समय राजनैतिक स्थिति अस्थिर थी। किसी की किसी के प्रति निष्ठा नहीं थी। दल बदल का जोर था। प्रतिदिन दल बदल होता था। पुत्रों तथा परिवार वालो के व्यवहार से राजा खिन्न हो गया। राजा के तीनों पुत्रों का एक दूसरे के प्रति अविश्वास था। राजा ने विरक्त होकर शासन मन्त्रियों को दे दिया । छाया में भी विश्वास करने से हिचकता था। (१:७१,३) रमजान मास आने पर, सुल्तान ने मांस भक्षण त्याग दिया। सुल्तान बीमार पड़ा । उसके रोग का निदान नहीं हो सका। सुल्तान ने भोजन त्याग दिया। ___ आदम खाँ पिता की बीमारी सुनकर, राज्य प्राप्त करने की कामना से जैन नगर गया। उसने एक दिन राजधानी में व्यतीत किया । कोशेश हस्सन ने हाजी का पक्ष ग्रहण किया। मन्त्रियों द्वारा त्यक्त, हत भाग्य, आदम खां कुतुबुद्दीन पर जाकर, हतश्री हो गया। हाजी खाँ राजधानी प्रागण मे पहुँचा। घोड़ों पर अधिकार कर लिया। आदम खां के अधिकार की बात, सुनते ही, विषुलाटा मार्ग से आदम खाँ बाहर चला गया। हाजी खाँ का पुत्र हसन खाँ पर्णोत्स मार्ग से काश्मीर में प्रवेश किया। सुल्तान अपना अन्तिम समय निकट जानकर, जैसे निश्चिन्त हो गया था। सुल्तान ने ज्येष्ठ मास द्वादशी लौ० ४५४६ = सन् १४७० ई० को प्राण त्याग किया। राजकीय सम्मान के साथ, कीरथ पर आरूढ कर, छत्र चामर सहित, ६९ वर्षीय राजा, को जिसकी दाढी अभी भी काली थी, पैत्रिक शवाजिर (मजारये-सलातीन) ले गये। उसे एक वस्त्र में लपेटा गया। पिता सिकन्दर बुत शिकन के समीप दफन किया गया। कब्र पर एक दीर्घ स्फटिक शिला खड़ी कर दी गयी। मृत्यु पर दान पुण्य किया गया। उस दिन नगर में किसी के घर चूल्हा नहीं जला। समस्त काश्मीर मण्डल में किसी के घर से धूवा निकलते किसी ने नही देखा। सुल्तान के आँख मूंदते ही, भव्य सुल्तान की सभा स्वप्नवत् हो गयी। विद्या का पारखी, विद्वानों, कलाकारों का सम्मान, आदर, सत्कार तथा सहायक कश्मीर मण्डल मे नही रह गया। (द्रष्टव्य = परिशिष्ट 'ण' जोनराज तरंगिणी: लेखक) हैदरशाह : (सन् १४७०-१४७२ ई० द्वितीय तरंग): हाजी खाँ अभिषेक नाम 'हैदर शाह' नाम से काश्मीर का सुल्तान हुआ। उसने राज्य ज्येष्ठ प्रतिपद लौकिक ४२४३ = सन् १४७० ई० में प्राप्त किया। राजधानी के प्रांगण में स्वर्णसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। उस समय Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका उसके समीप अनुज तथा आत्मज थे। सिंहासन पद कोशेश हस्सन ने पुष्प पूजा युक्त हैदर शाह का २, ज तिलक किया। पितृव्य बहराम खाँ को उसने नाग्राम की जागीर दी । पुत्र को क्रमराज्य तथा इक्षिका दिया। पुत्र युवराज घोषित किया गया। राजपुरी, सिन्धुपति आदि निमन्त्रित राजाओं को, राजोचित श्री से अलंकृत कर, विदा किया । सैयिद नासिर का पुत्र मियाँ हस्सन बहुरूप आदि राष्ट्रों का स्वामी बनाया गया। युवराज हसन शाह का विवाह मियाँ हस्सन की पुत्री से किया गया । इस प्रकार पिता, पुत्र तथा पितामह तीनों की रानियाँ सैय्यिद वंशीय हई। भाँगिल के मार्गेश जमशेद से लेकर, जहागीर मार्गपति को दिया गया। हैदरशाह के राज्यकाल में पूर्ण नापित प्रभावशाली हो गया। दुष्ट मन्त्रियों को प्रेरणा पर, राजा अविवेक पूर्ण कार्य करने लगा। राजा वीणावादक था। वीणा वादन की शिक्षा भी देता था। ___ आदम खाँ राज्य प्राप्ति की लालसा से, मद्र देश से, पर्णोत्स पहुँचा। राजा को हस्सन कोशेश जिसने राज तिलक किया था, उस पर सन्देह हो गया। उसने उसके वध करने का संकेत किया। प्रातः काल हस्सन कोशेश आदि राजभवन पहुंचे। छल से राजधानी मण्डप मे उनकी हत्या करा दी गयी । हस्सन के पक्षपाती कारागार में डाल दिये गये । पुरानी मन्त्रिसभा समाप्त कर दी गयी। आदम खाँ ने जब हस्सन कोशेश आदि की हत्या का समाचार सुना, तो जैसे आया था लौट गया । कनिष्ठ भ्राता, बहराम खाँ आदि प्रमुख व्यक्ति हत्या काण्ड देखकर, शंकित हो गये । सुल्तान ने भाई बहराम खाँ को सुरक्षा का विश्वास दिया। मद्र राजा मणिक देव और मुसलमानों में युद्ध हुआ। आदम खाँ का मामा माणिक्य देव था। आदम खाँ मामा के पक्ष से लड़ता मारा गया। मुख पर वाण लगने से मृत्यु हो गयी। हैदर शाह ने बड़े भ्राता आदम खाँ का शव मंगाकर, श्रीनगर मे उसकी माता के समीप दफन किया। पिता जैनुल आबदीन के समान हस्सन शाह भी पुष्प लीला करने मडव राज्य गया। उसी समय वहाँ भूकम्प हुआ। आकाश मे पुच्छल तारा सर्व प्रथम बहराम खाँ ने देखा। दिन में भी तारा दिखायी पड़ता था। जैनुल आबदीन के समय ब्राह्मणों का दमन बन्द हो गया था। पूर्ण नापित अत्याचार से हिन्दू पीड़ित किये गये । ब्राह्मण लोग 'मैं भट्ट नहीं हैं' 'मैं भट्ट नही हूँ' चिल्लाने लगे। प्रतिमा भंग की राजा ने आज्ञा दी। जैनुल आबदीन ने विद्वानों को भूमि आदि जागीर मे दी थी, वे सब भी छीन ली गयी। राजा के सेवक खुलेआम लूटपाट करते थे । राजा शय्या पर पड़ा करवटें बदलता रहता था। उसने राज कार्य में रुचि लेना त्याग दिया। लक्ष्मीपुर की राजधानी इसी समय जलकर भस्म हो गयी । बलाढयपुर समीपस्थ मकान भी जल गये । प्रसन्न होकर राजप्रासाद पर चढ़कर राजा घरों को जलते हुए देखा । पान लीला करने लगा। पिशुनो की पिशुनता पर राजा ने सेना सहित पुत्र को बाहर भेज दिया। हसन खाँ ने राजपुरी के राजा को पराजित किया । उसकी भगिनी से विवाह किया। दिनार कोट की सेनाओं ने हथियार रख दिया। मद्र, गक्खड़ तथा चिव देश के राजागण उसके आश्रम में आगये । हसन खाँ कुटी पाटीश्वर पहुंचा । भोग पालो का नगर जला दिया । बालेश्वर गिरि के पाद मूल मे हसन खाँ की सेना पहुंच गयी। हसन खाँ काश्मीर से ६ मास बाहर रहकर, विजय करता रहा। बहराम खां ने देखा। राजा व्यसनी हो गया है । मन्त्रियों एवं सामन्तों को आक्रान्त कर, निरंकुश काश्मीर मण्डल में भ्रमण करने लगा। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी सुल्तान निरन्तर पान के कारण दुर्बल एवं अतिसार रोग ग्रस्त हो गया। हसन खाँ ने आते ही, उछु'खल मन्त्रियों का नियन्त्रण किया। हशन खाँ पर सुल्तान इसलिये नाराज हो गया कि उसने फिरोज गवखड़ को बन्दी बनाकर, नही लाया। सुल्तान ने बिजयी पुत्र हसन खाँ के निकट आने पर भी उसके प्रति अधिक आदर प्रकट नहीं किया। राजा सेवकों सहित पान लीला हेतु राजाप्रासाद पर चढ गया। लीला पूर्वक दौड़ने लगा। गिर पडा । नाक से रक्त निकलने लगा। बेहोश-सा हो गया। उसकी काख मे हाथ डालकर, शयन मण्डप में सेवक ले गये । कोई योगी राजा की औषधि कर रहा था । उग्र औषधियों के प्रयोग से राजा की हालत और बिगड़ गयी । वह जलन से जलने लगा। बहराम खां राज्य प्राप्ति प्रयास में लग गया। राजलक्ष्मी चाचा और भतीजा के बीच में झलने लगी। राजा दिवंगत हो गया। आयुक्त अहमद ने सचिवों से मन्त्रणा कर, प्रस्तान रखा। वहराम खाँ राज्य ग्रहण करें। हसन खाँ युवराज बना दिया जाय। अभागे बहराम खां ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। राज्य प्राप्ति के लिए, जिन लोगों ने बहराम खां को प्रोत्साहित किया था, वे सहायक न हये। बहराम खाँ की स्थिति बिगड़ गयी। आयुक्त अहमद ने सचिवों के साथ मन्त्रणा किया। राजपुत्र हसन को राज देने का निश्चय किया । बहराम खाँ नगर छोड़कर भाग गया। कश्मीर से बाहर चला गया। .हैदर शाह लो० ५४४८ = सन् १४७२ ई० मे एक वर्ष दस मास राज्य कर वैशाख मास श्री पंचमी को दिवंगर हो गया । सम्बन्धी, मत्री आदि शिविका रूढ़ सुल्तान का शव पित। के शवाजिर मे ले गये। एक वस्त्र सहित दफना दिया गया। उसे मिट्टी दी गई। कनपर एक मध्योतम शिला स्थापित की गई। हैदर शाह ने फारसी एवं हिन्दुस्तानी भाषा में गोत काव्य को रचना किया था। हसन शाह (सन् १४७२-१४८४ ई० त्रितीय-तरंग) : हसन शाह राजधानी सिकन्दरपुर से हटाकर पिताह के राजधानी जैन नगर मे गया। राजा का आदर्श पिता नहीं, पितामह जैनुल आबदीन का। आयुक्त अहमद ने सिंहासनासीन हसन शाह का स्वर्ण कुसुमो से पूजा कर, राज तिलक किया। होम किया गया। वाद्य वादन हुआ। नगर ध्वजाओं से सजाया गया । ध्वजायें श्वेत बडी-बड़ी थी। सेवक रेशमी वस्त्रों का उवहार प्राप्त किये । पूर्वकाल मे उन्हे इस अवसर पर रूई के वस्त्र दिये जाते थे। पिता तथा पितामह को राज्य प्राप्ति हेतु रक्त पात तथा सघर्ष करना पड़ा था। हसन शाह ने बिना रक्तपात क्रमागत राज्य प्राप्त किया। हसन शाह ने षड दर्शनों का अध्मन किया था। आयुक्त अहमद के नियन्त्रण मे राज सत्ता थी। पुत्र नौरोज उसका सहायक था। द्वारपाल का कार्य करता था। मल्लिक अहमद को नाग्राम दिया गया। विदेश प्रवास काल मे साथ रहने वाला ताज भट्ट राजा का अत्तरंग एवं दूताधिकार पद प्राप्त किया। जोन राजानक आदि भी पूर्व सेवा के अनुसार ग्रामादि प्राप्त किये। अभिषेक उत्सव की खुशी में कैदी मुक्त कर, भुट्ट देश निर्वासित किये गये । हसन शाह का आदर्श पितामह जैनुल आबदीन था। राज्य प्राप्ति के पश्चात् ही पितामह का आचार-विचार राज्य में प्रवर्तित किया। इसी समय वहराम खाँ राज्य प्राप्ति की लालसा से देशान्तर का उद्यम त्याग कर, युद्ध के लिए आया। उसे राजपुरुषों से सहायता की आशा थी। क्रमराज्य विजयेच्छा से पहुँचा । मन्त्रियो सहित राजा अवन्तिपुर में स्थित था। बहराम खां के प्रति गमन की वार्ता सुतकर, शीघ्र श्रीनगर लौट आया। पितृव्य के आगमन से राजा विह्वल हो गया। सुरपुर पहुँचा । फिर्य डामर एवं ताज भट्ट को वहराम खाँ के विजयार्थ राजा ने भेजा। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका बहराम खाँ डुलपुर पहुँच गया । राजपुरुषों ने उसे आश्वासन दिया। राजपुरुष उसकी सहायतार्थ नहीं आये । बहराम खाँ निराश हो गया। पुत्र सहित बन्दी बना लिया गया। मुख पर बाण लगने के कारण पीड़ित तथा रक्तमय हो गया था। विजयोत्सव मनाया गया। बहराम खाँ पुत्र सहित अपने ही निर्मित जैनगिर लीला प्रासाद मै बन्दी बना कर रखा गया । उसकी आंख फोड़ दी गयी। तीन वर्ष कारावास मे रहकर, वही मर गया। उसका चौबीस वर्षीय पुत्र कारागार से बाहर निकलते ही मार डाला गया। राजा प्रसन्न मन नगर लौटा। प्रतिहार अभिमन्यु देवसर का स्वामी बन गया। लूट से धन संग्रह करने लगा। प्रतिहार अभिमन्यु का उत्कर्ष अहमद आयुक्त पक्ष सहन नहीं कर सका। उसे समाप्त करने का निश्चय, आयक्त ने किया। तत्काल उसे बन्दी बनाने का अवसर नहीं मिल रहा था। एक बार राजा स्वयं विजयेश्वर गया । उसे राजधानी लाया । वह आते ही बन्दी बना लिया गया । राज्य ने उसका सर्वस्व हरण कर लिया। पत्र भी कारागार में डाल दिया गया। उसकी आँखे फोड़ दी गयी। उसने भी बहराम खाँ के समान दो वर्ष कारागार मे नरक यातनाये भोगी। मर गया। पूर्ण नापित, मल्लिक जादा आदि चिरकाल बन्धन मे रहकर, मर गये। पूर्वकाळ मे सैयिद नासिर आदि को पैगम्बर वंशीय जानकर, जैनुल आबदीन ने उनका आदर किया था। अपनी पुत्री का विवाह कर उसे राष्ट्राधिप बना दिया था। सैयिद जमाल आदि उपद्रवियों को देश से निकाल दिया था। सैयिद नासिर भी देश बाहर, स्थिति अनुकूल न देखकर, चला गया। सैयिद विवाह से सम्बन्धित होने के कारण बहुरूप आदि क्षेत्रों का, सुख भोगते थे। राजाओं के समान आचरण करते थे। हसन शाह ने उनके उद्धत स्वभाव के कारण उन्हे देश से निकाल दिया। कुछ दिल्ली में आश्रय लिये। कुछ इधर-उधर बाहर आबाद हो गये। मार्गेश जहाँगीर ने अपनी बेटी का विवाह सैयिद कुटुम्ब में कर दिया था। उसका अनादर हुआ। तलाक दिलाकर, ताज भट्ट से उसका विवाह कर दिया। जैनुल आबदीन सैयिदों को बाहर करने में असफल रहा परन्तु हसन शाह ने उनके निष्कासन में सफलता प्राप्त की। देश में समृद्धि फैली। राज्य सुखमय था। जनता विवाहोत्सव, सुन्दर भवन रचना, नाटक, यात्रा आदि मंगल कार्यों में समय व्यतीत करती थी। लूट-पाट, अराजकता देश से लुप्त हो गयी थी। ____तोरमान कालीन पचीस मूल्य वाला दीनार हसन शाह के समय चलता था। उसका मूल्य कम हो गया था। सुल्तान ने नागयुक्त द्विदीनारी प्रवर्तित किया। राजा की माता का नाम गोल खातून था। उसकी मृत्यु अकस्मात् हो गयी । वह हिन्दू आचरण करती थी। सुल्तान ने काला वस्त्र धारण किया। शोक सात दिनों तक मनाया गया। हसन शाह को यात खातून से मुहम्मद नामक पुत्र हुआ। पिता की मृत्यु के पश्चात् काश्मीर का सुल्तान हुआ। पुत्र का अभिभावक ताज भट्ट बना । हसन शाह संगीतज्ञ एवं कुशल गायक था। सगीतविद् उसके दरबार में चारों ओर से आते थे। मन्त्री जहाँगीर मार्गेश भी संगीतज्ञ था। काश्मीर मे भाड़ों के प्रदर्शन का भी उल्लेख मिलता है। अनेक भाषाओं के ज्ञाता भाँड़ थे। भडैती में हास्य रस की प्रमुखता होती थी। मुल्ला हसन ने दश तन्त्रियों वाली मोद वीण बनायी थी। श्रीवर भी तुम्ब वीण पर गायन एवं वादन करता था। हसन शाह संस्कृतभाषी था। पद्य रचना करता था। उसका गीत सुनकर, लोग चकित हो जाते थे। अनेक रागों के विशेषज्ञों से उसका दरबार भरा रहता था। नर्तकियाँ शास्त्रीय नृत्य करती थीं। रत्नमाला, रूपमाला, दीपमाला Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनराजतरंगिणी नर्तकियाँ लास्य नृत्य मे निपुण थी। राजा की संगीत प्रियता एवं संगीतज्ञों का आदर सुनकर, विदेशो से अनेक भाषाविद् गायक राजसभा की शोभा बढ़ाते थे। देशी-भाषा मे 'लीला' नामक प्रबन्ध गान भी होता था। हसन शाह के समय गोहत्या विदेशी मुसलमानों तथा वणिकों द्वारा श्रीनगर में की गयी थी। जैनुल आबदीन के समय गोहत्या बन्द थी। गोहत्या के पाप से, जहाँ गोहत्या की गयी थी, जहाँ गोमांस भक्षण किया गया था, वह विहार, वह नगर सब भस्म हो गया। उत्पात होने लगे। गोवधिकों के बाजार में लौकिक ४५५५ = सन १४७९ ई० मे अनायास आग लग गयी। अग्नि गुलिका वाटिका तक फैल गयी । बडी मसजिद में भी आग लग गयी। उसे सिकन्दर बुतशिकन ने निर्माण कराया था। मसजिद की दिवाल मात्र शेष रह गयी थी। सव कुछ जलकर राख हो गया। ईद के दिन वहाँ मुसलमान नमाज पढ़ते थे। बहराम खाँ के पंच आवास आदि गृह की भयंकर अग्नि, खाण्डव वन दाह की स्मरण दिलाती थी। उडते, जलते, भोजपत्र वितस्ता में तैरती नावों पर आकर गिरे। नावो में आग लग गयी। सहस्रों गृह उस दिन भस्म हो गये। भयंकर वायु चली। उल्लोलसर (उलर लेक) मे सैकड़ों किरात अर्थात् माँझी डूब गये। हसन शाह दुर्बल राजा था। मन्त्री हावी थे। मन्त्रियों के पारस्परिक मत्सर तथा द्वेष के कारण अव्यवस्था फैल गयी। राज्यादेश प्राप्त ताजभट्ट ने विदेशोमे अभियान किया । काश्मीर का पुनः गौरव प्राप्त करने का प्रयास, विजयो द्वारा किया गया । ताजभट्ट ससैन्य राजपुरी पहँचा। अजयदेव आदि मद्र तातार खाँ का साथ त्याग दिये। उससे मिल गये। स्यालकोट आदि दग्धकर्ता, दिल्लीपति बहलोल लोदी के लिये भी वह भयप्रद हो गया। सामन्तो को करदीकृत करता, काश्मीर लौट आया। मलिक अहमद उसकी विजय तथा उत्कर्ष से ईर्ष्यालु हो गया। ताजभट्ट के नाश की चिन्ता करने लगा। हसन शाह ने कनिष्ठ पुत्र हस्सन का अभिभावक नौरुज को बना दिया। ताजभट्ट से बदला लेने के लिये मलिक ने निष्कासित सैयिदो को पुनः काश्मीर आगमन का आमन्त्रण भेजा। गुप्तचरों ने सै यिदों के आगमन द्वारा सर्वनाश की चेतावनी दी। परन्तु ईर्ष्या से अन्ध एवं वधिर मल्लिक ने नेक सलाह की उपेक्षा कर दी। सैयिदो का प्रवेश काश्मीर में हुआ। जैनुल आबदीन, हैदर शाह तथा हसन शाह ने देश की सुरक्षा एवं शान्ति की दृष्टि से उन्हे निकालने का प्रयास किया था। सैयिद हसन प्रवेश पाते ही, सिद्धादेशाधिकारी बन गया। खोयाश्रम प्रदेश जागीर में प्राप्त किया। सैयिदों के प्रवेश के कारण, काश्मीरी त्रस्त हो गये। वे सैयिदों का भूतकालीन प्रजापीड़क इतिहास नही भूले थे। सैयिदो से काश्मीर मण्डल आक्रान्त हो गया। उन्होंने ताजभट्ट की पत्नीके हरण इच्छा की। उसे कारागार में डाल दिया। मलिक अहमद ने अपने मार्ग में पड़ने वाले सभी सम्भावित काश्मीरी सामन्तों का नाश कर दिया। राजा भी मलिक से विरक्त था। पान लीला के समय मलिक पुत्र नौरोज ने राजा का अपमान किया । राजा मल्लिक से चिढ़ गया। उसने मल्लिक तथा पुत्र की लीला समाप्त करने का निश्चय किया। मल्लिक सुल्तान के पुत्र का अभिभावक था। राजा ने मल्लिक को हटाकर, पुत्र का अभिभावक जोन राजानक को बना दिया। राजा के आह्वानन पर ससैन्य साहसी मार्गपति जहाँगीर शीघ्र ही श्रीनगर में आ गया। मल्लिक उसके आगमन का समाचार सुनते ही क्रुद्ध हो गया। अपशकुन होने पर भी दूसरे दिन, बह ससैन्य राज Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १०१ मार्गपति जहांगीर तथा मल्लिक दोनों की सेनायें आमने-सामने देखकर राजधानी प्रासाद प्रांगण में पहुंचा संभ्रम से चंचल हो उठी। मल्लिक ने सैयिदो से मिलकर नगर मध्य मौर्चाबन्दी कर ली । 2 राजानक जोनराज सहित विजयी जहाँगीर ने ताजभट्ट को मुक्त कर दिया। राजधानी प्रांगण रौद डाला । ताजभट्ट के सैनिकों ने राजधानी का पश्चिमी द्वार जला दिया । उस अग्नि ने हसन राजानक के आवाश पर्यन्त भवनो को जला दिया। राजप्रासाद के प्रागण मे जलती अग्नि देखकर, राजसेवकों सहित राजा भयभीत हो गया । मल्लिक के सेवकों ने उसका साथ त्याग दिया। वह पुत्रों सहित किंकर्तव्यविमूढ हो गया । स्तब्ध खड़ा रहा । मल्लिक ने पुत्रो के प्राण भय के कारण, युद्ध का निषेध किया । राजा ने पूर्व सेवा का स्मरण कर, आयुक्त की रक्षा की । युद्ध मे असमर्थ आयुक्त नत्यक आदि भुट्ट देश चले गये । उत्तर द्वार से विजयी, जयोद्धत जहाँगीर आदि गरजते हुए, नृपांगण मे प्रवेश किये। राजा ने पुत्र सहित मल्लिक को बन्दी बना लिया | उन्हें कारागार मे डाल दिया गया । मलिक की सम्पत्ति हरण कर ली गयी । राजा ने जुग्गभट्ट को कारागार में उसके पास स्वर्ण राशि का पता पूछने के लिये भेजा । उसने अपनी पूर्व सेवाओं का स्मरण दिलाया। राजा को विज्ञप्ति भेजा । सैयों का प्राबल्य हो गया। वे जनता का आर्थिक शोषणा करने लगे । जहाँगीर मार्गेश एवं नोस राजा श्री सम्पन्न हो गये । मियाँ हसन ने मल्लिक की पदवी प्राप्त कर नाग्राम आदि पर अधिकार कर लिया मियाँ महम्मद को अर्धवन राष्ट्र दिया गया दिल्ली से सैयद नासिर को बुलाने के लिये दूत भेजा गया । शूरपुर अध्वन से पांचाल देव, पहुँचते-पहुँचते नासिर ज्वराक्रान्त हो गया। पौत्री (रानी) जमात (राजा) एवं सब मन्त्रीगण उससे मिले । वह दो दिन ज्वरग्रस्त रहकर, मर गया। इसी समय मल्लिक भी कारागार में मर गया । पुत्रीके भाग्य रूप सौभाग्य से सम्प्राप्त, विभव से ऊर्जित, सैयिद गण काश्मीरियों की पद पद पर उपेक्षा करने लगे। राजा भी संविदों का मुखापेक्षी हो गया। अधिकारी गण उत्कोच अर्थात् धूस ग्रहण करना धर्म, प्रजा-पीड़न कौशल, स्त्रियो में व्यसन सुख, मानने लगे । राहु के समान सैयिद हसन काश्मीर मण्डल पर आक्रान्त हो गया । नासिर को भेजा। उन मे एक जहाँगीर ने राजा को सैयियों थियों ने छोटे एवं बड़े मौड़ देश को जीतने के लिये जहाँगीर एवं ने विजय प्राप्त की और दूसरा बन्दी बन गया। युक्ति से अपनी रक्षा की। से सतर्क रहने की सलाह दी। सैयद कन्या, रानी के पास से मुक्त होने के लिये कहा। । किन्तु रात्रि मे राजा ने अपनी रानी सैयिद कन्या से सब बातें बता दी। रानी सर्पिणी के समान क्रुद्ध हो गयी। जहाँगीर के अनिष्ठ की चिन्ता करने लगी। जहाँगीर समाचार पाते ही कर्कोट द्रंग मार्ग से बाहर निकल गया। भोगिला से कुटुम्ब सामग्री लेकर वह दुर्गमार्ग से गमन किया। सैयिद से समन्वित राजा आयुक्त अहमद एवं जहाँगीर की अनुपस्थिति में अपने को पथभ्रष्ट सदृश अनुभव करने लगा। सैयदों तथा भार्या के आधीनबुद्धि राजा था । उसका व्यवहार विशृंखलित था। दिन पर दिन राजा की अन्तरंग स्त्रियाँ होती गयीं । मन्त्री और सेवकों से दूर होता गया। काश्मीर की स्थिति बिगड़ती मियाँ हस्सन सर्प गयी । जहाँगीर मार्गेश ने पुनः राजा को सावधान किया । मार्गेश के पत्र की बात जानकर, सदृश क्रुद्ध हो गया । अनिष्ट की आशंका से मद्र देशीय परशुराम आदि काश्मीर देश से जाने के लिये आज्ञा मांगने लगे । किन्तु तत्काल उन्हें पाथेय तथा मुक्ताक्षर नहीं दिया गया। मद्रों में शंका घर कर गयी। सैयिदो से विरक्त Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १०३ ने उस सुखद स्थिति का लोप कर दिया। राजा हसनकालीन गायक वृन्द अनायास शोक से मूक हो गये । सैयिदों द्वारा पक्षियों का नाश होने लगा। सैयिद परस्पर मन्त्रणा करते थे। उनकी नीति के कारण मद्र तथा काश्मीर शंकित हो गये। भद्रों का नेता परशुराम था। उसने विद्रोह का निश्चय किया। एक समय हसन से उसकी पुत्री मेरा ने कहा-'हे स्वामी, रानी का कोई कार्य करना है। शीघ्र आइये ।' रविवार के दिन नृपालय नहीं जाना चाहिये। उसने स्वप्न मे देखा था। तथापि स्वप्न की उपेक्षा कर, वह नृपालय गया। वही पर मैयद हसन भी आगया । जोन राजानक आदि ने मद्रों को उभाड़ दिया । सैयिद वधने पर वे तत्पर हो गये। ___ अमृत वाटी में सैयिदो को एकत्रित जानकर, परशुराम मद्रो के साथ पहुंचा । सैयिद के भृत्य-'मन्त्रणा हो रही है' कहकर, बाहर ही द्वारपाल ताजक द्वारा रोक दिये गये। ताजक ने सैयिदों से कहा । 'आपके भृत्य भोजन सामग्री लूट रहे है ।' सैयिदों ने शास्त्रधारी भृत्यो को रोकने के लिये भेजा। इसी समय जोन राजानक वाटिका मे दूसरे मार्गसे प्रवेश कर गया। ताज दौवारिक अश्वारूढ़ होकर, दूसरी तरफ घूमने लगा। मद्रो को देखकर, सैयिद शकित हए । मद्रों को देखकर सिंह भट्ट ईर्ष्या पूर्वक कहा-'यहाँ किस लिये आये हो ?' उन्होंने उत्तर दिया-'प्रति मुक्त पत्र नहीं मिला है।' उत्तर मिला-'प्रतिमुक्त पत्र आज मिल जायेगा।' पाथेय की बात उठाकर, एकान्त देखकर, परशुराम ने सिंह भट्ट का वध कर दिया। सैयिद भयभीत हो गये । चतुष्मण्डपिका मे सिंह भट्ट के गिरते ही, सैयिद उठ खडे हुए। परशुराम ने वही उनका वध कर दिया। तुन्दिल सैयिद हसन द्वार पर ही सैकड़ो प्रहारों द्वारा मार गया। मियाँ हस्सन दिवाल लाँघकर, भागना चाहता था। उसका दोनों पैर काटकर मार डाला गया। तीस की संख्या मे सैयिद तथा उनके साथी वही मारे गये । गोहत्या जिस प्रकार घर में करने से सैयिदों को पाप का भय नही हुआ, उसी प्रकार सैयिदो का वध करने मे परशुराम एवं उसके मद्र साथियों की नही हुआ। __मृगया के पश्चात् जिस प्रकार कुरंग आदि का सैयिद अंगच्छेद कर देते थे। उसी प्रकार भद्रों ने सैयिदों का अंगच्छेद कर दिया। उनके शरीर पर पड़ा बहुमूल्य वस्त्र लुण्ठकों ने ले लिया। वे अनाथ सदृश नंगे भूमिपर पड़े रहे । सैयिदों के अनुचर एवं साथी भाग गये । मियां मुहम्मद राजगृह में आकर युद्ध छेड़ दिया। राजद्वार जला दिया गया। राजप्रासाद लुटा जाने लगा । विद्रोही परशुराम आदि ने आग लगी देखा। वाटिका से निकलकर, राजधानी प्रागण में आ गये । मद्र लोग राजकीय अश्वों को ले लिये। बाहर निकल गये। मद्र सुरक्षा की दृष्टि से अन्य काश्मीरी विद्रोहियों के साथ वितस्ता पार चले गये। दूसरी तरफ मियाँ मुहम्मद ने द्वारपाल ताज एवं पाज का वध कर दिया। वे दोनो भाई थे। बहराम के पुत्र की हत्या कर दी गई। उसके शव को प्राप्तकर, उसकी माता ने तीन दिन तक, शव को रखकर, दफन कर दिया। वह जीवन पर्यन्त पुत्र के कब्र के पास रहकर, जीवन व्यतीत की। पाजभट्ट का भी वध कर दिया गया। विद्रोहियो को नदी पार गया सुनकर, अली खान आदि विद्रोहियों का पीछा किये । जल्लाल ठाकुर ने रक्षा की दृष्टि से नौका सेतु काट दिया। काश्मीरी लोग मद्रो से सुलह कर लिये । सैयिदों ने विशंप्रस्थ मे शिविर लगाया। सैयिदों ने प्रचुर धन देकर, कारीगर एवं ग्रामीणों को शस्त्र धारण करा दिया। काश्मीरी तथा मद्र जो पार गये थे, जाल द्रागड़ मे शिविर लगाये। नगर में भद्रों के साहस एवं पराक्रम का वृत्तान्त सुनकर, सब राष्ट्रों से शस्त्रधारी आने लगे। काश्मीरियों के पास कोश नही था। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनराजतरंगिणी अतएव काश्मीरी नाव से धान बाहर से लाकर सैनिकों के प्रवास वेतन अदा किये । प्रतिदिन पाँच-सात लोग मरते थे। दोनों दलों मे संघर्ष होता था। सैयिद एव काश्मीरियो के संघर्ष से चौथा तरंग भरा है। परिखा आदि तैयार कर नवीन रण कौशल के साथ संघर्ष होता रहा। इस युद्ध में क्रूरता का जो ताण्डव हुआ, उसे देख एवं सुनकर मानवता लज्जित हो जाती है। काश्मीरियों ने पक्ष मजबूत करने के लिए, जहाँगीर मार्गेश को बुलाया। लेखों से प्रेरित होकर, मार्ग पति ने पर्णोत्स मार्ग से काश्मीर में प्रवेश किया। उसका आगमन सुनकर, सैयिद कोंप उठे। सैयिदों ने सन्धि की इच्छा प्रकट की। मार्गेश ने फारसी, लिपि मे पत्र भेजा। आरोप लगाया-'बहराम खां के के पुत्र की हत्या की गई । नुरुल्ला आदि का वध किया गया। शिशु राजा का कोश लूट गया । मन्त्रणा के पूर्व सैयिद शस्त्र त्याग दे। बाल राजा का कोश यथास्थान रख दिया जाय। काश्मीरी राजकाज पूर्ववत् करें।' सैयिदों ने शर्त नहीं मानी । सन्धि वार्ता टूट गई। दोनों दलों में पुनः संघर्ष होने लगा । संघर्ष का लाभ उठाकर तस्कर, डॉम्ब आदि नगर मे लूटपाट करने लगे। कभी सैयिद पक्ष जीतता तो कभी काश्मीरी । संघर्ष मध्य ही आकाश मे एक दीप्त उल्का उत्पन्न हुई। वह ज्वाला पुंज उत्तर से दक्षिण जा रहा था। सैयिदों ने पंजाब से तातार खा की सहायता प्राप्त की। तातार खां ने तुरुष्को की सेना भेज दी। किन्तु वह सेना संघर्ष मे नष्ट हो गई। दो सहस्र विदेशी सैनिक काश्मीरियों द्वारा मारे गये । वितस्ता के दोनों तटों पर काश्मीरी तथा सैयिद सेनायें थी। दोनों में निरन्तर संघर्ष होता रहा। दोनों दलों में किसी की भी विजय मे जनता को सन्देह था। काश्मीरियों ने तीन मार्गों से सैयिदो पर आक्रमण किया। संघटित सैन्य भेद करने का निश्चय किया। काश्मीरियों ने अपने तथा अन्य काश्मीरी सैनिको मे भेद जानने के लिए, अपने सैनिकों के शिरों पर पत्र शाखा रख लिये। मद्रो ने व्यूह वध्य युद्ध किया। घनघोर युद्ध के पश्चात सैयिद पलायित हो गये। सैयिदों एवं काश्मीरियों का यह संघर्ष लौ० ४५६० = सन् १४८४ ई० श्रावण मास, प्रतिपद को हुआ था। काश्मीरियों की विजय हुई। युद्ध में दो सहस्र सैनिक मारे गये । बाल राजा सैयिदों के शिकंजे से निकलकर, काश्मीरियों के प्रभाव में आ गया। विजय पश्चात् बाबा सैयिद हमदान खानकाह का जीर्णोद्धार हआ। अली खां आदि सैयिदों की सम्पति हरण कर, उन्हें काश्मीर से निर्वासित कर दिया गया। परशुराम काश्मीरी मन्त्रियों से सत्कृत होकर, मद्र देश लौट गया। जिन लोगों ने काश्मीरियों का पक्ष लिया था, वे सैयिदों के चले जाने पर, योग्यतानुसार सरकारी पद ग्रहण किये । जल्लाल ठाकुर नाग्राम के मियाँ हस्सन की सामग्री तथा उसके पुत्र लहर आदि की जागीर प्राप्त किये । जहांगीर ने भांगिल राष्ट्र तक खूयाँ आदि प्रमेयों को ले लिया। सैफ डामर मक्षिकाश्रम आदि राष्ट्रों का स्वामी हुआ। उसके सहोदर भाई अन्य ग्रामादि लिये। जोन राजानक परिहासपुर का स्वामी बना । देश में ठाकुर, डामर तथा राजानक तीन दल काश्मीरियों के थे। वे सब रचनात्मक कार्यों में लग गये। सैयिदों के काश्मीरी रंगमंच से लुप्त होने पर, काश्मीरी परस्पर लड़ने लगे। राजकर्मचारी पिशुन होते है । उन्होंने मन्त्रियो में परस्पर मन मुटाव उत्पन्न कर दिया। मार्गपति की वृद्धि एवं अधिकार बहुतो Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १०५ को पसन्द नही आया। मार्गपति ने जब इस प्रकार की बातें सुनीं, तो वह राजकार्य से विरक्त हो गया। क्रोधित होकर, तटस्थ रहने लगा । जोन राजानक मन्त्रियों मे क्रूर हो गया। वह स्वार्थ सिद्धि के लिए जनता को पीड़ित करने लगा। इसी समय यात्रा के लिए विदेश गये, एद राजनक एवं ठक्कूर अहमद, मार्गेश के दर्शन ब्याज से श्रीनगर में प्रवेश किये। मार्गेश भयभीत हो गया। उसने सेफ डामर सहित विदेशी सैनिकों को बुलाकर सशकित रात्रि व्यतीत किया। दूसरे दिन अहमद ठाकुर ने जोन राजानक का वध कर दिया। सेफ डामर भयभीत होकर, शस्त्र समर्पित कर दिया । जल्लाल ठाकूर राजप्रासाद के प्रांगण में था। द्वारपालों ने अन्तःपुर मे उसका बध कर दिया । मसूद डामर आदि ने नौका पुल काट दिया । जाल डागर में पूर्वकालीन संघर्षके समान सेना शिविर लग गये। आदम खां का पुत्र फतह खाँ था। वह राज्य प्राप्ति की लालसा से काश्मीर में लौकिक ४५६१ वर्ष = सन् १४८५ ई० श्रावण मास में प्रवेश किया। उसका जन्म मद्र मण्डल मे शिवरात्रि के दिन हुआ था। आदम खाँ की मृत्यु माणिक्यदेव के पक्ष से लड़ते, तुरुष्कों द्वारा हुई थी। मातामही के घर उसका लालनपालन हुआ था। कालान्तर में तातार खाँ द्वारा रक्षित, कुछ दिन जालन्धर मे था। सैयिदो के भय से वहिर्गत, जहाँगीर मार्गेश ने पितामह जैनुल आबदीन का राज्य प्राप्त करने के लिये, उसके पास छलपूर्ण पत्र भेजा। तातार खाँ की मृत्यु पर, उसके पुत्र हस्सन खां ने फतह खान का कुछ समय तक पालन-पोषण किया था। फतह खाँ को शृंगारसिंह राजपुरी लाया । राजपुरी पति मागेंश का द्वेषी था। जोन राजानक के मृत्यु पश्चात्, एद राजानक, ठक्कुर दौलत, आदि डामरों ने खान का पक्ष ग्रहण किया। मार्ग रक्षाधिकारी मसूद खाँ वैवाहिक सम्बन्ध से बद्ध होने पर भी, फतह खान का पक्ष ग्रहण किया। देश से जितने लोग निर्वासित थे, सब फतह खान से मिल गये । फतहशाह ने जहाँगीर के पास दूत भेजा। उसमे पत्र का स्मरण दिलाया गया। मार्गेश ने प्रति उत्तर भेजा-काश्मीर भूमि पार्वती है। उसका राजा शिवांशज है। उस पर तपस्या द्वारा राज्य प्राप्त होता है, पराक्रम से नही। मुहम्मद शाह को दूसरों ने राज्य पर बैठाया है । मैं केवल उसकी रक्षा कर रहा हूँ।' जहाँगीर ने अविलम्ब मसूद से रक्षाधिकार लेकर, बहराम नायकादि को दे दिया। दुर्व्यवस्था का लाभ उठाकर, खस, डोम्बादि देश और मडव राज्य में उपद्रव करने लगे। फतह खान से राजा की सेना युद्ध के लिये सन्नद्ध थी। पूर्व कालीन सैयिद विप्लव की अपेक्षा खान विप्लव बड़ा था। अधिक लोग चोरों द्वारा लूट लिए जाते थे। बलवान द्वारा निर्बल सताये जाते थे। देश में अराजकता व्याप्त हो गयी थी। लोग गोधन आदि लेकर, दक्षिण दिशा चले गये । उभय पक्ष को सेना खेरी एवं अर्धवन राष्ट्र में प्रवेश की। सेना को प्रसुप्त जानकर, राज सेना शिविर पर, जेरक आदि ने आक्रमण किया। फतह खाँ विजय से प्रसन्न हो गया। भाग सिंह जिसके कारण फतहखान तुरुष्क देश से आया था, उस स्वपक्षी को किसी ने मार दिया। फतह खां आगे बढ़कर, मल्ल शिला नामक स्थान पर, शिविर लगाया। उसके सैनिकोंने कराल देश में राज सैनिकों को परास्त कर, वहांके निवासियों को लट लिया। मार्गपति ने बाल भूपति को साथ लिया। विजय के लिए प्रस्थान किया। नागरिक सम्पत्तियाँ लूट-पाट भय से नगर से हटाकर ग्रामों मे रख दिये। नगर लूट लिया गया। १४ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनराजतरंगिणी मार्गपति विदेशी सैन्य के गर्व से, गुसिकोडार में शिविर स्थापित किया। सेना का तीन भाग किया। कल्याणपुर फतह खान गया है, सुनकर उस दिशा में प्रस्थान किया। द्रामगामा के समीप, खान मरुग में फतह खान के समीप, स्थित हो गया। दोनों पक्षों में युद्ध आरम्भ हुआ। फतह खान के सैनिक विजय प्राप्त किये । किन्तु भूल से मार्गपति के सम्मुख आ गये । मार्गपति के बीरो ने हस्सन मीर आदि को पहचान लिया। भट्ट, नौरुज सहित अनेक वीर मार्गपति के सैनिकों द्वारा मारे गये। मार्गेश ने अपूर्व धैर्य एवं स्थिरता का परिचय दिया। उसके पक्ष के जो लोग तटस्थ होकर, दूर चले गये थे, मिथ्या घोषणा'फतह खान बन्दी बना लिया गया है' सुनकर पुनः उससे मिल गये । गक्क आदि खान के शिविर को लूट लिये। श्रृंगारसिंह आदि वीर भागकर, भेडावन मार्ग से अपने अपने स्थानों पर चले गये। राजपुरी सेना की अभयदान द्वारा गक्क आदि ने रक्षा की। भागती सेना को खसों तथा डोम्बों ने लूटा । शीत एवं भूख से अनेक सैनिक मर गये। फतह खाँ विवेकी पुरुष था। रणनीति जानता था। परन्तु उसके सैनिक उतने अच्छे नही थे। कल्याणपुर के निकट दोनों सेनाओं में पुनः युद्ध हुआ। जहाँगीर बाल राजा को लेकर, जमाल मरुग गया। ताज भट्ट ने मंगल नाड ग्राम जला दिया। काश्मीरियों ने दिग्विजय के समय काश्मीर के बाहर, जिस प्रकार दाह एवं लुण्ठन कार्य किया था, वैसा ही काश्मीर में भी हुआ। फतहशाह को सफलता न मिली। त्रस्त एवं त्राण रहित हो गया। दो मास पश्चात् फतह खान पुनः राज्य प्राप्ति की इच्छा से ससैन्य काश्मीर मे प्रवेश किया । शूरपुर पहुँच गया । जहाँगीर तुरन्त बाल राजा को लेकर सेना सहित श्रीनगर से निकला। गुसिका स्थान पर उसने शिविर लगाया। रात्रि में गक्क राजपुत्र शिविर से भाग गया। शू रपुर में जेरक आदि वीरों ने कारागार खोल दिया । बन्दी मुक्त हो गये । सेफडामर आदि विजयेश्वर पहुँचे । सेफडामर फतह खाँ के समीप पहुँच कर, उसके मन्त्रियों में श्रेष्ठ हो गया। मार्गेश जहाँगीर ने सन्धि इच्छा से, फतह खाँ के पास सेख बहाव आदि प्रमुखों को भेजा। एद राजानक, रिग डामर, विद्वान केशव सन्धि के लिए राजपुरी पति को राजा के समक्ष ले गये । इसी बीच मार्गपति ने गदाय रावुत्र द्वारा शृंगार सिह को आश्वासन एवं धन देकर फोड़ लिया। फतह खान के अंतरंगों द्वारा भेद बुद्धि के कारण राजपुरी पति हट गया। सेना संघर्षशील हो गई। गक्क, श्रृंगार सिंह आदि त्रस्त होकर, राजपुरी चले गये। फतह खां असफल होकर, जैसे आया था, लौट गया। मार्गेश पीड़ा से व्याकुल तथा बिरक्त दो मास अपने निवास में पड़ा रहा। मार्गेश को बुद्धि पुनः भ्रमित हो गई। उसने निष्कासित सैयिदों को सहायतार्थ बुलाया, जिन्हें निकाल चुका था फतह खाँ ने जम्म वाट में रहते हुए, खसो का दमन किया। उसने जिस प्रकार सताइस विषयों को काश्मीर में त्रस्त किया था, इसी प्रकार सिन्धूरी लोगों को परेशान किया । मद्र मण्डल के तुरुष्कों को विह्वल कर दिया। उसने ब्रह्म मण्डल जीतकर राजपुरी पति को दे दिया। चैत्रमास मे नायक के निवास स्थान पर फतह खाँ पहुँचा। फतह खाँ शत्रु संहार हेतु कृत संकल्प था। पर्वत शिखर पर स्थित हो गया। इसी समय मार्गपति ने बन्दी जेराक का वध कर दिया। ज्येष्ठ मास में अनिष्ट की आशंका से मार्गेश दुःखी हो गया। वाल नृप मल्ल शिला पर निवास करने लगा। इस समय नगर में महंगाई बढ़ गयी । पचीस दीनार का डेढ़ पल नमक मिलता था। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १०७ फतह खाँ लो० ४४६२ वर्ष = सन् १४८६ ई० मे पुनः काश्मीर विजय की आशा किया। फतह खाँ भैरव गलस्थान मे पहुंच गया मार्गेश बाल राजा सहित मार्गांवरोध के लिये शुर पुर पहुॅचा धावण मास में फतह खाँ ने पर्वत पार किया । काचगल मार्ग से बढा । गुसिकोडर स्थान मे ताज भट्ट आदि का सैन पुँज, वायु के समान फतहखान के सैन्य सागर को क्षुब्ध कर दिया । मार्गपति शीघ्र सेना एवं बाल नृप सहित युद्ध करने के लिये आया। कुछ सैयिद सैनिक मारे गये। गुसिकोट्टार ने सैनिक हताहतों की सध्या सैविद तथा फतह af के प्रथम युद्ध से अधिक थी लूट पाट होने लगी। सेफडामर तथा जहागीर मर्गेश का सामना हो गया। जहाँगीर घायल हो गया । मार्गपति का साथियो ने साथ त्याग दिया । परन्तु एक अश्व ने मार्गपति की रक्षा की। विदेशी सैनिको ने इसी समय विद्रोह किया। खान जैसे आया था, वैसे ही वापस चला गया। इसका लाभ उठाया गया । अफवाह फैला दी गयी, 'फतह खाँ बन्दी बना लिया गया। सैफडामर युद्ध विमुख हो गया। कुछ समय पश्चात् वास्तविकता मालूम हुई सेफ डामर शूर पुर मार्ग से फतह के खाँ पास पहुँचा । तृतीय वार भी काश्मीर विजय में फतह खाँ विफल रहा। वह पीछे हटता पूछ पहुँच गया । मम्मियों एवं सामतो की निष्ठा सन्देहास्पद थी। मन्त्रि मण्डल स्वेच्छाचारी था। जनता नियन्त्रणहीन थी। फतहखान का पक्ष लेने के लिये सभी उत्सुक थे पुरवासी अनुराग हीन थे। राजगृह कोश रहित था । मार्गेश शस्त्राघात की पीड़ा से ब्याकुल था । सैनिको के साथ फतह खाँ चौथी बार राज्य कामना से चटिकासार पर्वत से लौटा । मार्गेश ने गाँवों में आग लगी देता । भाँगिल त्याग कर सेना सहित युद्धार्थ आया। बाल नृप के साथ साथदेवत पर सेना स्थित किया । रात्रि काल में सैफ डामार ने आक्रमण किया । मार्गपति की सना भंग कर दिया। फतह खाँ के साथ कम सेना थी । परन्तु काश्मीर सेना के मनोबल तोड़ने मे सफल हो गया । सैफ डामर से अनिष्ट की आशंका देखकर, मार्गपति नगर में आगया नगर रक्षा की दृष्टि से वितस्ता पुल तोड़ दिया गया। पीरुज प्रतिहारादि मंडव राज्य से आये । राजा का पक्ष त्याग दिये। खान पक्ष का आश्रम ग्रहण किये । नोसराजानक सहित मिया मोहम्द ने राजसेना से विद्रोह कर दिया। वहन के पुत्र राजा की किंचित मात्र चिन्ता न की । राजसेना नष्ट हो गयी । मार्गेश जहाँगीर भयभीत होकर जल्लाल ठाकुर के यहाँ गया । एक भूमिगुहा मे पहुँच कर जैसे स्मृति होन हो गया। खसी ने जनपदो को लूट लिया। भयाकुल नर-नारी नंगी भाग गयी । पूर्वावकार का स्मरण कर, वली लोगों की अबलाओं का मार डाला । दरिद्र लूट पाट से धनी तथा धनी द्वारिद्र हो गये। राजा के वल सहित नष्ट हो जाने पर वे राजवल्लभ जन, वे सुन्दर स्रियाँ एवं वे सेवक कथा शेष हो गये । ( ४:६३६) वह राजा दो वर्ष सात मास नृपासन पर आसीन था । लो०फिर्य पाल ने मुहम्द शाह को विशंप्रस्थ पदच्युत राजा की सम्पूर्ण वृत्ति निश्चित ४५६२ = सन् १४८६ ई० आश्विन मास द्वितीया को राज्याच्युत हुआ में पकड़कर शत्रुपक्ष को समर्पित कर दिया। राजधानी के प्रांगण में, कर, रक्षा भार, डामरो को दिया गया । उपद्रव के समय खशो ने दाह के अतिरिक्त खूब लूटपाट की करोड़ो के धनी वणिक, तृण से तन ढककरा लज्जा की रक्षा किये। 'यदि जीत हो गयी, तो तीन दिन तक लूट की छूट दी जायगी' – इस आश्वासन देने के कारण, मन्त्रीगण लूटपाट के समय निरपेक्ष बैठे रहे । जनता की रक्षा नही किया । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैनराजतरंगिणी इस राजा विपर्य के सम्बन्ध मे श्रीवर राज तरंगिणी का अन्तिम तीन श्लोक लिखता है-'वह राज्य विपर्यय सार्वजनिक कोशरूप सर्प को दूर करने के लिये नागाडा, द्वेषी प्राचीन सेवक रूप कमल बन के लिये हेमन्त का उदय, भूपति के पृथ्वी रूप भद्र गोलक (छत्ता) पर स्थित सरघा (मधुमक्खिी ) समूह के लिये धूमोद्गम तथा नव सभा रूप उद्यान के लिये वसन्त ऋतु था। अपने आचार विपर्यय या अन्याय से धनोपार्जन के कारण, सज्जनों के साथ द्रोह करने अथवा अच्छे लोगो के वर्ण शकरता के कारण, शिशु राजा के सामर्थ्य अथवा मन्त्रियों के द्वेष के कारण, सुस्सल भूपति के राज्यकाल के समान, राज्य में प्रजा का यह उपद्रव हुआ। जिसने सैयिदो संघर्ष मे रण रसिकता के कारण वन्धन में स्थित, लोगों को मुवत कर दिया । जिस सिद्धादेश अधिकारी ने शत्रुओं को जीतकर, प्रसिद्ध प्राप्त की. जिसने शत्रु समुदाय का नाश करके, राजा फतह के राज्य को विस्तृत कर दिया, डामरेन्द्र श्रेष्ठ सचिवपति, वह अद्वितीय सैफ मल्लिक विजयी हो।' (४.६५४-६५६) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर वर्णित सुल्तान-प्रथम खण्ड राजक्रम श्लोक सुल्तान राज्यकाल १ तरंग जैनुल आबदीन सन् १४२०-१४७० ई० १-२५१ २ तरंग हैदर शाह सन् १४७०-१४७२ ई० २५२-३११ पाठ : पुस्तक का आधार कलकत्ता संस्करण राजतरगिणी है। श्री दुर्गाप्रसाद संस्करण तथा वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, हिन्दू विश्वविद्यालय एवं अन्य स्थानों से प्राप्त पाण्डुलिपियों से भी प्रस्तुत संस्करण में सहायता ली गयी है । श्लोकानुक्रमणिका, नामानुक्रमणिका, शुद्धिपत्र तथा आधार ग्रन्थों की तालिका द्वितीय खण्ड में दी जायगी। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंशावली ( शाहमीर ) पार्थ वर्ध वाहन कुरुशाह ताहराल ( १ ) शाहमीर ( शमशुद्दीन १ ) (२) जमशेद (ज्यंसर) (३) अलाउद्दीन (अल्वेश्वर) = कम्पनेश्वर लक्ष्म की संख्या गुहरा कोटराज पुत्र कन्या = तैलाक शूर (४) शिहाहुद्दीन = लक्ष्मी पुत्री अवतार (५) कुतुबुद्दीन (कुद्देन, हिन्दल, कन्या = पति कुत्सा शिर शाटक, शीर अशमक हिन्द, हिन्दूखा) = पत्नी सुभटा कम्पनेश्वर । हसन खां अली खाँ (६) सिकन्दर बुतशिकन = हैबत खान पत्नी (१) शोभा (२) मेरा कन्या = मुहम्मद फिरोज महमूद (शोभा पुत्र) (शोभा पुत्र) (७) अलीशाह (मेरखान) (८) जैनुल आबदीन मुहम्मद खाँ (मेरा पुत्र) (मेरा पुत्र) (मेरा पुत्र) = बोधा खातून आदम खान जसरथ (९) हैदर शाह बहराम खान (हाजी खान) (१२) फतह शाह (१२) फतह शाह (१०) हसन शाह (१०) हसन शाह सिकन्दर खान हबीब खान (१४) नाजुक शाह (११) मुहम्मद शाह हुसेन युसुफ हाजी हैदर सलीम खान (१३) इब्राहिम (१५) शमशुद्दीन (द्वितीय) (१६) इसमाइल शाह (१७) हबीब शाह Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी प्रथम खंड Page #120 --------------------------------------------------------------------------  Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ श्रीवरपण्डितकृता जैनराजतरंगिणी प्रथमतरंगः प्रथमः सर्गः शिवायास्तु नमस्तस्मै त्रैलोक्यै महीभुजे । अशेषक्लेशनिर्मु क्तनित्यैश्वर्य दशाजुषे ॥ १ ॥ १. अंशेष क्लेश, निर्मुक्त, नित्य ऐश्वर्य से युक्त, त्रैलोक्य महीभुज, उस शिव को नमस्कार हो प्रेम्णार्थं वपुषो विलोक्य मिलितं देव्या स स्वामिनो मौलौ यस्य निशापतिर्नगसुतावेणीनिशामिश्रितः । आस्ते स्वाम्यनुवर्तनार्थमिव तत् कृत्वा वपुः खण्डितं देयादद्वयभावनां स भगवान् देवोऽर्धनारीश्वरः ॥ २ ॥ उपोद्घातः २. प्रेम से स्वामी के शरीर का अर्धांग, देवी से मिला देखकर, नगसुता की वेणी रूप निशा से मिश्रित, निशापति स्वामी का अनुवर्तन करने के लिये ही मानो शरीर खण्डित कर, जिसके शिखर स्थित हैं, वह भगवान् देव अर्धनारीश्वर', अद्वैत' भावना दें । पाद-टिप्पणी : पाठभेद : बम्बई में 'अथ श्रीवरकृता तृतीया तथा प्रथम तरंग के नीचे 'प्रथमः सर्गः' लिखा मिलता है । पाद-टिप्पणी : २. ( १ ) अर्धनारीश्वर : अर्धनारीश्वर की विभिन्न मूर्तियां भारतवर्ष तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में मिलती है। एक प्रभावोत्पादक मूर्ति एलोरा के कैलाश मन्दिर में है । अब तक मिली सबसे प्राचीन मूर्ति मथुरा संग्रहालय में कुषाणकालीन प्रथम शताब्दी की है । यह पुरुष - प्रकृति के द्वैत रूप के स्थान पर अद्वैत का रूप है। जहाँ नर-नारी, शक्ति एवं शिव का रूप मिलकर एक हो जाता है। पुराणों की मान्यता के अनुसार शक्ति की उपासना करने के कारण शिव का अर्धनारीश्वर रूप हो गया है ( ब्रह्मा० : २ : २७ : ९८; ४ : ५. ३० ४४ : ४८ ) । मत्स्यपुराण मे अर्धनारीश्वर के रूप तथा उनके वस्त्रों आदि का वर्णन किया गया है (मत्स्य० : ६० : ३५; १९२ : २८; २६० : १ - १० ) । कथा है कि ब्रह्मा ने प्रजा उत्पत्ति के लिये तपस्या की । शंकर प्रसन्न Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:३-५ वन्द्यास्ते राजकवयः पदन्यासमनोहराः। ख्याता ये सरसैः शब्दैः क्षीरनीरविवेकिनः ।। ३ ॥ ३. पदन्यास के कारण मनोहारी, क्षीर-नीर विवेकी, वे राजकवि' वन्दनीय हैं, जो सरस शब्दों के कारण प्रख्यात हुये हैं। अनित्यतान्धकारेऽस्मिन् स्वामिशन्ये महीतले । काव्यदीपं विना कः स्याद् भूतवस्तुप्रकाशकः ॥ ४ ॥ ४. अनित्यता रूप अन्धकार से युक्त, स्वामिशन्य, इस महीतल पर, काव्य-दीपक के अतिरिक्त, कौन अतीत' वस्तु को प्रकाशित कर सकता है ? येषां करोमि वपुरस्थिरमत्र राज्ञां तेषामयं जगति कीर्तिमयं शरीरम् । आकल्पवर्ति कुरुते किमितीव रोषाद् धाताहरद् ध्रुवमतः कविजोनराजम् ॥५॥ । ५. मैं जिन राजाओं के नश्वर (अस्थिर) शरीर की रचना करता हूँ, यह उन्हीं के कीर्तिमय' शरीर को जगत में कल्प पर्यन्त स्थायी करता है। इसीलिये मानो क्रोध से विधाता ने कवि जोनराज को हर लिया। हुये । उनके शरीर से अर्धनारी-नटेश्वर उत्पन्न हुए। था। उसके समय तथा उसके पूर्व अन्य राजकवि हुये (शिव : शत० : ३) । स्कन्द पुराण मे कथा है कि होंगे । उनका नाम नहीं देता। कल्हण निःसन्देह राजमहिषासुर-वध पश्चात् शंकर प्रसन्न होकर, पार्वती के कवि नही था। प्राचीनकाल मे राजा तथा सुलतान पास अरुणाचल पर आये। पार्वती शंकर के वामांग लोग अपनी सभा तथा दरबार मे श्रेष्ठ कवियों को रखते ' में लीन हो गयीं । वही रूप अर्धनारीश्वर है। (स्कन्द० थे। उन्हें राजकवि की उपाधि दी जाती थी। आज १:२:३-२१)। भी यह प्रथा प्रचलित है। राजकवि के स्थान पर पाद-टिप्पणी राष्ट्रकवि शब्द प्रचलित हो गया है। ब्रिटेन में ३. (१) राजकवि : यहाँ राजकवि शब्द से उन्हे 'पोएट लारिएट' कहते है। राजहंस अर्थ प्रतिभासित होता है। पदन्यास अर्थात् न पाद-टिप्पणी: कदम रखने के कारण मनोहारी एवं नीर-क्षीर-विवेकी ४. (१) अतीत : कल्हण के (१ : ४) श्लोक राजहंस जिस प्रकार प्रशस्य है उसी प्रकार युक्त कवि के भाव की छाया उक्त श्लोक मे मिलती हैभी पदन्यास, शब्द विन्यास, शब्द रखना, कदम रखना, कोऽन्यः काल मतिक्रान्तं नेतु प्रत्यक्ष तां क्षमः । पग बढ़ाना। कवि चतर है शब्दों को रखने और कवि प्रजापती स्त्यक्त्वा रम्य निर्माणशालिनः॥ हंस चतुर है पगों के रखने में। हंस की चाल क्षीर- पाद-टिप्पणी: नीर- ववेकी उचित एवं अनुचित का विवेकी होता है। ५. (१) कीति : 'कीर्तिमयं शरीर' यही भाव जोनराज राजकवि था। उसकी प्रशंसा श्रीवर ने कल्हण के श्लोक (रा० : १ : ३) में है। कल्हण ने (जैन० : ५, ६, ७) किया है । श्रीवर स्वयं राजकवि 'यशःकायः' शब्द का प्रयोग किया है। कीति का Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:१:६-९] श्रीवरकृता श्रीजोनराजविबुधः कुर्वन्नराजतरङ्गिणीम् । शायकाग्निमिते वर्षे शिवसायुज्यमासदत् ॥ ६॥ ६. राजतरंगिणी' की रचना करते हुए, विद्वान जोनराज ने ३५ ३ वर्ष शिवसायुज्य प्राप्त किया। शिष्योऽस्य जोनराजस्य सोऽहं श्रीवरपण्डितः । राजावलीग्रन्थशेषापूरणं कर्तुमुद्यतः ७. इसी जोनराज का शिष्य मैं श्रीवर' पण्डित राजावली' ग्रन्थ के शेष को पूर्ण करने के लिये उद्यत हूँ। क्व काव्यं मद्गुरोस्तस्य क्व च मन्दमतेर्मम । वर्णमात्रेण मक्कोलं धनसारायते कथम् ।। ८ ॥ ८. कहाँ मेरे उस गुरु का काव्य और कहाँ मन्दमति मेरा वर्णमात्र की समानता से अकोल (खड़िया) क्या कर्पूर हो सकता है ? राजवृत्तानुरोधेन न काव्यगुणवाञ्छया । सन्तः शृण्वन्तु मद्वाचः स्वधिया योजयन्तु च ॥ ९ ॥ ९. सज्जन लोग राज-वृतान्त के अनुरोध से, न कि काव्य-गुणों की इच्छा से, मेरी वाणी सुनें और अपनी बुद्धि से योजित करें। पर्यायवाची है । कल्हण तथा श्रीवर दोनों का भाव पाद-टिप्पणी : एक ही है। श्रीवर के पश्चात् पंचम राजतरंगिणी के ७ (१) श्रीवर : श्रीवर स्वयं स्वीकार करता रचनाकार शुक ने 'कीर्ति' शब्द का प्रयोग किया है। । है। जोनराज का शिष्य था । श्रीवर के इस उल्लेख से उसने कल्हण तथा जोनराज दोनों के भावों को जोनराज के जीवन पर प्रकाश पड़ता है । जोनराज श्लोक १:१.४ में प्रकट किया है। पुरातन-परम्परा के विद्वानों के समान शिष्यों को शिक्षा पाद-टिप्पणी : भी देता था। जोनराज अपने समय का निश्चय ही पाठभेद : बम्बई। प्रकाण्ड विद्वान् था, अन्यथा श्रीवर जैसा राजकवि ६. (१) राजतरंगिणी : जोनराज के ग्रंथ का स्वयं स्वीकार न करता कि वह जोनराज का नाम श्रीवर 'राजतरंगिणी' देता है। जोनराज का शिष्य था। इतिहास इसी शीर्षक से श्रीवर के समय प्रसिद्ध था। (२) राजावली : जोनराजकृत राजतरंगिणी श्रीवर जोनराज का शिष्य था। उसकी बात साधि- का नाम श्रीवर ने यहाँ राजावली दिया है । शुक ने कार मानी जायगी। जोनराज तथा श्रीवर दोनों के ग्रन्थों का नाम (२) पैंतीसवें वर्ष : सप्तर्षि ४५३५ = सन् 'राजावली' दिया है । वह स्पष्ट लिखता है--'श्री १४५७ ई० = विक्रमी १५१६ शक १३८१ । श्रीवर जोनराज एवं विद्वान श्रीवर ने वासठ वर्ष यावत् जोनराज की मृत्यु का निश्चित वर्ष देता है। मनोरम दो 'राजावली ग्रन्थ' ग्रथित किये (शुक : Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जैन राजतरंगिणी अथवा नृपवृत्तान्तस्मृतिहेतुरयं श्रमः । क्रियते ललितं काव्यं कुर्वन्त्वन्येऽपि पण्डिताः ॥ १० ॥ १०. अथवा नृप - वृतान्त के स्मरण' हेतु यह श्रम किया जा रहा है । ललित काव्य की रचना अन्य पण्डित करें । तत्तद्गुणगणादानात् पुत्रवद्वर्धितो स्वसम्पत्तिसमर्पणात् । ग्राममानुग्रहैः ॥ ११ ॥ राज्ञा ११. तत् तत् गुणों के आदान तथा स्व-सम्पत्ति के प्रदानपूर्वक, ग्राम, हेम' आदि अनुगृहों से राजा द्वारा पुत्रवत् (मै) संवर्धित किया गया । अतो वाञ्छन्नमेयस्य तत्प्रसादस्य निष्कृतिम् । सोऽहं ब्रवीमि तद्वृत्तं तद्गुणाकृष्टमानसः ॥ १२ ॥ १२. अतएव उसके असीम प्रसाद की निष्कृति ( निरन्तर ) की अभिलाषा से, उसके गुणों द्वारा आकृष्ट-मन होकर में उसका वृतान्त वर्णन करता हूँ । [१ : १ : १० - १४ एकया तद्गुणाख्यानं जिह्वया वर्ण्यते कियत् । रोमवत् कोटिशश्चेत् स्युस्तास्तदा मद्गिरः क्षमाः || १३ ॥ १३. केवल एक जिह्वा से उसका गुणाख्यान कितना किया जा सकता है ? रोमवत् यदि - जिह्वाएँ हों तब मेरी वाणी समर्थ हो सकती है । सत्यं नृपाम्बरेऽमुष्मिन् विपुले विमलाशये । गुणतारापरिच्छेदे न शक्ता भारती मम ॥ १४ ॥ १४. विपुल एवं विमलाशय, इस नृपाकाश, जिसमें गुण ताराओं के विवेक ( सीमा निर्धारण-विभाजन) करने में, वास्तव में मेरी वाणी समर्थ नहीं है । रा० : १ : ६) । जोनराज द्वारा लिखित राजतरंणियों की जो प्रतिलिपियाँ मिली है, उनके इतिपाठ में 'राजतरंगिणी' ही लिखा है । राजावली से तात्पर्य इतिहास ग्रंथों से है । पाद-टिप्पणी : १०. (१) स्मरण श्रीवर पण्डित ने निरहंकार भाव प्रकट किया है । वह अपने ग्रन्थ को काव्य नही मानता । उसकी कामना है कि सुयोग्य पण्डितजन इस राज- वृतान्त के आधार पर, ललित काव्य-रचना द्वारा साहित्य भण्डार पूर्ण करें । वह अपने आश्रयदाता जैनुल आब्दीन का वृतान्त केवल इसलिये लिपि - बद्ध कर रहा था कि ऐसा न हो कि वह भी अन्य राजाओं के समान विस्मृति सागर में डूब न जाय, जिस शंका को कल्हण (१ : १४) तथा जोनराज ( जोन ४, ५, ६) दोनों ने प्रकट किया है । पादटिप्पणी : ११. (१) हेम : श्रीदत्त ने होम यज्ञ अनुवाद किया है । यह पाठभेद के कारण हुआ है । 'हेम' का 'होमा' भी पाठभेद मिलता है । श्रीवर ने राजा के अनुग्रहों का वर्णन किया है । राजा श्रीवर को पुत्रतुल्य मानता था । उसने उसे सम्पत्ति, ग्राम, सुवर्ण आदि देकर अपना स्नेह प्रदशित किया था । दत्त का अनुवाद होम पूर्वाप्रसंगानुसार यहाँ बैठता नही । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : १ : १५-१८ ] श्रीवरकृतां सकलं चित्रपटान्ते त्रिजगद्यथा । श्रीजैनोल्लाभदीनस्य न्यस्यामि गुणवर्णनम् ॥ १५ ॥ १५. तथापि चित्रपट पर सम्पूर्ण त्रिजगत' की तरह, जैनोलाभदीन का गुण वर्णन अंकित कर रहा हूँ । तथापि केनापि हेतुना तेन प्रोक्तं मद्गुरुणा न यत् तच्छेषवर्तिनीं वाणीं करिष्यामि यथामति ॥ १६ ॥ १६. किसी कारण से मेरे गुरु ' ने जिसे नही कहा ( लिखा था, उस अवशिष्ट वाणी को यथामति लिखूँगा । सात्मजस्य नृपस्यास्य प्राप्यते राज्यवर्णनात् । प्रतिष्ठादानसम्मानविधानगुणनिष्कृतिः १७. आत्म' सहित इस नृप े के राजवर्णन से ( राजप्राप्त) प्रतिष्ठा, दान, सम्मान, विधान एवं गुणों से निष्कृति प्राप्त की जा सकती है । स्वदृग्दृष्टमृतानेकविपद्विभवसंस्मृतेः सूते कस्य न वैराग्यं नाम जैनतरङ्गिणी ॥ १८॥ १८. अपनी दृष्टि से दृष्ट, मृतों एवं अनेक विपत्ति तथा वैभव के संस्मरण से, जैन-तरंगिणी' किसमें वैराग्य नहीं पैदा कर देगी ? पाद-टिप्पणी : १५. (१) त्रिजगत : (१) स्वर्ग, (२) भू तथा (३) पाताल लोक । पाद-टिप्पणी : १६. (१) गुरु : जोनराज । पाद-टिप्पणी : १७. भावार्थ : राजा तथा उसके प्राप्त प्रतिष्ठा, दान, सम्मान, विधान एवं किस प्रकार उऋण हो सकता हूँ ? ॥ १७ ॥ पुत्रों द्वारा गुणों से (१) आत्मज: हैदरशाह । (२) नृप : जैनुल आबदीन । पाद-टिप्पणी : १८. (१) जैन-तरंगिणी : श्रीवर स्वकृत राजतरंगिणी का नाम 'जैनतरंगिणी' लिखता है । कल्हण ने अपने ग्रन्थ का शीर्षक केवल राजतरंगिणी दिया है। जोनराज भी अपनी कृति का शीर्षक 'राजतरंगिणी' ही दिया है । श्रीवर ने सुलतान जैनुल आवदीन के नाम पर अपनी राजतरंगिणी का नाम 'जैनराजतरंगिणी' रखकर सुल्तान को प्रसन्न करने का प्रयास किया हैं । यह राजकवि के अनुरूप ही है | तत्कालीन संस्कृत तथा अन्य भाषा - कवि अपने संरक्षक, अभिभावक एवं राजा की स्मृति चिरस्थाई रखने के लिये राजा के नाम पर काव्य का नाम रखते थे । विल्हण ने 'विक्रमांकदेवचरित', चन्द ने 'पृथ्वीराज रासो', नरपति नाल्ह ने 'बीसलदेव रासो (सन् १२८१ ई०), 'हम्मीर रासो' (सन् १२९३ ई० ) आदि ग्रन्थ राजाओं के नाम पर श्रीवर के पूर्व लिखे जा चुके थे । मुसलमान कवियों ने भी बादशाहों, नवाबों, अभिभावकों एवं संरक्षकों के नाम पर रचनाएँ की है । उनमे न्यामत खां 'जान' का 'कायम रासो' प्रसिद्ध है । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी श्रीजैनोल्लाभदीनः स हत्वा शत्रून् दिगन्तरे । आगत्य पैतृके देशे राज्यं राम १९. उस जैनुल आबदीन ने दिगंतर में शत्रुओ को के समान राज्य प्राप्त किया । हृतावशिष्टां कोशेभ्यः स्वप्रबन्धोपयोगिनीम् । नानापदार्थ सामग्रीं तद्राज्यमालिशाहस्य अज्ञायि कैर्न ग्रीष्माते मरौ [ १ : १ : १९–२१ १९ ॥ इवासदत् ॥ मारकर, पैतृक देश' में आकर, राजा २०. राजा ने कवि के समान कोश' से अपहरण करने से अवशिष्ट, स्व-प्रबन्धोपयोगी, नाना पदार्थ सामग्री को संग्रहीत किया ! पाद-टिप्पणी : १९. (१) पैतृक देश : कश्मीर मण्डल । (२) राम : अयोध्यापति राम से यहाँ तात्पर्य है। राम की उपमा जैनुल आबदीन से श्रीवर ने दिया है। जैनुल आबदीन को भ्राता अलीशाह के कारण देश त्यागना पड़ा था। उसने काश्मीर के बाहर अपने शत्रुओ को उसी प्रकार परास्त किया, जिस प्रकार राम ने अयोध्या के बाहर शत्रुओं को परास्त किया था । राम ने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर अयोध्या में लौटकर राज्य प्राप्त किया। वही जैनुल आबदीन ने किया था । राम तथा जैनुल आब दीन दोनों ने भाइयों से ही राज्य प्राप्त किया था, न कि पिता से । दोनों को राज्य के कारण अपना देश त्यागना पड़ा था। दोनों के देशत्याग के कारण उनके भाई थे। दोनों के ही कनिष्ट भ्राता लक्ष्मण तथा मुहम्मद खां उनके भक्त तथा आज्ञाकारी थे । जोनराज ने मुहम्मद खां को कलानिधि लिखा है । (जोन० : ९६६) । पाद-टिप्पणी : पाठ: बम्बई । कविवाचिनोत् ॥ २० ॥ राज्यकालादनन्तरम् । श्रीखण्डलेपनम् ॥ २१ ॥ राम र २९. अलीशाह के राज्य के अनन्तर, उसके राज्य को ग्रीष्मान्त' के मरुस्थल में श्रीखण्ड (चन्दन) लेप तुल्य, ज्ञीतलता का किसने अनुभव नहीं किया ? २०. (१) कोश : कोश शब्द यहाँ श्लेष है । एक अर्थ शब्दकोश, शब्दार्थसंग्रह, शब्दावली तथा दूसरा अर्थ रत्नभाण्डार गृह, खजाना, आगार होता है। जिस प्रकार कवि कोश से शब्द ग्रहण करता है, अपना शब्द भण्डार बढ़ाता है, उसी प्रकार जैनुल आबदीन ने सामग्रियों का संग्रह कर, अपना कोश अर्थात् खजाना बढ़ाया । (२) प्रबन्ध : यह भी यहाँ श्लेष है । प्रबन्धकाव्य पद्यबद्ध सर्गबद्ध, कथात्मक काव्य होता है । कथा - काव्य के अति निकट प्रबन्ध-काव्य होता है । कवि प्रबन्ध-काव्य की रचना करता है । दूसरा अर्थ राजप्रवन्ध एवं राज का प्रबन्ध करना है । राजा भी कोश अर्थात् अर्थ किंवा वित्त के आधार पर राज्य का प्रबन्ध करता है । कोशहीन राज-प्रबन्ध नही चलता, नष्ट हो जाता है जैसे शब्द भाण्डारहीन कवि या काव्यकार काव्य रचना में असफल हो जाता है । पाद-टिप्पणी : २१. (१) ग्रीष्मान्त : ग्रीष्म ऋतु ज्येष्ठ एवं आषाढ़ मास होता है । मरुस्थल ग्रीष्म ऋतु में अत्यन्त Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : १ : २२-२३ ] श्रीवरकृता धर्मराजोपमात् तस्मात् तास्ता नरकयातनाः । अपराधानुसारेण पापाः केचिद् द्विषोऽभजन् ।। २२ ।। २२ धर्मराज' (यम) सदृश, उस ( जैनुल आबदीन) से अपराध के अनुसार तत् तत् नर्क यातनायें कुछ पापी शत्रुओं ने प्राप्त किया। यो द्रव्यगुणसत्कर्मसमवायविशेषभृत् । नानार्थपरिपूर्णताम् ॥ २३ ॥ असामान्योऽप्यधाच्चित्रं ๆ २३. द्रव्य, गुण, सत्कर्म सामान्य विशेष" समवाय' युक्त जो राजा असामान्य होकर २ भी आश्चर्य है अनेक प्रकार के अर्थ से परिपूर्ण था । ४ तप जाता है। गरमी बढ जाती है। राजस्थान के मरुस्थल मे उदयपुर से अजमेर होते दिल्ली आषाढ मास मे आया हूँ । भयंकर गर्मी पड़ती है । उस समय किंचित मात्र शीतलता का अनुभव सुखप्रद होता है । अलीशाह का राज्य गृहभट्ट के अत्याचार, उत्पीड़न तथा गृहयुद्ध के कारण भयावह हो गया था । उसके गैर-काश्मीरी सेनानी काश्मीर मे तप गये थे । उनके ताप से जनता त्रस्त हो उठी थी । जैनुल आबदीन का काल इस भयंकर ताप के पाश्चात् चन्दन लेपतुल्य सुखकारी प्रतीत होता था । हितोपदेश मे श्री - खण्ड शब्द का प्रयोग इसी अर्थ मे किया गया है । 'श्रीखण्ड विलेयनं सुखयति' (हि० १९७) | पाद-टिप्पणी : पाठ: बम्बई । २२ (१) धर्मराज यम का विशेषण धर्मराज धर्मपालक, न्यायकर्ता, न्यायाधीश आदि धर्म पूर्वक राज एवं न्याय करनेवाले के लिये विशेषण रूप में प्रयोग किया जाता है। यूषिष्ठिर धर्मराज है जैनुल आबदीन की तुलना धीवर धर्मराज से उसकी न्यायप्रियता के कारण करता है। धर्मराज किंवा मनुष्यों के कर्म के अनुसार, पापियों को उनके अपराध के अनुसार, निःसंकोच दण्ड देते है । श्रीवर जैनुल आबदीन के सम्बन्ध मे भी इसी ओर संकेत करता है कि उसने धर्मराज के समान पापी शत्रु अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड दिया था। श्लोक: १ : १ ३६ में जैनुल आबदीन के गुप्तचर का वर्णन किया गया है। धर्मराज के भी गुप्तचर होते हैं। ऋग्वेद मे उद्धरण मिलता है । यम के दो श्वान है । उन्हे चार आँखे होती है। वे यम के गुप्तचर है। लोगों के मध्य विचरण करते हुये उनके कार्यों का निरीक्षण करते है (ऋ० : १० : ९७ . १६) । इसी प्रकार उल्लू या कपोत यम का दूत माना गया है (ऋ० : १० १६५ . ५) । मानव अपने कर्मो के अनुसार स्वर्ग एवं नरक भोगता है । उनका निश्चय धर्मराज करता है । • . ० ( विष्णुधर्मोत्तरपुराण २ १०३ : ४-६, पराशरमाधवीय २: ३ २०८ २०९ प्रायश्चित्तसार : २१५ विष्णु० ३७, १९, ३५ ब्रह्मा २२९ ६५; ३ : १३ : ६७ : ५९-७९) । पाद-टिप्पणी २३. (१) द्रव्य श्रीवर मे वैशेषिकदर्शन के सिद्धान्त का प्रतिप्रादन किया है। 'धर्मविशेष प्रसूताद् द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्यविशेषसमवायानाम पदार्थाना साधर्म्य वैधयां तत्वज्ञानान्निःश्रेयसम् (११४) ' 'धर्मविशेष से उत्पन्न हुआ जो द्रव्प, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय पदार्थों का साधर्म्य और वैधर्म्य से तत्त्वज्ञान पैदा होता है, उससे मोक्ष होता है ।' वैशेषिक ने पदार्थों का वर्गीकरण किया है। पदार्थ के दो वर्ग है-भाव एवं अभाव । भाव के दो वर्ग 'सत्ता- समवायी' तथा 'स्वात्मसत्' है। सत्ता समवायी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ जैनराजतरंगिणी [ १ : १ : २३ परन्तु उनमें मनुष्पत्व सामान्य है । सामान्य के भेद पर सामान्य तथा अपर सामान्य है । वृक्ष अनेक है । किन्तु उनमें वृक्षत्व एक है । सामान्यरूप से सभी वृक्षों में अवस्थित है । कणाद ने कहा है'भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव ' - वै० सू० १२२|४|| के भेद द्रव्य, गुण तथा कर्म एवं स्वात्मसत् के भेद सामान्य, विशेष एवं समवाय है । द्रव्य की परिभाषा वैशेषिक सूत्र (१ : १ : ५ ) में की गयी है -- ' क्रिया गुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्य लक्षणम् ।' गुण तथा क्रिया जिसमें समवायसम्बन्ध से रहते हैं तथा समवायिकारण भी हो वही द्रव्य कहा जाता है । द्रव्य के नव भेद -- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा एवं मन है । ('पृथिव्यापस्तेजो- वायुराकांश कालो- दिगात्मामन इति द्रव्याणि' - - वै० १ : १ : ५ ) । (२) गुण : वैशेषिकदर्शन मे २४ प्रकार के गुणों का परिगणन किया गया है-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, अदृष्ट, एवं संस्कार । गीता ने --- 'सत्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृति संभवा'-- अर्थता सत्व, रज एवं तम तीन गुणों को माना है । रूपरसगन्धस्पर्शाः सङ्ख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणा - वै० सू० १|१|६॥' किन्तु महर्षि कणाद ने केवल १७ गुणों को वैशेषिकदर्शन मे माना है । वैशेषिकदर्शन ने गुण परिभाषा की है— द्रव्याश्रय्य गुणवान् संयोगविमागष्व कारण मनपेक्ष इति गुण लक्षणम्' वैशेषिक सूत्र ( १ : १ : १६ ) । द्रव्याश्रितत्व, निगुर्णत्व एवं निष्क्रियत्व ही गुण के लक्षण है । (३) कर्म : वैशेषिक के अनुसार उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण एवं गमन पाँच वर्गों में कर्म का विभाजन किया गया है। वैशेषिक ने कर्म का पाँच भेद माना है - 'उत्क्षेपणमवक्षेपण - माकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि (वै० : ११ : ७) ।' ( ४ ) सामान्य : तर्कसंग्रह ने सामान्य की परिभाषा की है - ' नित्यमेकम नेकानुगतं सामान्यम्' अर्थात् सामान्य एक है । नित्य है । अनेकानुगत है । मनुष्य अनेक है, परस्पर भिन्न रूप गुण के है । कणाद ने पुनः लिखा है 'सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता' - वै० सू० १२|७|| (५) विशेष कणाद ने विशेष के सन्दर्भ में लिखा है 'अन्यत्र अन्त्येभ्यो विशेषेभ्यः 'वै० सू० १२६ ॥ एक परमाणु (अथवा नित्य द्रव्य) से दूसरे पर - माणु (अथवा नित्य द्रव्य) को भिन्न सिद्ध करनेवाला पदार्थ विशेष है। परमाणुओं के अनन्त होने के कारण विशेष भी अनन्त है । किन्तु एक विशेष से दूसरे विशेष को भिन्न सिद्ध करनेवाले किसी तत्त्व की आवश्यकता नही है । जैसे सूर्य इस जगत को भी प्रकाशित करता है और अपने आपको भी । उसी तरह विशेष परमाणुओं को भी परस्पर भिन्न सिद्ध करना है और अपने आपको भी । इसीलिए इसे अनेक विशेष कहा है । (६) समवाय: कणाद ने समवाय की परिभाषा करते हुए लिखा है इदमिति यत कार्यकारणयोः स समवायः - वै० सू० ७।२।२६ ॥ समवाय दो पदार्थों - द्रव्य - गुण, द्रव्य-कर्म, द्रव्यसामान्य, द्रव्य-विशेष, अवयवद्रव्य - अवयविद्रव्य, गुणसामान्य और कर्म - सामान्य के बीच का पारस्परिक सम्बन्ध है | यह सम्बन्ध उन दो तत्त्वों के बीच माना जाता है, जिनमे से किसी एक को हम दूसरे से तब तक अलग नही कर सकते, जब तक वह वर्तमान है । इस प्रकार के दो पदार्थों को 'अयुतसिद्ध' कहा जाता । यह संयोग सम्बन्ध, जो 'युतसिद्ध ' पदार्थों तथा द्रव्य-द्रव्य के बीच ही रहता है, से सर्वथा भिन्न है । कणाद ने केवल उदाहरण के रूप में कार्य-कारण के Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : १ : २४-२५ ] श्रीवरकृता कमलाञ्चिते । नेत्रोज्ज्वले लसद्धर्म्यशब्दा यस्य श्रीवसन्नित्यं वदने सदनेऽपि च ॥ २४ ॥ २४. जिसके सुन्दर नेत्र एवं सुरम्य शब्दों से पूर्ण कमलवत् वदन में तथा चमकते रेशम एवं मनोहारी शब्दों से सम्पन्न लक्ष्मी युक्त सदन में नित्य श्री निवास करती थी। बङ्गालमालवा भीरगौड कर्णाटदेशगा यत्कीर्ती रागमालेव 1 भूवामृतवर्षिणी ।। २५ ।। २५. बंगाल, मालव े, आभीर, गौड़, कर्नाट', देशगामीनी जिसकी कीर्ति, रागमाला सदृश अमृतवर्षिणी हुई। बीच के सम्बन्ध को समवाय कहा है । यह तो उन दो पदार्थों के बीच भी रहता है, जिनका आपस में कार्यकारणभाव नही है, जैसे द्रव्य (परमाणु) और सामान्य द्रव्यत्व अथवा द्रव्य और विशेष । समवाय के विषय मे वैशेषिक दर्शन की दो और मान्यताएँ है—एक यह कि समवाय का प्रत्यक्ष नहीं होता है और दूसरी यह कि समवाय एक ही है, अनेक नही । सम्बद्ध पदार्थो की भिन्नता से समवाय मे परस्पर भिन्नता, जो दीखती है, वह मात्र औपचारिक है। इस श्लोक से यह भाव निकलता है कि वह राजा कणाद की चलाई परम्परा के परीक्षण की शक्ति भी रखता था । अन्ध-क्रियाहीन टीकाकारों ने पुरानी परम्परा से अनेक अनुपत्तियों को जन्म देने वाले, जैसा बौद्धों ने स्पष्ट कहा है, सामान्य पदार्थ को नही मान कर भी, अपनी उच्च विवेकशक्ति के कारण समाज में प्रतिष्ठित हो चुका था। इस वक्तव्य में संक्षेप से, राजा की विचारशक्ति के उत्कर्ष पर प्रकाश डाला गया है । ९ कणाद के द्वारा प्रवर्तित वैशेषिक दर्शन इस पूरे जगत् की एक व्यावहारिक तथा प्रामाणिक ब्याख्या करता है । जगत् के जड़ तथा चेतन पदार्थों को तर्क के आधार पर छः पदार्थो द्रव्य, गुण, कर्म, सौमान्य, विशेष, समवाय तथा अभाव को लेकर सात पदार्थों में विभाजित कर उसकी स्वाभाविक व्याख्या प्रस्तुत जै. रा. २ करता है। इसके प्रथम तीन पदार्थ तो वास्तविक है और शेष काल्पनिक । इन काल्पनिक पदार्थो के अस्तित्व को लेकर अन्य दार्शनिकों नेविशेषतः बौद्धों ने इसकी बड़ी आलोचना की है । किन्तु इस आलोचना से तो दर्शन की प्रतिष्ठा और बढती ही रही है। इसके पदार्थों मे स्वामाविकता तथा व्यावहारिकता को देख कर ही आलोचर्को ने इसे पवार्थ की संज्ञा दी है। यदि सभ पूछा जाय, तो यथार्थ का पूरा स्वरूप इसी दर्शन में प्रतिबिम्बित हुआ है, न्याय आदि दर्शनों में नहीं । इसी जगत् के माध्यम से इससे ऊपर उठने की प्रेरणा प्रदान करना, इसकी सबसे प्रमुख विशेषता है । बहुत सम्भव है कि इसी के आधार पर इसे 'वैशेषिक' कहा गया है । पाद-टिप्पणी: पाठ-बम्बई बंगाल, मालव, आभीर, गौड़, कर्नाट शब्द श्लेष है, उनका प्रयोग यहाँ देश एवं राग दोनों अर्थों में किया गया है । २५. (१) बंगाल वर्तमान बंगाल प्रदेश तथा बंगाल राग दोनों अभिप्रेत है । बंगाल राग लुप्त हो गया है । पुण्डरीक विट्ठल अकबर के दरबार तथा बुरहानपुर के खान के यहाँ इस राग को गाते थे। यह मालव-गोड़ अर्थात् आधुनिक भैरव Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैन राजतरंगिणी राग के समकक्ष है । इसमें षड्ज स्वर, ग्रह, अंश और म्लेच्छ मानता न्यास है । ( २ ) मालव : मालवा प्राचीन मालवा अवन्ती के पूर्व तथा गोदावरी के था । कामसूत्र मे अवन्ती तथा मालवा का प्रदेश रूप में किया गया है । वायु तथा मारकण्डेयपुराणो के अनुसार पर्वताश्रयी है । ब्रह्म, वायु, कूर्म पुराणों ने उन्हें पारियात्र पर्वत के समीपस्थ लिखा है । पराशर तन्त्र, मालव तथा मल्ल अलग मानता है । प्राचीन काल में मालवा गणतन्त्र था । सप्त मालव का उल्लेख पद्मपुराण में मिलता है । समुद्रगुप्त प्रयाग स्तम्भलेख मे मालवा का उल्लेख । बौद्धकालीन सोलह जनपदों में एक है । मालवा के ग्रामों की संख्या ११८०९२ दी गयी है। उज्जैन मालवा की राजधानी थी । काल मे उत्तर में वर्णन सत्ररहवी शताब्दी के ने इस राग का वर्णन किया है । एक मत है कि वर्तमान अहीर जाति ही प्राचीन आभीर जाति है । शकों के समान आभीर लोग हिन्दुस्तान के बाहर से आये थे । भारत के पश्चिमी, मध्यवर्ती एवं दक्षिणी भाग में आबाद हो गये । यह इनका वर्णन स्पष्ट है । मालवा राग की परि- बलशाली तथा पुष्ट शरीर होते थे । वे नृत्य-प्रिय भाषा दी गयी है - थे। मेरे काशी की भूमि पर बहुत अहीर अबाद है । अपने बाल्यकाल में मैं देखता था । विवाह आदि के समय वे नगाड़ों पर नाचते थे । स्त्रियाँ भी नाचती थी । अब यह प्रथा लुप्त हो गयी है (इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस सन् १९५९ ई० आभीर : पृष्ठ : ९१ ) । गमधाश्च यसो रिसो निधौ पसौ मगौ । रिसो निस्ते स्वरैरेभिमालिवः परिगीयते ॥ कामसूत्र में गुजरात के आभीर राज्य का उल्लेख है । जोधपुर शिलालेख मे आभीरों के चरित्र पर प्रकाश डाला गया है। भिलसा 'विदिशा' तथा झाँसी के के मध्य में आभीरों का निवास स्थान था । प्रयाग के शिलास्तम्भ पर भी आभीर शब्द का उल्लेख है । महाभारत में उल्लेख है कि सरस्वती नदी शूद्र तथा आभीरों के क्षेत्र में जाकर लुप्त हो जाती है। यह क्षेत्र विनशान है। सिरसा के आसपास का भूखण्ड इसमें आता । जयमंगला भाष्य में उन्हें कुरुक्षेत्र में निवास करते दिखाया गया । संगीतज्ञ हृदय नारायण 'हृदयकोतुक' ग्रन्थ मे आधुनिक स्वर इस राग का है मध संरें संनिध प स म ग रे स नि स। भट्ट माधव का मत है कि वह ग्राम राग है । षडज् ही अंश, ग्रह एवं न्यास है । [ १ : १ : २५ | पद्मपुराण उन्हें हूण, किरात, पुलिन्द, पुक्षस, यवन, कणक के साथ रखकर उन्हे म्लेच्छों की सन्तान मानता है । ( ३ ) आभीर आभीर लोग एक समय हेरात तथा कन्दहार के मध्यवर्ती क्षेत्र 'अवीरवन' में रहते थे । उनका वही मूल स्थान मालूम होता है । भारत में राजस्थान मरुभूमि के उत्तर आबाद थे । एक आभीर राज दक्षिणा पथ में उत्तर-पश्चिम की ओर तृतीय शताब्दी में था । रामायण एवं ब्रह्मपुराण आभीरों को दस्यु मानता है । मत्स्यपुराण शक, पुलिन्द, चूलिका, यवन, कैवर्त के साथ रखता उन्हें शक्तिसगम तन्त्र में ( ३ : ७२० ) आभीर देश को विन्ध्य शैल स्थित माना गया है । उसके दक्षिण कोकण तथा उत्तर-पश्चिम ताप्ती नदी थी । वह काठियावाड़ तथा दक्षिणी सौराष्ट्र से बहुत दूर नही था । प्रथम तथा द्वितीय शताब्दी में वे मरुभूमि के निवासी थे परन्तु कालान्तर मे उनकी प्रगति दक्षिण दिशा की ओर हुई । तृतीय शताब्दी में वर्ती क्षेत्र में अपना राज्य स्थापित किया था । आभीरों ने उत्तरीय कोंकण तथा नासिक के समीप - कामसूत्र ( ६ : ४ : २४ ) के अनुसार आभीरों का क्षेत्र श्रीकण्ठ अर्थात् थानेश्वर तथा कुरुक्षेत्र था । भागवत उन्हे सौवीर तथा अवन्ति मध्य रखता है । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:१:२५] श्रीवरकृता पतजलि महाभाष्य तथा प्रयाग के समुद्रगुप्त के तथा दक्षिणा पथ मे रखता है। विष्णु, कूर्म तथा अभिलेख मे आभीरों का उल्लेख किया गया है। ब्रह्म पुराण उनका स्थान अपरान्तक मानता है। विनशान नामक स्थान मे जहाँ सरस्वती नदी मरुभूमि भागवतपुराण, उन्हे सौवीर तथा आनत मध्य राजस्थान में विलीन हो जाती थी, आभीर निवास रखता हैकरते थे। अन्य स्थान पर आभीर को अपरांत का मरुधन्वमति क्रम्य सौवीराभीर योपरान् । निवासी बताया गया है । यह स्थान भारत का आनत्तीन् भार्गवोयागाच्छ्रान्त वाहो मनाग्वेिभु.॥ पश्चिमी तथा कोकण का उत्तरी भाग माना जाता था। पेरिप्लस तथा प्तोलेमी के अनुसार सिन्ध नदी संगीत शास्त्र में आभेरी, आभीरी तथा आभीके अधोभागीय उपत्यका तथा सौराष्ट्र के मध्य रिका तीन रागों का उल्लेख मिलता है। किन्तु उनमें उनका निवास स्थान था। एक मत है कि सिन्ध के आभीरी प्रसिद्ध है । श्रीवर ने इसे आभीरी राग का अधोभागीय तथा राजस्थान के मध्य उनका निवास उल्लेख किया है। छन्द बैठाने के लिये आभीरी के स्थान पर आभीर लिखा है। इस राग की परिभाषा स्थान था। सौराष्ट्र का मैने भ्रमण किया है। की गयी है : सौराष्ट्र की भूमि देखने पर वह जैसे राजस्थान की भूमिखण्ड का विस्तार ही प्रतीत होता है । शुद्ध पंचम संभूता गमक स्फूर्णान्विता । आभीरी गम हीना स्याद् बहुला पंचमेन ।। ___आभीर देश जैन श्रमणो के बिहार का केन्द्र था । अचलपुर (एलिचपुर-वरार) इस देश का प्रसिद्ध इस राग में शुद्ध पचम स्वर स्फुरित गमक नगर था। वहाँ कण्हा ( कन्हन ) तथा वेष्णा (बेम) लगता है। इस राग में 'ग' 'म' स्वर नहीं लगते। नदी के मध्य बहादीप नामक दीप था। तगराग पंचम स्वर का बहुत प्रयोग किया जाता है। जिला उस्मानाबाद इस देश का सुन्दर नगर था। मातंग ( पांचवीं से सातवी शताब्दी) काल से शक राजाओं के सेना में वे सेनापति पद पर अबतक लिखे गये सभी ग्रन्थों में आभीरी - कार्य करते थे। अनेक शिलालेखों में आभीरों का अहीरी = राग का उल्लेख मिलता है। मातंग ने उल्लेख मिलता है । नासिक के शिलालेख मे आभीर आभीरी गीत का वर्णन किया है। राजा ईश्वरसेन का उल्लेख मिलता है। भिलसा (४) गौड़ : देश तथा राग दोनों है। तथा झाँसी के मध्य अहीरवाड़ प्रदेश है। यह आभीर- गौड़ राग का उल्लेख हृदयकौतुक ग्रन्थ मे है। बार का अपभ्रंश है। यह राग अब प्रचार में नही है। इसकी परिभाषा प्राचीन जैन साहित्य में आभीर एवं आभीरियों । की अनेक गाथायें लिखी मिलती है । दूसरी तथा सरी म पौ स सौ स श्च निपौ मगौ म री च सः । तीसरी शती मे अपभ्रंश भाषा आभीरी के रूप में गौड़ : षड्व रागस्तु कथ्यते रागवेदिभिः प्रचलित थी और सिन्ध, मुलतान तथा उत्तरी पंजाब स रे म प स नि प म ग म रे स । में बोली जाती थी। (४) गौड़ . आधुनिक पठित वर्ग गौड़ से अर्थ मत्स्य तथा पद्मपुराण आभीरों का स्थान बंगाली भाषा-भाषी क्षेत्र लगता है । मूलतः गौड़ उदीच्य मानता है। वायु, ब्रह्माण्ड एवं मारकण्डेय- देश मुर्शिदाबाद जिला तथा मालदा जिला के धुर पुराण उदीच्य के साथ उन्हे दक्षिणापथ का निवासी दक्षिणी भाग तक माना जाता था। हुवेन्त्सांग ने मानता है। वामनपुराण उन्हे उदीच्य, मध्यदेश कर्णसुन्दर देश तथा राजा शाशनिक की राजधानी Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:२५ दोनों के लिये प्रयोग किया है। राजा शाशनिक ने मुसलिम काल के अनेक ध्वन्सावशेष यहाँ बिखरे थानेश्वर के राजा राजवर्धन का सन् ६०५ ई० में पडे है । प्रसिद्ध सोना मसजिद प्राचीन मन्दिरों के वध किया था। बाण ने हर्षचारित में इसका ध्वन्सावशेषो से बनायी गयी है। यह मसजिद पुराने उल्लेख किया है। चीनी पर्यटको के वर्णनों से प्रकट टूटे दुर्ग में स्थित है। इस मसजिद की निर्माण होता है कि प्रसिद्ध बौद्ध रक्तमत्तिका विहार कर्ण- तिथी सन् १५२६ ई० है। नसरत शाह की मसजिद सुन्दर के उपनगर में स्थित था। इस देश का क्षेत्र- सन् १५३० ई० की निर्माण है। फल ७३० या ७५० वर्ग मील था। यह विहार में श्रीवर ने बंगाल एवं गौड दोनों शब्दों इस समय रंगमाटी कहा जाता है। मुर्शिदाबाद के का प्रयोग किया है। मुसलिम काल में गौड़ की लगभग ११ मील दक्षिण है। संज्ञा सूबा बंगाल थी। गौड़ उसकी राजधानी थी। (द्रष्टव्य : टिप्पणी : रा० : ४ : ४६८ ले० ।) भविष्यपुराण ने गौड़ देश के नामकरण के (५) कर्णाट : कर्णाट प्रदेश तथा राग दोनों विषय में लिखा है कि वह देश गौडेश देवता के है । कर्णाट प्रदेश के लिये द्रष्टव्य है : परिशिष्ट 'त' के क्षेत्र पद्मा एवं वर्धमान नदियों के मध्य में है। उसे कर्णाट, राजतरंगिणी : कल्हण खण्ड १ (श्लोक रा० : पुण्ड्र देश के सात देशों मे एक माना है। परम्परा १:३००.५० ११४ )। के अनुसार गौड़ देश वर्तमान मुर्शिदाबाद, जिला कर्णाट राग को हरिकाम्बोजी मेल का राग कुछ भाग नदिया, हुगली और वर्दवान डिविजन माना गया है। लोचन ( पन्द्रहवी शताब्दी ) तिरहुत बंगाल का था। पुण्ड्र देश पश्चिमी तथा उत्तरी ने रागतरंगिणी नामक ग्रन्थ लिखा है। उसमे उल्लेख बंगाल तथा विहार के कुछ पूर्वीय जिले थे। शक्ति है। संगीत-पारिजात सतरहवी शती का ग्रन्थ है। संगम तन्त्र में जिसे हम मध्ययुगीय गौड कह सकते उसने कर्णाट को कानड़ा राग माना है। उत्तर हैं, गौड़ देश बंग तथा भुवनेश्वर के मध्य माना। भारत में यह राग 'खम्माच' कहा जाता है। भारत गया है। कुछ मुसलिम इतिहासकारो ने पूर्वीय बंगाल में मसलिम शासन स्थापित होने के पश्चात् रागों मे को बंग तथा पश्चिमी बंगाल को गौड़ मानते थे। एक साम्यता किंवा रूपता, आवागमन एवं सम्पर्क कळ असलिम इतिहासकारों ने गीड़-बंग नाम भी के अभाव में नहीं रह गयी थी। कर्णाट राग की दिया है। परिभाषा की गयी है : शुद्धा. सप्त स्वरास्तेषु गांधारो मध्य मस्य चेत् । बंगाल पर मुसलमानों का राज्य स्थापित होने पर बंगाल की राजधानी कभी गौड और कभी गृह्णाति दे श्रुती गीता कर्णाटी जायते तदा । पाडुवा रही है। पाडुवा गौड़ से बीस मील दूर (लोचन रागतरंगिणी) सा रे ग म प ध नि । स्थित है। मुसलिम काल मे वहाँ के मन्दिरों आदि ध्वन्सावशेषों से मसजिदे तथा जियारतों का निर्माण कुछ लोग कानड़ा को कर्णाट राग मानते है । हुआ है। सन् १५७५ ई० मे सम्राट अकबर के संगीत-पारिजात में परिभाषा दी गयी हैसूबेदार ने गौड़ के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर, राजधानी तीब्र गान्धार सम्पन्ना मध्यमोद् ग्राह धान्तिमा । पाडवा से हटा कर गौड़ में स्थापित किया था। सांश स्वरेण संयुक्ता कानडी सा विराजते । कालान्तर मे महामारी के कारण नगर परित्यक्त जिसमें गाधार तीव्र लगता है। मध्यमा स्वर पर कर दिया गया। तत्पश्चात् तीन-सौ वर्षों तक नगर, ग्राह और धैवत पर न्यास होता है। षड्ज जिसका जंगलों एवं खंडहरों के भयावने रूप में स्थित रहा। अंश होता है। वह कानडी अर्थात कानड़ा है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:१:२६-३०] श्रीवरकृता भास्वान् राजा सदाचारो बुधः सधिषणो महान् । अधाद् विश्वग्रहाख्यातिमासन्नस्य ग्रहोचिताम् ॥ २६ ॥ २६. बुध (विद्वान), सधिषण (बध युक्त), बहस्पति सहित, महान, सदाचारी, भास्वान (सूर्य) राजा (चन्द्रमा) ने गर्भोचित विश्व ग्रह की ख्याति धारणा किया। यं सम्प्राप्य गुणाः सर्वेऽप्यलभन्नधिकां श्रियम् । रात्रौ कुमुदवृन्दानि चिन्तामणिमिवोडुपम् ॥ २७ ॥ २७. रात्रि के चन्द्रमा को पाकर, कुमुद वृन्दों के समान, चिन्तामणि सदृश, जिस राजा को पाकर, सभी गुण अधिक सुशोभित हुए। कया यस्य वृत्तं समन्वरञ्जयन् । सुमनोरञ्जिताहादा ऋतवो नन्दनं यथा ॥ २८॥ २८, षट दर्शनों' की क्रियायें, जिसके वृत को उसी प्रकार अनुरंजित की, जिस प्रकार सुमनों से आल्हाददायिनी (षट) ऋतुयें नन्दन को। त्रिवर्ग प्रोज्ज्वलं दृष्ट्वा यस्मिस्तद्रसिका इव । अवसञ्छक्तयस्तिस्रः सममेकमता इव ॥ २९॥ २९. प्रोज्वल त्रिवर्ग' को देखकर, उनकी रसिका (प्रेमिका) सदृश तीनों शक्तियाँ एकमता सदृश जिसमें रहती थीं। भूपेऽथैः पूरयत्यर्थिसाथै पार्थोपमेऽन्वहम् । आह्वानार्थमिवैतस्य यशः सर्वदिशोऽगमत् ॥ ३०॥ ३०. पार्थ सहश राजा धन द्वारा याचकवन्द को प्रतिदिन परिपूर्ण करता था, अतएव मानो उनका आह्वान करने के लिये ही इसका यश दिशाओं में फैला । पाद-टिप्पणी : माना गया है। पारिजात पुष्प के लिये प्रसिद्ध है। २८. (१) दर्शन : आस्तिक एवं नास्तिक शाब्दिक अर्थ सुहावना प्रसन्न करनेवाला होता दो विभागों मे दर्शनों का वर्गीकरण किया गया है। है-अभिज्ञाश्छेद पातानां क्रियते नन्दन द्रुमाः (कु० ____ आस्तिक दर्शन-सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, २ : ४१; रघु०८:४१ )। मीमांसा (पूर्वमीमांसा ) तथा वेदांत ( उत्तर- पाद-टिप्पणी : मीमांसा ) है। नास्तिक दर्शन भी छः हैं-चार्वाक २९. ( १ ) त्रिवर्ग : धर्म, अर्थ एवं काम । ( लोकायत), श्रोत्रान्तिक, वैभाषिक, योगाचार, (२) शक्तियाँ : प्रभु, मन्त्र एवं उत्साहमाध्यमिक तथा अर्हत । शक्ति । (२) नन्दन : देवराज इन्द्र के उपवन का पाद-टिप्पणी: नाम है। सबसे सुन्दर स्थान एवं वन या उद्यान ३०.(१) पार्थ : युधिष्ठिर की माता कुन्ती Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:३१ शिल्पिनो विश्वकर्माणं गोरक्षं योगिनां गणाः । अवतीर्ण रसज्ञा यं नागार्जुनमिवाविदन् ॥ ३१ ॥ ३१. जिसको शिल्पी विश्वकर्मा', योगिगण गोरक्ष तथा रसज्ञ जन अवतीर्ण नागार्जुन मानते थे। का नाम पृथा था । उसके पुत्र युधिष्ठिर, भीम एवं इसकी कन्या का नाम बहिष्मती था। उसका विवाह अर्जुन के लिये पार्थ शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रियवत राजा से हुआ था। संज्ञा एवं छाया कन्यायें कालान्तर में पार्थ शब्द अर्जुन के लिये रूढ़ हो विवश्वत की पत्नियां थी। तृतीय कन्या तिलोत्तमा गया। महाभारत में कर्ण के लिये भी एक बार का ब्रह्मा की आज्ञा से उत्पन्न किया था। इसने 'पार्थ' शब्द का प्रयोग किया गया है, क्योंकि कर्ण शिल्प-शास्त्र विषयक ग्रन्थ की रचना भी की थी। भी पथा-कुन्ती का औरस पुत्र था। यहाँ पर पार्थ पूर्वजन्म में उसने घताची अप्सरा को शद्र कूल मे का अर्थ कण है। कर्ण महादानी प्रसिद्ध है, अतएष जन्म प्राप्त करने के लिए शाप दिया था। उसने एक उसकी तुलना जैनुल आबदीन से श्रीवर ने किया है। ग्वाला के गृह में जन्म लिया था। ब्रह्मा के कारण ( उद्भोग पवे : १४५ ३ )। विश्वकर्मा को ब्राह्मण वंश में जन्म लेना पड़ा। पाद-टिप्पणी : ब्राह्मण पिता एवं ग्वाल माता के संसर्ग से दर्जी, ३१. (१) विश्वकर्मा : ऋग्वेद में विश्वकर्मा कुम्हार, स्वर्णकार, बढ़ई आदि तंत्र विद्या प्रवीण का निर्देश देवता रूप मे मिलता है ( ऋ० : १०. जातियों का जन्म हुआ ( ब्रह्म वै० :१:१०)। १२। वैदिक साहित्य में सर्वदृष्टा प्रजापति आदिपुराण के अनुसार प्रभास वसु के पुत्र और कहा गया है ( वा० स० : १२:६१)। विश्वकर्मा रचना के पति है ( आदि० : ६६ : २६-२८)। ने पृथ्वी को उत्पन्न किया था। आकाश का अना- उनके एक पुत्र का नाम विश्वरूप है ( उद्योग० : वरण किया था। समस्त देवताओं का नामकरण ९:३-४ )। वृत्रासुर को भी इन्होंने उत्पन्न किया था (ऋ० : १०: ८२ : ३-४)। महा- किया था ( उद्योग० : ९:४५-४८)। भारत में विश्वकर्मा को शिल्प प्रजापति कहा है (२) गोरक्ष : गोरक्षनाथ अथवा गोरखनाथ (आदि : ६० : २६-३२)। ब्राह्माण्डपुराण में हठयोग के आचार्य थे। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक हठ विश्वकर्मा को त्वष्ट्र का पुत्र एवं मय का पिता योगपर 'गोरक्ष संहिता' नामक ग्रन्थ लिखा था। हठमाना है ( ब्रह्माण्ड : १:२:१९)। भागवत ने योगियों में श्री आदिनाथ (शिव), मत्स्येन्द्र. शाबर, विश्वकर्मा को वास्तु एवं अंगिरस का पुत्र माना है आनन्दभैरव, चौरंगी, मीननाथ, गोरक्षनाथ, विरूपाक्ष (भा०:६:६:१५)। विश्वकर्मा ने इन्द्रप्रस्थ, एवं विलेशय संसार में जीवनमुक्त माने गये है। द्वारका, वृन्दावन, लंका, इन्द्रलोक, सुतल, हस्तिना- गोरक्षनाथ जी मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य थे । चार सिद्ध पुर और गरुण के भवन का निर्माण किया था। जालन्धरनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, कृष्णपाद तथा गोरक्षविष्णु का सुदर्शन, शिव का त्रिशूल, इन्द्र का वन नाथ, चारों योगी नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने तथा विजय नामक धनुष बनाया था। विश्वकर्मा जाते हैं । जालन्धरनाथ तथा उनके शिष्य कृष्णपाद की कृति. रति, प्राप्ति एवं नन्दी नामक पत्नियों का सम्बन्ध कापालिक साधना से है। पर्वतीय क्षेत्रों का उल्लेख मिलता है। इसके पुत्र मनु चाक्षुष थे। में मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरक्षनाथ का व्यापक रति से शाम, प्राप्ति से काम, नन्दी से हर्ष पुत्र भी थे। प्रभाव है। चारों योगी सम-सामयिक थे। मत्स्येन्द्रनाथ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:१:३२] श्रीवरकृता तस्याग्रे योग्यतादर्शि यैः शिल्पकविकौशलात् । तथा प्रसादमकरोत् तत्परास्ते यथाभवन् ॥ ३२ ॥ ३२. उसके समक्ष जिन लोगों ने शिल्प एवं कवि कौशल में योग्यता प्रदर्शित की, उन लोगों को उसने उसी प्रकार अनुगहीत? कया, जिससे वे उसके प्रति और उत्साहित हए। तथा जालन्धरनाथ गुरुभाई थे। दोनों की साधना- गोरक्षपद्धति का योग के प्रति रुचि होने के पद्धति एक दूसरे से भिन्न थी। कारण मैने अध्ययन किया है। पातंजल योग एवं काश्मीरी कवि आचार्य अभिनवगुप्त ने आदर गोरक्षपद्धति मे अन्तर है । पातंजल योग के आठ के साथ मत्स्येन्द्रनाथ का उल्लेख किया है। उक्त- अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, योगियों के काल के विषय में एक मान्यता नही है। ध्यान, धारणा और समाधि है। किन्तु गोरक्षपद्धति मे एक मत है कि वह नवी शताब्दी के उत्तरार्ध में हये यम एवं नियम को स्थान न देकर, केवल छः अंग ही थे। अभिनवगुप्त का समय सन् ९५०-१०२० ई० के माने गये है । 'ह' का अर्थ है-सूर्य एव 'ठ' का अर्थ मध्य निश्चित हो चुका है। अतएव मत्स्येन्द्र का है-चन्द्रमा इनका योग हठयोग है। प्राण एवं अपान समय सन् १०२० ई० के. पूर्व ही रखा जायगा। वायु की संज्ञा सूर्य एवं चन्द्र से दी गयी है। इनका तेरहवीं शताब्दी में गोरक्षनाथ जी के स्थान गोरखपुर ऐक्य करानेवाला जो प्राणायाम है, उसको हठयोग का मठ ध्वन्स कर दिया गया था। गोरक्षनाथ कहते है । अतएव हठयोग की साधना पिण्ड अर्थात् जी ने २८ ग्रंथों की रचना किया था। यह शरीर को केन्द्र मानकर परा शक्ति को प्राप्त करने निर्विवाद सिद्ध हो गया है। इनके अतिरिक्त ३८ का प्रयास किया जाता है। ग्रन्थों के विषय मे किम्बदन्तियाँ है। उन्हीं की जैनुल आबदीन कथा, मुद्रा आदि योगियों को रचनाये है। दान करता था। इससे प्रकट होता है कि जैनुल गोरक्षनाथ जी द्वारा प्रचलित योगी सम्प्रदाय आबदीन का झुकाव हठयोग की ओर था। श्रीवर की १२ शाखायें है। पश्चिमी भारत में वे धर्मनाथी इसीलिये उसे गोरक्षनाथ के समकक्ष रखता है। कहे जाते है । इस पंथ के अनुयाई कान फाडकर मुद्रा (३) नागार्जुन : बौद्धदर्शन शून्यवाद के प्रतिधारण करते है। उन्हें कनफटा, दर्शनी तथा गोरक्ष- ष्ठापक तथा माध्यमिक बौद्धदर्शन के आचार्य थे। नाथी कहते है। वे गोरक्षनाथ को अपना आदि गुरू नागार्जन के नाम से वैद्यक, रसायनविद्या, तन्त्र के मानते है। दर्शन का अर्थ कुण्डल भी है। कान ग्रन्थ भी उपलब्ध है। इनका काल द्वितीय शताब्दी फाड़कर उसमें कुण्डल पहनते है । विद्वानों का मत उत्तरार्ध है। दूसरे नागार्जुन सिद्धों की परंपरा में है। गोरखनाथ के पूर्व भी नाथ सम्प्रदाय था । नाथ हए है । इनका काल आठवी तथा नवीं शती था। आगमवादी नहीं है। शिव को अवतार मानते है। यह पादलिप्त सूरि के शिष्य थे। वे रसशास्त्र काश्मीरी अभिनवगुप्त ने मच्छंद विभु का स्तवन पारंगत थे। पारद से स्वर्ण बनाने में सफल हुए थे। किया है। गाथा है कि गोरखनाथ ही महेश्वरानन्द श्रीवर का अभिप्राय दूसरे नागार्जुन रसज्ञ से है। हैं । काश्मीर में महार्थ मंजरी नामक एक ग्रन्थ क्योंकि नागार्जुन का विशेषण उसने रसज्ञ दिया है। मिलता है । महेश्वरानन्द जी, महाप्रकाश (मत्स्येन्द्र- जैनुल आबदीन भी लोगों को औषधि आदि देता था नाथ) के शिष्य थे। काश्मीरी ग्रन्थ अमरौघ शासन अतएव श्रीवर ने रसज्ञ आचार्य नागार्जुन से उसकी ग्रन्थ गोरखनाथ कृत माना जाता है। उपमा दी है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:३३-३७ काव्यशास्त्रश्रुतैर्गीतनृत्यतन्त्रीचमत्कृतैः आजीवमनयत् कालं कार्यानुद्विग्नमानसः ॥ ३३॥ ३३. उसने कार्यों से बिना उद्विग्न मन हुये, काव्यशास्त्र श्रवण तथा गीत, नृत्य एवं वीणा के चमत्कार से जीवन पर्यन्त काल-यापन किया। न्याय्यं कुर्वन्ति शास्त्रज्ञाः कार्यभारं सुधीरतः । तेभ्यः क्षिप्त्वा च स्वे धर्मे तिष्ठतेत्येवमभ्यधात् ॥ ३४ ॥ ३४. सुबुद्धिरत शास्त्रज्ञ 'न्याय करते हैं। अतः कार्यभार उन्हें समर्पित कर, 'अपने धर्म पर स्थित रहो' यह निर्देश दिया। अवार्यवेगैः सततमाशुगेर्यस्य ताडिताः। आसन् वनदिगन्तेषु मशका इव शत्रवः ॥ ३५ ॥ ३५. जिसके अवारणीय वेगशाली वाणी द्वारा ताड़ित शत्रु, मशक सदृश बन (अटवी) दिगन्तों में चले गये। तस्य स्वपरवृत्तान्तं नित्यमन्विष्यतश्चरैः । केवलं स्वप्नवृत्तान्तो बभूवाविदितो विशाम् ॥ ३६ ॥ ३६. अपने एवं दूसरे के वृतान्त का नित्य अन्वेषणकर्ता, उस राजा को गुप्तचरों द्वारा प्रजाओं का केवल स्वप्न वृतान्त ही अविदित रहता था। गृहं गृहस्थवृत्तस्य ध्यायतो नीतिशालिनः । अन्यायान्नाशकद्धतुं काकिनीमपि कश्चन ॥ ३७॥ ३७. नीतिशाली एवं ध्यानी गृहस्थ से अन्यायपूर्वक, कोई काकिनी (एक कौड़ी) भी नहीं ले सकता था। पाद-टिप्पणी: पुराण मे भी 'राजा नश्चार चक्षुषा' (२ : २४ : पाठ-बम्बई ६३ ) तया उद्योगपर्व मे 'चारैः पश्यन्ति राजाना' ३६. (१) गुप्तचर : कौटिल्य ने गुप्तचर (३४ : ३४ ) कहा गया है। जैनुल आबदीन का पर चार अध्याय लिखा है (१:११-१४)। गुप्तचर संघठन इतना संगठित था कि उसे राज्य का कामन्दक (१२: २५-४९) ने भी विस्तार से इस सब वृतान्त ज्ञात हो जाता था। विषय पर लिखा है। उसने चर को गुप्तचर की सुलतान स्वयं रात्रि में भेष बदल कर, श्रीनगर संज्ञा दी है। कौटिल्य ने पञ्चसंस्था में उदास्थित, की सड़कों पर लोगों की स्थिति जानने के लिये घूमता गृहपतिक, वैदेहक, तापस, सत्री तथा तीक्ष्ण नामक था (तारीख हसन : पाण्डु० : १२२; हैदर मल्लिक : गुप्तचरों को रखा है। गुप्तचर राजा की आँख कहे पाण्डु० : १२१ बी०)। गये हैं। वे राज्य में विचरण करते थे । कामन्दक पाद-टिप्पणी : ने 'चारचक्षुर्भहीपतिः' अर्थात् गुप्त चार राजा की ३७. (१) काकिनी = कौडी : विनिमय के आँखें हैं, कहा है (१२ : ३८)। विष्णुधर्मोत्तर लिये बीसवी शताब्दी के द्वितीय शतक तक मुद्रा रूप Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:१:३८-३९] श्रीवरकृता आदिश्य कृष्य वास्तव्यान् श्वपचादीन् स तस्करान् । मृत्कर्माकारयद् बद्धपादायः शृङ्खलान् बलात् ॥ ३८ ॥ ३८. उसने निवासियों को कृषि हेतु आदेश देकर चोर', चाण्डाल आदिके पैरों को शृङ्खलाबद्ध कराकर, उनसे बलात् मृत (मिट्टी) का कार्य कराया। न कः प्रवर्तते चौयें नीचो वृत्तिकदर्थितः । इति कारुणिको राजा तेभ्यो वृत्तिमकल्पयत् ।। ३९ ॥ ३९. जीविकात्रस्त कौन से नीच चौरकार्य' में प्रवृत्त नहीं होते ? अतएव कारुणिक राजा ने उनके लिये वृत्ति प्रदान किया। में प्रचलित थी। एक प्राचीन मापदण्ड है जिसकी परिवर्तन के पश्चात् भी जातिप्रथा बनी रही। जाति लंबाई एक हाथ होती थी। सुलतान ने कृषकों पर मे ही विवाह आदि होता था। जाति के बाहर से अतिरिक्त कर हटा दिया, जिसके कारण राज- विवाह करना अपवाद था। समाज में सबसे निम्न अधिकारी कृषकों को उत्पीडित करते थे ( म्युनिख श्रेणी में चाण्डाल तथा चमार थे । चाण्डाल चौकी: ७० ए०; तवक्काते अकबरी : ३ : ३४६ )। दारी का काम करते थे। वे वध किये तथा युद्ध में पाद-टिप्पणी: मारे गये, लोगों का शव उठाते थे। ३८. (१) चोर : द्रष्टव्य : म्युनिख : पाण्डु० : तवक्काते अकबरी में उल्लेख मिलता है७२ ए० 'चोरों से सुलतान ने मिट्टी का काम लिया'। सुल्तान चोरों की हत्या न कराता था, अपितु उसने उनसे मिट्टी ढुलवाया। आज भी जेल में कैदियों आदेश दिया था कि उनके पाँवों मे बेड़ियाँ डालकर से मिट्टी तथा कृषि कार्य लिया जाता है। उन्हे उनसे भवन निर्माण का कार्य कराया जाय और जेल से बाहर राजकीय प्रतिष्ठानों में राजगीर, मिट्टी उन्हें भोजन प्रदान किया जाय, (पाण्डु० . ४३८ )। ढोने तथा अन्य कार्यों के लिये, उनके एक पैर में पाद-टिप्पणी : लोहे का कड़ा डालकर भेजा जाता है। कड़ा में ३९. (१) चौरकार्य : श्रीवर ने आधुनिक एक छोटी लोहे के मुद्रिका रहती है। उससे राजनीतिक आदर्श सिद्धान्त लेखकों के समान लिखा ध्वनि होती रहती है। यदि चोर भागे तो पकड़ा है। मनुष्य का वातावरण एवं अवश्यकताएं, उस जा सकता है। आइने अकबरी में उल्लेख मिलता कूपथ की ओर प्रवृत्त करती है। जीविकाहीन व्यक्ति है कि सुलतान ने चोरों को बेड़ी पहना कर, काम । अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण के लिये द्रव्य चाहता पर लगाया ( पु० ४४०)। है। अपने कुटुम्ब मे पहुँचता है, तो उसके बच्चे (२) चाण्डाल : चाण्डालों को कृषि कार्य आदि उसे घेर लेते है । उनकी भूख वह नहीं देख पर लगाया। चाण्डाल, जरायम पेशा उत्तर भारत में सकता है। उनके तथा कुटुम्ब किंवा अपनी जीवन माने जाते है। वे कही घर बनाकर नहीं रहते। रक्षा के लिये चोरी करता है। समाज उसे अपराध उन्हें तथा मुशहरों को घरों में रहने की आदत डलाई मानता है। दण्ड देता है। परन्तु यह समस्या का जा रही है। सुल्तान ने यह सुधार कार्य आज से निराकरण नही है। उसे दण्ड देकर, उसे बन्दो पाँच शताब्दी पूर्व किया था। जैनुल आबदीन के बनाकर, उसके कुटुम्ब को असहाय बना दिया जाता समय प्रायः सभी हिन्दू मुसलमान हो गये थे। धर्म है। उसके अपराध के कारण समाज केवल चोर Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:४० चक्रादीन् क्रमराज्यस्थान् दुष्टान् ज्ञात्वा स तद्भुवम् । हृत्वा मडवराज्यान्तदत्तवृत्तीन्न्यवेशयत् ॥ ४० ॥ ४०. क्रमराज्य' में स्थित चक्र आदि दुष्टों को जानकर, राजा ने उनकी भूमि अपहृत तथा उन्हें वृत्ति प्रदान कर, मडव राज्य में प्रविष्ट किया। को ही दण्ड नही देता अपितु उसके कुटुम्ब को, विभाजन रेखा, शेरगढी राज प्रासाद है । मराज पूर्व उसके आश्रितो को दण्डित करता है । अपराध करता तथा क्रमराज पश्चिम मे था। है काई एक और परिणाम भोगता है कोई दूसरा। (२) चक्र = चक . श्रीवर पूरा नाम नहीं चोरी न करे, बेकार न रहे, अतएव चौरकर्म के तापस देता। पीर हसन के वर्णन से कुछ प्रकाश पड़ता हैमौलिक कारण को राजा ने समझकर, उसका 'इन्ही आयाम मे पाण्डुचक, जो चक कबीला का मौलिक निराकरण किया। चोरों को जीविका देकर, सरदार था और अपनी कौम और खानदान साहत उनकी बेकारी तथा उनकी विषम समस्या का हल तरहगाम से सकुनत करता था, जब देखा कि जैनाकिया। समाज मे इस प्रकार सुल्तान ने मौलिक शाह ने जैनागिर के बागान आबाद कर दिये हैं सुधार कर, दूरदर्शिता का परिचय दिया था। और कि अकसर औकात वही यह रहता है, तो श्रीवर ने पुरातन सिद्धान्त को दुहराया है। इस ख्याल से कि बादशाह के यहाँ रहने से उसकी शान्तिपर्व महाभारत (१ : १६५ : ११-१३); मनु कौम को तकलीफ पहुँचेगी, अपने मददगार आर (११ : १६-१८) तथा याज्ञवल्क्य ने चोरी को साथियों की एक जमात के साथ रात के मौका पर दण्डनीय अपराध नही माना है । यदि कोई व्यक्ति शाही इमारतों को आग लगा दी। सुल्तान जैनुल तीन दिनों तक बिना अन्न रहे, तो उसे अधिकार आबदीन ने ज्योंही ये खबर सूनी, फौरन लश्करकशी था कि चौथे दिन कहीं से भी चाहे वह खेत, खलि- के जरिया मौजा तरहगाम को जलाकर, खाक कर हान अथवा घर हो, एक दिन के भोजन के लिये दिया और पाण्डचक मय अपनी कौम-कबीला के वस्तु चोरी कर सकता था। पूछने पर उस व्यक्ति दारद की तरफ भाग गया। सुल्तान ने मुनहदिम को चोरी का वास्तविक कारण बता देना उचित इमारतों को अज सरे नौतामीर किया। पाण्डुचक है। व्यास ( स्मृतिचन्द्रिका ) ने विपत्ति के समय ने दोबारा फरसत पाकर इन इमारतों को आग भोजन के लिये चोरी करना अपराध नहीं माना है। लगा दी। और भाग गया।' __काश्मीर में चकवंश ने राज्य किया था। उनका पाद-टिप्पणी: वर्णन शुक-राजतरंगिणी के प्रक्षिप्त भाग में है। अन्तिम ४०. (१) क्रमराज्य . कमराज = कामराज । चक राजा याकूब शाह ( सन् १५८६-१५८८ ई०) काश्मीर उपत्यका हिन्दू काल में दो शासकीय भागों से अकबर ने राज्य प्राप्त किया था। शाहमीर वंश में विभाजित थी। उन्हें क्रमराज्य तथा मडवराज्य के अन्तिम राजा हबीबशाह को सन् १५६० ई० में कहा जाता था। अकबर के समय अबूफजल ने भी हटाकर, गाजीचक ( सन् १५६०-१५६१ ई०) ने इन्हीं दोनों विभागों को माना है। जैनुल आबदीन राज्य प्राप्त किया था। चक वंश का राज्य केवल के समय में भी यही स्थिति थी। क्रमराज्य में ४० वर्षों काश्मीर में था। चक्र लोग कालान्तर में श्रीनगर से वितस्ता के अधोभागीय दोनों तटीय मुसलमान हो गये, तो उनका नाम चक पड़ गया, जो जिले आ जाते थे। जो वर्तमान काल में दोनों की चक्र का अपभ्रंश है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. १ : ४१-४४ ] श्रीवरकृत तस्करोपद्रवे राज्ञा नीत्यैव शमिते सुखम् । गृहेष्ववाटवीष्वन्तः पथिकाः शेरते स्म हि ॥ ४१ ॥ ४१. राजा द्वारा नीति से ही, तस्कर उपद्रव शान्त कर दिये जाने पर, पथिक गृह के समान न में भी सुखपूर्वक शयन करते थे । सत्ताप्रकृतिमध्यस्थो स्वतन्त्र वृत्ति पालो नित्य सर्वाङ्गवर्धनः । रेमेनानापुरेषु सः ॥ ४२ ॥ ४२. सत्ता प्रकृति के मध्यस्थ नित्य संर्वागवर्धन स्वतन्त्र-वृत्ति भूपाल अनेक पुरों में आनन्द करने लगा । मंदेहानहितानिवार्य च भजन् पूर्वाचलाग्रोदयं यो नित्यं कमलाकरेषु रसिको बिभ्रत्प्रतापोच्चयम् । सङ्कोचं कुमुदाशयेषु रचयन् पद्माकरोत्पूजितः । शस्यः कस्य न दत्तलोक महिमा भास्वान् यशस्वी विभुः ।। ४३ ।। 22/4 ४३. अहित मन्देहों' को निवारित कर, पूर्वाञ्चल पर उदित होता, कमलाकरों के प्रति रसिक, तेज धारणा करता हुआ, कुमुदाकरों में सकोच करता, पद्माकरों से पूजित, लोकमहत्वप्रद, यशस्वी एवं विभु भास्वान् किसके लिये प्रशंसनीय नहीं है ? धात्रेयाष्ठकुरा विस्फूर्तिहारिणोऽस्यासन् गजा इव ४४. धात्रीपुत्र ठक्कुर' वैभव श्री मद से उद्धत होकर, निरकुश गज सदृश, इस राजा के सुख-शान्ति - विनाशक हुए । राज्ञो विभव श्रीमदोद्धताः । पाद-टिप्पणी ४३. (१) सन्देह : यह एक राक्षस वर्ग है । इनके विषय में कथा है । उदय पर्वत पर उदित सूर्य का गतिरोध कर, तीन करोड़ राक्षस सूर्योदय के समय सूर्य पर आक्रमण करते थे । लोहित सागर मे निवास करते थे । प्रातः काल ऊर्ध्वमुख होकर, सूर्य से संघर्ष करने लगते थे । सूर्य मण्डल के ताप से सन्तप्त एवं ब्रह्म तेज से निहत होकर, समुद्र जल में पतित हो जाते थे । वहाँ से पुनर्जीवन प्राप्त कर, पर्वत शिखरों पर लौटते थे। उनका वह क्रम निरन्तर चलता रहता था (किष्किन्धा० : ४० : ४१; विष्णु : २४, १५ ) । कल्हण ने भी मन्देहों की निरङ्कुशाः ॥ ४४ ॥ उपमा दी है । (द्रष्टव्य रा० : ४ : ५३ ) । वे सन्ध्या करने एवं गायत्री मन्त्र जाप से नष्ट होते है (ब्रह्म० : २ : २१ : ११० ; वायु: १६३ ) । कुशद्वीप के शूद्रों का नाम है ( विष्णु ० : २ : ४ : ३८ ) । पाद-टिप्पणी : ४४. ( १ ) ठक्कुर : इनका नाम हसन तथा हुसेन था । ये मुसलमान होने के पूर्व ठक्कुर राजपूत किंवा क्षत्रिय ठाकुर थे। मुसलमान होने पर भी अपनी पूर्व उपाधि ठक्कुर का प्रयोग, अपनी गौरव विशेषता दिखाने के लिये करते थे। आज भी अनेक मुसलमान वंश पूर्व उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में हैं, जो अपना वंश परिचय सरकारी कागजों में Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:४५-४७ श्रीमेरठक्कुरो ज्येष्ठः प्राइविवेकपदोज्ज्वलः ।। तेषां मुसुलवृद्धोऽपि बभौ ग्रन्थगुणोज्ज्वलः ॥ ४५ ॥ ४५. ज्येष्ठ मीर ठाकुर प्राविवेक' (न्यायाधीश) पद से भूषित हुआ और ग्रन्थ गुणोज्ज्वल वृद्ध मुसुल भी प्रसिद्ध हुआ। कष्टेन काष्ठवाट स प्राप्तोऽवटपथात्ततः । हिमान्यन्यन्तरदग्धाघिहिमान्यन्तरमासदत् ॥४६ ॥ ४६. कष्ट से अवट' (गर्त-गुफा) पथ से काष्टवाट, वह हिमानी मध्य पहुँचा । हिमानी से उसका चरण क्षत हो गया। स्थित्वा माणिक्यदेवाग्रे स मद्रस्यान्तरे चिरम् । चिब्भदेशं ततः प्राप किञ्चित्प्राप्तपरिच्छदः ॥ ४७ ॥ ४७. मद्र' देश स्थित माणिक्यदेव के समक्ष बहुत दिन रहकर कुछ परिजनों को प्राप्त कर, चिब्भ देश पहुंचा। राजपूत मुसलमान लिखाते है। जोनराज ने (श्लोक पाद-टिप्पणी: ६८८, ७१६, ७१७), शुक (१ : ५२) तथा श्रीवर हिमान्यन्त' का पाठ द्वितीय पद के द्वितीयचरण ने ( ३ : ४६३; ४ : १०४, ३५३, ३७८, ३७९, का सन्दिग्ध है। ४१२, ५३१) उनका उल्लेख किया है । ४६. (१) अवट पथ : श्रीदत्त ने नाम वाचक शब्द 'वट पथ' माना है (पृष्ठ १०२ )। पाद-टिप्पणी : मै श्रीनगर से होता किश्तवार गया हूँ। यह ४५. (१) प्राड्विवाक : 'न्यायाधीश', मार्ग कठिन है, इस समय सड़कों का सुधार तथा 'धर्माध्यक्ष', ( राजनीति, रत्नाकर : १८), 'धर्म- मार्ग प्रशस्त किया जा रहा है, प्राचीन काल में मार्ग प्रवक्ता' (मनु० :८ २०), 'धर्माधिकारी' (मान- गर्तमय था। आज भी गर्गों से होकर मार्ग जाता सोल्लास : २ . २ श्लोक ९३ ) को प्राड्विवाक है। रामायण मे भी अवट पथ का प्रयोग इसी अर्थ कहते हैं। में किया गया है। 'अवटे चापि मे रामा प्रक्षिपेमं प्राविवाक अति प्राचीन नाम है ( गौतम० : कलेवरं, अवटेमे निधीयते ।' १३ : २६, २७, ३१; नारद . १ : ३५)। 'प्राड' (२) काष्टवाट : किश्तवार । शब्द प्रच्छ घातु में बना है। इसी प्रकार विवाक पाद-टिप्पणी : 'वाक्' से बना है। इसका अर्थक्रम से प्रश्न पूछना, पाठ बम्बई किन्तु 'मद्र' के स्थान 'मद्र' किया सत्य बोलना या सत्य का विश्लेषण करना है। गया है जो उचित है। 'प्रश्नविवाक' शब्द इसी प्रकार बना है। वह शब्द ४७. (१) मद्र : द्रष्टव्य : पाद-टिप्पणी श्लोक वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में प्रयुक्त ७१४. जोमराजकत तरंगिणी भाष्य : लेखक । किया गया है। (२) माणिक्यदेव : श्रीदत्त ने माणिक्यदेव (२) मुसुल : मुसलमान । का अनुवाद मणिक्यदेव स्थान किया है। माणिक्यदेव Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:१:४८-५१] श्रीवरकृता तदेशकालविषमावस्थाशतहतोऽपि सन् । स तत्र प्रेष्यवत् सैदपादशौचं समासदत् ।। ४८ || ४८. वह सैकड़ों देश, काल एवं विषम अवस्थाओं से व्याहत होकर भी, वहाँ पर भृत्य सदृश सैद (सैय्यिद) ने पाद प्रक्षालन किया। उद्गन्धतामयोत्पन्नस्फोटवैकृतशान्तये । वैद्यैर्वरत्राबद्धैकपादोऽभूज्जीवितावधि ॥४९॥ ४९. उग्र गन्धवाले रोग से उत्पन्न फोड़ा के विकार' की शान्ति के लिये वैद्यों ने उसे जीवन भर एक पैर रस्सी से बँधवाये रखा। तत्रोपायान बहून् कुर्वन् स्वदेशविभवाप्तये । यथाकथञ्चित् तत्रस्थः पञ्चशः सोऽवसत् समाः ॥ ५० ॥ (अतः परं किञ्चिद् ग्रन्थचरितं कालवशात् छिन्नं ) ५०. वहाँ अपने देश का विभव प्राप्त करने के लिये, बहुत उपाय करते हुए, यथाकथंचित वह पाँच वर्ष वहाँ स्थित रहा। [ इसके पश्चात का कुछ ग्रन्थ चरित कालवश छिन्न' हो गया है।] स सिन्धुहिन्दुवाडादिदेशान जित्वा बहिःस्थितान् । प्रतस्थे भुट्टदेशं स जेतुं सकटको नृपः ॥ ५१ ।। ५१. बाहर स्थित सिन्धु' एवं हिन्दुवाट देश जीतकर, सेना सहित वह नृपति भुट्ट देश प्रस्थान किया। का उल्लेख तवकाते अकबरी में जम्मू के राजा के यहाँ गलित कुष्ठ से अभिप्राय है। फोड़ा इतने लम्बे रूप में किया गया है । (पृष्ठ : ४४७) काल तक नही रह सकता । गलित कुष्ठ उन दिनों (३) चिब्भ : श्रीदत्त ने नाम चिक दिया है। आधुनिक औषधियों के अभाव में मृत्यु के साथ ही उत्तर तैमूर तथा मुगलकालीन भारत मे काश्मीर शरीर का त्याग करता था। मण्डल के बाहर भीमवर जिला था। जम्मू से ५६ (२) रस्सी : पट्टी बाँधने से अभिप्राय है । मिल दर है। प्राचीन काल में प्रसिद्ध था। मुगल पाट-टिप्पणी : काल में काश्मीर जाने के मार्ग पर पड़ता था। उस ५०. (१) छिन्न : लिपिक अपनी तरफ से समय यह चव या चिव राजाओं की राजधानी था। तत्कालीन जिस प्रति के आधार पर प्रतिलिपि कर जम्मू को यदि मद्र देशान्तर्गत मान लिया जाय, तो रहा था। उसमें कुछ अंश लुप्त था। श्रीवर स्वयं श्रीवर के वर्णन के अनुसार काश्मीर के बाहर जम्मू अपने ही ग्रन्थ के विषय में नही लिख सकता था से श्रीनगर आते समय, यह स्थान पड़ेगा। इस समय क्योंकि उसके समय ग्रन्थ पूर्ण रहा होगा। यह मूल छम्ब, देवा, चकला मुनावर के अतिरिक्त पूरी तहसील पाकिस्तान के पास अनिधिकृत रूप से है। का अंश नही प्रक्षिप्त मानना चाहिए। द्रष्टव्य : १:१:१६७ । पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी : पाठ-बम्बई। ४९. (१) विकार : घाव : मै समझता हूँ कि ५१. (१, ३) सिन्ध तथा भुट्ट : आइने अक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:५२-५३ वनमध्ये प्रविश्यैव नरकङ्कालपञ्जरम् । भित्तिस्थदीपमात्रे ते पश्यन्ति स्म सकौतुकम् ॥ ५२ ।। ५२. बन में प्रवेश करके भी उन लोगों ने कौतूहलपूर्वक एक नरकंकाल पंजर को देखा जिसके पास भीत पर दीप मात्र स्थित था। तपस्तप्त्वा चिरं प्राप्य योगसिद्धिमसौ नृपः । फणीव कञ्चुकं पूर्व गुहायामत्यजत् तनुम् ।। ५३ ।। ५३. वह नृप चिरकाल तपस्या करके योगसिद्धि प्राप्त कर, सर्प के कंचुक' के समान गुफा में शरीर त्याग कर दिया था। बरी में उल्लेख है-सुलतान ने सिन्ध और तिब्बत मिल दूर है। यहाँ की लोइयाँ तथा पटू प्रसिद्ध है। को जीता था (पृष्ठ ४३९)। एक मत है कि हिन्दूबाग ही हिन्दूबाट है । बाट का जोनराज की मृत्यु सन् १४५९ ई० में हो गयी अपभ्रंश बाडा हो गया है। बाट शब्द दक्षिण-पूर्व थी। श्रीवर ने उसके पश्चात् का इतिहास लिखा एशिया में बहुत प्रचलित है। उसका अर्थ विहार या है। यहाँ श्रीवर ने स्पष्ट लिखा है कि वे काश्मीर मठ होता है। से बाहर स्थित थे। अतएव यह विजय सन् १४५९ पाद-टिप्पणी : ई० के पश्चात् हुई होगी। इस समय जैनुल आबदीन ५२. (१) नरकंकाल पञ्जर : जोनराज ने की आयु लगभग ५८ वर्ष की थी। उसकी मृत्यु ६९ सुलतान शहाबुद्दीन के प्रसंग में सुलतान के रक्षित वर्ष की अवस्था सन १४७० ई० मे हो गयी थी। कलेवर का उल्लेख किया है । जोनराज का अनुकरण श्रीवर जैनुल आबदीन के पूर्व की विजयों का उल्लेख करता, श्रीवर ने भी कलेवर परिवर्तन की बात दूसरे करता है। उसने संवत् क्रमानुसार नहीं दिया है। शब्दों में लिखा है (जोन० : ४५४ )। आइने पहला संवत् जोनराज की मृत्यु सन् १४५९ ई० अकबरी में अबुल फजल ने लिखा है कि सुलतान तथा उसके पश्चात् १४६५, १४५२, १४६०, किसी के भी शरीर में प्रवेश कर सकता था ( पृष्ठ : १४६२, १४५९, १४५७, १४३९, १४६९ ४३९ )। तथा १४७० ई० दिया है। श्लोक तथा तरंग एवं तवकाते अकबरी मे सुलतान के शरीर से घटनाक्रम के अनुसार वर्ष संवत् नही दिया गया आत्मा निकलने आदि के सम्बन्ध मे उल्लेख किया है। जोनराज ने अवश्य लिखा है कि गान्धार, मद्र, गया है। उसे योगी माना है। शरीर से आत्मा सिन्ध के राजा सुलतान के आज्ञाकारी थे। जैनुल निकालने और पुनः लौटा लाने की योगिक क्रिया आबदीन के राज्यकाल के समय सिन्ध मे जाम- को 'सीमिया' नाम दिया है। तवकाते अकबरी सिकन्दर, जाम राजदान, जाम संजर तथा जाम के लीथो संस्करण में 'जिलअपिदन' और 'सिलहवदन' निजामुद्दीन हुए थे। जामों का समय अनिश्चित है। एक पाण्डुलिपि मे दिया गया है। 'सीमिया' के परन्तु जैनुल आबदीन के प्रारम्भिक राज्यकाल में लिये 'समया', 'सीमीया' तथा लीथो संस्करण में जाम सिकन्दर के होने की अधिक सम्भावना है। हमा' दिया गया है । यही शब्द अन्य स्थान पर (२) हिन्दुबाट: हिन्दूबाड़ा स्थान सोपोर से पाण्डुलिपि में 'इल्फ सीमीया' 'सीमीया' तथा १६ मिल उत्तर स्थित है। इस समय तहसील लीथो संस्करण में 'इल्मसीमीयां' लिखा गया है। का सदर मुकाम है। अस्पताल तथा स्कूल है। पाद-टिप्पणी: श्रीनगर-टिथवाल सड़क पर है । श्रीनगर से ४६ ५३. ( १ ) कंचुक : केचुल = वस्त्र । श्रीवर ने Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता इत्याहुर्ज्ञानिनोऽन्ये वा ये बुध्वा सच्चमूर्जितम् । तेषां प्रामाण्यमकरोत् स राजा च सविस्मयम् ॥ ५४ ॥ ५४ इस प्रकार ज्ञानी अथवा अन्य जो लोग कहे, उस तथ्य को जानकर, राजा ने विस्मयपूर्वक उनका विश्वास किया । ध्रुवं महानुभावत्वं विना जानीयात् कथमित्याह विद्वज्जन ५५. निश्चय ही महानुभावता के बिना गुप्त वृतान्त को राजा कैसे जान सकता' इस प्रकार उदार बुद्धि विद्वजनों ने कहा । १ : १ : ५४-५६ ] इत्युपोद्घातः अथ राजवर्णनम् ज्येष्ठमादमखानं च हाज्यखानं च बहमखानमनुजं गीता का भाव प्रकट किया है : वासांसि नवानि जीर्णानि गृह्णाति शरीराणि तथा न्यन्यानि संयाति व्यवहितं नृपः । राज्य वर्णन : ५६. उस राजा ने ज्येष्ठ आदम खाँ, हाज्य खाँ तथा कनिष्ट बहराम' खाँ नामक पुत्रों को पैदा किया । यथा विहाय नरोपराणि । विहाय जीर्णानवानि देही ॥ ( गीता : २ : २२ ) मध्यमम् । पार्थिवोडजीजनत्सुतान् ॥ ५६ ॥ उदारधीः ॥ ५५ ॥ पाद-टिप्पणी : ५६. ( १ ) आदम खाँ : जैनुल आबदीन का ज्येष्ठ पुत्र था । सुल्तान ने इसे प्रारम्भ में युवराज बनाया, पुनः पद से हटा दिया। इसने कभी राज्य नहीं पाया। हाजी खाँ जब सुल्तान बन गया, तो काश्मीर छोड़ कर भागा। मद्रप्रदेश की ओर युद्ध करता, शत्रुओं द्वारा मारा गया । इसकी लाश हाजी खाँ ने मँगा कर, उसके पिता के समीप दफन करवा दिया। आदम खाँ कभी राज्य नहीं प्राप्त कर सका। उसका पुत्र फतहशाह काश्मीर का बारहवाँ सुल्तान हुआ था । वह काश्मीर के सिंहासन २३ पर तीन बार बैठा और उतारा गया। उसकी भी मृत्यु काश्मीर से बाहर हुई थी । तवकाते अकवरी में उल्लेख है - आदम खाँ सबसे बड़ा था किन्तु वह सर्वदा सुल्तान की दृष्टि में तुच्छ दृष्टिगत होता था ( पृ० ४४१ ) । फिरिस्ता लिखता है - ज्येष्ठ पुत्र आदम खाँ को सर्वदा जैनुल आबदीन नापसन्द करता था । (२) हाजी खाँ : हैदरशाह के नाम से काश्मीर का नव सुल्तान था सन् १४७० ई० से १४७२ ई० तक काश्मीर का शासन किया था। फिरिस्ता लिखता है कि द्वितीय पुत्र हाजी खाँ को वह पसन्द करता था ( ४७१ ) । (३) बहराम खाँ : सुल्तान जैनुल आबदीन का तृतीय पुत्र था। जैनुल आबदीन उसे अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। उसने अपनी मूर्खता से पिता की आज्ञा ठुकरा दिया। हाजी खाँ की मृत्यु के पश्चात्, उसने राज्यसिंहासन प्राप्त करने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A २४ जैन राजतरंगिणी ज्येष्ठो लावण्यसौभाग्यसुभगैः जनकं रञ्जयामास चन्द्रमा इव ५७. लावण्य सौभाग्य से सुभग तथा प्राकृत गुणों से प्रसन्न किया, जिस प्रकार चन्द्रमा वारिध को । प्रत्यहं हाज्यखानः स कर्पूर इव बाललीलायितैस्तैस्तैः स्वमुदात्तमजिज्ञपत् तौ सुतौ सम्मतौ पित्रो स्वधात्रेयतया स्वस्थो प्राकृतैर्गुणैः । वारिधिम् ।। ५७ ।। [ १ : १ : ५७-६० ज्येष्ठ तुत्र ने पिता को उसी प्रकार का प्रयास किया । मन्त्रियों ने उसे राजा बनाना इस शर्त पर स्वीकार किया कि हाजी खाँ के पुत्र हसन खाँ को अपना युवराज बनाये । परन्तु इस बार पुनः उसने सशर्त राजा होना स्वीकार नहीं किया। दो बार उसने राज्य का उत्तराधिकार ठुकरा दिया। हसन खाँ के राज्यकाल में बन्दी बना लिया गया । अन्धा किया गया । बन्दीगृह में ही मर गया । सौरभैः । ५८. वह हाज्य खाँ, तत् तत् प्रतिदिन बाल-क्रीड़ाओं में अपना उदात्त गुण, उसी प्रकार ज्ञापित करता था, जिस प्रकार सुरभि में कर्पूर । तवकाते अकबरी में उल्लेख है : -- बहराम खाँ सबसे छोटा था । और उसे बहुत बड़ी जागीर सुलतान ने दी थी । ( ४४१-६६० ) । फिरिस्ता लिखता है - जैतुल आबदीन ने कनिष्ट पुत्र को बहुत जागीर देकर, उसे उसका शासक बना दिया था ( ४७९) । ।। ५८ ।। ५९. माता-पिता के प्रिय उन दोनों पुत्रों की रक्षा हेतु अपना धात्रीपुत्र होने के कारण स्वस्थ होकर, राजा ने दो ठक्कुरों' को अभिभावक बना दिया । रक्षणायाक्षिपन्नृपः । द्वयष्ठ+कुरपक्षयोः ॥ ५९ ॥ स्वपक्षस्थापनादक्षाः परपक्षेष्टखण्डनाः 1 तार्किका इव तेऽन्योन्यं धात्रेयाष्ठक्कुरा बभुः ॥ ६० ॥ ६०. तार्किक के समान, स्वयश स्थापन में दक्ष तथा दूसरे अभीष्ट पक्ष के खण्डन में सक्षम, वे धात्रेय ठक्कुर' परस्पर खण्डन- मण्डन में रत रहे । कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया में उल्लेख है : 'जैनुल आबदीन ने पहले अपने अनुज मुहम्मद को अपना उत्तराधिकारी ( युवराज ) बनाया। उसके पश्चात उसके पुत्र हैदर खाँ को विश्वासपात्र बनाकर, पिता के स्थान पर नियुक्त किया। परन्तु जब उसे तीन पुत्र हो गये, तो उसे उत्तराधिकार से वंचित कर दिया (३ : २८२) । पाद-टिप्पणी : ५९. ( १ ). ठक्कुर : हस्सन तथा हुस्सन । पाद-टिप्पणी : ६०. ( १ ) ठक्कुर : द्रष्टव्य टिप्पणी : १ : १ ४४ तथा शुकराजतरंगिणी भाष्य पादटिप्पणी श्लोक : Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : १ : ६१-६५ ] श्रीवरकृत सौदर्यस्नेह वृक्षस्य मूलच्छेदनकारिणः । तेऽन्योन्यगोत्रजद्वेषात् तयोरासन् समत्सराः ॥ ६१ ॥ ६१. सहोदरता के स्नेह वृक्ष का मूलोच्छेद करने वाले, वे एक दूसरे के गोत्रोत्पन्नता के दोष से उन दोनों के ऊपर इर्षा भाव बनाये रखे । राजपुत्र स्त्रियस्तस्य गुणातिशयसुन्दराः । तत्कृतान्योन्यवैरेण समं वृद्धि समाययुः ।। ६२ ।। ६२. गुणों से अतिशय सुन्दर उसके वे तीनों राजपुत्र उनके किये गये पारस्परिक वैर के साथ वृद्ध हुए । देहसमो देशोऽयं तस्यात्मसमो महीपालः । तस्मिन् ससुखे सुखितो दुःखिनि तस्मिन् सदुःखोऽसौ ।। ६३ ॥ २५ ६३ यह देह के समान तथा राजा आत्मा के सदृश हैं, उसके सुखी होने पर सुखी तथा उसके दुःखी होने पर, वह दु:खी होता था । राजपुत्रयोर्मन्त्रिदुर्नयात् । अन्योन्यं सरुषो अभूज्ज्येष्ठकनिष्ठत्वं प्रक्रियारहितं तयोः ॥ ६४ ॥ ६४. मन्त्रियों की दुर्नीति के कारण, एक दूसरे के ऊपर क्रोध युक्त, उन दोनों राज पुत्रों प्रकृया रहित ज्येष्ठता एवं कनिष्ठता बनी रही । भूपतिः । आह स्मादमखानं स विदेशगमनत्वम् ।। ६५ ।। श्रुत्वाथ पुत्रयोः वैरमन्योन्यं जातु ६५. किसी समय राजा ने दोनों पुत्रों' विदेश जाने की बात कही । के पारस्परिक बेर को सुनकर, आदमखाँ से शीघ्र पाद-टिप्पणी : ६५. ( १ ) पुत्रो : फिरिस्ता लिखता है - 'जब वे पुत्र युवक हुए, तो तीनों राजपुत्र परस्पर इर्ष्या करने लगे, और उनमें खुले विद्रोह की भावना दिखायी पड़ने लगी । राजा ने उचित समझा कि उन्हें अलग कर दिया जाय । अतएव उसने आदम खां को एक बड़ी सेना देकर, तिब्बत आक्रमण करने के लिये भेजा ( ४७१ ) ।' जै. रा. ४ तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है - ' कुछ समय पश्चात् सुलतान के पुत्र परस्पर विरोधी हो गये और उनमे संघर्ष उत्पन्न हो गया । आदम खा जो उनमें ज्येष्ठ था, एक बड़ी सेना के साथ काश्मीर त्याग कर, छोटे तिब्बत पर आक्रमण करने के लिये प्रस्थान किया ( ४४२ = ६६२-६६३ ) ।' ( २ ) बाह्यदेश : काश्मीर से बाहर के देशों के लिये श्रीवर ने बाह्यदेश की संज्ञा दी है । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:६६-७० युक्तमुक्तं न गृह्णासि कुपुत्र यदि मद्वचः । मानप्राणधनध्वंसी प्रत्यूहस्तेऽन्यथा भवेत् ।। ६६ ॥ ६६. 'हे ! पूत्र !! यदि उचित कही गयी मेरी बात नही ग्रहण करते हो, तो तुम्हारा मान, प्राण, धन का ध्वन्स करने वाला विघ्न सम्भव है ।' श्रुत्वेति पितृसन्देशं स भृत्यानब्रवीद् वरम् । तत् पर्णोत्सपथा यामः सुखं तत्रैव नः सदा ॥ ६७ ॥ ६७. पिता के श्रेष्ठ सन्देश को सुनकर, भृत्यों से कहा-'पर्णोत्स' पथ से हम जायेंगे और वही (हमें) सदैव सुख है।' अथोचुस्ते तव भ्राता दाता जातोऽत्युदारधीः । स्वलक्ष्मी भृत्यसात् कर्तुं स क्षमो न भवान् क्वचित् ॥ ६८ ॥ ६८. उन लोगों ने कहा-'तुम्हारा वह उदार बुद्धि एवं दाता भ्राता अपनी लक्ष्मी को नौकरों को देने में समर्थ हैं, तो क्या आप नहीं है ?' वरं मरणमेवास्तु तदने नोऽद्य सेवया । विक्रमादिगुणीनं न त्वामेवं भजामहे ।। ६९ ॥ ६९. 'सेवा करते हुए, हमलोगों को उसके समक्ष मरना श्रेष्ठ है और इस प्रकार विक्रम आदि गुणों से रहित, तुम्हारी सेवा हमलोग नहीं कर सकेगें।' अग्रजानुजयोः राजपुत्रयोः सुखदुःखयोः । विपर्ययं व्यधाद् वेधाः प्रमातेव विभागिनोः ॥ ७० ॥ ७०. बिभागी अग्रज एवं अनुज राजपुत्रों में प्रमाता' सदृश विधाता ने सुख एवं दुःख का विपर्यय कर दिया। पाद-टिप्पणी : आक्रमण करने के लिये गया ( ४४२-६६० ) । पाठ-बम्बई। पाद-टिप्पणी : ६७. (१) पर्णोत्स : पूछ : सुल्तान ने दूसरे पुत्र ७०. ( १ ) प्रमाता : एक मत है कि प्रमाता हाजी खाँ को संघर्ष बचाने के लिये लोह कोट भेज एक राज्याधिकारी का पद था। उसे न्याय प्रशासदिया ( फिरिस्ता : ४७१ )। कीय अधिकारी कहते थे। दसरा मत है कि गज सेना का यह एक अधिकारी था, उसका शाब्दिक अर्थ तवक्काते अकबरी में भी यहीं लिखा है- राज्य के अन्न भाग का एक माप या तौल करने 'हाजी खाँ सुलतान के आदेश से लोहर कोट पर वाला था। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:१:७१-७६] श्रीवरकृता अथाशक्य नृपः पापं तद्वधात् कतिचिदिनैः । बहिर्निष्कासयामास भुट्टमार्गेण तं सुतम् ॥ ७१ ॥ ७१. राजा ने उसके बध जन्य पाप की आशंका कर, कुछ ही दिनों में भुट्मार्ग' से उस पुत्र को बाहर कर दिया। वज्रबाणप्रकारांश्च शिल्पिनः समदर्शयन् । येभ्योऽश्रावि ध्वनिधीरलोकहृत्कम्पकारकः ॥ ७२ ।। ७२. शिल्पियों ने वज्रवाण' के विविध प्रकार प्रदर्शित किया जिनसे धीर जन के हृदय को कम्पित करने वाली ध्वनि सूनी गयी। तद्यन्त्रमाण्डभेदांश्च तत्तद्धातुमयान्नवान् । . आनीतवान् नरपतिः संहतान् शिल्पिनिर्मितान् ॥ ७३ ॥ ७३. शिल्पियों द्वारा निर्मित तत् तत् धातुमय नवीन यन्त्रभाण्ड' प्रकारों को राजा ले आया। प्रशास्तिः क्रियतां यन्त्रभाण्डेष्विति नृपाज्ञया । मयैव रचितान् श्लोकान् प्रसङ्गात् कथयाम्यहम् ।। ७४ ।। ७४. यन्त्रभाण्डों की प्रशस्ति की, जिसे इस प्रकार की राजाज्ञा से अपने द्वारा ही रचित श्लोकों को प्रसंगवश कहता हूँ। यदनुग्रहेण राज्ञां समयो लीलाविलासमयः । समयश्च यन्त्र तन्त्रैः स्थिरां प्रतिष्ठा क्रियात् स मयः॥ ७५ ॥ ७५. 'जिसके अनुग्रह से राजाओं का लीला विलासमय समय होता है, वह समय और वह शिल्पी यन्त्र तन्त्रों से (राजा की) प्रतिष्ठा स्थिर करें। रसवसुशिखिचन्द्राङ्के शाके नाकेशविथ तो राजा । श्रीजैनोल्लाभदीनः कश्मीरान् पालयन् विजयी ॥ ७६ ॥ ७६. शक' वर्ष १६८६ में इन्द्रवत् विश्रुत राजा जैनुल आबदीन काश्मीर का पालन करते हुयेपाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी : पाठ-बम्बई। ७२. (१) वज्रवाण : गोली-गोला, बन्दूक और तोप की। ७१ (१) भट्टमार्ग : जोजिला पास मार्ग जो पाद-टिप्पणी : श्रीनगर से लोह को जाता है। वहीं भुट्टमार्ग ७३. (१) यन्त्रभाण्ड : तोप । है (पृष्ठ : ४४२)। फिरिस्ता ने भुट्ट देश को पाद-टिप्पणी: तिब्बत लिखा है ( ४७१ )। ७६. (१) शकवर्ष १३८६ = सम्वत् १५२१ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृतां कालेनादमखानेऽथ भुट्टान् जित्वा हाज्यखानोऽकरोधात्रां लोहराद्रौ ८२. समय पर भुट्टो को जीतकर, आदम खाँ के खान लोहराद्रि की यात्रा की । १ : १ : ८२-८४ ] कथं हि च्छुरिकायुग्ममेककम्बुनि स्थाप्यते । इति ज्ञात्वा सुतौ राज्ञाकारितौ निर्गमागमम् ॥ ८३॥ ८३. एक मियान में दो तलवार कैसे रखी जा सकती है ? ऐसा जानकर, राजा ने दोनों पुत्रों का आगम एवं निर्गम कराया । जनकस्यान्तिके आदमखानः स्नानपानलीलोत्सवादिकम् । सत्राणो विदधेऽनुदिनं ततः ॥ ८४ ॥ समागते । नृपाज्ञया ।। ८२ ॥ आनेपर राजा की आज्ञा से हाजी पाद-टिप्पणी | ८२. ( १ ) भुट्ट : लद्दाख, तिब्बत आदि से तात्पर्य है । उत्तर पूर्वीय काश्मीरी सीमा तथा केम्ब्रिज हिस्ट्री के अनुसार बालतिस्तान ही छोटा तिब्बत है ( ३ : २८३ ) । २९ ८४. तत्पश्चात सुरक्षापूर्वक, आदम खाँ' प्रतिदिन स्नान, दान, लीला, उत्सव आदि पिता के पास ही करता था । ( २ ) आदम खान सुलतान ने सन् १४५१ ई० में आदम खां को भुट्ट अर्थात लद्दाख जीतने के लिये भेजा । लद्दाख ब्लो- ग्रोस च्मोग - इदन ( सन् १४४०-१४७० ई० ) के नेतृत्व में स्वतंत्र हो गया था । आदम खां जीत कर लौटा और विजय द्वारा प्राप्त वस्तुये राजा के चरणों में रख दिया ( म्युनिख पाण्डु० : ७४० इण्डियन एण्टरक्वेरी : ३७ : १८९; तवक्काते अकबरी: ४४२ ) । फिरिस्ता लिखता है - आदम खाँ तिब्बत जीतने में सफल हुआ और गौरव के साथ वे ਟ के साथ श्रीनगर लौट आया ( ४७१) । (३) हाजी खाँ तवक्काते अकबरी में उल्लेख है — 'सुलतान ने आदम खाँ के प्रति कृपा दृष्टि दिखाई और हाजी खाँ सुलतान के आदेशानुसार लोहर काट पहुँचा' (४४२ - ६६३) । फिरिस्ता के घटनाक्रम का वर्णन कुछ उलटा हो गया है । वह आदम के बाहर जाने ही के समय हाजी खाँ को भी लोहरकोट भेज देता है । श्रीवर का वर्णन एक प्रत्यक्षदर्शी होने के कारण ठीक मालूम पड़ता है । श्रीवर पर्णोत्स तथा लोहरकोट में अन्तर करता है। कर्नल ब्रिग्स ने लोहकोट नाम दिया है ( ४ : ४७१) । ( ४ ) लोहराद्रि : जोनराज ने लोहराद्रि का उल्लेख सुलतान कुतुबुद्दीन के प्रसंग में किया है ( जोन० : ४६९, ४७४ ) । वह लोहर कोट अथवा लोह कोट है । यदि एकार्क पहाड़ी पर होता था, तो उसमे पर्वत नाम भी लगा देते थे । जैसे चर्णाद्रि, (चुनार) आदि । जोनराज ने भी लोहरकोट के लिए लोहराद्रि नाम का प्रयोग किया है ( जोन० : ४६९, ४७४ ) । हाजी खाँ सन् १४५२ ई० मे लोहर भेजा गया । के माल पादटिपण्णी : ८४. ( १ ) आदमखान : तबकाते अकवरी में उल्लेख मिलता है— 'सुलतान आदम खाँ को हाजी खाँ के दुर्व्यवहार के कारण सर्वदा अपने पास रखता था' (४४२ ) । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनराजतरंगिणी दृष्टा सतीसर भीतः स यद्यपि गतो यावन्न नाशमुपयाति पादटिप्पणी : ८५ (१) सतीसर : काश्मीर मण्डल और सतीसर; नीलमत पुराण सतीसर का वर्णन करता है । काश्मीर उपत्यका पुराकाल में जलपूर्ण थी । उसे उस समय सतीसर कहा जाता था । सतीसर का जल सूख जाने पर, भूमि निकल आयी, वही काश्मीर उपत्यका है । अबुल फजल ने लिखा है कि काश्मीर की समस्त भूमि, उसके शिखरों के अतिरिक्त जलमग्न थी। उसे तीसर कहा जाता था । बर्नियर अपने नवे पत्र में लिखता है स्थितिः सा घनकालदोषात् । किरातघात - स्तावत् कथं तदवमुञ्चति राजहंस ॥ ८५ ॥ ८५. जिसने सतीसर' (काश्मीर) में वह सुख स्थिति देखी, घनकाल दोष से भीत, वह ( हाजी खां ) चला गया | राजहंस किरात के घातों से, जब तक नष्ट नही हो जाता, तब तक उसे ( सरोवर) कहाँ छोड़ता है | 'प्राचीन काल में काश्मीर जल से भरा था । थेसली की भी पूर्वकाल मे यही अवस्था थी । वह भी कभी जल से भरा था । शुककाल तक काश्मीर को सतीसर कहा जाता था । सतीसर शब्द काश्मीर उपत्यका के लिये प्रयुक्त होता रहा है। इसमें वारह मूला से वेरीनाग तक का भूखण्ड सम्मिलित था । अतः काश्मीर राज्य, काश्मीर मण्डल एवं सतीसर के अर्थों में भिन्नता । सतीसर में काश्मीर मण्डल एवं काश्मीर राज्य का समावेश नहीं होता । सतीसर Sharir use किंवा राज्य का एक खण्ड था । जिस समय सतीसर जल पूर्ण था उस समय गहराई ३०० से ४०० फीट तक थी । शारिका शैल तथा अन्य ऊँचे करेवा द्वीप के समान लगते थे। जल स्तर समुद्र की सतह से ५८०० फीट ऊँचा था । मार्तण्ड की ऊँची भूमि जल के अन्दर नही थी । वामजू की गुफा के पत्थरों पर जलस्तरीय पानी का चिह्न आज भी दिखाई देता [ १ : १ : ८५ । है । इसी प्रकार वामन के पवित्र जलस्रोत के ऊपर जल चिह्न दिखाई पड़ते है सुपियान समीपस्थ रामू की सराय के ऊपर करेवा एक किनारा बनाता था । उसकी उँचाई १०० फीट है । उसके क्षैतिज परतों मे विभिन्नता है । सबसे उँचाई २० फुट की जमीन एलूत्रिल है । उसके पश्चात २० फिट की परत गोलेगोले पत्थरों और भुरभुरी मिट्टी का बना है । सबसे नीचे का परत कड़ी नीली मिट्टी का है । यह परत निश्चय ही झील के जल के निश्चल जल की स्थिति के कारण बन गया था । किन्तु मध्यवर्ती मिट्टी की परत उस समय बनी होगी, जब उपत्यका का जल बड़े वेग के साथ तन्त मूल वाली चट्टान के अवरोध हट जाने के कारण निकला होगा । पामपुर तथा समीपवर्ती करेवा पर, यदि कोई व्यक्ति खड़ा हो जाय, तो उसे चारों ओर ऊँचा पर्वत दिखायी देगा। जमीन भूरी और कुछ बलुई है । यहीं केसर की खेती होती है । बनिहाल-श्रीनगर राजपथ करेवा के समीप होकर जाता है । वहाँ करेवा की बनावट स्पष्ट बताती है कि वहाँ तीन प्रकार की मिट्टियों का स्तर है ।' बुर्जहोम में गुफाओ की खुदायी एक टीले पर हुई है। जिस समय मैने बुर्जहोम की यात्रा किया था वहाँ तक जाने के लिये कच्ची सड़क बनी थी । सतीसर की बात मुझे स्मरण थी। वहाँ मैने करेवा अथवा टीले के मिट्टियों के स्तर में भिन्नता पाया । यहाँ की खुदायी से स्पष्ट प्रतीत होता है कि टीला के निचले भाग में कभी जल था। उस जल का चिह्न खुले हुये स्थान पर प्रकट होता है । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:१:८६-८७] श्रीवरकृता अथाष्टाविंशवर्षेऽपि रावत्रलवलादिभिः । इतीरितोऽकरोत् खानः कश्मीरागमननस्पृहाम् ॥ ८६ ॥ ८६. अट्ठाइसवे वर्ष, रावत्र' लवलादि द्वारा इस प्रकार प्रेरित खान काश्मीर आने की अभिलाषा की। स्वामिस्त्वदग्रजीयास्ते कश्मीरसुखभागिनः । क्लिश्यामः परदेशेऽत्र वयमेव गृहोज्झिताः ॥ ८७ ॥ ८७. 'हे ! स्वामी !! तुम्हारे वे अग्रज' काश्मीर सुख के भागी है, और हम लोग ही गृह त्यागकर, यहाँ परदेश में क्लेश भोग रहे है। पाद-टिप्पणी: है कि 'रावुत्र' पदवीधारी व्यक्ति सैनिक तथा उच्च ८६. (१) अट्राईसवें वर्ष : सप्तर्षि वर्ष पदाधिकारी थे। ४५२८ = सन् १४५२ ई० = विक्रमी १५०९ लोकप्रकाश में 'रावत्र' एवं 'राउत्र' शब्द का सम्वत् = शक १३७४ सम्वत् । कलि० गताव्य उल्लेख मिलता है । क्षेमेन्द्र ने लिखा है-'गान्धर्व४५५३ वर्ष। वले रावुत्रामुकेन रावुत्रामुक पुत्रण' (पृष्ठ २३) तथा 'श्री प्रेकाष्ठेले रावत्र अमुकस्य यथा मदीय' ( पृष्ठ (२) रावत्र : रावुत्र शब्द का उल्लेख शुक २४)। इससे स्पष्ट होता है कि रावत्र जाति किंवा ने (१: १ : २२, ६१, १४८) किया है। पदवी वाचक शब्द राजानक एवं डामर के समान वहाँ 'रोवत्र का पाठभेद 'रावत्य' मिलता है। था। धनविदों के लिये इस शब्द का प्रयोग किया 'रावत्र' 'राबुत्र' 'रावत्य' शब्द समानार्थक प्रतीत जाता रहा है तथा धनुष विद्या में श्रेष्ठ जनों को यह होते है । 'रावत्र' नाम वाचक शब्द है । वंश, कुल मलतः पदवी दी जाती रही है, जो कालान्तर मे एक एवं जाति किंवा उपजाति का द्योतक है। श्रीवर ने ग घातक ह। श्रावर न वंश, कुल किंवा जाति अथवा उपजाति वाचक शब्द पुनः उल्लेख (२ : १२) किया है। शुक तथा बन गया। लोकप्रकाश मे रावत्र का पर्याय विद्वान, श्रीवर दोनो ने इसे नामवाचक माना है । कल्हण तथा कवि, महाकवि, प्राइविवाक आदि दिया गया गया जोनराज राजतरंगिणियों मे मुझे रावत्र किंवा राउत्र है ( पष्ठ : ४ श्रीनगर : संस्करण)। लोकप्रकाश शब्द नहीं मिला। 'रावत' एक ब्राह्मण जाति है, विषयानुक्रमणिका क्रम संख्या २१ के 'पण्डितभेद' पृष्ठ जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में निवास करती है । यह ४ से स्पष्ट होता है कि रावत्र किंवा राउन ब्राह्मणों जाति एवं काश्मीर के 'रावत्र' एक ही है अथवा की एक उपजाति थी। रणपुत्र से राणा जिस प्रकार भिन्न यह अनुसन्धान का विषय है। रावत का अर्थ हो गया है, उसी प्रकार रणाउन = रणौत शब्द है। सरदार, सामंत, लघु राजों, शूर, वीर योद्धा तथा काश्मीर में ठाकुर, राजपूत, शाही, प्रतिहार, क्षत्री सेनापति होता है । जमीन्दारों रियासत के राजाओं, आदि कूल बाहर से आकर, आबाद हो गयी थी। इसी सामन्तों तथा जागीरदारों की एक पदवी थी। यह प्रकार, यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि शब्द राजपुत्र के समकक्ष है। राउत्त एवं रौत्र, दोनों भारतीय रावत जाति के कुछ योद्धा काश्मीर में शब्द राउत्र किंवा रावत्र संस्कृत शब्द के अपभ्रंश आकर आबाद हो गये थे। हैं। उनका अर्थ एक है। ___ पाद-टिप्पणी : शक तथा श्रीवर दोनों के वर्णनों से प्रकट होता ८७. (१) अग्रज . ज्येष्ठ भ्राता आदम खाँ । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी 1 राजानकप्रतीहारमार्गेश कुलजादयः अस्मत्प्रतीक्षिणः सर्वे तत्र वीरा बलोद्धताः ॥ ८८. राजानक', प्रतीहार एवं मार्गेश वंशीय आदि वलोद्धत सब प्रतीक्षा में हैं । ३२ पाद-टिप्पणी : ८८. (१) राजानक: परशियन इतिहासकार राजानक का समानवाची शब्द रैना तथा राजदान देते है । इस समय रैना तथा राजानक दोनों जातिवाचक शब्द प्रचलित है । राजाओं द्वारा प्रदत्त एक उपाधि थी । हिन्दू राज्यकाल मे राजवंशियों एवं विशिष्ट राजपुरुषों को दी जाती थी । कल्हण ने इस पदवी का उल्लेख किया है ( रा० : ६ : ११७, २६१; ४ : ४८९ ) । मुसलिम राज्यकाल मे पुरानी प्रथा चलती रही । मूलतः यह सम्राटों की पदवी थी, जो कालान्तर में करद तथा छोटे राजाओं को दी जाने लगी थी । राजानक, राजनिका, राजनायक एवं राजान एक ही मूल शब्द के भिन्न-भिन्न रूप है। काश्मीर के राजदान ब्राह्मण किसी समय राजानक उपाधिधारी थे । जोनराज को राजानक की पदवी प्राप्त थी। इसी प्रकार राजान शृंगार तथा राजानक जयानक को यह उपाधि प्राप्त थी । श्रीवर के समय राजानक एवं राजान शब्द का प्रचुर प्रयोग मिलता है ( श्रीवर० : ११ : ८८; ३ : ४८२-४; २९५, ३५३, ४२४, ५८२ ) । शुक ने ( १ : १६ : २०, ३६, ३७, २०, ६४, ६७, ७०, ७६, ९१, १०३, १२७, १२८, १४१, १४६, १७१, १७५ ) | हिमाचल आदि पर्वतीय देशों में राजानक प्रथलित उपाधि थी । राजाओं को भी राजानक कहा गया है । ताम्रपत्रों एवं मुद्राओं पर राजानक उपाधि टंकणित मिलती है । चम्बा राज्य के अभिलेखों तथा ठक्कुरों के साथ राजानक पदवी का उल्लेख मिलता है । रणपुत्र से राणा शब्द उसी प्रकार निकला है जिस प्रकार राजपुत्र से राजपूत । राजानक का सबसे [ १ : १ : ८८ ८८ ॥ वीर वहाँ पर हमलोगों प्राचीन प्रयोग हिमगिरी परगना चम्बा मे मिलता है । खान्दानी जमीन्दारों को राजानक पदवी दी जाती थी । सुदूर प्राचीन काल में पर्वतीय भूमि स्वामियों, जो यूरोप के बैरनों के समान थे, दी जाती थी । कीरग्राम के लक्ष्मणचन्द्र के साथ यह पदवी मिलती है । कालान्तर में काश्मीर और चम्बा में यह पदवी दी जाने लगी । काश्मीर में राजान्यक किंवा राजानक कालान्तर में एक वंश एवं काश्मीरी ब्राह्मणों की उपजाति माना जाने लगा है । आनन्द राजानक के वंश प्रशस्ति ( सत्तरहवीं शताब्दी ) का, जिसे नैषधचरित भाष्य में लिखा है, उसमे राजानक शब्द का प्रयोग किया गया है । यह पदवी त्रिगर्त अथवा कागडा में भी प्रचलित थी । राजान्यक एवं राजक शब्दों के अर्थ में अन्तर है । संस्कृत साहित्य मे राजक लघु राजाओं किंवा उनके समूह के लिये एवं राजान्यक क्षत्रिय योद्धाओं के लिए प्रयुक्त किया गया है । अशोक के शिलालेखों में उच्च पदाधिकारियो के लिये राजुक शब्द का प्रयोग किया गया है । राजानक शब्द नारायण पाल के भागलपुर फलक ( आई० ए० : भय० : १५: पृ० : ३०४, ३०६ ); मध्यम राजदेव सीलोद्भववंश के परिकड फलक ( ई० आई० : ११ : २८१, २८६ ) में उल्लेल किया गया है । राजन्य शब्द लक्ष्मणसेन के अनुदान में उल्लिखित है । ( ई० आई०. १२ : ६, ९ ) । पाणिनी ( ईशा पूर्व ६०० - ३०० वर्ष ) ने राजन्य शब्द का व्यवहार जिस अर्थ में किया है, वही अर्थ अमरकोशकार ( चौथी शती ) तथा कालान्तर मे कल्हण ने (बारहवी शती) किया है । सन् १९४३ ई० में चम्बा अभिलेखों में राजानक की पदवी ललितवर्मा ने दी थी, उल्लेख मिलता है। कुछ स्थानों पर राजनक को राजान से Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८८ ] निम्न स्तर का माना गया है। वे लोग जागीरदार तथा अभिजात कुल के थे । रियासतों के शासकों के रूप में सुलतान तथा राजा लोग यह, उपाधि देते थे । श्रीवरकृता ने , (२) प्रतीहार श्रीवर ने पुनः प्रतीहार का उल्लेख ( १ १ : १५१, १:७:२०२, ३: ४६३, ४ : १६७, २६२ तथा शुक ने १ १ : १८, ३०, ४६, १९८ तथा २०६ ) में किया है । प्रतीहार का शाब्दिक अर्थ द्वारपाल होता है । कल्हण प्रतिहार शब्द का द्वारपाल तथा रक्षक के रूप में प्रयोग ( रा० : ४ : १४२, २२३, ४८५ ) किया है । कालान्तर मे यह वंश, पदवी तथा एक शासकीय पद हो गया । प्राचीन काल मे राजाओं के समीप प्रतीहार नामक एक विशिष्ठ कर्मचारी रहता था। वह राजा को समाचार सुनाया करता था । पति विज्ञ, अनुभवी तथा कुलीन इस पद पर रहने लगे। मुसलिम काल मे उन्हें नकीन तथा चोवदार कहते थे । प्रतिहार तथा प्रतीहार एक ही शब्द है । उच्चारण भेद से वर्तनी में भेद हो गया है । प्राचीन काल मे हिन्दू राजाओं के समय महाप्रतिहार, राजभवन का रक्षक अधिकारी, नगर के द्वाररक्षकों का मुखिया, राजा के शयनकक्ष का रक्षक था । एक मत है कि महाप्रतिहार राजा का व्यक्तिगत सेवक होता था । 'प्रतिहार प्रस्थ' एक कर होता था, जिसे ग्रामीण एक प्रस्थ के हिसाब से प्रतीहार को देता था। प्रतिहार स्त्रियां रक्षक राजप्रासादो में होती थी । वे अन्तःपुर के द्वार की रक्षक तथा रानी की सेविका होती थी। भारत में प्रतिहार किंवा प्रतीहार परिहार नाम से ख्यात है । राजपूतों के तीस गोत्रों में से एक है । प्राचीन मान्यता के अनुसार शास्त्रों का उद्भट विद्वान् हरिश्चन्द्र एक ब्राह्मण था । उसको दो पत्नियाँ थी। ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न प्रतीहारवंशीय ब्राह्मण तथा क्षत्रीय पत्नी से उत्पन्न पुत्र राजवंश के संस्थापक हुये । क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न चार सन्ताने थी । उनसे राज्यों का चार राजवंश स्थापित हुआ। जै. रा. ५ ३३ प्रतीहार वंश को एक शाला मानव अर्थात मालवा में आठवी शताब्दी तक शासन करती रही । एक मत है कि मालव प्रतिहार वंश ब्राह्मण प्रतिहार वश की शाखा था । कालान्तर में क्षत्रियों से विवा हादि करने के कारण क्षत्रिय हो गये थे । इस वंश का प्रसिद्ध सम्राट नागभट हुआ है। उसने अरव आक्रमको से मालवा की रक्षा किया था। आठवी शताब्दी के उत्तरार्ध में इस वंश के वत्सराज ने राजस्थान के गुर्जरराज पर विजय कर लिया। उसने वगाल के पालवंश पर भी विजय प्राप्त किया था । उसने गंगा-यमुना मध्यवर्ती ब्रह्मावर्त धर्मपाल से जीत लिया था। विजय करता गौड़ मे होता गंगासागर तक पहुँच गया था । वत्सराज का उत्तराधिकारी नागभट द्वितीय था । राष्ट्रकूटवंशीय राजा तृतीय ने मालवा पर अधि कार कर लिया था । पराजय के पश्चात् नागभट ने उससे कन्नौज जीतकर उसे अपनी राजधानी बनाया। इस समय से उत्तर भारत में कन्नौज प्रतिहारों का केन्द्र हो गया । , नागभट द्वितीय का पौत्र भोज प्रतिहार इस वंश का सबसे प्रतिभाशाली राजा हुआ है। उसके समय प्रतिहार राज्य गुजरात से पंजाब तक विस्तृत वा । उसका राज्य काश्मीर की दक्षिण सीमा के निकट तक था । दशवी शताब्दी के प्रथम दशक मे महेन्द्रपाल के समय उत्तर बंगाल तक विस्तृत था । उसका पुन भहिपाल इस वंश का अन्तिम प्रसिद्ध राजा हुआ है। उसका राजकवि शेखर था। महमूद गजनी ने कन्नौज पर आक्रमण किया । कन्नौज अपनी गरिमा कायम नही रख सका । त्रिलोचनपाल इस वंश का अन्तिम राजा था । मुहम्मद गोरी का कन्नौज पर आधिपत्य स्थापित होने पर प्रतिहार बिखर गये महाराष्ट्री जिस प्रकार पूना तथा रत्नागिर से अल्मोडा आदि पर्वतीय क्षेत्र मे फैल गये, उसी प्रकार प्रतीहार लोग भी अपनी धर्म एवं प्राणरक्षा के लिये, काश्मीरादि Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी retreatग्राही भूभुजो निश्चितो भवान् । तावतैव स किं क्रुद्धो हन्त्यस्मान् करुणापरः ॥ ८९ ॥ ८९. 'आप राजा का बचन नहीं ग्रहण करें, तो इतने ही से वह दयालु क्रुद्ध होकर, हम - लोगों को मार देगा । ३४ युद्धायादमखानश्च निर्यातः स्वबलान्वितः । त्वत्तः स नश्यति क्षिप्रं श्येनाग्रादिव पोतकः ॥ ९० ॥ ९०. 'अपने बल से अन्वित होकर, युद्ध के लिये निकला, वह आदम खाँ, उसी प्रकार शीघ्र नष्ट हो जायगा, जैसे बाज से पक्षि- शावक । पर्वतीय क्षेत्रों में शरण लिये थे । काश्मीर के प्रतीहार भारतीय प्रतिहारों के वंशज है। काश्मीर के मुसलमान हो जानेपर वे भी मुसलिम धर्म ग्रहण कर लिये । अपना कुलगत नाम नही त्याग सके । परशियन इतिहासकारों ने प्रतिहारों को 'पडर' लिखा है। [ १ : १ : ८९-९० काश्मीर में प्रतिहारों का भी वर्गीकरण था । प्रतीहार, भोप्रतीहार, ला प्रतीहार आदि का उल्लेख लोकप्रकाश में मिलता है ( पृष्ठ २ ) । विषयानुक्रमणिका क्रम संख्या ६ में 'डामरपति नामानि' में प्रतीहार को रखा गया है। इससे एक अनुमान और लगाया जा सकता है कि प्रतीहार कर्म करने के कारण, उनके वंश के लिये नाम रूढ हो गया था । कर्मों के अनुसार प्रतीहारों का वर्गीकरण हो गया था । डामरों के समान प्रतीहार वर्ग ग्रामीण तथा कृषोपजीवी कुलीन लोग थे । कल्हण के समय प्रतिहार का कार्य द्वारपाल, राजभवन रक्षक आदि था । प्रतिहार का स्थान महत्वपूर्ण था । राजा ललितादित्य की रानी कमलादेवी महाप्रतिहार पीड थी । राज्यभवन किवा अन्तःपुर की मुख्य प्रबन्धक थी । प्रतिहार कुलागत सेवा स्थान भी होता था, जिसके कारण वंश का नाम प्रतिहार पड़ गया था । प्रतिहार उपाधिरूप में प्रयुक्त होने लगा था ( रा० : ४ : ४८५ ) । कल्हण के वर्णन से यह भी प्रकट होता है कि ललितादित्य ने और कर्मस्थानों की स्थापना की थी । उसके पूर्व पाँच अट्ठारह कर्मस्थान थे । उसने २३ कर्मस्थान बनाये थे । उनमें एक महाप्रतिहार पीड था । उसका कार्य गृह विभाग देखना था । उसका पद महासन्धि विग्रहिक ( विदेश मंत्री ) महाभाण्डार आदि के समान उत्तरदायित्वपूर्ण पद आजकल के गृहमन्त्री के समान था ( रा० : ४ : १४३ ) । एक समय प्रतीहार इतने शक्तिशाली हो गये थे कि राजा को सिंहासन पर बैठा और उतार सकते थे ( रा० : ५ : १२८, ३५५ ) । हर्षचरित में महाप्रतिहार पद का उल्लेख मिलता है । राजा हर्ष का महाप्रतिहार पारिपात्र था । द्रष्टव्य : पाद-टिप्पणी : शुक १ : १ : ८८ । (३) मार्गेश : काश्मीर के आने वाले मार्गों अर्थात् सीमावर्ती दरों के प्रवेश मार्गो की रक्षा का भार, जिस सैनिक अधिकारी पर होता था, उसे मार्गपति कहते थे । यह पदवी उत्तरदायित्वपूर्ण माना जाता था । प्रत्येक दरों पर द्रंग अर्थात् सैनिक चौकियाँ बनी रहती थी । मुगल काल में दंगों की रक्षा का भार मलिकों को दिया गया था । सुपियान के समीप उन्हे जागीर भी दी गयी थी । उन्हे संस्कृत मे दंगेश कहा जाता था । काश्मीर के बाहर भी यह शब्द प्रचलित था । सीमान्त तथा दरों का रक्षक मार्गपति माना जाता नालन्दा अभिलेख ( सन् ५३० ई० ) में इसका उल्लेख मिलता है ( आर्ह० : २० : २७,४१ ) । था । यशोवर्मदेव के Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : १ : ९१ - ९४] अमी राजपुरीयाद्याः सर्वेऽस्मच्छुभकाङ्क्षिणः । तत् तेनैवाधुना यामो न किं सिध्यति साहसात् ।। ९१ ॥ ९१. 'राजपुरी आदि सब हम लोगों के शुभाकांक्षी हैं अतएव हमलोग अभी जायेंगे । साहस से क्या सिद्ध नही होता ? श्रीवरकृता मृते रिगप्रतीहारे वीराः के सन्ति तत्पुरे । इति त्वत्पैतृकपदं हर्तुं गन्तुं तवोचितम् ।। ९२ ॥ ९२. 'रिग' प्रतीहार के मरने पर, उसके नगर में कौन बीर है ? अतः अपना पैतृक पद प्राप्त करने के हेतु तुम्हारा जाना उचित है । शिष्यास्तेऽमी वयं भृत्या वीरास्त्वत्पैतृकैः सह । योत्स्यामः कीदृशं शौर्यमेकदा द्रष्टुमर्हसि ॥ ९३ ॥ ९३. 'हम लोग तुम्हारे बीर शिष्य एव भृत्य तुम्हारे पैतृक जनों के साथ युद्ध करेंगे। एक बार आप पराक्रम देखे ।' तथेत्युक्त्वाथ खानेन पृष्टौ तन्मन्त्रिणौ मतम् । ३५ स फिर्यडामरस्ताजतन्त्रेशश्चेत्यवोचताम् ।। ९४ ।। ९४. 'ऐसा ही हो' - यह कहकर, खाँन द्वारा मत पूछने पर, फिर्यं डामर तथा ताज तन्त्रेश ने इस प्रकार कहा पाद-टिप्पणी : ९१ १) राजपुरी: राजौरी । पाद-टिप्पणी : ९२. ( १ ) रिग : श्रीदत्त ने 'रिंग' के स्थान पर 'अगिर' नाम दिया है ( २ : १०६ ) । पाद-टिप्पणी : ९३. (१) पाठ - बम्बई । पाद-टिप्पणी : श्रीदत्त ने 'सफिर्य डामर' अनुवाद 'फिर्य डामर' के स्थान पर किया है ( पृष्ठ १०७ ) । ९४ ( १ ) डामर : परशियन इतिहासकारों ने इन्हें ग्रे नाम से सम्बोधित किया है । क्षेमेन्द्र कल्हण, जोनराज, श्रीवर, शुक ने डामरों का उल्लेख किया है । राजतरंगिणियों के अतिरिक्त क्षेमेन्द्र की समयमातृका तथा लोकप्रकाश में डामरों का उल्लेख किया गया है । कल्हण से एक शताब्दी पूर्व क्षेमेन्द्र ने काली को डामर समरसिंह के घर ठहरा कर, यह दिखाने का प्रयास किया है कि डामरो का मकान अच्छा एवं सुख प्रसाधनों ने पूर्ण रहता था । सेण्ट पीटर्सवर्ग के कोश में डामर को विद्रीही तथा लड़ाकू लिखा गया है। प्रोफेसर एच० कर्न ने डामर का अर्थ 'वोजर' अर्थात् वैरन अथवा जमीन्दार लगाया है । अल्बेरुनी ने ईशान दिशा में स्थित देशों के साथ डामरों का उल्लेख किया है । दर्व के पश्चात् ही वह डामर शब्द का प्रयोग कर दिखाना चाहता है कि काश्मीर के सीमावर्ती दव के पड़ोस में ही डामर निवास करते थे ( १ : ३०३ ) । देश के रूप में अल्बेरूनी ने डामरों का उल्लेख किया है किन्तु काश्मीर के डामरों की कुछ और परिस्थिति थी । काश्मीर में डामर भूस्वामी थे । कुलीन थे । भूमि पर निर्वाह करने वाला वर्ग था सामन्त वर्ग था । । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१ . ९४ उनका विवाह सम्बन्ध राजवंशों में होता था। कल्हण तथा अन्त मे तन्त्री पद प्राप्त करता था। सर्वएवं जनराज के समय कोई भी व्यक्ति डामर हो तन्त्राधिकारी सभी विभागों का निरीक्षक होता था। सकता था। केवल उसे सफल कृषक अपने को तन्त्र अधिकारी को तन्त्र अध्यक्ष भी कहते थे। प्रमाणित करना पडता था । कल्हण ने उन्हे अशिष्ट तन्त्रपाल तन्त्राधिकारी का वही स्थान था जो आचरण युक्त एवं खर्चीला चित्रित किया है। तन्त्राधिकारी था। तन्त्र कर्म राजकीय विभाग था। तन्त्रनायक का सम्वन्ध सेना अथवा शासन डामर नगरों के बाहर निवास करते थे । शस्त्र से था। तन्त्रपाल मुख्य सेनाधिकारी होता था। धारण करते थे। समरागण में वीरगति प्राप्त इसी प्रकार महातन्त्राध्यक्ष, सर्वतन्त्राधिकृत, तन्त्रकरने पर उनकी स्त्रियाँ सती होती थी। हिन्दू राज्य पति, तथा महातन्त्राधिकारी शब्दों का भी प्रयोग के पतन के कारण, अनियन्त्रित एवं उच्छृङ्खल डामर मिलता है। कही-कही महासम्मत, महादण्डनायक थे। मुसलिम काल में उनका पूर्णरूपेण दमन कर भी कहा जाता था। एक मन्त्रणदायक, रूप में भी दिया गया था। वे मुसलिम धर्म स्वीकार कर लिये उसका उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। उसे तन्त्रथे। उनकी शक्ति का विकास क्रमिक हुआ है। पालाधिस्थापक तथा तन्त्रपालधिष्ठापक भी स्थानराजा अवन्तिवर्मा के समय वे संघटित एक शक्ति स्थान पर कहा गया है। तन्त्रपति अथवा तन्त्रीश के रूप मे मिलते है। राजा चक्रवर्मा राज्य सिहासन शब्द धर्म अधिकारी भी राजतरंगिणी में माना गया से च्युत कर दिया गया, तो वह संग्राम डामर के गया है ( रा० : ८ : २३२२)। वृहद्तन्त्रपति यहाँ शरण लिया था। डामरों के कारण चक्रवर्मा ने मुसलिमकालीन अधिकारी 'सदरुसदर' तुल्य था। पुनः राज्य प्राप्त किया था । राजा उन्मत्तवन्ती तथा बह सुल्तान के मुख्य न्यायपति, राजकीय दान विभाग रानी दिद्दा के समय प्रभावशाली हो गये थे। काश्मीर का अधिकारी माना गया है। तन्त्रावय का अर्थ मे लोहर वंश के राज्य पर, प्रतिष्ठित होनेपर, डामरों जुलाहा या बुनकर तथा तुन्नवाय का अर्थ दर्जी था। की शक्ति पूर्णरूपेण विकसित हो गयी थी रजा तन्त्रियों का अत्यधिक उल्लेख राजतरंगिणी मे संग्रामराज से उत्कर्प के समय मध्य उनकी स्थिति किया गया है (रा० : ५ : २४८-२५०, २५५, अर्ध स्वतन्त्र राज्यों के समान हो गयी थी। वे अवध २६०, २६५, २६६, २७४, २७५, २८७, २८९, के ताल्लुकेदार अथवा राजस्थान के जागीरदार के २९३, २९४, २९५, ३०२, ३२८, ३३१, ३३८समान थे । डामर दुर्ग तथा कोटों के स्वामी थे । एक ३४०, ४२१, ४३१; ६ : १३२; ७ : १५१३; ८ : दूसरे का दुर्ग तथा कोट लेने के लिये परस्पर संघर्ष २९२, ३०३, ३७५, ५१०, ५९७, ९२८ ) । श्रीवर करते थे। उन्हे कल्हण लवण्य भी मानता है । लवन्य ने तन्त्राधिकार का उल्लेख (१ : ३ : ४१ ) में वर्तमान मुसलिम क्रम 'लुन' है। वे आगे चलकर किया है। राजाओं के बनाने-बिगाडने वाले हो गये थे। तन्त्री का सर्वप्रथम प्रयोग कल्हण ने रानी डामर : द्रष्टव्य रा० : ४ : ३४८ : लेखक । सुगन्धा ( सन् ९०४-९०६ ई० ) के सन्दर्भ में किया (२) तन्त्री : सैनिक, सेना, शासन आदि है। तन्त्रि पदादिकों का इसी समय कुल समूहबद्ध अर्थ में दक्षिण भारतीय आम लेखों मे तन्त्र शब्द हुआ अर्थात् उन्होंने अपना एक संघ बना लिया था । का प्रयोग किया गया है। सेना मे मुख्यतया पदादित इस समय से तन्त्रियों की शक्ति बढ़ने लगी थी सेना को तन्त्री कहा गया है। तन्त्र अधिकारी का (रा: ५ : २४८ )। तन्त्रियों की शक्ति राजा अर्थ शासनाधिकारी, राज्यपाल के भातरिया अभि- पार्थ के उत्तराधिकारी तथा शंकरवर्धन के चक्रवर्मा लेख में मिलता है। उसके अनुसार मन्त्री, सचिव के द्वारा ( द्रष्टव्य टिप्पणी : रा० . ५ : २४८ खण्ड Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:१ . ९५-९९] श्रीवरकृता देव त्वत्सेवकाः सर्वे स्वगृहोत्कण्ठिताशयाः । देशकालावनालोच्य कथयन्त्यसुखप्रदम् ।। ९५॥ ९५. 'हे ! देव !! तुम्हारे सेवकों का मन घर के प्रति उत्कण्ठित है। अतः देश-काल की चिन्ता न कर, असुखप्रद बात कर रहे हैं। कथमभ्यन्तरं यामः सति राज्ञि बलोजिते । प्रदीप्तं व्योम्नि मार्तण्डं कुण्डेन पिदधाति कः ।। ९६ ॥ ९६. 'बलोजित राजा के रहते, कैसे अन्तर प्रवेश करेगे? आकाश में प्रदीप्त मार्तण्ड को कुण्ड से कौन आच्छादित करता है। यावज्जीवति भूपालस्तावत् को बाधितुं क्षमः । मनोऽनुवर्तनं कर्तुं तयुक्तं तव साम्प्रतम् ॥ ९७ ।। ९७. 'जब तक राजा जीवित है, तब तक कौन बाधित कर सकता है? अतः इस समय उसके मन का अनुवर्तन करना उचित है। प्रसन्ने जनकेऽस्माकं भवेयुः का न सम्पदः । ईश्वरे च गुरौ भक्तिर्जायते पुण्यकर्मणाम् ।। ९८ ॥ ९८. 'पिता के प्रसन्न होने पर, हमलोगों के लिये कौन-सी सम्पत्तियाँ प्राप्त नहीं हो सकती? ईश्वर एवं पिता में भक्ति पूण्यशालियों की ही होती है। अस्य कोपेन यत् साध्यं परानुग्रहतो न तत् । दुर्दिने या रवेर्दीप्तिः प्रदीपाज्ज्वलतो न सा ॥ ९९ ॥ ९९. 'इसके कोप से जो साध्य है, वह दूसरे के अनुग्रह से नहीं (होगी) ? दुर्दिन में सूर्य की जो दीप्ति होती है, वह दीप्ति जलते दीपक से (सम्भव) नहीं। २ लेखक ) पराजित होने के पश्चात् (सन् ९०६- तान्त्र जाति की विशेषताये क्या थी, अब पता नही ९३० ई० ) बहुत बढ गयी थी ( रा० ५ : २४९- चलता। वे अपने मूल स्वरूप एवं परम्परा को भूल ३४०)। गये है । लारेन्स ने उनके विषय में लिखा हैप्राचीन रोमन साम्राज्य के प्रेट्रोरियन गार्ड के 'वैवाहिक सम्बन्ध में उनमें किसी प्रकार का प्रतिसमान उनकी स्थिति हो गयी थी। अश्वारोहियों बन्ध नहीं है। तान्त्र वर्ग का कोई मुसलमान से वे भिन्न थे ( रा० : ७ : १५१३, ८ : ३७५, तान्त्र काम अथवा ग्राम के किसी मुसलिम कन्या से ९३२, ९३७)। तन्त्री राजा के अंगरक्षक रूप से विवाह कर सकता है। केवल एक ही प्रतिबन्ध है। भी कार्य करते थे ( रा० . ८:३०३ )। तन्त्रियों उन्हे ग्रामीण कृषक होना चाहिये' (वैली : का नाम 'काम' में आता है। वे तान्त्र कहे जाते ३०६ )। है। तान्त्र काश्मीर मे मुसलिम कृषकों में अधिक पाये जाते है । वे पूर्वकालीन तन्त्रिवंशीय है। उनमें पाद-टिप्पणी: अनेक भेदभाव थे। उनका अब लोप हो गया है। ९९. पाठ-बम्बई Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:१००-१०३ खलोक्तिश्वासमालिन्यं सततं नयसेविनः । हृदयादर्शवैषद्योत्स्रंसकं नाश्य दृश्यते ॥ १०० ॥ १००. 'निरन्तर नीतिसेवी, इस राजा के हृदय दर्पण की स्वच्छता को खलोक्ति स्वास' मलिन नहीं कर सका। निर्वाणगोष्ठीनिष्ठस्य तद्वच्छास्त्रविवेकिनः । कृपाब्धेरस्य नो किञ्चित् कृत्यमस्त्यसुखप्रदम् ॥ १०१ ॥ १०१. 'निर्वाणगोष्ठी-निष्ट' और उसी प्रकार शास्त्र विवेकी एवं कृपासागर इसका कोई कार्य कष्टप्रद नहीं था। तदुग्धपितृपक्षोऽपि स्वामिभक्ति न सोऽत्यजत् । तेनैवान्त्यक्षणः श्लाघ्यस्तस्याभूज्जैनभूपवत् ।। १०२ ॥ १०२. 'पितृद्रोही पक्ष के प्रति भी उसने स्वामिभक्ति नहीं त्यागी। इसी कारण जैन भूपति की तरह उसका अन्तिम क्षण प्रशंसनीय हुआ। सौहार्दमार्दवोपेता योग्या कार्यविचक्षणा । जाने तेनैव पुण्येन सन्ततिस्तस्य राजते ॥ १०३ ॥ १०३. 'मानो इसी कारण उसकी सोहार्द मार्दव से प्राप्त योग्य, कार्य में चतुर सन्तति शोभित हो रही है। पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी: १००. (१) स्वास : यदि शीशा या दर्पण के १०२. (१) श्लोक संख्या १०२ तथा १०३ समीप स्वास लिया जाय, तो दर्पण पर बाष्प जमकर, प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। परन्तु कलकत्ता एवं बम्बई उसे किंचित काल के लिए मलिन बना देता है। किन्तु दोनों संस्करणों में है । अतएव उन्हे यहाँ स्थान दिया यह मलिनता स्वास प्रक्रिया के दर्पण से हटते ही, गया है। श्रीकण्ठ कौल का मत ठीक है। कलकत्ता समाप्त हो जाती है। संस्करण के प्रथम सर्ग में १७७ तथा बम्बई संस्करण पाद-टिप्पणी : में १७६ श्लोक है। होशियारपुर संस्करण में केवल १०१. (१) निर्वाणगोष्टी-निष्ठ : जैनुल १७४ श्लोक है। उक्त दो १०२ तथा १०३ श्लोक अधिक है। उन्हे बम्बई संस्करण के श्लोक संख्या आबदीन दार्शनिक था। वह संस्कृत भाषा तथा १७६ मे से घटा दिया जाय तो वह श्रीकण्ठ कौल के फारसी जानता था। अकबर के समान वह विद्वानों संस्करण के अनुसार १७४ श्लोक हो जाता है। से दार्शनिक तत्त्वों एवं धर्म के गूढ़ भावों को समझने कलकत्ता संस्करण में उक्त दोनों श्लोकों के अतिरिक्त का प्रयास करता था। इस प्रकार की आध्यात्मिक १७७ वा श्लोक अधिक है। कलकत्ता संस्करण में श्रीकण्ठ कौल की अपेक्षा श्लोक १०२, १०३ तथा चर्चा किंवा गोष्ठी की संज्ञा श्रीवर ने निर्वाणगोष्ठी १७७ अधिक है। यदि वह तीनों श्लोक कलकत्ता से दिया है। इसका उल्लेख पुनः श्रीवर ने नही संस्करण से घटा दिये जायँ, तो उनकी संख्या किया है। श्रीकण्ठ कौल संस्करण से मिल जाती है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:१.१०४-१०७] श्रीवरकृता स पिता त्वं सुतस्तस्य वयं सर्वे स्वसेवकाः । गत्वा चेत् कुमेहे युद्धं जयोऽस्माकं भवेत् कथम् ।। १०४ ॥ १०४. 'वह पिता, तुम पुत्र, हमसे अपने सेवक जानकर यदि युद्ध करें, तो हमलोगों का जय कैसे हो सकता है ? हताश्चेत् केपि तभृत्याः बहुभृत्यस्य का क्षतिः । एकपक्षक्षये किं स्याद् गरुडस्य जवाल्पता ॥ १०५ ॥ १०५. 'यदि उसके कुछ भृत्य हत हो गये, तो बहुभृत्य वाले उसकी क्या क्षति ? एक पक्ष के नष्ट होने से क्या गरुड़ के वेग में अल्पता होगी? । न शिवाः शकुनाः सन्ति देशाः पर्वतदुर्गमाः। तत्रापि जनकस्तेऽस्मान्न कालो विग्रहस्य नः ॥ १०६ ॥ १०६. 'कल्याण मंगलकारी शकुन' नही है । देश, पर्वत दुर्गम है। वहाँ तुम्हारे पिता हैं । इसलिये हमलोगों के युद्ध का समय नहीं है। भजत्वभ्यन्तरं राजा वयं बाह्यं भजामहे । तत्प्रसादादिहैवास्तां राज्यं छत्रं विना न किम् ।। १०७ ॥ १०७. 'राजा अन्दर (देश में) रहे। हमलोग बाहर तथापि उसकी कृपा से, यहीं पर बिना छत्र का राज्य नहीं है क्या ? पाद-टिप्पणी: परन्तु मस्तक, पंख, चंचु तथा पाद गृद्ध तुल्य है। १०५. (१) गरुड़ : विष्णु का वाहन पक्षी मुख-श्वेत, पंख-लाल तथा शरीर का वर्ण सुवर्ण है। है। एक मत है कि श्येन गरुड़ का वेदकालीन नाम है, बद्रीनाथ यात्रा मार्ग मे एक गरुड़गंगा मिलती है । अनन्तर संस्कृत साहित्य मे श्येन का अर्थ वाज दिया स्कन्दपुराण के अनुसार गरुड़ ने यहाँ तपस्या किया गया है। गरुड़ स्वर्ग से अमृत लाया था। कश्यप था । यहाँ पर निर्मल जलमय एक कुण्ड है । मान्यता एवं वनिता का पुत्र तथा अरुण का कनिष्ठ बन्धु था। है कि कुण्ड में स्नान करने पर सर्प भय नही रहता। गरुड़ अण्ड से बाहर निकलते ही वेग से आगे गरुडपुराण में लगभग १९००० श्लोक है । किसी की बढ़ा और उड़ गया । अमृत प्राप्ति के लिये गरुड़ आ मृत्यु होने पर अशौच काल में ही गरुडपुराण सुनने रहा है, जान कर इन्द्र ने गरुड़ पर प्रहार किया, का महत्त्व है। इसमें यमपुर, स्वर्ग आदि का उसका केवल एक पक्ष क्षत हुआ। विस्तृत वर्णन है। गरुड़ की उपासना करने वाला मत्स्यपुराण के अनुसार विश्ववेशा के पुत्र है प्राचीन काल में एक सम्प्रदाय भी था। (१७१ : २०)। निवास स्थान शाल्मलि पाद-टिप्पणी : द्वीप है ( भाग० : ५ : २० : ८)। क्षीरोद का १०६. (१) शकुन : मुसलमान हो जाने पर रक्षक है। भागवत के अनुसार दक्षप्रजापति को भी काश्मीरी जनता पूर्व हिन्दू संस्कारों को पूर्णतया पुत्री सुपर्णा विनता के गर्भ से उत्पन्न कश्यप का त्याग नहीं सकी थी। शकुन, मंगल एवं अमंगल पुत्र है ( भाग०.६ : २२, ३ : १९ : ११; ब्रह्म चिह्नों पर काश्मीरी पूर्वकाल में विश्वास करते थे ३:७ : २९, ८:११ ) । इनका शरीर मनुष्य और आज भी साधरण जनता विश्वास करती है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:१०८-१११ ते चेयुद्धार्थमेष्यन्ति न जेष्यन्त्यस्मदन्तिकात् । वयं चेदन्तरं यामो न जेष्यामः कदाचन ।। १०८ ॥ १०८. 'वे युद्ध के लिये आयेगे, तो हमलोगों से नही जीत सकेंगे और हम लोग अन्दर जायेंगे, तो कदापि नहीं जीतेंगे।' इति दात् स श्रुत्वापि खानः शूरपुरावना। अगाद् राजपुरीं त्यक्त्वा कश्मीरान् पिशुनेरितः ॥१०९॥ १०९. इस प्रकार सुनकर, दर्प से वह खाँन पिसुन' प्रेरित होकर, राजपुरी त्यागकर, शूरपुर मार्ग से काश्मीर गया। अस्मिन्नवसरे श्रुत्वा स्वपुत्रं सहसागतम् । गृहीत्वा स्वबलं तूर्णं नगरान्निरगान्नृपः ।। ११० ॥ ११०. इस समय सहसा, अपने पुत्र को आया हुआ सुनकर, शोघ्र ही अपनी सेना लेकर, राजा नगर से निकल पड़ा। गच्छन् सकटको राजा मरणे कृतनिश्चयः । सदुःखो निःश्वसन् श्लोकमिममेकमपाठयत् ॥ १११ ॥ १११. मरने का निश्चय करके, सेना सहित जाते हुए, राजा दु:ख के साथ निःश्वास लेते हुए, इस एक श्लोक को पढ़ा-- पाद-टिप्पणी : से दक्षिण की ओर यह मार्ग है । शूरपुर से आध मील १०९. ( १ ) पिशुन : तवकाते अकवरी में . के ऊपर पीर पन्तसाल पर्वत है। वहाँ से रामव्यार नदी के दक्षिण तट से पीर पत्तरूल की ओर जाता उल्लेख है-अन्त मे हाजी खाँ ने कुछ लोगों के बहकाने से काश्मीर में प्रवेश किया ( ४४२ )। है। प्राचीन काल की मुद्रायें यहाँ पर, प्रायः मिल जाती है। नदी के दक्षिण तट कुछ दूर पर (२) शूरपुर . यह वर्तमान हूरपुर है। इसे प्राचीन मन्दिर का अलंकृत पत्थर पडा मिलता है। हीरपुर तथा हरीपुर भी कहते है। इसकी स्थापना वह पूर्व काल में बड़ा गॉव था। सूपियान की ओर राजा अवन्तिवर्मा के मन्त्री शूर ने किया था । राजौरी तीन मील तक पाद पावन गाँव तक फैला था। नदी से काश्मीर आते समय प्रवेश मार्ग पर पड़ता है। वहाँ के दोनों तटों पर आबादी का चिह्न वर्तमान गाँव के टंग भी बनाया गया था। यहाँ पर द्रंग का आकार अधोभाग मे मिलता है। देखा जा सकता है। शूरपुर गाँव से थोडे ही दूर पर पाद-टिप्पणी : है। इसे इलाही दरवाजा कहते है। यह पुराने राजकीय पथ पर व्यापार का स्थान रहा है। काश्मीर ११०. ( १ ) नगर = श्रीनगर । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : १ : ११२ - ११६ ] राज्येऽपि हि महत् कष्टं सन्धिविग्रहचिन्तया । पुत्रादपि भयं यत्र तत्र सौख्यस्य का कथा ॥ ११२. 'राज्य में भी सन्धि विग्रह की चिन्ता से महान कष्ट है, प्राप्त है । वहाँ सुख की क्या चर्चा ? अधर्मशङ्का दूरेऽस्तु वैधेयातिविधेये श्रीवरकृता युद्धे जनकपीडया | स्नेहोऽपि विस्मृतः ॥ ११३ ॥ ४१ ११२ ॥ जहाँ पर पुत्र से भी भय ११३. 'युद्धजनक पीड़ा से अधर्म की शंका दूर रहे। मूर्खतापूर्ण कार्य करने वाले, जिसने स्नेह भी विस्मृत कर दिया- त्वयि कुर्वति साम्राज्यं यः खेदाय समागतः । स यातु सवलः शीघ्रं त्वद्वीर्याग्निपतङ्गताम् ॥ ११४ ॥ ११४. 'तुम्हारे साम्राज्य करते हुए जो दुःख देने के लिये आ गया, सेना सहित वह शीघ्र तुम्हारे पराक्रमाग्नि में फर्तिगा बने । Raharai राज्यं क्रिया धर्मक्रिया भजन् । वैरिणो विमुखा यान्तु रणे लब्धपराभवाः ॥ ११५ ॥ ११५. 'तुम्हीं अकंटक राज्य एवं धर्म कृया करो और रण में पराभव प्राप्त बैरी विमुख हो जाय ।' पाद-टिप्पणी : ११२. ( १ ) सन्धि कौटिल्य ने ६ गुणों का उल्लेख किया है - सन्धि, विग्रह, आसन, मान, संश्रय एव द्वैधीभाव । कामन्दक ( ९ : २–१८ ) एवं अग्निपुराण ने सन्धि के सोलह प्रकार बताये है । कामन्दक का आधार कौटिल्य है ( कौटिल्य : ७ : ३ ) । सेना तथा युद्ध के विषय में सन्धियों के सम्बन्ध में विशद साहित्य है । स्थानाभाव से यहाँ देना कठिन है । विष्णुधर्मोत्तरपुराण (२ : २४. १७) के अनुसार सन्धि विग्रहिक शान्ति एवं युद्ध सम्बन्धी मन्त्री था । एक अधिकारी था, जो राजजै. रा. ६ ग्रामेष्वित्यधिकास्तास्ताः शृण्वञ्जनपदाशिषः । प्रापत् सकटको राजा स सुप्रशमनाभिधम् ।। ११६ ।। ११६. इस प्रकार गावों में अधिक से अधिक निवासियों का आशीर्वाद सुनते हुए, सेना सहित वह राजा सुशमन' (स्थान) पर पहुँचा । कीय अनुदान देता है । समुद्रगुप्त के प्रशस्ति में इस शब्द का उल्लेख मिलता है ( गुप्त : इन्शक्रिप्सन संख्या १ : पृष्ठ ५ ) । ( २ ) विग्रह: कामन्दक (१० : २-५) तथा अग्निपुराण ( २४० : २०-२४ ) में सोलह विधियों का वर्णन किया गया है जिससे विग्रह होता है यथा-- राज्य पर अधिकार, स्त्री, जनपद, वाहन, धन छीन लेना, गर्व, उत्पीड़न आदि । पाद-टिप्पणी : ११६. (१) सुप्रशमन : सुपियान जिला में एक परगना है । मराज खण्ड में हैं । रामबयार नदी के वाम तट पर, पर्वत पादमूल में है । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:११७ अथ मल्लशिलास्थाने पितापुत्रबलद्वये । सन्नद्धे नृपतिर्दूतं विप्रमेकं व्यसर्जयत् ।। ११७ ।। ११७. मल्ल शिला' नामक स्थान पर, पिता एवं पुत्र की दोनों सेना सन्नद्ध हो जानेपर, राजा ने एक विप्र दूत' को प्रेषित किया पाद-टिप्पणी: स्वतंत्र होता था। इस दूत का मन्त्री तथा आमात्य ११७. (१) मल्लशिला : श्रीवर ने मल्ल का स्तर होता था । पाण्डवों के दूत भगवान श्रीकृष्ण शिला का पुनः उल्लेख श्लोक १:१ : ४७ में इस वर्ग में आते है। द्वितीय वर्ग 'परिमितार्थ' अर्थात् किया है। दत्त ने 'पल्लशिला' लिखा है। उन्होंने निश्चित कार्य के लिये दूत भेजना था। यह तीन कलकत्ता संस्करण का अनुकरण किया है, जहाँ चौथाई मन्त्री के समकक्ष होता था। तृतीय वर्ग 'शासन हर' का था। उसका कार्य केवल राजकीय 'पल्लशिला' दिया गया है। श्री मोहिबुल हसन ने। भी दत्त का अनुकरण कर पल्लशिला ही लिखा है। पत्र एवं सन्देशवाहक का कार्य करना था। उसमे श्री मोहिबुल हसन ने नोट में पल्लशिला स्थान का मन्त्रियों का आधा गुण माना जाता था। जैनुल परिचय दिया है। उनके मत से यह सुपियान के आबदीन का दूत इसी तृतीय श्रेणी में आता है। समीप करेवा है। वह राजौरी के मार्ग पर श्रीनगर उसका कार्य केवल सन्देश मात्र देना था। यहाँ से दक्षिण ३३ मील पर है। मुगलों के समय यहाँ विप्र शब्द साभिप्राय है। दूत सर्वदा कुलीन, विवेक सराय थी, जहाँ घोडे बदले जाते थे (१० ७५ तर्ककुशल एवं शिष्ट, विद्वान एवं मृदुभाषी भेजे जाते नोट: ३)। थे। भारत पर सिकन्दर ने आक्रमण किया था, तो उससे भी दूत मिलने गये थे। दूत अपना दौत कार्य तवक्काते अकबरी में नाम 'येल हाल या सहाल' करते समय अवध्य माना जाता है। रामायण तथा लीथो संस्करण मे 'तलील' दिया गया है (४४२ मे तो यहाँ तक कहा गया है कि यदि दूत गुप्तचर ६६३ )। फिरिस्ता के लीथो संस्करण मे नाम शस्त्रधारी हो, तो भी उसे छोड़ देना चाहिए । राम 'वलील', 'कर्नल' ब्रिग्गस ने 'बुलील' तथा रोजर्स ने के शिविर मे कुछ राक्षस पाये गये। वे सैनिकों को 'दुलदुल' दिया है। बहका रहे थे। वे पकड़े गये। भगवान् के सम्मुख (२) दूत : मुसलिम काल में भी ब्राह्मण दूत उपस्थित किये गये। उन्होंने कहा-'यदि वे गुप्तचर भेजने की प्रथा थी। जोनराज ने भी ब्राह्मण दूत भी है, भेष बदले है, रात्रि में पाये गये है, किन्तु भा ह, भष बदल भेजने की बात लिखी है। लोहर दुर्गपति ने सुल्तान वे भी दूत है। चाहे वे शस्त्रधारी ही क्यों न हों, कुतुबुद्दीन के सेनानायक डामर लोलक के पास उन्हे मारना नही चाहिए।' इस सिद्धान्त का पालन एक ब्राह्मण को दूत बनाकर भेजा था ( जोन० : ४७०)। तत्कालीन दूत को आजकल के राजदूत समस्त भारत मे किया जाता था। किन्तु मुसलिम के समान नही मानना चाहिए। दूत केवल सन्देश- काल में मुसलमान सुल्तान इसके अपवाद थे। कुतुवाहक होता था। प्राचीनकाल मे दूत के तीन वर्ग बुद्दीन के सिपहसालार ने सन्धि के लिये भेजे गये होते थे। 'निसृष्टार्थ' यह सब कुछ कहने के लिए ब्राह्मण दूत को वन्दी बना लिया था (जोन०:४७०)। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृतां निर्भयः । स गत्वा नृपसन्देशमब्रवीदिति किं वक्तीति क्षणं क्रुद्धैस्तत्त्वज्ञः परिवेष्टितः ॥ ११८ ॥ १ : १ : ११८-१२३ ] ११८. वह जाकर 'क्या कहता है ?' इस क्षण भर के लिये, क्रुद्ध तत्वज्ञों से घिरा, वह निर्भय होकर, नृप के सन्देश' को कहा राजपुत्र महाबाहो दाक्षिण्यामृतसागर | शृणु पित्रा समादिष्टं यत् तत्सर्वं ब्रवीमि ते ।। ११९ ॥ ११९. 'हे ! राजपुत्र !! हे ! महाबाहो !! हे ! दाक्षिण्यामृतसागर !! पिता ने जो सन्देश दिया है, सुनो वह सब तुमसे कहता हूँ फलं संसारवृक्षस्य लाभोऽमुत्र पित्रोलोत्सवो नित्यं पुत्रः कैर्नाम १२०. 'संसार वृक्ष का फल, यहाँ इस लोक और परलोक में लाभप्रद, माता-पिता के नेत्रों नित्य आनन्दकारी पुत्र की निन्दा कौन लोग करते हैं ? सर्वः सञ्चिनुते सर्वं पुत्रार्थं वार्द्धके वचनग्राही भवेत् १२१. 'सभी लोग प्रयत्नपूर्वक पुत्र के लिये, वस्था में वचनग्राही तथा सुखप्रद हो । परत्र च । निन्द्यते ।। १२० ।। ४३ प्रयतो यतः । पितृसुखप्रदः ।। १२१ ॥ सब कुछ संचय करते हैं, ( जिससे वह ) वृद्धा इत्थं लोकद्वयस्थित्यां त्वयि जाते सुते मम । दूरे सर्वसुखाशास्तु चिन्ता प्रत्युत वर्धिता ।। १२२ ।। १२२. 'इस प्रकार की लोक स्थिति में तुम्हारे मेरे पुत्र होने से सब सुख की आशा दूर है, प्रत्युत चिन्ता ही बढ़ गयी । त्वत्कृतो दुर्जनाश्वासो निःश्वासो य इवान्वहम् । मलिनीकुरुते शुद्धं मद्राज्यं मुकुरोपमम् ॥ १२३ ॥ पाद-टिप्पणी : ११८. ( १ ) सन्देश जैनुल आबदीन ने अपनी सेना एकत्र किया और उसने अपने पुत्र के पास उचित सलाह एवं करुणापूर्ण सन्देश भेजा । १२३. 'तुम्हारा दुर्जनों का दिया गया, प्रोत्साहन निःश्वास के समान, मेरे दर्पण सदृश शुद्ध राज्य को मलिन कर रहा है । किन्तु सुल्तान के सन्देशों का कोई प्रभाव हाजी खां पर नही हुआ ( फिरिस्ता : ४७१ ) । पाद-टिप्पणी : पाठ-बम्बई । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:१२४-१२७ जीवनाशोधता येमे लसन्त्युच्छङ्खलाः खलाः ।। सुचिरं नैव तिष्ठन्ति सरसः सारसाः इव ॥ १२४ ॥ १२४. 'जीवनाशा से उद्यत उच्छृखल जो खल शोभित हो रहे है, वे सरोवर के सारसों के समान बहुत दिन नही रहेंगे। मदादेशं विना देशं किमर्थं स्वयमागतः । केन राज्यं बलात् प्राप्तं निजभाग्योदयं विना ॥ १२५ ॥ १२५. 'मेरे आदेश के बिना किस लिये देश में आये हो ? अपने भाग्योदय' के बिना बल से किसने राज्य प्राप्त किया है ? बाह्यदेशावनिः सर्वा भुज्यते तृप्यसे न किम् । येन मण्डलमात्रं मेऽवशिष्टं हर्तुमागतः ॥ १२६ ॥ १२६. 'बाह्यदेशों की सब भूमि भोग रहे हो (उससे) क्या तृप्त नही होते, जिससे मेरे अवशिष्ट मण्डल मात्र को हरण हेतु आये हो ? तन्निवर्तस्व मा पुत्र पापबुद्धिं वृथा कृथाः । बलद्वयवधात् पापं तवैतत् परिणेष्यति ॥ १२७ ॥ १२७. 'अतएव हे ! पुत्र !! लौट जाओ । और वृथा पाप बुद्धि मत करो । दोनो सेनाओं का यह पाप तुम पर फलेगा। पाद-टिप्पणी: पश्चिम दक्षिण भूखण्ड, जो काश्मीर मण्डल के बाहर १२४. 'मे' पाठ-बम्बई था, उससे यहाँ तात्पर्य है। कभी-कभी राजतरंगिणी में दिगन्तर शब्द का भी प्रयोग किया गया है। पादटिप्पणी: काश्मीर की सीमा के बाहर के स्थानों की संज्ञा १२५. (१) भाग्य : कल्हण, जोनराज, श्रीवर बाह्य देश से दी गयी है। बाह्य देश काश्मीर तथा शुक चारों राजतरंगिणीकार भाग्यवादी थे। में प्रवेश करने वालों पासों अर्थात् दरों के बाहर का कर्म को प्राथमिकता देते हुए, भी कल्हण भाग्य को स्थान कहा जाता है, क्योंकि काश्मीर मण्डल चारों मानता था। जोनराज, श्रीवर तथा शुक मुसलिम ओर पर्वतमालाओं से आवृत है, वही सुरक्षा पंक्ति सुलतानों के राजकवि थे। मुसलमान किस्मत पर काश्मीर की है। उससे बाहर जो स्थान पड़ता है, वह विश्वास करते है। अतएव उन्होंने कर्म पर जोर न वाह्य देश था। दिगन्तर एवं बाह्य देश के प्रयोग देकर भाग्य पर ही सर्वत्र जोर दिया है। में अन्तर मालूम पड़ता है। दो दिशाओं के मध्य पादटिप्पणी: का अर्थ दिगन्तर होता है। आँखों से ओझल हो जाना या निश्चित स्थान से लुप्त हो जाने का अर्थ १२६. ( १ ) बाह्य देश : पूंछ से राजौरी दिगन्तर होता है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ : १२८-१२९] श्रीवरकुता इत्युक्तिः पैतृकी प्रोक्ता किंतु सत्यमहं ब्रुवे । नश्यन्ति भूपाच्छयेनाग्रात् त्वद्भटाश्चटका इव ।। १२८ ।। १२८. इस प्रकार तुम्हारे पिता की उक्ति मैने कह दी। किन्तु मै सच कहता हूँ। सेना द्वारा श्येन से चटक' के समान तुम्हारे भट नष्ट हो जायेंगे ।' इति रुक्षाक्षरामुक्ति श्रुत्वा विप्रस्य ते भटाः । छित्वा कर्णौ व्यधू रक्तादायुधेषु विशेषकान् ॥ १२९ ।। १ १२९. इस प्रकार रुक्षाक्षर भरी उक्ति सुनकर उन भटों ने विप्र के कान काटकर रक्त से आयुधों पर थापा दे दिये। पाद-टिप्पणी : १२८. ( १ ) चटक गौरेया पक्षी । पक्षियों में गौरैया छोटी तथा बड़ी सीधी पक्षी होती है । मुझे स्मरण है, मेरी माँ गौरैया को भीगा चावल का दाना देती थी । उसकी जाति ब्राह्मण समझी जाती थी । गंगातट पर भी स्त्रियाँ गौरैया को चावल खिलाती थी। अब यह प्रथा अन्न की मँहगाई के कारण बन्द हो गयी है। श्येन अर्थात बाज के सम्मुख, जिस प्रकार गौरैया क्षणमात्र भी ठहर नहीं सकती, उसी प्रकार राजा की सेना से विरोधी भट अर्थात योद्धा सरलता पूर्वक नष्ट हो जायेंगे। . ४५ पाद-टिप्पणी १२९. (१) कान काटना भारतीय एवं विश्व परम्परा के अनुसार दूत अवध्य माना गया है । परन्तु मुसलिम इतिहास मे इस परम्परा की प्राय: अवहेलना की गयी है । कुतुबुद्दीन सुल्तान के समय भी वृत बन्दी बना लिया गया था ( जो० ४७१) । दूत सुदूर प्राचीन काल से अवध्य माना गया है । भारत में यह बात सर्वदा मानी गयी है । दूत का राजा के समान आदर किया जाता था। ऋग्वेद मे कई स्थलों पर दूत का वर्णन है। एक स्थान पर अग्नि को दूत बनाया गया था ( १ : १२ : १ ; १ : १६१ : ३; ८ : ४४ : ३; १० : १०८ : २४) कौटिल्य ने दूत के विषय में एक अध्याय ही लिखा है (११६) नीति निर्धारण के उपरान्त दूत को उस राजा के पास भेजना चाहिए । जिस पर आक्रमण आसन्न होता है ( कामन्दक : १२ : १) । मनु ने इस विषय पर बहुत सुन्दर लिखा है कि यदि दूत का सन्देश सुनकर राजा क्रोधित हो जाय, तो दूत को कहना चाहिए- 'सब राजा दूत के मुख से बातें सुनते हैं। भयभीत किये जाने पर भी राजा का सन्देश दूत को देना ही पड़ता है । निम्न जाति के दूतों का भी वध नहीं करना चाहिए। उस दूत की बात ही क्या है जो ब्राह्मण है ( मनु० : ७ : ६५ ) ' । रामायण में स्पष्ट कहा है कि सज्जन दूत-वध की आज्ञा नही देते । परन्तु कुछ अवसरों पर उसे कोडे मारने, मुण्डित कर, बाहर निकाल देने का आदेश दिया गया है ( रा० : ५ ५२ : १४-१५ ) । वर्तमान काल मे भी दूत अवध्य माना जाता है, यदि वह देश मे गुप्तचर का कार्य करता है, तो उसे उसके राष्ट्र से कहा जाता है कि उसे वापस बुला ले यदि दूतावास के राज्य कर्मचारी । गुप्तचर का कार्य करते पकड़े जाते है, तो उन्हें दण्ड मिलता है। यहाँ दूत का नाक तथा हाथ काटना अनुचित कहा जायेगा । . ( २ ) थापा: आयुधों पर रक्त छिड़कना या उस पर छापा लगा देना पुरानी प्रथा है । इसे एक प्रकार की शस्त्र-पूजा तथा शुभ मानते हैं। म्यान से कृपाण निकाल लेने पर उसे रक्तदान देना चाहिए। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१ : १ : १३०-१३३ तदृष्ट्वा हाज्यखानोऽथ सत्रपः पितुरागमात् । अभिमन्युप्रतीहारमुख्यानाख्यदिदं वचः ॥ १३० ॥ १३०. यह देखकर लज्जित' हाजी खाँन पिता के आगमन से अभिमन्यु-प्रतीहारादि से यह बात कहीं वरं पादप्रणामार्थं पितुर्याम्यमुतो बलात् । भूपस्तुष्टोऽथ रुष्टो वा यत् करोतु करोतु तत् ।। १३१ ॥ १३१. 'इस सेना से पिता के पाद प्रणामार्थ जाना उत्तम है। राजा तुष्ट होकर अथवा रुष्ट होकर, जो करे सो करे। सर्वथा तातपादा मे सेव्या रक्षेत स नो ध्र वम् । तन्मा कुरुत युद्धेऽस्मिन् संरम्भं चेन्मतं मम ।। १३२ ॥ १३२. 'सर्वथा तात' पाद मेरे लिये सेवनीय है, वह हमलोगों की रक्षा निश्चय ही करेगा। यदि मेरा मत मान्य है, तो इस युद्ध का आरम्भ न करें। किं तु स्वप्नेऽपि भूपाय नानिष्टं चिन्तयाम्यहम् । यो मे देवाधिकः पूज्यो लोकद्वयसुखप्रदः ॥ १३३ ॥ १३३. 'स्वप्न में भी राजा का अनिष्ट नहीं सोचता हूँ, जो कि मेरे देवता से भी अधिक पूज्य तथा दोनों लोकों में सुखप्रद है। वह एक पुरानी मान्यता है। अतएव रूढ़िवादी हाजी खां ने पिता पर आक्रमण करना अस्वीकार सैनिक निष्प्रयोजन आयुधों का प्रदर्शन नही करते थे। कर दिया ( ४७१ )। पाद-टिप्पणी : ___ म्युनिख पाण्डुलिपि में भी यही बात लिखी गयी है-हाजी खा पिता के विरुद्ध युद्ध नही करना 'ख्या' पाठ-बम्बई। चाहता था (पाण्डु० ७४ बी० )। १३०. (१) लज्जित : दूत के साथ हुए पाद-टिप्पणी: व्यवहार को देखकर, हाजी खा लज्जित हो गया। १३२. (१) तात : सम्बोधन है । स्नेह, दया उसे पश्चाताप हुआ। वह पिता से सन्धि करना एवं प्रेम प्रकट करता है । आदरणीय तथा वरिष्ट चाहता था ( म्युनिख : पाण्डु० : ७४ बी०)। व्यक्ति के लिए आदरसूचक प्रयोग है। यथा-है (२) अभिमन्यु प्रतीहार : इसका उल्लेख पिता हि वहवो नरेश्वरास्तेन तात धनुषा धनुभूतः पुनः २ : १९६, ३:१०३, १२५ में किया गया है। (रघु० : ११ : ४०)। अपने से छोटे विद्यार्थी आदि के प्रति स्नेह प्रदर्शन के लिए भी प्रयोग किया पाद-टिप्पणी: जाता है-मुष्यन्तु लवस्य बालिशतां तात पादाः सा : फिरिस्ता लिखता है- (उत्तर : ६)। 'तात चन्द्रापीड' ( कादम्बरी)। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : १ : १३४ - १३९] श्रीवरकृता अग्रजोऽग्रे समायाति रणायायाति नो नृपः । इत्युक्तं तेन सम्प्राप्तो नाहं पितृवधोद्यतः ॥ १३४ ॥ १३४. 'युद्ध के लिए ज्येष्ठ भ्राता आगे आ रहा है, न कि राजा, मै पितृ वध के लिए उद्यत होकर, नहीं आया हूं' - इस प्रकार उस (हाजी खाँन) ने कहा । मन्त्रिणस्ताजतन्त्रिपत्यादयस्ततः । श्रुत्वेति तत्तुरङ्गात्तवल्गाग्रा निष्ठुरं ब्रुन ॥ १३५ ॥ १३५. यह सुनकर ताज तन्त्रपति' आदि उन मन्त्रियों ने उसके अश्व की लगाम पकड़कर, निष्ठुरतापूर्वक इस प्रकार कहा यदोक्तं समयो नायं याम इत्यवधीरितम् । आरब्धस्यान्तगमनं तद्य क्तमधुना तव ॥ १३६ ॥ १३६. 'जब हम लोगों ने कहा - तब 'यह उचित समय नहीं है', आपने अवहेलना की अतएव अब तुम्हारे लिए आरम्भ किये का अन्त करना उचित है । यूयं चेज्जातसौहार्दा मार्दवानन्दिताराः । वयमेव हताः कष्टं क्लिष्टास्त्वत्सेवनाशया ॥ १३७ ॥ ४७ १३७. 'यदि तुमलोग सौहार्द युक्त होकर, मृदुता से आनन्दित हो, तो तुम्हारी सेवा की आशा वाले, दुःख है, हमी लोग मारे गये । भवेत् सन्तप्तयोः सन्धिर्नित्यं तैलकटाहयोः । तदन्तः पूरणी क्षिप्ता सैव दन्दह्यते क्षणात् ॥ १३८ ॥ १३८. 'सन्तप्त तेल और कटाह' की नित्य सन्धि सम्भव है और उसके अन्दर डाली गयी पूरणी (पूरी) क्षण में जल जाती है । भवान् स्वामी वयं दासाः पौरुषं पश्य साम्प्रतम् । जयश्चेत्तव राज्याप्तिर्नष्टो याहि यथागतम् ॥ १३९ ॥ १३९. 'आप स्वामी हैं, हमलोग दास, अब पौरुष देखिये । यदि तुम्हारी जय हो, तो राज्य प्राप्ति होगी और नष्ट होने पर, जैसे आये वैसे चले जाना । पाद-टिप्पणी : १३५. (१) तन्त्रपति : द्रष्टव्य टिप्पणी श्लोक : १ : १ : ९५ । तन्त्रियों को वर्तमान काल में तन्त्री कहते हैं । मुसलमानों में उनकी अपनी एक उपजाति है । कृषक वर्ग है। यह 'क्रम' काश्मीर में सर्वत्र नगर तथा ग्रामों में फैला है। एक मैत है कि वे मूलतः तातारी थे । काश्मीर में उत्तरीय पर्वतीय क्षेत्र के निवासी थे । पाद-टिप्पणी : १३८ १ ) कटाह : कड़ाही । कड़ाही तेल को जलाती है । बिना कड़ाही के तेल जल नही सकता। उसके खौलते तेल में जो भी वस्तु डाली जाती है, क्षणमात्र में जल जाती है । पाद-टिप्पणी : १३९. (१) राज्य प्राप्ति : श्रीवर ने गीता के निम्नलिखित भाव को अपने शब्दों में रखा है । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन राजतरंगिणी यावद्युद्धं करिष्यामस्तावदेव विलम्ब्यताम् । हतेष्वस्मासु कर्तव्यं यत् पुनस्तत् समाचर ॥ १४० ॥ जो १४०. 'जब तक हम लोग युद्ध करेंगे, तब तक ठहरिये, हमलोगों के मारे जाने पर, कर्तव्य है करना । [१ : १. १४० - १४३ अस्मदुक्तं न गृह्णासि यदि त्वं पितृवञ्चितः । त्वय्येवानुचितं कृत्वा पुनर्यामो दिगन्तरम् || १४१ ।। १४१. 'पिता के बहकावे में पड़कर, तुम यदि हम लोगों की बात नही ग्रहण करते, तो तुम पर ही अनुचित कार्य ( मारकर ) करके, पुनः दिगन्तर में हम लोग चले जायेंगे ।' निर्भर्त्सना वाक्यजातभीतिनृपात्मजः । इति ततश्चिन्तार्णवे मग्नो युद्धश्रद्धामगाहत ।। १४२ ।। १४२. इस प्रकार की भर्त्सना युक्त बातों से भयभीत होकर, राजपुत्र चिन्ता - सागर में मग्न होकर, युद्ध के प्रति श्रद्धालु हो गया । अत्रान्तरे द्विजं तादृगवस्थं वीक्ष्य भूपतिः । मुरारातिरिव क्रुद्धो युद्धसन्नद्धतां दधे ॥ १४३ ॥ १४३. इसी बीच में ब्राह्मण को उस अवस्था में देखकर राजा 'मुरारी' (कृष्ण) के समान क्रुद्ध होकर युद्ध के लिये सन्नद्ध हो गया । 'हतो वा प्रप्स्यापि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ' (२ : ३७ ) । पाद-टिप्पणी : १४१. ( १ ) दिगन्तर : द्रष्टव्य टिप्पणी : १ : ११२४ । पाद-टिप्पणी : १४२. ( १ ) युद्ध अपने अनुयायियो द्वारा वह युद्ध करने के लिए अनिच्छापूर्वक बाध्य कर दिया गया था ( म्युनिख पाण्डु० : ७४ बी० ) । फिरिस्ता लिखता है - 'हाजी खां की सेना ने बिना उसके आदेश के ही युद्ध आरम्भ कर दिया ( ४७९ ) । ' पाद-टिप्पणी : १४३ (१) मुरारी : श्रीवर ने महाभारत की घटना की ओर संकेत किया है। भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर, दुर्योधन की सभा में गये और युद्ध से विरत होने तथा सन्धि करने के लिए जोर दिया। दुष्टबुद्धि दुर्योधन ने अपने मित्रों के साथ मन्त्रणा कर, कृष्ण मुरारी को बन्दी बनाने का संकल्प किया। इस षड्यन्त्र का भेद सात्यकि जान गये और सभा में दूत के बन्दी बनाने की दूषित मनोवृत्ति को अनुचित बताते हुए, उसे धर्म, अर्थ एवं काम के विपरीत बताया। सात्यकि की बात सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण ने सभा मे ही ललकारा कि यदि दुर्योधन आदि मे शक्ति हो, तो वे बन्दी बनाये । भगवान ने अट्टहास किया। उनका विराट् स्वरूप प्रकट हो गया। लोगों ने आश्चर्यमयरूप का दर्शन किया । भूपाल गण विस्मित हो गये । पृथ्वी कम्पित हो उठी । समुद्र क्षुब्ध हो गया। भगवान का शान्ति सन्देश ठुकरा दिया गया । उसका अवश्यम्भावी परिनाम महाभारत हुआ। जिसमें कृष्ण रूप राजदूत का अपमान करने वाले नष्ट हो गये ( उद्योग० : १२९१३२ ) । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : १ : १४४-१४७] श्रीवरकृता शुक्रयोगजनामसंपरीक्षणविचक्षणः स्वपक्षरक्षणं मापः पृष्ठीकृतरविय॑धात् ॥ १४४ ॥ १४४. शुक्र योगज' नाम नक्षत्र परीक्षण में निपुण राजा ने सूर्य को पृष्ठभाग में करके, अपने पक्ष की रक्षा की। राज्ञः पृष्ठगतः सूर्यः खड्गान्तःप्रतिबिम्बितः । जयस्ते भवितेत्येव वक्तुं व्योम्नोऽवतीर्णवान् ॥ १४५ ।। १४५. राजा के पृष्टगत खंग में प्रतिबिम्बित होकर, तुम्हारा जय होगा, यह व्यक्त कहने के लिये ही, आकाश से अवतरित हुये - (सायंकाल हुयी)। कियन्तोऽमीति यावत् सोऽचिन्तयत् तावदग्रतः । अर्कदीप्तिज्वलच्छस्त्रद्य तिद्योतितभूतलम् ॥१४६ ॥ १४६. तब तक, वह ये लोग कितने हैं, यह जब तक, वह सोच रहा था, तब तक, समक्ष सूर्य की दीप्ति से, चमक ने शस्त्र की कान्ति से, भूतल प्रकाशित करते निर्यत्सन्नाहिसायोघपतद्भटतुरङ्गमम् । गणशो गणशो धावत् तत्सैन्यं समवैक्षत ।। १४७ ॥ १४७. उसने यूथ के यूथ दौड़ते, उस सेना को देखा, जिसमें कि वर्मयुक्त योद्धा, समूह एक भट और तुरंग निकल रहे थे। १४३ (१) मुरारी : श्रीवर ने मुरारी नाम का प्रकार मुर राक्षस का भगवान ने क्रोध से संहार प्रयोग श्रीकृष्ण के लिये किया है । शंखासुर के पुत्र मुर किया था, उसी प्रकार जैनुल आबदीन भी क्रुद्ध होकर को मारने के कारण भगवान का नाम मुरारी पड़ा है युद्ध के लिये सन्नद्ध हो गया ( सभापर्व : ३८)। (भाग० : ४ : २६ : २४; १०:१० - १४ : ५८७ सुलतान जैनुल आबदीन सन्धि के लिये प्रेषित ब्रह्मा० : ३ : ३६ : ३४; मत्स्य० : ५४ : १९)। भग- अपने दूत की दुर्दशा देखकर, क्रोधित हो गया और वान ने क्रुद्ध होकर, अद्भुतशक्ति का परिचय दिया था। युद्ध का आदेश दिया। मुर एक पंचमुखी दैत्य था। प्रागज्योतिषपुर के राजा पाdिom. का सेनापति था। इसने नरकासुर के प्रागज्योतिष १४४. (१) शक्रयोग . शुक्रयोग के सम्बन्ध पुर की सीमा पर ६ हजार पाश लगाया था। उनके किनारों पर छुरे लगे थे। उन पाशों को उसके नाम में ग्रह्याराध्याय, वाराही संहिता और वल्लालसेन पर ही 'मोख' नामकरण किया गया था। भगवान विरचित अद्भुत सागर में उल्लेख मिलता है। यह ने उन पाशों को सुदर्शन चक्र द्वारा काट कर, मुर। व्यापक अर्थ का सूचक है। इसके अन्तर्गत शुक्र का तथा उसके पुत्रों का वध किया था। मुर को मारने उदयास्त, शुक्र की नक्षत्रगति, राशि प्रवेश और के कारण भगवान का नाम मुरारी पड़ गया। जैनुल योग आदि अनेक पर्याय है। आबदीन को श्रीवर तथा जोनराज ने हरि का अवतार पाद-टिप्पणी : माना है । अतएव यहाँ पर भी संकेत करते हैं कि जिस १४७. पाठ : बम्बई । जै. रा. ७ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी harset वीरो हाज्यखानाद्यो राज्ञा वाग्रजेन वा । गृहीत सर्वसैन्येन धैर्यात् क्रष्टुमशक्यत ॥ १४८ ॥ १४८. हाजी खाँ के अतिरिक्त दूसरा कौन वीर है, जो सेना सहित राजा या अग्रज द्वारा धैर्यत न किया जा सके । तत्र ५० मल्लशिलारङ्गसङ्गतास्तद्भटा नटाः । नाट्यभङ्गिमदर्शयन् ॥ १४९ ॥ त्वङ्गदङ्गविहङ्गानां १४९. उस मल्लशिला' रंगस्थल पर पहुँचकर, उसके भट रूप नट अंग संचालन करते हुए, विहंगमों की नाट्य भंगी प्रदर्शित किये । वर्ष शरधाराभिः स्फुरच्छस्त्रतडिज्ज्योतिस्तूर्यगम्भीरगर्जितः ।। १५० ।। १५०. वह राजा का सैन्य बादल, वाणधारा की वृष्टि की, जो कि चमकते शस्त्ररूपी विद्युत ज्योति एवं तूर्य के गम्भीर गर्जन से युक्त था । अन्योन्यमिलिताः कांस्यघनवत् कठिना घनाः । अन्योन्याघात सहना नदन्तः सुभटा बभुः ।। १५१ ।। १५१. परस्पर मिलित कॉसा के घन झाँझ सदृश कठिन घने, परस्पर घात सहनशील सुभट गरजते हुए शोभित हुये । भटा नयन्ति मां युद्धे मां मा ताडयत द्रुतम् । इतीव तारं दध्वान खानस्यानकदुन्दुभिः ।। १५२ ।। स भूपकटकाम्बुदः । १५२, ‘भट युद्ध में मुझे ले जा रहे हैं। मुझे मत पीटो' इस प्रकार मानो खाँन' की दुन्दुभी जोर से ध्वनि करने लगी । पाद-टिप्पणी : १४९. ( १ ) मल्लशिला : द्रष्टव्य टिप्पणी : ११ ११५ । फिरिस्ता नाम 'बुलील' देता है ( ४७१ ) कलकत्ता में ११५ श्लोक में 'पल्ल' नाम दिया गया है । परन्तु यहाँ मल्ल दिया है । अतएव ११५ में भी मल्ल ही पल्ल के स्थान पर दिया गया है । पाद-टिप्पणी : १५०. पाठ - बम्बई [ १ : १ : १४८ - १५२ पाद-टिप्पणी : १५१. पाठ-बम्बई पाट- टिप्पणी : १५२ (१) खान = हाजी खाँ श्रीवर ने हाजी खाँ को कायर चित्रित किया है। प्रतीत होता है कि हाजी खाँ को उसके सैनिक रण से पलायन नहीं करने देना चाहते थे। हाजी खाँ प्रारम्भ से युद्ध के प्रति द्विविधा में था। वह युद्ध नही करना चाहता था । उसके साथी जो सुलतान के विरोधी खुलकरू हो गये थे, अपने सुरक्षा तथा स्वार्थ के लिये युद्ध में रत थे । उनके लिये युद्ध के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह गया था । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:१:१५३-१५६] श्रीवरकृता पूर्व मया प्रतीहारमुख्या गुरुलघूर्जिताः । रणे फलतया दृष्टा रखेवृत्ते घना इव ।। १५३ ।। १५३. पहले मैंने रविमण्डल पर, मेघ के समान युद्ध में, छोटे-बड़े तेजयुक्त, प्रतीहार प्रमुख लोगों को, फलयुक्त होते देखा। ततो भूपबलात् क्रुद्धौ धात्रेयौ भूपतेर्हितौ । ठक्कुरौ निरगातां तौ वीरौ हस्सनहोस्सनौ ।। १५४ ॥ १५४. तदनन्तर राजा के सैन्य से क्रुद्ध होकर, राजा के हितैषी धात्रीपुत्र वे दोनों वीर, ठक्कुर हस्सन एवं हुस्सन निकल पड़े। सुवर्णसीहनग्राधा राजपुत्रा रणाध्वरे । शस्त्रज्वालावलीलीढे जुहुवुः श्रीफलं वपुः ॥ १५५ ॥ १५५. शस्त्रज्वाला-पुंज से भरे, रणयज्ञ में सुवर्णसीह', नग्र आदि राजपुत्र, शरीर श्रीफल की आहुति दिये। ते वीरभ्रमरास्तत्र रणोद्याने तदाभ्रमन् । स्वामिमाधवसान्निध्याद् यशःकुसुमलम्पटाः ॥ १५६ ॥ १५६. उस समय स्वामी माधव' (वसन्त ऋतु) के सान्निध्य से, यश कुसुम के लोभी, वे वीर रूप भ्रमर, उस रणोद्यान में भ्रमण कर रहे थे। पाद-टिप्पणी: परिचय के कारण निश्चय रूप से नही कहा जा १५३. कलकत्ता में 'वृत्तेर' पाठ है। प्रसंग मे सकता कि दोनों गंगा एक ही व्यक्ति है। उसका अर्थ ठीक नही बैठता 'भ्रम' के कारण 'रफ' (३) श्रीफल - बेल : काश्मीरी काव्यकार जोड़ दिया गया है। अतः 'वृत्ते' पाठ माना गया है। रण मे आहति बनने वालों की उपमा प्राय. श्रीफल पाट-टिप्पणी : से देते है। श्रीफल शिव का प्रिय फल है। उसे १५५. (१) सुवर्ण सीह : सुवर्ण सिंह, सीह आहति मे चढ़ाते है। वैशाख मास में श्रीफल शब्द सिंह के लिये कल्हण ने भी प्रयोग किया है। आयर्वेदिक दष्टि से खाना लाभप्रद होता है। शिवसिंह, सीह तथा सी समानार्थक शब्द है। लिंग पर विल्वपत्र तथा विल्व फल चढाया जाता है । (२) नग्र : इस व्यक्ति का पुनः उल्लेख पाद-टिप्पणी : नही मिलता। श्रीकण्ठ कौल ने गंगा नाम दिया है। बम्बई संस्करण जोनराजतरंगिणी में श्लोक ६२६ मे १५६. (१) माधव = वासन्ती कामदेव का गंगाराज का उल्लेख मिलता है। परन्तु यह समय मित्र वसन्त ऋतु-स्मर पर्युत्सुक एष माधवः (कु० : जैनुल आबदीन के पिता सिकन्दर का है। जैनुल ४ : २८) वसन्तकालीन सौन्दर्य जिसमे पृथ्वी आबदीन के पिता तथा उसके राज्यकाल में केवल कुसुमों से लद जाती है । आम, जामुन, नीव, अशोक ६ वर्षों का अन्तर है। अति संक्षिप्त उल्लेख एवं आदि फूलते है तथा पादप नवपल्लव धारण करते है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन राजतरंगिणी रणभूभाजने स्फुटम् । ते वीरमस्तकारिछन्ना क्षुत्तप्तस्य कृतान्तस्य कवला इम रेजिरे ॥ १५७ ॥ १५७. मस्तक छिन्न, वे वीर रण भू-पात्र में क्षुधा से तप्त, कृतान्त के ग्रास सदृश, शोभित हो रहे थे । रणतूर्यस्वनैस्तैस्तैजेनकोलाहलैस्तथा वीराणां १५८. रणवाद्य की ध्वनियों तथा तत् तत् जन कोलाहलों से एवं वीरों के सिंहनादो से शब्दों का अद्वैत हो गया था । तच्छुद्धये पाद-टिप्पणी : सिंहनादैश्च शब्दाद्वैतमजायत ।। १५८ ॥ [ १ : १ : १५७ - १६१ ऋणमिवेक्ष्य नृपप्रसाद प्राप्ते क्षणे जहति ये निजजीविताशाम् । तत्तद्विहस्तपरिरक्षधर्मलुब्धा १५९. राज कृपा को ऋण सदृश मानकर, उसकी शुद्धी के लिये समय आने पर, जो लोग अपनी जीवन की आशा त्याग देते हैं, और व्याकुलों की परिरक्षण द्वारा धर्म के लोभी होते हैं, वे लोग कतिपय राजसेवकों की अपेक्षा धन्य हैं । धन्यास्त एव कतिचिन्नृपसेवकेभ्यः ।। १५९ ।। १५७. पाठ-बम्बई राजाग्रादागतास्तीक्ष्णाः शरास्तत्पक्षपातिनः । स्वयं पाहीति भीत्येव स्खलन्तः समचोदयन् ॥ १६० ॥ १६०. राजपक्ष से आगत, उसके पक्ष में गिरने वाले की बाणवर्षा मानों भय से ही स्खलित होते हुए, 'स्वय' की रक्षा करो' इस प्रकार प्रेरणा दिये । ध्वजचेलाश्चला राजसुतस्याग्रे तु वायुना । सकम्पा रणभीत्येव पश्चाद्भागमशिश्रियन् ॥ १६१ ॥ १६१. राजपुत्र के सम्मुख, वायु से चंचल ध्वजाएँ, रणभीति से ही मानो, कम्पित होकर, पश्चात भाग का आश्रय ग्रहण किये । पाद-टिप्पणी : १५९. कलकत्ता में 'लब्धा' तथा ' बम्बई में 'लुब्धा' शब्द है । बम्बई का पाठ ठीक है । प्रतीत होता है कि कलकत्ता में मात्रा 'ऊ' छूट गयी है । पाद-टिप्पणी : ६१. कलकत्ता 'अशिश्रयन्' के स्थान पर बम्बई 'अशिस्त्रियन्' पाठ लिया गया है । यह व्याकरणसम्मत है । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : १ : १६२ - १६५ ] श्रीवरकृता शस्त्रकृत्तस्फुरद्वीरशिरः कमलनिर्भरा जीवनाशा चलत्पत्रा नलिनी १६२. शस्त्रों से कटे तथा स्फुरित होते, बीरों के आशा रूप चंचल पत्रों से युक्त, रणभूमि नलिनी ' हो गयी थी । शौर्यमत्यद्भुतं दृष्ट्वा सूनोस्तत्कटकस्य च । पुनर्जातमिवात्मानं रणोत्तीर्णं नृपोऽविदत् || १६३ ।। पाद-टिप्पणी : i रणभूरभूत् ।। १६२ ॥ शिर कमल से परिपूर्ण तथा जीवन की १६३. पुत्र तथा उसके सैन्य का अति अद्भुत पराक्रम देखकर, राजा ने रण पार करने पर, अपना पुनर्जन्म ही माना । कृत्वा सर्वदिनं युद्धं बलाद् भृत्यैर्निवारितः । हाज्यखानः सवित्राणः समरात् स न्यवर्तत ।। १६४ ॥ १६४. दिनभर युद्ध कर, भृत्यों द्वारा बलात् निवारित होकर, वह हाजी खाँ रक्षापूर्वक युद्ध से परांमुख' हुआ। भग्नं निजानुजं दृष्ट्वा पश्चाल्लग्नो विविग्नधीः । अग्रजोऽथावधील्लग्नान्मग्नांस्त्रासार्णवे भटान् ।। १६५ ।। ५३ १६५. अपने अनुज को पराजित देखकर, पीछा करता, क्षुब्ध अग्रज ' ( आदम खाँ ) ने संत्रास - सागर में मग्न, उसके अनुगत भटों को मार डाला । १६२. (१) नलिनी : कल्हण ने चिता ज्वाला श्रीवर ने रणभूमि की की उपमा नलिन से दी है। । उपमा नलिनी से दिया है चिता मनुष्य को भस्म कर देती है, रणभूमि अर्थात नलिनी भी मनुष्यों को नष्ट करती है ( कल्हण : रा० : २ : ५६ ) । पाद-टिप्पणी : १६४. ( १ ) परांमुख = तवकाते अकबरी में उल्लेख है - 'हाजी खाँ यद्यपि उसने जो कुछ किया था, उससे लज्जित था, परन्तु कुछ वीरो के प्रयत्न से सेनाओं की पक्तियाँ ठीक कर, रणक्षेत्र में पहुंचा और प्रातः काल से सायंकाल तक युद्ध होता रहा । अन्त में हाजी खाँ के सेना की पराजय हुई और आदम खाँ ने युद्ध में अत्यधिक वीरता का प्रदर्शन किया ( ४४२-६६४ ) । फिरिस्ता लिखता है - हाजी खाँ राजकीय सेना का भयंकर आक्रमण सहन न कर सकने के कारण घोर युद्ध के पश्चात, जो प्रातः काल से सायंकाल तक हुआ था, पराजित हो गया और हूरपुर भाग गया ( ४७१ ) । पाद-टिप्पणी : १६५. ( १ ) अग्रज = आदम खाँ : फिरिस्ता लिखता है - अनेक वीर सेनानी दोनों पथों से मारे गये। आदम खाँ ने इस युद्ध में बड़ी बहादुरी का परिचय दिया ( ४७१ ) । R Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:१६६-१६८ किमुच्यते नृशंसत्वं येन शरपुरान्तरे । जन्ययात्रागतो मोहान्निहतः पथिकव्रजः ॥ १६६ ॥ १६६. उसकी नृशंसता क्या कही जाय ? जिसने सूरपुर' में वरयात्रा में आगत, पथिक समूह को मार डाला। यस्यां मन्दप्रभो भास्वान् गणैः सर्वैविलोकितः । दक्षिणस्या दिशस्तस्याः प्रवासी स नृपोऽभवत् ॥ १६७ ॥ १६७. जिस दिशा में सब लोगों ने सूर्य को ही मन्द प्रभायुक्त देखा, वह राजा उसी दक्षिण दिशा का प्रवासी हआ। दुर्योधनार्पितरसा गुरुशल्यविष्टा भीष्मप्रियाः परहतिं प्रति दत्तकर्णाः। ये धर्मजातिविमनस्कतया कृपेच्छा स्ते कौरवा इव रणे न जयं लभन्ते ॥ १६८ ॥ १६८. दुष्टों के हाथ में पृथ्वी का भार देने तथा शल्य (भाला) पर आश्रित विश्वास रखने वाले भयकरताप्रिय, दूसरों के हानि के लिये दत्त कर्ण (चैतन्य) एवं धर्म-जाति के प्रति उदासीनता के कारण, कृपा के इच्छुक, जो होते हैं, वे लोग दुर्योधन' को पृथ्वीभार समर्पितकर्ता गुरु एवं शल्य पर निष्ठाकारी भीष्म प्रिय, पर-पक्ष की हानि हेतु कर्ण को लगाने वाले, धर्म-गोत्र से उदासीन कृपाचार्य को चाहने वाले, कौरवों के समान रण में जय प्राप्त नहीं करते। पाद-टिप्पणी : दक्षिण है। दक्षिण दिशा यम की दिशा है। वही १६६. (१) शूरपुर = द्रष्टव्य टिप्पणी श्लोक उस दिशा का राजा है। मृत्यु के पश्चात् मनुष्य का १ : १ : १०७ । तवक्काते अकबरी में उल्लेख है- पैर दक्षिण दिशा की ओर कर दिया जाता है। 'हाजी खाँ हरपुर की तरफ भागा और आदम खां ने मुसलमान भी अपना शव दक्षिण दिशा की ओर पैर तुरन्त उसका पीछा कर पकड़ना चाहा' (४४२- कर गाड़ते है। श्मशान सर्वदा जनस्थान के दक्षिण ४४३ = ६६४)। तवक्काते अकबरी के पाण्डुलिपि में दिशा की ओर बनाया अथवा रखा जाता है। कल्हण 'नलशीरपुर' 'वीरह जूद' और लीथो संस्करण में ने भी इसी अर्थ में दक्षिण दिशा का प्रयोग किया है 'नीशरपुर' दिया गया है। फिरिस्ता के लीथो संस्करण (रा० : १ : २९० )। में 'दीरहपुर' दिया गया है। कर्नल ब्रिग्गस ने 'हीरपुर' पाद-टिप्पणी : लिखा है। कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इण्डिया ( २८३ ) १६८. (१) दुर्योधन : धृतराष्ट्र पिता एवं तथा रोजर्स ने लिखा है कि हाजी खाँ भीमवर आया। गान्धारी माता के शत पुत्रों में ज्येष्ठ । महाभारत परन्तु तवक्काते अकबरी तथा फिरिस्ता ने लिखा है युद्ध का कारण । व्यास ने महाभारत में नाटक कि वह शूरपुर या हीरपुर जाकर, तब भीमवर गया। के खलनायक पात्र तुल्य उसका चित्रण किया है। पाद-टिप्पणी: गदायुद्ध में दक्ष था। सच्चा मित्र था। दुर्योधन १६७. ( १ ) दक्षिण दिशा : मृत्यु की दिशा युधिष्ठिर से छोटा था। दुर्योधन एवं भीम का जन्म Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. ११६८ ) , 7 एक ही दिन हुआ था। दोनों ही गदायुद्ध में पारंगत थे । द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के समान दुर्योधन को भी अस्त्र-शस्त्र का शिक्षा दिया था । पाण्डवों का यह शत्रु था। उन्हे विष खाक्षागृह आदि उपायों द्वारा मार डालने का प्रयत्न किया था । धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को आधा राज्य देकर इन्द्रप्रस्थ में रखा था । मामा शकुनी द्वारा जुआ मे पाण्डवों का राज्य के लिया । पाण्डव वन चले गये । अज्ञातवास किया । वनवास से लौटने पर पाण्डवों का राज्य नहीं लौटाया । अतएव महाभारत का युद्ध हुआ । दुर्योधन मानी तथा हठी था । भीम ने गदायुद्ध के नियमों को तोड़कर, इस पर प्रहार कर मार डाला, क्योंकि गदायुद्ध मे नाभि के नीचे गदा प्रहार नहीं किया जाता । भीम ने नाभि के निम्न भाग जंघा पर प्रहार किया था। श्रीवरकृता ( २ ) द्रोणाचार्य : आंगिरसगोत्रीय भरद्वाज ऋषि के पुत्र थे । कृपाचार्य की बहन इसकी पत्नी थी । उससे अश्वत्थामा पुत्र था । द्रोण का आश्रम गंगाद्वार अर्थात् हरिद्वार में था। बृहस्पति एवं नारद के अंश से द्रोणाचार्य का जन्म, द्रोण कलश में हुआ था । अतएव नाम द्रोणाचार्य पड़ा था। पिता द्वारा ही ऋग्वेद एवं धनुर्वेद का अध्ययन किया। अग्निवेश नामक चाचा ने इनको आग्नेयास्त्र दिया था । विराटराज हुपद द्रोण का सहपाठी या किन्तु कालान्तर में शत्रु हो गया था। कौरव एवं पाण्डव दोनों को इसने अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दिया था । दुर्योधन को युद्ध से विरत रहने के लिये बहुत समझाया परन्तु दुर्योधन ने हठ किया। प्रोगाचार्य ने दुर्योधन की ओर से महाभारत युद्ध में भाग लिया था । दशवें दिन कौरवों के प्रथम सेनापति भीष्म की मृत्यु के पश्चात् द्रोणाचार्य कौरवों के सेनापति हुए। युद्ध के पन्द्रहवें अर्थात् अपने सेनापतित्व के पाँचवें दिन इनका देहावसान अश्वत्थामा मर गया यह समाचार उड़ाकर किया गया । पुत्रशोक से द्रोणाचार्य युद्धभूमि में विह्वल हो गये । इस परिस्थिति में धृष्टघुम्न ने निःशस्त्र द्रोण का संग से वध कर दिया । ५५ युद्ध कौरवों की ओर से कर रहे थे परन्तु सहानुभूति इनकी पाण्डवों के साथ थी । (३) शल्य वाल्हीक एवं मद्र देश के राजा शल्य थे । पाण्डव नकुल एवं सहदेव के सगे मामा थे । उनकी माता माद्री शल्य की बहन थी । माद्री पाण्डु के साथ सती हो गयी थी । कुन्ती ने अपने पुत्रों के समान नकुल एवं सहदेव का लालन-पालन किया था । महाभारत युद्ध मे अपने भानजो की ओर से युद्ध में सम्मिलित होना, शल्य के लिये स्वाभाविक था । वह सेना सहित पाण्डवों की सहायता के लिये चला । मार्ग में दुर्योधन ने इसका इतना स्वागत किया कि कौरव पक्ष मे सम्मिलित हो गया । युधिष्ठिर ने उसे कर्ण के तेज भंग कराने की प्रतिज्ञा कराया । यह अतिरथी था। महाभारत युद्ध मे कर्ण का सारथी बन कर उसे हतोत्साहित करता था। उपहासपूर्ण ववनों द्वारा कर्ण का इसने तेज भंग किया था । कर्णवध के पश्चात् कौरवों का सेनापति हुआ । केवल आधा दिन इसने सेनापतित्व किया था । युधिष्ठिर के द्वारा पौष कृष्ण अमावस्या के दिन युद्धस्थल में मारा गया वह कौरवपक्ष से युद्ध करता था परन्तु इसकी सहानुभूति पाण्डवों के साथ थी । (४) भीष्म: कुरु राजा शन्तनु एवं माता गंगा से इनकी उत्पत्ति हुई थी । आठवें वसु के अंश से उत्पन्न हुए थे । बाल ब्रह्मचारी थे । भीष्म का शाब्दिक अर्थ भयंकर है। पराक्रमी एवं ध्येयनिष्ठ राजर्षि रूप में व्यास ने महाभारत मे इनका चरित्र चित्रण किया है । इन्हें गागेय कहा जाता है । शन्तनु ने हस्तिना पुर में लाकर उन्हे युवराज बनाया था। कालान्तर में भीवर कन्या सत्यवती पर शन्तनु आसवत हो गये। धीवर ने राजा को सत्यवती देना इसलिये अस्वीकार किया कि भीष्म के रहते, उसका पुत्र राजा नहीं हो सकेगा । पितृसुख के लिये भीष्म ने आजन्म अविवाहित ब्रह्मचारी रहकर 'सत्यवती के पुत्रों की Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैनराजतरंगिणी [१:१:१६८ रक्षा करने तथा उन्हे राज्य पर, शोभित करने की उसके राजपुत्र न होने के कारण करते थे। दुर्योधन ने प्रतिज्ञा किया। पिता ने भीष्म के त्याग पर उसे इसे मान्यता दिया। दोनों मित्र हो गये। द्रौपदी इच्छामृत्यु प्राप्त का वर दिया। सत्यवती का पुत्र स्वयंम्बर में द्रौपदी ने उसे सूतपुत्र कहकर, विवाह चित्रांगद राजा बना। गन्धर्वो से युद्ध में वह मारा करने से अस्वीकार कर दिया। कौरव-पाण्डव महागया। सत्यवती के आदेश से विचित्रवीर्य भारत युद्ध में इसने कौरवों की ओर से भाग लिया राज सिंहासन पर बैठा। विचित्रवीर्य के विवाह के था। कुंती ने अपना भेद कर्ण पर प्रकट किया। लिये काशिराज की कन्या अम्बा, अंबिका एवं कर्ण ने चारो पाण्डवों को न मारने की प्रतिज्ञा अम्बालिका का हरण किया। अम्बा ने कहा कि वह किया । केवल अर्जुन से युद्ध करने की बात दुहराई । विवाह नही करेगी। क्योंकि वह मन से शल्य का द्रोणाचार्य के पश्चात् कर्ण महाभारत युद्ध का सेनावरण कर चुकी थी। भीष्म ने उसे छोड़ दिया। पति हुआ। कर्ण महान दानी था। उसने अपना शाल्य ने उससे विवाह करना अस्वीकार कर दिया। कवच एवं कुण्डल भी उतार कर इन्द्र को दे दिया अम्बा ने भीष्म से विवाह करने के लिये कहा । भीष्म था। युद्ध के समय उसका पुत्र वृषसेन मारा गया। ने अस्वीकार कर दिया। अम्बा भीष्म से विवाह हेतु इसका रथ युद्धक्षेत्र मे फंस गया था। कर्ण उतर तपस्या करने लगी। एक दिन उसके नाना होत्र- कर पहिया निकालने लगा। निशस्त्र कर्ण पर कृष्ण वाहन सृजय ने उससे परशुराम से सहायता लेने के के संकेत पर, अर्जुन ने इसी समय बाण प्रहार कर लिये सुझाव दिया। परशुराम तथा भीष्म में चार मार डाला। कर्ण यद्यपि कौरवों के पक्ष से युद्ध कर दिनों तक इस बात को लेकर युद्ध हुआ। परशराम रहा था और सच्चाई से युद्ध किया परन्तु अर्जुन के हार गये। भीष्म ने विवाह नही किया। अम्बा अतिरिक्त शेष पाण्डवों को न मारने की प्रतिज्ञा भीष्म को मारने के लिये तपस्या करती रही और किया था। शिखण्डी रूप में जन्म लिया। (६) कौरव : कुरुवंशियों को कौरव कहा गया ___कौरव-पाण्डव युद्ध में भीष्म कौरवपक्ष से युद्ध है। चन्द्रवंशी राजा ययाति के पुत्र पुरु थे। उनसे किये । प्रथम सेनापति थे । उनकी सहानुभूति पाण्डवों पौरव वंश चला। इस वंश मे एक प्रतापी राजा के साथ थी। युद्ध में हत हो गये। शरशय्या पर कुरु हुए। कुरु के नाम पर कुरुदेश, कुरुक्षेत्र तथा पड़े रहे । सूर्य के उत्तरायण होने पर, प्राण त्याग करुजग्गल स्थानों का नाम पड़ा। इनकी एक शाखा किया। उत्तर कुरु नाम से प्रसिद्ध हुई। मनुस्मृति में कुरु, (५) कर्ण : अविवाहित अवस्था में कर्ण कुन्ती मत्स्य, पांचाल एवं शौरसेन को ब्रह्मर्षियों का देश के गर्भ से सूर्य द्वारा उत्पन्न हुआ था। जन्म लेते ही माना है। इसी वंश में कौरव एवं पाण्डव हुए थे। कुन्ती ने कर्ण को अश्व नदी में प्रवाहित कर दिया। वे एक ही कुरु वंश की शाखा थे। हस्तिनापुर कौरव वह बहता-बहता चर्मणवती नदी में आया। वहाँ तथा इन्द्रप्रस्थ पाण्डवों की राजधानियाँ थीं। महासे यमुना एवं भागीरथी में बहता आया। भारत युद्ध के पूर्व जिन पाँच गाँवो को युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र के सारथि अधिरथ ने उसे देखा। जल से मांगा था उनमें सोनप्रस्थ तथा पाणिप्रस्थ भी थे। वे निकाल कर, अपनी पत्नी राधा को पालन के लिये आधुनिक सोनपत एवं पानीपत है। बौद्धसाहित्य में दे दिया। कर्ण पर जन्मजात कवच एवं कुण्डल थे। सोलह जनपदों में कुरु का उल्लेख किया गया है। राधा ने उसका नाम वसुषेण रखा। द्रोणाचार्य से कुरु वंश में शन्तनु हुए। शन्तनु के पुत्र चित्रांगद शस्त्र विद्या सीखा । • कर्ण का अपमान पाण्डव आदि एवं विचित्रवीर्य थे। विचित्रवीर्य की रानियों से दो Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : १ : १६९-१७० ] श्रीवरकृता अन्येबुर्हतशिष्टांस्तान् भृत्यानानीय पूर्ववत् । हाज्यखानः सानुतापश्चिभदेशे स्थितिं व्याधात् ॥ १६९ ।। १६९. दूसरे दिन मरने से बचे, उन भृत्यों को लाकर, पश्चाताप युक्त, हाजी खाँ ने पूर्ववत् चिभ देश में अपनी स्थिति बनायी। खिन्नानाश्वासयन् कांश्चित् संभिन्नान् प्रतिपालयन् । भक्षयन् क्षुधयाक्षीणान् नगाग्रे सोऽनयन्निशाम् ।। १७० ॥ १७०. कुछ दुःखियों को आस्वस्थ तथा हतों को प्रतिपालित एवं क्षुधा क्षीण जनों को खिलाते हुए, पर्वत के ऊपर रात्रि व्यतीत किया। नियोगज पुत्र धृतराष्ट्र एवं पाण्डु हुए। धृतराष्ट्र थे। डोगरा हिन्दू रह गये और चिभाली मुसलिम धर्म जन्मान्ध थे। अतएव पाण्डु को राजसिंहासन प्राप्त स्वीकार कर लिये । मुसलिम जाट भी चिभाली जाति हआ। पाण्डु का शीघ्र ही देहावसान हो गया । धृत- में मिल गये हैं। वे कृषक कार्य करते है। पूर्वीय राष्ट्र ने शासनसूत्र सम्हाला । धृतराष्ट्र के दुर्योधनादि चिभाली अंचल के मुसलमान ठाकुर है। उनमे उच्च एक शत तथा पाण्डु को पाँच पुत्र हुए। वे क्रम से वर्ग के सुदन कहे जाते हैं। चिवाली लोगों का रूप कौरव एवं पाण्डव कहे गये। महाभारत युद्ध के डोगरों से मिलता है, केवल मुसलिम चिभाली अपनी पश्चात् युधिष्ठिर राजा हुए। कृष्ण की मृत्यु के मूछ बीच से अर्थात नाक के नीचे छटा देते है। पश्चात् युधिष्ठिर भाइयों तथा द्रौपदी सहित हिमालय शताब्दी पूर्व मुसलमान तथा हिन्दुओं में परस्पर मे प्राण त्याग निमित्त चले गये । अर्जुन के पौत्र तथा विवाह होता था। दोनों ही अपने धर्म को मानते अभिमन्यु का पुत्र परीक्षित राजा बना । परीक्षित के थे । अपने घरों में मसलमान देवता भी रखते थे । पश्चात् जनमेजय राजा हुए। जनमेजय के तीसरी परन्तु यह सब अब लुप्त हो गया है। पीढी में अधिसीम कृष्ण राजा हुआ। उसके समय परशियन इतिहासकार लिखते है कि हाजी खाँ सबसे पहले नैमिषारण्य मे महाभारत तथा पुराणों हीरपुर अपने शेष साथियों के साथ भाग आया और का परायण हुआ। अधिसीम कृष्ण का पुत्र निचक्षु वहाँ से भीमवर चला गया (म्युनिख : पाण्डु : ७५. ए. था। वह हस्तिनापुर का अन्तिम राजा था। बी. तवक्काते अकबरी : ३ : ४४२-४३ = ६६४) । हस्तिनापुर गंगा में बह गयी। राजा तथा प्रजा फरिस्ता दूसरे स्थान पर नाम देता है-'हाजी प्रयाग के समीप आकर वत्स क्षेत्र में शरण लिये। खाँ अपनी सेना को पुनः एकत्रित कर वहाँ अपनी पाद-टिप्पणी: स्थिति बनाकर 'नीरे' नगर लौटा आया (४७२) । १६९. (१) चिभदेश = भीमवर श्रीदत्त ने चिभ द्रष्टव्य : पाद-टिप्पणी जैन० : १:१ : ४७ । को चित्र लिखा है। कलकत्ता तथा बम्बई संस्करणों तवक्काते अकबरी के पाण्डुलिपि में 'ववज' 'वनीर' में 'चित्र' शब्द मिलता है। दत्त ने भी चित्र ही तथा 'वनीर' और लीथो संस्करण में 'नीर' और लिखा है। परन्तु चित्र नामक कोई देश नहीं है। फिरिस्ता के लीथो संस्करण मे 'नीर' दिया गया है। चिभ देश कश्मीर के सीमान्त दक्षिण में है । अतएव रोजर्स तथा कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इण्डिया में लिपिक की गल्ती से 'चिभ' को 'चित्र' लिख दिया 'भीमवर' दिया गया है ( ३ : २८३ )। गया है। पाद-टिप्पणी: चिव राजपतों की एक उपजाति है। चिभाली १७०. कलकत्ता के 'अक्षवम' के स्थान पर मुसलमान भी पूर्वकाल में चिव या डोगरा जाति के बम्बई का 'अक्षपन' पाठ उचित है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:१७१-१७४ मा बाधिष्ट सुतं कश्चिन्मत्परो वातिविह्वलः । इति कारुणिको राजा न्यवर्तत रणाद् द्रुतम् ।। १७१ ॥ १७१. 'मेरे पक्ष का कोई पुत्र का वध' न करे'-इस प्रकार अतिविह्वल होकर, दयालु राजा युद्ध से शीघ्र परावृत हो गया। आसिष्ये सुखितः सुतार्पितभरो बुद्धेति दत्ता निजा राष्ट्रेशा वरसेवकाः सतुरगाः संवर्धिता ये मया । तेऽमी राज्यजिहीपेवः सुतरता युद्धाय मय्यागता धिमां येन नयोज्झितेन घृणयानर्थः स्वयं स्वीकृतः।। १७२ ।। १७२. सुतपर भार रखकर, सुख से रहूंगा, यह विचार कर, अपने जनों को राजपुरुषों जो अश्व तथा लोगों से घिरे रहते थे, अपने प्रिय मुख्य सेवकों को राष्ट्र का स्वामित्व दिया, परन्तु धिक्कार है, वे उससे लड़ने आये। उसने स्वयं अपने को दोष दिया कि अपनी कृपा में उसने विवेक से काम नहीं लिया। इत्यादि विमृषन् राजा स्वपुरं दुःखितोऽगमत् । विरोधादायिनो निन्दन् सेवकान् विधिकर्मणा ।। १७३ ॥ १७३. इस प्रकार विचार करते तथा विरोधियों की निन्दा करते हुये, दुःखित राजा अपने नगर गया। संग्राममृतवीरेन्द्रच्छिन्नमस्तकपङ्क्तिभिः । आनीय राजा नगरे मुखागारमकारयत् ।। १७४ ॥ १७४. राजा ने नगर' में लाकर, संग्राम में मृत बीरों के छिन्न मस्तक पक्तियों से मुखागार (मीनार) का निर्माण कराया। पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी: १७१. (१) वध = आदम खाँ पीछा कर रहा १७४. बम्बई तथा कलकत्ता संस्करणों मे 'सुखाथा । अतएव सुलतान हाजी खाँ के जीवन बचाने की गार' शब्द है । शत्रुओं के मुण्डों को देखकर सुख दृष्टि से आदेश दिया कि कोई भी हाजी खाँ का वध मिलता था। अतएव 'सुखागार' भी अर्थ हो सकता न करे ( म्यूनिख पाण्डु० : ७५ ए. बी.,)। है । परन्तु 'मुखागार' अधिक अभीष्ट है । मुसलमानों में शत्रुओं के मुण्डों को एकत्र कर मीनार बनाना तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-आदम खाँ ने साधारण प्रथा थी। अतएव मुखागार मानकर अर्थ उसका पीछा किया और उसे (हाजी खाँ) बन्दी किया गया है। बना लेने का प्रयत्न किया किन्तु सुलतान ने उसे इस (१) नगर = श्रीनगर। बात की आज्ञा न दी ( ४४३ = ६६४)। (२) मुखागार = यह मीनार है। मुसलिम फिरिस्ता लिखता है-आदम खाँ ने हरपुर से देशों तथा सुलतान अपने विरोधियों को मारकर हाजी खाँ का पीछा किया किन्तु पिता ( सुलतान) उनके मुण्डों पर मीनार बनाते थे। वे विजयस्तम्भ ने उसे और पीछा करने से मना कर दिया (४७२)। के प्रतीक मान लिये जाते थे। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : १ : १७५ ] श्रीवरकृता इत्थं सेवक पैशुन्यात् समरे तत्र तद्वर्षे पितापुत्रविरोधतः । वीरलोकक्षयोऽभवत् ।। १७५ ।। १७५. इस प्रकार सेवकों की पिशुनता से पिता-पुत्र के विरोध के कारण, उस वर्ष वहाँ में वीरों का विनाश हुआ। युद्ध अलाउद्दीन खिलजी ने मुगलों के मुण्डों पर मीनार का निर्माण कराया था। यह मीनार अर्ध भग्नावस्था में सन् १९५२ ई० मे मौजूद थी, जब मैने उसे प्रथम बार देखा था। वह हौज खास के चौराहे के समीप दिल्ली से महरौली जाने वाली सड़क के वाम पाप मे थी। उन दिनों सफदरजंग से महरौली तक न तो आबादी थी और न कोई इमारत बनी थी । केवल सफदरजंग हवाई अड्डा तथा तत् सम्बन्धी कुछ इमारते थीं। कुतुबमीनार के पास एक टी० बी० का अस्पताल था । आज सन् १९७१ ई० में सफदरजंग से महरौली तक इमारते बन गयी है । उस समय अलाउद्दीन के मीनार के पास पठान शैली की मसजिदें बनी थीं। कुछ मजारे भी थी। आज बहुत कुछ समाप्त हो गया है। मजारों का पता नही है । केवल मीनार का कुछ अंश शेष रह गया है । पीरहसन लिखता है—मुखालिकों के सरों का एक ऊँचा मीनार बनवाया। और हाजी खाँ के लश्कर के कैदी कतल कर डाले । ( पृ० १८४ ) ५३, द्रष्टव्य : म्युनिख पाण्डु : ७५ ए. तथा तवकाते अकबरी : ३ : ४४३ तबकाते अकबरी में उल्लेख है-हाजी सां ने हीरपुर से नवर पहुँचकर घायलों का उपचार आरम्भ किया। सुलतान विजयोपरान्त कश्मीर (श्रीनगर) पहुँचा । उसने आदेश दिया – 'शत्रुओं के सिर का मीनार तैयार किया जाय।' हाजी खाँ की सेना के बन्दियों की हत्या कर दी गयी और आदम खाँ ने उन लोगों को जिन्होंने हाजी खाँ को मार्गभ्रष्ट किया था, बन्दी बनाकर करल कर दिया तथा उनके परिवारों को कष्ट पहुँचाया। इस कारण अधिकांश लोग पुक होकर आदम खाँ के पास पहुँच गये ( ४४३ = ६६४) । । फरिस्ता लिखता है— उसी समय सुल्तान राजधानी लौटकर एक मीनार अथवा (खम्भा ) वनवाया उसके चारों तरफ उन विद्रोहियों का सर लटकवा दिया- जो युद्ध मे बन्दी बनाकर मार डाले गये थे ( ४७२ ) । सुलतान के प्रकृति के विरुद्ध यह क्रूर कार्य प्रतीत होता है 'मुखागार का अर्थ अभी स्पष्ट नहीं है। यदि पाठभेद सुखागार मान लिया जाय तो उसका अर्थ प्रासाद निर्माण होगा। मुण्टों का प्रासाद या सुखागार कैसे बनेगा समझ मे नहीं आता । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:१७६ राज्यस्थितिप्रविकसन्नलिनीहिमौघो लोकक्षयोचितमहाभयधूमकेतुः विघ्नप्रसक्तखलघूकनिशान्धकारः । शापः सुखस्य नृपतेः स्वजनैर्विरोधः ॥ १७६ ।। इति पण्डितश्रीवरविरचितजैनराजतरंगिण्यां मल्लशिलायुद्धवर्णनं नाम प्रथमः सर्गः ॥ १ ॥ १७६. सुखी राजा के लिये अपने जनों से विरोध होना शाप है, जो विकसित होते, रूपनलिनी के लिये हिमपुंज, लोक के विनाश समर्थ महाभयकर धूमकेतु' एवं विघ्न में लगे दुष्ट उलकों के लिये निशान्धकार है। पण्डित श्रीवर विरचित जैन राजतरंगिणी में मल्ल शिला युद्ध वर्णन प्रथम सर्ग समाप्त हुआ। पाद-टिप्पणी : सूचक धूमकेतु के उदय का वर्णन प्रायः सभी १७६. उक्त श्लोक कलकत्ता तथा बम्बई काश्मीरी लेखकों ने किया है। धूमकेतु के उदय होते संस्करण का १७६ वां श्लोक है। ही काश्मीरी धारणा है कि देश पर भयंकर विपत्ति उक्त श्लोक के पश्चात् निम्नलिखित श्लोक आ जाती है। शुक ने धूमकेतू के परिणामों का कलकत्ता संस्करण मे और मुद्रित है। उल्लेख विस्तार से किया है (२: ८९ )। केतु श्री मान सिहनृपते तव नाम वर्णाः एक प्रकार का तारा है । उसमे चमकती पूँछ दिखायी पञ्चेषु पञ्च विशि खन्ति नितम्बिनीषु । देती है । इसे पुच्छल तारा भी कहते है। इस प्रकार प्राणन्ति वन्धुषु विरोधिषु पाण्डवन्ति के अनेक तारा है, जो रात्रि मे झाड़ के समान दिखायी देवद्रुमन्ति कवि पण्डित मण्डलेषु ॥ देते है। ज्योतिषियों में इनकी संख्या के विषय में 'हे ! श्रीमान सिंह नृपति ! तुम्हारे नामाक्षर। मतैक्य नहीं है। फलित ज्योतिष के अनुसार भिन्न भिन्न केतुओं का भिन्न-भिन्न परिणाम होता है। पंचवाण (कामदेव ) के पंचवाण तथा भाइयों केतु उदयकाल के पन्द्रह दिन के भीतर अपना फल में प्राण एवं विरोधियों में पाण्डव तथा कवि पण्डित प्रकट करता है। मण्डलियों में देवद्रुम का आचरण करते हैं।' विष्णुधर्मोत्तरपुराण मे धूमकेतु के विषय में कलकत्ता में १७७ तथा बम्बई में १७६ श्लोक एक कथा दी गयी है । प्रजा की अत्यन्त वृद्धि देखकर हैं। कलकत्ता में उक्त श्लोक और अधिक छपा ब्रह्मा ने मृत्यु नामक एक कन्या उत्पन्न किया। उसे है, जो श्रीवर कृत नही परन्तु लिपिक द्वारा प्रजा संहार करने के लिये आदेश दिया। कन्या संहार श्लोक 'श्रीमानसिंह नृपति' बढ़ाया गया है। का आदेश सुनकर रुदन करने लगी। उसके अश्रुओं श्री मानसिंह नृपति के समय पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि ने अनेक व्याधियों को उत्पन्न किया। उसने तप कराई गयी होगी अतएव श्रीवर कृत पर नहीं है। यह किया । तप क का किया। तप के कारण उसे वर मिला। उसके बम्बई प्रति में भी नहीं है। अतएव उसे निकाल देने कारण किसी की मृत्यु नहीं होगी। कन्या ने एक पर श्लोक संख्या १७६ हो जाती है। इस प्रकार दीर्घ निश्वास त्याग किया। उससे केतु उत्पन्न हुआ। बम्बई तथा कलकत्ता दोनों की श्लोक संख्या समान केतु को एक शिखा भी थी। इसे ही केतु या धूमकेतु होती है। कहते है ( १ : १०६) । आधुनिक वैज्ञानिक मान्यता (१) धूमकेतु : धूमकेतु का परिणाम क्षत्रभंग, के अनुसार धूमकेतु के अयाम, नामकरण, कक्षा, मूलतत्व, घनत्व, प्रकाश आदि पर विशद ग्रन्थ अकाल, युद्ध इत्यादि अमंगल कार्य होता है । अनिष्ट- उपलब्ध है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः सर्गः भूभृतो निर्गता प्रेमसरित् प्रोच्चानुजच्छलात् । प्रत्यावृत्ता कियत्कालं शुद्धाग्रजमशिश्रियत् ॥ १ ॥ १ राजा का प्रेम अनुज के छल के कारण (उससे) परावृत होकर, शुद्ध अग्रज (ज्येष्ठ भ्राता) का आश्रय लिया। जिस प्रकार पर्वत से निकली नदी, उन्नतावनत भूमिष्ट स्थान से सम (भूमि) का आश्रय लेती है। यत् स्नेहभागी सुदशाभिरामो ___भाति प्रदीपः समुपास्य पात्रम् । आशाप्रकाशैकनिधेस्तदारादसंनिधानेन विरोचनस्य ॥ २॥ २. दिशाओं के प्रकाशनिधि सूर्य का सन्निधान न होने से ही, स्नेह (तैल) युक्त एवं सुन्दर दशा (बत्ती) से शोभित, प्रदीप पात्र पाकर, सुशोभित होता है। ददावादमखानाय नायकः स क्षितेस्तदा । प्रमेयान् क्रमराज्यस्थाननुजीयान् विरागतः ॥ ३ ॥ ३. तदनन्तर वह पृथिवीपति विराग से क्रमराज्य' गत प्रमेय (विश्वास योग्य) अनुजीव्य जनों को आदम खाँ के आधीन कर दिया। पाद-टिप्पणी : (२) प्रमेय = जागीर : श्रीवर ने इसी अर्थ मे १. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का प्रमेय शब्द का पुनः उल्लेख (१:४:४९ ) १७८वीं पक्ति तथा बम्बई एवं संस्करण का प्रथम किया है । श्लोक है। फिरिस्ता लिखता है-इस समय सुलतान ने पाद-टिप्पणी: आदम खाँ को गजरज (क्रमराज्य ) एक सेना के ३.(१) क्रमराज्य = कामराज : या कमराज। साथ भेजा कि वहाँ के कोट पर वह जाकर, आक्रमण Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन राजतरगिणी जगृहे स च हाज्ये धरखानीयं वित्तौघं गृहग्रामादि देवगम् । पानीयमिव वाडवः ।। ४ ।। ४. उसके हाजी (हैदर ) ' खाँ के गृह ग्राम आदि धन समूह को, उसी प्रकार ग्रहण कर लिया, जिस प्रकार बड़वाग्नि जल को । ततः प्रभृति ज्येष्ठः स कश्मीरान्तनु पाग्रगः । यौवराज्ये सुखं तद्वद् बुभुजे पञ्चशः समाः ॥ ५ ॥ ५. तब से नृप का अग्रगामी, वह ज्येष्ठ पाँच वर्ष, उसी के समान भोग किया । करे और वहाँ उसने बहुत से लोगों को जिन्होंने विद्रोह उभाडा था, पकड़ कर हाजी खाँ ने उनका वध करवा दिया और उनकी सम्पतियाँ ले ली । उसके इस कार्यवाही से हाजी खाँ के जो कुछ सैनिक साथी बच गये थे, वे भी हाजो खाँ का साथ त्याग कर आदम खाँ के साथ हो गये ( ४७२ ) । पाद-टिप्पणी : ४. ( १ ) हैदर : हाजी खाँ ही हैदर शाह है। शाहमीर वंश का नव सुलतान पिता जैनुल आवदीन की मृत्यु के पश्चात् हुआ था । अग्रज अर्थात् ज्येष्ठ भ्राता आदम खाँ को कभी सुलतान बनने का अव सर नहीं मिला। [१:२:४-५ पाद-टिप्पणी: ५. (१) यौवराज्य जोनराज ने युबराज पद का उल्लेख ( ३२९, ४८५, ६८८, ७०२ तथा ७३२ ) किया है । सुलतान कुतुबुद्दीन ने हस्सन को युवराज बनाया था। पीर हसन लिखता है— सुलतान ने इस वाकया के बाद आदम खाँ को अपना वलीअहद बनाकर इन्तजाम और आवादी मुल्क में मशगूल हुआ ( पृष्ठ १८४ ) । भारतीय सुलतानों ने इस प्राचीन भारतीय प्रथा को स्वीकार कर लिया था । परशियन में इस पद का नाम वलीअहद है । शुक भी उल्लेख करता है कि मुहम्मद शाह ने शाह सिकन्दर को अपना (आदम ख) काश्मीर के अन्दर यौवराज्य' पद . युवराज बनाया था ( १ : ९४ ) । कौटिल्य ने एक पूरा अध्याय युवराज के विषय मे लिखा है ( १ : १७ ) । युवराज का भी अभिषेक होता था । राजा के शासनकाल मे कनिष्ठ भ्राता अथवा ज्येष्ठ पुत्र युवराज बनाया जाता था (रामा० : अयो० : ३, ६; काम० : ७ : ६; शुक्र० २ १४ - १६) । राम ने लक्ष्मण के अस्वीकार करने पर भरत को युवराज बनाया था ( रामा० : युद्ध० : १३१ : ९३ ) । युधिष्ठिर ने भीम को युवराज बनाया ( शान्ति० : ४१) । राज्य के भिन्न भागों में युवराज अथवा राजकुमार राज्यपाल बनाकर भेजे जाते थे । बिन्दुसार ने अशोक को तक्षशिला शासक बना कर भेजा था । अशोक ने कुणाल को तक्षशिला आमात्यों के अत्याचार से आसन्न विद्रोह दमन करने के लिये भेजा था। हाथी गुम्फा खारवेल अभिलेख से प्रकट होता है कि खारवेल स्वयं ९ वर्षों तक युवराज पद पर था । युवराज का नाम मन्त्रियों की प्राचीन मान्यता नुसार सूची में नाम नहीं मिलता। किन्तु उसे १८ तीर्थों में एक माना है ( शुक्र : २ : ३६२-३७० ) । शुक्र ने युवराज एवं आमात्य दल को दो बाहू तथा आँखें है, लिखा है ( शुक्र : २ : १२ ) । युवराज को वेतन मन्त्री, पुरोहित, आमात्य, सेनापति, रानी एवं राजमाता के समान मिलता था । कौटिल्य ने युवराज को (११२) अट्ठारह तीर्थों में एक तीर्थ माना है। मथुरा सिहस्तम्भ तथा चन्द्रावती Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:२:६-७ ] येषां श्रीवरकृता सुखं वितनुते विधिरन्नवृद्धथा दुर्भिक्षदुःखमपि संतंनुते स तेषाम् । वृष्टया विवर्धयति यानि तृणानि मेघस्तान्येव शोषयति सर्वशस्यसमृद्धेऽस्मिन् अकस्मादभवच्चैत्रे भावितुषारभारात् ।। ६ ॥ ६. विधाता जिन लोगों को अन्न वृद्धि करके सुख देता है, उन्हीं को वह दुर्भिक्ष दुःख भी प्रदान करता है। मेष वृष्टि द्वारा जिन तृणों को वर्धित करता है, भविष्य में तुषारपात से उन्हें सुखा भी देता है। ६३ षट्त्रिंशवत्सरे । पांशुवर्षणम् ॥ ७ ॥ भारतीय शासन पद्धति के अनुसार राजा किसी व्यक्ति को युवराज बना सकता था। युवराज के भी मन्त्री होते थे । उन्हें युवराज पादीय कुमारामात्य कहा जाता था । गहड़वाल नरेशों के अभिलेखों मे राजा, राज्ञी, युवराज, मन्त्री, पुरोहित, प्रतिहार तथा सेनापति का उल्लेख मिलता है। युवराज प्रायः पुत्र बनाया जाता था। जैनुल आबदीन ने सर्वप्रथम अपने अनुज महमूद तत्पश्चात आदम खाँ ( १ : २ : ५ ) तत्पश्चात हाजी खाँ को (१ : ३ : ११७) युवराज बनाया था । मृत्यु काल में किसी को नही बनाया । हैदर शाह जब सुलतान हुआ, तो अपने चाचा बहराम खाँ को युवराज पद देने का प्रस्ताव रखा था। सुलतान कुतुबुद्दीन को कोई सन्तान नहीं थी उसने हस्सन को युवराज बनाने का निश्चय किया था ( जोन० : ४८५ ) । सुलतान जमशेद ने अपने भाई अलाउद्दीन को युवराज बनाया था ( जोन० ३२९ प्रष्टव्य म्युनिख पाण्ड० ७५ ए०, तवकाते अकबरी : ३ : ४४३ तारीख हसन देशे गगनात् ७. हर प्रकार के फसल से सम्पन्न इस देश में, ३६' वें वर्ष के चैत्र मास में, आकाश से अकस्मात धूल वृष्टि हुई 1 के चन्द्रदेव कन्नौज में तीन उल्लेख मिलता है (इ०: पाण्डु० : २ १०३ बी०; जोन० : ६८८, ७०२ आई० : ९ : ३०२, ३०४ ) । तथा ७३२ ) । ( २ ) ६ वर्ष : फिरिस्ता लिखता है -सुल्तान ने इस समय आदम खाँ को अपना प्रतिनिधि तथा युवराज घोषित कर दिया । आदम खाँ ने वहाँ ६ वर्ष वर्ष तक शासन किया ( ४७२ ) । तवकाते अकबरी में भी उल्लेख है— तत्पश्चात आदम खाँ ने देश का ६ वर्ष तक पूरे अधिकार के साथ शासन किया ( ४४३ = ६६५ ) | कर्नल विग्गस तथा रोजर्स भी लिखते हैं कि आदम खाँ राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया। कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया में लिखा है-आदम खाँ अब श्रीनगर में अपने पिता के साथ ६ वर्षों तक रहा और राज्य के प्रशासन में अधिक भाग लेता था ( ३ : २८३ ) । पाद-टिप्पणी : श्रीवर दुर्भिक्ष का वर्णन आरम्भ करता है। ७. ( २ ) छत्तीसवें वर्ष : सप्तर्षि ४५३६ = सन् १४६० ई० = विक्रमी १५१७ सम्बत = शक १३८२ - कलि गताब्द ४५६१ वर्ष । पीर हसन हिजरी ८७५ अकाल का समय देता है ( पृ० १८४) । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:२८ बभूव वर्षः षट्त्रिंशः सर्ववृष्णिकुलक्षयात् । भयकृत् सर्वजन्तूनां भारतादिति विश्रुतम् ॥ ८॥ ८. सभी प्राणियों के लिये ३६ वा वर्ष भयकारी होता है। महाभारत में सब यदुवंशियों के विनाश होने से प्रसिद्ध है। (२) धूल वर्षा : यह अशुभ तथा भावी दिया गया। और नगर में घोषणा कर दी गयो कि विपत्ति का सूचक माना जाता है। कोई मदिरापान न करे। पाद-टिप्पणी: अन्धक एवं वृष्णियों ने सकुटुम्ब तीर्थयात्रा का ८. (१) सत्तीसवाँ वर्ष : द्रष्टव्य टिप्पणी : संकल्प किया । वे खाद्य एवं पेय सामग्रियों के साथ (१ : २ : ७)। महाभारत मौसलपर्व (१:१) द्वारका से प्रभासक्षेत्र मे आ गये । वह स्थान नट, मे उल्लेख मिलता है नर्तन, एवं वाद्यों से पूर्ण हो गया। प्रभासक्षेत्र मे षटत्रिशे त्वथ सम्प्राप्ते व कौरवनन्दनः । यादवों ने मद्यपान आरम्भ किया। श्रीकृष्ण के ददर्श विपरीतानि निमित्तानि युधिष्ठिरः ॥१:१ समीप ही कृतवर्मा, बलराम, सात्यकि, वभ्र एवं गद मद पीने लगे । सात्यकि मद से मत्त होकर कृतवर्मा षट्त्रिंशेऽथ ततो वर्षे वृष्णी नाम नयो महान् । का उपहास करने लगे। उसने रात्रि में निहत्थों अन्योन्य मुसलस्ते तु निजघ्नुः काल चोदितः । १:१३ की शयनावस्था मे हत्या किया था। प्रद्युम ने भी (२) यदुवंश : कुलक्षय, वंश विनाश जाति कृतवर्मा का तिरस्कार किया। कृतवर्मा क्रोधित हो संहार की जहाँ उपमा देनी होती है, वहाँ यादव । गया, बायें हाथ की उँगली से निर्देश करता हुआ बोलावंश संहार की बात की जाती है। इसका गुरुत्व 'तुमने हाथ कटे निहत्थे रणक्षेत्र मे उपवास के लिये इसलिये अत्यधिक है कि भगवान कृष्ण, बलराम की बैठे भूरिश्रवा की हत्या क्यों की ?' सात्यकि क्रोधपूर्वक उपस्थिति में संहार हआ और वे रोक नहीं सकेर उठा और कृतवर्मा का मस्तक काट दिया। परस्पर सात्यकि जैसे महाभारत के महारथी द्वारा संहार संघर्ष आरम्य हो गया। कृष्ण उसे रोक न सके । का आरभ्य हुआ और उससे कोई बच नही सका। भोज एवं अन्धक वंशियों ने सात्यकि को घेर लिया। एक समय महर्षि विश्वामित्र, कण्व एवं नारद सात्यकि को घिरा देखकर प्रद्युम्न उसे बचाने के जी द्वारिका गये थे । यदु वालक सारण आदि साम्ब लिये कूद पड़े। प्रद्युम्न भोजों तथा सात्यकि अन्धों को नारीवेश में विभूषित कर मुनियों के सम्मुख ले से भिड़ गये। देखते-देखते दोनों ही कृष्ण के सम्मुख गये । उन्होंने कहा-'महात्मन् ! यह वभ्र की पत्नी ही मार डाले गये । कृष्ण ने क्रोधित होकर एक है। कृपया बताइये इसके गर्भ में क्या है ?' महर्षिगण मट्ठी एरका उखाड़ लिया। वह घास उनके हाथ वञ्चनापूर्ण बालकों की बात सुन कर कुपित हो में आते ही मसल बन गयी। कृष्ण के इस कृत्य के गये। वे बोले-'यादवकुमारों! श्रीकृष्ण का यह पश्चात सभी लोगों ने एरका उखाड़ लिये। उनके साम्ब भयंकर लोहे का मूसल उत्पन्न करेगा जो हाथों में आते ही वह मूसल हो गयी। मूसल जो वृष्णि एवं अन्धक वंश के विनाश का कारण होगा। चूर्ण कर समुद्र में फेंका गया था कहावत है कि साम्ब से जब मूसल उत्पन्न हुआ तो वे उसे यदु- उसी से एरक उत्पन्न हो गया था। साधारण तिनका वंशियों के राजा उग्रसेन को दिये । राजा ने उसे ने मसल का रूप ले लिया। उसो मूसल से पिता ने कुटवा कर चूर्ण बना दिया। लोहचूर्ण समुद्र में फेंक पुत्र को और पुत्र ने पिता को मार डाला। उस Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:२:९] श्रीवरकृता अभवन् पत्रपुष्पौधा धूलिधूसरता नताः । भाविदुर्भिक्षपीडार्तजनचिन्तावशादिव ___ ९. धूल-धूसरित एवं पत्र-पुष्पपुज, भावी दुर्भिक्ष की पीड़ा से पीड़ित जनों की चिन्तावश ही, मानो नत हो गये थे। संघर्ष में फातिंगों के समान कूदते, यादववंशी जलने राज के द्वितीय पुत्र का नाम कौशिक था। उसने लगे। कृष्ण ने जब अपने पुत्र साम्ब, चारुदेष्ण, चेदि देश में अपने वंश की राज्य स्थापना की थी। प्रद्युम्न, पौत्र अनिरुद्ध तथा गद को रणशय्या पर विदर्भराज का त्रितीय पुत्र लोमपाद था। सात्वत देखा, तो उन्होंने कुपित होकर, शेष यादवो का भी राजा ने इक्ष्वाकुवंशियों से मथुरा राज्य छीनकर, संहार कर दिया। इस कथा की प्रसिद्धि इसलिए अपना राज्य स्थापित किया था। सात्वत राजा के है कि महापराक्रमी और वीर यादव लोग बाहरी यजमान, देवावृध, वृष्णि एवं अंधक नामक चार पुत्र शत्रु अथवा आन्तरिक शत्रुओं द्वारा नहीं मारे गये थे। उनके नामों से अलग-अलग राजवंशों की बल्कि स्वतः परस्पर लड़ कर मर गये ( मौसल- स्थापना हुई। भजमान शाखा मथुरा में, देवावृत पर्व : १-३)। तथा उसका पुत्र बभ्र ने मार्तिकावत नगरी मे भोज प्राचीन यदु किंवा यादववंश पुरुवंश के समान राजवंश की स्थापना किया था। अंधक राजा के ही प्रसिद्ध तथा भारत के अनेक राजवंशों का स्रोत चार पुत्र थे। उनमें कुकुर एवं भजमान प्रमुख थे । रहा है। यह वंश दो कालों में विभाजित किया जा उन्होंने कुकुर तथा अंधक राजवंशों की स्थापना किया सकता है । क्रोष्टु से सान्वत तथा सान्वत के पश्चात था । कुकुर वंश मे कंस तथा अँधक में कृष्ण हुए थे। इस वंश की अनेक शाखाये हुई । पुराणों में इस वंश वृष्णि राजा के चार पुत्र थे। उन्होंने सुमित्र, युधा १ का वर्णन अत्यधिक किया गया है। तथा राजवंश जित, देवमीढूष तथा अनमित्र राजवंशों तथा की तालिकाएँ भी दी गयी है। क्रोष्ट से परावत शाखाओं की स्थापना की । सुमित्र शाखा में सत्राजित राजा के काल तक राजाओं की तालिका में भेद नही तथा भंगकार, युधाजित में श्वकल्क तथा अक्रूर, है । तथापि कई पुराणों में पथश्रवस, उशनस, रुक्म- देवमीढूप में वसुदेवादि तथा अनमित्र में शिनि युयवचन एवं निवृत्ति राजाओं के पश्चात एक पीढ़ी धान, सात्यकि, असंग आदि थे। वसुदेव के नाम से अधिक दी गयी है। परावृत्त राजा के दो पुत्र थे। वसुदेव वंश हुआ। अंधकवंश की एक शाखा उनमें ज्यामद्य कनिष्ट पुत्र था। उससे यदुवंश विदूरथवंश था। वायु एवं मत्स्य पुराणों में ११ वंश चला था। उसने तथा उसके पुत्र विदर्भ ने विदर्भ- में एक शत यदुवंश की शाखाये दी गयी है राज्य की स्थापना किया था। उसके ज्येष्ठ पुत्र (वायु०:९६ : २५५; मत्स्य : ४७ : २५-२८)। रोमपाद ने विदर्भराज्य की उन्नति की। इसी वंश यदुवंश की शाखाओं का विस्तार दक्षिण भारत में में क्रथ, देवक्षत्र, मधु आदि राजा उत्पन्न हुए थे। भी हुआ था ( हरिवंश० : २ : ३८ : ३६-५१ )। इसी वंश में उत्पन्न हुए सात्वत राजा ने राज्यवृद्धि यदु राजा के एक पुत्र सहस्त्राजित ने हैहयवंश की किया। मध से सात्वत राजा तक राजाओं की स्थापना किया था। हैहयवंश यादववंश की ही एक तालिका में पुराणों में एकवाक्यता नही है। विदर्भ- शाखा पुराणों के अनुसार थी। जै. रा. ९ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : २ : १४-१९ ] श्रीवरकृता छादिताः शालयः खलमूर्खसभामध्ये हिमैर्जनमनोहराः । स्वगुणा इव ॥ १४ ॥ पण्डितैः १४. जब मनोहारी, पके शालियों को हिम ने उसी प्रकार आच्छादित कर लिया, जिस प्रकार खलों एवं मूर्खो के सभा मध्य, पण्डित अपने गुणों को । कुक्ष्यावेगाद् बुभुक्षार्तः क्षपिताक्षः क्षणे क्षणे । पक्का आशु दुर्भिक्षयक्षोऽत्र व्यधात् प्रक्षीणलक्षणम् ।। १५ ।। १५. प्रतिक्षण कुक्षि (पेट) आवेग से भूख पीड़ित क्षपिताक्ष' दुर्भिक्ष, यक्ष ने यहाँ शीघ्र ही विनाश का लक्षण प्रकट किया । प्रविश्य रात्रौ गेहान्तः क्षुद्भक्षद्रोह्यपीडितः । हिरण्यादि धनं त्यक्त्वा भाण्डेभ्योऽन्नमपाहरत् ।। १६ ।। १६. क्षुधाधिक्य से पीड़ित व्यक्ति घर में प्रवेश करके, सुवर्ण इत्यादि धन त्यागकर, पात्रों से अन्न का अपहरण करता था । सर्वस्मिन् दिवसे शरा इवाविशन् देहे गेहे पाद-टिप्पणी : १४. बम्बई का 'स्वगुणा' पाठ ठीक है । पाद-टिप्पणी : ६७ रात्रावपि भिक्षु परम्पराः । धान्यव तदा ॥ १७ ॥ १७. उस समय प्रतिदिन रात्रि में भी भिक्षुओं की परम्परा, शरीर में शर के समान, धान्यपूर्ण घर में प्रवेश करती थी । धान्यवद्गृहसंदिष्टकृष्टकम्बुकदम्बकाः नीरसापूपभोगेनाप्यरक्षन् केsपि जीवितम् ।। १८ ।। १८. धान तुल्य घर में कम्बु ( सीप आदि) को पीसने वाले कुछ लोगों ने नीरस अपूप' खाकर, प्राण की रक्षा की थी । पालीपालीवतासक्तष्टङ्कटङ्कितभोजनः चिराचिरास्वादरतः कोऽपि कोऽपि हतोऽभवत् ।। १९ ॥ १९. पालकों में आसक्त कसकर, भोजन करने वाला चिरकाल से आस्वाद रत रहने पर भी, कोई-कोई मर गया । १५. (१) क्षपिताक्ष : चारों ओर आँख फेंक कर या फैलाकर अर्थात् आँख गडा कर देखना । पाद-टिप्पणी : १८. (१) अपूप : शर्करा या मीठा आटा में सानकर बनायी गयी पूरी । पूर्वीय उत्तर प्रदेश में उसे ठोकवा कहते है । मालपूआ और अपूप में अन्तर है । मालपुआ भी गेहूँ के आटा में मीठा मिलाकर बनाया जाता | परन्तु वह नीरस नहीं होता । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरगिणी क्षीणा ग्रामेषु वास्तव्याः केचिदन्नामृताप्तये । शाकमूलफलहारा व्रतनिष्ठा इवाभवन् ।। २० । २०. ग्रामों में कुछ क्षीण निवासी अन्न अमृत प्राप्ति हेतु, शाक, मूल, फल का आहार करके, मानो व्रत का पालन कर रहे थे । चिराटङ्कान्तरे क्षिप्त्वा शाकं किमपि तण्डुलम् | पक्त्वाऽन्ये केsपि तद्भोगादकुर्वन् प्राणधारणम् ॥ २१ ॥ २१. अन्य कुछ लोग, कुछ दिनों के पश्चात शाक एवं चावल पकाकर उसे खाकर, प्राण धारण किये । सर्पिवतैलान तण्डुलेन Har | हृता नीचेन साधूनामिव सर्वोपयोगिनाम् ॥ २२ ॥ २२. चावल ने सर्वोपयोगी घी, नमक, तैल की महार्घता ' ( अतिमूल्यवान ) का मूल्य उसी प्रकार कम कर दिया, जिस प्रकार नीच सर्वहितकारी साधुओं का । योऽभूत् पूर्वं पुरान्तरे । बहुधान्यकथा निष्ठ बहुधान्यकथानिष्ठस्तत्कालं स व्यलोक्यत ।। २३ ॥ २३. पुर में पहले बहुत धन-धान्य की जो कहानी थी, वह उस समय प्रायः कहानी में ही देखी गयी थी । बन्धुजीवस्तथा कन्दो बन्धुजीव इवाभवत् । मन्दान् संघारयामास क्षुधान्धान् योऽन्धसा विना ॥ २४. उस समय वन्धुजीव कन्द वन्धुजीव' क्षुधा से अन्धे मन्द लोगों को धारण किये रहा । उसकी गणना होती है। पाद-टिप्पणी : [ १ : २ : २०-२४ सरस स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों में २०. कलकत्ता संस्करण का १९७ तथा बम्बई संस्करण का २० व श्लोक है । पाद-टिप्पणी : २१. पाठ-बम्बई पाद-टिप्पणी : २२. ( १ ) महार्घता : मंहगायी का वर्णन श्रीवर ने किया है। घी, नमक तथा तेल, मँहगे बिकते थे । परन्तु घी, तेल, नमक अन्न से खाकर २४ ॥ सदृश हो गया था, जो कि अन्न के बिना भी, कोई जीवित नहीं रह सकता । जीवन निर्वाह के लिए अन्न आवश्यक है । यदि मनुष्य रत्नों की राशि - पूर्ण कोठरी में रख दिया जाय, तो रत्न उसे सुख तथा उसकी तृष्ण एवं क्षुधा शान्त नही करेगा । उस समय एक पाव जल की कीमत एक पाव रत्न से अधिक होगी। क्योंकि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तो रत्न की क्या उपयोगिता ? पाद-टिप्पणी : बम्बई का 'सन्धार' पाठ ठीक है । 10 २४. ( १ ) बन्धुजीव जीवक वृक्ष = बन्धु का जीवनप्रद, गुलदुपहरिया का पौधा । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:२:२५] श्रीवरकृता धान्यखारेः क्रयः पूर्वं दीनाराणां शतत्रयम् । दुर्भिक्षतस्तदा सार्धसहस्रेणापि नापि सा ॥ २५ ॥ २५. पहले तीन सौ दीनार' से धान की खारी का क्रय होता था, और दुर्भिक्ष के कारण, उस समय डेढ़ हजार में भी, उससे नहीं प्राप्त हो सकती थी। पाद-टिप्पणी : था। रजत मुद्रा कम तथा स्वर्ण मुद्रा बहुत ही कम पाठ-बम्बई। चलती थी। चकवंश राज्य काल में रजत तथा २५ (१) दीनार : दीनार शब्द संस्कृत है। स्वर्ण मुद्राओं का कुछ प्रचलन हुआ था। काश्मीर दशकुमारचरित में दीनार शब्द का प्रयोग किया मे १२ दीनार का एक बाहगनी, दो बाहगनी का गया है-जितश्चासौ मया षोडशसहस्राणि दीनारा- एक पुन्चू, चार पुन्चू का एक हथ, दश हथ का एक णाम्-दशकुमारचरित । भारत में दीनार सुवर्ण ससून, एक शत ससून का एक लाख तथा एक शत मुद्रा था । दीनारियस रोमन शब्द है। रोम साम्राज्य लाख का एक कोटि दीनार होता था। हसन शाह में यह प्रचलित था। जेकोश्लेविका की मद्रा के लिये के पूर्व तूरमान की मुद्रायें प्रचलित थीं। आज भी दीनार शब्द प्रचलित है। हिन्दु राज्यकाल हसन शाह ने जब देखा कि वे अधिक प्रचलित नही में स्वर्ण, रजत एवं ताम्र तीनों धातओं में टंकणित हैं, तो नवीन मुद्रा द्विदीनारी टंकणित कराया। वह होता था। शत कौड़ी का एक ताम्र दीनार होता । शीशे की थी। मुहम्मद शाह के समय अशरफी और था। बत्तीस रत्ती सोना का प्रायः स्वर्ण दीनार होता तंक का प्रचलन था। चकों के समय पण में जजिया था। ईरान तथा सीरिया में अरबों के आक्रमण के अदा किया जाता था। काश्मीरी पण के विषय में पूर्व दीनार प्रचलित था। अरबों ने अपने विजय के विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है। परन्तु यह पैसा पश्चात् दिरहम मुद्रा चलाया। दीनार शब्द का ही रहा हो।' तद्भव रूप है। आइने अकबरी के अनुसार दीनार (२) खारी : खरवार-शाब्दिक अर्थ होता है एक दिरहम का तीन बटा सातवां भाग होता था। एक खर अर्थात् गदहा भर बोझा। सुलतानों के फरिस्ता लिखता है कि दीनार दो रुपयों के बराबर समय खारी ८३ सेर का होता था। सोलह मासा होता था। रोम दिनारियस मुद्रा रजत थी, का एक तोला, अस्सी तोला का एक सेर, साढ़े सात जबकि भारतीय दीनार स्वर्ण मुद्रा थी। किन्तु पल का एक सेर होता था। चार सेर का एक मन कालान्तर में दिनारियस स्वर्ण मुद्रा भी होने लगा। अर्थात एक तरक या वर्तमान काल का पाँच सेर पेरीप्लस का लेखक लिखता है कि 'दिनारी' स्वर्ण और सोलह तरक का एक खरवार होता था। एवं रजत यूरोप से 'वर्णगजा' अर्थात् भड़ौच भेजा खारी तौल का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। जाता था। वह सोम के एक माप का सूचक है (ऋ० : ४. ३२: __ काश्मीर का मुद्रा प्रणाली हिन्दू राजाओं के १७)। पाणिनि को भी इस तौल का ज्ञान था। समय से मुसलिम काल मे विशेष परिवर्तित नहीं हुई परशियन शब्द खरवार इसी खारी का अपभ्रंश है। थी। सुलतानों के समय मुद्रायें ताम्र की होती थीं। लोकप्रकाश में क्षेमेन्द्र ने उसे खारी या खारिका उन्हें कसिरस अथवा पुञ्छस कहते थे। परन्तु कौड़ी लिखा है । खारी मुद्रा तथा अन्न तौल दोनों के लिये प्रथम इकाई मुद्रा प्रणाली में थी। जैनुल आबदीन प्रयुक्त होता रहा है। खारी शब्द शाली भूमि के ने जस्ता तथा पीतल की भी मुद्रा टंकणित कराया माप के लिये भी प्रयोग सुदर प्राचीन काल में होता Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१० जैनराजतरंगिणी [१:२:२६-३० किमन्यत् कुत्रचिद् राष्ट्रे धात्रा निष्किञ्चनो जनः। अभवन्मण्डकुण्डस्य काञ्चिकेनापि वञ्चितः ॥ २६ ॥ २६. अधिक (वर्णन) क्या (कहे ?) कहीं पर राष्ट्र में विधाता निष्किचन जन को भाण्ड कूण्ड के काञ्चिक मात्र से भी वंचित कर दिया था। यत् पूर्वमकरोद्धेलां रसवव्रीहिशालिषु । मन्ये तेनैव शापेन भयमापत् प्रजेदृशम् ।। २७ ।। २७. जो पहले सुस्वादु ब्रीहि' एवं शालियों के प्रति अवहेलना किये, मानो उसी शाप से प्रजा भय प्राप्त की। करुणाकुलियो राजा स्वधान्यैः पुत्रवत् प्रजाः । पोषयामास मासेषु केषुचिद् यावदाकुलाः ॥ २८ ॥ २८. दयालु राजा ने अपने धान्यों से पुत्र के समान, कुछ मासों तक, व्याकुल प्रजा का पोषण किया। तावदस्यैव माहात्म्यात् शस्यसंपद्वयजृम्भत । सत्यव्रतानां भूपानां क्वावकाशश्चिरं शुचाम् ॥ २९ ॥ २९. तब तक, इसी माहात्म्य से प्रचुर शस्य सन्पत्ति पैदा हुई। सत्यव्रती राजाओं के लिए चिरकाल तक शोक कहा? मध्येऽथवा विधिर्भूपकारुण्यप्रथनेच्छया । दौर्भिक्षदौस्थ्याद् भूलोकं सशोकमकरोत् तदा ॥ ३० ॥ ३०. अथवा लगता है कि, विधाता ने राजा की दयालुता को प्रसिद्ध करने की इच्छा से दुर्भिक्ष की दुःस्थिति से, भूलोक को उस समय शोक युक्त कर दिया। रहा है। अकबरनामा के अनुसार एक खरवार अक- अधिकांश लोग भूख के कारण मृत्यु को प्राप्त हो बरशाही तौल के अनुसार ३ मन ८ सेर का होता गये। इस कारण सुल्तान बड़ा दुःखी हुआ। और था (पृष्ठ : ८३१)। द्रष्टव्य : म्युनिख : पाण्डु० : उसने अधिकांश खजाना तथा अनाज लोगों में बाँट ७५ बी०। दिये ( ४४३-६६५)। पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी: २७. ( १ ) ब्रीही : चावल का दाना । ३०. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का २०७वाँ पाद-टिप्पणी तथा बम्बई का ३०वा श्लोक है। २८. (१) पोषण : तवकाते अकबरी में कलकत्ता के रिधि' के स्थान पर बम्बई का उल्लेख है-'काश्मीर में घोर अकाल पड़ा और विधि' उचित है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १: २ : ३१-३३] श्रीवरकृता पार्थिवोपप्लवे चौरा अन्धकारेऽभिसारिकाः । दुभिक्षे चैव तुष्यन्ति धान्यविक्रयिणो जनाः ॥ ३१ ॥ ३१. राजाओं के उपद्रव में चोर, और अन्धकार में अभिसारिकायें ' तथा दुर्भिक्ष में धान्य विक्रेता लोग सन्तुष्ट होते हैं। अतः क्षुधा महार्घा ये पदार्था धान्यविक्रयात् । गृहीतास्तेऽन्यदा पूर्वमूल्येनप्रापयन्नृपः ॥ ३२ ॥ ३२. धान्य विक्रय करके, भूखों के जिन बहुमूल्य पदार्थो को लोगों ने लिया था, राजा ने पहले के मूल्य पर, उनको (वापस) दिला दिया। दुर्भिक्षभक्षिताक्षोटलोकदक्षः क्षितीश्वरः । धिया सरलवृक्षेभ्यस्तैलाकर्षणमादिशत् ॥ ३३ ॥ ३३. दुर्भिक्ष में अखरोट खाने वाले लोगों में दक्ष राजा ने बुद्धिपूर्वक सरल (चीड़) वृक्षों से तेल निकालने का आदेश दिया। पाद-टिप्पणी : दिवाभिसारिका के सन्दर्भ में मतिराम लिखते ___३१. ( १ ) अभिसारिका : भानुदत्त ने अभि- हैसारिका की परिभाषा की है-'स्वयमभिसरति 'ग्रीषम ऋतु की दुपहरी चली बाल बन कुज। प्रियमभिसारयति' प्रिय से मिलन हेतु स्वयं जाती है अंग लपटि तीछन लुएँ मलय पवन के पुंज ॥' अथवा प्रिय को बुलाने वाली स्त्री की संज्ञा अभि -रसराज ( २०२) सारिका से दी गयी है-कवि मतिराम ने परिभाषा अमर कोशकार ने परिभाषा किया है-'कान्ताकिया है-'पियहिं वुलावै आपुकै आपहि पयपै जाय' थिनी तु या याति संकेतं साऽभिसारिका' (२:६:१०)। ( रसराज १९०)। कुछ कवि उनको मुग्धा, कान्तार्थिनी के लिए लिखा गया हैमध्या तथा प्रौढ़ा और कुछ स्वकीया, परिकीया हित्वा लज्जाभये श्लिष्टा मदनेन मदेन या। अभिसारयते कान्तं सा भवेदभिसारिका । तथा सामान्य तीन भेद कहा है। कृष्णा, शुक्ला . सारिका में आते है। कृष्णाभिसारिका, अन्धकार संस्कृत साहित्य मे मिलता है। यह चीड़ वर्ग वृक्ष ___३३. ( १ ) सरल : सरल वृक्षों का वर्णन किंवा अँधेरी रात मे अभिसार करती है। बिहारी की श्रेणी में आता है। कुमारसम्भव में इसका कृष्णाभिसारिका के सन्दर्भ में लिखते हैं उल्लेख किया गया है-विघट्टितानां सरल द्रुमाणाम्'सघन कुंज धन-धन तिमिर अधिक अँधेरी राति । (१:९)। सरल वृक्ष से तेल निकालने का कार्य तऊ न दुरिहै स्याम यह दीप सिखा सी जाति ॥' बहुत पहले से होता रहा है। उससे विरोजा तथा बिहारी शुक्लाभिसारिका के विषय में लिखते ताड़पीन का तेल आजकल व्यावसायिक ढंग से निकाला जाता है। सरस निर्यास को गन्धा बिरोजा 'जुबहि जोन्ह में मिल गयी नैक न परति लखाइ। कहते है। यहाँ पर तेल निकालने से तात्पर्य पौधे के डारन लगी अली चली सँग जाइ॥' ताड़पीन का तेल है। सुल्तान ने दुर्भिक्षग्रस्त सारिका में तीन भेद परिकीया अभि- पाद-टिप्पणी : Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैन राजतरंगिणी तस्मिन् संवत्सरे राज्ञा कारुण्याद् भूर्जगामिनी । उत्तमर्णाधमर्णानां व्यवस्था विनिवारिता || ३४ ॥ ३४. उसी वर्ष राजा ने दया करके, उस वर्ष भोजपत्र पर लिखे, ऋणी एवं ऋणदाता की व्यवस्था को समाप्त कर दिया । चतुष्षष्टिकलाः शिल्पं विद्या सौभाग्यमेव च । दुर्भिक्षोपप्लवे सर्व [ १ : २ : ३४-३५ तदाभून्निष्प्रयोजनम् || ३५ ॥ ३५. उस दुर्भिक्ष के उपद्रव काल में ६४ कलाये', शिल्प, विद्या, सौभाग्य, सब कुछ निष्प्रयोजन हो गया था । चीड़ के वृक्ष से तेल लगाने के कार्य पर लगाया । पाद-टिप्पणी : ३५. (१) चौसठ कलाएँ : कला का वर्गीकरण उपयोगी कला एवं ललिती कला में किया गया है । उपयोगी कला व्यवहारजनित एवं सुविधाबोधी तथा ललित कला मन के सन्तोष के लिये है । उसमें मानसिक सौन्दर्य की योजना है, जो उपयोगितावाद से भिन्न है । कला एवं मानव का सम्बन्ध अवि - भाज्य है । मानव ने कला को विकसित किया है । कला से मानव ने आत्मचैतन्य एवं आत्मगौरव प्राप्त किया है । लोगों को काम पर लगाने के लिए उन्हें सरल अर्थात् (२०) काव्य समस्या पूर्ति, (२१) गायन, (२२) गुप्तभाषा ज्ञान, (२३) छलित नृत्य, घोखाधड़ी, (२४) जल क्रीडा, (२५) दैशिक भाषा ज्ञान, (२६) द्यूतविद्या, (२७) धातुकर्म, (२८) नर्तन, (२९) नाट्य, (३०) नाट्या ख्याइका दर्शन, (३१) पक्षी आदि लड़ाना, (३२) पक्षियों को बोली सिखाना, (३३) पच्चीकारी, (३४) पहेली बुझाना, (३५) (३८) बढ़ई कर्म, (३९) बालक्रीडा, (४०) बुझौवल, पाक कला, (३६) पुष्प शय्या, (३७) पुस्तक वाचना, ( ४१ ) वेत की बुनायी, (४२) भविष्य कथन, (४३) भाव को उलट कर कहना, (४४) माला, (४५) मालिश, (४६) मुकुट बनाना, (४७) रत्न परीक्षा, (४८) रत्नरंग परीक्षा, (४९) रस्साकसी, (५०) रूप बनाना, (५१) वशीकरण, (५२) वस्त्र गोपन, (५३) वादन, (५४) वास्तु कला, (५५) विदेशी कला ज्ञान, (५६) विशेषक, (५७) वेश परिवर्तन, (५८) (६१) सुनकर दुहरा देना, (६२) सूची कर्म, (६३) व्यायाम, (५९) शयन रचना, (६०) शिष्ठाचार, सूत कातना, एवं (६४) हस्तलाघव । कामसूत्र एवं शुक्रनीति ने कला को ६४ माना है । कला का वर्गीकरण कामशास्त्र तथा तन्त्र सम्बन्धी कलाओं में किया गया है। कामशास्त्र के अनुसार निम्नलिखित चौसठ कलाएँ है (१) अंगरागादि लेपन, (२) अन्ताक्षरी, (३) अभिधानकोश ज्ञान, (४) अल्पना, (५) असुन्दर का सुन्दरीकरण, (६) आकार ज्ञान, (७) आकर्षण क्रीड़ा, (८) आभूषण धारण, (९) आयानक, (१०) आलेख्य, (११) आशुकाव्य कृया, (१२) इत्रादि सुगन्धि उत्पादन, (१३) इन्द्रजाल, (१४) उदक वाद्य, (१५) उपवन विनोद ( बागवानी), (१६) कठपुतली नृत्य, (१७) कठपुतली का खेल, (१८) कर्णाभूषण निर्माण, (१९) कलावत्तू केश मार्जन, शुकनीति में दूसरी तालिका उपस्थित की गयी है (१) आभूषण बनाना, (२) कपड़ा बुनना, (३) कताई, (४) कला मर्मज्ञता, (५) कला शिक्षण, (६) कृत्रिम उत्पादन, (७) कृषी, (८) क्षौर कर्म, (९) गजादि चलाना सिखाना, (१०) गजादि युद्ध, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ १:२:३६] श्रीवरकृता पदवाक्यतर्कनवकाव्यकथा बहुगीतवायरसनृत्यकलाः । सुरतप्रपञ्चचतुरा वनिताः ___क्षुधितस्य नैव रचयन्ति सुखम् ॥ ३६ ॥ इति जैनराजतरङ्गिण्यां पण्डितश्रोवरविरचितायां षट्त्रिंशद्वर्षे दुभिक्षवर्णनं नाम द्वितीयः सर्गः ॥ २॥ ३६. पद्वाक्य, तर्क एवं नवीन काव्य, कथा, गीत, वाद्य, रस, नृत्य, कलायें तथा सुरति प्रपंच में दक्ष बनितायें भूखे को सुख नहीं देतीं। पण्डित श्रीवर विरचित जैनराजतरंगिणी में ३६ वें वर्ष का दुर्ति द्वितीय सर्ग समाप्त हुआ। (११) घटादि वादन, (१२) चर्म-कर्म, (१३) चर्म पाद-टिप्पणी : उतारना, (१४) चित्रकला, (१५) चोली आदि ३६. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का २१३सीना, (१६) भाप प्रयोग जलवाराग्नि, (१७) जीन, वीं पंक्ति तथा बम्बई का ३६वा श्लोक है। हाथी का हौदा आदि बनाना, (१८) टोकरी बनाना, नाना पाद-टिप्पणी: र (१९) तेल उत्पादन, (२०) तैरना, (२१) ताम्बूल, (१) ३६ वर्ष : बम्बई संस्करण मे षट्त्रिशं' (२२) दुग्ध प्रयोग, (२३) दण्ड कार्य, (२४) द्यूत वर्ष अर्थात् ३६ वर्ष कलकत्ता के २६ वर्ष के स्थान क्रीडा, (२५) धातु मिश्रण, (२६) धातु शस्त्र निर्माण, पर दिया गया है। किन्तु कलकत्ता संस्करण के (२७) धात्यौषधि, (२८) नटकर्म, (२९) नर्तन, पंक्ति १८४ पृ० ७ ( तृतीया राजतरंगिणी ) 'षट्(३०) लवण उत्पादन, (३१) नौका-रथादि यान त्रिशंवत्सरे' दिया गया है। अतः इतिपाठ में ३६ के निर्माण, (३२) पाषाण धातु भश्म, (३३) पाककर्म, (३४) बर्तन बनाना, (३५) वर्तन माजना, (३६) स्थान पर मुद्रण की गलती से त्रिंश के स्थान पर 'विंश' छप गया है। बम्बई संस्करण में इसी तरंग मदिरा बनाना, (३७) मल्लयुद्ध, (३८) मिष्ठान्न के श्लोक ७ मे "त्रिंश' शब्द कलकत्ता संस्करण के बनाना, (३९) मिश्रित धातु का पृथकीकरण, (४०) समान दिया गया है। बम्बई इतिपाठ का यह अंश यज्ञीय रज्जु बनाना, (४१) रतिज्ञान, (४२) रत्न ही मान्य होना चाहिए। परीक्षा, (४३) रूप परिवर्तन, (४४) रंगरेजी, (४५) वस्त्र सज्जा, (४६) लक्ष्यभेद, (४७) वस्त्र प्रक्षालन, श्रीवर १: १ : ८६ मे अट्ठाइसवें वर्ष का (४८) वाद्य संकेत, (४९) वादन द्वारा व्यूह रचना, उल्लेख करता है। अतएव क्रम के अनुसार भी २६ (५०) विविध मुद्राओं द्वारा देवपूजा, (५१) वृक्षा- वर्ष के पश्चात् का समय होगा। वह ३६ वर्ष ही रोहण, (५२) शय्या भाजन, (५३) शल्य क्रिया, हो सकता है। (५४) शस्त्र संचालन, (५५) शिशुपालन, (५६) कलकत्ता संस्करण में इस सर्ग में ३६ श्लोक शीशे का बर्तन बनाना, (५७) सारथ्य, (५८) ब्रह्म अर्थात् पंक्ति संख्या १७८ से २१३ तक है । बम्बई आसन, (५९) रतिज्ञान, (६०) सरोवर प्रासाद् हेतु भूमि योजना, (६१) सेवा, (६२) रसचारी, (६३) संस्करण में भी ३६ श्लोक हैं। श्लोक संख्या बम्बई स्वर्ण परीक्षण, (६४) सुलेखन । तथा कलकत्ता के समान है। जै. रा. १० Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः सर्गः तुष्टः प्रसादमतुलं कुरुते क्षणाद्यः क्रुद्धः प्रजासु कुरुते भयमप्रतय॑म् । उन्मत्तपार्थिवपतेरिव हन्त धातो लीलास्वतन्त्रचरितं भुवि बुध्यते कैः ॥ १ ॥ १. सन्तुष्ट होकर क्षणभर में प्रजाओं में, अतुलनीय प्रसाद एवं क्रुद्ध होकर, असीम भय प्रदान कर देता है, उत्तम राजा के समान, उस विधाता ने लीला भरे, स्वतन्त्र चरित को पृथ्वी पर कौन लोग जान सकते हैं ? षट्त्रिंशवर्षदुर्भिक्षदुःखविस्मरणं जनः। न यावदकरोत् तावदष्टात्रिंशेऽपि वत्सरे ॥२॥ २. जब तक लोग छत्तीसवें वर्ष के दुर्भिक्ष दुःख का विस्मरण नहीं कर सके थे, तब तक ३८ वें वर्ष में भी वृष्टया सह रजोवर्षमपतद् गगनाद् भुवि । उदीपक्षतशाल्युत्थभाविदुर्भिक्षसूचकम् पतशाल्युत्यमाविदाभक्षसूचकम् ॥ ३॥ ३. वृष्टि के साथ आकाश से पृथ्वी पर धूल वृष्टि' हुई, जो कि बाढ़ से शालि के नष्ट हो जाने के कारण, भावी दुभिक्ष की सूचक थी। पाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी : १. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का २१४वीं ३ पाठ-बम्बई। पंक्ति तथा बम्बई का प्रथम श्लोक है। (१) धूल वृष्टि : ध्वंस, बरबादी, तबाही पाद-टिप्पणी : का पूर्व सूचक या लक्षण है। २.(१) छत्तीसवें वर्ष : ४५३६ सप्तर्षि = (२) उदीप : उदीप का अर्थ जलप्लावन, सन् १४६० ई० = संवत् विक्रमी १५१७ = शक बाढ़ एवं काश्मीरी भाषा में 'पीयो' या 'प्यू' कहते १३८२ = कति गताब्द ४५६१ वर्ष । है। फारसी इतिहासकार दुर्भिक्ष के पश्चात् जल(२) अड़तीसवें वर्ष : ४५३८ सप्तर्षि = प्लावन का उल्लेख नहीं करते । श्रीवर का वर्णन सन् १४६२ ई० = विक्रमी संवत् १५१९ = शक ठीक है क्योंकि उसके आँखों के सम्मुख जलप्लावन १३८४ - कलिगताब्द ४५६३ वर्ष । तथा धूल वृष्टि दोनों हुये थे। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ . ३ : ४-८] श्रीवरकृतां अथाचिरेण गर्जन्तो धृतचापा घना घनाः । जनानुद्वेजयामासुः शरासारैरिवारयः ॥ ४ ॥ ४. शीघ्र ही जलपूर्ण एवं इन्द्रधनुष' युक्त, घने घन गर्जते हुए, वृष्टि से उसी प्रकार लोगों को उद्वेजित किये, जिस प्रकार चापधारी अरि शर वृष्टि द्वारा। वृष्टथुपद्रवसंनद्धाः फलर्द्धिहरणाकुलाः । उत्थिता बुबुदव्याजाद् दुष्टा नागफणा इव ॥ ५ ॥ ५. वृष्टि के उपद्रव हेतु सन्नद्ध फल सम्पत्ति को हरण करने के लिये आकुल, मानो दुष्ट नाग से फण ही बुद-बुद के व्याज से (जलस्तर पर) उठे थे। उत्पन्नध्वंसिनो भावान् करिष्याम्यहमञ्जसा । इति ज्ञापयितुं मेघो बुबुदानसृजद् ध्रुवम् ॥ ६ ॥ ६. 'शीघ्र ही समाज उत्पन्न भाव का स्थित्व समाप्त कर दूंगा।' यह विज्ञापित करने के लिए मेघ ने बुद-बुदों का सृजन किया। वृक्षाः सर्वत्र पत्रान्तःपतवृष्टिस्वनच्छलात् । अश्रुबिन्दूनिवामुञ्चन् रुदन्तो जनचिन्तया ॥ ७ ॥ ७. सर्वत्र वृक्ष पत्रों के मध्य पड़ते, वृष्टि के शब्द व्याज से, मानो लोगों की चिन्ता से, रोते हुए, अश्रुबिन्दु गिरा रहे थे। वितस्तालेदरीसिन्धुक्षिप्तिकाद्यास्तदापगाः । अन्योन्यस्पर्द्धयेवोग्रा ग्रामांस्तीरेष्वमज्जयन् ॥ ८॥ ८. उस समय वितस्ता', लेदरी, सिन्धु, क्षिप्तिका, आदि नदियों ने पारस्परिक स्पर्धा से, मानो उग्र होकर, तट स्थित को डुबा दिये । पाद-टिप्पणी : दिखाई देता है। यह ऊपर उठते, फुहारे के उड़ते ४. (१) इन्द्रधनुष : सप्तरंगों युक्त एक जलकणों पर भी सूर्य किरणों के विक्षेपण के कारण अर्ध वृत्त वर्षाकाल मे सूर्य के विपरीत दिशा, दिखाई देता है। जबलपुर में चूंआधार के जलप्रपात आकाश मे दृष्टिगोचर होता है। सूर्य की किरणे में भी नीचे दिखाई देता है। सूर्य किरणों के अभाव आकाशस्थ जल कणों के पार होती है, तो इन्द्रधनुष मे इन्द्रधनुष का अस्तित्व लोप हो जाता है। बनता है। सूर्य किरणों का विक्षेपण ही इन्द्रधनुष पाद-टिप्पणी : के रंगों का कारण है। आकाश में सन्ध्याकाल पूर्व ५. कलकत्ता के 'हलधि' पाठ के स्थान पर दिशा तथा प्रातःकाल पश्चिम दिशा में वर्षा के बम्बई का 'फलधि' पाठ सार्थक प्रतीत होता है। पश्चात् रक्त, नारंगी, पीन, हरा, आसमानी, नीला वह फल सम्पत्ति का सूचक है। तथा बैगनी वर्गों का विशाल धनुष दृष्टिगोचर होता पाद-टिप्पणी: है। इन्द्रधनुष दर्शक के पीठ पीछे सूर्य के होने पर ८. (१) वितस्ता : झेलम नदी, काश्मीरी Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैनराजतरंगिणी सविभ्रमा धृतावर्ता वाहिन्युत्थाः सहेषिताः । जवादधावन्नुत्तुङ्गास्तत्तरङ्गतुरङ्गमाः ॥ ९ ॥ ४ , , ९. विभ्रम' एव आवर्त युक्त' वाहिनी गत द्वेषित (शब्द) सहित उन्नत तरंग" तुरंग' दौड़ रहे थे | अत्युच्चापातकुनी चोन्नतिदं निरङ्कुशम् । आसीदपथ सत्यं तदा जलविजृम्भितम् ॥ १० ॥ १०. उन्नत को अवनत एवं अवनत को उन्नत करने वाला निरंकुश जल प्रवाह, उस समय वास्तव में कुपषगामी हो गया था। इस नदी को वेथ तथा वेहूत कहते है । यूनानी इसे हैडसपेस कहते है ( द्र० : १३:१९, २४, ३३, ५५, ५७, ८२, १०९; १:४ ३; १:५.५६; २५३) । (२) लेवरी लिवर इसका प्राचीन नाम लम्बोदरी है । यह लिदर उपत्यका में बहती है । वितस्ता में अनन्तनाग और विजबहेरा (विजयेश्वर) के मध्य आकर मिलती है। इसीके तट पर पहलगाँव है। इसका नाम संदर्य एवं संदर्या (जोन० १०६ ) भी मिलता है। लेदर शब्द लम्बोदरी का अपभ्रंश है। केवल यही उल्लेख मिलता है। = (३) सिन्ध यह सिम्य महानद नहीं बल्कि : काश्मीर उपत्यका की सिन्ध नदी है । वितस्ता में प्रयाग अर्थात् शादीपुर के पास आकर मिलती है । काश्मीरी साहित्य में इसे उत्तरगंगा कहा गया है। यह नदी दस उपत्यका तथा हरमुख पर्वत के उत्तरीय पर्वतीय क्षेत्रों के जल को ग्रहण करती है। वितस्ता की सबसे बड़ी सहायक नदी है। सोनमर्ग, कंगन तथा गान्दर वल से बहती वितस्ता से मिलती है। इसकी धारा बहुत तेज है। जल बहुत शीतल रहता है। लार उपत्यका में बहती है । गान्दर ब तक इसमें नायें चलती है। सिन्य महानद को काश्मीर में बड सिन्ध कहते हैं ( द्र० ११.५१ ) । (४) क्षिप्तिका श्रीनगर की कुटकुल नहर है ( द्र० ३ : १८८, ४ : १०७ ) । पाद-टिप्पणी बल : पद में श्लेष का बाहुल्य है । [१:३ : ९-१० च ९ ( १ ) विभ्रम : इधर-उधर फिरना, या घूमना । पानी की उतावली के साथ गति । युद्धस्थल में सेना के अश्व जिस उतावली के साथ इधर-उधर दौड़ते है, उसी प्रकार जल उतावली के साथ वेग से घूम रहा था । ( २ ) आवर्त : बालों के पट्टे या अयाल या जल की भँवर । जल में गर्त होने पर, आवर्त या भँवर पड़ जाते हैं । उसकी उपमा घोड़े के अयाल से श्रीवर ने दिया है । (३) वाहिनी सेना मे ५०० हाथी, ५०० रथ, १५०० अश्व तथा २५०० पैदल सैनिक होते है दश सेनाओं की एक पृतना तथा १० पृतनाओं की एक वाहिनी, प्राचीन परिभाषा के अनुसार होती थी । वाहिनी का अर्थ नदियों का पति समुद्र भी होता है। यहाँ अभिप्राय जलामय उपत्यका से हैं, जो समुद्र की तरह लग रही थी । ( ४ ) हेषा घोडों का हिनहिनाना जलध्वनि या गर्जन से तात्पर्य है । ( ५ ) तरंग अश्वों का छलांग लगाना, सरपट दौड़ना या जल की उत्ताल तरंगें उछल रही थी, जैसे सेना में अश्व छलांग लगाते या पंक्तिबद्ध लहरों की तरह चलते दिखाई देते हैं । : (६) तुरग अश्व, वेग से गमन करने वाले को तुरंग कहते है। पाद-टिप्पणी : । १०. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का २२३वीं पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का १०वां श्लोक है । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ३ : ११-१३] श्रीवरकृता मृदोर्जलस्य तत्कालेऽद्रिवृक्षविटपालिषु । केनोपदिष्टं तत्काले मूलोत्पाटनपाटवम् ॥ ११ ॥ ११. उस समय मृदु जल को पर्वत, वृक्ष एवं विटपों को मूल से उखाड़ने की चातुरी किसने सिखायो? अग्राग्रपशुगोप्राणिगृहधान्यादिहारकः ___ भयदोऽभूज्जलापूरः स म्लेच्छोत्पिञ्जसंनिभः ॥ १२ ॥ १२. समक्ष के पशु, गऊ, प्राणी, गृह, धान्यादि का हरणकर्ता, वह जलापुर (बाढ़) म्लेच्छो' के हिंसा (क्षति) सदृश, भयप्रद हो गया था। तदा मडवराज्यस्था विशोका शोकदा नदी । प्रदक्षिणेच्छयेवान्तर्विवेश विजयेश्वरम् ।। १३ ॥ १३. उस समय मडव राज्य की शोकप्रद विशोका' नदी प्रदक्षिणा की इच्छा से ही, मानो विजयेश्वर मे प्रवेश की। पाद-टिप्पणी: १३. (१) विशोका : वर्तमान बिसाऊ नदी है। ११. कलकत्ता तथा बम्बई दोनों में 'मृदोह' पीरपंजाल के उत्तरी ढाल की सब श्रोतस्विनियों का छपा है परन्तु व्याकरण की दृष्टि से 'मृदोर' होना जो सिदन तथा बनिहाल के मध्य पड़ती है, जल चाहिए अतएव 'मृदोर' रखा गया है । ग्रहण करती है। नौबन्धन के नीचे क्रमसरस अथवा पाद-टिप्पणी: कौसरनाग सर इसका उद्गम माना गया है। पर्वत १२. (१) म्लेच्छ हिंसा : श्रीवर म्लेच्छराज से इस नदी के नीचे उतरते ही इसमें से बहुत-सी दुलचा (जोन० १४२-१४३) तथा सूहभट्ट के भट के नहर नहरें निकाली गयी है। पुराने कराल (अदविन) ब्राह्मणों पर अत्याचार, पीड़न, दमन, प्रतिमाभंग तथा देवसरस (दिवसर) परगना के भूभाग को सीचती आदि की ओर संकेत करता जो सिकन्दर नमित है। कैमुह तक विशोका मे नाव चल सकती है। तथा अलीशाह के समय सूहभट्ट द्वारा किया गया रामव्यार नदी विशोका में गम्भीर संगम से कुछ था ( जोन० ५९९-६१३ तथा ६५३-६६९, ७२२ ऊपर मिलती है। गम्भीर सगम पर विशोका वितस्ता में मिल जाती है। नीलमत पुराण ने ७२७)। म्लेच्छबाधा का उल्लेख श्लोक ८११ से ८२० में श्री जोनराज ने किया है। म्लेच्छ का विशोका को लक्ष्मी का अवतार माना है। विशोका नदी करमसर वन्धा के पश्चिमी सीमा के निकट उल्लेख १: ५ : ५९ तथा १:४ : ३३ में भी किया एक गर्त से निकलती है। उसे चूहे की बिल 'अहोर गया है। बिल' कहते हैं। विशोका का स्रोत जहाँ गिरता है, पाद-टिप्पणी : उस प्रपात को भी 'अखोर' बिल कहते है। वह पहले उक्त श्लोक में बम्बई श्लोक के १३वें श्लोक का , उत्तर बहती चिन्त नदी नाम धारण करती है। द्वितीय पद यथावत् है। प्रथम पद नही है । किन्तु यह कंग से एक मील उत्तर है। तत्पश्चात् कलकत्ता संस्करण में पूरा श्लोक २२६वी बुडिल पास पहुँचकर अरवल पहुंचती है। वहाँ से पंक्ति है। उत्तर-पूर्व दिशा बहती उत्तर की ओर मुड़ती राम Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैन राजतरगिणी पापहरी पूर्व प्रवाहोपगता नदी । स्नानात् इतीव तज्जले तूर्णं ममज्जुर्गृहपङ्क्तयः ॥ १४ ॥ १४. पूर्व प्रवाह से (समीप आती) नदी स्नान करने में पापहरण करने वाली है, इसीलिए गृहपक्तियाँ शीघ्र उसके जल में डुबकी लगा दी । । १ : ३ : १४-१७ पुराणेषु प्रसिद्धा या विशोका शोकनाशिनी । तदाभूद् विपरीतार्था प्रजाभाग्यविपर्ययात् ।। १५ ।। १५. पुराणों' में प्रसिद्ध शोकनाशिनी विशोका नदी प्रजा भाग्य विपर्यय के कारण, उस समय विपरीत अर्थ वाली हो गयी । येभ्यः प्रतिष्ठा प्राप्ता तान् दुःस्थान् द्रष्टुमसाम्प्रतम् । इतीव तोये तत्कालं ममज्जुर्नगरे गृहाः ।। १६ ।। १६. जिन लोगों ने प्रतिष्ठा की है, उन लोगों को दुःखी देखना ठीक नही है, इसलिए ही मानों नगर के गृह जल में तत्काल निमज्जित हो गये । पादटिप्पणी : शिलादारुमयी मग्नस्तम्भीभृतचतुर्गृहा । चतुष्पादिव धर्मो या लोकोत्तरणकृद् बभौ ॥ १७ ॥ १७. जिसके चारों स्तम्भ' डूब गये थे, ऐसी शिलादारुमय गृहसंसार पार करने के लिए चतुष्पाद धर्म के समान शोभित हो रहा था । व्यार से नौना ग्राम में मिलती वितत्सा मे मिल जाती है । द्रष्टव्य : ३ : १३, १५ । (२) विजयेश्वर: विजबोर, विजवेहरा । विजयेश्वर प्राचीन काल में शारदापीठ के समान काश्मीर का दूसरा पीठ था । संस्कृत विद्या का केन्द्र था। सिकन्दर बुतशिकन के समय में सभी मन्दिर नष्ट कर दिये गये थे । तीर्थ तथा क्षेत्र भी था । द्र० १४:४; १ : ५ : २१; ३ : २०३; ४ : ५३२ । पाद-टिप्पणी : १४. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का २२७ वीं पंक्ति है । दूसरा पद बम्बई के १३ वें श्लोक का द्वितीय पद है । १५. (१) पुराण : नीलमत पुराण ( श्लोक २३९ ) काश्मीर में लक्ष्मी विशोका नदी का रूप धारण कर अवतीर्ण हुई थी । आराध्य केशवं देवं तथा लक्ष्मीमचोदयत् । देशस्य पावनायास्य सा विशोकेति कीर्तिता ॥ लक्ष्मी का कार्य समृद्धि, धन तथा सुख देना है । उनके विपरीत हो जाने पर दरिद्रता, दुख आदि का उदय होता है । महाभारत के अनुसार विशोका कुमार कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका है (शल्य० : ४६ : ५ ) । पाद-टिप्पणी : १६. बम्बई संस्करण का १५वां श्लोक तथा कलकत्ता संस्करण की २२९वीं पंक्ति है । पादटिप्पणी : १७. बम्बई संस्करण का १६वीं श्लोक तथा कलकत्ता की २३०वीं पंक्ति है । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ १३ : १८-२०] श्रीवरकृता तारदाग्राम पंक्त्याश्च दर्शनाय विशांपतेः। यात्रागतस्य रामस्य सेतुबन्ध इवाभवत् ॥ १८॥ १८. तरदा' ग्राम पंक्ति को देखने के लिए, यात्रा में आये राजा के लिए, वह राम के सेतुबन्ध सदृश हो गया। वितस्तायां कृता जैनकदलिः सा गृहोज्ज्वला । जलावेशात् तटे मग्ना भग्नाद्या नगरान्तरे ॥ १९॥ १९. वितस्ता पर निर्मित गृहों से शोभित, वह जैनकदल' तटपर, जल प्रवेश के कारण नगर मध्य मग्न हो गयी। पादद्वयावशेषापि स्थापिताग्रे भविष्यताम् । पादद्वयं पूरयितुं समस्येव महीभुजाम् ।। २० ॥ चतुर्भिः कुलकम् ॥ २०. अवशिष्ट दो पाद से ही स्थित, वह भविष्य के राजाओं के लिए, दो पाद पूर्ण करने वाली समस्या के समान हो गयी थी। (१) स्तम्भ : मान्यता है कि विजयेश्वर का (२) सेतुबन्ध : सेतुबंध रामेश्वर । लंका चारों स्तम्भ जैनुल आबदीन ने निर्माण कराया था। एवं भारत के मध्य । (२) चतुष्पाद : शब्द का अर्थ है चार पाद पाद-टिप्पणी : अर्थात् धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं राज्य शासन १९. (१) जैनकदल : जैनुल आबदीन ने ( नारद : १:१०)। याज्ञवल्क्य एवं बृहस्पति के श्रीनगर में चौथा पुल जैनकदल वितस्ता पर निर्माण अनुसार चतुष्पाद अभियोग, उत्तर, क्रिया एवं निर्णय कराया था। श्रीनगर में उन दिनों सात पुल वितस्ता है ( याज्ञ०:१:८-२९ )। कात्यायन के अनुसार पर थे। पुल नावों को पाट कर बनाये जाते थे। चतुष्पाद का अर्थ अभियोग, उत्तर, प्रत्याकलित एवं जैनकदल का महत्व इसलिए था कि यह शहतीरों क्रिया है। पर बनाया गया था। इसे चौथा पुल भी उन दिनों कहते थे । जैनुल आबदीन के पूर्व राजा जयापीड ने पाद-टिप्पणी : यही पर सेतु बनवाया था। जैनकदल का पुनः उल्लेख १: ३ : ८३ में किया गया है। द्र० वाइन : पाठ-बम्बई। ३३७, मूरक्राफ्ट २ : १२१, १२३, लारेंस पृ० : ३७। १८. यह श्लोक बम्बई संस्करण का १८वाँ तथा पाद-टिप्पणी : कलकत्ता की २३१वी पंक्ति है। २०. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का २३३(१) तरद : को श्रीदत्त ने दरद लिखा है। पंक्ति है तथा बम्बई संस्करण का १९वां श्लोक है। दरद देश है। वर्तमान दर्दिस्तान है ( पृ० १२१)। (१) समस्या : पूर्ण करने के लिए दिया यहाँ पर तरदा नामवाची अर्थ असंगत प्रतीत जाने वाला छंद का अन्तिम चरण । कविता का वह होता है । 'तरदाय' मानकर तारने के लिए अर्थ कर भाग जो पूर्ति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। दिया जाय, तो कुछ अधिक संगत होगा। कल्हण ने भी समस्या उपमा का प्रयोग किया है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैन राजतरंगिणी क्रमराज्ये तदा कुर्वन् कल्लोलैराकुलं जनम् । महानप्रसरो वेगादगाद् अन्यः सरोवर: प्रीत्या किमागतो २१. उस समय क्रम राज्य मे तरंगों से लोगों को आकुल करता हुआ, जल का महान प्रसार' दुर्गपुर के अन्दर तेजी से प्रवेश किया । कोsपि पद्मनागसरोन्तिकम् । दूराद् यं दृष्ट्वा विशशङ्किरे ।। २२ । २२. दूसरा भी कोई सरोवर प्रेम से पद्मनाग सरोवर के निकट आ गया है क्या ? दूर से जिसे देखकर लोगों ने) शंका की । स्वयमुत्पाटयत्यस्मान् वृक्षवत् सहसागतः । इतीव तत्र वेश्मानि चिक्षिपुः स्वं जलान्तरे ॥ २३ ॥ दूरे समुद्रो मद्भर्ता इत्थं वितस्ता २३. सहसा आगत, वह वृक्ष के समान हमलोगों को उखाड़ रहा है, इसीलिए मानो वहाँ घर अपने को जल मे डाल दिये । [ १ : ३ : २१-२४ दुर्गपुरान्तरम् ॥ २१ ॥ कोऽयं मे समुपागतः । प्रतीपमगमत् तदा ॥ २४ ॥ द्रष्टव्य : रा० : ४ : ६१९ । नवादिरूल अखबार पाण्डु० ( फो० ४५ ए० ) लिपि में भी जैनकदल का उल्लेख मिलता है । पाद-टिप्पणी : त्रस्तेव २४. 'मेरा भर्ता' समुद्र दूर है। यह कौन मेरे पास आ गया ?" इस प्रकार त्रस्त सदृश वितस्ता उलटे बहने लगी । २१. म्बई का २०वां श्लोक तथा कलकत्ता की २३४वीं पंक्ति है । (१) महान प्रसार पाठभेद महापद्मसर भी मिलता है। महापद्मसर मानकर अनुवाद करने से महापद्मसर का जल दुर्ग में प्रवेश किया, अर्थ होगा । ( २ ) दुर्गपुर : स्थान उलर लेक के तट पर था । इसका केवल यहीं उल्लेख मिलता है । पाद-टिप्पणी : २२. बम्बई का २१वां श्लोक तथा कलकत्ता की २३५वीं पंक्ति है । पाद-टिपप्णी : २३. बम्बई संस्करण का २२वां श्लोक तथा कलकत्ता की २३६वीं पंक्ति है । पाठ-बम्बई । २४. बम्बई का २३वां श्लोक तथा कलकत्ता की २३७वी पंक्ति है । : ( १ ) भर्ता भर्ता का अर्थ स्त्री का पति होता है । नदी स्त्रीलिंग है । उसकी उपमा नारी तथा समुद्र पुलिंग की उपमा पुरुष से दी गयी है । नर एवं नारी का मिलन विवाह का परिणाम है । विवाह पश्चात् ही पुरुष भर्ता की संज्ञा प्राप्त करता है । इसी प्रकार समुद्र से मिलने पर नदी का भर्ता समुद्र हो जाता है । —स्त्रीणां भर्ता धर्म दाराश्च पुंसाम् = (मातंगलीला : ६ : १८ ) । स्त्री का भरणपोषण करने के कारण पति को भर्ता कहा गया है । ( २ ) उलटे : नदी में आगे जब बढ़ी नदी मिलती है तो गतिशील धारा संगम के समीप रुक कर बहने लगती है । यह परिक्रिया काशी में वरुणा तथा गंगा संगम के कारण प्रायः उपस्थित होती Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ३ : २५-२८] श्रीवरकृता सीमोज्झिता चलन्मार्गा पङ्कातङ्ककलङ्किता । ___ स्थितिः कलियुगस्येव भूरभूज्जलपूरिता ॥ २५ ॥ २५. सीमा रहित एवं नष्ट मार्ग युक्त, पंक रूपी आतंक से कलंकित, जलपूर्ण भूमि कलियुग' की स्थिति सदृश हो गयी थी। तस्मिन्नवसरे धारासारं वर्षति वासवे । नौकामारुह्य भूपालो निरगाज्जनचिन्तया ।। २६ ॥ २६. उस समय इन्द्र के धारा वृष्टि करते रहने पर, राजा लोगों की चिन्ता से नाव पर, आरूढ़ होकर निकला। पश्यञ्जलान्तरे मग्नां कृषि कुशतरः शुचा । जनकारुण्यपुण्यात्मा विचार पतिः स्थलम् ।। २७ ।। २७. शोक से दुर्बल लोगों पर, दयाभाव के कारण, पुण्यात्मा राजा जल में डूबी, कृषि देखते हुए विचरण करता रहा। दृष्टानि यानि घोषेषु गहनत्वान्न जातुचित् । स्थानानि तानि भूपालो नौकारूढो व्यलोकयत् ।। २८ ॥ २८. ग्वालों की बस्तियों में गहन होने के कारण, जिन स्थानों को कभी नही देखा था, उन्हें नौकारूढ़ राजा ने देखा। रहती हैं। वरुणा की धारा प्रबल गंगा की बहती एवं सुविधाओं मे उलट-फेर होगा । शारीरिक, मानधारा से रुक कर उलटी बहती है। बारहमूला के सिक एवं नैतिक शक्तियों का पतन होगा। (द्रष्टव्य : पास जल निकलने का स्थान संकीर्ण है। वहाँ जल वन : १८८-१९०; हरिवंश० : भविष्य० : ३ : ५; अधिकता के कारण रुक सकता है या बाढ़ के कारण ब्रह्म : २२९-२३०; वायु० : ५८, ९९ : ३९१वृक्षादि बारहमला के जल बहिर्गमन मे अवरोध ४२८; मत्स्य० : १४४ : ३२-४७; कूर्म० : १ : ३०; उत्पन्न कर दिये थे अतएव जल का पीछे की ओर विष्णु पु० : ६ : १ . २ भागवत० : १२ - २ उठकर बहना स्वाभाविक है । ब्रह्मा० : २: ३१; नारदीय० : पूर्वार्ध : ४१ : २१पाद-टिप्पणी: ८८; लिंग० : ४०; नृसिंह० : ५४ : ११-४९)। २५. बम्बई का २४वां श्लोक तथा कलकत्ता पाद-टिप्पणी : का २३८वीं पंक्ति है। २६. बम्बई का २५वां श्लोक तथा कलकत्ता (१) कलियुग : कलियुग भी मर्यादा रहित का २३९वी पंक्ति है। एवं उचित मार्ग रीति-नीति रहित हो जाता है। पाद-टिप्पणी : भारतीय ग्रन्थों में कलि के सम्बन्ध में अत्यन्त २७. बम्बई का २६वां श्लोक तथा कलकत्ता निराशाजनक, अन्धकारपूर्ण एवं अत्यन्त हृदयस्पर्शी का २४०वी पंक्ति है । बाते कही गयी है। प्रमुख बातें है कि कलियुग मे पादटिप्पणी: शूद्र एवं म्लेच्छों का राज्य होगा। नास्तिक सम्प्र- २८. बम्बई का २७वां श्लोक तथा कलकत्ता दायों की प्रधानता होगी। जाति सम्बन्धी कर्तव्य का २४१वीं पंक्ति है। जै. रा. ११ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जेनराजतरंगिणी शोषितोऽगान्मितैदिनैः । प्रतापशिखिनेवाथ शान्ति क्रूरो जलापूरः सन्निवारे समागतः ।। २९ ।। २९. थोड़े दिनों में ही मानो राजा के प्रतापाग्नि से शोषित होकर, क्रूर जलपूर : सन्निवार' में आकर शान्त हो गया । तद्वर्षे दानोत्कर्षादिव प्रभोः । अथाचिरेण हर्षमन्वभवन् सर्वे पक्कया शालिसंपदा ।। ३० । ३०. शीघ्र ही उस वर्ष राजा के अत्यधिक दान से ही मानो, पकी शालि सम्पत्ति से, सब लोगों ने हर्ष का अनुभव किया । प्रजाचन्द्रकलावृद्धयै तूर्णं पूर्णात्मतां कश्मीरेन्द्रपयोनिधिः । प्राप दयापीयूषभूषणः ।। ३१ ॥ ३१. प्रजारूप चन्द्रकला की वृद्धि के लिये, दया-पीयूष-भूषण नृप पयोनिधि ने शीघ्र ही, पूर्णात्मता प्राप्त की । आत्मेव कश्चित् सुकृती प्रियास्य प्रजा तत्सौख्यवृद्धया तदीयदुःखेन च सुखिता दुःखयुक्तः ॥ ३२ ॥ ३२. कोई सुकृती नृपति आत्मा सदृश होता है और उसे प्रजा उसी प्रकार प्रिय होती है, जिस प्रकार आत्मा को प्रकृति' । उसी के सुख एवं वृद्धि से सुखी एवं उसी के दुःख से दुःखी होता है । २८. (१) ग्वाल बस्ती : गूजरों अथवा घोषों की आबादी से तात्पर्य है -- दूध, गाय, बैल, भेड़े तथा पशुधन का कारबार करते हैं। भारत मे आज भी ग्वालों की आबादी पशुओं के साथ अलग होती है । पाद-टिप्पणी । २९. वम्बई का २८वां श्लोक तथा कलकत्ता का २४२वीं पंक्ति है । १ ) सन्निवार : यह सोनावारी वर्तमान भूखण्ड है। सोनावारी स्थान जल में थोड़ी भी बाढ़ आने पर डूब जाता है। काश्मीर राज्य की ओर जल की रोकथाम की गयी है । यहाँ पूर्वकाल में जलाधिक्य के कारण खेती कठिन होती थी । [ १ : ३ : २९-३२ सोनवार एक स्थान शंकराचार्य पर्वत के दक्षिणपूर्व श्रीनगर का एक भाग है। दोनों ही स्थानों पर जल पहुँच सकता है । श्रीवर का दोनों में किस वर्त - क्षितीशः प्रकृतिर्यथैव । यदास्ते मान स्थान से अभिप्राय है, निश्चित निर्णय के लिए अनुसंधान की आवश्यकता है । पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का २४३वी पक्ति तथा बम्बई संस्करण का २९वाँ श्लोक है । ३०. ( १ ) उस वर्ष सप्तर्षि ४५३८ = सन् १४६२ ई० = विक्रमी १५१९ = शक संवत् १३८४ । पाद-टिप्पणी : ३१. बम्बई का ३०वां श्लोक तथा कलकत्ता का २४४वी पंक्ति है । पाद-टिप्पणी : बम्बई का ३१वां श्लोक तथा कलकत्ता का २४५वीं पंक्ति है । कलकत्ता मे 'युक्ता' के स्थान पर 'युक्त पाठ उचित है । ३२. ( १ ) प्रकृति : नैसर्गिक स्थिति, मौलिक Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ३ : ३३-३५ ] श्रीवरकृता वितस्तोच्चतटे पुरं चिकीर्षुर्बभ्राम ३३. राजा उपद्रव की आशंका से वितस्ता के ऊंचे तटपर, नगर निर्माण की इच्छा से जयापीडर' के समीप भ्रमण किया । तिलकं अकरोत् स जैन तिलकं भूमेरका दर्पहृत्पुरम् नाम नदीतीरोन्नतस्थले || ३४ ॥ ३४. नदी तल के उन्नत स्थल पर भूमि के तिलक स्वरूप, अलका के दर्प का हरण करने , जैनतिलक ' नामक नगर निर्माण कराया । वाला, राज्ञो भूपस्तदुपद्रवशङ्कया । जयापीडपुरान्तिके ।। ३३ ।। ८३ दिदृक्षयेवात्र राजधानीरुचिच्छलात् । सौधभित्तिगता नूनं चन्द्रिकास्ते सुधासि ॥ ३५ ॥ ३५. राजा को देखने की इच्छा से ही, वहाँ राजधानी की प्रभा के व्याज से, निश्चय ही सोध-भित्ति-गत ( होकर) चन्द्रिका निवास करती थी । या भौतिक कारण । सांख्य मे प्रकृति से भिन्न पुरुष की स्थिति मानी गयी है । इसमे सत्य, रज एवं तम तीनों गुण सन्निविष्ट है । पाद-टिप्पणी : बम्बई का ३२ वा श्लोक तथा कलकत्ता का २४६वीं पंक्ति है । राजा ३३ (१) जयापीडपुर : वितस्ता के वाम तट पर सम्बल स्थान है । इस स्थान से कुछ दूर पर प्राचीन जयापीडपुर किंवा जयपुर का स्थान है । जयापीड ने मध्य आठवी शताब्दी में यहाँ राजधानी बनाया था । नोर तथा सम्बल के मध्य एक द्वीप स्वरूप स्थान पर ग्राम अन्दरकोट है । कोटा रानी की यही पर शाहमीर द्वारा वन्दी बनाकर ( जोन० : ३४०, ७८६ ) हत्या की गयी थी । शाहमीर जिसने अपने वंश का राज्य स्थापित किया था, इसी को अपनी राजधानी बनाया था। सुरक्षा की दृष्टि से उत्तम स्थान माना जाता था । श्रीवर कल्हण वर्णित प्रवर सेनपुर निर्माण की शैली पर, जैन तिलक निर्माण का वर्णन करता है। प्रवरसेन ने भी नगर निर्माण की इच्छा से रात्रि में भ्रमण किया था । उसे वैताल मिला। वैताल के सूत्रपात स्थान पर प्रवरसेन ने प्रवरसेनपुर अर्थात् वर्तमान श्रीनगर की स्थापना की थी ( रा० : ३ : ३३९ - ३४९ ) । श्रीवर ने पुनः उल्लेख १ : ३ : ३७, १ : ३ : ४४ तथा ४ : ५३५ में किया है । पाद-टिप्पणी : बम्बई का ३३वां श्लोक तथा कलकत्ता का २४७वीं पंक्ति है। ३४. ( १ ) जैनतिलक : जैनुल आबदीन ने वितस्ता के ऊँचे तट पर अन्दरकोट के समीप जैनतिलक नगर ( सन् १४६२ ई० मे ) बसाया था । वह जलप्लावन में बह गया। यह स्थान अन्दरकोट के समीप था ( मेहि० : पृ० ७६ ) । यही पर जयसिंह राजा राजपुरी या राजौरी का तिलक किया गया था ( १ : ३ : ४० ) । पाद-टिप्पणी : ३५. बम्बई का ३४वां श्लोक तथा कलकत्ता T २४८वीं पंक्ति है । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:३ : ३६-३७ मूलोत्पाटे दशास्योऽरिममेशेन विवर्धितः । इतीव खिन्नः कैलासः सौधव्याजादिवागतः ।। ३६ ॥ ३६. मूलोत्पाटन करने के कारण, मेरा जो शत्रु रावण, जिसे शंकर ने बढाया है, अतएव खिन्न होकर, कैलाश सौधों के व्याज से वहाँ आ गया था। सुधासितगृहा यत्र सन्नागारवसुंधरम् । जयापीडपुरं जीर्ण हसन्तीव रुचिच्छलात् ॥ ३७॥ ३७. जहाँ पर सुधा से श्वेत गृह वालों पुरी, अपनी प्रभा के व्याज से, उत्तम गृह एवं धन रहित, जीर्ण जयापीडपुर का उपहास करती थी। पाद-टिप्पणी : शिव ने पादांगुष्ट से कैलाश दबाया। रावण की बम्बई ३५वा श्लोक तथा कलकत्ता की २४९वी भुजाये पर्वत के नीचे दब गयी । रावण उसी अवस्था पंक्ति है। मे एक सहस्त्र वर्षों तक शिव की प्रार्थना के साथ ३६. (१) रावण : विश्रवस् का पुत्र तथा विलाप करता रहा। शिव ने प्रसन्न होकर, उसे पुलस्त्य ऋषि का पौत्र रावण था । शिव के द्वारा चन्द्रहास नामक खङ्ग दिया। अपने भक्तों में स्थान कैलाश पर्वत के नीचे इसकी भुजाये दब गयी थी। दिया। रावण सुवण शिवालङ्ग आ दिया। रावण सुवर्ण शिवलिङ्ग अपने साथ रखता उस समय इसने भीषण चितकार (राव० : 'सुदारुण') था। शंकर के कारण प्रतापशाली हो गया। श्रीवर इसी कथा की ओर संकेत करता है। किया 'रावा' से इसका नाम रावण पड़ गया (रा०: अयोध्या : १६ : ३९; सु० २३ : ८) एक मत है (२) कैलाश : शंकर का निवास स्थान कैलाश कि तामिल इरैवण (राजा) का संस्कृत रूप रावण है। उन्हें कैलाशपति कहा जाता है । यह हिमालय के है। रायपुर के निवासी गोड अपने को रावण का मध्य स्थित है। हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थान है । वंशज मानते हैं। इसी प्रकार कटकैया जिला रांची चीन के तिब्बत लेने के पर्व कैलाश एवं मानसरोवर में 'रावना' परिवार आज भी रहता है। रावण का की प्रतिवर्ष सहस्रों यात्री यात्रा करते थे। इस उपनाम दशग्रीव है। वह लंकापति था। सीता- समय यहाँ की यात्रा पूर्णतया बन्द हो गयी है । हरण के कारण राम-रावण युद्ध में मारा गया था। कैलाश सिन्ध-महानद के उत्तरी तट पर स्थित है। महाभारत में रावण को विश्रवस् पिता तथा इस पर्वतमाला का सर्वोच्च हिमाच्छादित शिखर पुष्योत्कटा माता का पुत्र कहा गया है। विश्रवस् का राकापोशी २५५५० फीट ऊँचा है। मानसरोवर दूसरा पुत्र कुबेर था। उसने अपने पिता की सेवा के निकटस्थ कैलाश शिखर २२०२८ फुट ऊँचा है। लिये पुष्पोत्कटा, राका एवं मालिनी सन्दर कन्याओं गोलाकार है। ऊपरी शिखर सर्वदा हिमाच्छादित को नियुक्त किया था। इनमें पुष्पोत्कटा से रावण रहता है । उस पर नीचे आती हिमानी कृष्ण वर्ण एवं कुंभकर्ण, राका से खर एवं मालिनी से विभीषण पर्वत पर शिव की काली जटा से गंगावतरण की का जन्म हुआ था (वन०:२५९ : ७)। इस प्रकार स्मृति दिलाती है। कैलाश हिन्द मन्दिर तल्य दर रावण ब्रह्मा का वंशज था। से लगता है। यह देवताओं का आवास माना जाता कुबेर को पराजित कर इसने पुष्पक विमान ले । है। द्रष्टव्य टिप्पणी : १: १२१ । लिया। उस पर चढकर कैलाश के ऊपर से जा रहा पाद-टिप्पणी : था। विमान अचानक रुक गया। कैलाश को उखा- ३७. बम्बई का ३६वां श्लोक तथा कलकत्ता ड़ने की चेष्टा करने लगा। कैलाश हिलने लगा। की २५० वीं पंक्ति है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता तलद्वारोत्सुकस्यास्य राज्ञः प्रत्यक्षतां गतम् । । मायासुरपुरं किं वा यद् दृष्ट्वेत्यवदन् बुधाः ।। ३८ ।। ३८ तल द्वार पर उत्सुक, इस राजा को दृष्टिगोचर हुआ, जिसे देखकर, विद्वानों ने अस्पष्ट 'मायासुरपुर, ' है क्या ?' इस प्रकार कहा । १ १३३८-४० ] यद्वारिकान्तं संक्रान्तं परितः सरितस्तटात् । द्वारिकां हसतीवास्य द्वार कान्त्या सुधासितम् ।। ३९ ।। ३९. नदी के तट पर सब ओर जल में प्रतिबिम्बित, चूने से श्वेत, जिसका द्वार भाग मानो द्वारिका का परिहास करता था। जयसिंहाय तत्र राजपुरीयाय राज्यतिलकं प्रददौ ४०. वहाँ पर राजा के जन्म दिवस के प्रदान किया । पाद-टिप्पणी बम्बई का ३७वां श्लोक तथा कलकत्ता की २५१वीं पंक्ति है । प्रथम पद के प्रथम चरण का पाठ सन्दिग्ध है। ८५ भूपतिः । निजजन्मदिनोत्सवे ॥ ४० ॥ उत्सव पर राजपुरीय' जयसिंह को राजतिलक ३८. ( १ ) मायासुर : यह मयासुर मेरे मत से है । प्राचीन मान्यता के अनुसार मयासुर दानव या नमुचि का भ्राता एवं सर्वश्रेष्ठ शिल्पी या । त्रेतायुग में दक्षिण समुद्र के निकट सह्य, मलय एवं बदुर नामक पर्वतों के समीप एक विशाल गुफा में बने भवन में निवास करता था । दैत्यराज वृषपर्वन द्वारा किये गये होम के समय इसने एक अति चमत्कृतपूर्ण सभा का निर्माण किया था। इसमें दस्यों के संरक्षण के लिये तीन नगरों का निर्माण किया था। वे आकाश जैसे मेघो के समान घूमते दिखायी पड़ते थे। उनमें एक स्वर्ण, दूसरा रजत एव तीसरा लोह का बना था । भगवान् कृष्ण के आदेश पर वृषपर्वत के कोषागार से सामग्री लाकर, मय ने सभा नामक दिव्य सभा का निर्माण किया था । युधिष्ठिर ने अपना राजसूय यज्ञ यही किया था। यह भुवन रचना दुर्योधन के ईर्षा की कारण हुई थी। मत्स्यपुराण 'में उल्लेख मिलता है कि इसने वात्सुशास्त्र की रचना किया था। अनेक शिल्प एवं ज्योतिष शास्त्र ग्रन्थों का रचनाकार मय माना गया है। मयासुर दानवो का विश्वकर्मा है मय ने एक सहस्र वर्ष घोर " तपस्या कर ब्रह्मा से वरदान स्वरूप शुक्राचार्य का समस्त शिल्प वैभव प्राप्त कर लिया था। रावण की पत्नी मन्दोदरी इसकी कन्या थी ( किष्कि० : ५१ : १०-१४ उत्तर० १२ १६-१९ महा० आदि० ६१, ४८-४९, २२७ ३९-४५ सभा० १२-६, २१ वन० २८२ : ४०-४३; कर्ण० ३३ : १७; भा० ६ : १८ : ३, ६ : ६ : ३३; वायु० : ८४ : २०; ब्रह्माण्ड० : ३ : ६ : २८-३० ) । पाद-टिप्पणी : बम्बई का ३८वां श्लोक तथा कलकत्ता की २५२वीं पंक्ति है। ३९. ( १ ) द्वारिका सप्तपुरियों में एक पुरी है । पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक बम्बई संस्करण का ३९ वां श्लोक तथा कलकत्ता की २५३वी पंक्ति है । ४०. ( १ ) राजपुरी राजौरी । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजतरंगिणी [१: ३ : ४१-४३ तत्रोपविष्टः संतुष्टः सेवयास्य महीपतिः। भट्टतन्त्राधिकारं च प्रददौ ब्राह्मणप्रियः ।। ४१ ॥ ४१. वहाँ पर स्थित सेवा से प्रसन्न, ब्राह्मणप्रिय महीपति ने भट्ट तन्त्राधिकार' भी प्रदान किया । काश्मीरकाश्यदेशीयसर्वगीताङ्किताङ्गने । तस्मिन् संवत्सरे राज्ञा चक्रे कनकवर्षणम् ॥ ४२ ॥ ४२. काश्मीर आदि देशीय सर्व प्रकार के संगीत से पूर्ण प्रांगण में उसी वर्ष राजा ने कनक वृष्टि की। तत्रोपकण्ठे भूपालः स्मृत्यै कण्ठीरवद्विषः । हेलालनाम्नो दासस्य हेलालपुरकं व्यधात् ॥ ४३ ॥ ४३. उसी के समीप मतवाले हाथी के हन्ता हेलाल' नामक दास की स्मृति में राजा ने हेलापुर' बसाया। वा रणसिंह तथा कार पाद-टिप्पणी : (२) जयसिंह : राजपुरी का राजा था।जोनराज पादटिप्पणी : ने श्लोक ८३१ में राजपुरी के राजा रणसूह का ४२. बम्बई का ४१ वा श्लोक तथा कलकत्ता की अर्थात् रणसिंह का वर्णन, जैनुल आबदीन के विजय २५५वी पंक्ति है। प्रथम पद का पाठ अस्पष्ट है। प्रसंग में किया है। इस विजय का समय नहीं दिया (१) कनक वृष्टि = कल्हण ने कंकण वर्षा का गया है। जैनुल आबदीन की विजय का समय सन् उल्लेख राजा क्षेमगप्त के सन्दर्भ में किया है। १४२० से १४३० ई० के मध्य रखा जा सकता है। कनक वृष्टि का पुनः उल्लेख श्रीवर श्लोक १:४: इस समय रणसूह राजा था। उसके पश्चात् ही जय- ५२ मे करता है। द्रष्टव्य : टिप्पणी : २१ : ६: सिंह राजा हुआ होगा अथवा रणसिंह तथा जयसिंह ३०१। के मध्य कोई और राजा हुआ था। उसका साधिकार निश्चय करना इस समय सम्भाव्य नहीं है। जयसिंह ४३. बम्बई का ४२वा श्लोक तथा कलकत्ता की के पुनः उल्लेख २: १४५ में किया गया है। २५वी पंक्ति है। पादटिप्पणी (१) हेलाल = यह शब्द अरबी हिलाल है, ४१ बम्बईका ४० वां श्लोक तथा कलकत्ता की जिसका अर्थ द्वितीया का चन्द्रमा है। हेलाल मुसलिम २५४वी पंक्ति है। था जैसा उसके नाम से प्रकट है। (१) तन्त्राधिकार = यहाँ पर सैन्य पद किंवा (२) हेलालपुर = कल्हण ने हेलू नामक ग्राम निरीक्षक का अर्थ लगाना ठीक होगा। दक्षिणी का उल्लेख किया है, परन्तु श्रीवर जैनुल आबदीन भारत अभिलेखों के अनुसार तन्त्राधिकारी विभागों द्वारा हेला नामक दास द्वारा बसाये हेलापुर का का निरीक्षक होता था। द्रष्टव्य टिप्पणी : उल्लेख करता है। दोनों भिन्न स्थान प्रतीत होते १:१:९४ । हैं । हेलालपुर स्थान का अनुसन्धान अपेक्षित है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:३ . ४४-४७] श्रीवरकृता शैलपीठं विधायोच्च जयापीडपुरान्तरे । सरस्तीर्थे मनोहारि राजवासं स्वकं व्यधात् ।। ४४ ।। ४४. जयापीड में ऊँचे शैलपीठ का निर्माण कर, सरोवर के तटपर, अपना मनोहारी राज निवास का निर्माण कराया उदीपडितं जीणं निर्लण्ठ्योपसरोवरम् । महाप्रज्ञो नृपश्चक्रे तद्वद् राजगृहावलिम् ॥ ४५ ॥ ४५. महाप्रज्ञ राजा ने सरोवर के निकट उदीप (बाढ़) में डूबे एवं जीर्ण, उसे तोड़-फोड़कर, उसी तरह से राजगृहावलि बनाया। नागयात्रादिने यत्र प्रत्यब्दं दिनपञ्चकम् । गणचक्रोत्सवे राजा योगिनो भोगिनो व्यधात् ॥ ४६ ॥ ४६. जहाँ पर नागयात्रा के दिन, गणचक्रोत्सव के अवसर पर, प्रतिवर्ष पाँच दिन के लिए योगियों को भोगी बना दिया। यत्र कादम्बरीक्षीरव्यञ्जनादिप्रपूरिताः । कृत्वा पुष्करिणीः सर्वान् स यथेच्छमभोजयत् ।। ४७॥ ४७. जहाँ पर वह राजा पुष्करणियों को कादम्बरी , (सुरा) क्षीर, व्यञ्जनादि से परिपूर्ण कर, सब लोगों को इच्छानुसार भोजन कराता था। पाद-टिप्पणी : (२) गणचक्रोत्सव = गुणी गणों का सह४४. बम्बईः ४३ वा श्लोक तथा कलकत्ता की भोज । तीन पुरुषों के समुदाय को गण कहते हैं । २५७ वी पंक्ति है। सरस्तीरे का पाठ सन्दिग्ध है। (धर्मदीक्षा : जैनग्रन्थ . १३ : ५४; २६ : ६३८)। (१) जयापीडपुर = अन्दरकोट । पाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी: ४७ बम्बई का ४६ वा श्लोक तथा कलकत्ता ४५. बम्बई का ४४ वाँ श्लोक, कलकत्ता की की २५९ वीं पंक्ति है। २५८ वीं पंक्ति है। कलकत्ता के 'पूरित' के स्थान पर बम्बई का प्रथम पद में बुडित तथा 'जीर्ण' का पाठभेद पारिता सन्दिग्ध है। (१) कादम्बरी- कोकिल, सरस्वती, वाणी, पाद-टिप्पणी : मदिरा = कदम्ब के पुष्पों से खीची गयी शराब४६ बम्बई का ४६ वाँ श्लोक तथा कलकत्ता निषेव्य मधुमाधवाः सरसयत्र कादम्बरम् ( शि०४ : की २२९ वीं पंक्ति है। ६६ ) । कादम्बरी साक्षिकं प्रथम सौहृद मिष्पते (१) नागयात्रा = द्रष्टव्य टिप्पणी : जोन- (श० ६)। कादम्बरी मद विधूणित लोचनस्य युक्तं राज : ६५४। हि लाङ्लभूतः पतन पृथिव्याम्-उद्भट । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ यत्र जाने जैन राजतरंगिणो योगिसहस्रोत्थशृङ्गनादासकृच्छ्र तेः । मानस नागोऽपि ४८. जहाँ पर सहस्रों योगियों के श्रृंगनाद को बार-बार सुनने के कारण, मानो मानस नाग' ने भी चक्षु' बन्द कर लिया । [ १ : ३ ४८-५१ न्यमीलन्निजचक्षुषी ॥ ४८ ॥ न तदन्नं न तन्मांसं न तत् शस्यं न तत्फलम् । न ते भोगा न ये राज्ञा भोजिता भोजनक्षणे ॥ ४९ ॥ योगिनां असहिष्ट नृपो ४९. वह अन्न नही, वह मांस नहीं, वह सस्य नही, वह फल नही, वह भाग नहीं, जिन्हे राजा ने भोजन के समय नहीं खिलाया । त्रिविधाश्लील पाद-टिप्पणी : ४८. बम्बई का ४७ व श्लोक तथा कलकत्ता की २६१वीं पंक्ति है । भक्त्या यदसां ५०. योगियो के मदमत्तता के कारण कहे गये तीन प्रकार की अश्लीलता' को भक्ति के कारण राजा ने कहा, जो कि सामान्य लोगों के लिए भी असह्य था । महार्घ्यपरिधानोद्यद्दानमानादिलाञ्छनैः मयोदितम् । जनैरपि ॥ ५० ॥ 1 तेषामधिपतिं यत्र मेर स्वसदृशं व्यधात् ।। ५१ ।। ५१. जहाँ पर बहुमूल्य, परिधान, दान, मान, आदि लाञ्छनों से उनके अधिपति मेर (मीर) को अपने समान बना दिया । (१) मानसनाग = मनसावल का इष्ट देवता, जैसे पद्यसर का देवता पद्यनाग माना जाता है। ( २ ) चक्षु = मान्यता है कि सर्प चक्षु से सुनते हैं । अतएव उन्हें चक्षुश्रवा कहा जाता है । श्रीवर ने वहीं युक्ति दुहराई है । नाद से लोग कान मूँद लेते हैं । परन्तु सर्पको कान नही होता । चक्षु से देखने और सुनने दोनों का काम लेता है, अतएव उसे चक्षुश्रवा कहते हैं ( कि० : १६ : ४२; न० : १ : २८ ) । पादटिप्पणी : ४९. बम्बई का ४८ व श्लोक तथा कलकत्ता की २६२ वी पंक्ति है । पाद-टिप्पणी : ५०. बम्बई का ४९ वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की २६३ वीं पंक्ति है । 'त्रिविधाशील' का पाठ कुछ अस्पष्ट है । ( १ ) अश्लीलता : अश्लीलता तीन प्रकार की होती है । (१) लज्जा (२) जुगुप्सा एवं (३) अमंगल अर्थवाचक | पाद-टिप्पणी : ५१. बम्बई का ५० वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की २६४ वी पंक्ति है । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.३:५२-५३ ] श्रीवरकृता सत्कन्या किन्नरामुद्रादण्डाद्य र्द्वादशीदिने 1 भारिकान् योगिनः कृत्वा प्रत्यमुञ्चत् ततो वहिः ।। ५२ ।। ५२. द्वादशी के दिन सुंदर कन्या, तम्बूरा, मुद्रा, दण्डादि देकर योगियों को भारवाहक बना कर छोड़ा। वितस्ताजन्मपूजार्थं त्रयोदश्यां ततो नृपः । दीपमाला दिदृक्षः सनौकारूढोऽभ्यगात् पुरम् ।। ५३ ।। ५३. तदनन्तर राजा त्रयोदशी के दिन वितस्ता जन्मोत्सव' (पूजा) के लिए, दीपमालाओं को देखने की इच्छा से नौका पर आरूढ़ होकर नगर में गया। पाद-टिप्पणी सन्यास लेना है । पिता, माता, स्त्री, पुत्र आदि बम्बई का ५१ वा श्लोक तथा कलकत्ता की के रहते, दण्ड धारण निषेध है । दण्ड धारण करने २६५वी पंक्ति है। पर यज्ञोपवीत उतार कर भस्म कर दिया जाता है। शिखा का मुण्डन कर देते है । पूर्व नाम बदल दिया जाता है । अनन्तर गुरु दशाक्षर मन्त्र देकर, गेरुवा वस्त्र, दण्ड एवं कमण्डलु देते हैं। धातु एवं अग्नि का स्वर्ण तथा स्वयं भोजन दण्डी नहीं बनाते । केवल एक बार दण्डी सन्यासी मध्याह्न के भोजन करते है। पूर्व ५२. (१) द्वादशी भाद्रपद शुक्ल द्वादशी का पर्व काश्मीर में महत्वपूर्ण माना गया है। यह जब श्रावण के साथ होती है, तो उसे महाद्वादशी कहते हैं । द्रष्टव्य नीलमत पुराण : ७६७७७७ । (२) कन्या गुदड़ी, कयरी, जोगियों का पहनावा या परिधान । थेगली लगा वस्त्र | ८९ कारि पटोर सो पहिरो कन्या । जो मोहि कोउ दिखावे पंया | जायसी ॥ ( ३ ) दण्ड : वर्णानुसार दण्ड धारण करने की व्यवस्था शास्त्रकारों ने की है । उपनयन संस्कार के समय मेखलादि के साथ ब्रह्मचारी को दण्ड धारण कराया जाता है । ब्राह्मण - वेल या पलाश केशांत तक ऊँचा; क्षत्रिय - बरगद या खैर का ललाट तक ऊँचा और वैश्य - गूलर या पलाश नाक तक ऊँचा दण्डधारण करते है । केवल ब्राह्मण सन्यासी दण्ड धारण कर सकते हैं । उन्हें दण्डी सन्यासी कहते है । सन्यासियों में कुटीचक तथा बहूदक को त्रिदण्ड, हंस को एक वेणु दण्ड एवं परमहंस को भी एक दण्ड धारण करना चाहिए। यह भी मत है कि परमहंस को दण्ड धारण करना आवश्यक नही है । दण्ड ग्रहण करने का अर्थ जे. रा. १२ बारह वर्ष दण्डी सन्यासी का व्रत धारण करने पर, दण्ड को जल में प्रवाह कर दिया जाता है । दण्डी उस समय परमहंस आश्रम प्राप्त करता है । मृत्योपरान्त दण्डी का दाह संस्कार नही होता । श्राद्ध आदि नही किया जाता । उनके पार्थिव शरीर को जलप्रवाह अथवा समाधि दी जाती है। दण्डी निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते है । : (४) भारवाहक सुल्तान ने इतना सामान दिया कि वह स्वतः एक भार हो गया था। वे बोझा लेकर चले । पाद-टिप्पणी बम्बई का ५२व लोक तथा कलकत्ता की २६६वी पंक्ति है। ५३. ( १ ) जन्मोत्सव : व्यथत्रुवह कहते है । भाद्रशुल त्रयोदशी को मनायी जाती है। इसे काश्मीरी मे व्यथत्रुवही कहते है । इस समय यह Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी सुभाषितानि संशृण्वन् संगीतानि जलान्तरे । समारोहावरोहाभ्यां स पौराशिषमग्रहीत् ।। ५४ ।। ५४. जल में सुभाषित संगीतों को सुनते हुए, वह आरोहारोह (उतरने चढ़ने) अवसर पर, पुरवासियों का आशीर्वाद ग्रहण किया । पूजार्थं ९० प्रस्फुरत्पौरदत्त दीपावलिच्छलात् । वितस्तान्तरमायाता तीर्थकोटिरिवाद्य तत् ।। ५५ ।। ५५. पूजा के लिए पुरवासियों द्वारा प्रदत्त स्फुरित होते दीपावलियों के व्याज से मानो वितस्ता में आये करोड़ो तीर्थ ही प्रकाशित हो रहे थे । पारावारतटप्रत्ता दीपमालास्तदा अर्चनाप्तसुरो मुक्तसुवर्ण कुसुमश्रियम् [ १ : ३ : ५४-५७ दधुः । ॥ ५६ ॥ ५६. उस समय पारावार तट पर प्रश्रित दीपमालायें अर्चना प्राप्त देवताओं द्वारा उन्मुक्त सुवर्ण पुष्प की शोभा धारण कर रही थीं । वितस्तावलिपूजाप्तनागरीमुख निर्जितः बन्द हो गया है। डॉ० श्री परमू के अनुसार सन् १९४७ ई० अर्थात् आजादी के बाद बन्द हो गया है । कुछ वृद्ध काश्मीरी ब्राह्मण मनाते है । इस दिन कन्याओं को भेंट दिया जाता है ( पृ० : १४३ ) । द्रष्टव्य : नीलमत पुराण : ३०३-३२२ । पाद-टिप्पणी : ५४. बम्बई का ५३वां श्लोक तथा कलकत्ता की २६४वीं पंक्ति है । पाद-टिप्पणी : 1 लज्जयाकम्पतेवेन्दुः सेवाप्तः प्रतिमाच्छलात् ॥ ५७ ॥ ५७. वितस्ता में बलि' पूजा करने के लिए आयीं, नगर स्त्रियों के मुख से निर्जित होकर, प्रतिमा के छल से सेवा हेतु आगत चन्द्रमा मानो लज्जा से काँप रहा था । ५५. बम्बई का ५४वां श्लोक तथा कलकत्ता की २६८वी पंक्ति है । कलकत्ता के 'दीपबलि' के स्थान पर बम्बई का 'दीपावलि' पाठ रखा गया । पाद-टिप्पणी : ५६. बम्बई का ५५ वां श्लोक तथा कलकत्ता की २७९वी पंक्ति है ।. पाद-टिप्पणी : बम्बई का ५६वां श्लोक तथा २७०वी पंक्ति है । कलकत्ता की ५७ (१) बलि : आजकल बलि का अर्थ पशुबलि लगाया जाता है, यह भ्रामक है । बलि का अर्थ आहुति भेंट तथा दैनिक पंचमहायज्ञों में एक यज्ञ है । पूजा, आराधना, चावल ( शाली), अनाज, घी, दूध आदि देवमूर्ति, देवता, नदी, सरोवर, श्रोतस्विनी तथा नागों पर चढ़ाया जाता है । देवता को नैवेद्य अर्पण एवं जीव-जन्तुओं को भोजन आदि देना बलिदान कहा गया है । बलि का अर्थ है : पाठो होमस्वातिथीनां सपर्या तर्पणः बलिः । एते पंचमहायज्ञा ब्रह्मयज्ञादिनायकाः ॥ अमर० : २ : १७ : १४ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:३:५८-६०] श्रीवरकृता गर्वखर्वीकृतारातिः सुपर्ण इव लीलया। सर्वां रात्री स गान्धर्वचर्वणैरनयत् सुखम् ।। ५८ ।। ५८. वह शत्रुओं के गर्व को समाप्त करके, लीलापूर्वक गरुड़ की तरह समस्त-समस्त रात्रि गान्धर्व चर्वण' (नृत्य, गीत-श्रवण) पूर्वक सुख से व्यतीत किया। वन्योऽसौ गुणिबान्धवो दिनपतिर्यस्योदयानुग्रहाद् दृष्टा कुत्र न सर्वदर्शनसुखात् सच्चक्रहर्षस्थितिः । निन्द्यौ तस्य सुतो पितुर्विसदृशौ लोकव्यथोत्पादकौ यौ कालोऽयमिति प्रथामुपगतौ क्रूरग्रहौ निश्चितौ ॥ ५९ ।। ५९. जिसके उदयानुग्रह से सर्व दर्शन का सुख प्राप्त करने के कारण, चक्रवाक् प्रसन्न हो जाते है, उस सूर्य के समान, जिस राजा के उदय अनुग्रह से, सर्व दर्शनों को सुख-सुविधा प्राप्त होने से, कहाँ पर साधु समुदाय में हर्ष की स्थिति नहीं देखी गयी? वह गुणियो का बन्धु वन्दनीय है। उसके निन्दनीय, पिता के प्रतिकूल, ससार को दुःखदायी, जो दोनों पुत्र 'यह काल है'-इस प्रकार प्रसिद्ध हो गये थे, वे क्रूर ग्रह' माने गये। अत्रान्तरेऽनुजद्वेषवशात् कलुषिताशयः । आदामखानो निःशेषं देशमाक्रामयद्धठात् ॥ ६० ॥ ६०. इसी बीच अनुज के द्वेषवश, कलुषित हृदय आदम खाँन हटात् सम्पूर्ण देश पर आक्रमण कर दिया। अध्यायन ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । ५८. (१) चर्वण . स्वाद किवा आनन्द लेने होमो देवो वलि तो नृपज्ञोऽतिथि पूजनम् ।। से अर्थ अभिप्रेत है। मनु० : ३ : ७० पाठ, होम, अतिथि सेवा, तर्पण, बलि पंचयज्ञ पाद-टिप्पणी: है। (१) पाठ-अर्थात् वेदाध्ययनादि ब्रह्मयज्ञ है। (२) हवन-देवयज्ञ है। (३) अतिथि सपर्या-अति बम्बई का ५८वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की थियों को अन्नादि से सन्तुष्ट करना मनुष्य का नयज्ञ २७२वी पक्ति है। है। (४) तर्पण-पितरों को अन्न-जल से सन्तुष्ट ५९ (१) क्रूर ग्रह : शनी, मंगल एवं सूर्य करना पितृयज्ञ है। (५) वलि-जीवों को अन्नदानादि से सन्तुष्ट करना भूतयज्ञ है । क्रूह ग्रह हैं। पाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी: बम्बई का ५७वों श्लोक तथा कलकत्ता की ६०. बम्बई ५९वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की २७१वी पंक्ति है। २७३वी पंक्ति है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जैनराजतरंगिणी यत्रारमेवातिकठिनास्तन्त्रतन्त्रितयन्त्रिणः 1 दुर्मन्त्रिणोऽभजन् राज्ञि तस्मिन् सोऽपि स्वतन्त्रताम् ॥ ६१ ॥ ६१. पत्थर के समान कठिन एवं शासकों को अपने शासन 'बाध्य कर देने वाले दुष्ट मन्त्री उस राजा के समय हो गये थे । और वह भी स्वतन्त्र हो गया था । स्फीते भीते न कामास्त्रे शास्त्रे न रसिकोऽभवत् । केवलं मृगयासक्तश्चमत्कारं श्वभिर्व्यधात् ।। ६२ ॥ ६२. प्रचुर भय के प्रति उदासीन, शास्त्र के प्रति नही अपितु कामशास्त्र के प्रति रसिक, केवल मृगया में आसक्त होकर, कुत्तों द्वारा चमत्कार करता था । यत्र कुत्रापि तिष्ठतः । [ १.३.६१-६५ सरसामन्तरेऽरण्ये मृगयारसिकस्यास्य रात्रिर्दिनमिवाभवत् ।। ६३ ॥ ६३. सरोवर अथवा अरण्य में जहाँ कही भी रहते, उस मृगया रसिक के लिए रात्रि दिन सदृश हो गयी । किमुच्यतेऽन्यन्नीचत्वं यद् भृत्यैर्व्यवहारिवत् । श्येन संहतपक्ष्योघविक्रयो नगरे कृतः ।। ६४ ।। ६४. अन्य नीचता क्या कही जाय जिसके भृत्य, क्षुद्र व्यापारी के समान बाज' द्वारा पक्षि समूहों को एकत्रित कर, नगर में विक्रय कराते थे । का विभज्यासौ यौवराज्यमदोद्धतः । नृपत्याज्यं ययौ प्राज्यपरिच्छदः ॥ ६५ ॥ क्रमराज्यं ६५. एक समय यौवराज्य' मद से उद्धत' वह प्रचुर सेवक सहित नृप त्याज्य क्रमराज्य में गया । पाद-टिप्पणी : ६४. ( १ ) बाज : बाज पालने का प्रथा ६१. बम्बई का ६०वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की हमारे वाल्यकाल तक खूब प्रचलित थी । मुख्यतया २७४ वी पंक्ति है। पाद-टिप्पणी : पठान और मुगल लोग वाम कलाई पर बाज लिये घूमते थे । यह कुलीनता का चिह्न था । बाज उड़ाकर पक्षियों का शिकार किया जाता था । बाज पक्षियों को पकड़कर अपने स्वामी के पास लाता था । इस प्रकार मृत पक्षियों को बेचने से यहाँ तात्पर्य है । पाद-टिप्पणी : ६२. बम्बई का ६१वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की २७५ वीं पंक्ति है । पाद-टिप्पणी : ६३. बम्बई का ६२वीं श्लोक तथा कलकत्ता की २७६ वाँ पंक्ति है । कलकत्ता के " रात्रि" के स्थान पर बम्बई का "रात्रि' र्" पाठ रखा गया है । पाद-टिप्पणी : बम्बइ का ६३ व म्लोक तथा कलकत्ता की २७७वीं पंक्ति है । पाठ - बम्बई । बम्बई का ६४वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की २७८वी पंक्ति है । ६५. (१) यौवराज्य : द्रष्टव्य टिप्पणी : १:२:५। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ३ : ६६-६८] श्रीवरकृता यत्र यत्रोपविष्टः स पापनिष्ठोऽप्यनिष्टवत् । अभवन् पीडितग्रामीणाक्रन्दमुखरा दिशः ॥ ६६ ॥ ६६. अनिष्ट सदृश वह पापी जहाँ-जहाँ पर बैठा, वहाँ पीडित ग्रामीणों के आक्रान्दन से दिशाये मुखरित हो उठीं। प्रसादमतुलोदग्रं प्रतिग्रहदृढां क्षितिम् । उपग्रह इवात्युग्रः संजहार पदे पदे ॥ ६७ ॥ ६७. उपग्रह' सदृश, अति उग्र उसने प्रसाद एवं कठोरतापूर्वक दान देकर, दढ़ की गयी पृथ्वी को पद-पद पर अपहृत किया । क्वचिद्रीत्या क्वचिद्भीत्या क्वचिन्नीत्या विलोभयन्। लोभग्रस्तो बलात्कारान्न केषामहरद्धनम् ॥ ६८ ।। ६८. लोभग्रस्त उसने, कहीं रीति से, कहीं भीति से, कही नीति से, विलोभित करता हुआ, बलात्कारपूर्वक किनके धन का अपहरण नही किया? (२) उद्धत : तवकाते अकबरी मे उल्लेख किस्म के जल्म और फसाद की बुनियाद रख दी। है-कमराज मे शक्ति प्राप्त कर आदम खा ने अनेक दमनकारी कार्य किये ( ४४३ = ६६६ )। जो कुछ भी लोगों के पास देखता कि छीन लेता था। (पृष्ठ १८४ )। आदम खा अपने राज्य कमराज्य में बहुत उत्पीड़क हो गया था। लेकिन रोजर्स यह नही लिखता म्युनिख पाण्डुलिपि में उल्लेख है कि आदम खाँ कि कमराज्य में सुल्तान ने आदम खां को नियुक्त ने उन भूमि को ले लिया, जो दान मे दी गयी थी। किया था। केम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इण्डिया में उल्लेख लोगों की सम्पत्ति लूट लिया। उसकी देखादेखी है-भिक्ष के पश्चात् आदम खां को कमराज का उसके अधिकारियों ने प्रजापीड़न, बलात्कार आदि प्रशासन दिया गया। किन्तु जनता की दमन एवं उत्पीडन एवं लुण्ठक वृत्ति के कारण पिता सुल्तान ने आरम्भ कर दिया (म्युनिख : पाण्डु० : ७५ बी०) । पाद-टिप्पणी: उसकी भर्त्सना किया । इसलिये वह पिता के विरुद्ध बम्बई का ६६वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की उत्तेजित और विद्रोह पर तत्पर हो गया ( ३ : २८०वी पंक्ति है । पाठ कुछ अस्पष्ट है। ३८३ ): ६७. (१) उपग्रह लघु ग्रह . राहु, केतु (३) क्रमराज्य = मराज : त्याज्य राज्य का आदि उपग्रह है। फलित ज्योतिष के अनुसार सूर्य प्रयोग इसलिये किया गया है कि सुलतान ने कमराज का अधिकार आदम खाँ को दे दिया था। जिस नक्षत्र में होते है, उससे पांचवा, आठवाँ, पाद-टिप्पणी. चौदहवां, अठारहवाँ, इक्कीसवाँ, बाइसा, तेइसवाँ बम्बई का ६५वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की और चौवीसवाँ नभत्र उपग्रह कहा जाता है। २७९वी पंक्ति है। पाठ बम्बई 'ऽप्यानिष्ट' का पाठ लघु अर्थात् छोटा ग्रह, जो अपने बड़े ग्रहों के चारों अस्पष्ट है। ओर घूमता है । पृथ्वी का उपग्रह चन्द्रमा है । पाद-टिप्पणी : ६३ (१) पीड़न : पीर हसन लिखता हैकुछ अरसा बाद आदम खा भी बागी हो गया और ६८. बम्बई का ६७वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की हदूद कामराज में कतल व गारत शुरु करके किस्म- २८१वी पंक्ति है। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ जैन राजतरंगिणी स प्राकृत इव व्याजमैत्रीं कुर्वन् गृहागतः । लोभादन्याँन्लवन्यांस्तानन्यान् वित्तेरवञ्चयत् ।। ६९ ।। ६९. लोभवश, वह सामान्य जन के समान घर आकर मित्रता का बहाना बनाते ( कपटमैत्री करते हुए उन लवन्यों को धन से ठग लिया । नीता जारकृताद् युक्त्या सभयास्ताडयन् स्त्रियः । तदुक्त्यादण्डयत् यस्य ग्रामीणान् सेवकव्रजः ॥ ७० ॥ [१:३ ६९-७० ७०. युक्तिपूर्वक ले जायी गयी जार' कृत भयभीत स्त्रियों को प्रताड़ित करते हुए, सेवक समूह ने उसके कहने पर ग्रामीणों को दण्डित किया। उसके पाद-टिप्पणी : बम्बई का ६८वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की २८२वीं पंक्ति है । नयान का पाठ सन्दिग्ध है। ६९. ( १ ) लवन्य कल्हण ने 'लवन्य' वर्ग का सर्वप्रथम उल्लेख राजा हर्प (सन् १०९६११०१ ई० ) के प्रसंग में किया है ( रा० : ७ : ११७१) । कल्हण के समय से जोनराज एवं श्रीवर के समय तक लवन्यों का उल्लेख मिलता है। शुक ने उनका उल्लेख नहीं किया है। इससे प्रकट होता है। कि लवन्य मुसलिम बनकर, अपनी स्वतन्त्र वर्गीय स्थिति समाप्त कर चुके थे । हिन्दू राज्य पतन के कारण थे । कल्हण ने उनके आतंक एवं उपद्रव का वर्णन तरंग ७ तथा ८ मे किया है। जोनराज ने हिन्दूकालीन इतिहास में उन्हे अराजक रूप में चित्रित किया है । मुसलिम राज स्थापित होने के पश्चात् उनका सुलतानों ने दमन किया। वे लोप हो गये । जोनराज काल तक वे काश्मीर के राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण भाग लेते रहे हैं । अनेक गृहयुद्धों के जनक होकर, अन्त में हिन्दू राज्य के विघटन के कारण हुये । ग्यारहवी शती में लवन्य ग्रामीण कृषक रूप में चित्रित किये गये हैं। तन्त्रियों के समान उनका नाम अब तक ग्रामों में 'जन' शब्द से प्रचलित है। यह शब्द लवन्य का अपभ्रंश है । 'लुन' काश्मीर उपत्यका में चारों ओर ग्रामीण क्षेत्रों में बिखरे है। लॉरेन्स का मत है कि वे विलास से काश्मीर में आये थे ( वैली ऑफ काश्मीरी : ३०६ ) | परन्तु स्तीन का मत है कि 'लुनो' मे इस प्रकार की कोई परम्परा प्रचलित नहीं है। लॉरेन्स के अनुसार काश्मीर क्रम मे लोन या लुन लोग वैश्यो के वशज माने जाते है । (द्रष्टव्य टिप्पणी जोन० राज० श्लोक : १७६ : १७७ : २५२ ) । पाट- टिप्पणी : बम्बई संस्करण का ६९ तथा कलकत्ता संस्करण का उक्त श्लोक २८३वी पंक्ति है । 'चार' के स्थान पर बम्बई का 'जार' पाठ रखा गया है। 'स्ताऽथन' पाठ सन्दिग्ध है । विवाहित स्त्री जिस पुरुष के साथ प्रेम या अनुचित ७०. (१) जार : उपपति = प्रेमी = आशिक; सम्बन्ध करती है, उस पुरुष को जार कहते है । परायी स्त्री से सम्बन्ध रखने वाला पुरुष जार कहा जाता है - रथकारः सेवकां भार्यां सजारां शिरसा वहत् — पंचतन्त्र = ४ : ५४ । जार कृत शब्द का तात्पर्य • विचारणीय है । जार के पास रहने वाली कभी की आचरणवान स्त्री से तात्पर्य है, जो जार के पास स्त्रीवत् बन जाती है । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:३:७१-७४ ] श्रीवरकृता तत्तद्विनिग्रहस्थानसावधानमतिस्तदा स तार्किक इवात्युग्रो राष्च्यैिर्दुर्जयोऽभवत् ॥ ७१ ॥ ७१. उस समय, अति उग्र वह तत् तत् बिनिग्रह' स्थानों पर, सावधान मति होकर, तार्किक की तरह, राष्ट्रियों के लिए दुर्जय हो गया। जायास्नुषादुहित्राद्या भव्या येष्वभवन् गृहे । बलात् प्रविश्य संभुक्ता निलेज्जैस्तस्य सेवकैः ॥ ७२ ॥ ७२. जिसके गृह में सुन्दर स्त्री, बहन, बेटी आदि थी, बलात् प्रवेश करके, उसके निर्लज्ज सेवकों ने भोग किया। समणडमत्स्यं कुण्डैस्ते पीत्वा शुण्डान्तरे मधु । __ भाण्डा इव मदोच्चण्डाः श्वासैर्भाण्डमवादयन् ॥ ७३ ॥ ७३. वे मधुशाला में मण्ड', मत्स्य सहित कुण्डों (प्यालों) से मधु पीकर, भाड़ के समान मद से उदण्ड होकर, श्वासों से भाण्ड बजाने लगे। तण्डुलाश्च कुसूलेभ्यः शालाभ्यः पीनवर्कराः । वीटिकाभ्यः स्वयं मद्य भुक्तं तैर्बलकारिभिः ।। ७४ ।। ७४. वखारों से चावलों को, घरों से पुष्ट बकरों को, वीटिकाओं से मद्य को लेकर, उन बलकारियों ने स्वयं भोग किया। पाद टिप्पणी मण्ड का अर्थ खीची हुई शराब भी होता है। बम्बई का ७०वा श्लोक तथा कलकत्ता की (२) भाण्ड = भाड़ शब्द का प्रयोग संस्कृत में २८४वी पंक्ति है। भी सुदूर पन्द्रहवी शताब्दी से होने लगा था। पुरुष ७१. (१) विनिग्रह · विनिग्रह का अर्थ नाचने-गाने तथा उत्सवों पर नाटक करने वाले होते नियन्त्रण, दमन, पारस्परिक विरोध है । कहाँकहाँ से लोगों को पकड़ा जा सकता है, राजनीतिक है। इन्हे उत्तर भारत में भाँड़ कहा जाता है। अर्ध दृष्टि है। यह अर्थ यहाँ अभिप्रेत है जहाँ दुर्बल शताब्दा पूर्व भाड़ा का जाात मुसलमान था, व स्थल होता है, वही राजा सर्वप्रथम अपना प्रभाव भडैती पेशा करते थे, परन्तु अब सभी जाति के लोग स्थापित करता है। भाड़ का काम करते है। कुछ दिन पूर्व लखनऊ के पाद-टिप्पणी : भाड़ प्रसिद्ध थे। श्रीवर ने भाण्डपति शब्द का बम्बई का ७१वां श्लोक तथा कलकत्ता की उल्लेख किया है। परन्तु वहाँ भाड़ों का मालिक २८५वी पंक्ति है। अर्थ अभिप्रेत नहीं है। वह सय्य का विशेष है एक पाद-टिप्पणी : पद है ( क० व० २०५, हो० २०३ )। बम्बई का ७२वा श्लोक तथा कलकत्ता का पाट-टिप्पणी : २६६ वीं पंक्ति है। ७४. बम्बई का ७३वाँ श्लोक तथा कलकत्ता का ७३. (१) मण्ड : उबले चावल को पसाकर माड़ २८७ वीं पंक्ति है । निकाला जाता है। उसे माण्ड या माड़ कहते हैं। पाठ-बम्बई । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:३:७५-७८ सेवकानौचिती तस्य कियती वर्ण्यते मया । ये श्वमूर्धनि वास्तव्यान् घृताभ्यङ्गमकारयन् ।। ७५ ।। ___७५. उसके सेवकों का अनौचित्य कितना वर्णन करूं, जिन लोगों ने ग्रामीणो के शिर पर घी का लेप कराया। हसन्तीरिव ज्वालाभिस्तैलपूर्णा हसन्तिकाः । तान् कारयित्वा ये दीपान् निशास्वज्वलयञ्शठाः ॥ ७६ ॥ ७६. और जिन सठों ने रात्रि में ज्वालाओं से हँसती हुई के समान, जिन्हे तैलपूर्ण हसन्तिका बनाकर दीप जलाये थे इत्यादि कुत्सिताचारं भारात इव भूपतिः । विज्ञप्योद्वेजितो लोकैर्निर्गन्तुं नाशकद् गृहात् ॥ ७७ ॥ ७७. इत्यादि कुत्सित आचार को जानकर, भारपीड़ित के समान, राजा उद्वेजित हुआ और घर से (लोगों के कारण) बाहर निकल नहीं सका। पीडां मा कुरुतेत्यादि राजदूते ब्रुवत्यमी । अवोचन्निति तभृत्या राजा क्रन्दतु पीडितः ॥ ७८ ।। ७८. 'पीड़ा मत दो'-इस प्रकार राजदूत के कहने पर, उसके (आदम खां के) भृत्यों ने इस प्रकार कहा पाद-टिप्पणी : लोग बादशाह की खिदमत में आकर फिरयादी हए । ७५. बम्बई ७४वा श्लोक तथा कलकत्ता की बादशाह हुक्म उसे देता था, आदम खाँ उससे २८८वीं पंक्ति है। बिल्कुल कबूल न करता था (पृष्ठ १८४)। पाद-टिप्पणो : तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है-आदम खां ने किमराज । ( कामराज ) की विलायत पर अधिकार बम्बई का ७५वा श्लोक तथा कलकत्ता की । जमाकर नाना प्रकार के अत्याचार प्रारम्भ कर दिये २८९वी पंक्ति है। और बहुत से लोग उसके अत्याचारों से पीडित होकर ७६. (१) हसन्तिका : कागड़ी। सुलतान की सेवा में न्याय की याचना करने पहुँचे । पाद-टिप्पणी : सुलतान की ओर से जो फरमान उसके पास पहुंचते थे वह उसे स्वीकार न करता था (४४३-६६६)। २९०वीं पंक्ति है। फिरिश्ता लिखता है-गुजरज (क्रमराज्य) की पाद-टिप्पणी जनता आदम खाँ के अत्याचार से पीड़ित हो उठी। बम्बई का ७७वा श्लोक तथा कलकत्ता की। जनता ने श्रीनगर में सुलतान के सम्मुख शिकायत की, २९१वी पंक्ति है। सुलतान ने लगातार उसके पास अत्याचार से विरत ७८. (१) पीर हसन लिखता है-फरियादी होने के लिये सन्देश भेजा ( ४७२ )। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:३ : ७९-८१] श्रीवरकृता वैरं यो गुरुभिः करोति सततं पुष्णात्यलं दुर्जनाँल्लोभात् संचयमातनोत्यनुदिनं तद्दानभोगोज्झितः। दीनान् ग्राम्यजनांश्च पीडयति यो निर्हेतुमत्याक्षिपं स्तस्यासन्नविनाशिनः स्वविभवस्तापाय शापायवा ।। ७९ ॥ ७९. पीड़ित होकर राजा क्रन्दन करे, जो गुरुओं से बैर करता है, दान, भोग त्यागकर लोभवश अनुदिन संचय करता है, अकारण आक्षेप करता हआ, दीन ग्रामीण जनों को पीड़ित करता है, ऐसे उस आसन्न विनाशी का अपना बिभव ताप अथवा शाप के लिए होता है । कुर्वन् स्वसैन्यसामग्री कुद्ददेनपुरे स्थितः। एकदा जैननगरे भूपालं सबलोऽभ्यगात् ।। ८० ॥ ८०. कुद्ददेनपुर' में स्थित रहकर अपनी सैन्य सामग्री संग्रह करते हुए, एक बार वह सेना सहित जैननगर में भूपाल के पास गया। तदिने शङ्कितस्तस्मात् पूर्णकर्णो दुरुक्तिभिः । स्वसैन्यसंग्रहं राजा राजधान्यां गतोऽकरोत् ॥ ८१ ।। ८१ उस दिन शंकित तथा दुशक्तियों से पूर्ण कर्ण' होकर, राजा राजधानी में जाकर अपना शैन्य संग्रह किया। पाद-टिप्पणी: जमाकर दिये। सुलतान को बड़ी दहशत हुई ७९. बम्बई का ७८वां श्लोक तथा कलकत्ता (पृष्ठ १८४ )। की २९२वी तथा २९३वीं पंक्ति है। (२) जैननगर = आदम खाँ ने कुतुबुद्दीनपुर पाद-टिप्पणी: सैन्य संहत कर जैनगिर पर स्थित अपने पिता उक्त श्लोक बम्बई संस्करण का ७९वां श्लोक सुल्तान पर आक्रमण करने की योजना बनायी और तथा कलकत्ता संस्करण की २९४वी पंक्ति है। जैनगिर आया ( म्युनिख : पाण्डु० : ७५ बी०)। ८०. (१) कुद्ददेनपुर : कुतुबुद्दीनपुर, द्र० १ : ७ १६२ हो० व०१६३, क० ६८९ । सुलतान कतुबुद्दीन ने अपने नाम पर बसाया था तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है-वह एक बहुत (जोन : ५२७)। इस समय इस स्थान पर श्रीनगर बड़ी सेना एकत्र करके, सुलतान पर आक्रमण करने के दो मुहल्ले लंगरहठ्ठा तथा पीर हाजी महम्मद के लिये पहुँचा और कुतुबुद्दीनपुर में पड़ाव किया स्थित है । सुल्तान अपने निर्मित कुतुबुद्दीन नगर मे (४४३ = ६६६ )। दफन किया गया था। उसकी कब्र पीर हाजी मुहम्मद फिरिश्ता लिखता है-आदम खाँ ने सुल्तान की जियारत के समीप है। वह इस समय राजकीय की बातों पर ध्यान नहीं दिया और कुतुबुद्दीनपुर मे सेना संग्रह किया। उसने राजधानी पर आक्ररक्षित स्थान है। झेलम के पांचवे तथा छठे पुल के । मण करने की योजना बनायी ( ४७२ )। मध्य स्थित है। पाद-टिप्पणी: पीर हसन लिखता है-बिल आखिर आदम ८१. बम्बई ८० वा श्लोक तथा कलकत्ता की खाँ ने कुतुबुद्दीनपुर में मुकीम होकर अलम वगावत २९४ वीं पंक्ति है। बुलन्द कर दिया और बहुत से फौज अपने इर्द-गिर्द (१) कर्ण : यहाँ यह शब्द श्लिष्ट है। कर्ण जै. रा. १३ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैनराजतरंगिणी [१:३:८२-८४ वितस्तान्तर्वसदारुशैलपूर्णचतुर्ग्रहम् तरदायामपङ्क्त्यश्वदशकं नगरान्तरे ॥ ८२ ॥ ८२. नगर में वितस्ता के मध्य बसने वाले काष्ट एवं शैल से पूर्ण, चर्तुगृह से युक्त, तरद (पार करने वाले) पंक्तिबद्ध दश अश्वों की चौड़ाई से युक्त सेतुबन्धं व्यधाज्जैनकदलाख्यमयं नृपः । स्वकृतं तं तदाज्ञासीत् स्वविघ्नमिव भीतिदम् ।। ८३ ॥ ८३. जैन कदल नामक सेतुबन्ध को इस राजा ने बनवाया। उस समय स्वकृत उसे अपने विघ्न के समान भयप्रद जाना। नगरोपप्लवाशङ्की संत्रस्तो यत्नमास्थितः। पुरान्निष्कासयामास तं सुतं मन्त्रयुक्तिभिः ॥ ८४ ॥ ८४. नगर में उपद्रव की आशंका से सन्त्रस्त, उसने यत्नपूर्वक मन्त्र' युक्तियों से, उस पुत्र को नगर से निकलवा दिया। का अर्थ महारथी कर्ण तथा सुनना दोनों है। कर्ण (१) मन्त्र = पीर हसन लिखता है-सुल्तान दुरुक्तियों से पूर्ण होकर, युद्धक्षेत्र में गया था, यहाँ को दहशत पैदा हुई. इस बिनापर उसे नरमी और सुल्तान का इतना कान भर दिया गया था कि वह, था कि वह, मदारा से कामराज की तरफ भेज दिया (पृष्ठ र उन दुरुक्तियों से प्रभावित होकर, युद्ध की तैयारी १८४)। करने लगा। पाद-टिप्पणी: म्युनिख पाण्डलिपि में उल्लेख मिलता है कि ८२. बम्बई का ८१ वा श्लोक तथा कलकत्ता सुल्तान ने पुत्र समझा-बुझाकर उसे कामराज भेज की २९५ वीं पंक्ति है। दिया। आसन्न युद्ध की स्थिति समाप्त हो गयी _ 'पङ्कत्त्पश्च' का फारसी अर्थ 'दह सवार' (म्युनिख : ७५ बी.)। अर्थात् दश अश्वारोही दिया गया है। तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-'सुल्तान ने पाद-टिप्पणी : किसी न किसी युक्ति से उसको प्रोत्साहन देकर, ८३. बम्बई का ८२ वा श्लोक तथा कलकत्ता किमराज की विलायत की ओर पुनः भेज दिया की २९६ वीं पंक्ति है। (४४३ = ६६६ )। पाद-टिप्पणी : ८४. पाठ-बम्बई फिरिश्ता लिखता है-सुल्तान ने आदम खाँ बम्बई का ८३ वा श्लोक तथा कलकत्ता की को समझा-बुझाकर उसे, गुजरात ( क्रमराज्य ) का २९७ वी पंक्ति है। सूबा देकर भेज दिया (४७२)। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १: ३ : ८५-८६] श्रीवरकृता संतापप्रदमुत्तरायणमिहालोच्यापि रम्यं गुणैयोवाञ्छत्यथ दक्षिणायनममुं ज्ञात्वा हिमार्तिप्रदम् । लोकानामसुखक्षयार्थमुभयोराद्य पुनर्यो भज त्यायैव परोपकारनिरतः सूर्याय तस्मै नमः ॥ ८५ ॥ ८५. सन्तापप्रद उत्तरायण को गुणो से रम्य बनाकर, जो दक्षिणायन ग्रहण करता है, और उसे भी हिमातिप्रद शीतल जानकर, संसार का दुःख दूर करने के लिए ही दोनों अयनों का आश्रय लेता है, उस परोपकार-निरत सूर्य को नमस्कार है। क्रमराज्यान्तरं प्राप्ते तस्मिन् द्वैराज्यशङ्कितः । स्वाक्षरैर्हाज्यखानं स प्राहैषीत् पत्रमित्यदः ॥ ८६ ॥ ८६. उसके क्रमराज्य' पहुंचने पर, दो राज्य की आशंका से, उसने अपने स्वाक्षर युक्त यह पत्र हाजी खाँ को भेजा पाद-टिप्पणी : 'द्वैराज्यवैराज्योः द्वैराज्यमन्योन्य पक्षद्वेषानु८५. पाठ-बम्बई गाभ्या परस्पर संघर्षेण वा विनश्यति ।' अवन्ती में बम्बई का ८४ वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की इस प्रकार की शासन-प्रणाली एक समय प्रचलित २९८ वीं पंक्ति है। थी। वहाँ विद एवं अनुविंद दो राजाओं का राज्य था। छठी तथा सातवी शताब्दी ई० नेपाल में पाद-टिप्पणी : इस प्रकार की शासन-प्रणाली प्रचलित थी। बम्बई का ८५वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की नेपाल के दोनों राजवंशों मे कोई रक्त संबंध नहीं २९९वी पंक्ति है। था। दोनों वंश किसी एक पूर्वज की सन्तान ८६. (१) क्रमराज्य : कमराज्य : द्रष्टव्य टिप्पणी १:१:४०। शक एवं कुषाण राजाओं ने द्वैराज की शासन (२) द्वैराज : भारतीय शासन प्रणालियों मे प्रणाली चलायी थी। उसमे राजा एवं युवराज द्वराज राजप्रणाली प्रसिद्ध है। मुख्यतया ६ प्रकार संयुक्त शासन करते थे। उनमे स्पलिराजेश-अझेस; की शासन प्रणालियों का उल्लेख मिलता है-- हगान-हगामष, गोडोफर-गड तथा कनिष्क द्वितीय (१) अराजक, (२) गण, (३) युवराज, (४) हविष्क के युग्म इस प्रकार के द्वैराज के उदाहरण द्वैराज, (५) वैराज्य तथा (६) दलगत राज्य । दो है। पश्चिम भारत में क्षत्रपों के राज्य में पिता-पुत्र राजाओं द्वारा जब शासन प्रणाली चलायी जाती है तो एक साथ राज्य करते थे। दोनों के नाम से मुद्रायें उसे द्वैराज कहते थे। यूनान के स्पार्टा प्रदेश में द्वैराज भी टंकणित होती थी। पिता महाक्षत्रप की उपाधि शासन प्रणाली प्रचलित थी। इसी प्रकार रोम में दो धारण करता था । तथा पुत्र क्षत्रप कहा जाता था। कौन्सल होते थे। कौटिल्य ने वैराज्य शासन प्रणाली सिकन्दर के भारत-आक्रमण-काल मे पाटल राज्य प्रसंग मे द्वैराज का विवेचन किया है। कौटिल्य (सिन्ध ) में पृथक् दो वंश के राजाओं का संयुक्त ( अर्थ ८:२) के मत से इस प्रकार की शासन शासन चलता था ( मैक-क्रिण्डल : इनवेशन ऑफ प्रणाली घातक सिद्ध होती है इण्डिया बाई अलेक्जेंडर ए ग्रेट, ( पृष्ठ : २९६ ) । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन राजतरगिणी पुत्र मेऽवसरो दुष्टस्तादृक् प्राप्तो यत्र मत्प्राणसंदेहे गतिर्नान्या त्वया ८७. 'हे ! पुत्र !! मेरा बुरा समय है और वैसा ही दुरुत्तर प्राप्त हुआ है, जिससे मेरा जीवन सन्देहात्मक स्थिति में है । तुम्हारे बिना दूसरी गति नही है । दुरुत्तरः | मत्पत्रावेक्षणे युक्तं शयितस्य तवासनम् । आसीनस्य समुत्थानमुत्थितस्य च धावनम् ।। ८८ ।। ८८. 'मेरा पत्र देखने के समय सोये हुए, तुम्हारा उठना तथा बैठे हुए का उठना उठे का दौड़ना उचित है। कौटिल्य इस राज्य प्रणाली का विरोधी है । विदर्भ मे शुगों द्वारा स्थापित इस प्रकार का राज्य नष्ट हो गया था ( मालविकाग्निमित्र ५१३ ) । [ १ : ३ : ८७-८९ किमन्यत् सत्यमेवोक्तं त्यक्त्वापि श्रुतयन्त्रणाम् । यद्यागच्छसि तत् तूर्णं पूर्ण प्राप्स्यसि वाञ्छितम् ।। ८९ ॥ श्रीलंका में दो दामेल भ्राता सेन तथा गत्तक श्रीलंका का राज्य पाया था। एक साथ राज्य करना आरम्भ किये । किन्तु बाईस वर्षों के पश्चात् ही राज्य समाप्त हो गया ( महावंश० २१: १०-१२ ) । विना ॥ ८७ ॥ ८९. 'दूसरा क्या कहूं ? सत्य ही (मैंने) कह दिया है। श्रुति यन्त्रणा त्यागकर, यदि शीघ्र आवोगे, तो अपना वांच्छित पूर्ण पावोगे । जैनुल आबदीन द्वैराज्य किंवा द्वैध शासन की बुराई से सतर्क था । वह देख रहा था कि या तो काश्मीर में दोनों भाइयों का दो राज्य स्थापित होकर काश्मीर विभाजित होकर, शक्तिहीन हो जायगा अथवा बाध्य होकर, उसे अपने किसी एक पुत्र के साथ राज्य करना होगा । तत्कालीन मुसलिम राज्यों की नीति देखते हुए उसके लिये खतरे से खाली नहीं था । (३) पत्र: पीर हसन लिखता है - 'हाजी खां को सुल्तान ने खुफिया तौर पर पैगाम भेज दिया कि वह फौरन अपनी जमीअत लेकर दारूल खलीफा पहुँचे ( पृ० १८४ ) ।' तवक्काते अकबरी में उल्लेख है - 'सुल्तान ने हाजी खां को शीघ्रातिशीघ्र बुलाया ( ४४३ ) ।' फिरिश्ता लिखता है - 'आदम खा के वहाँ ( क्रमराज्य ) जाने पर आदम खां इस बात से अपमानित हुआ कि सुल्तान ने उसके निष्काशित अनुज हाजी खां को बुलवाया (४७२ ) । ' पाद-टिप्पणी : ८७. बम्बई का ८६वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की ३००वी पंक्ति है । पाद-टिप्पणी : ८८. बम्बई का ८७वां श्लोक तथा कलकत्ता की ३०१वी पंक्ति है । पाद-टिप्पणी : ८९. बम्बई का ८८वां श्लोक तथा कलकत्ता की ३०९वीं पंक्ति है । कलकत्ता के 'क्ते' के स्थान पर 'क्त' रखा गया है। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता चेत् प्राप्तो मयि जीवति बिह्वले । मदभ्यर्ण पुनरागमनेन किम् ।। ९० ।। ९०. यदि बिल मेरे जीवित रहते अति शीघ्र नही आयोगे, तो मेरे चले (मर) जानेपर, पुनः मेरे निकट आने से क्या लाभ होगा ?" १ : ३ : ९०-९१ ] अतितूर्णं न गते मयि तावत् सुयपुरं प्राप्तः सोऽभूत् तीर्णो नृपात्मजः । राजानीकैः समं युद्धमुद्धतं सचलो व्यधात् ।। ९१ ।। ९१. जैसे ही वह सबल राजपुत्र सुय्यपुर उद्धत युद्ध किया। . १०१ पहुँचकर अग्रसर हुआ, राज सेना के साथ पाद-टिप्पणी भूकम्प में किला गिर गया है। सोपोर में रंगीचक ने ९०. बम्बई का ८९ वां श्लोक तथा कलकत्ता की किला निर्माण कराया था, वह भूचाल से गिर गया । २०३वी पंक्ति है। समीप है। इस समय तिजायहाँ से टिटवाल, मच्छीपुर, लिये मार्ग जाते हैं । यहाँ सुम्पपुर उत्तर लेक के रत की बडी मण्डी है । हिन्दवारह, बान्दीपुर के पाद-टिप्पणी श्रीस्तीन ने 'सूय्यपुर' ही नाम दिया है। 'सुय्य' पर कालेज तथा बालिका एवं बालक विद्यालय भी है पाठ स्वीकार किया गया है । ( द्रष्टव्य : रा० : ५ : ११८; ८ : ३१२८, जोन० : ३४०, ८६८; शुक० १ ८०, ९१ ) । बम्बई का ९०वी श्लोक तथा कलकत्ता की ३०४वी पंक्ति है। : ९१. (१) सुय्यपुर कल्हण सुय्यपुर के निर्माण पर प्रकाश डालता है । कल्हण के अनुसार वितस्ता के दोनों तटो पर सुय्यपुर आबाद था, जो आज भी स्थित है । सन् १८९९ ई० मे सुय्यपुर अर्थात् सोपोर की आबादी आठ हजार थी । इस समय यहाँ आधुनिक नगर के सभी प्रसाधन उपलब्ध है। जैनुल आबदीन ने सन् १४६० ६० में दोनों तटों की आबादी को सम्बन्धित करने के लिये पुल को बनवाया था । श्रीनगर बारहमूला राजपथ के मध्य बारहमूला से १० मिल पर स्थित है । सोपोर से श्रीनगर नाव द्वारा १४ घण्टा, बारहमूला ३ || घण्टा में पहुंचते है । गुलमर्ग सोपुर से १७ मिल दक्षिण-पश्चिम है । सोपुर से वादीपुर १६ मिल है । यहाँ एक किला भी था। पुल के नीचे नदी २८ फीट गहरी है । दक्षिण दिशा में एक शिव मन्दिर है । इसके सामने दूसरे तट पर एक मसजिद है। सन् १८८५ ई० के पीर हसन लिखता है - हाजी खाँ ने पैगाम पाते ही कूच करके, कसवा सोपोर में आकर क़याम किया ( पृ० १८४ ) । तवक्काते अकबरी में उल्लेख मिलता है'आदम of किपराज (कामराज पहुँच कर अविलम्ब वहाँ से निकला और सोयापुर ( सुय्यपुर ) पर उसने आक्रमण किया । वहाँ का हाकिम, जो सुलतान के पूर्व से ही वहाँ के अधिकार मे या निकल कर युद्ध किया और मारा गया ( ४४४ = ६६७) ।' बीवर हाकिम का नाम नत्यभट्ट देता है । फिरिश्ता लिखता है— उसे मदद देने के स्थान पर हाजी खाँ ने भाई ( आदम खाँ ) पर आक्रमण कर दिया। हाजी खाँ शीवपुर ( सोपोर) मे पराजित हो गया। जिसे आदम खाँ ने नष्ट कर दिया । इस समाचार के मिलते ही सुस्तान ने अपनी सम्पूर्ण सेना आदम खाँ पर आक्रमण करने के लिये भेजा ( ४०३) । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी राष्ट्राधिकारिणं तत्र नत्थभट्टं भटैः सह । हत्वा कृत्वा च कदनं देशोत्पिञ्ज क्रुधा व्यधात् ॥ ९२ ॥ ९२. वहाँ पर क्रोध से भटों के साथ राष्ट्राधिकारी नत्थभट्ट को मारकर तथा विनाश कर के, देश में उत्पजं उपद्रव किया। अथोदतिष्ठत् तुमुलस्तकालं उन्नद्धखानसन्नद्धयुद्धेक्षणसुदुःसहः ॥ ९३ ॥ ९३. उन्नद्ध खाँ के सन्नद्ध युद्ध के कारण देखने में दुःसह तुमुल उठा । अष्टाविंशाब्दवदसस्मिन पञ्चत्रिंशेऽपि वत्सरे । वैरं नीत्वा पिताgat पिशुनैः कारितो वधः ॥ ९४ ॥ ९४. अट्ठाइसवें वर्ष के समान उस पैतीसवें वर्ष भी पिशुनों ने पिता-पुत्र में बैरभाव उत्पन्न करके वध कराया । १०२ सैन्ययोर्द्वयोः । पाद-टिप्पणी : पाठ: बम्बई । कलकत्ता संस्करण में यह श्लोक नही है । किन्तु बम्बई में है । अतएव इसे रखा गया है । बम्बई का ९१वाँ श्लोक है । ९२. (१) उत्पिज्य : पीर हसन लिखता है— आदम खाँ ने उसे जंग में शिकस्त देकर, सोपोर लूट लिया ( पृ० १८४) । म्युनिख पाण्डुलिपि में उल्लेख है कि हाजी खाँ के पहुँचने के पूर्व आदम खाँ ने सोपोर पर आक्रमण किया । वहाँ के अधिकारी ने आदम खाँ का सामना किया परन्तु आदम खाँ द्वारा वह मारा गया और आदम खाँ ने नगर को लूट लिया । श्रीवर तथा म्युनिख पाण्डुलिपि को मिलाकर पढ़ने से यही निष्कर्ष निकलता है कि नत्थभट्ट सोपोर का हाकिम था वह प्रतिरोध करते मारा गया था ( म्युनिख पाण्डु० : ७५बी०; तवक्काते अकबरी : ३ : ४४४ ) । तवकाते अकबरी भी यही लिखती है- समस्त नगर नष्ट-भ्रष्ट हो गया ( ४४४ ) । [ १ . ३ : ९२-९५ तत्रत्या दरदा वान्ये परितः सरितो जले । श्वपूर्णमभूत् सरः ।। ९५ ।। अन्य जन चारों ओर से नदी जल में ममज्जुस्तद्भयाद् येन ९५. उसके भय से वहाँ के दरद' या जिससे सर शवपूर्ण हो गया । डूब गये । फिरिश्ता लिखता है - 'घोर युद्ध हुआ। युद्ध मे आदम खाँ पराजित हो गया। उसके बहुत वीर सैनिक पीछे हटते हुए मार डाले गये' ( ४७३ ) । पाद-टिप्पणी : बम्बई का ९२ श्लोक तथा कलकत्ता की ३०५वी पंक्ति है । पाद-टिप्पणी : ९४. बम्बई का ९३ वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की ३०६ वी पंक्ति है । ( १ ) अठ्ठाइसवें = सप्तर्षि ४५२८ = सन् १४५२ ई० = सम्वत् विक्रमी, १५०९ = शक सम्वत् १३७४ । ( २ ) पैतीसवें = सप्तर्षि ४५३५ = सन् १४५९ ई० = विक्रमी १५१७ = शक सम्वत् १३८२ । पाद-टिप्पणी : ९५. बम्बई का ९४ व श्लोक तथा कलकत्ता की ३०७ पंक्ति है । (१) दरद दारद - दरद देश का कल्हण ने Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ३ : ९६] श्रीवरकृता १०३ हत्वा मृत्युरिवात्युग्रांतदिने नृशतत्रयीम् । नौसेतुबन्धमुच्छिद्य नदीपारं समासदत् ।। ९६ ॥ ९६ उस दिन भृत्य सदृश वह अत्युग्र तीन सौ मनुष्यों को मारकर तथा नाव के सेतु' का उच्छेद कर, नदी पार पहुंच गया। बहुत उल्लेख किया है। (रा० : १. ९३, ३०७, है कि संस्कृत भाषा-भाषी क्षेत्रों के सीमावर्ती अंचल मे ३१२; ५ : १५२;७ : ११९, १६७, १७१, १७४, दरद जाति निवास करती थी। काश्मीर की भाषा १७६,३७५, ९११,११७१,११७३, ११७४, ११८१, संस्कृत थी। सीमांत पश्चिमोत्तर प्रदेश में संस्कृत ११८५, ११९५, ११९७; ८ २०१, २०९, २११, भाषा का प्रसार था । अतएव संस्कृत का दरद भाषा ११३०, २४५४, २५१९, २५३८, २७०९, २७६४, पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। प्राचीन विद्वान दरद २७६५, २७७१, २७७५, २८४२-९७, ३४०१, भाषा को संस्कृत भाषा की शाखा मानते थे। उसे ३०४७) । प्राचीन भारतीय साहित्य एवं ऐतिहासिक पैशाची प्राकृत कहते थे। दरद भाषा के ही अंतर्गत ग्रन्थों मे दरदों का एक देश एवं जाति दोनों रूपों मे खोवार, किंवा चित्राली आदि, काफिरिस्तान की बहुत उल्लेख मिलता है। दरद का अर्थ पर्वत होता बोलियाँ आती है। काफिरिस्तान की भाषा में बश्गली, है। दरद जाति पर्वतीय है। उनका समस्त प्रदेश बइअला, बसिबेरी, अशकुन्द, कलाशाप, शादी पर्वतों के मध्य है। कृष्णगंगा के ऊर्ध्वभागीय बोलियाँ आ जाती है। शीना भाषा भी दरद के उपत्यका एवं उत्तरीय काश्मीर में दरदों का देश अन्तर्गत आती है। शीना की ही बहन गिलगिती था। उसे आज भी दर्दिस्तान कहते है। दरदापुर भाषा है। इसी भाषा के अन्तर्गत भाषाविद् कोहिकिंवा दरतपुरी वहाँ का नगर है। दरदक्षेत्र को स्तानी, मैया, तोरवारी, गार्वी एवं अश्कुन्द रखते है । दरस भी कहते हैं। दरदिस्तान पामीर के दक्षिण दरद जाति मूलतः आर्य है। इस समय दर्दिस्तान है। दारदिक एवं पैशाची भाषा को आर्य भाषा की में कोई हिन्दू नहीं है। सभी मुसलमान है। वे एक साखा माना गया है। एक मत है कि दरदी काश्मीर के उत्तर पर्वतीय क्षेत्रों में रहते है । तिब्बती भाषा इरानी तथा फारसी के मध्य की भाषा है। बालती लोग उनके पड़ोसी हैं। पूर्व दिशा में लद्दाखी भारत में दरद को एक जाति माना गया है। और पश्चिम में अफगानी या पठान आबाद हैं। पूर्वकाल मे वे क्षत्रिय थे। कालान्तर में ब्राह्मणों के कोप के कारण शूद्र हो गये। इस समय सभी मुसल- पाद-टिप्पणी : मान है। द्रष्टव्य : रा०: भाग १: परिशिष्ट 'ध'। बम्बई का ९५वा श्लोक तथा कलकत्ता की बौद्ध ग्रंथ ललितविस्तर से ज्ञात होता है कि ३०८वी पंक्ति है। दरदों की लिपि ६४ लिपियों में से एक थी। दरद ९६. (१) सेतु : यहाँ सुय्यपुर में वितस्ता भाषा के क्षेत्र पामीर, प्लेटो तथा पश्चिमोत्तर सीमा- पर बना पल अभिप्रेत है। पीर हसन लिखता हैप्रान्त के मध्य है। यह क्षेत्र पंजाब के पश्चिम-उत्तर है। आदम खां के बहुत से सिपाही काम आये । और वह दरद भाषा पख्त एवं पश्तो भाषा के समान फारसी शिकस्त खा गया । दौरान हजी मत ( पराजय ) में एवं भारतीय भाषा के मध्य स्थिति मानी गई है। ज्योंही कि वह सोपोर के पुल से गुजर रहा था कि पश्तो, फारसी की ओर झुकी है। परन्तु दरद भार- अचानक पुल टूट गया और उसके तीन सौ बहादुर तीय भाषा की ओर झुकी है । उसका मुख्य कारण लुकमा अजल हो गये ( पृष्ठ १८४)। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनराजतरंगिणी [१: ३ : ९७-९८ धिक् तं यः पैतृके देशे रक्षणीयेऽपि निष्कपः । परदेशजयं त्यक्त्वा तादृङ् निन्धं समाचरत् ।। ९७ ॥ ९७ उसे धिक्कार है जो, कि रक्षणीय भी पैतृक देश के प्रति निर्दय हो गया। पर-देश का जय त्याग कर, उस प्रकार का निन्दनीय कृत्य किया। पापास्ते शिखजादाद्याः गृहीत्वोभयवेतनम् । भूपमुद्वेजयामासुः फलं यैरनुभूयते ।। ९८ ॥ ९८ शिखजादा' आदि उन पापियों ने दोनों तरफ से वेतन ग्रहण कर, राजा को उद्वेजित किया और जिन लोगों ने फल का भी अनुभव कर लिया। तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-'सुल्तान ने ३१०वी पंक्ति है। समाचार पाकर बहुत बडी सेना आदम खों के विरुद्ध ९८. (१) शिख : एक मत है कि यह शब्द भेजी। घोर युद्ध हुआ। दोनों सेनाओं के बहुत लोग मारे गये । आदम खाँ पराजित हो गया। सोयापुर - शिकदार है । परगनों के हाकिम को शिकदार कहते ( सुय्यपुर-सोपोर ) का पुल जो बहत ( वितस्ता- थे (फिरिश्ता तथा तारीख हसन पाण्डु० : २ : झेलम) नदी के ऊपर तैयार किया गया था टूट गया, फो० : ९६ ए.)। शिकदार लोग परगनों के तो आदम खाँ के लगभग ३०० आदमी भागते समय हाकिम थे। ( फिरिश्ता ६५७ तथा तारीखे हसन : डूब गये ( ४४४-६६६ )। पाण्डु० : ९६ ए० । ) शाब्दिक अर्थ शेखजादा अर्थात् फिरिश्ता लिखता है-वे सैनिक जो (शीवपूर) शेखों के पुत्र होता है। नवाबजादा आदि के समान सोपोर के नगर में भाग गये थे, उनमें ३०० सैनिक वेहुत ( वितस्ता-झेलम ) में डूब मरे ( ४७३ )। शेखजादा शब्द प्रकट होता है। पंजाब में परगना से नीचे का स्थान 'शिक' था। इसे कस्बा भी तवक्काते अकबरी में स्थान का नाम 'सह' तथा 'मह' पाण्डुलिपियों में दिया गया है। लीथो संस्करण कहते थे। पंजाब में शिक तथा 'सदी' शब्दों में नाम 'वजह' तथा फिरिस्ता ने 'पंजह' दिया है। का प्रयोग मिलता है। अमीर-ए-सद का ओहदा कर्नल विग्गस, रोजर्स अथवा कैम्ब्रिज पर तहसीलदार के समान था। सुल्तानों के समय पंजाब ऑफ इण्डिया में स्थान के नाम का उल्लेख नहीं है में 'शिक' (जनपद) तत्पश्चात् 'मदीना' अर्थात् सब( ३ : ४४४ = ६६७)। डिवीजन या प्रखण्ड था। प्रत्येक 'मदीना' पुनः १०० पाद-टिप्पणी: गाँवों के समूह 'सदी' या परगनों में विभाजित बम्बई का ९६वा श्लोक तथा कलकत्ता की थे। शिक का शासक 'आमिल', 'नाजिम' या ३०९वीं पंक्ति है। 'शिकदार' कहा जाता था (पंजाब अण्डर सुल्तान्स : पाद-टिप्पणी: निज्जर : पृ० १०३-१०४; द्र० : १ : ३ : १०२, बम्बई का ९७दा श्लोक तथा कलकत्ता की १०३; २ :५१)। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:३ : ९९-१०१] श्रीवरकृता १०५ उच्चः सत्फलदो यथायमहमप्येतादृगेतावता स्पर्धा यावदियेष हन्त जनकेनैकेन मन्दः सुतः । भास्वानभ्युदितः स तावदतुलः सर्वप्रकाशोधतो यन्माहात्म्यवशेन वक्रगतयो ध्वस्ता भवन्ति स्वयम् ।। ९९ ।। ९९. जिस प्रकासर यह उन्नत एवं सत्फलप्रद है, उसी प्रकार मुझे भी दुःख है कि जबतक इतनी स्पर्धा पिता से मन्द पुत्र ने की, तबतक सबके प्रकाश हेतु उद्यत, अतुलनीय सूर्य उदित हो गये, जिनके माहात्म्यवश कुटिलगामी स्वयं ध्वस्त हो जाते हैं । तद्देशकष्टदैर्दुष्टः प्रजानां नाशहेतुना। आदमखानो वित्राणो लक्ष्म्या भाग्यश्च तत्यजे ।। १०० ।। १००. आदम खाँन जो कि प्रजाओं के विनाश का हेतु था, उस देश के कष्टप्रद दुष्टों ने उस त्राण रहित को लक्ष्मी एवं भाग्य से वंचित कर दिया। ईत्यातङ्कादिभिर्दुःवरं देशेऽत्र जीव्यते । सर्वनाशकरी मास्तु भूभर्तुर्बह्वपत्यता ॥ १०१ ॥ १०१. ईति', आतंक आदि दुःखों के साथ (रहकर) इस देश में जीना अच्छा है किन्तु (देशमें) राजा के सर्वनाशकारी बहुत सन्तान न हो । पाद-टिप्पणी: ९९. बम्बई का ९८वां श्लोक तथा कलकत्ता की ३११वीं पंक्ति है। पाद-टिप्पणी : १००. बम्बई संस्करण का यह ९९वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की ३१२वी पंक्ति है। पाद-टिप्पणी: बम्बई का १००वा श्लोक तथा कलकत्ता की ३१३वी पंक्ति है। १०१. (१) ईति : पीड़ा, दुःख, संकट, विपत्ति आदि से अर्थ अभिप्रेत है। (१) अतिवृष्टि, (२) अनावृष्टि, (३) टिड्डी, (४) चूहा, (५) तोता तथा (६) बाह्य आक्रमण आदि से देश पर ६ प्रकार की ईतियों का उल्लेख मिलता है-ईति ६ प्रकार की होती है अतिवृष्टिनावृष्टिः शलभाः मषकाः शुकाः प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः। जै रा. १४ सात ईतियों का भी उल्लेख मिलता हैअतिवृष्टिरनावृष्टिमूषिकाः शलभाः खगाः । प्रत्यासन्नाश्च राजानः सप्तैता ईतयः स्मृताः ।। ईति का अर्थ विप्लव भी होता है। ईतिडिम्बप्रवासयोः ( अमर० : ३ : ३ : ६८ )। तुलसीदास ने ईति का इसी अर्थ में प्रयोग किया हैदशरथ राज न ईतिभय नहिं दु:ख दुरित दुकाल । प्रमुदित प्रजा प्रसन्न सब सब सुख सदा सुकाल । सूरदास ने भी इसी अर्थ में प्रयोग किया हैअब राधे नाहिन ब्रजनीति । सखि बिनु मिले तो ना बनि ऐहै कठिन कुराज राज की ईति । कवि गोकुल ने भी लिखा है बसिनो ओर की वायु बहै यह सीत की ईति है बीस बिसा मै। राति बड़ी जुग सी न सिराति रह्यौ यि पूरी दिशा विदिशा में । द्र० जैन० ४ : ५२२ । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनराजतरंगिणी [१:३: १०२-१०५ सा चेत तेषां स्वभेदो मा भूयाद् वैरात परस्परम् । मा जायेताथ वा दुष्टः सुतः कस्यापि दुःखदः ।। १०२ ॥ १०२. यदि राजा को बहुत सन्तान हो, तो परस्पर बैर से उनमें भेद न हो अथवा किसी को भी दुःखद दुष्ट पुत्र उत्पन्न न हो। प्रजान्तकारिणौ क्रूरौ राजपुत्रावुभावपि । सूर्यस्येव महीभत्तः पङ्गुकालाविवोदितौ ॥ १०३ ।। १०३ सूर्य के शनि' एवं यम के सदृश राजा के प्रजान्तकारी एवं क्रूर दो पुत्र हुये । अपकर्तन् विपन्मग्नान् दयमानः परानपि । क्षमी दाता गुणग्राही स्वामीदृग् लभ्यते कथम् ।। १०४ ।। १०४. अपकारी विपत्तिमग्न शत्रुओं पर भी दयालु, क्षमाशील, दाता, गुणग्राही ऐसा स्वामी कैसे (कहाँ) प्राप्त होता है ? व्यथितो यत् सुतैर्दुष्टः सोऽस्माद्भाग्यविपर्ययः । शृण्वन् स रुदिताक्रन्दमिति पौरगिरः पथि । पाददाहव्यथार्तोऽपि नगरान्निरगान्नृपः ।। १०५ ॥ १०५. दुष्ट पुत्रों से, जो वह व्यथित हुआ, यह हमलोगों का भाग्य विपर्यय' ही है-इस प्रकार मार्ग में रुदन एवं क्रन्दनपूर्वक पुरवासियों की वाणी सुनकर, पाददाह की व्यथा से पीड़ित भी नप नगर से निकल पड़ा। (२) सन्तान : मुसलिम राज्यवशों में बहु- पर मनुष्य बहुत परीशान और विपन्न तथा अस्थिर सन्तान सर्वदा अभिशाप रहा है। पारस्परिक संघर्षों हो जाता है। प्रबल ग्रह है। द्र० जैन० १:१: के कारण विश्व इतिहास अति रक्तरंजित है। १५; २ : २७।। पाद-टिप्पणी: (२) यम : वैदिक काल में मृत्यु के देवता माने गये है। यम एवं यमी भाई-बहन एवं सूर्य के १०२. बम्बई का १०१वां श्लोक तथा कलकत्ता पुत्र थे ( ऋ० : १ : १६५ : ४)। सबसे पहले की ३१४वी पंक्ति है। मरने वाले व्यक्ति यम थे (अथर्व० : १८:३: पाद-टिप्पणी: बम्बई का १०२वा श्लोक तथा फलकत्ता की पाव है कोनी पाद-टिप्पणी: ३१५वीं पंक्ति है। १०४. बम्बई का १०३वा श्लोक तथा कलकत्ता की २१६वीं पंक्ति है। १०३. ( १ ) शनि : सूर्य का पुत्र जिसने छाया पाद-टिप्पणी : के गर्भ से जन्म लिया था। इनका वर्ण काला तथा बम्बई का १०४वा श्लोक तथा कलकत्ता की वाहन गृद्ध है । अशुभ फलदायक ग्रह माना गया ३१७वीं पंक्ति है । है। फलित ज्योतिष के अनुसार शनि की दशा होने १०५. (१) भाग्य विपर्यय : जोनराज ने भी Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:३ : १०६-१०७] श्रीवरकृता १०७ पुत्रोत्पत्तिमवेक्ष्य तुष्यति नृपो वोढा धुरः स्यादिति स्नेहात् संपदमस्य यच्छति निजामुल्लङ्घय नीतिक्रमम् । ज्ञात्वा तं बलवन्तमात्मसदृशं तादृग् भिया शङ्कते येनासन्नसुखो न जातु लभते निद्रां सचिन्ताज्वरः ॥ १०६ ॥ १०६. 'पुत्रोत्पत्ति से नृप प्रसन्न होता है कि राजभार का वहन करने वाला होगा। स्नेह से नीतिक्रम का उल्लंघन करके, अपनी सम्पत्ति उसे दे देता है। पश्चात् अपने समान बलवान जानकर भय से इस प्रकार शङ्कित होता है कि सुख समीप होने पर भी, वह चिन्ताज्वरग्रस्त होकर, कभी निद्रा नही प्राप्त करता। बद्धवा मल्लिकजस्रथेन स यदा राजालिशाहिर्हतो भ्रातृद्वेषवशाद् बभूव कदनं काश्मीरिकाणां महत् । तद्वज्जैनमहीभुजोऽस्य तनयद्वेषात किमालोक्यते तन्मा भूद् बहुसन्तति पगृहे देशे विनाशप्रदा ॥ १०७ ॥ १०७. 'जब मलिक जसरथ' द्वारा बाँध कर राजा अलीशाह मारा डाला गया। भ्रातृद्वेषवश काश्मीरियों का महान विनाश हआ। उसी प्रकार पूत्र द्वेष के कारण इस जैन राजा का देखा जा रहा है । अतएव देश में नृपति के घर विनाशकारी बहुत सन्तति न हो।' भाग्य विपर्यय का उल्लेख (जोन० : ५९७) है-'दूसरे दिन सुल्तान ने बड़ी भारी फौज के किया है। काश्मीर मे हिन्दू लेखक वहाँ की स्थिति साथ सोपोर के तरफ कूच किया (पृ० १८४)।' देखकर नैराश्य हो गये थे। उन्हें आशा नही रह पाद-टिप्पणी: गयी थी कि कभी हिन्दुओं के हाथ में शक्ति आयेगी १०६ बम्बई का १०५वाँ श्लोक तथा कलकत्ता अथवा उनकी स्थिति सुधरेगी। निराश व्यक्ति । की ३१८वीं पंक्ति है। भाग्यवादी हो जाता है। कल्हण भी कर्मवाद का प्रतिपादन करते, भाग्यवादी बन जाता है। शभाशभ पाद-टप्पणी : कर्मों एवं उनके परिणामों में दृढ़ विश्वास करने लगता पाठ-बम्बई । है। जोनराज का आदर्श कल्हण था। कल्हण का बम्बई का १०६वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की अनुकरण करता जोनराज आनी राजतरंगिणी लिख ३१९वी पंक्ति है। रहा था। जोनराज का शिष्य श्रीवर था अतएव १०७. (१) जसरथ : द्रष्टव्य टिप्पणी जोनश्रीवर अपने गुरु के सिद्धान्त से विरत नहीं हो नहा हा राजतरंगिणी : श्लोक : ७३२, ७३६, ७८५, ८५८, - सका (रा० : १ : ३२५; २ : ४५; ४ : ६२० )। जैन राज० : १:७ : ६४; ४ : १५७। जसरथ श्रीवर भाग्य विपर्यय का पुनः उल्लेख १ : ७ : २१५; । खुक्खर सरदार था। उसका सम्बन्ध दिल्ली सुल्तानों से २ : ४१ में करता है। द्र० : धर्मशास्त्र का इति अच्छा नही था। खुक्खरों की लूटपाट की आदत थी। हास : कागो : पृ० ६५८ हिन्दी। वे सीमावर्ती या समीपवर्ती राज्यों में सर्वदा घुसकर, (२) नगर : श्रीनगर -पीरहसन लिखता उत्पीड़न तथा लुण्ठन करते थे। उनके सम्बन्ध में Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैनराजतरगिणी [१:३: १०८-११० इति मार्गे कथाः शृण्वन् ग्राम्याणां जैनभूपतिः । बधात् कुतनयं निन्दन् प्राप सुयपुरान्तरम् ।। १०८॥ १०८ मार्ग में इस प्रकार ग्रामीणों की कथा सुनते हुए एवं वध करने के कारण कुपुत्र की निन्दा करते हुए, जैन भूपति सुय्यपुर पहुंचा। तीरद्वये वितस्तायाः पितापुत्रबलद्वयम् । न्यवीविशत् समासन्नं परस्परजयोद्यतम् ।। १०९॥ १०९. जय हेतु उद्यत एवं निकट आयी, पिता तथा पुत्र की दोनों सेनाएँ वितस्ता' के दोनों तटों पर पहुंची। अत्रान्तरे हाज्यखानः पर्णोत्सात् तूर्णमागतः ।। सुपणे इव सद्वर्णो देशाभ्यण समासदत् ।। ११० ॥ ११०. इसी बीच पर्णोत्स' से शीघ्र आकर, सुवर्ण सदृश सुन्दर वर्ण वाला हाजी खाँन देश के समीप पहुंचा। काश्मीरी में कहावत है-'लोग नाम घकुर' तथा पाद-टिप्पणी : 'खुकुर चुस' लोग मुत' । जसरथ ने जैनुल आबदीन बम्बई का १०८वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की की सहायता की थी। बदले में सुल्तान ने भी जसरथ ३२१वीं पंक्ति है। की सहायता धनादि से दिल्ली के सुल्तानों के खिलाफ १०९. (१) वितस्ता : सुल्तान ने दरिया की थी। तवक्काते० : ३ : ४३५ तथा आइने : झेलम के जनवी किनारा पर डेरा डाल दिया । दूसरी जरेट०:२: २८८ । जसरथ सन् १४२३ ई० में तरफ आदम खाँ ने बाप के मुकाबला मे अलम लड़ता मारा गया था। तफाबुल बुलन्द कर दिया ( पीर हसन : १८४ )। (२) अलीशाह : द्रष्टव्य जोन० : राजतरं तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है-'आदम खाँ गिणी : श्लोक० : २४७, २५०, २५६, ३३३ ने नदी पार करके नदी के उस ओर पड़ाव किया ३३५; जैन० ३ : २६५; ४ : १४२ । और सुल्तान नगर (श्रीनगर ) से निकल कर पाद-टिप्पणी : सोयापुर ( सुय्यपुर) पहुँचा तथा प्रजा को प्रोत्साहन बम्बई का १०७वां श्लोक तथा कलकत्ता की ३२०वीं पंक्ति है। प्रदान किया ( ४४४ : ६६७)।' १०८. (१) जैन : सुल्तान जैनुल आबदीन। पाद-टिप्पणी: कलकत्ता के पाठ में स्वय्यपुर है उसे सुयपुर उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का ३२२वी किया गया है। पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का १०९वा श्लोक है। (२) सुय्यपुर : सोपोर । फिरिश्ता लिखता पाठ-कलकत्ता । 'सद्वर्णदेशाम्यण' समास युक्त है-'सुल्तान विजय के पश्चात् अपनी सेना से पद अर्थप्रतीति में बाधक है अतः उसे पृथक् किया मिल गया और शिवपुर (सोपोर) पहुँचा जब कि गया है। आदम खाँ ने दरया बेहुत (वितस्ता-झेलम) के दूसरे ११०. (१) पर्णोत्स : पूंछ : उन्नीसवीं तट पर शिविर लगाया था ( ४७३ )।' शताब्दी में राजा रणजीत सिंह ने वहाँ के राजा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ३ : १११ - ११२] श्रीवरकृता श्रुत्वा वराहमूलान्ते पुत्रं प्राप्तं बलान्वितम् । अग्रे बहामखानं तं सत्कर्तुं व्यसृजन्नृपः ॥ १११. बराहमूल' के समीप सेना सहित पुत्र को आया सुनकर, आगे जाकर उसका सत्कार करने के लिए भेजा। कालापेक्षी हाज्यखानः प्रेम्णाश्लिष्य कृतादरः । प्रीतिनिष्ठं कनिष्ठ त भ्रातरं स्वममानयत् ।। ११२ ।। ११२. कालापेक्षी हाजी खाँ आदरपूर्वक प्रेम से आलिंगन कर, प्रेमपूर्ण अपने उस कनिष्ट भाई को मानित किया (वास्तव में भाई जाना) । 1 मीर वाज खान गूजर से जीत कर लिया था । डोगरा काल में रणवीर सिंह के सम्बन्धी राजा मोती सिंह वहाँ के शासक थे । यह विजय के पश्चात राजा ध्यान सिंह के आधीन आ गया तत्पश्चात् उनके पुत्र जवाहर सिंह तथा पौत्र मोती सिंह राजा हुए । जवाहर सिंह पंजाब से एक लाख रुपया वार्षिक पेन्शन देकर निष्काषित कर दिये गये मोती सिंह ने राजा गुलाब सिंह के प्रति निष्ठा प्रकट करने पर पुन: पूंछ प्राप्त किया था । कालान्तर में डोगरा राजा ने पूंछ अपने राज्य में पूर्ण रूप से सम्मिलित कर, उसे काश्मीर का एक भाग बना लिया । यह पूंछ तवी या पलस्ता नदी पर है । मैं यहाँ आ चुका हूँ । नदी का पाट लगभग एक मील चौड़ा है । चारों ओर सम्पतियाली बनी है तथा यहाँ धान की पैदावार खूब होती है। पूंछ के उत्तर में उतुंग पर्वतमाला है । वह पीर पंजाल पर्वत की एक शाखा है वह पर्वत लख्खा क्षेत्र उरी, विकार, तथा दन्ना से पूंछ को विभाजित करता है। पूर्व में पीर पंजाल पर्वतमाला है। दक्षिण में परगना राजोरी जुफल, कोटली तथा पश्चिम में झेलम नदी है । पंजाब से काश्मीर के लिए मार्ग भीमवर राजौरी से पूछ के दक्षिण-पूर्व के कोने से जाता था। पाकिस्तान बनने पर स्थिति बदल गयी है। पूंछ में किला भी है । द्र० १ : १ : ६७ २ : ६८, २०२, ४ : १४४, ६०७ । पाद-टिप्पणी बम्बई का ११०वीं श्लोक तथा कलकत्ता की १०९ १११ ॥ राजा ने बहराम खाँ को ३२३वी पंक्ति है । १११. ( १ ) वराहमूल : बारहमूला = 'उधर हाजीखाँ वारहमूला के इतराफ में शिकस्त खाकर बाप की कुमुक का मुहजिर था। उसके भाई बहराम ली ने सुल्तान के हुक्म से उसका इस्तकबाल किया ( पीर हसन : १८५ ) । हाजी खां के बारहमूला के समीप पहुंचने का समाचार पाकर सुल्तान ने बहराम लां को बुलाने के लिए भेजा ( म्युनिख पाण्डु० ७६ ए० तथा तबक्क ते अकबरी: ४४४ ) । - हाजी खाँ उस फरमान के अनुसार जो उसे तवक्काते अकबरी में उल्लेख है - 'इसी बीच हुआ था पंजा ( पूछ ) के मार्ग से मारहमूला के निकट पहुंचा । सुल्तान ने अपने छोटे पुत्र बहराम खाँ को उसके स्वागतार्थ भेजा। दोनों भाइयो में शत्रुता हो गयी (४४४-६६७) फिरिश्ता लिखता है - इस समय सुल्तान का प्रियपुत्र हाजी व बारहमूला शहर पहुँच गया । सुल्तान ने कनिष्ठ पुत्र बहराम खाँ को उसके आगमन पर बधाई देने के लिए भेजा ( ४७३) । पाद-टिप्पणी पाठ - बम्बई । बम्बई का १११वॉ श्लोक तथा कलकत्ता की ३२४वीं पंक्ति है । ११२ (१) प्रेम दोनों भाइयों ने एक दूसरे : Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैन राजतरंगिणी । अन्येद्यु र्मानितं दृष्ट्वा जनकेन निजानुजम् । आदमखानो वित्राणः संत्रस्तोऽगाद् दिगन्तरम् ।। ११३ ।। ११३. दूसरे दिन जनक' (पिता) द्वारा अपने भाई को सम्मानित देखकर, सन्त्रस्त आदम खाँ त्राणरहित दिगन्तर चला गया। शाहिभङ्गपथा सिन्धुं समुत्तीर्य बलान्वितः । प्राप सिन्धुपतेर्देशं कष्टक्लिष्टपरिच्छदः ।। ११४ || ११४ सेनानुगत एवं दुःखी सेवक सहित वह शाहिभंग' पथ से सिन्धु पार कर सिन्धुपति के देश पहुँचा । के साथ मिलकर एक दूसरे के साथ मुहम्बरा का इजहार किया (पीर हसन १८५ म्युनिस पाण्डु ७६ ९० तबकाते अकबरी ३४४४) । पाद-टिप्पणी : . बम्बई का ११२वा श्लोक तथा कलकत्ता की ३२५वीं पंक्ति है । [ १ : ३ : ११३ - ११४ ११३. ( १ ) जनक शब्द श्लिष्ट है । जनक शब्द राजा जनक तथा जन्मदाता अर्थात् पिता दोनों अर्थों को प्रकट करता है । (२) दिगन्तर : श्रीवर ने दिगन्तर शब्द का प्रयोग १ : १ : १३९; १ : ५ : ७६ तथा १ : ७ :७७-१७३ में किया है। दिगन्तर का अर्थ दो दिशाओं के मध्य होता है। यहाँ अर्थ निश्चित स्थान स्याग कर दिशा में लोप या आंखों से ओझल हो जाना है । किया गया है । श्रीकण्ठकील ने शाहिभंग को दत्त के समान स्थानवाचक शब्द माना है । शाहिभग किस मार्ग का नाम था अनुसन्धान का विषय है । श्रीवर ने फतह शाह के राज्यच्युति तथा महम्मद शाह सभी के राज्य प्राप्ति के प्रसंग में शाहिभंगीय शब्द का प्रयोग किया है । मोहिबुल हसन का मत है कि वह काश्मीर के उत्तर-पश्चिम कुछ मील पर पड़ने वाली संकीर्ण सिन्धु उपत्यका है ( पृष्ठ : ७७ ) । किन्तु यहाँ दिगन्तर शब्द का अर्थ सर्वत्र 'बाहर' किया गया है । सिन्धुपति शब्द से प्रकट होता है कि सिन्ध का शासक जैनुल आबदीन के आधीन नही था । वहाँ का शासक दूसरा था। श्रीनगर समीपस्य सिन्ध उपत्यका सुल्तान जैनुल आबदीन के राज्य मे थी। श्रीवर के वर्णन के अनुसार यह स्थान काश्मीर की सिन्ध उपत्यका नहीं हो सकती (इ०४ : ५५९, २११, २७०, २७२ ) । आदम खां ने बाप और भाइयों की लड़ाई से तंग आकर पंजाब की तरफ भाग खड़ा हुआ ( पीरहसन पृ० १८५ ) । पाद-टिप्पणी : तवकाते अकबरी में 'मुगं' पर लिखा है - आदम खाँ उस शाहिभंग के स्थान स्थान से भाग कर पाठ-बम्बई । बम्बई का ११३वाँ श्लोक तथा कलकत्ता की शाहबंग के मार्ग से नीलाव ( सिन्ध ) चला गया ३२६वीं पंक्ति है। (४४४)। १४. (१) शाहिभंग दत्त ने शाहिभंग को एक मर्ग माना है (दत्त १३१) शुक ने शाहिमंगीय शब्द का प्रयोग (११२९) किया है । वहाँ पर व्यक्ति के विशेषण रूप में प्रयोग फिरिश्ता शाहिभंग का नाम शाहाबाद देता है 'अब आदम खां अपनी सेना के साथ शाहाबाद के मार्ग से भाग गया और नीलाव सिन्ध के तट पर पहुँचा और सुलतान राजधानी लौट आया (३७३) ।' Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ३ : ११५-११७ ] श्रीवरकृता इत्थं त्रित्रिंशमे वर्षे ज्येष्ठं निष्कास्य युक्तितः । हाज्यखानान्वितस्तुष्टो नगरं प्राप भूपतिः ॥ ११५ ॥ ११५. इस प्रकार राजा तैतीसवें ' वर्ष युक्तिपूर्वक ज्येष्ठ पुत्र को निकालकर, हाजी खाँ सहित सन्तुष्ट होकर, नगर में प्रवेश किया । शिशिरसमये योऽभूत् क्लिष्टश्चिरं हतपक्षतिधरणिकुहरेष्वन्तः कालं निनाय शुचाकुलः । समसमये प्राप्योद्यानं विकासिलतोज्ज्वलं किसलयरतः सोऽयं भृङ्गः सुखं रमते पुनः ।। ११६ ॥ ११६. जिसने शिशिर के समय में हतपक्ष होकर, चिरकाल कष्ट पाया और ग्रीष्म से आकुल होकर, पृथ्वी कुहर में कालयापन किया, किसलयरत वह भृंग, कुसुम समय में विकसित ताओ से सुन्दर उद्यान को प्राप्त कर, पुनः सुखपूर्वक विहार करता है । अस्मिन्नवसरे तुष्टाद्धाज्यखानो धृतं चिरात् । प्रापज्जनकाज्जनकोपमात् ।। ११७ ।। यौवराज्यपदं ११७. इसी अवसर पर हाजी खॉ तुष्ट जनक' सदृश जनक से चिरकाल से धृत युवराज पद प्राप्त किया । तवकाते अकबरी की पाण्डुलिपियों में 'शाहमंक' तथा 'शाह विक' तथा लीथो संस्करण में 'शाह नीक' लिखा गया है । 'शाह जह' फिरिश्ता के लीथो संस्करण में दिया गया है। कर्नल विग्गस ने शाहाबाद नाम दिया है । रोजर्स ने नाम नही दिया है। कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया में लिखा गया है कि आदम खाँ सिन्ध की ओर भाग गया। द्र०४ : २११, २७०, २७२, ५५९ । पाद-टिप्पणी : १११ बम्बई का ११४ श्लोक तथा कलकत्ता की ३२७वीं पंक्ति है । ११५. ( १ ) तैतीसवें वर्ष : ४५३३ = सन् १४५७ ई० = विक्रमी १५१४ = शक सं० १३३९ = कलि-गताब्द ४५५८ वर्ष । तवक्काते अकबरी में उल्लेख है - 'सुल्तान हाजी खाँ को अपने साथ लेकर शहर ( श्रीनगर ) आया और अपना वलीअहद ( युवराज ) नियुक्त किया ( ४४४-६६८ ) ।' पाद-टिप्पणी : बम्बई का ११५ श्लोक तथा कलकत्ता की ३२८वी पंक्ति है । पाद-टिप्पणी : बम्बई का ११६ श्लोक तथा कलकत्ता की ३३०वी पंक्ति है । ११७. ( १ ) जनक : मिथिलापति राजा जनक तथा प्रेत है । शब्द विलष्ट है । पिता से अर्थ अभि (२) युवराज : द्रष्टव्य टिप्पणी : १ : २ : ५; म्युनिख पाण्डु० : ७६ ए० । तवक्काते अकबरी ( ४४४ - ६६८ ); फिरिश्ता ( ४७३ व ३४६ ) । द्र० : १२:५२ : ११, १७ ३ : २, ६, ४ : २१; रामा० : अयोध्याकाण्ड । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैनराजतरंगिणी [१:३:११८-१२० पितुः प्रेममणिं प्राप्य स्वच्छं भक्तिपरायणः । हृदयान्नात्यजज्जातु श्रीमाञ् शाीव कौस्तुभम् ॥ ११८ ॥ ११८. पिता के स्वच्छ प्रेममणि को प्राप्तकर, भक्तिपरायण उसने उसे हृदय से उसी प्रकार नहीं त्यागा, जिस प्रकार श्रीमान विष्णु कौस्तुभ' (मणि) को। विनयक्षिप्तदेवाग्रजानुसंकुचिताकृतिः । हकार इव सद्वर्णः सोष्मा सर्वावधिर्वभौ ॥ ११९ ॥ ११९. देवताओं एवं अग्रजों के पीछे विनयपूर्वक संकुचित आकृति वाला सुन्दर वर्ण एवं तेज युक्त वह सद वर्ण एवं ऊष्मावर्गीय ‘हकार' सदृश सदैव सुशोभित हुआ। न तत्तीर्थं न सा यात्रा न सा लीला न चोत्सवः। तदाभून्नैव यत्रागाद्धाज्यखानान्वितो नृपः ॥ १२० ॥ १२०. वह तीर्थ' नहीं, वह यात्रा नहीं, वह लीला नही, वह उत्सव नहीं, जहाँ कि उस समय हाजी खाँ सहित नृप नहीं गया। पाद-टिप्पणी : फिरिश्ता लिखता है-हाजी खाँ ने अपने बुरे बम्बई का ११७वा श्लोक तथा कलकत्ता की व्य व्यवहारों के प्रायश्चित्त करने का प्रयास करते हुए, ३३१वीं पंक्ति है। पिता की वृद्धावस्था में सावधानी पूर्वक उसकी सेवा में तत्पर हो गया ( ४७३ )। ११८. (१) कौस्तुभ मणि : समुद्रमन्थन द्वारा प्राप्त तेरह रत्नों में से एक यह भी रत्न है। पाद-टिप्पणी : विष्णु भगवान अपने वक्षस्थल पर धारण करते बम्बई का ११९वां श्लोक तथा कलकत्ता की है-'सकौस्तुभं ध्येयतीव कृष्णाम्' ( रघु०:६: ३३३वी पंक्ति है । ४९; १०:१०)। कौस्तुभ लवण समुद्र में स्थित १२० (१) तीर्थ : मार्ग, जलाशय, घाट, एक पर्वत भी है। रामा० : बालकाण्ड : १:४५। नदी. स्रोत, पवित्र स्थान यथा मन्दिर, देवालय; क्षेत्र पाद-टिप्पणी : यथा काशी, प्रयाग, कुरुक्षेत्र, जगन्नाथ, रामेश्वर; बौद्धों के लिये, लुम्बिनी, गया, सारनाथ एवं कुशीनारा बम्बई का ११८वा श्लोक तथा कलकत्ता की आदि; मुसलमानों के लिये मक्का, मदीना; शिया ३३२वी पंक्ति है। लोगों के लिये कर्बला; ईसाइयों के जरूसलेम, ११९. (१) 'हकार' : हठयोग के अनुसार वेथेलहेम, निजारथ, रोम आदि तीर्थस्थान माने 'ह' का 'सूर्य' एवं '8' का अर्थ चन्द्रमा होता है। गये हैं। प्राणवायु की संज्ञा सूर्य एवं अपानवायु की चन्द्रमा जंगम, स्थावर एवं मानस तीर्थ होते हैं। मानी गयी है। इनका ऐक्य करने वाला जो प्राणा- (१) जंगम तीर्थ वर्ग में ब्राह्मण, साधु, महात्मा, योगी याम है, उसे हठयोग कहा जाता है (गोरक्ष पद्धति)। एवं पवित्र पुरुष आते है । (२) मानस तीर्थ में सत्य, 'ह' अक्षर का अर्थ शिव, जल, आकाश आदि क्षमा, दया, दान, संतोष, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, मधुर, होता है। भाषणदि है। (३) स्थावर तीर्थ में काशी, प्रयाग, Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:३ : १२१] श्रीवरकृता ११३ यो नित्यं परितो वृतो गणशतैरत्यर्थभक्त्युज्ज्वलैः पुत्राभ्यां सहितो हितस्त्रिजगतां नानाविलासान् भजन् । कालो गच्छति यस्य लास्यललितं गीतं च यच्छण्वतः शस्यः कस्य न तन्नमस्यविभवः कैलासवासो भवः ।। १२१ ॥ इति जैनराजतरङ्गिण्याम् आदामखाननिर्बासनं हाज्यखानसंयोगवर्णनं नाम तृतीयः सर्गः॥ ३ ॥ १२१. अति भक्तिपूर्ण सैकड़ों गणों द्वारा चारों ओर से, जो नित्य आवृत होकर, दोनों पुत्रों सहित तीनों लोक के हितैषी नाना विलासों को प्राप्त करते हैं, ललित लास्य एवं गीत श्रवण करते, जिसका काल व्यतीत होता है, वह प्रणम्य, ऐश्वर्यशाली, कैलास वासी शिव, किसके लिये प्रशंसनीय नहीं हैं ? जैन राजतरंगिणी में आदम खाँ निर्वासन तथा हाजी खाँ संयोग वर्णन नामक तृतीय सर्ग समाप्त हुआ। गया, हरिद्वार आदि है । काश्मीर में अनेक स्थानीय ४०; सभा० : ३ . २-९, १० : ३१-३२; ४६ : तीर्थ थे। उनको मैंने राजतरंगिणी : जोनराज: ; उद्योग० : १११ : ११; अनु० : १९ : ३१; परिशिष्ट 'थ' में दिया है। ८३ : २८-३०) मे अत्यधिक तथा मनोरम वर्णन दाहिने हाथ के अंगठे का ऊपरी भाग ब्रह्मतीर्थ, मिलता है। पुराणों ( ब्रह्मा० : ४ : ४४ : ९५: अँगूठे और तर्जनी के मध्य का पितृतीर्थ, कनिष्ठा मत्स्य० . १२१ : २-३ ) में भी कैलास का वर्णन उँगली के नीचे का भाग प्रजापत्यतीर्थ एवं-उँगलियो शिव के आवास रूप में मिलता है । हिन्दुओ का एक का अग्रभाग देवतीर्थ माना जाता है । तीर्थ है। प्रत्येक हिन्दू का यह सकल्प रहता है कि वह कैलास का दर्शन करे । कैलास का नाम लेते ही पाद-टिप्पणी : हिन्दुओं का हृदय भक्ति एवं तत्सम्बन्धी गाथाओं से बम्बई का १२०वा श्लोक तथा कलकत्ता की भर उठता है। ३३४वी पंक्ति है। कैलास समुद्र की सतह से २२०२८ फुट ऊँचा १२१. (१) लास्य : नृत्य इसमें स्त्रियाँ है। मानसरोवर से ४५ मील उत्तर है। यह हिन्दू भाग लेती है। इस नृत्य मे प्रेम की भावनाएँ मन्दिर शैली सा प्रकट होता है। उसका मस्तक विभिन्न हाव-भाव तथा अंग विन्यासों द्वारा प्रकट हिमाच्छादित रहता है। वहाँ से हिमानी शिव जटा के की जाती है। द्रष्टव्य : जैन० : १ : ४ : १० । समान बलुआ पत्थर वाले पर्वत पर बिखरी ऊपर से (२) कैलास : रामायण (बाल० : २४: नीचे आती है। गंगावतरण की कल्पना प्रतीत होती ८; ३७ : ७०; अरण्य० : ३२ : १४; किष्किन्धा० : है कि कैलास की सुन्दरता, उसकी सुन्दर रचना ३७ : २, २२; ४३ : २०, उत्तर० : २५ : ५२) एवं शिखर से नीचे की ओर आती हिमधारा को तथा महाभारत ( वन० : १०९ : १६-१७; १०८: देखकर की गयी है । जटा मस्तक पर होती है । २६; १३९ : ४१, १०६ : १०; १४१ : ११-१२; जटा का रंग काला होता है। शिखर काला है। १५३ : १-२; १५५ : २३; आदि० : २२२ : ३६- गंगा का रूप उज्ज्वल है। कैलास मूर्धा पर जमा जै, रा. १५ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन राजतरंगिणी ११४ तुषार उज्ज्वल है। कैलास पर्वतीय श्रृंखला का सर्वोच्च हिमाच्छादित शिखर २५५५० फुट ऊँचा हैं। कैलाश पर्वत श्रेणी सहास पर्वत श्रेणी के ५० मील पीछे सिन्धु नदी के उत्तरी तट पर स्थित है। महाभारत मे कैलास की ऊँचाई ६ योजन बताई गयी है । द्र० टिप्पणी : १३:३६, १ : ५ : १०३ । [१ : ३ : १२१ पाद-टिप्पणी : तृतीय सर्ग : बम्बई प्रति में इस सर्ग मे १२० श्लोक है तथा कलकत्ता संस्करण मे भी १२० श्लोक । है एक श्लोक संख्या ९२ कलकत्ता में नहीं है परन्तु बम्बई में है। श्लोक संख्या १४ बम्बई में नहीं है परन्तु कलकत्ता मे है । यदि दोनों के कम तथा अधिक श्लोकों को मिला दिया जाय तो संख्या १२१ हो जायगी । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः सर्गः चैत्रोत्सव : अत्रान्तरे मदनबन्धुरयाद् वसन्तः शृङ्गारसारकुमुदाकररोहिणीशः मानान्धकारविनिवारणभानुमूर्तिः स्फूर्जल्लतालिललनानवयौवनश्रीः ॥१॥ १. इसी बीच मदनबन्धु वसन्त समाप्त हुआ, जो शृंगार सर्वस्व रूप कुमुदाकर के लिए चन्द्रमा, मान रूप अन्धकार निवारण के लिए भानुमूर्ति, स्फूर्जित होती लता एवं ललनाओं के लिए नव-यौवनश्री था। ततश्चैत्रोत्सवे राजा पुष्पलीलाचिकीर्षया । ययौ मडवराज्योर्वी नौकारूढः सुतान्वितः ॥ २ ॥ २. तदोपरान्त चैत्रोत्सव' में पुष्पलीला की इच्छा से पुत्र सहित राजा नौकारूढ़ होकर, मड वराज भूमि पर गया। पाद-टिप्पणी : पिघलने लगता थी तो हिन्दू-मुसलमान सभी हरी १. उक्त श्लोक बम्बई का १ तथा कलकत्ता पर्वत पर एकत्र होते थे और उत्सव मनाया जाता संस्करण की ३३५वी पंक्ति है। था। पाद-टिप्पणी: चैत्र उत्सव के स्थान पर नौरोज का उत्सव मनाया जाता था। चैत्र मास ( मार्च-अप्रैल ) में २. (१) चैत्रोत्सव : चैत्र मास में चैत्रकृष्ण ही नव-वारम्भ में होता था। यह समय मार्च २३ एकादशी, चैत्रकृष्ण चतुर्दशी, चैत्र अमावस्या, चैत्र से ११ तक ९ दिन का होता है। इस समय काश्मीरी शुक्ल परिवा, पंचमी, षष्ठी, नवमी, एकादशी, नवीन वस्त्र पहनते थे। उमंगपूर्ण उत्सव का आयोद्वादशी, त्रयोदशी तथा चैत्र पूर्णिमा, व्रत, पूजा एवं जन किया जाता था। हरी पर्वत, निशात, शालीमार उत्सव के लिये विहित थे। आदि स्थानों में लोग उत्सव मनाते थे। हमें (२) पूष्प उत्सव : मैंने काश्मीरियों से बहुत अच्छी तरह स्मरण है। लोकसभा में मैं बैठा था। पछा परन्तु लोग कुछ ठीक से इस पर प्रकाश नहीं डाल मेरे पास ही श्रीमती उमा नेहरू की भी सीट थी। सके। एक महिला ने मुझे बताया कि उनके बील्य- पंडित जवाहरलाल जी उमा नेहरू के पास आये । काल में जब बादाम में फूल लगता था और बरफ वे उनकी चाची लगती थीं। उन्हें देखते ही उमा जी Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैनराजतरंगिणी तरण्डमण्डली राज्ञो वितस्तान्तरगा बभौ । शक्रस्येव विमानाली छायापटविभूषिता ॥ ३ ॥ ३. वितस्ता के अन्तर्गत राजा की नाव मण्डली, उसी प्रकार से शोभित हो रही थी, जिस प्रकार इन्द्र' की विमान पंक्ति आकाशगंगा में । ने कहा-'कपडा-वपड़ा बनवाया है कि नही, नौरोज जाता था। फिरिस्ता के जन्म का दिन यह माना है, नया कपड़ा पहनना चाहिए।' पण्डित जी मुस्करा जाता था। दूसरा मत है कि जमशेद ने एक नहर कर अपने कुरते का दामन उठाते बोले-'हाँ खुदवायो थी और जल की कमी दूर हो गयी थी। बनवाया है, देखो।' उमा जी प्रसन्न हो गयी। उस समय मुझे काश्मीर के विषय में रुचि नहीं थी। पाद-टिप्पणी मेरा लोकसभा में यह पहला ही वर्प था। अतएव ध्यान नही दिया। आज वह वात तथा उत्सव का ३. (१) इन्द्र : वैदिक देवता है। वैदिक अर्थ समझ मे आ रहा है। साहित्य में इन्द्र को प्रथम स्थान दिया गया है परन्तु पौराणिक साहित्य में उसे त्रिमूर्ति अर्थात ब्रह्मा, विष्णु, नौरोज ईरानियों का त्योहार है। पारसी लोग महेश के पश्चात स्थान प्राप्त है। वह अंतरिक्ष भारत म नवीन वप के आगमन पर नाराज का एवं पूर्व दिशा का स्वामी है । आकाश में बिजली उत्सव आनन्द एवं उत्साहपर्वक मनाते है। काश्मीर चलाता था ना है। दन्टनष मस्जित करता में भी नवीन वर्ष चैत्र मे ही आरम्भ होता है। है। रूपवान है। श्वेत अश्व एवं श्वेत ऐरावत मसलिम धर्म एवं फारसी भाषा के प्रचार और मुस- पर वज्र सहित आरूढ होता है । राजधानी अमरावती लिम पर्वो के मनाने के कारण नौरोज की भी प्रथा है। इसका रथ विमान है। सारथी मातली, धनुष चल पड़ी थी। यद्यपि यह भारत के अन्य स्थानों शक्रधनु, कृपाण पुरंजय, उद्यान नंदन, अश्व उच्चैश्रवा पर सर्वप्रिय नहीं हो सकी। निवास स्वर्ग एवं राजवाड़ा वैजयंत है। पारसी राजा जमशेद के समय नवीन पंचांग (२) आकाशगंगा : आकाश में उत्तरबना । उसकी स्मृति में पारसी नौरोज जमशेद मनाते दक्षिण विस्तृत अनेक ताराओं का घना समूह है। थे। फरवरी मास के प्रथम दिन ईरानियों का वर्ष खाली आखों से देखने पर ताराओ का यह समूह प्रारम्भ होता था। इसे नौरोज़ कहते थे। सोगदिया एक सड़क के समान दिखायी पडता है। इसकी के लोग इसे नौसर्द कहते थे। इस दिन मिठाईयाँ चौड़ाई बराबर नही है । कहीं ज्यादा और कहीं कम बाँटी जाती थी। यह पर्व सर्वप्रथम तुर्कों ने शक्र- चौड़ी है। कुछ तारे मूल पंक्ति से इधर-उधर छिटके बहराम नाम से आरम्भ किया था। वह २१ जून से दिखाई देते है। इसे दूधगंगा, सड़क, आकाश-यज्ञोआरम्भ होता था। कालान्तर में २१ मार्च इसके पवीत आदि हिन्दी तथा अंग्रेजी मे मिल्की वे तथा लिये दिन रखा गया। आज भी यह इसी दिन होता गैलेस्की कहते है। इसके अन्य पर्याय मंदाकिनी, है। मार्च को ६ तारीख को खोरबाध नाम से एक विपद्गंगा, स्वर्गगंगा, स्वर्ण-नदी, सुरदीपिका, दिव्यबड़ा नौरोज़ भी मनाया जाता था। इसे आशा का गंगा, आकाशवाहिनी गंगा, सुरनदी, देवनदी, दिन कहते थे। इस दिन होली के समान रंग खेला नाग-वीथी, हरिताली आदि है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:४:४-६ श्रीवरकृता ११७ स्वकीयराजवासस्थो राजावन्तिपुराद् गतः । विजयेशादिदेशेषु नाटयं द्रष्टुमुपाविशत् ।। ४ ॥ ४. राजा अवन्तिपुर' गया और विजयेश आदि देशों में अपने राजप्रासाद में स्थित होकर, नाटक देखने के लिये बैठता था। हरांशं भूभुजं जेतुं यत्र राजसभानिभात् । भवाशक्तोऽभवत् कृत्वा बहुधा स्वं मनोभवः ॥ ५॥ ५. जहाँ पर, कामदेव शिवांश' राजा को जीतने के लिए, राजसभा के व्याज से अपना बहुत रूप बनाकर, भवाशक्त हो गया। सालङ्कारप्रबन्धज्ञाः सिद्धान्तश्रुतविश्रुताः । यत्रान्तःकरणोध क्ता द्रष्टारो गायना अपि ।। ६ ।। ६. जहाँ पर, द्रष्टा एवं गायक भी अन्तःकरण से उत्सुक, अलंकार सहित प्रबन्ध' के ज्ञाता तथा सिद्धान्त श्रुत में प्रख्यात थे। पाद-टिप्पणी: लेखक शिव का अंश राजा है, इस सिद्धान्त के प्रति४. (१) अवन्तीपुर : वनिहाल-श्रीनगर राज पादन हेतु दुहराते है : पथ पर वन्तपुर या वन्तपोर है । यह शब्द अवन्तिपुर कश्मीराः णर्वती तत्र राजा जेयः शिवांजः। का अपभ्रंश है। ऊलर परगना मे वितरमा नाऽवज्ञेयः स दुष्टोऽपि विदुपा भूति मिच्छता। तट पर है। यहाँ दो मन्दिरों के खण्डित ध्वन्सावशेष रा० : १ : ७२. बिखरे है। वे अवन्तीश्वर तथा अवन्ति स्वामी के है। नीलमत पुराण में इसी भाव को दूसरे शब्दों मे वानपोर ग्राम स्थित मन्दिर अवन्ति स्वामी तथा प्रकट किया गया है। इससे बड़ा मन्दिर, पहले से आध मील उत्तर- कश्मीरायां तथा राजा त्वया ज्ञेयो हराशंज. । पश्चिम जौवार ग्राम मे अवन्तीश्वर का है। सन तस्यावज्ञा न कर्तव्या सततं भूति मिच्छता। १८६० ई० में यहाँ खनन कार्य हुआ था। कोई नी० २४६। विशष।सामग्री नहीं मिली थी। राजा अवन्तिवर्मा क्षेमेन्द्र लोकप्रकाश मे लिखता है : (१०६१) ने नगर तथा मन्दिरों की स्थापना की थी। द्रष्टव्य सती च पार्वती ज्ञेया राजा ज्ञेयो हराशंज । टिप्पणी : जोनराज० : ३३१, ३३५ ८६५, जैन० : नीलमत पुराण तथा क्षेमेन्द्र ने 'हरांशजः' तथा ३ : ४२ । कल्हण ने 'शिवाश' दिया है। श्रीवर ने कल्हण का अनुकरण किया है। (२) विजयेश : विजब्रोर-विजवेहरा-विजयेश्वर क्षेत्र। पाद-टिप्पणी: ६. द्वितीय पद के प्रथम चरण का पाठ पाद-टिप्पण : सन्दिग्ध है। ५. (१) शिवांश : कल्हण ने एक पुराण (१) प्रबन्ध : प्रबन्ध-काव्य-पद्यबद्ध तथा वचन का उल्लेख किया है। उसी को काश्मीरी सर्गबद्ध कथात्मक काव्य होता है। अविच्छिन्न तथा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैनराजतरंगिणी [१:४:७-१० नानाग्रामगताश्चारुस्वररागमनोहराः यत्र गीता रसस्फीता बभुर्युवतयोऽपि च ॥७॥ ७. जहाँ पर, नाना ग्रामगत, चारु, स्वर एवं राग से मनोहर, रसपूर्ण गीत तथा युवतियाँ शोभित थीं। कलाकलापवेत्तासीन्मानमानससौख्यभृत् । रङ्गरगन्द्रचिोको विद्याविद् यातसंशयः॥ ८॥ ८. लोग कला-कलाप के वेत्ता, मान से सुखीमन, विद्याविद्, संशयरहित तथा रंगमंच के प्रति रंगीन रुचि रखनेवाले थे। प्रतितालैकतालादिबहुतालविभूषितम् तत्र ताराचनाराचसंज्ञानं विदधुर्नटाः ॥९॥ ९. वहाँ पर, वह लोग प्रति ताल', एक ताल आदि बहुताल३ विभूषित ताराच-नाराच का ज्ञान प्राप्त (हाव-भाव प्रकट) करते थे। उत्सवा नाम कामास्त्रं गायनी नयनोत्सवा । लास्यताण्डवनृत्यज्ञा न केषां रञ्जिकाभवत् ॥ १० ॥ १०. लास्य', ताण्डव नृत्य को जाननेवाले नैनोत्सव एवं कामदेव का अस्त्रभूत उत्सवा नाम्नी गायिका किसके लिए मनारजिका नहीं हुई ? सुसंगत वर्णन प्रबन्ध-काव्य मे होता है-विच्छेद नट लोग नाचते है। उसमे अनेक तालों का मिश्रण माप भुवि यस्तु कथा प्रबन्धः। (का० २३९), क्रिया होता है। प्रबन्धादयमध्वराणाम् (रघु० ६ : २३), अनुज्झितार्थ . (४) तारा-नारा = तारा और नारा छन्द के मात्रावृत्त थे जो ताल के लिए उपयोगी थे। तारा संबन्धः प्रबन्धों दुरुदाहरः (शि० २/७३), प्रथित नव प्रकार का था-प्राकृत, भ्रमण, पात, बलान, यशसां भासक विसौमिल्लकविमिश्रादीनां प्रबन्धाति- चलन, प्रवेशन, समुद्दत्त, निष्क्रम, निवर्तन । क्रम्य (मालावि०१)। प्रबन्ध गीत का उल्लेख श्रीवर नारा मात्रावृत्त निम्न प्रकार का था-ल ग ३ : २५६ में किया है। लग लग, लग, ल = लघु : ग= गुरु । पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी: ९. (१) ताल = ताल की परिभाषा की गयी है द्वितीय पद द्वितीय चरण का पाठ संदिग्ध है। एके नैव द्रुतेन स्यादेक तलिति संज्ञया । उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ३४४ वी इसको एकताली ताल कहते हैं । इसमें केवल पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का १० वा श्लोक है। 'द्रुत' ०० होता है। १०. (१) लास्य = वाद्य एवं संगीत के साथ (२) प्रति ताल = इसकी परिभाषा है- नृत्य, जिसमें प्रेम की भावनायें विभिन्न हाव, भाव 'लो द्रुतौ प्रति ताल स्याद ।' तथा अंग विन्यासों द्वारा प्रकट की जाती हैं। लास्य एक लघु तथा दो द्रुत मात्रा का ताल होता है। का अर्थ नट, नर्तक, अभिनेता तथा लास्या का ०० आजकल प्रयोग ने नहीं आता। नर्तकी होता है । सुकुमार अंगों तथा जिसमें शृंगार (३) बहताल = अनेक तालों से विभूषित आदि कोमल रसों का संचार होता है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:४:११] श्रीवरकृता भावानेकोनपञ्चाशत्संख्यास्तानांश्च तावतः । दर्शयन्त्यो बभुः पाठ्यस्ता मूर्ता इव मूर्च्छनाः ॥ ११ ॥ ११. उनचास' भावों तथा उतने ही तानों को प्रदर्शित करती वे पात्री स्त्रियाँ मूर्तिमती मूर्छना सदृश शोभित हो रही थीं। उसकी संज्ञा लास्य नृत्य से दी गयी है । साधा- पाद-टिप्पणी : रणतया पुरुष के नृत्य को ताण्डव एवं स्त्री के नृत्य ११. ( १ ) उनचास भाव : मन के विकार को लास्य कहते है। लास्य के दो भेद पेलवि तथा का नाम भाव है। भाव के बोध करानेवाले रोमांच वहुरूपक होते है। अभिनय-शून्य अंगविक्षेप को आदि को अनुभाव कहते है । काव्य रचना में स्थायी, पेलिव कहते है। जिसमे भेद आदि अनेक प्रकार के गौण या व्यभिचारी तथा सात्विक तीन भेद भाव के भावों के अभिनय हों उन्हे बहुरूप कहते है । लास्य किये गये है। स्थायीभाव आठ या नव है। व्यभिनृत्य दो प्रकार का होता है। छुरित तथा यौवन कहा चारीभाव तैतीस या चौतीस है। स्थायीभाव-- जाता है। नायक एवं नायिका परस्पर आलिंगन, (१) रति, (२) हास, (३) शोक, (४) क्रोध, (५) चुम्बन आदि करते जो नृत्य करते हैं उसे छुरित उत्साह, (६) भय, (७) जुगुप्सा और (८) विस्मय कहा जाता है । एकाकी नृत्य को यौवन कहते है। है। व्यभिचारीभाव--(१) निर्वेद (वैराग्य), (२) __ ग्लानि, (३) शंका, (४) असूया, (५) मद, (६) (२) ताण्डव : मदताण्डवोत्सवान्ते (उत्तर : श्रम, (७) आलस्य, (८) दैन्य, (९) चिन्ता, (१०) ३ . १८)। विशेषतया शिव के उन्माद नृत्य मोह, (११) स्मृति, (१२) धृति, (१३) व्रीडा, या प्रचण्ड नृत्य के लिये प्रयुक्त होता है। इस नृत्य (१४) चपलता, (१५) हर्ष, (१६) आवेग, (१७) का सम्बन्ध भैरव तथा वीरभद्र से है। शिव का जडता, (१८) गर्व, (१९) विषाद, (२०) औत्सुक्य, ताण्डव श्मशान में देवी तथा भूत-पिशाचों के साथ (२१) निद्रा, (२२) अपस्मार, (२३) स्वप्न, (२४) उद्धत रीति से होता है। अष्ट तथा षष्ठभुजी विबोध, (२५) अमर्प, (२६) अकार गोपन (अवताण्डव मुद्रा में शिव की मूर्तियाँ एलिफेण्टा, एलोरा, हित्था), (२७) उग्रता, (२८) मति, (२९) व्याधि, तथा भवनेश्वर की कलाओं में व्यंजित की गयी है। (३०) उन्माद, (३१) मरण, (३२) त्रास, (३३) ताण्डव की सबसे आकर्षक शिला पर खुदी नटराज वितर्क। सात्विकभाव के अन्तर्गत-(१) स्तम्भ, (२) की मति छठवीं शताब्दी की वादामी की है। मैं स्वेद, (३) रोमाच, (४) स्वरभंग, (५) कम्पन, (६) इसे देखकर कलाकार की कला पर मुग्ध हो गया। विवर्णता, (७) अश्रु और (८) प्रलाप ( मूर्छा ) है । इस मूर्ति में शिव के १२ हाथ दिखाये गये हैं। रसगंगाधर में पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य के ३४ भावों का उल्लेख किया है-(१) हर्ष, (२) स्मृति, (३) उत्सवा : यह एक प्रसिद्ध गायिका थी। (३) व्रीडा, (४) मोह, (५) धृति, (६) शंका, (७) श्रीवर के वर्णन से प्रकट होता है कि यह सुन्दर ग्लानि, (८) दैन्य, (९) चिन्ता, (१०) मद, (११) थी। जैनुल आबदीन के दरबार में भारत के प्रसिद्ध श्रम, (१२) गर्व, (१३) निद्रा, (१४) मति, (१५) संगीतज्ञों का प्रवेश उस काल में था । श्रीवर का केवल व्याधि, (१६) त्रास, (१७) सुप्त, (१८) विबोध, उत्सवा के उल्लेख करने का अर्थ है कि वह अपने (१९) अमर्ष, (२०) अवहित्थ, (२१) उग्रता, (२२) समय की अपने कला की महान निपुण महिला थी। उन्माद, (२३) मरण, (२४) वितर्क, (२५) विषाद, नाम से हिन्दू प्रतीत होती है। (२६) औत्सुक्य, (२७) आवेग, (२८) जड़ता, (२९) Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी यासां नृत्ये च गीते च त्वत्तो मेऽस्त्यधिकं सुखम् । वादोऽभवच्छ्रोत्रनेत्रयोः इति १२. देखने के समय जिनके नृत्य एवं गीत के विषय में - 'मुझे तुमसे अधिक सुख प्राप्त हुआ इस प्रकार का विवाद श्रोत एव नेत्र में हुआ । पालीगानपिकध्वाने रङ्गोद्याने दीपचम्पकमालास्ता मधुपैः परितो १३. उस समय, पात्री गान रूप पिक शब्द ( ध्वनि ) रूप चंपक' मालाएँ, मधुपों द्वारा चारों ओर आवृत होकर, शोभित हो रही थी । राज्ञो राज्येक्षणात् तुष्टैर्नृत्यप्रेक्षागतैः सुरैः । दीपमालाच्छलान्मुक्ता नूनं हेमाम्बुजस्रजः ॥ १४ ॥ १४. नृत्य पेक्षण हेतु आगत सुरों' ने राज्य देखने से सन्तुष्ट होकर, राजा के लिये दीपमालाओंके व्याज से निश्चय ही स्वर्ण कमल की मालाए छोड़ दीं । १२० आलस्य, (३०) असूया, (३१) अपस्मार, (३२) चपलता, (३३) निवेद, (३४) देवता में रति । भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र मे भाव पर प्रकाश डाला है । 'भावपत्ति' होने के कारण भाव की संज्ञा दी गयी है । भाव का अर्थ परिव्याप्त होना है ( नाट्य : ७ : १-२-३ ) | मानसिक अवस्थाओं का व्यंजक प्रदर्शनभाव है। इसी आधार पर विभाव, अनुभाव एवं संचारीभाव की स्थापना की गयी है । (२) तान : तन् धातु से तान बना है । स्वर प्रसार को तान कहते है । गान का एक अंग है । मूर्च्छना आदि द्वारा राग या स्वर तथा लय का विस्तार या अनेक विभाग कर स्वर अथवा गान में लय के साथ स्वरों का खींचना है । संगीत - दामोदर के मत से स्वरों से उत्पन्न तान ४९ है । इनसे ८३०० कूट तान निकले है । कुछ लोगों का मत है कि कूट तानों की संख्या ५०४० है । १ : ४ : ११ तान - एकोन्पञ्चाशत तान = ४९ तान । ये मूर्छनाश्रित ४९ ताडव ( छ: स्वरों की ) तानें थी । षड्जग्रामाश्रित २८ तांडव तानें और मध्यमग्रामाश्रित २१ तांडव तानें सब मिलाकर ४९ तांडव तानें थीं । (३) मूर्च्छना : परिभाषा की गयी है-‘स्वराणाम् क्रमेश आरोहावरोहाणाम् ।' [ १ : ४ : १२-१४ प्रेक्षणक्षणे ॥ १२ ॥ तदा तन् । वृताः ।। १३ ।। युक्त रंगमंच रूप उद्यान में, दीप स्वरों को क्रम से आरोह एवं अवरोह को मूर्च्छना कहा जाता है । एक और परिभाषा है -- ' क्रमात्स्वराणां सप्तानामा रोहश्चावरोहणम् सा मूर्च्छत्युच्यते ग्रामस्था एताः सप्त सप्त च ।' स्वरारोहण, स्वर - विन्यास, स्वरों का नियमित आरोहणावरोहण, सुखद स्वर संधान, लय-परिवर्तन, स्वर सामंजस्य, स्वर माधुर्य आदि को मूर्च्छना कहते हैं । पाद-टिप्पणी : १३. ( १ ) चम्पा : हल्के पीले रंग का पुष्प होता है । चम्पा दो प्रकार की होती है— साधारण तथा कटहलिया | कटहलिया चम्पा की महक पके कटहल की गन्ध से मिलती है। इसकी लकड़ी पीली, चमकीली, मुलायम, मजबूत होती है । हिमालय की तराई, नेपाल, बंगाल, आसाम में अधिकता से पायी जाती है । इसके लकड़ी की मालाएँ चित्रकूट में बनती हैं। विशेषतया चम्पा दक्षिण भारत में पायी जाती है । इसे सुल्ताना चम्पा भी कहते है । हिन्दी कहावत है कि चम्पा में रूप, गुण, वास सभी गुण होते है, परन्तु उसमें एक ही अवगुण है भ्रमर उसके पास नहीं आता । पाद-टिप्पणी : १४. ( १ ) सुर : देवता : देवताओंके २६ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:४:१५-१६] श्रीवरकृता १२१ जलान्तविम्बिता क्वापि दीपाली नागलोकतः । वरुणेन नृपप्रीत्या दापितेवायु तत् तदा ॥ १५॥ १५. उस समय कहीं पर. जल मध्य प्रतिबिम्बित दीपमाला. इस प्रकार प्रकाशित हो रही थी, मानो वरुण' ने नृपति-प्रेम के कारण, नागलोक से ही ( उन्हें ) प्रकट कराया है । ता दीपिता दीपमाला द्विधा रङ्गे चकाशिरे। दिदृक्षागतनागानां फणामणिगणा इव ॥ १६ ॥ १६. रंगमंच पर दीपित वे दीपमालाएँ, देखने की इच्छा से, आगत नागों के फण पर स्थित, मणिगण सदृश शोभित हो रही थी। नामों में एक नाम सुर भी। रामायण ने सुर की एवं तारामण्डल इसी के कारण दृश्यगत होते है। परिभाषा किया है-'सुरा प्रतिग्रहाद् देवाः सुरा इसके विधान के कारण पृथ्वी एवं द्युलोक अलग है । इत्यभिविश्रुताः। वायुमण्डल में भ्रमण करता वायु, वरुण का स्वांस पाद-टिप्पणी: है। वैदिक साहित्य में उसे असुर अर्थात् असुर शक्ति१५. (१) वरुण : सर्वश्रेष्ठ वैदिक देवता है। युक्त तथा बंधक एवं शासक वरुण कहा गया है। बंधक रूप से वह सृष्टि की समस्त शक्तियों को वैदिक साहित्य में आकाश तथा वैदिकोत्तर साहित्य बाँध कर योजनाबद्ध करता है। शासक वरुण अपने में समुद्र का प्रतीक माना गया है। वैदिक साहित्य पाशों द्वारा आज्ञाकारियों पर शासन करता है। में वरुण सृष्टि के नैतिक एवं भौतिक नियमों का अथर्ववेद ने उसे सार्वभौम नहीं बल्कि केवल सर्वोच्च प्रतिपालक माना गया है। वैदिकोत्तर साहित्य में देवता रूप में प्रजापति का विकास होने के जल का ही नियंत्रक बताया है। महाभारत में उसे कारण वरुण का श्रेष्ठत्व कम होता गया है। इस चौथा लोकपाल माना गया है। जल का स्वामी एवं जल में निवास करनेवाला बताया गया है। समय वह केवल जल का ही देवता माना जाता है। वरुण की मुखकान्ति अग्नि के समान तेजस्वी है। ओल्डेनवर्ग का मत है कि वरुण भारतीय देवता नहीं सूर्य के सहस्र नेत्रों से मानव जाति का अवलोकन है। उसका उद्गम ज्योतिष शास्त्र में प्रवीण शामी करता है। अतएव उसे सूर्यनेत्री कहा गया है। अर्थात् सेमेटिक लोगों में हुआ था। वरुण एवं मित्र शतपथब्राह्मण में वह श्वेत वर्ण, गंजा एवं पीले क्रम मे चन्द्र एवं सूर्य थे। नेत्रोंवाला माना गया है। उसे वृद्ध पुरुष कहा जाता वरुण की पत्नी ज्येष्ठा थी। वह शुक्राचार्य की है। वरुण का आवास द्यु लोक में है। गृह स्वर्ण कन्या थी। उससे बल, अधर्म एवं पुष्कर नामक का निर्मित है। पुत्र तथा सुरा नामक कन्या उत्पन्न हुई थी। इसकी अन्य पत्नी वारुणी अथवा गौरी थी। उससे गो गृह मे सहस्र द्वार है। सहस्र स्तम्भों वाले आसन पर बैठता है। वरुण के गुप्तचर | लोक से नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। तृतीय पत्नी शीततोया से श्रुतायुध नामक पुत्र हुआ था। उतर कर जगत में भ्रमण करते है। ऋग्वेद में उसे . विश्व का सम्राट् कहा गया है । पृथ्वी पर रात्रि एवं (२) नागलोक : द्रष्टव्य टिप्पणी : १:५: दिन की स्थापना वरुण द्वारा की गयी है। उनका ३७ तथा परिशिष्ट 'ध' पृष्ठ २६ ( राज० : खण्ड : नियमन भी वही करता है। रात्रि में दृष्टिगत चन्द्र १, लेखक ) । जै. रा. १६ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी किं राजा लोकलोभात् तटभुवि मिलिताः पूर्वभूपालजीवाः किं व्योम्नस्तारकौघः शशधरविमुखः सेवनायावतीर्णः । किवा सिद्धाः सुरेन्द्रा निजरुचिरुचिराः प्रेक्षणायोपविष्टाः किं वैता दीपमाला इति जनमनसामास्त दूराद् वितर्कः ॥ १७ ॥ १७. राजा के आलोक लोभ से तट भूमि पर पूर्व भूपालों के जीव ही एकत्रित हो गये हैं क्या ? अथवा चन्द्रमा से विमुख होकर, तारक पुज आकाश से सेवा हेतु अवतीर्ण हुआ है क्या ? अथवा अपनी रुचि के कारण रुचिर सिद्ध सुरेन्द्र' देखने के लिये बैठे हैं क्या ? अथवा ये दीपमालाएँ हैं ? इस प्रकार दूर-दूर का तर्क-वितर्क लोगों के मन में हो रहा था । साक्षादेष पुरन्दरः कविबुधा विद्याधराः सेवका १२२ अन्ते देवसभासदः सवपुषः सिद्धा अमी योगिनः । एता अप्सरसो रसोर्जितगुणा गन्धर्वका गायना पाद-टिप्पणी : [१ : ४ : १७ - १८ रङ्गोऽयं त्रिदिवस्थलीति जगदुः सर्वे जनाः प्रेक्षकाः ॥ १८ ॥ १८. 'यह साक्षात् पुरन्दर' हैं, कवि, बुध एवं विद्याधर ४ सेवकजन हैं, और अन्त में देव सभासद् हैं, ये योगी शरीरधारी सिद्ध" हैं, रसोर्जित गुणवाली ये गन्धर्व गाइकाएँ, अप्सराएँ है, यह रंगस्थल स्वर्गस्थली है' - इस प्रकार सब दर्शकों ने कहा । पाठ - बम्बई । १७. ( १ ) सुरेन्द्र : इन्द्र । पाद-टिप्पणी : १८. ( १ ) पुरन्दर : वैवस्वत मनवन्तर के इन्द्र का नामान्तर पुरन्दर है । शत्रु का पुर किंवा नगर नष्ट किया था अतएव नाम पुरन्दर पडा है । ( भाग० ८ : १३ : ४, ९ : ८ : ८, १० : ७७ : ३६-३७, १२ : ८ : १५; ब्रह्मा० २ : ३६ : २०५ वायु० : ३४ : ७५, ६२ : ११८, ६४. ७, ६७ : १०२; विष्णु ० ३ : १ : ३१, ४० ) । मत्स्यपुराण मे निर्दिष्ट अठारह वास्तुशास्त्रकारों में पुरन्दर का निर्देश प्राप्त है ( मत्स्य० : २५-२ : २-३ ) । तप अथवा पांचजन्य नामक अग्नि का पुत्र पुरन्दर था । महान तपस्या के पश्चात् तप को अग्नि से तपस्या फल प्राप्त हुआ। उसे प्राप्त करने के लिये स्वयं इन्द्र ने पुरन्दर नाम से अग्नि के पुत्र रूप में जन्म लिया था वन० : २११ : ३ ) । (२) कवि : शुक्राचार्य । (३) बुध : इसका अर्थ विद्वान एवं पण्डित है । यदि नामवाचक शब्द माना जाय तो नवग्रहों में एक शुभ ग्रह है । इसका पिता बृहस्पति माना गया है । (४) विद्याधर : एक देव योनि है । इसे अर्ध देवता माना है। पुराणों में इनके राजाओं के नाम चित्रकेतु, चित्ररथ किंवा सुदर्शन दिये है ( भा० : ६ : १७ : १; ११ : १६ : २९ ) । वायुपुराण में पुलोमन को 'विद्याधरपति' कहा गया है ( वायु० : ३८ : १६ ) । इनकी स्त्रियों का नाम विद्याधरी है ( ब्रह्माण्ड० : ३ : ५० : ४० ) । इनके शैवेय, विक्रान्त एवं सौमनस नामक तीन प्रमुख गण थे । इनका विद्याधरपुर नगर था । यह ताम्रवर्ण सरोवर एवं पतंग पर्वत के मध्य स्थित था ( मत्स्य ० ६६ : १८ ) । खेचर, नभचर आदि नाम से पुकारे जाते हैं (ब्रह्म ०४ : ३७ : १० 1 ( ५ ) सिद्ध : दस देवयोनि में एक योनि सिद्ध Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : १९-२० ] श्रीवरकृता अङ्गारक्षारचूर्णादिगन्धकौषधयुक्तिभिः 1 रागैः शिल्पिकृता लीला क्रीडालोकमरङ्गयत् ।। १९ ।। १९. अङ्गार, (कोयला क्षार (सोरा) चूर्ण आदि गन्धक औषध युक्त रागों (रंगों) से शिल्पियों द्वारा की गयी लीला' ने दर्शकों का मनोरंजन किया । तथा द्यौषधसंपूर्णामालाद् वह्निकणा घनाः । निर्यत्कुसुमसंपूर्ण स्वर्णवल्लीभ्रमं व्यधुः ।। २० ।। २०. औषध चूर्ण नाल से निकलते घने अग्निकण कुसुम से पूर्ण लता का भ्रम उत्पन्न कर रहे थे । है । सिद्ध पुराणो में कश्यप पिता एवं प्राधा के पुत्रों में से एक था। जिसे इसी जीवन में सिद्धि प्राप्त हो गयी है, उसे सिद्ध कहते है। १२३ ( ६ ) गन्धर्व : वेदों के अनुसार स्थान एवं अंतरिक्ष स्थान के गन्धवों का वर्ग विभिन्न है। च स्थान के गन्धर्य दिव्य गन्धर्व है उनसे सूर्य, सूर्य की रश्मि, तेज, प्रकाश इत्यादि प्राप्त होता है । इनका स्वामी वरुण है। मध्यस्थान ( अंतरिक्ष ) के गन्धर्व नक्षत्र प्रवर्तक है। उनसे मेघ, चन्द्रमा विद्यत आदि शास्त्र के आधार पर लिये जाते है। देव एवं मनुष्य गन्धवों में भी वर्गीकरण किया गया है । विद्याधर, अप्सरा, सिद्ध, गुह्यक एवं सिद्धों के वर्ग में आते है देवताओं के नामक 'हा-हा हू-हू' माने गये हैं । उनमे तुम्बरु, विश्वावसु विवरण प्रभूति है। चित्ररथ गन्धयों के राजा हैं। कश्यप तथा अरिष्ठा की सन्तति गन्धर्व कही जाती है। गन्धवों का देश हिमालय का मध्य भाग माना जाता है । गन्धर्व तथा किन्नर देशों का उल्लेख पुराणों में मिलता है। गन्धर्व जाति स्वरूपवान, शूर तथा शक्तिशाली थी । गन्धर्व विद्या का उल्लेख श्लोक ( १ . ५ : ९ ) मे है । मृत्यु के पश्चात् तथा पुनर्जन्म से पूर्व की आत्मा की संज्ञा है । गन्धर्वनगर का उल्लेख (३ : ४०८) में किया है। गन्धर्व विवाह आठ विवाहों में एक तैमा एक उपवेद है । जैन मान्यता के अनुसार — दस गन्धर्व - हाहा, हूहू, नारद, तुम्बरु, वासव, कदम्ब, महास्वर, गीतरति गीतरसु और बजवान है ( वि० सा० २६३ ) | अग्निपुराण में गन्धर्वो के ग्यारह गण माने गये है- अनाज, अंधार, रंभारी, सूर्यवर्चा, कृष हस्त सुहस्त, मूर्द्धवान, महामन्त, विश्वावसु तथा भी उनके गण माने गये है। कृशानु है । कुछ पुराणों मे तुम्बरु, गोमायु तथा नन्दि पाद-टिप्पणी १९. (१) लीला वर्णन से प्रकट होता है कि यह आतिशबाजी का प्रदर्शन था। पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ३५४ वी पक्ति तथा वम्बई संस्करण का २० वा श्लोक है । 1 २० (१) नाल आतिशबाजी मे बाण पत्र, चादर आदि नाल अथवा बाँस में या लौहनली मे भर दिये जाते है । उसमे आग लगाने से बाण आकाश मे जाकर अनेक रंगीन चिनगारियों में परिणत हो जाता है । चर्खी भी इसी प्रकार चलती है । पर्थी में गोलाकार वृत्त में कई नाल किंवा नलिका लगी रहती है। चादर में एक ही पंक्ति में कई नलिकाएँ लगी रहती है । उसमें आग लगाने पर वह भूमि पर चद्दर के समान गिरती है जबकि चल तथा बाग ऊपर की ओर चलते है नलियों से निकला जलता मसाला फूल के समान लगता है । इसी प्रकार मिट्टी के घरिया में जो नाल सदृश होता Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी निर्गता सलिलान्तरात् । चक्रे प्रेक्षकलोकानां त्रासाश्चर्यभयोदयम् ।। २१ ।। २१. सलिलान्तर से निर्गत, सर्पाकार अग्निज्वाला प्रेक्षक लोगों में त्रास, आश्चर्य एवं भय का उदय कर रही थी । नालकादुत्थिता व्योम्नि ज्वालागोलकपङ्क्तयः । जीव शुक्रोपमां राजद्राजतरो चिका व्यधुः ।। २२ ।। २२. नालक' से उठी रजत की कान्ति से पूर्ण ज्वाला गोलक पक्तियाँ आकाश में जीव (बृहस्पति) तथा शुक्र की उपमा उत्पन्न कर रही थी । १२४ सर्पाकारान ज्वाला रज्जुबद्धागमद् दूरं ज्वलन्त्योषधनालिका । आहूतये तथा नीतास्तादृश्यो बहवो गताः ॥ २३ ॥ २३. रज्जुबद्ध, वह जलती औषध- तालिका' दूर तक गयी - उसे उसी प्रकार मानो बुलाने के लिये ही बहुत-सी (नालिकाएँ) गयी । गतागतानि कुर्वन्त्यो दीप्ता उल्का इवोल्वणाः । प्रेक्षकाणां प्रिया [ १ : ४ : २१–२५ दृष्टीरहरन्नद्भुतावहाः || २४ ॥ २४. उल्का सदृश तेज तथा गतागत करती हुयी, अद्भुता वह दीप्त, उन नालिकाओं ने प्रेक्षकों की प्रिय दृष्टि का हरण किया । अत्र पात्रीकरस्थापि ज्वलन्त्योषधनालिका । लोको मुक्त सद्वर्णस्वर्ण पुष्पश्रियं व्यधात् ।। २५ ।। २५. यहाँ पर जलती औषध नालिका पात्री (नटी) के कर में स्थित होकर, स्वर्गलोक से उन्मुक्त सुन्दर वर्ण स्वर्ण पुष्प की श्री (शोभा) सम्पन्न करती थी । है, आतिशबाजी का मसाला रंग-विरंगा भरा रहता है । उसे भूमि पर रखकर आग लगा देते है । उसमें स्फुटित चिनगारियाँ, फुहारा तथा पुष्प सदृश लगती है । उसे प्रचलित भाषा में अनार छोड़ना कहते है । (२) कुसुम : इसे फुलझरी या फुलझडी कहते है । आतिशबाजी का यह एक प्रकार हैं। पाद-टिप्पणी : २२. ( १ ) नालक : नाल से निकलती अग्निकण रजत, स्वर्ण, बैगनी तथा लाल विभिन्न रंगों के होते हैं । आतिशबाज उन्हें रुचि अनुसार बनाते हैं । आतिशबाजी में बाण, चर्खी, चद्दर, अनार आदि में वास को खोखला कर उसमें मसाला भर दिया जाता है। आग लगाने पर फुलझडी, चर्खी, बाण, अनार एवं चादर से आतिशबाजी छूटने लगती है । जहाँ बाँस नहीं मिलता, वहाँ लकड़ी खोखला कर या लोहा की नली का प्रयोग किया जाता है । पाद-टिप्पणी : २३. ( १ ) नलिका आतिशबाजी नलिका सहित आकाश में उड़कर वही आतिशबाजी छोड़ती है । सम्भवतः आजकल के प्रचलित बाण है, जो आकाश मे जाकर ऊपर छूटता है । यह नलिका बास की बनाई जाती है । वह ऊपर जाकर छूटती, कहीं दूर पर गिरती है । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:४ : २६-२९] श्रीवरकृता १२५ निर्गतं ननुदण्डान्तर्जालापिण्डं नभोन्तरे । उद्दण्डदण्डं सर्वेषां चण्डरश्मिभ्रमं व्यधात् ॥ २६ ॥ २६. आकाश में दण्ड से निर्गत उद्दण्ड, दण्ड सदृश, ज्वालापिण्ड, सब लोगों में सूर्य-रश्मि का भ्रम करा दिया। वह्निक्रीडनलीलाया युक्तिज्ञन महीभुजा । शिक्षयित्वा हमेभाख्यं तास्ताः सर्वाः प्रदर्शिताः ॥ २७ ।। २७. अग्नि क्रीडन लीला युक्तिवाले राजा ने हबीब' को सिखाकर, वह सब प्रदर्शित कराया। क्षारस्तदुपयोग्योत्र दुर्लभो योऽभवत् पुरा । तधु क्तिशिक्षया राज्ञा स्वदेशे सुलभः कृतः ।। २८ ॥ २८ पहले जो क्षार और उसका उपयोग यहाँ दुर्लभ था, वह युक्ति शिक्षा द्वारा, राजा ने अपने देश में सुलभ कर दिया। प्रश्नोत्तरमयी स्वोक्तिहभेभं प्रति या कृता । पारसीभाषया काव्यं दृष्ट्वाद्य कुरुते न कः ॥ २९ ॥ २९. राजा ने पारसी (फारसी) भाषा में जो कुछ प्रश्नोत्तर' किया, उसे देखकर, आज न नही काव्य करता है ? पाद-टिप्पणी: की प्रसिद्ध आतिशबाजी बनानेवाले कुछ हिन्दू २६. कलकत्ता संस्करण में उक्त श्लोक नही भी है । है। बम्बई संस्करण की श्लोक संख्या २६वां यथा Reat तवक्काते अकबरी के दोनों पाण्डुलिपियों मे वत है। 'हवीव' तथा लिथो संस्करण मे 'हल्व' (६५), फिरिश्ता के लीथो संस्करण मे 'जब' तथा रोजर्स पाद-टिप्पणी: ने भी 'जव' नाम दिया है। कलकत्ता की ३६०वी पंक्ति है। पीर हसन के फारसी और उर्दू दोनों संस्करण २७. (१) हबीब . सुल्तान जैनुल आबदीन के मे नाम जीव दिया है। वह लिखता है-इसी तरह पर्व बारूद बनाना लोग काश्मीर में नहीं जानते थ। एक जीव नामक आतिशवाज पैदा हआ, जिसके शानी एक मत है कि इसके पूर्व आतिशबाजी बनाने का जमाना की आँख ने इसके पहले न देखा था। मसाला बाहर से आता था। वह काश्मीर मे नही इसी शख्स ने फन आतिशबाजी में नई-नई चीजें मिलता था। सुल्तान ने हवीव को आतिशबाजी इजाद किये (द्र० फारसी : १९८; उर्दू: १७९), बनाने की कला में पारंगत कर दिया। इसके फिरिस्ता : २ : ३४४; तवक्काते० : ३ : ४३९ । पश्चात् आतिशबाजी काश्मीर में बनाना साधारण पाद-टिप्पणी । बात हो गयी। हबीब के विषय और जानकारी २८. कलकत्ता की ३६१वी पंक्ति है। नही मिल सकी है। आतिशबाजी उन दिनों भारत पाद-टिप्पणी: में बनानेवाले प्रायः मुसलमान ही होते थे। काशी कलकत्ता की ३६२वीं पंक्ति है। में सभी आतिशबाज मुसलमान है, जबकि जालौन २९ (१) प्रश्नोत्तर : श्रीवर के वर्णन से Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैनराजतरंगिणी ते शिल्पा मतिकल्पिताः स च सदा संगीतवाद्योरस: सालङ्कारविचारचारुधिषणा काव्ये च तत् कौशलम् । सच्छास्त्रश्रवणादरः स च नवप्रोत्पादनायोद्यमः श्रीमज्जैनमहीपतेर्बहुमतेस्तस्येव कस्याधुना ॥ ३० ॥ ३० बुद्धि कल्पित वे शिल्प, सदा संगीत वाद्य में वह रस, अलंकार-विचार में सुन्दर बुद्धि, काव्य में वह कौशल, सुन्दर शास्त्र के श्रवण में आदर, नवीन के उत्पादन के प्रति वह उद्यम, उस महामतिमान महीपति जैन के समान आज किसमें है ? खुज्यान्दोल्कादराख्यस्य शिष्यः सर्वगुणाम्बुधेः । भूभुजश्चित्तमनयद् [ १ : ४ : ३०-३१ रागतालादिभिदम् ।। ३१ ॥ ३१. सर्वगुण सागर अब्दुल कादिर का शिष्य खुज्य' ने राग-ताल आदि से राजा का मन मुदित किया । वार्ता प्रतीत होता है कि संवाद - शैली में सुल्तान तथा Tata के बीच आतिशबाजी तथा बारूद के प्रयोग तथा उसकी कला एवं उसकी शिक्षा की जो हुई थी, वह फारसी भाषा मे लिपिबद्ध की गयी थी । वह इतने अच्छे ढंग से लिखी गयी थी कि श्रीवर उसे काव्य कहता है । यह ग्रन्थ अप्राप्य है । यह सुल्तान की रचना मानी जाती है । ( २ ) काव्य : तवक्काते अकबरी में उल्लेख है — 'हबाब आतिशबाज जिसने काश्मीर मे बन्दूक का आविष्कार किया । सुल्तान के राज्यकाल में था और आतिशबाजी की कला में अद्वितीय था । 'सवाल व जवाब' नामक पुस्तक थी जिसमे बहुत-सी लाभदायक बातें लिखी हुई है, सुल्तान ने उसके सहयोग से रचना की ( ६५७ )' । पाद-टिप्पणी : ३०. कलकत्ता का ३६३वी पंक्ति है । पाद-टिप्पणी : कलकत्ता का ३६४वीं पंक्ति है । ३१. ( १ ) खुज्य : दत्त ने सुज्य नाम दिया है। मोहिबुल हसन का मत है कि यह शुजा का अपभ्रंश है । परन्तु यह ख्वाजा का अपभ्रंश प्रतीत है । आइने अकवरी में उल्लेख है कि खुराशान के अब्दुल कादिर का ऊदी ख्वाजा शिष्य था ( पृष्ठ ४३९ ) । ख्वाजा शब्द तुर्की है— अर्थ, स्वामी, पति, मालिक, प्रतिष्ठित पुरुष, मुसलमान फकीर है । ख्वाजा, खोजा रनिवास का नपुंसक भृत्य होता है । तवक्काते अकबरी में उल्लेख है कि - 'उनमें से मुल्ला ऊदी जो ख्वाजा अब्दुल कादिर का एक गरीब शिष्य था । खुरासान से आया । वह इस प्रकार ऊद ( बरबत ) बजाता था कि सुल्तान उससे अत्यधिक प्रसन्न होता था और सुल्तान ने उसे नाना प्रकार की कृपाओं द्वारा सम्मानित किया ( ६५ ) ' । तवक्काते अकबरी में ऊदी के लिये 'वे वास्तः' शब्द प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ बिना साधन अर्थात् • गरीब होता है। फिरिश्ता ने 'वे वास्ता' शब्द छोड़ दिया है । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता महीपतेः । खुरासानागतो मल्लाजादकारूयो वादनात् कर्मवीणायाः प्रापातुलमनुग्रहम् ॥ ३२ ॥ ३२. खुरासान' से आगत मल्लाजादक ने कूर्म वीणा के बादन से महीपति का अतुल अनुग्रह प्राप्त किया। १ : ४ : ३२-३३ ] म्लेच्छवाग्गेयकारकः । राजोऽभूदतिरञ्जकः || || ३३ ॥ ३३. म्लेच्छ वाणी' में गीतकारक मल्लाज्य ने राजा का उसी प्रकार अनुरंजन किया जिस प्रकार नारद इन्द्र का । पाद-टिप्पणी: मल्लाज्य मालनामापि नारदो वासवस्येव कलकत्ता का ३६५वी पंक्ति है। ३२. ( १ ) खुरासान : यह ईरान का नवाँ प्रान्त है । इसका विस्तार उत्तर-दक्षिण ५०० तथा पूर्व-पश्चिम ३०० मील है। दक्षिण में पर्वतीय भाग भी ११ से १३ हजार फीट तक है । मेसद इस प्रदेश की राजधानी है। कालीन, चर्म, अफीम, इमारती लकड़ी, कपास की बनी वस्तुएँ तथा रेशम का रोजगार होता है । यहाँ की केशर, पिस्ता, गोंद, कम्बल तथा नीलमणि प्रसिद्ध है । ( २ ) मल्लाजादक : मुल्ला जाद= म्युनिख ( पाण्डु० : ७३ ए० ) से ज्ञात होता है कि खुरासान से आनेवाला मुल्ला जाद था । श्रीवर ने मुल्लाजाद का मल्लाजादक नाम लिखा है । मुल्ला शब्द अरबी है। मौलवी, फाजिल, अजान देनेवाला तथा बच्चों के पढ़ानेवालों के अर्थ भी प्रयोग होता है। ( ३ ) कूर्म वीणा : इसे कच्छपी वीणा भी कहते है । द्रष्टव्य टिप्पणी : २ : ५७ । पाद-टिप्पणी कलकत्ता संस्करण की ३६६वी पंक्ति है। ३३. (१) म्लेच्छ वाणी परशियन भाषा : । क्योंकि मुल्ला जाद खुरासान का निवासी था। जहाँ की राजभाषा परशियन थी । जनुल आबदीन के समय में भी काश्मीर की राजभाषा परशियन हो गयी थी यद्यपि संस्कृत का भी प्रचलन था । (२) मल्लाव्य : मुल्ला जमील - यह केवल = कवि तथा चित्रकार ही नहीं था बल्कि परशियन का १२७ गीत पारगत भी था ( म्युनिख पाण्डु० : ७२ ए०; तवक्काते अकवरी : ३ : ४३९ । आइने अकवरी मे उल्लेख है - मुल्ला जमील चित्रकारी तथा संगीत दोनो में पारंगत था ( पृष्ठ ४३९ ) । तवक्काते अकबरी में उल्लेख है - मुल्ला जमील हाफिज जो कविता करने तथा पढने मे अद्वितीय था, सुल्तान द्वारा अत्यधिक आश्रय प्राप्त किया था। उसके स्वर आज तक काश्मीर में प्रसिद्ध है ( ६५७ ) । यहाँ पर स्वर के स्थान पर नक्श शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ चित्रकारी भी होता है। आइने अकबरी २ : ३८८-३८९; तवक्काते : ३ : ४३९। (३) नारद : ब्रह्मा के मानसपुत्र है । नारद त्रिकाल आकाश मार्ग से तीनों लोकों में संचार करते है । नानार्थ-कुशल है । वेद-वेदाग मे पारंगत, ब्रह्मज्ञान युक्त एवं नय-नीत है। उनकी शरीर काति श्वेत एवं तेजस्वी है । इन्द्र द्वारा प्रदत्त श्वेत मृदु एवं पूरा वस्त्र परिधान करते है। कान में सुवर्ण कुण्डल, स्कन्ध प्रदेश पर वीणा, मूर्धा पर श्लक्ष्ण शिखा रहती है । ब्रह्मा की जंघा से उत्पन्न विष्णु के तृतीय अवतार माने जाते है ( भा० १: : ३ : ८, १२; मत्स्य : ३ : ६-८ ) । नर-नारायण के उपासक है । नारद उच्च श्रेणी के संगीतज्ञ, संगीत शास्त्र में निपुण एवं स्वरज्ञ है । उनकी नारद संहिता संगीतशास्त्र का ग्रन्थ प्राप्य है। वह इन्द्रसभा में उपस्थित रहते है। एक बार इन्द्र ने पूछा' किस अप्सरा को गाने की अनुमति दूँ ?' नारद ने + Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैनराजतरंगिणी [१:४:३४-३६ तुम्बवीणाघरः सोऽहं सर्वगीतविशारदः । उद्बद्धन्नवगीताङ्क कौशलं समदर्शयम् ॥ ३४ ॥ ३४. सर्वगीत-विशारद एव तुम्ब वीणाधारी मैने नवीन गीत आरम्भ कर कौशल किया। अन्येऽपि जाफराणाद्या मया सह नृपाग्रगाः। तौरुष्कान् दुष्करान् रागानगायन् वीणया समम् ॥ ३५॥ ३५. मेरे साथ अन्य भी नापग्रगामी जाफराण' आदि वीणा के साथ दुष्कर तुरुष्क के राग गाये। गीतं द्वादशरागाङ्क गायतां नः सभान्तरे । प्रीत्यैवैक्यमिवापन्नास्तन्त्रीकण्ठोत्थिताः स्वराः ॥ ३६ ॥ ३६. सभा में हमलोंगों के बारह राग' के गीत गाते समय वीणा एवं कण्ठ से निकले स्वर मानो प्रीति से ही एक हो गये थे। 'कहा जो गुण-रूप में श्रेष्ठ हो उसे अवसर देना ३५. जाफराण = जाफर : इस व्यक्ति का चाहिये ।' अप्सराएँ परस्पर अपनी श्रेष्ठता जनाने पुनः उल्लेख श्रीवर ने नही किया है। जोनराज तथा के लिये झगडने लगी। इन्द्र ने निर्णय का भार शुक भी उल्लेख नही करता। परशियन स्रोत से भी नारद पर छोड़ दिया। नारद ने तुरन्त कहा- इसके विषय मे कुछ प्रकाश नही पड़ता। जाफरान 'जो दुर्वासा को मोहित करे वही श्रेष्ठ है। वपु अर्बी शब्द है जिसका अर्थ कुंकुम तथा केशर होता नामक अप्सरा इस काम के लिये तैयार हो गयी है। जाफर शब्द भी अर्वी है, अर्थ नहर, नदी. खरबूजा है जाफर १४ इमामों से एक हुए है। (मार्क० : १ : ३०-४७)। नारद परिहास-पटु है । परिहास वशलोगों में झगड़ा करा देने तथा कीर्तन करने ३५. (२) तुरुष्क राग : तुरुष्क राग भारत में पारंगत है। श्रीवर ने उपमा दी है कि इन्द्र की मे तुर्को द्वारा आया। यह दो प्रकार का थासभा में जैसे नारद संगीत-कला-विशारद है उसी तुरुष्कगौड और तुरुष्कतोडी। तुरुष्कगौड राग में निषाद स्वर ग्रह और अंश था। इसमे ऋषभ और प्रकार सुलतान की सभा में मुल्ला जाद था। पंचम स्वर वर्ण्य थे और मन्द्र स्थान में गान्धार स्वर पाद-टिप्पणी : का अधिक प्रयोग था । कलकत्ता श्लोक की ३६७वी पक्ति है । द्वितीय जिस तोडी राग में गान्धार स्वर का अल्प प्रयोग पद के प्रथम चरण का पाठ संदिग्ध है। था और निषाद, ऋषभ और पंचम का अधिक ३४. (१) तुम्ब वीणा : तुम्ब अर्थात् तुम्बी पर प्रयोग था वह तुरुष्कतोडी कहलाता था। बनी वीणा तुम्ब वीणा कही जाती है । तीता कद्द, जो पाद-टिप्पणी : तरकारी के काम में नही आता, बहुत बड़ा होता कलकत्ता श्लोक की ३६९वी पक्ति है। प्रथम है। उसे ही लगभग चौथाई काटकर तुम्ब वीणा पद के प्रथम चरण का पाठ सन्दिग्ध है। बनायी जाती है। तुम्बी का प्रयोग सितार तथा ३६. (१) राग : राग की परिभाषा की वीणा दोनों में होता है। उसके कारण ध्वनि गई है-यो यं ध्वनि विशेषस्तु स्वर वर्ण विभूषितः । गूंजती है। जिस वीणा में तुम्बा लगा हुआ होता है, रञ्जको जन चित्ता नाम स रागः कथितो बुधैः ॥ उसे तुम्ब वीणा की संशा दी गयी है। वह ध्वनिविशेष जो स्वर एवं वर्ण से विभूषित पाद-टिप्पणी : हो और लोगों के चित्त का रञ्जन करे उसे राग कलकत्ता श्लोक की ३६८वीं पक्ति है। कहा जाता है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:४:३७-३८] श्रीवरकृता १२९ देशसंस्कृतकाव्यज्ञो राज्ञो निकटवास्यभूत् । पण्डितो नोत्थसोमाख्यो देशजैनचरित्रकृत् ॥ ३७ ॥ ३७. देशी ( काश्मीरी) एवं संस्कृत काव्य का ज्ञाता तथा भाषा में जैन' चरित प्रणेता पण्डित नोत्थ सोम राजा का निकटवासी था। देशभाषाकविर्योधभट्टः शुद्धं च नाटकम् ।। चक्रे जैनप्रकाशाख्यं राजवृत्तान्तदर्पणम् ॥ ३८ ॥ ३८. देशी ( काश्मीरी) भाषा का कवि योधभद्र ने जैनप्रकाश नामक शद्ध नाटक की रचना की, जो वृत्तान्त के दर्पण ( सदृश ) था। तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है --उसके राज्य वर्णन से प्रकट होता है, नोत्थ सोम भी सुलतान का काल में नृत्य करनेवाले तथा बहुत से नट पैदा हो निकटवर्ती और उसका सभासद, दरबारी तथा दरगये थे और बहुत से ऐसे लोग थे, जो कि एक बारी कवि था। पद्य काव्य था। उसमें जैनुल स्वर को बारह राग से बजा सकते थे (पृष्ठ ४३९)। आबदीन के चरित तथा उसके कार्यो का वर्णन था पाद-टिप्पणी : ( म्युनिख : पाण्डु० : ७२ बी०)। कलकत्ता संस्करण की ३७०वीं पक्ति है। पीर हसन नाम सोम देता है-एक शख्स सोम ३७. (१) जैन चरित : नोत्य सोम ने के नाम काश्मीरी जबान में अशआर कहा करता था। ना काश्मीरी भाषा में जैनुल आबदीन का चरित लिखा इसके साथ ही अलूम हिन्दग मे भी लाशानी था । था। यह विक्रमांकदेव तथा दशकुमार चरित की इस शख्स में 'जैनचरित' एक किताब बादशाह के २० शैली पर लिखा गया होगा, जैसा कि उसके शीर्षक । हालात में कलमबन्द किये ( पृष्ठ १७९ )। से प्रकट होता है। पुस्तक अप्राप्य है। तवक्काते तवक्काते अकबरी में नाम सहुम दिया गया हैअकबरी में उल्लेख है-उसने जैन हरब नामक ग्रंथ उसके राज्यकाल में सुतूम नामक एक बुद्धिमान था की रचना की जिसमें सुल्तान के राज्यकाल की जो काश्मीरी भाषा में कविता करता था और हिन्दवी समस्त घटनाएँ विस्तार के साथ लिखी है ( पृष्ठ के ज्ञान में अद्वितीय था (६५८)। दूसरी पाण्डुलिपि में ४३९ )। तवक्काते अकबरी के विवरण से प्रकट 'सहुम' का पाठभेद 'संयूम' मिलता है। फरिश्ता के होता है कि रचनाकार के समय ग्रंथ का अस्तित्व लीथो संस्करण में 'सोम' नाम दिया दिया गया है। था । लेखक ख्वाजा निजामुद्दीन अहमद की मृत्यु ७ 'नोत्थ' नाम परशियन पाण्डुलिपियों को छोड़कर नवम्बर सन् १५९४ ई० में हुई थी। वह बाबर, सर्वत्र केवल सोम दिया गया है। हिमायूँ तथा अकबरकालीन घटनाओं का प्रत्यक्ष- पाद-टिप्पणी : दर्शी था। जैनुल आबदीन की मृत्यु के लगभग एक ___कलकत्ता संस्करण की ३७१वां पक्ति है । शत वर्ष पश्चात् रचना किया था। ३८. (१) योधभट्ट : श्री मोहबिल हसन (२) नोत्थ सोम : काश्मीरी भाषा तथा ने गलती से लिख दिया है कि योधभट्ट प्रसिद्ध संगीतज्ञ संस्कृत दोनों का काव्यमर्मज्ञ एवं विद्वान था। श्रीवर था। उसने संगीत शास्त्र पर पुस्तक लिखकर ने यदि राजतरंगिणी लिखा था, तो नोत्थ सोम ने सुलतान को समर्पित किया था ( पृष्ठ ९३ ) । उसने जैनुल आबदीन का चरित लिखा था। श्रीवर के काश्मीरी भाषा में एक नाटक जैनप्रकाश लिखा था। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनराजतरंगिणी [१:४:३९-४० भट्टावतारः शाह्रामदेशग्रन्थाब्धिपारगः।। व्यधाज्जैनविलासाख्यं राजोक्तिप्रतिरूपकम् ॥ ३९ ॥ ३९. शाहनामा' नामक देश ग्रन्थ में पारंगत भद्रावतार ने राजा की उक्ति प्रति रूप जैनविलास नामक ग्रन्थ लिखा। वीणातुम्बीरवावाद्याः सर्वास्तुष्टेन भूभुजा । सुवर्णरौप्यरत्नौधैर्घटितास्ताश्चकाशिरे ॥४०॥ ४०. सन्तुष्ट होकर राजा ने वीणा, तुम्बी, रबाव' आदि वाद्यों को सुवर्ण, रौप्य एवं रत्न समहों से बनवाया और वे चमकने लगे। योधभट्ट सुल्तान का दरबारी था। फिरदौसी का था। फिरदौसी ने यह काव्य गजनी को भेंट किया शाहनामा उसे कण्ठस्थ था ( म्युनिख पाण्डु० : था। गजनी ने उसे २० हजार दिरहम पुरस्कार ७२बी०, ७३ ए०; मोहिबुल हसन : ९३ )। स्वरूप दिया था। वह सन् १०२०-१०२१ ई० में (२) जैनप्रकाश : श्रीवर ने स्पष्ट लिखा। दिवंगत हो गया। उसकी मृत्यु तूस में हुई थी। है कि योधभट्ट ने काश्मीरी भाषा में जैनप्रकाश ईरान के दर्शनीय स्थानों मे फिरदौसी की मजार है। नामक ग्रंथ लिखा था । उसमें सुल्तान के राज्यकाल किंबदन्ती है कि उसका जनाजा गाँव के फाटक से के वृतान्त का वर्णन लिखा था। वह दर्पण तुल्य था, निकल रहा था, तो महमूद गजनी का भेजा साठ हजार जिससे सुलतान के राज्यकाल का पूर्ण प्रतिबिम्ब मिलता। था। पीर हसन नाम 'वोदी बट' देता है--'बोदी बट' दिरहम पहँचा । फिरदौसी की पुत्री ने सब धन दानएक और शख्स था जिसे फिरदौशी का शाहनामा पुण्य में व्यय कर दिया। फिरदौसी ने जब बीस अज़बर याद था। बादशाह की महफिल में पढ़ा करता हजार दिरहम पाया था, तो गजनी के कंजूसी की था। इस शख्स ने जैन नामी एक किताब इलम मौसीफी में सुलतान के नाम पर लिखकर इनाम व (२) भट्टावतार : इनके विषय में अभी तक इकराम पाया (पृष्ठ १७९-१८०)। कुछ और ज्ञात नही है । तवक्काते अकबरी में उल्लेख पाद-टिप्पणी: किया गया है-लोदीभट्ट को पूरा शाहनाम कंठस्थ कलकत्ता संस्करण की ३७२वीं पक्ति है। था। उसने संगीत सम्बन्धी 'मामक' नामक एक ३९. (१) शाहनामा : शाब्दिक अर्थ महा पुस्तक की सुल्तान के नाम पर रचना की और इस काव्य, जिसमें किसी राज्य के राजा का वर्णन लिखा कारण वह सुलतान का कृपापात्र बना। (४३९जाता है। शुद्ध फारसी शब्द है। फारसी के प्रसिद्ध ६५८)। पाण्डुलिपि में पुस्तक का नाम बानक तथा कवि फिरदौसी ने शाहनामा ग्रन्थ की रचना की थी। फिरदौसी का जन्म खुरासान के कस्बा ___ लीथो संस्करण में 'मानक' या 'मानिक' या 'मायक' में सन् ९२० ई० में हुआ था। असदी नामक लिखा मिलता है। फिरिश्ता ने 'सहम' के स्थान कवि का शिष्य था। उसके गुरु ने इरान के पौरा- पर पर 'बूदीवट' लिखा मिलता है। णिक राजाओं के विषय में एक ग्रन्थ उसे दिया। (३) जैन विलास : इस ग्रंथ में सुलतान की उसी ग्रंन्थ के आधार पर फिरदौसी ने शाहनामा की उक्तियाँ लिपिबद्ध थी। रचना की थी। इसमें साठ हजार शेर हैं। इसने मा बजार और हर पाद-टिप्पणी: पाद २५ वर्षों के अथक परिश्रम के पश्चात् इस ग्रंथ को उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ३७३वीं २५ फरवरी सन् १०१० ई० में समाप्त किया। पंक्ति तथा बम्बई की श्लोक संख्या ४० है। महमूद गजनी ने खुरासान सन् ९९९ में विजय किया ४०. (१) रबाब : फारसी शब्द है । सितार Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:४ : ४१-४२] श्रीवरकृता तद्वाचिकाङ्गिकाहार्यसात्त्विकाभिनयोज्ज्वलम् । नाटयं दृष्ट्वा जनः सर्वश्चतुमुखमशंसत ॥ ४१ ।। ४१ आंगिक', वाचिक, आहार्य, एवं सात्विक अभिनय से सुन्दर उस नाटक को देखकर चतुमखी प्रशंसा किये। इत्थं त्रिवर्गविद्राजा त्रिजगत्ख्यातपौरुषः । ___ त्रियामास्त्रिविधैर्नृत्यैरनयत् त्रिदशोपमः ॥ ४२ ।। ४२. इस प्रकार तीनों लोक में प्रख्यात पौरुष एवं देवोपम त्रिवर्ग वेत्ता राजा ने तीन प्रकार के नृत्यों से तीन रात्रियाँ व्यतीत की। के प्रकार का एक तन्तुवाद्य होता है। द्रष्टव्य भवेदभिनयोऽवस्थानुकारः स चतुर्विधः, आङ्गिकी, टिप्पणी : २ ५। वाचिकाश्चैवमाहार्यः सात्विकस्तथा ( १७४)। पाद-टिप्पणी : भरत मुनि ने भी यही मत प्रकट किया हैकलकत्ता संस्करण की ३७४वी पंक्ति है। आङ्गिको वाचिकश्चैव ह्याहार्यः सात्विकस्तथा। ४१. (१) आंगिक : शरीर की चेष्टाओं से चत्वारो ह्यभिनया ह्यते विज्ञेया नाट्य संश्रयाः ॥ व्यक्त होनेवाला अभिनय, अर्थात् अग के विकार, का नाम आङ्गिक हैनाटक के पाँच अंग आङ्गिक, वाचिक तथा कलकत्ता संस्करण की ३७५वी पक्ति है। आहार्य, तीन प्रकार के अभिनय तथा गान एवं वाद्य ४२. (१) त्रिवर्ग : सांसारिक जीवन के तीन मिलकर नाटक के पाँच अंग बनते है। पदार्थ-धर्म, अर्थ एवं काम है । (२) वाचिक : शब्दों द्वारा प्रकट होनेवाला (२) नृत्य : ताण्डव, नटन, नाट्य, लास्य, अभिनय अथवा शब्दों से युक्त, अभिव्यक्ति वाचक नृत्य नाम है-ताण्डवं नटनं नाट्यं लास्यं नृत्यं च क्रिया या मौखिक, शब्दिक या मौखिक रूप से अभि नर्तने । अमर०:१: ७:१०। संगीत के ताल व्यक्त अभिनय । और गति के अनुसार हाथ, पांव तथा अंगों के हाव(३) आहार्य : वेष-भूषा, अलकार, श्रृंगार भाव को नृत्य की संज्ञा दी गयी है। नृत्य के दो आदि से व्यक्त होने वाला अभिनय या शृंगार भेद-ताण्डव तथा लास्य है। उग्र तथा उद्धत चेष्टा अथवा आभूषा से सप्रेषित या प्रभावित अभिनय ।। जिसमें प्रकट किया जाता है, उसे ताण्डव तथा जिसमें (४) सात्विक : स्वेद, रोमांच आदि के सुकुमार अंगों से शृंगार आदि कोमल रसों का संचार आन्तरिक भावनाओं को प्रकट करनेवाला अभिनय । किया जाता है, उसे लास्य कहते है। ताण्डव एवं 'स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभंगोऽथ वेपथुः । लास्य भी दो प्रकार के पेलिव और बहुरूपक होते वैवर्ण्यमश्रु प्रलप इत्यष्टौ सात्विक गुणाः ।' है। अभिनवशून्य अंग विक्षेप को पेलिव तथा (५) अभिनय : साहित्यदर्पण अभिनय की जिनमे भावों के अभिनव होते है उन्हें बहुरूपक परिभाषा करता है, जिसे श्रीवर ने यहाँ दुहरा कहते हैं। लास्य नृत्य दो प्रकार का छुरित तथा दिया है यौवन होता है (द्र० १ : ४: १०)। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैनराजतरंगिणी [१:४:४३-४६ स्फुरद्विचकिलोल्लासहासं स भवनान्तरम् । आसदत् तारकापूर्ण पूर्णचन्द्र इवाम्बरम् ॥ ४३ ॥ ४३. तारकापूर्ण अम्बर में पूर्णचन्द्र समान वह राजा स्फुरित होते, विचकिल' ( पुष्प ) के उल्लास हास युक्त भवन में पहुंचा। ततो विमलकुण्डान्ते पानक्रीडां महीपतिः । कर्तुं प्रचक्रमे तत्र पुत्रमित्रविभूषितः ।। ४४ ॥ ४४. तद उपरान्त वहाँ पर विमल कुण्ड के पास पुत्र मित्र से भूषित महीपति ने पानक्रीडा आरम्भ की। पितृप्रेमामृतोत्सित्तो हाज्यखानोऽथ भक्तिमान् । वसन्तवर्णनोन्मिश्रां चाटूक्तिमवदद् विभोः ॥ ४५ ॥ ४५. पितृप्रेमामृत से सिक्त भक्तिमान हाजीखान वसन्त वर्णन मिश्रित राजा की चाटुक्ति' (प्रशंसा ) की। संगीतनादनिपुणान् कलकण्ठभृङ्गान् कृत्वानिलं व्रततिलास्यविधानदक्षम् । गीतप्रियं नरपते किमु सेवितुं त्वां प्राप्तो वसन्तऋतुचारणचक्रवर्ती ॥ ४६ ॥ ४६. 'हे नरपते ! कलकण्ठ भृङ्गों को संगीत नाद में निपुण तथा वायु को लता नर्तन विधान में दक्ष बनाकर, चारण चक्रवर्ती वसन्त ऋतु गीतप्रिय आपकी सेवा हेतु उपस्थित हुआ है, क्या ? ४५. (१) चाटुक्ति : खुशामद या मिथ्या प्रशंसापूर्ण वचनों का प्रयोगः चापलसी। चाटुक्तियों से राजा अच्छा शासक नहीं बनता। पाद-टिप्पणी: कलकत्ता संस्करण की ३७६वी पंक्ति है। ४३. (१) विचकिल : एक प्रकार की चमेली है । मदन वृक्ष का नाम भी विचकिल है। पाद-टिप्पणी: ४४. कलकत्ता संस्करण की ३७७वीं पंक्ति है। पाद-टिप्पणी: कलकत्ता संस्करण की ३७८वीं पंक्ति है। पाद-टिप्पणी: ४६. पाठ-बम्बई । कलकत्ता संस्करण की ३७९ वीं पंक्ति है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:४ : ४७-४९] श्रीवरकृती मेघाडम्बरमम्बरं यदि तदा निर्नष्टशोभा वयं नित्यं तीक्ष्णकरेण तेन दिवसे तत्राप्यहो बाधिताः। स्वामी नः शशभृल्लयोदयहतो दुःखादितीवागता उद्याने नरदेव सेवनपराः पुष्पच्छलात् तारकाः ॥ ४७ ॥ ४७. 'यदि आकाश मेघाडम्बर ग्रस्त होता है. तो हम लोगों ( ताराओं) की शोभा नष्ट हो जाती है और दिन में भी सूर्य के द्वारा बाधित होते हैं। हमलोगों ( ताराओं) का स्वामी चन्द्रमा घटाव-बढ़ाव से नष्टप्राय है। हे राजा! इस दुःख से मानो सेवा में तत्पर तारकायें ही पुष्प छल से उद्यान में आ गयी है। पङ्कातङ्ककलङ्किता जलमया ये भोगिदेहार्तिदा स्त्वद्देशे विलसन्त्युपात्तविषयाः सन्मागविघ्नोधताः । ते याताः स्वयमेव देव विलयं श्रीमत्प्रतापोदया दस्मिन् हर्षमये वसन्तसमये पालेयपूरा यथा ॥ ४८ ।। ४८. 'पंकातंक से कलंकित सर्वशरीर को पीड़ाप्रद, सन्मार्ग से विघ्न हेतु उद्यत, जो जलापुर' देश में आकर, विलसित होते हैं, हे देव ! वे श्रीमान् के प्रतापोदय से उसी प्रकार स्वयं समाप्त हो गये हैं, जैसे इस हर्षमय वसन्त समय में प्रलयपुर।' श्रुत्वेति भूपतिहष्टो हाज्यखानाय सत्वरम् । सौवर्णकर्तरीबन्धमप्रमेयं समापिपत् ।। ४९ ॥ ४९. यह सुनकर प्रसन्न राजा ने तुरन्त हाजीखान को जागीर ( प्रमेय' ) रहित सुवर्ण कर्तरी (छुरिका) प्रदान किया। पाद-टिप्पणी। ४९. (१) प्रमेय : जागीर रहित अथवा ४७. कलकत्ता संस्करण की ३८०वी पंक्ति है। जागीर मुकर्रर नमूद । पाद-टिप्पणी : (२) कर्तरी : पीर हसन लिखता हैपाठ-बम्बई; कलकत्ता संस्करण की ३८८वीं पंक्ति है। बादशाह अपने तमाम बेटों में हाजी खाँ को सबसे ४८. (१) जलापूर : बाढ़। ज्यादा अजीज रखता था। इसके निशान में सुलतान (२) प्रालेयपूर : तुषार किंवा हिमपूर्ण। ने उसे एक जवाहरदार तलवार बख्शने के अलावा यथा-"ईशाचल प्रालेय प्लवनेच्छ्या ' गीतः १. 'प्रालेय मन्सब व जागीरें भी अता की (पृष्ठ : १८५)। शीतम चलेश्वर मीश्वरोऽपि' शिशुपालवध ४ : ६४। तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-सुल्तान ने पाद-टिप्पणी: उसे सुनहरा पेटी प्रदान की और वह उससे सर्वदा कलकत्ता संस्करण की ३८२वी पंक्ति है। सन्तुष्ट रहता था ( ४४४-६६८.)। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन राजतरंगिणो यैः सेवा कृता तस्य शाह्यादेशे विचार्य तान् । पुत्रस्नेहेन भूपालो घोषराष्ट्राधिपान् व्यधात् ।। ५० ।। ५०. शाह्य' देश में जिन-जिन लोगों ने उसकी सेवा की थी, विचारकर, राजा ने उन्हें पुत्र स्नेह से घोष' राष्ट्र का अधिपति बना दिया । प्रेष्याद्याक्षेपसिन्ध्वौघमग्नांस्तान् प्रसादपट्टपोन समुत्तीर्णान् ५१. आक्षेप ( निन्दादि ) रूप सिन्धु के ओघ में मग्न, उन सेवक समूहों को राजा ने अपने अनुग्रह' रूप नाव द्वारा पार कर दिये । विद्वद्गीताङ्गिभृत्येभ्यस्तस्मिन्नवसरे सुतात्यानन्दवाष्पाढ्यो व्यधात् ५२. उस समय पुत्र प्राप्ति के आनन्द से वाष्पपूर्ण राजा ने विद्वान्, गायक एवं भृत्यों पर कनक वृष्टि की। पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का ३८३वी पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का ५०वां श्लोक है । ५०. (१) शाह्य देश : हिन्दुस्तान । परशियन लेखकों ने 'दर हिन्दुस्तान' अर्थ किया है । [ १ : ४ : ५०-५२ श्रीवर ने सा देश का उल्लेख किया है । 'शेल' या 'शे' स्थान सिन्धु नदी पर लेह से ऊपर है । यहाँ बुद्ध की प्रतिमा बहुत ही सुन्दर पर्वत में खुदी है । मैं यहाँ आ चुका हूँ । शाह्य का पाठभेद साह्य एवं बाह्य देश भी मिलता है । उसके अनुसार परशियन लेखकों द्वारा वर्णित 'दर हिन्दुस्तान' शब्द ठीक बैठता है । काश्मीर में 'बाह्य' देश का सर्वदा तात्पर्य काश्मीर के बाहर का देश लगाया गया है। वह स्थान हिन्दुस्तान में ही होगा अतएव फारसी में 'दर हिन्दुस्तान' लिखा गया 1 ( २ ) घोष राष्ट्र एक गाँव या परगना है कुछ स्पष्ट नहीं होता । इस शब्द का केवल यही प्रयोग किया गया है। इसका उल्लेख अन्य राजतरंगिणीकारों ने नहीं किया है। सेवकान् । व्यधान्नृपः || ५१ ॥ नृपः । कनकवर्षणम् ॥ ५२ ॥ पादटिप्पणी : कलकत्ता संस्करण की ३८४वी पंक्ति है । प्रथम पद के प्रथम चरण का पाठ सन्दिग्ध है । ५१ ( १ ) अनुग्रह : तवक्काते अकबरी में उल्लेख है - हाजी खाँ ने निष्टा के हेतु कटिबद्ध होकर इस ओर कोई कसर उठा न रखी और अपने सेवकों को जो हिन्दुस्तान की यात्रा में उसके सहायक थे सिफारिश करके उनके लिये बड़े-बड़े पद सुलतान से ले लिये तथा अच्छी-अच्छी जागीरें उनके लिये निश्चित करायी ( ४४४ ) । पाद-टिप्पणी : कलकत्ता संस्करण की ३८५वीं पंक्ति है । ५२. ( १ ) कनक वृष्टि : कल्हण ने राजा गुप्त के लिये कंकण की कथा का उल्लेख किया है ( रा० : ६ : १६१ ) । श्रीवर कल्हण का अनुकरण करता, जैनुल आबदीन को ' कनकवर्षी' लिखता है । राजा अभिमन्यु का अपर नाम ही कंकणवर्षी पड़ गया था ( रा० : ६ : ३०१ ) । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:४:५३-५४ ] श्रीवरकृता १३५ दत्तमार्गोपचारार्था राष्ट्रिया दर्शनागताः । प्राप्तपट्टपरीधानमानतुष्टा न केऽभवन् ॥ ५३ ।। ५३. दर्शनागत राष्ट्रियों को मार्ग व्यय दिया। इस प्रकार रेशमी वस्त्र एवं मान प्राप्त कर कौन से लोग सन्तुष्ट नहीं हुए? . तान् विलोक्य भवनोपवनादीन् पुष्पपूरपरिपूरितनौकः । संस्तुवन् मडवराज्यनिवासान् प्राप जैननृपतिर्नगरं स्वम् ॥ ५४ ॥ ५४. उन भवन उपवन आदि को देखकर मडवराज निवासियों की प्रशंसा करते हुए, पुष्प राशि से नाव को परिपूर्ण कर, जैन नपति अपने नगर पहुंचा। इति जैनराजतरङ्गिण्यां पुष्पलीलावर्णनं नाम चतुर्थः सर्गः ।। ४ ।। __ जैन राजतरंगिणी में पुष्पलीला वर्णन नामक चतुर्थ सर्ग समाप्त हुआ। पाद-टिप्पणी : वी पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का ५४वा श्लोक है। ५३. कलकत्ता संस्करण की ३८६वी पंक्ति है। उक्त सर्ग में बम्बई संस्करण में ५४ श्लोक यथावत है । कलकत्ता संस्करण के पंक्ति ३३५ से पाद-टिप्पणी : ३८७ अर्थात् ५३ श्लोक है। बम्बई संस्करण का ५४. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ३८७ एक श्लोक संख्या २६ कलकत्ता संस्करण में नही है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः सर्गः अत्रान्तरे सुतप्राप्त्या निश्चिन्तः सुकृतोद्यतः । कुल्या नवनवाः कर्षन् प्रतिष्ठारसिकोऽभवत् ॥ १॥ १. इसी बीच पुत्र प्राप्ति से निश्चिन्त एवं सत्कार्य हेतु उद्यत ( राजा ) नवीन कुल्याएं खुदवाते हुए, प्रतिष्ठा के प्रति रसिक हो गया। कविः श्रीजोनराजो यां स्वसंदर्भान्तरेऽब्रवीत् । ग्रन्थविस्तारभीत्या तद्वर्णनं न मया कृतम् ॥ २ ॥ २. कवि श्री जोनराज ने जिन्हें अपने ग्रन्थ में लिखा है, ग्रन्थ विस्तार भय से वह वर्णन नहीं किया है। एकैवास्त्यमरावती ननु पुरी साज्ञातनिर्माणका तत्राप्यत्र सदा विमानवसतिर्देवादिषु श्रूयते । सोऽभूद् भूमिपुरंदरः पुरशतं कुर्वन्नवं सर्वतो यौते निवसन्ति मानसहितास्ते भूमिदेवादयः ॥३॥ ___३. स्वर्ग में एक ही वह पुरी अमरावती' है, जिसका निर्माण अज्ञात है। वहाँ भी सदा विमान निवास ही, देवता आदि में सुना जाता है। यहाँ पर सब ओर से सैकड़ों पुर का निर्माण करता, वह भूमि पुरन्दर हुआ, जिनमें मान सहित भूमि देव आदि निवास करते हैं । श्रीजैननगरे पञ्चदशेऽब्दे या कृता पुरा । राजधानी नवात्युच्चा विद्धा देवगृहोपरि ।। ४ ।। ४. पन्द्रहवें वर्ष जैन नगर में जो नवीन राजधानी बनायी वह अति ऊँची एवं अपर देवगृह विद्ध थी। पाद-टिप्पणी : सिंहासन सुवर्ण का था। चारो ओर सुन्दर रमणीय १. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ३८८वीं उपवन थे। जलस्रोत प्रवाहित थे। वहाँ सर्वदा पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का प्रथम श्लोक है। वाद्य ध्वनि होती रहती थी (वन०:४२ : ४२; पाद-टिप्पणी: उद्योग० १०३ : १; अरण्य० ४८ : १०); यहाँ जरा, ३. (१) अमरावती : देवताओं की पुरी मृत्यु एवं शोक नहीं होता। अर्थात इन्द्रपुरी, सुरपुरी है। इसका निर्माण विश्वकर्मा पादटिप्पणी: ने किया था। इसमें हीरे की स्तम्भावली थी। ४. ( १ ) पन्द्रहवें वर्ष : सप्तर्षि ४५१५ = Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ः५:५-७] श्रीवरकृता १३७ तस्याः समीपे नृपतिश्चत्वारिंशेऽथ वत्सरे । इष्टिकादारुसंबद्धं राजवासं नवं व्यधात् ॥ ५॥ ५. राजा ने चालीसवें' वर्ष उसी के समीप ईंटा और लकड़ीमय नवीन राजप्रासाद निर्माण कराया। यत्पृष्ठे स्वर्णकलशो भाति ति मनोहरः । हेमपद्म इवोन्मुक्तः शक्रेण श्रुतकीर्तिना ॥ ६ ॥ ६. जिसके ऊपर मनोहर स्वर्ण कलश शोभित होता है, मानो इन्द्र ने कीर्ति सुनकर स्वर्णकलश गिरा दिया है। यद्वारागनियुक्तेभ्यस्तत्तत्कर्म समादिशन् । आजीवं सोऽवसद् राजा राजधान्युज्ज्ञितास्थितिः ॥ ७॥ ७. जिसके द्वार पर, नियक्त जनों को तत-तत् कर्म का आदेश देते हए, वह राजा राजधानी की स्थिति त्याग कर, जीवन पर्यन्त वहीं पर निवास किया। सन् १४३९ ई० = विक्रमी १४९६ - शक १३६१ % नौशहरा तथा प्राचीन नाम विचार नगर था। इसे कलि गताब्द = ४५४० वर्ष । राजदान या राजधानी मिर्जा हैदर दुगलात के समय (२) जैननगर : सारिका किंवा हरिपर्वत मध्य सोलहवी शताब्दी तक कहते थे। . से अम्बुरहर तक जैन नगरी विस्तृत थी। यह जैन- पाद-टिप्पणी गंगा के तट पर थी। जैनगंगा को आजकल लछम ५.( १ ) चालीसवें वर्ष : सप्तर्षि ४५४० = कल करते है। यह राजधानी अथवा राजदान नाम सन १४६४ ई० = १५२१ विक्रमी = शक संवत् से ज्ञात थी। एक मत है कि जैनदब ही जैननगर १३८६ = कलि गताब्द ४५६५ वर्ष । । है ( तारीख : रशीदी : पृ० २४९)। पाद-टिप्पणी : __ मिर्जा हैदर लिखता है कि यह भव्य इमारत १२ मंजिलों की थी। प्रत्येक मजिल में ५० कमरे ६. (१) श्रुतकीर्ति : प्रसिद्ध, विश्रुत, उदार थे। मिर्जा हैदर ने इसे सन् १५५३ ई० मे देखा व्यक्ति आदि। था । तत्पश्चात् यह नष्ट हो गया । उसके गौरव की पाद-टिप्पणी : स्मृति में पर्यो, उत्सवों तथा रमजान अव पर महि ७. श्री कण्ठकौल संस्करण के उक्त श्लोक का लाएँ गाना गाती है। चतुर्थ पाद अर्थात् द्वितीय पंक्ति का अन्तिम भाग शुक ने इसका उल्लेख किया है (शुक० : का पाठ मानकर अनुवाद करने पर अर्थ नहीं बैठता, २ : ६७) । जोनराज ने भी इसका उल्लेख किया है बम्बई तथा कलकत्ता संस्करण का पाठ मानकर ( जो० : ८६९)। यहाँ की आबादी सोवरा से अनुवाद करने पर यह कठिनाई दूर हो जाती है। हरिपर्वत तक फैली थी। एक मत से मुसलिम नाम श्री कण्ठकोल का पाठ है-राजधान्युज्झितस्थितिः । जै. रा. १८ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:५:८-११ १३८ यत्र वापीगता हंसा गीतशंसां स्वनच्छलात् । कुर्वन्तीव समीपस्था गायद्गीताङ्गिसंस्कृतैः ॥ ८॥ ८. जहाँ पर समीपस्थ वापीगत' हंस शब्द व्याज से, मानो गान करते, गायकों की गीत की प्रशंसा करते थे। यत्र खर्वीकृतारातिः सुपर्वाधिपतिर्यथा । सर्वाहः सुखगन्धर्वचर्वणैरनयत् सुखम् ॥ ९॥ ९. जहाँ पर इन्द्र के समान शत्रु को नीचा कर, सुखपूर्वक गन्धर्व विद्या का आनन्द लेते हुए, सब दिन व्यतीत करता था। यदन्तरे सुविस्तीर्णः सर्वदर्शनमण्डपः । काचभित्तिमयो भाति त्र्यश्रसिंहासनोज्ज्वलः ॥१०॥ १०. जिसके मध्य सुविस्तीर्ण, काचमय, भित्तिवाला तथा त्रिकोण सिंहासन' से सुन्दर सर्वदर्शन मण्डप शोभित होता था। यद्गर्भाद् धूपसंदर्भनिर्भरान्नृपसंश्रितात् । वातोऽपि सफलो यातः प्रातर्घाणसुखप्रदः ॥ ११ ॥ ११. नृप सेवित, धूप-गन्ध-व्याप्त, जिसके ( राजप्रासाद ) मध्य से प्रातः सुखप्रद वायु भी सफल होकर, निकलती थी। पाद-टिप्पणी: प्रचलित थी। मुसलमानी आक्रमण एवं भारत के पाठ-बम्बई। पराधीन हो जाने के पश्चात्, इरानी तथा मुसलिम देश प्रभावित संगीत का प्रचार दरबारों का आश्रम ८. (१) वापी : वापी को दीपिका या बावली पाकर प्रचलित हो गया। भारत के प्रदेश एक दूसरे कहते है। वापी बड़ा आयताकार जलाशय होता से दूर थे। उनमें अराजकता के कारण सम्पर्क नहीं है। उसमें शिलाबद्ध सीढ़ियाँ होती है, जिससे उतर, रह गया था। शास्त्रीय संगीत के स्थान पर देशी जल लिया जा सकता है। सरोवर, कूप, वापी, संगीतों का विकास होने लगा। शास्त्रीय संगीत तड़ाग सबके अर्थों में अन्तर है-वापी चास्मिन्मरकत शिलाबद्ध सोपान मार्गा-मेघ० : ७६ । परम्परा मिश्रित तथा स्थानीय रूप, व्यापक भारतीय रूप के स्थान पर लेने लगी। नाम भी गन्धर्व विद्या पाद-टिप्पणी: से बदल कर दूसरा पड़ गया। ९. (१) गन्धर्व विद्या : ज्ञान विद्या, संगीत । पाद-टिप्पणी : . कला, शास्त्रीय संगीत को गन्धर्व विद्या कहते हैं। भरत मनि, जिनका काल लगभग दूसरी शती ईसा १०. (१) सिंहासन : सोने का बना था पूर्व रखा जाता है, उस समय से सारंगदेव तेरहवीं (२६)। शताब्दी तक शास्त्रीय संगीत की परम्परा भारत में (२) मण्डप : दरबारे-आम । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १: ५ . १२-१५ श्रीवरकृता १३९ कदाचिल्लाहरं दुर्ग यात्रां द्रष्टुं गतो नृपः । राजवासं नवं कृत्वा जीर्णोद्धारमकारयत् ।। १२ ॥ १२. किसी समय राजा यात्रा देखने के लिये, लहर' दुर्ग गया। वहाँ राजवास का जीर्णोद्धार कर, नया बनाया। समुद्रकोटादारभ्य यावच्छ्रीद्वारकावधि । तत्तन्नवनवावासवासवालयसुन्दरान् ॥ १३ ॥ १३. समुद्रकोट' से लेकर, द्वारका पर्यन्त, नये-नये इन्द्र गृह के समान, सुन्दर नवीन, आवासों से युक्त जैननामाङ्कितान् ग्रामानकरोन्नगभूषितान् । उपतीरं महापद्मश्रीमत्पन्नगभूषितान् ।। १४ ॥ १४. जैन' नाम से अंकित, नग भूषित', महापद्म एवं श्रीमद् पन्नग विभूषित, ग्रामों को उसके तट पर निर्मित कराया। तदन्नसत्रतृप्तानामर्थिनां त्रिपुरेश्वरे । उदरं मेदुरं क्षान्तो राजा लम्बोदरः कथम् ॥ १५ ॥ १५. त्रिपुरेश्वर' में उसके अन्नसत्र से तृप्त, याचकों का उदर परिपूर्ण हुआ और नहीं तो क्षमाशील राजा लम्बोदर ( गणेश ) कैसे हुआ? पाद-टिप्पणी : (२) नग भूषित : वृक्षों से विभूषित, जैन १२. (१) लहर : वर्तमान परगना लार है। ग्राम निर्माण कराया। यदि नग का अर्थ सात मान पूर्वकाल में लहर कहा जाता था। सिन्ध उपत्यका लिया जाय तो सात ग्रामों का निर्माण महापद्मसर का पश्चिमी अंचल है। तहसील का केन्द्र अर- के समीप कराया था। तस है। (३) पन्नग भूषित : पन्नग का अर्थ सर्प पाद-टिप्पणी : होता है। सर्प नाग को भी कहते है। महापद्मसर १३ (१) समुद्रकोट : वर्तमान सुन्दरकोट मे नाग अथवा जलस्रोत आकर मिलते थे। उन्ही है। ऊलरलेक के पूर्वीय तट पर है ( रा०क० की ओर श्रीवर संकेत करता है। जैन नाम का ग्राम १:१२५-१२६ )। सिघिड़ा के पैदावार के समय नाग ( जलस्रोत ) स्थानों पर निर्माण कराया। यहाँ चहल-पहल हो जाती है। इसका उल्लेख पुनः पाद-टिप्पणी : श्रीवर नही करता। १५. (१) त्रिपुरेश्वर : श्रीनगर के समीप (२) द्वारका : अन्दरकोट ( रा० क०:४: एक तीर्थ था। वर्तमान त्रिफर है डललेक से ३ मील ५०६-५११ ) तथा श्रीवर० : ४ ३४७ । दूर है ( रा० : ० ४ : ४६; ६:१३५ : ५ : पाद-टिप्पणी: १२३;७ : १५१, ५२६ : ९५६)। १४ (१) जैन : जैनुल आबदीन । (२) अन्नसत्र : श्रीवर राजा के द्वारा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी क्षितीशान्नैर्वराहक्षेत्रभूमिषु । अन्नस अस्तु नम्रशिराः शेषश्चित्रमिन्द्रोऽपि चाभवत् ।। १६ ।। १६. वाराहक्षेत्र' भूमि पर, अन्नसत्र में राजा के अन्न से शेषनाग का मस्तक, नत हो गया और इन्द्र चकित हो गये । १४० मत्स्येभ्यो नित्यतृप्तेभ्यः सूक्ष्माणामभयं ददौ । मत्स्यानामन्नसत्रेण वितस्तसिन्धुसंग || १७ ॥ १७. वितस्ता एवं सिन्धु के संगम' पर, अन्नसत्र से नित्य तृप्त, मत्स्यों से छोटी मछलियों को अभयदान दे दि अर्थिनामतितृप्तानां अपेक्ष्य विदधे छायां न [ १ : ५ : १६-१८ श्रीशङ्करपुरे नृपः । फलानि महीरुहाम् ।। १८ ।। अर्थियों के लिये, वृक्षों के फल की नहीं, १८. राजा ने शंकरपुर' में अत्यन्त तृप्त, छाया' की अपेक्षा की। चलाये गये अन्नसत्रों का उल्लेख आरम्भ करता है । परशियन इतिहासकारों के उल्लेख से पता चलता है कि श्रीनगर मे रैनवारी स्थान में हिन्दू राजाओं के काल से एक विशाल भवन में बाहर से आये तथा काश्मीरस्थ तीर्थो एवं देवस्थानों की यात्रा करनेवालों के लिये अन्नसत्र चलता था । जैनुल आबदीन ने एक भवन निर्माण कराकर, निवास तथा अन्नसत्र की व्यवस्था कर दिया ( तुहफातुल अहवाव : २२६-२२७; फ्तहाते कुवराविया: पाण्डु० २०० बी ) । बल्कि वस्थ स्थान वाराहक्षेत्र तथा वाराहतीर्थ कहा जाता था । ( २ ) अन्नसत्र : वह स्थान जहाँ भूखों को भोजन दिया जाता है । अन्नक्षेत्र तथा लंगर भी अर्थ होता है । पाद-टिप्पणी : १७. ( १ ) संगम : काश्मीर का शादीपुर समीपस्थ । प्रयाग = ( २ ) मछली : बड़ी मछलियों का इतना पेट भर गया था कि वे छोटी को नही खा सकती थी । इस प्रकार राजा के कारण छोटी मछलियों की जीवन रक्षा हो गयी । (३) लम्बोदर: गणेश का एक नाम लम्बोदर है । उनका उदर भोजन करने से उन्नत हो गया है । श्रीवर यहाँ यही उपमा देता है कि अन्नसत्र में याचक इतने तृप्त हो गये कि उनका पेट उन्नत हो गया । इससे यह प्रकट होता है कि सुलतान जैनुल आबदीन का पेट या तोन्द निकला था । शाब्दिक अर्थ भोजनभट्ट, स्थूलकाय भारी श्रीदत्त ने भावानुवाद किया है कि छोटी मछलियों को प्रतिदिन भात खिलाता था, जिससे उनकी रक्षा हो गयी थी । पाद-टिप्पणी : तोंदवाला होता है । भरकम, पाद-टिप्पणी : १८. (१) शंकरपुर : वर्तमान पाटन = पत्तन ( रा० : ०५ : १५६ ) । ( २ ) छाया : श्रीदत्त ने अनुवाद किया है कि १६. ( १ ) वाराहक्षेत्र : वाराहमूला समी- याचकों की प्रार्थना पर, जिन्हें वह खिलाता था, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैनराजतरंगिणी [१:५ : २२ अन्नसत्रमविच्छिन्नं कृत्वा शुरपुरध्वना । शुल्कास्थाने व्यधाद् राजा भारिकानभिसारिकान् ॥ २२ ॥ २२. राजा ने शुल्क के स्थान पर, अविच्छिन्न अन्नसत्र प्रदान कर, शूरपुर' मार्ग से जानेवाले अभिसारिकों को भारवाही बना दिया। तट पर है। नगर मे दश से ऊपर मसजिदे तथा क्षेत्र में एक लघु राज्य था। काश्मीर राजा उत्पलाआठ जियारतें है। उनमें बाबा नसीबहीन गाजी की पीड के समय यह काश्मीर के अन्तर्गत था। शंकर वर्मा ने उस पर पुनः विजय प्राप्त किया था, जब वह जियारत सबसे बड़ी है। यह नदी के वाम तट पर गुजरात, जो भीमवर के दक्षिण था, विजय हेतु गया नगर के उत्तर जामा मसजिद के समीप है। वाद था। दर्वाभिसार का उल्लेख सिकन्दर के अभियान शाही बाग सन् १६५० ई० में दारा शिकोह के के समय भी मिलता है। वहाँ का राजा सिकन्दर के आदेश पर बनाया गया था। द्र० : १ : ३ : १३; पास गया था । दर्व एक जाति है। यह बल्लावर १:४:४;३ : २०३; ४ : ५३२ । तथा जम्मू में रहती थी। दर्व जाति के साथ ही अभिसार जाति आबाद थी। इन्हीं जातियों के नाम पाद-टिप्पणी: पर क्षेत्र का सम्मिलित नाम दर्वाभिसार पड़ गया पाठ-बम्बई था। अभिसार का उल्लेख बृहत्सहिता मे वराह २२. (१) शूरपुर = हूरपुर : ( रा० : क० मिहिर ने किया है। अभिसार झेलम-चनाव के मध्य ३ : २२७; ५ : ३९; ७: ५५८; १३४८-१३५५; का अंचल था, जबकि एक मान्यता के अनसार दर्व ८ : १०५१-११३४ आदि, श्रीवर : १:१:१०७, चनाव तथा रावी के मध्य माना गया है। दर्व तथा १६४; ३ : ४२, ४ : ३९, ४४२, ५२६, ५३१, अभिसार दो जातियाँ तथा जनपद थे। प्राचीन ५५८,५८४, ६०६ । काल में दो जनपदों को मिलाकर भी नामकरण किया जाता था, जैसे काशी-कोशल आदि । महाभारत (२) अभिसार : शब्द यहाँ श्लिष्ट है । अभि में दर्व एवं अभिसार दो भिन्न जनपद माने गये है सार का अर्थ जानेवाले मुख्यतः शीघ्र जानेवाला (रा०:८. १५३१, १८६१; ४ : ७१२, १४१; होता है। उन्हे राजा ने इतना भोजन खिला कर सभा० : ५१ : १३; ४८ : १२, १३, भीष्म० : बोझिल कर दिया कि वे शीघ्र चलने या जाने योग्य । ९ : ५४; २७ : २९; ५२ : १३; ९३ : ४४, बृहत् नहीं रह गए थे। अभिसार का दूसरा अर्थ एक संहिता : १४ : २९, अल्बेरूनी : १ : ३०३; द्रष्टव्य अभिसार देश के रहनेवालों से लगाया जा सकता। टिप्पणी : ४ : ७१२)। है। दर्वा-भिसार शब्द का एक साथ प्रयोग किया गया है। दर्वाभिसार की दवं जाति झेलम तथा इसी अर्थ के अनुसार अर्थ होगा कि राजा ने चनाव नदियों के मध्यवर्ती पंछ तथा नौशेरा अंचल अभिसार निवासियों को जो अन्नसत्र में भाग लिये में रहती थी। पुराण, महाभारत तथा बृहत् संहिता में पंजाब की जातियों के सन्दर्भ में थे, उन्हे इतना खिला दिया कि वे कश्मीर से अभिसार दर्वाभिसार का उल्लेख किया गया है। राजौरी का अपने देश जाने में भारवाही व्यक्ति की तरह शिथिल पर्वतीय क्षेत्र दर्वाभिसार में आता है। भीमवर इसी हो गये थे। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता गुणी मूर्खो निराचारः साचारो यवनो द्विजः । नापोषि यस्तदन्नेन कश्मीरेषु स नाभवत् ॥ २३ ॥ २३. काश्मीर में ऐसा कोई गुणी, मूर्ख, निराचार, साचार, यवन, द्विज' नहीं रहा, जिसका उसके अन्न से पोषण नहीं हुआ । १ : ५ : २३-२४ ] शंभुश्रीपतिधातृजह्नुमनुभिः पूर्वं खेरन्वये जातेनापि कृतः श्रमस्त्रिपथगा गङ्गैव जाता नदी । तेषां स्वार्थमभूद्रसो नरपतिः सोऽयं परार्थे पुन र्देशेऽस्मिन् स्वधिया नदीर्नवनवा नानापथः कृष्टवान् ।। २४ ।। पाद-टिप्पणी . २४. पूर्व में शिव' श्रीपति, ब्रह्मा, जन्हु, मनु" ने तथा सूर्यवंश में उत्पन्न ( भगीरथ' ) ने श्रम किया, तब गगा ( अवतरण ) हुआ, उन लोगों का उसमे स्वार्थ था किन्तु यह नरपति परोपकार हेतु ही अपनी बुद्धि से, इस देश मे नाना पथवाली, नयी-नयी नदियाँ, निर्मित करायी । २१. पाठ - बम्बई २३. ( १ ) द्विजादि : वहारिस्तानशाही मे भी सुलतान के इन पुण्य कार्यों का उल्लेख मिलता है ( पाण्डु० फोलियो ४८ बी० ) । पाद-टिप्पणी : १४३ २४. ( १ ) शिव – ब्रह्मा, विष्णु एव शिव त्रिदेव है । शिव ईशान है । विषपान करने के कारण इनका नाम नीलकण्ठ पड़ गया था। ग्यारहों रुद्र के पिता है । किरात वेष धारण कर अर्जुन से युद्ध तथा उन्हें वरदान दिया। गंगावतरण के समय शिव ने गंगा का वेग अपनी जटा में रोक लिया था । भगवान् शिव का आवास कैलाश माना गया है। त्रिपुर का वध करने के कारण इन्हे त्रिपुरारी कहा गया है । कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव के शरीर से वीरभद्र पैदा हुए थे। वृषभ इनका वाहन । वही ध्वज भी है । इन्हें त्रिनेत्र भी कहते है । तीसरा नेत्र खुलने पर पृथ्वी का संहार होता है । इनके अनेक पर्यायवाची नाम हैं। शिव योगी कहे जाते है । ताण्डव नृत्य के जनक है । नटराज हैं । (२) श्रीपति : भगवान विष्णु = लक्ष्मीपति = नारायण । (३) ब्रह्मा सृष्टि के सृजनकर्ता है । विष्णु सिंचनकर्ता एवं शिव संहारकर्ता है। प्रजाओं के स्रष्टा है। विष्णु के समान ब्रह्मा के भी अवतार - मानस, कायिक, चाक्षुष, वाचिक, श्रवणज, नासिकज, अण्डज एवं पद्मज है । पुराणो मे ब्रह्मा का चतुर्मुख रूप से वर्णन मिलता है । ब्रह्मा ने अपने शरीर के अर्धभाग से सतरूपा नामक स्त्री का निर्माण किया । वही इसकी पत्नी बनी। यह कथा बाइबिल के आदम एवं हौवा से मिलती है । प्रथमतः ब्रह्मा के पाँच मुखो का वर्णन हैं । किन्तु शकर के कारण यह पाँचवे मुख से रहित हो गया । ब्रह्मा एवं शंकर के विरोध की अनेक कथाये पुराणों में प्राप्त है । मत्स्य एवं महाभारत के अनुसार इसके शरीर से मृत्यु की उत्पत्ति हुई है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा के चार मुखो से चार बंदो की उत्पत्ति हुई है। पूर्व मुख से गायत्री छंद, ऋग्वेद, त्रिवृत, रथंतर एवं अग्निष्टोम । पश्चिम से सामवेद, सप्तदश ऋक्समूह, वैरूप साम एवं अतिराज यज्ञ । उत्तर से अथर्ववेद एकविंश ऋक्समूह, आप्तोर्याम, अनुष्टुप छंद एवं वैराज तथा दक्षिण से यजुर्वेद, पंचदश ऋक्समूह, बृहत्साम एवं उक्य यज्ञ उत्पन्न हुए थे । ब्रह्मा की मानस कन्याओं में सरस्वती उसे प्रिय है । पद्मपुराण में ब्रह्मा के १०८ स्थानों का निर्देश प्राप्त है । पद्मपुराण के अनुसार ब्रह्मा की Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैनराजतरंगिणी नवीनोदारकेदारभूम्युत्पन्नाः प्रतिस्थलम् । कूटा धान्यफलैः पुष्टा दृष्टाः पर्वतसन्निभाः ।। २५ ।। २५. हर स्थान पर नवीन केदार भूमि में उत्पन्न धान्य- फल से पूर्ण, पर्वत सदृश, (धान) ढेर दिखायी देते थे । आयु के पचास वर्ष बीत चुके है । इसका रात्रिकाल ही नैमित्तिक प्रलयकाल माना जाता है । ब्रह्मा का एक दिन ४३,२,००,००,०० वर्ष का माना जाता है । ब्रह्मा का एक वर्ष विष्णु के एक दिन के बरावर एवं विष्णु एक वर्ष शकर के एक दिन के बराबर होता है । (४) जन, अजमीढ के पुत्र थे । माता का नाम केशनी था। अजमीढ के पिता हस्तिन् ने हस्तिनापुर की स्थापना किया था । जन्तु एक ऋषि है । भगीरथ गंगा लाये । इनका नाम गंगावतरण के सन्दर्भ मे आता है । इनका यज्ञस्थल गंगा अपने प्रवाह में बहा ले गयी । क्रुद्ध होकर गंगा के समस्त जल का पान कर लिया । देवों की प्रार्थना पर अपने कान से गंगा को निकाल दिया। गंगा को इनकी पुत्री कहकर जान्हवी नाम रखा गया है (रामा० : बाल० : ४३ ३५-३८ ) ; ( आदि० ९९ : ३२; अग्नि ० २७८ : १६; . वायु० : ९१ ) । [१ : ५ : २५ (५) मनु : आदि पुरुष है । ऋग्वेद मे इसे पिता कहा गया है । मानव जाति को मनु की प्रजा माना गया है । मनु ने यज्ञप्रथा का आरम्भ किया था । विश्व का प्रथम यज्ञकर्ता है। इसने सर्व प्रथम हवि प्रदान किया था । इन्होंने अग्नि की स्थापना किया था । चौदह मनवन्तर माने गये है । प्रत्येक मनवन्तर का एक मनु होता है। इस समय वैवस्वत मनवन्तर चल रहा है । प्रत्येक मन्वंतर के मनु, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र, अवतार पुत्र भिन्न होते हैं। मनु दश पुत्र थे । उन्होंने राजवंशों की स्थापना की थी - इक्ष्वांकु, अयोध्या - ( इक्ष्वाकु वंश) शर्याति ( आनर्त देश - शर्यात राजवंश ) नाभा ने दिष्ट ( उत्तर विहार - वैशाल राजवंश ) नाभाग ( मध्य देश नाभाग राजवंश ), घृष्ट (वाहीक प्रदेशघाट क्षत्रिय राजवंश ) ; नरिष्यन्त ( शक वंश ), करुष ( रेवा प्रदेश -- करुष वंश ), पृषध ( राज्य नही मिला), प्रांशु ( वंश की जानकारी नही प्राप्त है ), मनु की रचना 'मनुस्मृति' किंवा मानव धर्मशास्त्र है । (६) भगीरथ : इक्ष्वाकुवंशीय सम्राट दिलीप के पुत्र थे । प्रपितामह असमंजस थे और पितामह - अंशुमत थे । असमंजस के पिता राजा सगर के ६० हजार पुत्र कपिल मुनि के शाप के कारण दग्ध हो गये थे । कपिल ने कहा दिवंगत आत्माओ को शांति गंगावतरण से होगी। अंशुमान तथा दिलीप ने तप किया किन्तु सफल नही हुए। भगीरथ ने हिमालय पर घोर तप किया। गंगा पृथ्वी पर आने के लिए उद्यत हो गयी। गंगा का वेग रोकने के लिए भगीरथ ने शंकर की तपस्या किया । शंकर गंगा प्रवाह जटा द्वारा रोकने के लिए तत्पर हो गये । गंगावतरण हुआ । भगीरथ गंगा को उस स्थान पर ले गये जहाँ राजा सगर के ६० हजार पुत्र दग्ध हुए थे । गंगास्पर्श से सगर पुत्र मुक्त हो गये। गंगा का अवतरण भगीरथ के कारण हुआ था अतएव गंगा का नाम भागीरथी पड़ा । गंगावतरण के पश्चात् भगीरथ पूर्ववत् राज्य करने लगे । भगीरथ ने अपनी दानशीलता के कारण प्रसिद्धि प्राप्त किया । महाभारत में वर्णित सोलह श्रेष्ठ राजाओं में एक भगीरथ भी हैं । कालान्तर मे पाद-टिप्पणी : ३५. (१) केदार भूमि : धान का खेत अथवा धान की क्यारी, जल से भरा खेत । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:५ : २६-३० ] श्रीवरकृता धान्य कूटच्छलान्नूनं साभूद् धात्र्याः कुचस्थली | प्राप्तोपया प्रजा यस्माद् वृद्धिमापद् दिने दिने ।। २६ ।। २६ धान्य के ढेर के व्याज से, वह निश्चय हो, धात्री की कुचस्थली हो गयी थी, जिससे तृप्त होकर, प्रजा प्रतिदिन वृद्धि प्राप्त कर रही थी । दुर्लभोपद्रवानिष्टा यत्र यत्राभवत् क्षितिः । स सुय्य इव सस्याढ्यां तत्र तत्राकरोन्नृपः ॥ २७ ॥ २७. जहाँ-जहाँ, भूमि दुर्लभ उपद्रव ग्रस्त होती, वहाँ-वहाँ, सुय्य' की तरह इस राजा ने सस्य सम्पत्ति पूर्ण किया । न तत् स्थलं न कन्तारो न स देशो न साटवी । यत्र नानीय कुल्याः स्वाः स्वनामाङ्काः पुरीर्व्यधात् ॥ १४५ २८ ॥ २८. वह स्थल नहीं, वह कन्तार (बन) नहीं, वह देश नहीं, वह अटवी नहीं, जहाँ इसने कुल्या' लाकर, अपने नाम की पुरी न बनायी हो ? नसा नदी न तत् क्षेत्रं न स ग्रामो न सा पुरी । न तत् स्थानं न यद् राज्ञा जैननामाङ्कितं कृतम् ।। २९ ।। २९. वह नदी नहीं, वह क्षेत्र नहीं, वह ग्राम नहीं, वह पुरी नही और वह स्थान नहीं, जिसे राजा ने जैन नामाकित नहीं किया । यत्र यत्राभवन्निम्नः प्रदेशस्त कुल्यया । व्यधाद् राजा सरः पक्षिविसशृङ्गाटभूषितम् ॥ ३० ॥ ३०. जहाँ-जहाँ पर निम्न प्रदेश था, वहाँ कुल्या द्वारा पक्षी तथा कमल, शृगांट, विभूषित सरोवर बनाया । पाद-टिप्पणी : २६. (१) कुचस्थली : जिस प्रकार स्त्री के समतल छाती पर कुच उठे ढेर की तरह लगते हैं, उसी प्रकार धानों के लगे ढेर से समतल खेत उठी स्थली तुल्य लगते थे । पाद-टिप्पणी : २७. (१) सुय्य: अवन्तिवर्मा का मंत्री । अपने समय का चतुर अभियन्ता था। इसने वितस्ता का जल प्रवाह बदल दिया था। उसकी योजना से काश्मीर की रक्षा जलप्लावनों से हो गयी थी (रा० जै. रा. १९ क० ५ : ७२, ९८, १०९, ११८; ६ : १३३ ) । पाद-टिप्पणी : २८. (१) कुल्या = छोटी नहर : कुल्याम्भोभिः पवन चपले. शाखिना धौत मूला (श० १ १५) । श्रीवर ने यहाँ अनोखी उपमा प्रस्तुत की है । पाद-टिप्पणी पाठ-बम्बई । ३०. कलकत्ता संस्करण की ४१६वीं पंक्ति तथा बम्बई का ३०वाँ श्लोक है । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन राजतरंगिणी धान्यो वारिधरो घरोपकरणोक्तः सदा जीवनैर्यः सिन्धोः सलिलं निरर्थकतया निन्ये निकृष्यान्वहम् । कान्तारेष्वफलेषु केषु रुचिरं मुञ्चत्यभीक्ष्णं यतस्तत्सेको दित सर्व सस्यविभवो लोकः सुखी जायते ॥ ३१. जीवन द्वारा धरा का सदैव उपकार हेतु उद्यत, वारिधर' धन्य है। जोकि प्रतिदिन निरर्थक सिन्धु के जल को लेकर, कुछ निष्फल बनो में, प्रचुर वर्षा करता है, उस जल के सेक से उत्पन्न, सर्व सस्य के वैभव से सम्पन्न, संसार सुखी होता है । लोके डल इति ख्यातं यदगाधं सरोवरम् । तस्य प्रतिष्ठाप्रस्तावाद् वर्णनं क्रियते मनाक् ॥ ३२ ॥ आ राजधान्या यद् दीर्घं सुरेश्वर्याः नौकारूढोऽचरन्नित्यं व्योम्नीवेन्दुः [१:५. ३१-३४ ३२. संसार में डल' नाम प्रसिद्ध जो अगाध सरोवर है, प्रतिष्ठा प्रस्ताववश, उसका कुछ वर्णन किया जाता है । ३३. राजधानी तक वहाँ सुरेश्वरी' का सरोवर है, नोकारूढ़ होकर, नित्य विचरण करता था । ३१ ॥ अरित्र पत्रा यत्रान्तः सोड्डीनाः पटसुन्दराः | पोता इवारुचन पोता राज्ञः शाकुनिकान्विताः ॥ ३४ ॥ पाद-टिप्पणी : ३१. ( १ ) वारिधर : मेघ = बादल । विक्रमांकदेवचरित में विल्हण कवि ने वारिधर शब्द का सुन्दर प्रयोग किया है- 'नव वारिधरोद्याहोभिर्भवितव्यं च निरातपत्वरम्यैः' ( ४ : ३ ) । पाद-टिप्पणी : ३२. ( १ ) डल : इसका प्राचीन नाम ज्येष्ठ रुद्र समीपस्थ 'सर' तथा 'सुरेश्वरी सर' था। आजकल इसे डल कहते हैं । राजतरंगिणी में प्रथम र 'डल' नाम का यहाँ प्रयोग किया गया है। 'डल्ल सर' (जैन : ४ : ११८ ) नाम से डल का सम्बोधन सरोवरम् । सुनिर्मले ||३३ ॥ उसमे निर्मलाकाश से चन्द्रमा सदृश, ३४. जिसमें अरित्र (डाड़ा-चप्पा ) रूप पत्रवाले उड़ते हुए पर से सुन्दर साकुनिकों से अन्वित, राजा के पोत (नाव) पक्षिसावक सदृश शोभित हो रहे थे । किया गया है । यह श्रीनगर के पूर्वदिशा में है । जैन : ४ : ११८ पाद-टिप्पणी : ३३. ( १ ) सुरेश्वरी सरोवर : डल लेक है । डल तिब्बती शब्द है जिसका अर्थ निस्तब्धता अथवा खामोशी होता है ( क० : ५ : ३७-४१ ६ : १४७; ८ : ५०६, ७४४; जोन० : ६०२ ) । श्रीनगर के पूर्व है । जैन० : १ : ५ : ४०, शुक० । पाद-टिप्पणी : ३४. ( १ ) साकुनिक : सगुन जानने वाले अथवा बहेलिया दोनों अर्थ यहाँ लग सकता है । पक्षी Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ १:५ : ३५ ] श्रीवरकृता तिलप्रस्थागता यत्र तटिनी त्रिपुरेश्वरात् । संगच्छते सुटङ्कां यल्लङ्कां द्रष्टुमिवोत्सुका ॥ ३५ ॥ ___ ३५. जहाँपर त्रिपुरेश्वर' से आयी, तिलप्रस्था' नदी मानो लंका को देखने के लिये, उत्सुक होकर, सुटका की ओर जाती है । के साथ बहेलिया तथा नाव के साथ साकुनिक अभि- स्नान करने, निपटने तथा शयन एवं बैठने के लिये प्रायः अभिप्रेत है। दो-तीन या चार कमरे बने रहते है। वे भीतर (२) पोत : उक्त वर्णन डल लेक का है। खूब सजे रहते है। शिकारा छोटी नावें होती है । पक्षा अपना डना फैला कर पंख फडफडाता रहता है। उनपर गद्दा विछा रहता है और पीछे की तरफ नाव से पक्षी की उपमा दी गयी है। नाव के दोनों सज्जित एवं ढंकी रहती है। पर्यटक पीछे की तरफ ओर चप्पा (डाँड़े ) चलते है। वही पक्षी के पख बैठता है । माझी किवा हाँजी आगे की तरफ खुले मे है। नाव पर पाल लगता है। वस्त्र लगते है । बैठकर चप्पा से नाव खेता है । गगनगामी पक्षी या वस्त्र से नाव धूप या वर्षा बचाने के लिये सजा कलरव करते है। नावे के चलते समय 'चप्पा' के या ढक दिया जाता है। उन पर पताकाएँ भी चलने पर कल-कल ध्वनि उठती है। काश्मीर का लगायी जाती है। पाल और डाँड़ों से चलती नावें नौका-भ्रमण महाभारत काल से प्रसिद्ध रहा है । वह गहरे हरे जल पर, नील गगन मे उड़ते पक्षी की तरह भ्रमण सुखद इसलिये भी होता है कि डल का जल लगती है । डल का यह दृश्य वही समझ सकता है, स्थिर रहता है। उसमें धारा नही होती। वितस्ता जिसने डल लेक के तट पर खड़ा होकर, यह दृश्य देखा की धारा मे भी साधारण ऋतु मे तीव्रता नहीं रहती होगा। सुदूर प्राचीन काल से जल परिवहन काश्मीर अतएव भय नही होता । वितस्ता मे 'चप्पा' के साथ मे बहुत विकसित रहा है । वितस्ता, उल्लोल (उलर) ही बड़ी लग्गी से भी नाव ढकेल कर आगे बढ़ाते तथा डल में नावे परिवहन के काम में आती रही या पीछे हटाते हैं। है। नावे छोटी तथा बहुत बड़ी छोटे लाच या जहाज पाद-टिप्पणी : की तरह बनती थीं। श्रीवर का पोत शब्द अर्थपूर्ण है। वह यहाँ नाव शब्द का प्रयोग नहीं करता है। पाठ-वम्बई। नावें छोटी होती है। काश्मीर की बड़ी नावे समुद्र ३५. ( १ ) त्रिपुरेश्वर . त्रिफर आरा नदी आरपार जानेवाले लकड़ी के जहाजों जितनी ही तट पर है । सर्वावतार मे उसे महासरित कहा गया बड़ी होती है, मजबूत तथा ऊँची समुद्री जहाजों से कम है (क० ५ : ४६, १२३; ६ : १३५, ७ : १५१: होती है। जोन ६०१; जैन० : १ : ५ : १५, ६ : १३५) । नावें मुख्यतया चार प्रकार की होती है । 'खच्चू' (२) तिलप्रस्था : तिलप्रस्था नदी आरा ढोनेवाली बड़ी बड़ी नावें होती है। यह वितस्ता नदी की एक शाखा है । शालीमार से कुछ अधोभाग तथा ऊलर लेक में चलती है । डोगा दूसरी प्रकार जाने पर, यह शालीमार शाखा से अलग होकर डल की नाव होती है। उसमें रहने का स्थान बना होता लेक मे गिरती है। वहाँ उसे तेलबल नाला कहा है। हाउस बोट बहुत बड़े होते है। वे चौड़ाई की जाता है । नीलमत पुराण तिलप्रस्था का उल्लेख अपेक्षा लम्बे बहुत होते है। उनमें भोजन बनाने, करता है ( १३७०) (क० . ५ : ४६ )। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैनराजतरंगिणी [१ : ५ : ३६-३९ श्रीपर्वतोऽपि षट्क्रोशस्तीर्थस्नानफलेप्सया । स्वसङ्गतिच्छलाद् यत्र मज्जतीव दिवानिशम् ।। ३६ ॥ __ ३६ छ कोश तक विस्तृत श्रीपर्वत' भी, तीर्थस्नान के फलप्राप्ति की इच्छा से, अपने संसर्ग के व्याज से, मानो रात-दिन स्नान करता है। शैवलन्ति द्रमा यत्र कमठन्ति च पर्वताः। पुर्यश्च नागलोकन्ति जलान्तर्यत्र बिम्बिताः ।। ३७ ।। ३७. जहाँ जल में प्रतिबिम्बित द्रुम शैवाल की तरह, पर्वत कच्छप की तरह एवं नगरियाँ नागलोक' की तरह लगती (आचरण करती) थी। यच्चलत्तृणभूशालिकुलानि सरसीरुहाम् । तत्सौगन्ध्यमिवाघ्रातुमानतानीक्षते जनः ।। ३८ ॥ ३८. लोग देखते थे कि चलते तृण एवं भूमि की शालिपुज, मानो कमलों की सुगन्धि प्राप्त करने के लिये, आनत हो रहे है। यल्लङ्कायुगलोत्प्रेक्षास्वोदयद्वयसंभ्रमात् । जाने याति रविः कुर्वन् प्रत्यब्दमयनद्वयम् ॥ ३९ ॥ ३९. युगल लंका' देखने के कारण, अपने दो उदय के भ्रम से, सूर्य मानो, प्रतिवर्ष दो अयन करते हए, जाते हैं पाद-टिप्पणी : बने है। वे चारों ओर स्वर्ण ईटों तथा मणि-मुक्ताओं कलकत्ता एवं बम्बई में 'सङ्गगति' मुद्रित है। से अलंकृत है। अनेक वापियाँ स्फटिक मणि की भ्रम के कारण 'सङ्गाति' हो गया है। सोपानों से सुशोभित है । निर्मल जल की नदियाँ है। ३६. (१)श्रीपर्वत · किसी पर्वत का नाम सुशोभित मनोहर वृक्ष है । नागलोक का बाह्य द्वार काश्मीर मे था। एक दूसरा श्रीपर्वत आन्ध्र प्रदेश शत योजन लम्बा तथा पाँच योजन चौड़ा है (आश्व० : गन्तुर जिला में है। नागार्जुन का वहाँ निवास ५८: ३७-४० ) । नर्मदा तटस्थित तपोवन तीर्थ मे स्थान था। स्नानकर्ता नागलोक प्राप्त करता है (मत्स्य० पाद-टिप्पणी: १९१, ८४ )। ३७. (१) नागलोक : भूलोक के नीचे स्थित पाद-टिप्पणी : पाताल लोक नागों का प्रमुख निवास स्थान है ३९. ( १ ) युगल लंका : सोना लंका तथा (विष्णु ० ४ : ३ : ७; उद्योग० : ९७ : १)। नाग- रूपा लंका से यहाँ तात्पर्य है (वहारिस्तान० : राज वासुकी नागलोक का राजा था। इस देश की पाण्डु० : फो० ५३)। स्थिति भूतल से सहस्त्रों योजन दूर थी (आश्व० : (२) अयन : सूर्य की विषुवत् रेखा से उत्तर ५७ : ३३; आदि० : १२७ : ६८) । यह लोक सहस्त्र एवं दक्षिण की गति । जिसे उत्तरायण तथा दक्षिणायोजन विस्तृत है। इसके चारों ओर दिव्य परकोटे यण कहते हैं। उत्तरायण सूर्य जब मकर रेखा Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ५ : ४०-४३] श्रीवरकृता यत्र तीरे सुरेश्वर्याः क्षेत्रं भुक्तिविमुक्तिदम् । वाराणस्यधिकं भाति तीर्थराजिविराजितम् ।। ४० ॥ ४०. जिसके तटपर, तीर्थ पक्ति शोभित, भुक्ति एव विमुक्तप्रद, सुरेश्वरी का क्षेत्र वाराणसी से भी अधिक शोभित होता है। विहारैरग्रहारैश्च मठैः सुकृतकर्मठैः । आश्रमैरश्रमै राजवासः स्वर्गोपमा व्यधात् ।। ४१ ।। ४१. बिहारों एवं अग्रहारों से, सुकृत कर्मठ मठों से, श्रम-निवारक आश्रमों तथा राज निवासों से, स्वर्ग सदृश बना दिया था। दी(श्चतुष्किकाहस्तैनृत्यन्त इव सूनृताः । दृश्यन्ते ये जनैदूराद्धेमच्छत्रवरोदराः ॥ ४२ ॥मध्य युगलम्।। ४२. हेम छत्र से सुन्दर मध्य भागवाले सूखप्रद जिन्हें लोग दूर से दीर्घ चतुष्किका (चार स्तम्भ) रूप हाथों से नाचते हुए के समान देख रहे थे । मध्य युगलम् ॥ येषां सिद्धपुरी नाम प्रसिद्ध नृपतेगृहम् । स्वसौधैः कुरुते सिद्धविमानावलिविभ्रमम् ॥ ४३ ॥ ४३. जिनमें सिद्धपूरीनाम का प्रसिद्ध राजा का घर अपने सौधों से, 'सिद्धों के विमान पंक्ति का भ्रम, उत्पन्न कर रहा था। से कर्क रेखा की ओर जाता है। दक्षिणायण में जिस समय रात्रि एवं दिन दोनों वरावर होते है, तो इसके विपरीत गति होती है अर्थात मकर रेखा की उसे अयन सपात कहते है । गर्भाधान से लेकर मृत्यु ओर से कर्क रेखा की ओर जाता है। दो पक्ष का पर्यन्त सभी संस्कार उत्तरायण मे ग्राह्य है। गीता एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का स्पष्ट कहती हैएक अयन, दो अयन ( उत्तरायण एवं दक्षिणायन ) अग्नि ज्योति रहः शुक्ल: पण्मासा उत्तरायणम् । का एक संवत्सर होता है। मकर से मिथुन की छः तत्र प्रपाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ राशियों को उत्तरायण अर्थात सायन मकर से लेकर धूमोरात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् । सायन मिथुन की समाप्ति तक होता है। उत्तरायण में तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निर्वर्तते ॥ दिन बढ़ता है। इसमें सूर्य या चन्द्रमा पूर्व से पश्चिम पाद-टिप्पणी : को जाते हैं। कर्क से धनु की संक्रान्ति, जब सूर्य या ४०. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का ४२६ चन्द्र की गति दक्षिण की ओर होती है। राशिचक्र ीक्ति तथा बम्बई का ४० वा श्लोक है। ६६ वर्ष ८ मास मे विषुवत् रेखा का एक फेरा पूरा (१) वाराणसी : काशी = बनारस । करता है। यह दो भागो मे विभक्त प्रागयन तथा पश्चादयन होता है। अयन संक्रम-मकर एवं कर्क पाद-टिप्पणी की सक्रान्ति है। सूर्य का क्रान्तिवृत्त विषुवत् रेखा पाठ-बम्बई। को वर्ष में दो बार अर्थात ६ मास पर काटता है। ४३. ( १ ) सिद्धपुरी . जोनराज ने सिद्धि Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणो राजधान्यन्तरीकृताः । जीर्णा देवालया यत्र धृत्यौन्नत्या निजस्थित्या सत्यार्था भूभुजा कृताः ॥ ४४. जहाँपर, राजा ने राजधानी के अन्तर्गत किये गये, जीर्ण उन्नति भाव के कारण निज स्थिति से, जिन्हें सत्यार्थ कर दिया। १५० यत्र सर्वतृणक्लेदनि भेंदोत्पन्नभूस्थली । संचारिण्युर्वरा राज्ञा सफलां विहिता घिया ।। ४५ ।। [ १ : ५ : ४४-४६ ४५. सब प्रकार के तृणो द्वारा प्रवाह का निर्धारण ( नियमन ) करने से उत्पन्न, संचरणशील भूमि को राजा ने अपनी बुद्धि से उर्वरा एवं फलवती बनाया। , ४४ ॥ देवालयो' को धृति एवं एकत्र देशे यत्रान्तः सत्रं श्रीजैनवाटिका । योगिनां पात्रपूजार्थं कृतं भोगाकृतस्मयम् ।। ४६ ।। ॥ पुरी का उल्लेख (जोन० ८७३) किया है। शुक ने पाद-टिप्पणी : उल्लेख नहीं किया है। श्रीवर ने सिद्धपुरी नाम दिया है। जोनराज के उक्त पलोक को ही एक तरह उसे शब्दों के हेर-फेर से उसने लिख दिया है। जोनराज ने 'सिद्ध' 'प्रसिद्ध' आदि शब्द का प्रयोग उक्त श्लोक में किया है । इससे अनुमान निकाला जा सकता है कि 'सिद्धपुरी' जोनराज वर्णित 'सिद्धि पुरी' है, जो डल लेक पर थी । डल लेक सुरेश्वरी क्षेत्र तक विस्तृत था सुरेश्वरी सर डल लेक का प्राचीन नाम है । जोनराज का सिद्धिपुरी तथा श्रीवर की सिद्धपुरी एक पुरी के नाम है । ४६. एक स्थान पर, योगियों के पात्र पूजा हेतु, जैनवाटिका' नामक अन्न सत्र, भोगों के कारण विस्मयावह था । पाद-टिप्पणी : ४४. (१) देवालय सुल्तान सिकन्दर बुत: चिकन द्वारा भंग किये मन्दिरों के जीर्णोद्धार की ही आज्ञा नही दिया बल्कि कुछ स्थानों पर उन्हे उसने स्वयं पुनः निर्माण कराया। कुछ का जीर्णोद्वार किया। उसने माफी भूमि ब्राह्मणों को दिया। राजाओं के समय ब्राह्मणों को जो दिया गया था, उसे नही लिया (म्युनिस० पाण्डु० ७० ए० बहारिस्तान शाही पाण्डु० : ४८ बी० ) । : : ४५. (१) संचरणशील भूमि तैरता क्षेत काश्मीरी मे 'राध' कहते है यह लगभग ६ फीट चौडा होता है । इसके चारों कोनो पर लट्ठा गाड़कर डल में बांध दिया जाता है । तरह तैरता कहीं भी ले जाया जा सकता है । घासयह नाव की फूस या नरकुल बांध कर उस पर मिट्टी रख दी जाती है (बहारिस्तानचाही पाण्डु० [को० ५३; तारीख रशीदी पृष्ठ ४३४ ) । . (२) उर्वरा बहारिस्तानशाही ( पाण्डु० ५१ बी० ) मे उल्लेख है कि सुल्तान ने दलदली भूमि का पानी निकलवा कर उसे कृषोपयोगी उर्वर बनवा दिया । पाद-टिप्पणी ४६. ( १ ) जैनवाटिका : इसका उल्लेख जोनराज तथा शुक दोनों नहीं करते श्रीवर ने भी इसका उल्लेल केवल एक बार यही किया है। जैनुल आबदीन ने अपने नाम से वाटिका लगवाई थी इसलिये नाम जैनवाटिका पड़ गया था। पीर हसन लिखता है - सुल्तान ने जैनगिर में Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:५ : ४७-५० ] श्रीवरकृता मद्य पुष्करिणीमध्यसंक्रान्तः स्वादलिप्सया । यत्रेति द्विजराजोऽपि योगिचक्रान्तरे ध्रुवम् ॥ ४७ ॥ ४७. पुष्करिणी मध्य योगिचक्र के अन्दर प्रतिबिम्बित, चन्द्रमा भी जहाँ, स्वाद की लिप्सा से ही आता था । योगसहस्रं दीक्षणम् । भूपतिर्भोजयन् निष्कम्पमकरोन्नित्यं किं तृप्त्या किं समाधिना ।। ४८ ।। ४८. राजा ने सहस्त्रों योगियों को आँख मून्दने तक, (पूर्ण तृप्ति पर्यन्त) भोजन कराकर, निःकम्प कर दिया, फिर तृप्ति एवं समाधि से क्या लाभ ? आहारमनु aratarair रसवतीश्रिया । दिवीव क्रियते यत्र सर्वा रसवती प्रजा ॥ ४९ ॥ ४९. तीव्र उदय होती, कीर्तिशालिनी, रसवती' श्री ने स्वर्ग के समान, आहार के पश्चात, जहाँ पर सब प्रजा को रसवती बना दिया । पाद-टिप्पणी : पाठ - बम्बई । पक्वान्नराशयोsar विभ्रत्यभ्रभ्रमच्छ प्रशरदभ्रश्रियोपमाम् १५१ एक बाग बनवाया था। वह दो वर्ग मील मे फैला था । इसमें तरह-तरह के दरख्त और फूल लगवाये थे । इसके चार कोनों पर चार आलीशान इमारत बनवा कर इस बाग को अजूब रोजगार कर दिया था। इस बाग के इर्द-गिर्द उमरा व अराकीन सल्तनत की ऊँची-ऊँची कोठियां थी, जो फूल और फुलवारी से सजी हुई थी ( पृष्ठ : १७४ ) । वाटिका शब्द बाग का ही संस्कृत रूप है । मेरा अनुमान है कि श्रीवरकालीन जैनवाटिका यही बाग है, तथापि इस पर और अनुसन्धान की आवश्यकता है। पीर हसन और लिखता है - ' इस बाग की तमाम पैदावार और आमदनी उलमा और फजला को बतौर जागीर बश दी थी' ( पृष्ठ १७५ ) । यत्राभ्रमुभ्रमप्रदाः । 11 Go 11 ५०. जहाँ पर, ऐरावत' की पत्नी का भ्रम उत्पन्न करनेवाली, प्रचुर पकी अन्न राशियाँ, आकाश में घूमते शुभ्र शरद ऋतु के मेघ के समान शोभित हो रहे थे । प्रथम पद श्लोक के प्रथम चरण का पाठ संदिग्ध है । ४७. (१) योगीचक्र : एक मत से यह स्थान श्रीनगर का जोगी लंकर स्थान है। रैनवारी तथा मार नहर के समीप है । पाद-टिप्पणी : पाठ - बम्बई | ४९. ( १ ) रसवती : शुद्ध स्वरवती रागिनी या रसपूर्ण एवं रसीली । रसवती का अर्थ रसोईघर भी होता है । पाद-टिप्पणी : पाठ - बम्बई उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का ४३६ व तथा बम्बई का ५०वां श्लोक हैं । ५०. ( १ ) ऐरावत : देवराज इन्द्र का हाथी Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैनराजतरंगिणी [१:५:५१-५४ यत्राधर्ममृगं हन्तुं शृङ्गनादमिषाद् ध्रुवम् । संमिलत्सारसारावं श्रूयते मृगयारवः ॥ ५१ ॥ ५१. जहाँ पर शृंगनाद' के व्याज से, अधर्म रूप मृग को मारने के लिये, मिश्रित ललकारपूर्ण, मृगया ध्वनि सुनी जाती है। सामोदकामनिर्मुक्तमोदका यत्र योगिनः। श्रमधर्मोदका जग्धेर्जाता राज्ञः प्रमोदकाः ॥ ५२ ॥ ५२. जहाँ पर, आनन्द निर्भर योगियों का भोजन के श्रम से, निकलनेवाला पसीना, राजा को प्रसन्न करता था। योगिस्फुरत्करक्लिष्टदधिदिग्धाशनच्छलात् । योगाच्छशिकलास्रावास्तत्रैवान्त इवायु तन् ।। ५३ ॥ कुलकम् ।। ५३. योगियों के हाथों मे लिप्त, दधिपूर्ण भोजन के छल से, मानो उसी बीच योग से शशिकला का स्राव ही, शोभित हो रहा था । कुलकम् । मारी नाम नदी तस्माद् वितस्तान्तरमागता । केवलं याभवत् पौरस्नानपानप्रयोजना ।। ५४ ।। ५४. वहाँ से वितस्ता में आयी मारी' (महासरित) नाम की नदी पुरवासियों के केवल स्नान-पान प्रयोजन हेतु हुई। और पूर्व दिशा का दिग्गज है । इसका रंग श्वेत तथा पाद-टिप्पणी : दाँत चार होते है। समुद्रमंथन से प्राप्त १४ रत्नों ५२. श्लोक के प्रथम पद के प्रथम चरण का मे एक रत्न है। इरावती का पुत्र होने के कारण पाठभेद सन्दिग्ध है। नाम ऐरावत पड़ा था। पाद-टिप्पणी : ऐरावत की पत्नी ऐरावती है। राप्ती नदी का भी एक नाम है। चन्द्रमा की एक बीथी है, ५३. कलकत्ता संस्करण का उक्त श्लोक जिसमें अश्लेषा, पुष्य और पुनर्वसु नक्षत्र पड़ते है। ४३९वीं पक्ति है । उसके पश्चात् 'कुलकम्' मुद्रित है। पाद-टिप्पणी : पाठ-बम्बई। पाठ-बम्बई । पाद-टिप्पणी: ५१. (१) शृगनाद : वन पशु के शिकार ५४. (१) मारी : श्रीवर को प्रतीत होता है करने के लिये 'हकवा' किया जाता है। शिकार को कि काश्मीर के प्राचीन नामों का ज्ञान कम था । उसने चारों तरफ से भेरी, नगाड़ा, शृंगनाद आदि कर महासरित का नाम मारी अर्थात वर्तमान 'मार' नाम शिकार स्थान पर घेरकर लाते हैं। वहाँ मचान पर नही दिया है, जो मारी तथा मार का मूल संस्कृत बैठकर अथवा पैदल शिकार किग जाता है। शिव नाम है। महासरित का अपभ्रंश मारी अथवा मार के गण श्रृंगनाद करते है। अतएव नाद पवित्र माना है (द्रष्टव्य : नवादरुल अखवार : पाण्डु०:४५ बी० जाता है। क०३ : ३३९-३४९, जैन०:३: २७७; ४ : २९) । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ १ : ५ : ५५-५६ ] श्रीवरकृता हस्तिकर्णाभिधे क्षेत्रे युक्त्या राज्ञा प्रवेशिता। सिन्धुसंगमपर्यन्तं निर्मिता शालिनालिनी ॥ ५५॥ ५५. राजा ने युक्तिपूर्वक इसे हस्तिकर्ण' नामक क्षेत्र में प्रविष्ट किया और सिन्धु-संगम' तक इसे शालि नाली युक्त कर दिया। मृतानां देहदाहेन स्वर्गदो नगरान्तरे । स मारीसङ्गम. ख्यातो जातः सङ्गाद् वितस्तया ।। ५६ ॥ ५६. नगर में मृतकों का दाह करने से स्वर्गप्रद, वह मारी सगम', वितस्ता के संग से प्रख्यात हो गया। इस नहर द्वारा श्रीनगर तथा डल समीपवर्ती ग्रामीण वर्णन किया है। यह स्थान वितस्ता तथा महासरित अंचल से व्यापार आदि होता है । यह नहर शादीपुर के संगम पर एक द्वीप पर था (रा० : ८ : ३३९) । तक बढ़ाकर, संगम में मिला दी गयी थी। इस नहर श्रीवर के वर्णन से प्रकट होता है । उसके समय में भी पर सात पुल बने थे। नहर के दोनों तरफ बाँध टूटे वितस्ता तथा महासरित के संगम पर स्मशान चार मन्दिरों से प्राप्त शिलाखण्डों से बाँध दिया गया था। शताब्दी तक एक स्थान पर पूर्ववत् बना रहा। उसका यह भी जनश्रुति है, नहर का पेटा अर्थात् तल पक्की स्थान परिवर्तन नहीं हुआ था। ईटों आदि से बिछाकर मजबूत बनाया गया था। (२) मारी संगम : वितस्ता महासरित संगम पाद-टिप्पणी : स्थान । मारी, मर, महासरित एक ही नाम के पर्याय है । कुछ विद्वानों ने माहुरी नदी को मारी ५५. (१) हस्तिकर्ण : यह स्थान व्याघ्राश्रम माना है । यह गलत है। माहुरी नदी मच्छीपुर परके समीप था । व्याघ्राश्रम का वर्तमान नाम वागहोम है। दच्छिन पोर परगना मे है। वितस्ता के दक्षिण गना की मबुर नदी है (नील : १३२०)। आर्यो मे दाह संस्कार सूदूर पूर्वकाल से प्रचतटपर बहुत दूर नहीं है। यह मरहोम से २ मील लित है । आर्य जहाँ गये अथवा उपनिवेश बनाये, दक्षिण-पश्चिम है । ग्राम मे एक नाग है। उसे आज वहाँ उन्होंने दाह संस्कार प्रचलित किया। गाड़ने भी हस्तिकर्ण नाग कहते है। इसका उल्लेख विज की प्रथा सेमेटिक है। वेवलोन तथा सुमेर में गाड़ने येश्वर, अमरेश्वर माहात्म्य तथा तीर्थों एवं नीलमत और फूकने की दोनों प्रथायें प्रचलित थी। फूकने के (८८५) में भी उल्लेख मिलता है (रा०:५ : पश्चात भस्म एक कुम्भ मे रखा जाता था। इस प्रकार २३; द्रष्टव्य सैय्यदअली : तारीखे काश्मीर : ३७) । के पात्र ईशा ३ सहस्र वर्ष पूर्व निप्पुर मे मिले (२) सिन्धु संगम : सिन्धु वितस्ता संगम है। आधुनिक सुरघुल लगाश के समीप तथा एल स काश्मारा प्रयाग कहत है, जो इस समय शादापुर हिन्वा मे शवदाह के चबूतरे मिले है, जिनपर शव ग्राम के समीप है। रखकर फूका जाता था। शव मृत्तिका के बक्स या पाद-टिप्पणी: कफन मे रखा जाता था। उसे अग्निपर रख देते थे। ५६. (१) दाह : श्रीनगर में स्मशान वितस्ता मृत्तिका पात्र या केस मे शरीर भस्म हो जाता था। तथा महासरित या मारी के संगम पर था। यही पर भस्म पात्र में रखकर कुल के शवाजिर मे गाड़ दिया दाह क्रिया की जाती थी। कल्हण ने राजा उच्चल जाता था। अक्कद तथा सुमेर मे शवदाह प्रथा खूब (सन् ११०१-११११ ई०) के दाह संस्कार का प्रचलित थी। जै. रा. २० Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैन राजतरंगिणी यत्क्षेत्रपालाः कालेन किङ्कराः पौरेभ्यः शवदाहोत्थमगृह्णन् पञ्चवारिकाः । शुल्कमन्वहम् || ५७ ॥ ५७ समय पर जिसके क्षेत्रपाल', पञ्चवारिक', भृत्य, पुरवासियों से प्रतिदिन शवदाह का शुल्क ग्रहण करते थे । यूनान के नियोलिथिक काल में गाड़ने की प्रथा थी परन्तु होमर काल में शवदाह को प्रथा प्रचलित हो गयी थी । मध्य तथा दक्षिण यूरोप में भी गाड़ने के स्थान पर, दाह की प्रथा प्रचलित थी । उत्तरी यूरोप तथा दक्षिणी इटली मे दाह प्रथा प्रचलित थी । जापान मे शवदाह की प्रथा प्रचलित है। रोम मे भी दाह प्रथा प्रचलित थी । स्लेविक जाति में शवदाह प्रचलित था । यूरोप सुदूर प्राचीन काल से शवदाह की प्रथा प्रचलित थी । संक्षेप में इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि आर्यभाषा-भाषी, भारतीय, यूनानी, रोमन, केल्टिक, स्पिटोनिक, लुथेनियन, दक्षिणी रूस, नीपर, दुनीस्तर, कारपेथियन के पूर्व, वेस्सरविया, वाल्कन पेनिनसुला के उत्तर प्रचलित था । में यहूदी गाड़ते है । यहूदियों की परम्परा का अनुकरण करते हुए, ईशायी तथा मुसलमानों में भी गाड़ने की प्रथा प्रचलित है । जिन आर्य देशों ने इशायी तथा मुसलिम धर्म स्वीकार कर लिया, वहाँ शवदाह की प्रथा समाप्त हो गयी तथा गाडना धार्मिक कृत्य मान लिया गया। बौद्ध देशों में शवदाह की प्रथा प्रचलित हो गयी । बौद्ध भिक्षु निश्चय ही फूके जाते है । तिब्बत में भी बौद्ध लामा फूके जाते हैं यद्यपि साधारण जनता में शव नष्ट करने अन्य प्रथायें भी है । [ १ : ५ : ५७ इशायी देशों में भी अव लोग बिजली से शवदाह की ओर लौटने लगे है। इशायी तथा यहूदियों में यह मत फैल रहा है कि बिजली से शवदाह करना धर्म विरुद्ध नही है, क्योंकि शवदाह के प्राचीन प्रथा के विरुद्ध ही धार्मिक पुस्तकों में लिखा गया है । मुसलिम देश इस दिशा में बहुत पीछे हैं । यद्यपि 1 बड़े नगरों में जहाँ कब्रिस्तान बनाने के लिए भूमि का अभाव है, वहाँ विचार बिजली द्वारा शवदाह कराने की हो रहा है । यह मानना ही पड़ेगा कि शवदाह की प्रथा अधिक वैज्ञानिक है । पारसी लोग न तो शवदाह करते है और न गाडते है । क्योकि उनका मत है कि पृथ्वी, जल तथा अग्नि पवित्र है । उन्हें शव अर्पित करने से वे अपवित्र हो जाते है, जो उनके धर्म विरुद्ध है । पुराने इरानियों में पारसी धर्म के पूर्व वलख मे मरणासन्न तथा वृद्धो को कुत्तों से खिलवा दिया जाता था । मग्गी लोग शव को कुत्ता तथा पक्षियो को खाने के लिए छोड़ देते थे । सीथियन जाति भी अपने शवो को पक्षियों से खिलाकर बचे हुए पजर को गाड़ती थी । तिब्बत में सभी प्रकार अपनाये जाते थे । कुछ पक्षियों को खिलाते थे, कुछ जन्तुओं से पूरा शरीर खिला देते थे, कुछ नदियों अथवा जलाशय में शव प्रवाह कर देते थे तथा राजा और बड़े लोगो का शव इमवाम कर रखते थे । पाद-टिप्पणी । प्रथम पाद के द्वितीय चरण का पाठ सन्दिग्ध है । ५७. ( १ ) क्षेत्रपाल : राजा के खास महल के निरीक्षक का नाम क्षेत्रपाल था ( इण्ड० : एण्टीक्वेरी १५ : ३०६ तथा इपिग्राफिक इण्डिया० : १७ : ३२१ ) । . ( २ ) पञ्चवारीक : एक तत्कालीन राज्यकर्मचारी । ( ३ ) शुल्क : हिन्दुओं से स्मशान में शवदाह करने के लिए सिकन्दर बुतशिकन के समय से कर लगा दिया गया था । स्मशान पर शवदाह करने पर भी प्रतिबन्ध था । निकटस्थ मुसलिम आबादी के Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.५:५८ ] श्रीवरकृत मत्पितृप्रमये राजा विज्ञप्तः स मयैकदा ॥ दण्डयित्वा किरातांस्ताञ शवशुल्कं न्यवारयत् ।। ५८ ।। ५८. एक समय अपने पिता की मृत्यु पर मैंने राजा से (शुल्क की बात कही, तो उसने उन किरातों' को दण्ड देकर, शव-शुल्क निवारित कर दिया । १५५ लोग पावदाह करने पर आपत्ति करते थे। जैनुल में चित्रित किया गया है। रामायण में किरातों का आबदीन ने यह कर उठा दिया था। वर्णन मिलता है। रामायण मे किरात नारियों के तीक्ष्ण जूड़ों का वर्णन किया गया है। उनका रंग सुवर्ण की तरह कहा गया है ( बा० कि० : ४० : २७ ) । महाभारत में उन्हें म्लेच्छ तथा पर्वतीय एवं हिमालय पर्वतवासी बताया गया है (कर्ण०७३ १९-२० द्रोण० ४ ७ सभा० २६) प्रागज्योतिषपुर : : । के समीप अर्जुन तथा किरातो में युद्ध हुआ था ( सभा० : ५२. ९-१२ ) । वे फल-फूलभोजी, चर्मवस्त्रपारी, भयानक अस्त्र चलानेवाले तथा क्रूरकर्मा कहे गये है । खारवेल के अभिलेख में चीन एव किरात का एक साथ उल्लेख है । इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने उन्हें मगोल जातीय होने की सम्भा वना प्रकट की है। कुमारसम्भव मे कालिदास ने उन्हें हिमालय मे देवदार वृक्षों के मध्य मृगो को खोजते चित्रित किया है। सांची के स्तूप पर एक किरात भिक्षु के दान का चित्र है। इसी प्रकार नागार्जुनी कोटा में एक अभिलेख में किराती का उल्लेख है । मनुस्मृति में उनकी व्रात्य क्षत्रियों मे गणना की गयी है ( १० : ४३ - ४४ ) । तुलसीदास ने भी रामायण में किरात जाति का उल्लेख किया है— मिलहि किरात कोल बनवासी । वैषानस, हो उदासी । मध्ययुग तक किरायों को जंगली अथवा बनवासी माना जाता था। उनकी गणना कोल आदि जंगली जातियों के साथ की गयी थी । यहाँ पर श्रीवर ने किरात शब्द उन डोमों के लिए विशेषण रूप में प्रयोग किया है, जो बनवासी तुल्य निम्न कोटि के थे । वटु, पाद-टिप्पणी : । ५८ (१) किरात हिमालय निवासी मूलतः एक जाति है, जो कालान्तर मे आसाम तथा विन्ध्य पर्वत तक फैल गयी थी। किराती जति से किरात जाति को सम्बन्धित करने का कुछ विद्वानों ने प्रयास किया है, जिन्होंने नेपाल के एक भाग पर शासन किया था किरात देश एक समय सप्तकुण्ड से रामक्षेत्र तक फैला बताया गया है । तप्तकुण्ड को राजगृह तथा मुंगेर समीपस्थ विहार का तप्तकुंड मानते है। रामक्षेत्र को रामटेक या रामगिरि होने का अनुमान लगाया गया है। यहाँ पर किरात कुछ विन्ध्याचल पर्वतीय जातियाँ मानी गयी है। कालान्तर मे किरात शब्द पर्वतीय, असभ्य अपना अर्थ सभ्य एवं अनार्य जाति के लिए रूढ हो गया था ( शक्तिसंगम तन्त्र ३ : ७ : २९) । किरातों का वर्णन, कम्बोज तथा काश्मीरियों के साथ महाभारत तथा पुराणों में किया गया है। महाभारत में किरात को एक भारतीय जनपद माना गया है ( भीष्म० : २ : ५१-५७) । बृहत् संहिता ने भी किरातों के देश का उल्लेख किया है। उससे प्रकट होता है कि काश्मीर की सीमा अथवा काश्मीर मे अथवा भारत के उत्तर-पश्चिम भागों मे किरात जाति निवास करती थी । किरातों का उद्यम आखेट तथा जंगली औषधि आदि खोदना बताया गया है ( अथर्व ० : १०४ : १४ ) । वाजसेनीयी संहिता (३० : १६ ) तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में किरातों को गुहा निवासी रूप Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैनराजतरंगिणी [ १ : ५ : ५९-६२ ततः प्रभृति तत्स्थाने विमाना नगरान्तरे । दह्यन्ते दर्शनद्वेषिम्लेच्छानां हृदयैः समम् ॥ ५९॥ ५९ उसी समय से नगर में उस स्थान पर, दर्शनद्वेषी म्लेच्छों के हृदय के साथ, विमानी (सामान्य) जन जलाये जाते थे। निरर्गला वयं जाता इतीव शिविकाहकैः । छत्रहस्तैः प्रनृत्यन्तो दृश्यन्ते वाद्यनिःस्वनैः ॥ ६० ॥ ६०. 'हमलोग प्रतिबन्ध रहित हो गये'-इसलिये मानों शिविका वाहक हाथ में छत्र लिये वाद्य ध्वनि के साथ नाचते हुए दिखायी दे रहे थे। दिगन्तरीयया रीत्या यत्र राशाप्यवारिताः । प्रियानुगमनं नार्यश्चितामारुह्य कुर्वते ॥ ६१ ॥ ६१. बाह्य देश' की नीति के अनुसार जहाँ पर, नारियाँ चितारोहण कर, प्रिय का अनुगमन करती थीं और राजा उन्हें वारित नही करता था। अर्थिसंघोपकारार्थं पौराणां सुकृती नृपः । विहारं बहुविस्तारं तत्संगमतटे व्यधात् ॥ ६२ ॥ ६२. सुकृती राजा ने उस (मारी), संगम तट पर, पुरवासियों के अथि संघ के उपकार हेतु, बहुत विस्तृत विहार निर्माण कराया। पाद-टिप्पणी : जैनुल आबदीन के पुत्र हैदरशाह का शव ले जाने ५९. (१) म्लेच्छ : मुसलमान। मुसलमान ने सिकन्दर बुतशिकन के समय से शवदाह स्मशान में बन्द कर दिया था। शव क्रिया करने वाले डोम्ब ५ आदि मुसलमान हो गये थे अतएव वे भी मृतक कर्म ६१. (१) बाह्य देश : यहाँ भारतवर्ष से नही कराते थे। मुसलमानों ने जब देखा कि जैनुल अभिप्राय है। आबदीन ने स्मशान में शवदाह की आज्ञा निःशुल्क (२) सती : सतीप्रथा काश्मीर में प्रचलित थी। रानी देवी वाक्पुष्टा का अपने पति के साथ दे दी है, तो उनका हृदय जल उठा । सती होने का प्रथम उदाहरण काश्मीर में मिलता पाद-टिप्पणी : है ( रा० ३ : ५६ )। काश्मीर मे पुरुष भी ६०. (१) शिविका : अरथी = शिविका में पत्नी के साथ देहत्याग करते थे। राजा जलौक ने शव ले जाने की प्रथा रामायण काल से है। स्वतः स्वपत्नी सहित शरीर त्याग किया था । मिाहर श्रीवर के इस वर्णन से प्रकट होता है कि काश्मीरी कुल स्वयं चितारोहण किया था। बाह्य देश का शिविका में भी शव ले जाते थे। शव पर छत्र लगाते अनुगमन शब्द से पता चलता है कि सतीप्रथा उन थे। शवयात्रा बाजों के साथ होती थी। शिविका दिनों काश्मीर मे बन्द हो गयी थी। क्योंकि नब्बे का अर्थ अर्थी भी होता है। श्रीवर शिविका में प्रतिशत काश्मीरी मुसलमान हो गये थे और सती Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ १ : ५ : ६३-६५] श्रीवरकृता स च हाज्येविहारश्च पारावारे पुरद्वये । गृहश्रेणिमणिवातनायकश्रियमापतुः । अन्याः प्रतिष्ठास्तत्कालं राज्ञा स्वस्थेन कारिताः ॥ ६३ ॥ ६३. नदी के दोनों तट पर, यह तथा हाज्य विहार के गृह श्रेणी रूप मणि समूहों में, नायक मणि की शोभा प्राप्त कर रहे थे। स्वस्थ राजा ने उस समय अन्य भी प्रतिष्ठाएँ करायी ? श्रीहर्षो नृपतिर्बभूव कविताराज्ये तदा येऽभवन् सर्वे ते कवयः किमन्यदपि ते सूदाः स्त्रियो भारिकाः । सन्त्यद्यापि कृतानि तैः प्रतिगृहं पद्यानि विद्यानिधी राजा चेद् गुणवान् गुणेषु रसिको लोको भवेत् तादृशः॥ ६४ ॥ ६४. राजा श्री हर्ष हुआ, उस समय कविता के राज्य में जो लोग थे, वे सब कवि हुये, अधिक क्या कहें? वे रसोइयाँ, स्त्री एवं बोझा ढोनेवाले ही क्यों न रहे है ? आज भी उनके बनाये पद प्रति घर में हैं। राजा यदि गणी एवं विद्यमान एव गणो के प्रति रसिक होता है, तो लोक भी वैसा हो ही जाता है। छात्रशाला विशालास्ता धर्मार्थं गुणशालिना। कृता याभ्यः श्रुतः शब्दस्तकव्याकरणोद्भवः ॥ ६५॥ ६५. गुणशाली राजा ने धर्म हेतु, विशाल छात्रशालायें बनवायी, जिनमें तर्क एवं व्याकरण का शब्द सुना जाता था। प्रथा प्रोत्साहित नहीं की जाती थी ( म्युनिख : पारंगत था । वह राणा कुम्भ के समान वीर के साथ पाण्डु० : ७० ए तथा बहारिस्तान शाही ' पाण्डु० : ही संगीतज्ञ था। वह गीतकार भी था। उसके ४८ बी०; तवक्काते०:३:४३६; फिरिस्ता २: रचित गीत कल्हण के समय तक काश्मीर में गाये ३४२)। जाते थे। उस समय संस्कृत एवं साहित्य का प्रचार पाद-टिप्पणी काश्मीर में खूब था। श्रीवर के वर्णन से प्रकट होता ६३. ( १ ) हाज्य विहार : श्रीनगर में था। है कि हर्ष रचित पद हर्ष की मृत्यु एवं मुसलिम राज्य केवल उल्लेख मिलता है। स्थापित हो जाने पर भी, लोकप्रिय थे। लगभग पाद-टिप्पणी: चार शताब्दी तक जनता उनके माधुर्य एवं काव्य का ६४. (१) हर्ष : काश्मीर का राजा हर्ष रस लेती रही। जैनुल आबदीन की मृत्यु के पश्चात ( सन् १०८९ से सन् ११०१ ई०) था । वह राजा परशियन का अत्यधिक प्रचार होने के कारण, आज कलश (सन् १०६३-१०८९ ई०) का पुत्र था। कल्हण हर्ष के गीतों का न तो संग्रह मिलता है, न उसकी के शब्दों में हर्ष अति रूपवान, शक्तिशाली युवक कोई रचना प्राप्त है। द्रष्टव्य ( रा० : ७ : ८३९था । साहसी था । कलाप्रेमी था और संगीत कला १७३२ )। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैनराजतरंगिणी आचार्यपुस्तकावाससहायान्नसमृद्धिभिः । पाठयन् सर्वविद्यानां वर्धयामास मण्डलम् ।। ६६ ॥ ६६. आचार्य, पुस्तक, आवास, सहायता, अन्न, समृद्धि द्वारा (छात्रों को) पढ़ाते हुये, सभी विद्याओं के मण्डल (राजा ने) विस्तृत कर दिया। न विद्यासुखयोः संधिस्तेजस्तिमिरयोरिव । इति व्यर्थं वचश्चक्रे मुनीनामभयप्रदः ।। ६७ ॥ ६७. मुनियों के अभयदाता राजा ने विद्या' और सुख मे, तेज और तिमिर के समान सन्धि नहीं होतो, इस बात को व्यर्थ कर दिया। सौराज्यसुखिते देशे विद्याभ्यासपरायणे । अकाङ्क्षीत् सर्वदारोग्यं नृपतेः स्वस्य चान्वहम् ॥ ६८॥ ____६८. सुराज्य से सुखी एवं विद्याभ्यास-परायण देश में, जनता प्रतिदिन अपने और राजा के सर्वदा आरोग्य की अभिलाषा करतो थी। राज्योत्पच्या नृपस्तादृक् तुष्टोऽभून्न प्रतिष्ठया । यथा पण्डितसामय्या यामग्र्यामविदद् गुणः ।। ६९॥ ६९. प्रतिष्ठा युक्त राज्योत्त्पत्ति से, राजा उतना सन्तुष्ट नहीं हुआ, जितना पण्डित सामग्री की प्रतिष्ठा' से, गुणों के कारण, जिसे वह सर्वोत्कृष्ट जानता था। पाद-टिप्पणी : प्रतीक है। सरस्वती तथा लक्ष्मी की गति विरोधी ६७. ( १ ) विद्या एवं सुख : विद्वान दरिद्र है। दिशा विरोधी है। उनमे सन्धि, मेल नहीं रहते है। उन्हें सुख नहीं मिलता। यह प्राचीन कहा- होती। इसी प्रकार प्रकाश एवं अन्धकार एक दूसरे वत है । सरस्वती का वाहन हंस है । लक्ष्मी का के विरोधी हैं, उनमें सन्धि नही होती। किन्तु राजा वाहन उल्लू है। पुरातन काल से कथा प्रचलित है धनी होकर भी, लक्ष्मीपति होकर भी, सरस्वती के कि लक्ष्मीपति विद्वान नहीं होता। सुख लक्ष्मी से प्रसाद का पात्र बन गया था। उसे विद्या के साथ मिलता है । हंस को दिन प्रिय है। उल्लू रात्रि में सुख प्राप्त था। निकलता है। प्रकाश में उसकी आँखें बन्द हो जाती पाद-टिप्पणी: हैं । प्रकाश से वह भागता है। हंस प्रकाश में सरोवर में भ्रमण करता है। उसका भ्रमण ही मन मे सुख ६९. (१) प्रतिष्ठा . सुल्तान विद्वानों की पैदा करता है। उल्लू की वोली एवं उसका प्रतिष्ठा किया। उन्हे दान किया। उनके निवास के घर में आना अशुभ माना जाता है। हंस शुभ विद्या, लिए, नौशहर में व्यवस्था किया (बहारिस्तान गुण का एवं उल्लू अशुभ, अप्रकाश एवं मूढ़ता का शाही : पाण्डु० : ४६ ए० तथा ४७ ए०)। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ५ : ७०-७३] श्रीवरकृता येषां स्वप्नेऽपि पाण्डित्यं नाभ्रूज्जातुचिदन्वये | तेsपि भूपप्रसादेन जाताः पाण्डित्यमण्डिताः ॥ ७० ॥ ७०. स्वप्न में भी, जिनके वंश में कभी पाण्डित्य नहीं हुआ था, वे भी राजा की कृपा से, पाण्डित्य में शोभित हो गये थे । वर्धित जीवनोप याताः सहस्रशाखत्वं विद्याः ७१. देव (राजा) ने सद जीवनोपायों से फलप्रद, विद्याओं को वर्धित किया, जिससे वे कल्पलताओं' के समान, सहस्त्र साखाओं वाली हो गयी थी । न सा विद्या न तच्छिल्पं न तत्काव्यं न सा कला । श्रीजैनभूपते राज्ये नाभूद् या प्रथिता भुवि ॥ ७२ ॥ सदा । फलदाः कल्पलता इव ।। ७१ ।। ७२. वह विद्या, वह शिल्प, वह काव्य, वह कला नही थी, जो कि जैन राजा के राज्य में पृथ्वी पर प्रसिद्ध या प्रचलित नहीं हो गयी ? विदुषां मान्यतां दृष्ट्वा भूपतेर्गुणिबान्धवात् । काङ्क्षन्ति स्मापि सामन्ताः पाण्डित्यं नित्यमादरात् ॥ ७३ ॥ १५९ पाद-टिप्पणी : ७०. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ४५६ वीं पंक्ति तथा बम्बई का ७०वां श्लोक है । पाद-टिप्पणी : ७३ राजा के गुणियों के प्रति बन्धुभाव, एवं नित्य समादर के कारण, विद्वानों की मान्यता देखकर, सामन्त लोग भी, पाण्डित्य की कामना करते थे । ७१. ( १ ) कल्पलता इन्द्र के नन्दन कानन की लता सब इच्छाओं को पूरी करती है-नाना फलैः फलति कल्पतेव भूमिः - ( भतृ० : २ : ४६ तथा १ : ९० ) कल्पलता दान का भी उल्लेख मिलता है । सुवर्ण की दस लताएँ तथा सिद्धि, मुनी, पक्षी आदि बना कर दान किया जाता है । पाद-टिप्पणी : ७२. भरतमुनी के नाट्यशास्त्र का श्लोक १ : ११६ उक्त श्लोक का पूर्वार्द्ध है : 'न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या नासौ योगो न तत् कर्म नाट्येऽस्मिन् न सा कला । यन्न दृश्यते ' ॥ ॥ ११६ ॥ समय ( १ ) विद्या : जैनुल आवदीन के विदेशो से भी विद्वान लोग राजाश्रय प्राप्त करने के लिये प्रवेश किये। उनमे सैय्यद मुहम्मद रूमी, काजी सैय्यद अली शिराजी, सैय्यद मुहम्मद लुरिस्तानी, काजी जमाल, सैय्यद मुहम्मद शीस्तानी आदि मुख्य थे । वे अपनी जन्मभूमि त्याग कर काश्मीर में आबाद हो गये ( वहारिस्तान शाही : पाण्डु० : ४८ बी०-५६ ए० ) । काजी जमाल जो सिन्ध से आया था, उसे सुल्तान ने काजी बनाया : तारीख हसन पाण्डु० : ११९ ए०; हैदर मल्लिक पाण्डु० : ११८ बी०, ११९ बी० ) । मौलाना कबीर जैनुल आबदीन का शिक्षक था । वह हेरात पढ़ने के लिये चला गया था । उसे सुल्तान ने बुलाकर शेखुल इस्लाम बना दिया ( तारीख हसन पाण्डु० : १२० ए० ) । मुल्ला अहमद, मुल्ला नादरी तथा मुल्ला फतही राजकवि थे (बहारिस्तान शाही : पाण्डु० : ५६ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैनराजतरंगिणी [१ : ५ : ७४-७६ निदाघकाले विषमः प्रतापो दहेद् धरियां तृणगुल्मपूगान् । वन्यो न केषां घनकाल एको __ यो जीवनस्तान् विततान् करोति ॥ ७४ ॥ ७४. निदाघ काल में विषम प्रताप (ऊष्मा) पृथ्वी पर, तृण-गुल्म-कुंजों को दग्ध कर देता है, एक घन किनके लिये वन्दनीय नहीं है, जो जीवन (जल) दानकर, उनको पुनः वितत (विस्तृत) कर देता है। शेकन्धरधरानाथो यवनः प्रेरितः पुरा । पुस्तकान् सकलान् सर्वांस्तृणान्यग्निरिवादहत् ।। ७५ ॥ ७५ कुछ समय पूर्व, पृथ्वीपति सिकन्दर' ने, यवनों से प्रेरित होकर, समस्त पुस्तकों को, तृणग्नि के समान पूर्ण रूप से जला दिया। तस्मिन् काले बुधाः सर्वे मौसुलोपद्रवाज्जवात् । गृहीत्वा पुस्तकान् सर्वान् ययुर्दू दिगन्तरम् ।। ७६ ॥ ____७६. उस समय मुसलमानों के तेज उपद्रव के कारण, सब विद्वान समस्त पुस्तकें लेकर दिगन्तर' (दूर देशो) में चले गये। ए०)। कुछ अन्य विद्वानों मे मुल्ला परसा बुखारी प्रतिष्ठा सब लोग करते थे (पृष्ठ : ४३९ )। तथा मैय्यद मुहम्मद मदानी का नाम उल्लेखनीय है (३) पुस्तक : बहारिस्तान शाही : पाण्डु० : ( बहारिस्तान शाही · पाण्डु० : ४६ बी०)। ४६-४७ में सिकन्दर के पुस्तक नष्ट करने के सन्दर्भ पाद-टिप्पणी : में लिखा गया है-'सिकन्दर बुतशिकन ने समस्त ७५. (१) सिकन्दर : सिकन्दर बतशिकन । पुस्तकें जलवा दी। सिकन्दर ने शालीमार का काश्मीर के शाहमीर वंश का छठवां सुल्तान था। तालाब हाक परगना में बनवाया था। काश्मीर के उसने सन् १३८९ से १४१३ ई० तक काश्मीर पर समस्त संस्कृत ग्रन्थों से तालाब भर दिया गया। शासन किया था। वहाँ किताबें टिड्डियों के समान एकत्रित हो गयी (२) यवन = मुसलमान : यवनों का अत्या थी। तालाब में उन्हे भरने के पश्चात् उन पर मिट्टी डाल दी गयी ताकि वे सड जायँ।' चार सिकन्दर के समय बढ़ गया था ( जोन० : ५३८-६१३)। जैनुल आबदीन ने अपने पिता की पाद-टिप्पणी : विरोधी नीति सहिष्णुता एवं धर्म निरपेक्षता चलाया। ७६. (१) दिगन्तर : काश्मीर के बाहर आइने अकबरी में भी उल्लेख मिलता है कि जजिया अथवा काश्मीर त्याग से अभिप्राय है। द्रष्टव्य उठा दिया गया। गोहत्या बन्द कर दी गयी। वह टिप्पणी : जैन० . १ : १ : १३९; १ : ३ : ११३; बड़ा गुणी सुल्तान था। उसने धर्म के नाम पर किसी १:७ : १७३ । दिगन्तर का शाब्दिक अर्थ होता का दमन नहीं किया। इसलिये उसका आदर तथा है, दो दिशाओं के मध्य का स्थान । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता किमन्यद् द्विजवद् देशे सर्वे ग्रन्था मनोरमाः । कथावशेषतां याताः पद्मानीव १:५:७७-८० ] हिमागमे ।। ७७ ।। ७०. अधिक क्या वर्णन करें, इस देश में ब्राह्मणों की तरह सभी ग्रन्थ', उसी प्रकार कथा शेष रह गये, जिस प्रकार हिमागम के समय कमल । भूषयता सुमनोवल्लभेनात्र राज्ञा नवीकृताः पुनः सर्वे मधुनेव भूषित कर, ७८. सुमन्नोबल्लभ नृप ने पृथ्वी को जिस प्रकार वसन्त ऋतु भ्रमरों को । १६१ क्षितिम् । मधुव्रताः ॥ ७८ ॥ उसी प्रकार सबको नवीन बना दिया, पुराणमीमांसाः दूरादानाय्य वित्तेन विद्वद्भयः प्रत्यपादयत् ।। ७९ ॥ ७९. पुराण, तर्क, मीमांसा एवं अन्य पुस्तकों को वित्त द्वारा दूर' से मंगा कर, विद्वानों को प्रदान किया । पुस्तकानपरानपि । मोक्षोपाय इति ख्यातं वासिष्ठं ब्रह्मदर्शनम् । मन्मुखादशृणोद् राजा श्रीमद्वाल्मीकिभाषितम् ॥ ८० ॥ पाद-टिप्पणी : ७७. ( १ ) ग्रन्थ : द्रष्टव्य टिप्पणी : १ : ५ : ७५ । पाद-टिप्पणी : ७९. (१) दूर : सुल्तान ने हिन्दुस्तान, इरान, इराक, तुर्किस्तान में अपने आदमियों को ग्रन्थ खरीदने अथवा प्राप्त करने के लिये भेजा ( बहारिस्तान शाही : पाण्डु० : ४७ बी०; तारीखे हसन पाण्डु०. १२० बी०; हैदर मल्लिक पाण्डु० : १२० ए० ) । जहाँ ग्रन्थ खरीदे नहीं जा सकते थे, वहाँ के लिये आदेश दिया कि लिपिको प्रचुर धन देकर, उनकी प्रतिलिपि करा ली जाय ( बहारिस्तान शाही : पाण्डु० : ४८ ए० ) । सुल्तान ने एक बड़ा पुस्तकालय इस प्रकार तैयार कर लिया था, जो फतहशाह के समय तक जै रा. २१ ८०. मोक्षोपाय के लिये, प्रसिद्ध वाल्मीकि मुनि कृत वासिष्ठ' ब्रह्मदर्शन को राजा ने मेरे मुख से सुना । कायम रहा। तत्पश्चात् शाहमीरवंशियों के गृहयुद्ध तथा विदेशी आक्रमणों के कारण नष्ट हो गया। ( तारीखे हसन पाण्डु० : १२० बी०; हैदर मल्लिक : १२० ए० ) । पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ४६६वीं पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का ८० वाँ श्लोक है । ८०. (१) वासिष्ठ ब्रह्मदर्शन : योगवासिष्ठ उत्तर रामायण कहा जाता है। उसमें वेदान्त, सांख्य, योग, वैशेषिक मीमासा न्याय के अतिरिक्त बौद्धदर्शन का भी समावेश मिलता है । उसके दर्शन के व्याख्या की अपनी शैली है । उसमें किसी दार्शनिक भावों का खण्डन न कर, सर्वदा नवीन दृष्टिकोण सरल एवं बलवती भाषा में रखा गया है। यह ग्रन्थ भारतीयदर्शन एवं विचारों का मौलिक संग्रह है । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनराजतरंगिणी [१ : ५:८१-८३ श्रुत्वा शान्तरसोपेतां व्याख्यां स्वप्नेऽपि नो नृपः । अस्मार्षीदभिकाः कान्ताहावभावक्रियाइव ।। ८१ ॥ ८१. शान्तरस पूर्ण मेरी व्याख्या सुनकर, राजा स्वप्न में भी, उसी प्रकार उसका स्मरण किया, जिस प्रकार कामुक कान्ता की हाव-भाव और क्रियाओ का। यो यद्भाषाप्रवीणोऽस्ति स तद्भाषोपदेशभाक् । लोके नहि जना नानाभाषालिपिविदोऽखिलाः ।। ८२ ॥ ८२. जो जिस भाषा में प्रवीण है, वह उसी भाषा द्वारा उपदेश ग्रहण कर सकता है, लोक में सब लोग नाना भाषा एव लिपि नहीं जानते हैं। इति संस्कृतदेशादिपारसीवाग्विशारदः।। भाषाविपर्ययात् तत्तच्छास्त्रं सर्वमचीकरत् ॥ ८३ ।। ८३. अतएव संस्कृत भाषा आदि तथा फारसी भाषा में विशारद, जनों द्वारा भाषाविपर्यय (भाषान्तर) से, तत् तत् सब शास्त्रों को निर्मित कराया। यह योगियो एवं दार्शनिकों का सम्बल है । भारतीय स्वयं 'शिकायत' शीर्षक पुस्तक की फारसी में रचना धर्म, आचार, विचार, व्यवहार का सरल सुस्पष्ट किया था। अकबर के समय इसका पुनः फारसी में एवं तर्कशील काव्यमयी भाषा में प्रणयन किया अनुवाद किया गया था। दाराशिकोह ने भी इसका गया है। अनुवाद फारसी मे कराया था। फारसी मे इसके योगवासिष्ठ की एक और विशेषता है। कितने ही अनुवाद हुए थे। (द्रष्टव्य : लेखक की ___पुस्तक : योगवासिष्ठ कथा सन् १९६५ ई०)। 'गीता' भगवान द्वारा मानव अर्जुन की शंका समाधान है और 'योगवासिष्ठ' एक मानव द्वारा भग- पाद-टिप्पणी : वान राम की शंकाओं का समाधान है। गीता तथा ८३. (१) फारसी : संस्कृत पढ़कर जो ब्राह्मण योगवासिष्ठ में यह मौलिक भेद है। योगवासिष्ठ केवल पुरोहित अथवा धर्म कर्म करते और दूसरे जो आत्मा के ऊपर किसी शक्ति को प्राथमिकता नही फारसी पढकर राजकार्य में भाग लेते थे उन देता, गीता आत्मसमर्पण की बात करती है। राजसेवा वृत्ति करनेवाले ब्राह्मणों को कारकुन योगवासिष्ठ आत्मसमर्पण मे विश्वास नही करता। कहा जाता था। संस्कृतज्ञ एवं धर्म करनेवाले वह मानव को उसकी अंर्तशक्ति की ओर प्रेरित ब्राह्मणों को बच्ची भट्ट कहते है। कारकुन तथा करता है। उसे ही जगत शक्ति का स्रोत मानता वच्ची यह दोनों वर्ग अलग होते गये और एक समय है। जन्म-मृत्यु का रहस्य योगवासिष्ठ उदाहरणों परस्पर विवाह आदि भी बन्द हो गया था। अनेक कथाओं द्वारा समझाता है। (२) विपर्यय : अनुवाद । पीर हसन लिखता ___ब्रह्मज्ञान का, आत्मज्ञान का, योगवासिष्ठ अद्- है और बहुत से आलिम वरहमन और जोगी भुत ग्रन्थ है । उसने हिन्दुओं के साथ मुसलमानों को लोग कुरुक्षेत्र से बुलवाकर, उनकी मुसाहवत अनुप्राणित किया है। जैनुल आबदीन ने उसका से फायदा उठाता था। हिन्दुस्तान से संस्कृत और फारसी अनुवाद कराया था। उसी के आधार पर वेदों की किताबें मैंगवाकर उनका तरजुमा फारसी Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५:८४-८५] श्रीवरकृता धातुवादरसग्रन्थकल्पशास्त्रोदितान् गुणान् । यवना अपि जानन्ति स्वभापाक्षरवाचनात् ॥ ८४ ॥ ८४. धातुबाद', रस ग्रन्थ एवं कल्प शास्त्रों मे उक्त गुणों को अपनी भाषा का अक्षर पढ़ने के कारण यवन भी जानते है । दशावतार पृथ्वीशग्रन्थराजतरङ्गिणीः 1 संस्कृताः पारसीवाचा वाचनास्त्वकारयत् ।। ८५ ।। ८५. संस्कृत भाषा में लिखी गयी, दश राजाओ' का ग्रन्थ राजतरगिणी को फारसी भाषा द्वारा पढ़ने योग्य कराया । : जवान में करवाया। इसी तरह अरबी और फारसी किताबें भी संस्कृत में तरजुमा करवायी ( पृष्ठ १७८) । आइने अकवरी मे उल्लेख है—उसने बहुतसी किताबों का अनुवाद अरबी से फारसी, काश्मीरी, तथा संस्कृत में कराया था। सववकाते अकबरी में भी उल्लेख मिलता है - सुल्तान को फारसी हिन्दी तथा तिब्बती का ज्ञान था उसके आदेशानुसार बहुत-सी अरबी तथा फारसी अन्यों का हिन्दी (हिन्दी) में अनुवाद हुआ (पृष्ठ ६५९) । और श्रीवर ने स्वयं युसुफ - जुलेखा का अनुवाद संस्कृत मे कथाकौतुक नाम से किया था । मुल्ला अहमद ने महाभारत तथा कल्हण की राजतरंगिणी का अनुवाद फारसी में किया था (म्युनिस : पाण्डु० : ७३ ए० ) । केम्ब्रिज हिस्ट्री मे उल्लेख है — सुल्तान ने महाभारत, राजतरंगिणी का संस्कृत से फारसी मे तथा फारसी और अरवी के अनेक ग्रन्थों का अनुवाद हिन्दी भाषा मे कराया। उसने फारसी भाषा को राज्य भाषा बनाया, जो अदालतों तथा सरकारी मुहकमों में प्रचलित की गयी (३ : २८२) । पाद-टिप्पणी : १६३ ८४. (१) धातुवाद: खनिज विज्ञान या धातु विज्ञान | वैद्यक के अनुसार, रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा एवं शुक्र सप्त धातुऐ मानी गयी है। बौद्धों । J , ने १८ धातुएँ मानी है। पंचभूतो तथा पंचतन्मात्रा को भी धातु मानते है। बौद्धों के अनुसार क्षु प्राण ओत्र, जिल्हा, काय, रूप, शब्द, गंध, रस, स्थानव्य, चक्षुविज्ञान, श्रौत्र विज्ञान, घ्राण विज्ञान, जिल्ला विज्ञान काय विज्ञान, मनो धर्म तथा मनोविज्ञान धातु है। चौसठ कलाओं में एक है । (२) रसग्रन्थ : रससिद्धि विज्ञान । (३) कल्प शास्त्र कल्पसूत्र सृष्टि के उत्पत्ति, स्थित एवं समाप्ति किंवा तप सम्बन्धी ज्ञान, षड् वेदागों मे एक - वैदिक सूत्र ग्रन्थ । इसमे यज्ञादि करने का विधान है यज्ञानुष्ठान एवं धार्मिक संस्कारों के नियमों का संग्रह है। श्रोत, गृहसूत्र आदि ग्रन्थ इसी के अन्तर्गत है । शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष बेदाग है । वेदाग शब्द सर्वप्रथम निरुक्त (१. २०) तत्पश्चात ऋग्वेद प्रतिशाख्य (१२ : ४० ) मे ऋग्वेद के सहायक ग्रन्थों को प्रकट करता है । फारसी लिपि में लिखो गयी (४) भाषा पुस्तक | पाद-टिप्पणी : श्लोक का अर्थ यह भी हो सकता है-संस्कृत भाषा में रचित दशावतार एवं राजाओं का ग्रन्थ राजतरगिणी को फारसी भाषा द्वारा पढ़ने योग्य कराया । ८५. (२) दश राजा राजा श्रीवर के इस समय - शाहमीर वंश के दश तक हुये थे । ( १ ) शाह - Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन राजतरंगिणी म्लेच्छैर्वृहत्कथासारं हाटकेश्वर संहिताः । पुराणादि च तद्युक्त्या वाच्यते निजभाषया ।। ८६ ।। ८६ उसकी युक्ति से म्लेच्छ लोग वृहद् कथासार' तथा हाटकेश्वर संहिता, पुराणादि को अपनी भाषा में पढ़ते हैं । [ १ : ५ : ८६-८७ कश्चिच्छ्रुत्वा शुचिरुचि चिरं धर्मशास्त्र पवित्रं धत्ते चित्ते पट इव सितो रञ्जनं तत्क्रियां यः । आकर्ण्यान्ये प्रतिदिनममुं पद्मिनीपत्र तुल्याः कुल्याधारा अपि धृतगुणा गृहृतेऽतन्न किंचित् ॥ ८७ ॥ ८७ कुछ लोग सुचि - रुचिपूर्वक चिरकाल पवित्र धर्म-शास्त्र सुनकर, , अपने चित्त पर उसकी क्रिया को उसी प्रकार (धारण) कर लेते हैं, जिस प्रकार श्वेत पट रंग ग्रहण करते है । अन्य लोग इसे सुनकर भी, अपने (अन्दर ) उसी प्रकार कुछ नही ग्रहण करते, जिस प्रकार पद्मिनीपत्र गुण युक्त कुल्याधारा को । मीर, (२) जमशेद, (३) अलाउद्दीन, (४) शिहाबुद्दीन, (५) कुतुबुद्दीन, (६) सिकन्दर बुतशिकन (७) अलीशाह, (८) जैनुल आबदीन, (९) अलीशाह, (१०) जैनुल आबदीन । संस्कृत में उक्त दश राजाओं का इतिहास लिखा गया था । दशावतार मे - (१) मत्स्य, (२) कच्छप, (३) वाराह, (४) नृसिह, (५) वामन, (६) परशुराम, (७) राम, (८) कृष्ण, (९) बुद्ध और (१०) कल्कि है । सुल्तान ने दशावतार तथा राजाओं के ग्रन्थ राजतरंगिणी का अनुवाद पारसी ( फारसी ) भाषा में कराया, ताकि जो लोग संस्कृत नहीं जानते, वे उनका अध्ययन फारसी में कर सके । पीर हसन लिखता है - 'खासकर महाभारत और राजतरंगिणी का नुसखा कि दोनों संस्कृत ज़बान में थीं। इनका तरजुमा मुल्ला अहमद ने किया । जयसिंह के अहद से लेकर अपने वक्त तक राजतरंगिणी का जमीया पण्डित जोनराज के जरिया संस्कृत ज़बान में मुरतब कराया ( पृष्ट १७८ ) ।' पीर हसन का वर्णन श्रीवर के अनुकूल नहीं है । जोनराज ने रिचन सहित पन्द्रह हिन्दू राजाओं के राज्य तथा १० सुल्तानों के चरित का वर्णन किया है। अतएव दश राजा का अर्थ यहाँ सुल्तानों से लगाना ही उचित प्रतीत होता है । तवक्काते अकबरी में भी उल्लेख है - 'महाभारत जो कि एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है, राजतरंगिणी जिसमे काश्मीर के बादशाहों का इतिहास है, उसके आदेशानुसार फ़ारसी मे भाषान्तरित हुई ( पृष्ठ : ६५९ ) ।' स्पष्ट लिखा है - ' तरजुमह करदन्द, व किताब महाभारत ।' दूसरी पाण्डुलिपि में ' मशहूर किताब ' शब्द नही लिखा है । दोनों ही पाण्डुलिपियों मे 'राजतरंगिणी' लिखा है । उसके सम्बन्ध में उल्लेख है - ' किताब को राजतरंगी कहते है जो कि काश्मीर के बादशाहों की तवारीख है ( ६५९ ) ।' पाद-टिप्पणी : ८६. ( १ ) बृहद् कथासार । ( २ ) हाटकेश्वर : हाटकेश गोदावरी तट स्थित भगवान् शंकर की एक मूर्ति का नाम है। ( स्कन्द ० : नर्मदा - माहात्म्य ) । हाटक उत्तर में एक देश, गुझकों का निवास स्थान है ( सभा० : २८ : ३–४ ) । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ १ : ५ : ८८-९१ ] श्रीवरकृता नौबन्धनगिरेर्यात्रामाकर्ष्यादिपुराणतः । तीर्थयात्रोत्सुकं राज्ञः कदाचिदभवन्मनः ॥ ८८ ।। ८८. किसी समय आदिपुराण' से नवबन्धन गिरि की यात्रा वर्णन सुनकर, राजा का मन तीर्थयात्रा के प्रति उत्सुक हो गया। एकोनचत्वारिंशेऽब्दे पितृपक्षान्त्यवासरे। यात्रादिदृक्षया भूपो जगाम विजयेश्वरम् ।। ८९ ॥ ८९. उनतालीसवे वर्ष पितपक्ष के अन्तिम दिन यात्रा देखने की इच्छा से राजा विजयेश्वर गया। नानावर्णांशुकच्छन्नः प्रेक्षकैः परिपूरितम् । पुष्पाकीर्णमिवोद्यानमद्राक्षीद् रङ्गमण्डलम् ॥ ९ ॥ ९०. नाना रंग के परिधान पहने, प्रेक्षकों से परिपूर्ण, रंगमण्डल को उसी प्रकार देखा जैसे पुष्पपूर्ण उद्यान। यत्र बान्दरपालाद्या राजानो वीक्ष्य सबलाः । तद्वर्षे दर्शनायाता हर्षमन्वभवन्निति ॥ ९१ ।। ९१ उस वर्ष जहाँ दर्शन के लिये आये हुये, सेना सहित बान्दरपाल' आदि राजा (रंगमण्डप) देखकर, हर्षित हुये। पाद-टिप्पणी : १४७३ ई० ) तथा चन्द्रकीति ( सन् १५९७ ई०) ८८. (१) आदिपुराण : आधनिक विद्वानों ने भी आदिपुराण की रचना की थी। ने आदिपुराण का काल सन् १२०३-१२२५ ई० (२) नवबन्धन : द्र० नील० : १६७; हर० रखा है। इसका अर्थ है कि आदिपुराण कल्हण । . ४ : २७; सर्वावतार० ३ : ४ . १२, ३ : १०, ५ : ( सन् ११४८-४९ ई० ) के पश्चात् की रचना है। १४७, ५ : ४३, नौबन्धन माहात्म्य, वनपर्व १८७ : ५०। श्रीवर के रचनाकाल के समय (सन् १४५९-१४८६ पाद-टिप्पणी: ई०) मे यह पुस्तक काश्मीर में उपलब्ध थी। आदि ८९. (१) उनतालीसवें वर्ष : ४५३९ सप्तर्षि पुराण से अर्थ ही है कि यह पुराण था। यह कोई ___ = सन् १४६३ ई० = विक्रमी संवत् १५२० = शक नवीन रचना केवल दो शताब्दि पूर्व की नही थी। संवत १३८५ । कलि गताब्द ४५६४ वर्ष । आदिपुराण को कुछ विद्वान ब्रह्मपुराण मानते है। पाट-टिप्पणी : दूसरा मत है कि इसका तात्पर्य काश्मीर के लौकिक पाठ-बम्बई। पुराण नीलमत से है। जैन ग्रन्थों के अनुसार जिन- ९०. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ४७६ सेन ( सन् ८०१-८४३ ई०) ने आदिएराण की वी पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का ९०वा श्लोक है। रचना की थी। मल्लिषेण ( सन् ११२८ ईए) ने पाद-टिप्पणी : आदिपुराण रचा था। सकलकीर्ति ( सन् १४३३- ९१. (१) बान्दरपाल : शोध अपेक्षित है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन राजतरंगिणी दीपाठ्यं रङ्गमण्डपम् । चक्रे रात्रौ कविबुधार्चितम् ।। ९२ ।। गगनं तारकापूर्णं तारकापूर्ण यत्रान्योन्यं तुलां चक्रे २२. जहाँ पर रात्रि में कवि (शुक्र) एवं बुधा (बुध) से युक्त, तारकापूर्ण आकाश तथा कवियों एवं विद्वानों सहित दीपों से समृद्ध, रंगमण्डप, परस्पर समानता प्राप्त कर रहे थे । प्राप्तैर्नानानागरिकामुखैः । अमावस्यादिने शुशुभे शुभदं यत्र शतचन्द्रं भुवस्तलम् ।। ९३ ।। ९३ अमावस्या के दिन जहाँ पर आये हुये, बहुत-सी नागरिकाओ के मुखों से शुभद पृथ्वीतल, शत चन्द्र युक्त समान शोभित हो रहा था। पाद-टिप्पणी : ९२. ( १ ) कवि ( शुक्र ) : शुक्र पौराणिक मान्यता के अनुसार भार्गव कुलोत्पन्न थे । यह भृगु ऋऋषि तथा हिरण्यकश्यपु की कन्या दिव्या के पुत्र थे। उसे कवि का भी पुत्र माना गया है। अतएव उसका पैतृक नाम काव्य पड गया । यह दैत्यों के गुरु, आचार्य एवं पुरोहित थे भगवान् कृष्ण ने गीता मे श्रेष्ठ कवियों में कवि 'उशनस्' अर्थात् शुक्र का उल्लेख किया है। [१:५:९२-९३ शुक्र एक ग्रह है। ग्रहों में यह सबसे अधिक कान्तिमान है। उच्चतम कांति की अवस्था में यदि यह होता है, तो दिन में खाली अाँखों से भी देखा जा सकता है । रात्रि काल में क्षितिज के ऊपर आ जाता है, तो इसके प्रकाश से पादपो की छाया बन जाती है। सौर क्रम में इसका दूसरा स्थान है। इसका व्यास ७५८४ मील है। पृथ्वी के बराबर है। चंद्रमा के समान इसमें भी कलायें होती है । वैज्ञानिकों का मत है कि इसपर प्राणियों का रहना सम्भव नही है। सूर्य से ६ करोड़ बहत्तर लाख मील दूर है। सूर्य की परिक्रमा २२४ दिनों मे पूरी करता है। गगनमण्डल में गुरु एवं बुध के द्वारा सुशोभित तथा जनसमुदाय को उसके दर्शन से प्रसन्नता प्राप्त होती है। शुक्र का पर्यायवाची नाम कवि है और बुध का पर्यायवाची नाम विद्वान है। इसीलिये घर्यक लिष्ट वाक्यों का प्रयोग किया गया है। सुकवियों के द्वारा सभामण्डप उसी प्रकार आनन्द विभोर होता था, जिस प्रकार आकाश में बुध शुक्र के उदय होने पर गगनमण्डड में परिपूर्णता भाषित होती है। (२) बुध द्रष्टव्य टिप्पणी १४ १८ । सौरमण्डल मे सूर्य के सबसे समीप बुध, तत्पश्चात् शुक्र अनन्तर पृथ्वी पड़ती है। पृथ्वी के पश्चात् मंगल, बृहस्पति एवं शनि है। बसन्त एवं शरद ऋतुओं में । यह दूरबीन से देखा जा सकता है । वसन्त ऋतु में सूर्यास्त के पश्चात् दृष्टिगत होता है। केवल दो घन्टों पश्चात् स्वत: अस्त हो जाता है। शरद् काल में सूर्योदय के सूर्योदय के पूर्व दिखायी देता है । पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं में समयो के अन्तर से उदय होता है । प्राचीन काल में इसके नाम इसलिये दो पड गये थे । सूर्य से वह ३ करोड ६० लाख मील दूर तथा सूर्य की परिक्रमा ८८ दिनों में करता है, जब कि पृथ्वी ३६५ दिनों में करती है। (३) तुलाचक्र कवि ने तराजू के दोनों पड़ों को संतुलित करते हुये एक पलड़े मे बुध-शुक्र (गृह) गगनमण्डल के तारक और दूसरे पलड़े में विद्वान कवियों की प्रतिभा का तौल किया है । क्योंकि तुला राशि राशिचक्र की सप्तम राशि है और शुक्र की अपनी राशि है कवि अपने स्थान पर सुशोभित होते हैं, जैसे कि शुक्र तुला राशि पर । उनका महत्व रात्रि में अधिक होता है, क्योंकि शुक्र Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता दीपवृक्षो नृवाह्योऽपि यत्र रङ्गान्तरे स्फुरन् । तारकामध्योद्यत्कृत्तिकर्क्षचयोपमाम् ।। ९४ ।। १:५:९४-९६ ] द ९४. जहाँ पर रंगमण्डप मध्य मनुष्यवाही दीप वृक्ष, तारकाओं के मध्य, उदित होते कृत्तिका' नक्षत्र पुंज की उपमा धारण कर रहा था । विजयेशदत्थाय भूपः पुत्रद्वयान्वितः । पद्भ्यामुल्लङ्घय दुर्मार्गं प्रपेदे वासरैस्त्रिभिः ॥ ९५ ॥ ९५. दोनों पुत्रों सहित, राजा विजयेश से चलकर, पावों से ही दुर्मार्ग लांघकर, तीन दिनों में पहुंच गया । दृष्ट्वा क्रमसरोविष्णुपादमुद्राकृतिं १६७ प्रभुः । भक्तिसुन्दरः ।। ९६ । पादप्रणामजानन्दमविन्दद् ९६. भक्ति से सुन्दर स्वामी क्रमसर' विष्णुपाद मुद्रा की आवृति देखकर पाद प्रणाम करने का आनन्द प्राप्त किया । और बुध दीप्तमान रहते हुये भी दिन में दिखायी नही पडते, यद्यपि रात्रि रूपी रंगमंच पर शोभित होते है । पाद-टिप्पणी : ९४. (१) कृत्तिका नक्षत्र : पुराणों के अनुसार प्रचेता दक्ष को दी गयी सत्ताइस कन्याओं में एक है । चन्द्रमा की पत्नी थी । कार्तिकेय का पालन की थी। सत्ताइस नक्षत्रों में यह तीसरा नक्षत्र है । इस नक्षत्र समूह में ६ तारें हैं। जिनका संयुक्त आकार अग्निशिखा के समान लगता है । एक मत है कि कृत्रिका की अधिष्ठात्री अग्नि है । भागवत ( ६ : ६) तथा (५ : २७ ) के अनुसार अग्नि नामक वसु की पत्नी है । कृत्तिका का रूप धरा के समान वर्णित किया गया है । इसके स्वामी अग्नि इसका शत पद चक्र : अ इ उ ए है । कृत्तिका का योग धूम्र की पालन करनेवाली है । तथा दिन रवि है । समीप समूह ज्योतिष के अनुसार यह वृष राशि के है । दूरदर्शक यन्त्र से देखने पर इसके तारा शत से अधिक दृष्टिगोचर होते है । उनके मध्य धुंधली छाया दिखायी देती है । एक मत है कि यह निहारिका है । कृत्तिका की दूरी पृथ्वी से लगभग ५०० प्रकाश वर्ष है। इस तारापुंज में ३०० से ५०० तक तारे है । वे ५० प्रकाश वर्ष के वृत्त मे बिखरे है । तारों का घनत्व केन्द्र मे अधिक है । सूर्य इस नक्षत्र में प्रथम अंश मे होते है, तो चन्द्रमा विशाखा के चतुर्थ अंश में होता है । सूर्य विशाखा के तृतीय चरण मे हो तो कृत्तिका के सिर पर स्थित होता है । महर्षियों ने इसे विषुव लिखा है ( ब्रह्मा० : २ : २१:१७, १४५ २४ : १३०; ३ : १० : ४४, १८ : २; वायु० : ६६ ४८; ८२ : २, महा० वन० २३० : ५, ११, ८४ : ५१; अनु० ६४ : ५) । कृत्तिका का अधिपति देवता अग्नि है । सत्ताइस नक्षत्रों में तीसरा नक्षत्र है । इसमे ६ तारे है । इनका संयुक्त आकार अग्निशिखा के समान लगता है । कृत्तिका चन्द्रमा की पत्नी तथा कार्तिकेय पाद-टिप्पणी : ९५. (१) दुर्मार्ग : श्रीदत्त ने दुर्मार्ग स्थानवाचक नाम माना है । पाद-टिप्पणी : ९६. ( १ ) क्रमसर कौसर नाग = नोबन्धन Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैनराजतरंगिणी [१:५: ९७ ब्रह्माच्युतेशगिरयः पतत्तोयरवच्छलात् ।। अकुर्वन् कुशलप्रश्नं हरांशजमहीभुजे ॥ ९७ ॥ ९७. गिरते हुये, जलधारा के शब्द व्याज से, ब्रह्म, अच्युतेश२, शिव के अशभूत राजा से कुशल प्रश्न किये। पर्वत के मूल उत्तर-पश्चिम दिशा में एक पर्वतीय यम, वरुण, अग्नि, कुबेर, पृथ्वी एवं विष्णु का कार्य दो मील लम्बी झील है। इसका पुराना नाम क्रम- करता है अतएव राजा में उनके अंश है। वायुसर अथवा क्रमसार है। (नील० १२३, १७६, पुराण (५७: ७२) का मत है कि अतीत एवं १८०, १२६९, १२७०, १२७८; नौबन्धन भविष्य के मन्वन्तरों में चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुये माहात्म्य; सर्वावतार : ३ १०; रा० : ५ : १७४)। और होंगे उनमें विष्णु का अंश होगा। शान्तिपर्व विष्णुपद-सर को क्रमसर कहा गया है। क्रम का (३ : ६७ ) में राजा के उत्पत्ति के विषय में अर्थ पदार्पण होता है। नौबन्धन आरोहण हेतु भग- गाथा दी गयी है-लोग ब्रह्मा के पास गये। उनसे वान का यही प्रथम पद पड़ा था। क्रमसर विशोका एक शासक के नियुक्ति की प्रार्थना की। ब्रह्मा ने नदी का उद्गम है (द्र० १ : ६ : १)। मनु को नियुक्त किया। रामायण में उल्लेख मिलता (२) विष्णुपाद मुद्रा . विष्णपद = भगवान है कि ब्रह्मा ने राजा को बनाया। नारदस्मति में लिखा गया है-प्रकृति पर स्वयं इन्द्र राजा के रूप विष्णु तथा भगवान बुद्ध की पादमुद्रा अर्थात पाद चिह्न बनाने की प्रथा प्रचलित है। काश्मीर मे भी मे विचरण करता है (प्रकीर्णक : २०, २२, २६, विष्णु की पाद मुद्रा बनी थी। पादमुद्रायें या चिह्न ५२)। भागवतपुराण में महादेव का अंश भी जोड दो प्रकार के बनते है। एक सादा होता है तथा दिया गया है -विष्णु, ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, वायु, दूसरे में फलित ज्योतिष के अनेक चिह्न बने रहते है। यम, सूर्य, मेघ, कुबेर, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्नि और नौबन्धन आरोहण के पूर्ण भगवान विष्णु का क्रम वरुण और इसके अतिरिक्त, जो दूसरे वर और शाप अर्थात जहाँ प्रथम पद पडा था, वहीं पर भगवान का देनेवाले देवता है, वे सब राजा के शरीर मे निवास चरण चिह्न अथवा विष्णुपद बना दिया गया था। करते है अतएव देवता सर्वदेवमय है (भा० : ४: वह नौबन्धन तीर्थयात्रा का एक भाग था। १४ : २६-२७) । प्रारम्भिक वैदिक काल में देवत्व की कल्पना नही की गयी थी। पाद-टिप्पणी: (२) अच्युत : अपने स्वरूप से न गिरनेवाला, ९७. (१) ब्रह्मा : पुरातन सिद्धान्त है कि दढ. स्थिर, निर्विकार, अविनाशी, अमर, अचल, राजा देव का अंश है। मनु का मत है-'विधाता ने शाब्दिक अर्थ होता है। विष्णु तथा उनके अवतारों इन्द्र, मरुत, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्र एवं का नाम है। वासुदेव श्रीकृष्ण का विशेषण है। कुबेर के प्रमुख अंशों से युक्त राजा की रचना की है' जैनियों के अनुसार कल्पवासी देवताओं का एक भेद (मनु० . ७ : ४-५; ६ : ९६) मनुष्य नर रूप में तथा उनका स्थान है। कल्प स्वर्गों में सोलहावाँ स्वर्ग देवता है (मनु० :७:८; शान्ति० : ६८ : ४० है। अच्यत कुल वैष्णवों का एक समाज एवं उनकी आपस्तम्ब०:१: ११ : ३१ : ५; मत्स्यपुराण : कुल परम्परा है। वे विशेषतया रामानन्द सम्प्रदाय २२६ :१; शुक्रनीति : १:७१-७२। अग्निपुराण के होते है। वे अपने को अच्युतकुल या अच्युतगोत्रीय में (२२६ : १७-२०) राजा, सूर्य, चन्द्र, वायु, मानते है । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:५:९८-१००] श्रीवरकृता १६९ कस्तूरीकुसुमश्यामां कोष्ठागारावनि गिरेः । दृष्ट्वा तुष्टो नृपश्रेष्ठो योगीवेष्टां हरेस्तनुम् ॥ ९८ ॥ ९८. कस्तूरी, कुसुम, श्यामल पर्वत की कोष्टागार भूमि को देखकर, नृपश्रेष्ठ राजा उसी प्रकार तुष्ट हुआ, जिस प्रकार योगी कस्तूरी-कुसुम-श्यामल' हरि के शरीर को देखकर । अथ नौकां समारुह्य धीवरैः पञ्चषैर्वृताम् । धृत्वा मां सिंहभद्रं च चचार सरसोऽन्तरे ॥ ९९ ॥ ९९. धीवरों से युक्त नौका पर, आरूढ़ होकर, और मुझे तथा सिंह भट्ट को लेकर, सरोवर के अन्दर विचरण किया। गीतगोविन्दगीतानि मत्तः श्रुतवतः प्रभोः। गोविन्दभक्तिसंसिक्तो रसः कोऽप्युदभूत् तदा ॥ १० ॥ १००. उस समय मुझसे गीतगोविन्द' के गीतों को सुनकर, राजा को गोविन्द भक्ति से पूर्ण, कोई अपूर्व रस पैदा हुआ। पाद-टिप्पणी : (२) सिंहभट्ट : द्र० ४ : ४३ । प्रथम पाद के द्वितीय चरण का पाठ (३) सरोवर : क्रमसर । संन्दिग्ध है। पाद-टिप्पणी: ९८. (१) श्यामल : भगवान कृष्ण के वर्ण १००. (१) गीतगोविन्द : गीतगोविन्द की कल्पना श्याम वर्ण से की गयी है। श्याम वट- संस्कृत के सरस, ललित एवं मधुर काव्य का जीतावृक्ष का नाम है। वटपत्र पर भगवान प्रलय काल जागता रूप है। उस जैसा, पद-लालित्य विश्व की में विश्राम करते है। प्रयाग संगम पर स्थित वट किसी भाषा में नही मिलेगा। संस्कृत न जाननेको श्याम की संज्ञा दी गयी है। (भाग०)-अयं वाले भी केवल उसका पठन किंवा सरस उच्चारण च कालिन्दी तटे वट: श्यामो नाम । (उत्तर० १) सूनकर झूम उठते है। सोऽयं वटः श्याय इति प्रतीतः (रघु० १३ : ५३)। गीतगोविन्दकार महाकवि जयदेव थे। उनके शिव का एक विशेषण है। पिता का नाम भोजदेव एवं माता का राधा अथवा पाद-टिप्पणी: रामा था। जन्म स्थान केंदुबिल्व' वर्तमान केंदुली ९९. (१) धीवर : मछुवा - मल्लाह = माझी स्थान था, जहाँ आज भी मेला लगता है और गीतहाँजी। भर्तृहरि (२ : ६१) धीवरों के विषय में गोविन्द के पदों का सरस गायन होता है। उनका लिखते है-मृग मीन सज्जनानां तृण जल संतोष जन्म बारहवीं शती में हुआ था। बंगाल के अन्तिम विहित वृत्तीनां, लुब्धक धीवर पिशुना निष्कारण हिन्द राजा लक्ष्मण सेन के सभा-कविरत्नों में सर्ववैरिणो जगति-धीवर का एक राज्य के रूप में भी श्रेष्ठ थे। इस काल मे श्रीकृष्ण आदर्श नायक एवं उल्लेख महाभारत में मिलता है (ब्रह्मा० २ : १८: राधा आदर्श नायिका थी। इसमें आध्यात्मिक ५४; मत्स्य० १३१ : ५३; वायु० : ४७ : ५१;,६३ : रहस्यवाद की अभिव्यक्ति अपने समय के परम १२३)। संगीतज्ञ एवं संगीत-शास्त्र-विशारद राणा कुम्भ जै. रा. २२ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनराजतरंगिणी [१:५:१०१-१०२ कुञ्जप्रतिश्रुतो मञ्जीतनादस्तदावयोः । अनुगीत इवानस्थैः किंनरै राजगौरवात् ॥ १०१॥ १०१. उस समय, हम दोनों के मंजुल गीतनाद की कुंज में होनेवाली प्रतिध्वनि, राज गौरववश वहाँ के किन्नरों द्वारा अनुगीत सदृश प्रतीत हो रही थी। क्षणं सरोन्तश्चरतो हिमवृष्टिनिभाद् विभोः। भक्तिप्रीतैरिवोन्मुक्तं देवैः कुसुमवर्षणम् ।। १०२ ॥ १०२. कुछ क्षण सरोवर में भ्रमण करते, राजा की भक्ति से प्रसन्न, देवो ने मानों हिमवृष्टि के व्याज से कुसुम-वृष्टि की। ( सन् १५६३ ई० ) ने इसकी व्याख्या की है। संस्कृतज्ञ के साथ ही साथ शास्त्रीय गान-पारंगत गीतगोविन्द समस्त भारत में लोकप्रिय है। महाप्रभु भी था। वह गीतगोविन्द के माधुर्य पर मोहित चैतन्य गीतगोविन्द गाते-गाते समाधिस्थ हो जाते होकर, स्वयं श्रीवर के साथ गाने लगा था। इससे थे। गीतगोविन्द के पश्चात संस्कृत में अष्टपदी एक बात का और पता चलता है। गीतगोविन्द तथा अन्य भारतीय भाषाओं मे गीतकाव्य प्रणयन बंगाल से काश्मीर तक सर्वप्रिय काव्य-गीत हो की परम्परा चल पडी थी। गया था। गीतगोविन्द के सम्बन्ध में अनेक गाथाएँ पाद-टिप्पणी : प्रचलित है। जयदेव कवि-'भय शिरसि मण्डनम' १०१. (१) किन्नर : किन्नौर अंचल के पद लिखकर रुक गये। पद बैठ नहीं रहा था। निवासी किन्नर कहे जाते है। हिमाचल प्रदेश में वह स्नान करने चले गये। इसी समय भगवान ने है। किन्नौर के पर्व में पश्चिमी तिब्बत, पश्चिम में आकर-'देहिपद पल्लवम' लिखकर, पद पूरा कर कुलू तथा स्पीति, दक्षिण मे टेहरी गढ़वाल, जन्वल दिया। स्नान कर लौटे, तो उनकी धर्मपत्नी ने कोट है। सतलज नदी की उपत्यका क्षेत्र में फैला आश्चर्यपूर्वक पूछा, इतने जल्दी कैसे लौट आये ? है। भूखण्ड लगभग ७० मील लम्बा तथा उतना ही अभी तो पद लिखकर, गये थे। जयदेव चकित हुए। चौडा है। इसकी कम से कम ऊँचाई समुद्र सतह से वह दौड़कर पद देखने लगे। भगवान का दर्शन ५००० फीट है। आबादी ११ हजार फिट की पत्नी को हुआ और उन्हे नहीं हुआ। कहकर अपने ऊँचाई तक मिल जाती है। कन्नौरी, गलचा तथा पत्नि के सौभाग्य की प्रशंसा की। एक और गाथा लाहौली स्थानीय भाषाएँ है। जम्बूद्वीप के सात है। एक मालिन एक खेत मे भुट्टा तोड़ रही थी। वर्षों में एक किंमपुरुष अथवा किन्नरवर्ष है। वे साथ ही साथ मधुर स्वर से गीतगोविन्द गाती अश्वमुख तथा संगीत कलाप्रिय कहे गये है । उनकी जाती थी । जयदेव ने देखा कि भगवान की प्रतिमा गान विद्या मे प्रसिद्धि मुद्रा प्राचीन काल से अबतक का वस्त्र फटा था। रहस्य खुला कि मालिन के रही है और है (जैन० : १ : ६ : ७; द्रष्टव्य : परिकोमल कण्ठ से गीतगोविन्द का गान सुनकर भग- शिष्ट 'किन्नर':रा० : खण्ड : १ पृष्ठ ११०)। किन्नर वान उसके पीछे-पीछे भाग रहे थे। भागने में संगीत में प्रवीण होते थे (भाग० ३ : १० : ३९) । उनका वस्त्र फट गया था। पुलह ऋषि के वंशज माने जाते है। कुबेर के साथ इस श्लोक से प्रकट होता है कि जैनुल आबदीन कैलाश पर रहते है। ब्रह्मा के परछाई से इनकी Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ १:५:१०३-१०५] श्रीवरकृता दृष्ट्वा सरोन्तरे श्वेता हिमान्यो भ्रमणाकुलाः । तीर्थस्नानाप्तकैलासशृङ्गभङ्गिनमं व्यधुः ॥ १०३ ॥ १०३. सरोवर के श्वेत हिमपुंज को इधर-उधर घूमते (तैरते) देखकर, (लोगों ने) तीर्थस्थान के लिये आये' कैलाश शृंग (शिखर) का भ्रम किया। सत्यं विष्ण्ववतारः स येन भक्त्या प्रदक्षिणम् । त्रीन् वारानकरोन्नूनं ज्ञातुं स्वक्रमविक्रमम् ।। १०४ ।। १०४. वास्तव में विष्णु ' अवतार उस राजा ने अपने पद-पराक्रम को जानने के लिये, भक्ति पूर्वक तीन बार प्रदिक्षणा की। योऽभूदागमसिद्धार्थो नौबन्धनगिरिस्तदा । प्रत्यक्षार्थः कृतो राज्ञा बद्धवा नौकां यदागतः ।। १०५ ।। १०५. नौका-बन्धन कर, राजा ने आगम से सिद्ध अर्थवाले, नवबन्धन' गिरि का उस समय साक्षात्कार किया। उत्पत्ति मानी जाती है (भाग ३ : २० : ४५; वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, वुद्ध और भविष्य ४. ६ : ९; ब्रह्मा०२ : २५ २८; ३ : ७ : १७६, का हानवाला कलकि अवतार है। किसी देवता का ८: ७१) । गदाधर मन्दिर के प्रागण में राजा रणवीर संसारी प्राणियों के शरीर धारण करने को अवतार सिंह द्वारा लगे विक्रमी १९२९ = सन् १८७२ कहते है । ई० में देवनागरी लिपि के शिलालेख में हिमा- पाद-टिप्पणी: लय उत्तर स्थित किन्नरवर्ष का उल्लेख किया १०५. (१) नवबन्धन गिरि : वनिहाल से गया है। पश्चिमी दिशा मे चलने पर, तीन शिखरों का एक पाद-टिप्पणी: समूह मिलता है। उसे विष्णु, शिव एवं ब्रह्म शिखर १०३. (१) कैलाश : द्रष्टव्य : पाद-टिप्पणी : कहते है। उनकी ऊँचाई पन्द्रह हजार फीट है। १ : ३ : १२१ । त्रिदेवों ने इसी स्थान से जलोद्भव असुर से युद्ध कर, सतीसर को हरी भूमि बनाया था। इन शिखरों पाद-टिप्पणी : में धुर पश्चिमी शिखर १५५२३ फीट ऊँचा है। इसी १०४. (१) विष्णु अवतार : जोनराज तथा को नवबन्धन तीर्थ कहते है। नीलमत के अनुसार श्रीवर दोनों ही ने जैनुल आबदीन को नारायण जल प्लावन के समय भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप में किंवा विष्णु का अवतार माना है (जोन० : ९: इस शिखर से नाव बांधा था। नाव स्वरूप ७३) । उसे श्रीमद्दर्शननाथ अर्थात् धर्मराज लिखा दुर्गा स्वयं हो गयी थी। ताकि प्राणी नाश है (जोन० : ९७५)। होने से बच जाय। यह कथानक वाइविल वर्णित पुराणों की मान्यता के अनुसार विष्णु का ही महात्मा नूह के आर्क से मिलती-जुलती है। (नील० : अवतार होता है। विष्णु के २४ अवतार हुए है। ३९-४१, १७८; हरचरित चिन्तामणि : ४ : २७; उनमें दस प्रधान है-मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, सवितार ३ : ४, १२ : ५ : ४३) । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैनराजतरंगिणी स कुमारसरो यावत् सुकुमारं स्मरन् पथि । कुमारोऽम्बुपान सुखं पुण्यमिवासदत् ।। १०६ ।। १०६ कुमार सहित उस राजा ने मार्ग में कुमारसर' तक सुकुमार' का स्मरण करते हुए, अम्बुपान कर, पुण्य सदृश सुख प्राप्त किया । पाद-टिप्पणी : [१:५ : १०६ - १०८ शृण्वन् स्थानाभिधाः पुण्याः स्पृशंस्तीर्थजलं शुभम् । पिबन् सतुहिनं तोयं पश्यन् वनतरुश्रियम् ॥ १०७ ॥ १०७. पुण्यशाली स्थानों का नाम श्रवण करते, शुभ तीर्थजल का स्पर्श करते, तुहिन सरित जल पीते, वन वृक्षों की शोभा देखते जिन्नोषघिपुष्पाणि पञ्चेन्द्रियसुखप्रदाम् । तीर्थयात्रां विधायेत्थं नगरं प्राप भूपतिः ।। १०८ ।। १०८. औषध पुष्पों की सुगन्ध लेते, वह राजा इस प्रकार पञ्चेन्द्रियों की सुखप्रद तीर्थ - यात्रा करके, नगर में पहुँचा । इति जैनराजतङ्गिण्यां क्रमसरोयात्रावर्णनं नाम पञ्चमः सर्गः ॥ ५ ॥ इस प्रकार जैन राजतरंगिणी में क्रमसर यात्रा वर्णन नामक पाँचवा सर्ग समाप्त हुआ । पाठ - बम्बई । १०६. ( १ ) कुमारसर : वर्णनक्रम से कुमारसर के स्थान पर क्रमसर होना चाहिए। इसका पुनः उल्लेख नही मिलता । ( २ ) सुकुमार : एक तीर्थस्थल । तक्षक कुल उत्पन्न एक नाग है। यह जनमेजय के नागयज्ञ में भस्म किया गया था ( आदि० ५७ : ९ ) । शाकद्वीप के जलधार पर्वत के निकटस्थ एक वर्ष है भीष्म० ११ : २५ ) । पाद-टिप्पणी : १०८. उक्त श्लोक के प्रथम पद के द्वितीय चरण का पाठभेद सन्दिग्ध है । उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ४९४वी पंक्ति है । बम्बई संस्करण में १०८ श्लोक इस सर्ग के यथावत तथा कलकत्ता संस्करण के १०७ श्लोक है । कलकत्ता संस्करण में २०वीं श्लोक नहीं है । कलकत्ता संस्करण का ३८८ से ४९४ पंक्ति संख्या के श्लोक क्रम से इस सर्ग में सम्मिलित है । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः सर्गः ततः क्रमसरस्तुल्यं राजा पद्मपुरान्तरे। तत्कौतुकापनोदाय चक्रे जैनसरो नवम् ॥ १ ॥ १. तत्पश्चात राजा ने उसका कौतुक दूर करने के लिये, क्रमसर' के तुल्य पद्मपुर में नवीन जैनसर निर्माण कराया। फुल्लत्कुङ्कुमपुष्पौघश्यामीभूतस्थलच्छलात् । शरदीवागता प्रीत्या यमुना यत्सरोवरम् ॥ २ ॥ -. शरद काल में प्रफुल्ल कुमकुम के पुष्पपुंज से, श्यामल भूमि के व्याज से, मानो प्रेम से, यमुना ही उस सरोवर में आ गयी थी। कुलोद्धरणनागाख्यमण्डिते यत्तटे नवम् । राजद्राजगृहं राजा राजराजोपमो व्यधात् ।। ३॥ ३. कुलोद्धरण' नाग-मण्डित तटपर, कुबेर सदृश राजा ने नवीन भव्य राजगृह निर्माण कराया। उच्चैः पदस्थममलं रुचिरञ्जिताशं संपूर्णमण्डलखण्डकलाकलापम् राजानमीशमवलोक्य हतोपतापं काङ्क्षन्ति के न नितरामपि दूरसंस्थाः ।। ४ ॥ ४. उन्नत पद पर स्थित, निर्मल रुचि (कान्ति-इच्छा) दिशा (आशा) को रजित करने वाले, सम्पूर्ण मण्डल (देश) एवं अखण्ड कला-कलाप से पूर्ण, उपताप (ताप) नाशी, स्वामी (ईश) राजा (चन्द्रमा) को देखकर, बहुत दूर स्थित, भी कौन-से लोग नहीं चाहते है ? पाद-टिप्पणी : (३) जैनसर : स्थान का अन्वेषण अपेक्षित उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का ४९५ वी है। इसका केवल यही उल्लेख मिलता है। पंक्ति है। पाद-टिप्पणी : १. (१) क्रमसर : कौसर नाग : द्र० : १ : ३. (१) कुलोद्धरण नाग : हरचरित चिन्ता५ : ९६; ६:१। मणि में कुलोद्धारणिका का उल्लेख मिलता है (१० : (२) पद्मपुर : पामपुर । द्र० : ४ : १३१; २४७)। विजयेश्वर से उत्तर-पश्चिम लगभग १४ ४ : ३४२; लोक० २०। मील दूर है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैनराजतरंगिणी दिगन्तरीया भूपालाः श्रुत्वैतद् गुणगौरवम् । नानोपायनवाँ धैर्ववर्षुर्नितराममुम् ५. दिगन्तरीय (बाहरके) भूपाल यह गुण-गौरव सुनकर, इस पर नाना प्रकार के उपायनों की नितरा वृष्टि किये। वेगेन जितवायुं स्वं ताजिकाख्यं तुरङ्गमम् । उपदां व्यसृजत सख्यादुच्चं पञ्चनदप्रभुः ॥ ६॥ ६ पंचनद' के राजा ने मित्रता के कारण वेग से वायु को जीतनेवाला उन्नत ताजिक नामक तुरंग उपहार में भेजा। पाद-टिप्पणी : व्यापार होता था। नामों के अन्त में 'क' जोड़ने ६. (१) पंचनद : पंजाब; झेलम, चनाव, की शैली काश्मीर मे है। अतएव ताजी के आगे रावी, सतलज, व्यास पाँच नदियों से सिंचित देश जो 'ताजीक' लगा दिया गया है। छन्द के लालित्य के पंज + आव (पाँच-पानी) कहा जाता है। भारत लिये दीर्घ मात्रायें प्रायः ह्रस्व तथा ह्रस्व की मात्रायें दीर्घ में परिणत कर दी जाती है। विभाजन के पूर्व का समस्त पंजाब इस परिभाषा में बम्बई संस्करण जोनराजतरंगिणी की श्लोक आ जाता है। पञ्चनद शब्द पुराकाल में प्रचलित था। पश्चिम दिग्विजय के समय नकूल ने पंचनद संख्या १७० मे ताजिक जाति का उल्लेख है, जो विजय किया था (सभा० : ३२:११)। पंचनद की दुलचा क साथ काश्मार में प्रवेश किये थे। पाँच नदियाँ विपाशा (व्यास), शतद् (सतलज), इरा प्रारम्भ मे ताजिक शब्द से अरब मुसलमानों वती (रावी), चन्द्रभागा (चनाव) और वितस्ता का बोध होता था। तुर्कों का जब मध्येशिया पर (झेलम) है। अधिकार हो गया, तो ईरानी वहाँ के निवासियों को भी ताजिक कहने लगे। कालान्तर में गैर तुर्क मुस(२) राजा : पंजाब कई सूबों में विभाजित लमानों के लिये ताजिक शब्द का व्यवहार होने था । वहाँ सूबेदारों का शासन था। लाहौर-दौलत लगा। ईरानी मुसलमान ताजिक कहे जाने लगे। खाँ लोदी (-१५२४) मुलतान-राय सकरा लंधा (सन् ताजिक शब्द तातार के व्यापारियो के लिये भी ता १४४५-१४६९ ई०), हुसेन खाँ लंधा (सन् १४६९ सम्बोधित किया जाता रहा है। आजकल ताजिक १५०२ ई०), दिपालपुर-तातार खाँ (सन् १४५१ शब्द पूर्व क्षेत्रीय इरानियों के लिये व्यवहृत होता १४८५ ई०), सुनाम या सामना-वहलोल लोदी है। अस्तराबाद एवं यज्द का मध्यवर्ती भूखण्ड (सन् १४४१-१४५२ ई०), सीरहिन्द-बहलोल लोदी ताजिकों के भमि की अन्तिम सीमा मानी जाती है। (सन् १४३१-१४६८ ई०) शासन कर रहे थे। किस सोवियत रूस मे ताजिक गणतन्त्र सन् १९२४ ई० में राजा से श्रीवर का तात्पर्य है, स्पष्ट नहीं होता। स्थापित हआ था। इसकी सीमा पर्व में सिकियाग (३) ताजिक: ताजी शब्द अरबी है तथा दक्षिण में अफगानिस्तान है। तुर्की घोड़े भी अरबी घोड़े को कहते है। अरबी घोड़ा सर्वश्रेष्ठ, अच्छे होते है। किन्तु अरबी घोड़े उनसे भी अच्छे वेगशाली माना जाता है। आस्ट्रेलिया की यात्रा में होते है। यहाँ पर ताजिक से ताजिकास्तान का घोड़ा मैंने देखा था कि अरबी घोड़े की नसल वहाँ पर ले अर्थ लगाना ठीक नही प्रतीत होता। द्र० जैन० : जाकर, अरबी घोड़े पैदा किये जाते थे। उनका ४:२४८ । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:६:७-९] श्रीवरकृता १७५ किंनरोऽश्वमुखः ख्यातः कण्ठान्नृत्यं न वेत्यसौ । इतीव नाटयं यो दर्पाद् वरारूढोऽकरोत् पथि ।। ७ ॥ ७. अश्वमुख निन्नर' कलकण्ठ के कारण प्रसिद्ध है, परन्तु नृत्य नही जानते, इसीलिये मानो वह अश्व मार्ग में नर्तन किया, जिस पर राजा आरूढ़ था । प्रवालहस्तः सद्रश्मिः सुखलीनः सुलक्षणः । यथासावहमित्थं यो नासहिष्टास्य ताडनम् ॥ ८॥ ८. जिस प्रकार यह राजा प्रवाल', हस्त, सद्रश्मि, सुखलीन, सुलक्षण" है, उसी प्रकार मैं भी हूँ, इसीलिये उस अश्व ने इसका ताड़न सहन नहीं किया। पादैश्चतुर्भिः शुभ्रो यो मुखमध्येन चावहत् । कल्याणपञ्चकख्याति कल्याणाभरणोज्ज्वलः ॥९॥ ९. सुवर्ण भरण से उज्वल (सुन्दर,) चारों पदों एवं सुख के मध्य भाग से भी उज्वल, वह अश्व पंचकल्याण' की प्रसिद्धि से युक्त था। पाद-टिप्पणी : है और पाँचों की आभा रत्नों द्वारा अंकित की गयी ७. (१) अश्वमुख किन्नर : संस्कृत साहित्य है । मंगल का तेज बताने के लिये प्रवाल है। में 'किन्नरा अश्वादिमुखा नराकृतयः' लिखा गया है। (२) हस्त : बुध की आभा नील नभ के अर्थात् उनका मुख अश्वों के समान होता है। अमर- समान है। अर्थात् हस्त मे पाँच ऊँगलियाँ बुध के कोषकार ने भी-'स्यात् किन्नरः किम्पुरुषस्तुरंग मिश्रित वर्ण के प्रतीक हैं। वदनो मयुः' उन्हें तुरंग बदन कहा है। तुरग का (३) सदस्मि : गुरु का वर्ण पीत है। घोर अर्थ अश्व होता है ( अमर० : १ : २ . ७४)। पीत वर्ण को सद्रश्मि एवं मंगलदायक मानते है। द्रष्टव्य पाद-टिप्पणी : १ : ५ : १०१।-'गीतरतपः (४) सुखलीन : शुक्र की आभा बैगनी (वायकिन्नरः' गान में रति रखनेवालों को किन्नर की लेट) मानी जाती है। देखने में सुन्दर लगता है । संज्ञा जैन ग्रन्थकारों ने दी है (ध० १३ : ५ : ५; अतः सुखलीन श्लिष्ट शब्द का प्रयोग किया गया १४० : ३९१ :८)। दश वर्गों में उनकी गणना है। की गयी है-(१) किंपुरुष, (२) किन्नर, (३) हृदयं- (५) सुलक्षणा : शनि ग्रह सबसे सुन्दर है। गम, (४) रूपमाली, (५) किन्नर-किन्नर, (६) (रिंग्स आफ सटर्न ) शनि की अँगुलिका सभी ग्रहों अनिन्दित, (७) मनोरम, (८) किन्नरोत्तम, (९) रति- से सुन्दर दिखाई देती है। अतएव श्लिष्ट शब्द का प्रिय एवं (१०) ज्येष्ठ (ति० सा० : २५७-२५८)। प्रयोग किया गया है। पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी: ____ कलकत्ता के 'तु' के स्थान पर बम्बई का 'यो' पाठ-बम्बई । रखा गया है। ९. (१) पञ्चकल्याण : घोड़ों की एक नश्ल ८. (१) प्रवाल : पंच ताराग्रह ( मंगल, होती है। उनके चारों पैरों का निचला हिस्सा खुर बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि ) पंचभूत के 'प्रतीक से ऊपर तथा एड़ी के नीचे तथा मुख पर सिर से Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनराजतरंगिणी माण्डव्य गौड भूमीशः खलुच्यो यो महीपतिः । दरन्दामनामवस्त्रैरुपाहितैः ॥ १० ॥ अतूतुषद् १०, माण्डव्य', गौड' भूमि के राजा खलुच्यों ने दरन्दाम नामक वस्त्र को प्रदान कर ( उसे ) सन्तुष्ट किया । इतो स्मै नृपो भव्यं काव्यं कृत्वा स्वभाषया । प्राहिणोद् द्रव्यसंयुक्तं सव्यसाच्यग्रजोपमः ॥ ११ ॥ ११. युधिष्ठरोपम' राजा ने भी यहाँ से, उसके लिये द्रव्य सहित अपनी भाषा में सुन्दर काव्य लिखकर, प्रेषित किया । [१ : ६ : १०-१२ सोऽप्यनर्वैः पदार्थेर्न तथा तुष्टो महीपतिः । भूपकाव्यस्यातिमनोहरैः ॥ १२ ॥ सालङ्कारैर्यथा कि १२. वह राजा भी अलंकार सहित बहुमूल्य पदार्थों से उतना नहीं संतुष्ट हुआ, जितना नृपकाव्य के अति मनोहर अलंकारों से । दोनों आंखों के बीच होता नाक तक का भाग श्वेत होता है । घोडा में पाँच स्थानों पर घोड़ों के रंगों मुश्की आदि के बीच श्वेत रंग होने के कारण उन्हे पंचकल्याण कहा जाता है । मेरे पास भी पंचकल्याण घोड़ा, मोटर आने के पूर्व था । पंचकल्याण धोड़ा शुभ एवं मांगलिक तथा सुखप्रद माना जाता है। इस घोड़े की कोमत अन्य घोड़ों की अपेक्षा अधिक होती है | पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५०४वी पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का १०वीं श्लोक है । १०. ( १० ) माण्डव्य : माण्डू ( मालवा ) । वह मालवा का सुल्तान महमूद प्रथम था ( तवक्काते अकबरी: ४४० - ६५९ ) । ( २ ) गौड़ : द्रष्टव्य टिप्पणी : १ : १ : २५ । गौड़ का तात्पर्य बंगाल से है । ( ३ ) खलच्च : वहाँ इस समय सुल्तान ' रुक नुद्दीन' ( सन् १४५९ - १४७४ ई० ) था । श्रीवर ने सम्भवयः रुकनुद्दीन के लिये प्रयोग किया है । खलन्च का पाठभेद खलश्यो तथा खलुच्यो मिलता है । बंगाल में मुसलमानों का शासन था । खलच्च नाम मुसलिम नही हो सकता ( क० ४ : ३२३ ) । ४) दरन्दाम वस्त्र का क्या रूप था, प्रकाश नही पड़ता । अनुसन्धान अपेक्षित है । इसका केवल यही उल्लेख मिलता है । पाद-टिप्पणी : ११. ( १ ) युधिष्ठरोपम: धर्मराज पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर तुल्य । पाद-टिप्पणी : १२. कलकत्ता में 'महीपतेः' पाठ दिया गया है, जिससे अर्थ में पुनरुक्ति होती है । अत: 'महीपतिः' पाठ रखने से अर्थ की असंगति दूर हो जाती है । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता वस्त्रं नारीकुञ्जराख्यं कुम्भराणो अहरदि १६ १३-१४] १३. राणा कुम्भ' ने नारी कुंजर हृदय के कौतूहल को दूर किया । राजा विसर्जयन् । तदेशनारीकुञ्जरकौतुकम् ॥ १३ ॥ नामक वस्त्र भेजकर, उस देश के, उत्तम स्त्रियों के, डुगरसेहाख्यो गीततालकलावाद्यनाव्यलक्षणलक्षितम् १४. गोपालपुर के राजा दूगरसोह ने गीत, ताल, कला, वाद्य, लास्य, पाद-टिप्पणी १३. (१) कुम्भ राणा : मेवाड के राणा कुम्भ के पिता राणा मुकुल थे। पिता के पश्चात कुम्भ सन् १४१९ ई० मे मेवाड के सिहासन पर बैठे । अपने पराक्रम से मेवाड की सीमा दृषद्वती नदी तक पहुँचा दिया था । मालवा के राजा महमूद ने राणा कुम्भ पर आक्रमण किया किन्तु उसे परास्त होना पडा । महमूद छ. मास तक मेवाड में बन्दी बना रहा । दिल्लीपति के आक्रमण के समय महमूद ने राणा कुम्भ की सहायता किया था। चित्तौर का विजयस्तम्भ उनकी अमर कीर्ति है। राणा ने ५० वर्ष शासन किया | अपने पुत्र उडा द्वारा कुम्भलगढ़ में मार डाले गये थे। मैंने यह स्थान देखा है वह एक सरोवर के तटपर है। । राणा कुम्भ में 'संगीतराज' नामक संगीत पर एक बृहद् ग्रन्थ लिखा था । इसका प्रथम भाग हिन्दू विश्वविद्यालय से सन् १९६४ ई० में प्रकाशित हुआ है । द्वितीय भाग प्रकाशित हो रहा है । महाराणा कुम्भ ने जयदेव के गीतगोविन्द पर 'रसिकप्रिया' नाम की एक बहुत ही विशद टीका लिखी है। यह ग्रन्थ निर्णयसागर प्रेस बम्बई से प्रकाशित हुआ है। इस समय यह ग्रन्थ बाजार में नहीं मिलता । इसका संस्करण अपेक्षित है । (२) नारी कुञ्जर : वस्त्र का नाम है, परन्तु किस प्रकार का यह वस्त्र होता था, कहना कठिन है । यदि 'नारी चन्दुर' कुञ्जर के स्थान पर पाठ मान जै. रा. २३ गोपालपुरवल्लभः । १७७ 11 28 11 लक्षणों से युक्त कर अर्थ किया जाय तो चुन्दरी का अर्थ होगा । राजस्थान तथा मेवाड़ की चुन्दरी रंगों के मिश्रण के कारण सुन्दर होती थी। 'सुन्दरी' पहना कर विवाह करने की प्रथा आज भी प्रचलित है । पाट- टिप्पणी: पाठ-बम्बई । : । १४. (१) गोपालपुर ग्वालियर। रानी सुगन्धा ने एक गोपालपुर (सन् ९०४-९०६ ई०) की स्थापना की थी । वह वर्तमान गाँव गुरीपुर है । वितस्ता के दक्षिण तट पर है ( रा० : ५ : २४४) । कल्हण ने एक दूसरे गोपालपुर का भी उल्लेख किया है ( रा० ८ १४०१) । यह गोपाल श्रीवर वर्णित : गोपालपुर नहीं हो सकता है दूगरसिंह राजा काश्मीर के बाहर का था कह राजा सुखल यह स्थान काश्मीर के बाहर राजपुरी प्रदेश के के मृत्यु के प्रसंग में गोपालपुर का वर्णन करता है। समीप था । क्योकि गोपालपुर मे राजा सुस्सल के मस्तक का दाह संस्कार किया गया था । कल्हण के वर्णन में प्रकट होता है कि गोपालपुर राजौरी के समीप था । वर्तमान गोपालपुर दूसरा है। यह वालियर है । ग्वालियर का प्राचीन नाम गोपादि है। इसे गोपगिर भी कहते हैं। शंकराचार्य पर्वत श्रीनगर को भी गोप पर्वत अथवा गोपाद्रि कहते है । म्युनिख पाण्डुलिपि में ग्वालियर नाम दिया गया है ( पाण्डु० : ७३ ०; तवक्काते ० : ३ : ४४० ) । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैनराजतरंगिणी [१:६:१५ संगीतचूडामण्याख्यं श्रीसंगीतशिरोमणिम् ।। राज्ञ गीतविनोदार्थ गीतग्रन्थं व्यसर्जयत् ॥ १५ ॥ युग्मम् ॥ १५. संगीतशिरोमणि', संगीतचूड़ामणि' नामक गीत ग्रन्थ, गीत विनोद हेतु राजा के लिये भेजा । (युग्मम्) (२) डूगरसिह : तवक्काते अकबरी मे नाम सुल्तान ने उसका राज्य भी वापस कर दिया। डूंगरसेन दिया गया है। उसमें उल्लेख है-ग्वालि- राजा ने पण्डितों की सभा बुलाई। संगीतशिरोमणि यर के राजा डूंगरसेन को जब यह ज्ञात हआ कि ग्रन्थ की रचना की गयी। उसका रचनाकार कोई सुल्तान को संगीत से अत्यधिक रुचि है तो उसने एक व्यक्ति नही परन्तु 'पण्डित मण्डली' के नाम से इस विषय के दो-तीन उत्तम ग्रन्थ उसकी सेवा में पुस्तक प्रकाशित की गयी। यह पुस्तक पूर्ण रूप में भेजे ( ४४०-६६०)। उक्त प्रमाणों से स्पष्ट हो नही मिलती। इसकी कुछ पाण्डुलिपि वाराणसेय जाता है कि गोपालपुर वास्तव मे ग्वालियर था। संस्कृत विश्वविद्यालय और कुछ काशी विश्वश्रीवर वणित डूंगरसिह परशियन इतिहासकारों द्वारा विद्यालय मे है। यदि पूरा ग्रन्थ मिल जाय तो वर्णित डूंगरसेन है। तवक्काते अकबरी में ही ग्वा- संगीत इतिहास पर और प्रकाश पड़ेगा। लियर के राजा कीर्तिसिंह का उल्लेख कर, उसे डूंगर- सुल्तान गीतकारों तथा कुछ संगीतज्ञों का सिंह का पुत्र माना गया है। अतएव गोपालपुर ही संरक्षक था। उन्हे मुक्तहस्त दान देता था। उसके ग्वालियर का होना निर्विवाद है ( ३११)। समय काश्मीर ने संगीतविद्या मे समस्त भारत मे कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इण्डिया में राजा का नाम प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी ( बहारिस्तान शाही : न देकर केवल-तोनवार राजा ग्वालियर लिखा पाण्डु० : ४९ ए०-बी०, हैदर मल्लिक : पाण्डु० : गया है ( ३ : २८८)। ११३ ए०)। तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-'राजा ने पाद-टिप्पणी: दो-तीन ग्रन्थ भेजा था।' संगीतशिरोमणि राजा १५. (१) संगीतशिरोमणि : कडा हिन्दुओं का का विशेषण है। अन्य ग्रन्थों का नाम नही ज्ञात राज्य था। सन् १४४० ई. के आसपास उस पर है। यदि संगीतशिरोमणि राजा का विशेषण न जौनपुर के शरकी सुल्तान ने आक्रमण किया। राजा माना जाय, तो यह एक दूसरा ग्रन्थ था। तवक्काते हार गया। जौनपुर दरबार में उपस्थित किया अकबरी का उल्लेख इस प्रकार ठीक बैठ जाता है। गया। सुल्तान ने उससे उसकी इच्छा जाननी चाही। (२) संगीतचूड़ामणि : चालुक्य वंश के उसने कहा कि उसकी एकमात्र इच्छा यही है कि महाराज जगदेकमल्ल (सन् ११३४-११४३ ई०) संगीतज्ञ पण्डितों की एक गोष्ठी बुलाई जाय। संगीत के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनकी राजधानी उसमें तत्कालीन प्रचलित भेद मिटा कर, नवीन ग्रन्थ कल्याण थी। संगीतचूडामणि बृहद् ग्रन्थ के रचनाबनाया जाय। सुल्तान ने एक शर्त रखी। यदि कार थे । ग्रन्थ के कुछ अध्याय मिलते है। शेष मुसलमान धर्म स्वीकार कर ले तो उसे छोड देगा। अध्यायों का पता अथक अनुसन्धान के पश्चात् भी वह पण्डितों की सभा बुलाकर अपना काम आजादी अभी नहीं मिला है। यह ग्रन्थ गायकवाड़ ओरिके साथ कर सकता था। राजा ने संगीत ग्रन्थ की यण्टल सिरीज बड़ौदा से सन् १९५८ ई० मे प्रकाशित रचना के लिए इसलाम धर्म स्वीकार कर लिया। हुआ है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:६:१८-२० चिन्नवर्णाल्लंसत्पक्षलक्ष्यशोभान् महीपतेः। पक्षिणो मुचुकुन्दाख्यान् प्राहिणोदक्षिसुन्दरान् ।। १८ ॥ १८. चित्र वर्णवाले सुन्दर पक्षों से शोभित, सुन्दर आँखवाले मुचुकुन्द' नाम के पक्षियों को राजा के लिये भेजा। जिघांसया चरन् सोऽपि भूपतेः प्राकृतैर्गुणैः । बद्धो हिंस्रोऽपि डिल्लेशो बल्लूको रल्लकोपमः ॥ १९ ॥ १९. हिंसा की इच्छा से विचरणशील दिल्लीपति वल्लूक, हिंसक होते भी, हरिण सदृश राजा के सहज गुणों से बँध गया। कच्चिच्छीराजहंसस्य राजहंसयुगं ददौ । अन्ये हंसा यदुत्पन्ना राजहंसमरञ्जयन् ॥ २० ॥ २०. किसी ने राजा को युगल राजहंस' प्रदान किया, उससे उत्पन्न होकर, अन्य हंसों, ने राजा को प्रसन्न किया। पाद-टिप्पणी . २०. (१) राजहंस : पीर हसन लिखता है प्रथम पाद के द्वितीय चरण का पाठ सन्दिग्ध है। 'लासा' के वली ने दो खुशरंग अजीब-व-गरीब १८. (१) मचकुन्द . एक पक्षी जिसकी परिन्दे जिनका नाम राजहंस था, तालाब मानसर आँखें अत्यन्त सुन्दर होती है। मुचकुन्द वृक्ष का के कोहिस्तान से पकड़ कर बतौर तुहफा सुल्तान की भी नाम है। खिदमत में भेजे थ–कहते है, सुल्तान के सामने यह दोनों जानवर मिले हुए दूध और पानी को अलगपाद-टिप्पणी: अलग करके, छोड़ देते थे। चोंच से दूध के अजजा १९ (१) वल्लक : बहलोल लोदी ( सन् पानी से अलग करते थे और इस तरह खालिस पानी १४५०-१४८८ई०)। पीर हसन नाम वहलोल लोदी हो जाता था ( पृष्ठ १८१-१८२ )। देता है ( पृ० : १८१ )। आइने अकबरी के अनु तवक्काते अकबरी में उल्लेख मिलता हैसार वल्लूक ही बहलोल लोदी है। उसमे उल्लेख मिलता है कि वहलोल लोदी के साथ सुल्तान की 'तिब्बत के राजा ने दो सुन्दर पक्षी जो हिन्दुस्तानी भापा में हंस कहे जाते थे, मानसरोवर नामक स्थान मित्रता थी ( पृ० : ४३९ ) । तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है-सुल्तान बहलोल लोदी ने अपने देश की से जहाँ के जल में किसी प्रकार का परिवर्तन नही होता सुल्तान की सेवा मे भेजा । सुल्तान उन पक्षियों उत्तम वस्तुएँ उपहार में भेजी (४४०-६५९ )। को देख कर बहुत प्रसन्न हुआ । उन पक्षियों की द्र० : ३ : १११; आइने अकबरी : २ : ३८९ ।। एक विशेषता थी। यदि जल मिश्रित दूध उनके पाद-टिप्पणी: सामने रखा जाता था, तो वे दूध को अपनी चोंच से उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५१४ वी जल से पृथक कर, पी जाते थे और जल छोड़ पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का २०वा श्लोक है। देते थे (६६०)। श्रीवर हंस दाता का नाम नही प्रथम पाद के प्रथम चरण का पाद सन्दिग्ध है। देता। तवक्काते अकबरी ने इस पर प्रकाश डाला Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ६ : २१-२४] श्रीवरकृता १८१ सरः स्वन्तर्धमन्तस्ते निर्दराः पक्तिपावनाः । तरङ्गतरलोत्फुल्लश्वेतोत्पलतुलां दधुः ॥ २१ ॥ २१. सरोवर के भ्रमण करते. निर्भय एवं पक्ति भक्त (वे) हंस तरंगों से तरल, प्रफुल्ल, श्वेत कमल तुल्य शोभित हो रहे थे। खुरासानमहीपस्य यस्येवाज्ञा हयप्रभोः । मूर्ना मन्दारमालेव ध्रियते दिगधीश्वरैः ॥ २२ ॥ २२. हयस्वामी, जिस खुरासान महीपति की आज्ञा मन्दारमाला की तरह दिशाओं के अधीश्वर शिरसे धारण करते है यस्यायुधोर्जितकराः किङ्कराः सुभयङ्कराः । यमस्य चार्पितकरा व्यचरन् धरणीतले ॥ २३ ॥ २३. हाथ में प्रचण्ड हथियार लिये, जिसके सुभयंकर भृत्य, जो कि यम को भी कर लगाने वाले थे, पृथ्वी तलपर विचरण कर रहे थे। उत्तराशाधिपो मेर्जाऽभोसैदः स महीभुजे । ___ उच्चाश्ववेसरीयुक्तं व्यसृजत् सोपधिं चरम् ॥ २४ ॥ २४. उत्तर दिशा के स्वामी (खुरासानाधिपति) मिर्जा अभोसैद', राजा के पास बहुत से घोड़े एवं खच्चड़ो के उपहार सहित दूत भेजा। है। श्रीवर और तवक्काते अकबरी के काल में हुआ था तथा सुल्तान अहमद समरकन्द का (१४६९लगभग १ शताब्दी का अन्तर है। मानसरोवर १४९४ ई०) सुल्तान हुआ था। खुरासान : द्रष्टव्य का नाम फारसी इतिहासकारों ने मौद लिखा है। टिप्पणी (१:४ : ३२)। पाद-टिप्पणी : ___ तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है-खुरासान के २१. दत्त ने इस श्लोक के अंग्रेजी अनुवाद मे बादशाह अबू सईद ने खुरासान से अरबी घोड़े भेजे 'निर्भय' अर्थ लिखा है, जो ' निराः' के स्थान पर थे ( ४४०-६५९ ) । इसलिये श्रीवर ने यहाँ खुरा'निर्दराः' मानकर अनुवाद किया गया है। क्योंकि सान के सुल्तान को नाम हयपति विशेषण के साथ 'निर्दर' शब्द का निर्भय अर्थ होता है। 'निरा' प्रयोग किया है। का अर्थ पत्नी रहित होगा। श्री दत्त ने भी निर्दारा पाद-टिप्पणी : के स्थान 'निर्दरा' अर्थात् निर्भय मान कर अनुवाद २४. (१) मिर्जा अभोसैद : मिर्जा अबू सैय्यद किया है। बादशाह बाबर का पितामह था। पाद-टिप्पणी : पीर हसन लिखता है-खुरासान के बादशाह २२ (१) खुरासान महीपति : मिर्जा अबूसद खाकान सईद ने जिसने खुरासान से बादशाह के (१ : ६ : २४) । यादगर मुहम्मद (१४६९-१४७०) लिए तेज रफ्तार अरबी घोड़े, खच्चर आला, अपने पिता अबूसद के पश्चात् खुरासान का शासक वलाखी ऊंट-रवाना किये (पृ० : १८१ )। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैनराजतरंगिणी [१:६ : २५-२६ कतेफसोफसग्लातख्यातवस्त्राधु पायनैः महम्मदसुरत्राणो गूजेरीशोऽप्यतूतुषत् ॥ २५ ॥ २५. कतेफ सोफ सग्लात' नामक वस्त्रादि उपायन प्रदान कर, गुर्जर के स्वामी मुहम्मद सुरत्राण ने भी उसे सन्तुष्ट किया। गिलानमेस्रमक्कादिदेशाधीशा हितेच्छया। दुर्लभोपायनैस्तैस्तैन के भूपमरञ्जयन् ॥ २६ ॥ २६ गिलान', मिस्र, मक्का', आदि देशों के किन राजाओं ने हित की इच्छा से, तत्तत् दुर्लभ उपायनों द्वारा राजा को प्रसन्न नही किया ? मिर्जा अबूसद तैमूर वंशीय (सन् १४५२- शुद्ध वाक्य है-'सूफी सकातो सायर नफास' । १४६७ ई०) बाबर का प्रपितामह था। कैम्ब्रिज (२) गुर्जर : गुजरात । आइने अकबरी भी हिस्ट्री के अनुसार वह सन् १४५८-१४६८ ई० तक इसका समर्थन करती है। गुर्जर का अर्थ यहाँ खुरासान का सुल्तान था। सुल्तान जैनुल आबदीन गुजरात है (द्र० क० ५ : २४४ )। ने सौगात के बदले में कीमती तोहफा काश्मीर से (३ ) मुहम्मद : मुहम्मद शाह चतुर्थ । पीर भेजा (पृ० १८१); और उल्लेख मिलता है कि सुल्तान हसन सुल्तान महमूद गुजराती नाम देता है (पृ० : जैनुल आबदीन ने केसर, कागज, मुश्क, शाल, १८१ )। आइने अकबरी मे उल्लेख मिलता हैशीशे के प्याले आदि भेजे । ( तारीख रशीदी : ७९; 'गुजरात के सुल्तान महमूद से सुल्तान जैनुल आबदीन म्युनिख० : पाण्डु० : ७३ ए० तथा तवक्काते अक० की मित्रता थी (पृ० ४३९ )।' तवक्काते अकबरी ४४० % ६५९; आइने अकबरी : २ : ३८९ )। में सुल्तान महमूद गुजराती नाम दिया गया है। (२) खच्चड़ . आइने अकबरी में भी उल्लेख इस समय मालवा का सुल्तान मुहम्मद प्रथम था। किया गया है-'सुल्तान अबू सईद मिरजा ने अरबी (४) सुरत्राण : सुल्तान जैनुल आबदीन । घोड़े और वोख्ती ऊँट भेजा था (पृ० ४३९)।' श्रीवर पाद-टिप्पणी : ने 'वेसर' शब्द का प्रयोग किया है। यह संस्कृत २६. (१) गिलान : अफगानिस्तान । कैम्ब्रिज शब्द है। इसका अर्थ खच्चड़ किया गया है। परन्तु हिस्टी के अनसार अजरबैजा तथा गिलान दोनों का आइने अकबरी में ऊँट का उल्लेख किया गया है।' शासक जहानशाह प्रतीत होता है ( ३ : २८२ )। तवक्काते अकबरी मे भी उल्लेख मिलता है गिलान एक नगर भी था। 'खुरासान के बादशाह सुल्तान अबू सईद ने खुरासान (२) मिस्र : श्रीवर ने शुद्ध नाम मिस्र दिया से अरबी घोड़े तथा वख्ती ऊँट उसके पास उपहार है, जो आज भी इजिप्ट का नाम है । बुर्जी ममलूक स्वरूप अपने देश की उत्तम वस्तुएँ भेजकर निष्ठा कैम्ब्रिज हिस्ट्री के अनुसार उस समय मिस्र का भाव प्रकट किया ( ४४०-६५९)।' सुल्तान था ( ३ : २८२ )। इसका केवल यहीं पाद-टिप्पणी: उल्लेख मिलता है। पाठ-बम्बई। (२) मक्का : पीर हसन लिखता है--सुल्तान २५. (१) कतेफ सोफ सग्लात : शुक ने भी ने अपने नाम की सराये कायम करके शरीफ मक्का इस वाक्य का प्रयोग किया है (१:२: ८४)। से मुहब्बत पैदा कर ली ( पृ० १८१ )। कैम्ब्रिज Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ६ : २७-३० ] श्रीवरकृता अनल्पाः शिल्पिनः कल्पवृक्षकल्पममुं न के । भृङ्गा २७. कल्पवृक्ष उस राजा के समीप भृंगों के समान, दूर-दूर से सुन्दर शिल्प रचना करनेवाले कौन शिल्पी नहीं आये ? इवाययुर्दू राच्छिल्पकल्पितकल्पनाः ।। २७ ।। काश्मीरका अथास्यस्य तुरीवेमादिचातुरीम् । कौशेयकं वयन्त्यद्य बहुमूल्यं मनोहरम् ॥ २८ ॥ २८. आज काश्मीरी लोग तुरी' - वेमा' का अभ्यास कर, बहुमूल्य एवं मनोहर कौशेय वस्त्र बिनते हैं । और्णाः सोफादयो वस्त्रविशेषा दूरदेशजाः । काश्मीरकारच भान्त्यद्य समर्थास्ते नृपोचिताः ।। २९ ।। १८३ २९. दूरदेशोत्पन्न तथा काश्मीर के मजबूत नृपोचित ऊनी सोफा आदि वस्त्र विशेष आज (यहाँ) शोभित हो रहे हैं । विचित्रवयनोत्पन्ननानाचित्रलताकृतीः 1 दृष्ट्वा चित्रकरा येषु जाताश्चित्रार्पिता इव ॥ ३० ॥ ३०. विचित्र प्रकार की बुनाई से बननेवाली, नाना प्रकार की चित्र, लता एवं आकृतियों को देखकर, चित्रकारी चित्रर्पित सदृश लग रही थी । हिस्ट्री में मक्का के शासक का नाम नही, केवल मक्का का शरीफ लिखा गया है (३ : ३८२; तवक्काते० : ३ : ४४० ) । (३) आदि पीर हसन एक नाम शाम का और देता है ( पृ० १८१ ) । नवादरुल अखबार में उल्लेख मिलता है कि शाहरुख ( सन् १४०४ - १४४७ ई० ) जो तैमूरलंग का पुत्र था । उसने जैनुल आबदीन को हाथी तथा रत्न भेंट किया था । किन्तु उत्तर मे लिख भेजा कि उसे प्रसन्नता होती यदि शाहरुख विद्वानों तथा पुस्तकों को रत्नों के स्थान भेजता ( पाण्डु० : ४६ बी०, ४७ ए० तथा गौहरे आलम पाण्डु० : १२६ बी० ) । द्रष्टव्य : म्युनिख पाण्डु० : ७३ ए० तथा तवक्काते अकबरी : ( ४४० - ६५९ ) तवक्काते अकबरी में 'आदि' के लिये 'असपान' तथा 'अशपाए' पाण्डुलिपि में लिखा है । तवक्काते अकबरी मे और लिथो व मसरुख 'एके वाव' कसीदा तथा पाण्डुलिपि मे व 'मसरुख कसीदा' लिखा मिलता है । पाद-टिप्पणी : २७. पाठ - बम्बई । पाद-टिप्पणी २८. ( १ ) तुरी : बाने के धागों को साफ करने का एक उपकरण । ( २ ) वेमा : करघा । — तुरीवेमादिकम् - तर्क ० नं० १:१२ । पाद-टिप्पणी : २९. ( १ ) सोफा : यह अरबी शब्द सूफ है जिसका अर्थ एक प्रकार का वस्त्र होता है। बकरी या भेंड़ के ऊन से बनाया जाता है । पाद-टिप्पणी : ३० उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण का ५२४ वीं पक्ति तथा बम्बई संस्करण का ३० वाँ श्लोक है । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैनराजतरंगिणी [१:६:३१-३२ अनन्ततन्तुसंतानवर्णविच्छित्तिसुन्दरः बभौ कौशेयकख्यातो देशो वेशश्च भूपतेः ॥ ३१ ॥ ३१. राजा का अनन्त, ततु, सन्तान के वर्ण विभाजन से सुन्दर तथा कौशेय' देश वेश शोभित हुआ। नानावर्णविशेषचित्रकटकालङ्कारसारोचितो विद्यामानवराजितोऽतिसुखदः कौशेयताख्यातिमान् । श्रीमान् नित्यमहोज्ज्वलोऽतुलगुणः सत्तन्त्रसम्पत्तिभृद् राज्ञा तेन विशेषितो निजधिया वेशोऽपि देशोऽपि वा ॥ ३२ ।। ३२. नाना प्रकार के वर्ण (रंग-जाति) विशेष से विचित्र कटक (सेना-कंकण) अलंकार से युक्त विद्यावाले मनुष्यों से अति सुखद, (विद्या-लक्ष्मी) नवीन-नवीन चित्र पंक्ति से शोभित, कोश युक्त, (रेशमी वस्त्रों के लिये प्रसिद्ध) श्रीमान सदैव उत्सव से या शोभा से सम्पन्न, अतुलनीय गुणों से पूर्ण (असंख्य गुण सूत्रों से युक्त), उत्तम वंशपरम्परा (किंवा उत्तम सूत्र) वाले, उस देश को अथवा वेश को उस राजा ने अपनी बुद्धि से विशिष्ट बना दिया। इति जैनराजतरङ्गिण्यां चित्रोपचयशिल्पवर्णनं नाम षष्ठः सर्गः ॥ ६ ॥ इस प्रकार जैनराजतरंगिणी में चित्रोपचय शिल्प वर्णन नामक षष्ठ सर्ग समाप्त हआ। पाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी: ३१. (१) कौशेय: रेशमी वस्त्र - कौशेय ३२. कलकत्ता संस्करण का उक्त श्लोक पंक्ति कालिदास काल से ही प्रसिद्ध है। निर्नाभि कौशेय- संख्या ५२६ है । मुपात्त बाणामभ्यङ्गेन पथ्य मलञ्चकार ।' कुमार- पाद-टिप्पणी: सम्भव : ७ : ७, 'सराग कौशेयक भूषि तोख' (ऋतु- इस तरंग में कलकत्ता संस्करण के ४९५ से संहार : ७:८); द्रष्टव्य तारीख रशीदी: पृ० १० ५२६ पंक्ति के ३२ श्लोक तथा बम्बई संस्करण में ४३४; आइने अकबरी : जरेट० : २: ३५५; तुजुक्क० : २: १४७; बहारिस्तान शाही. पाण्डु : ___३२ श्लोक यथावत है। उनके संख्या में अन्तर फो० ४७ ए०। नही है। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः सर्गः दाता भवेत् क्षितिपतिर्यदि सादरोऽयं लोकोऽपि दर्शयति तत् स्वकलाकलापम् । वर्षासु वर्षति घनो यदि चातकोऽपि नृत्यन् मुदा भवति तज्जनरञ्जनाय ॥१॥ १. यदि क्षितिपति सादर दाता होता है, तो यह लोक भी अपना कला-कलाप दिखाता है। यदि वर्ष में मेघ बरसता है, तो चातक भी प्रसन्नता से नाचते हए, लोगों का मनोरंजन करता है। अथोत्तरपथाद् दानख्यातकीर्तेर्महीभुजः । रज्जुभ्रमणशिल्पज्ञः कोऽप्यागात् यवनोऽन्तिकम् ॥ २ ॥ २. दान-प्रसिद्ध कीर्तिशाली महीपति के समीप उत्तरपथ से रस्सी पर चलने की कला जाननेवाला कोई यवन' आया। पाद-टिप्पणी: उत्तर-भारत से आकार मे बड़ा और रंग में चित्रउक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५२७वी विचित्र होता है। मादा चातक का रंग-रूप सर्वथा पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का १ला श्लोक है। एक समान होता है। १. (१) चातक : तोतक, मेघजीवन, शारंग, चातक वृक्ष पर मनुष्य की दृष्टि से छिपा बैठा स्रोतक, पपीहा पर्यायवाची नाम है। वर्षाकाल में रहता है। वृक्ष से कम उतरता है। चातक की धनपूर्ण नभ को देखकर, बहुत बोलता है । इसके वाणी रसमयी तथा उसमे कई स्वरों का समावेश विषय मे प्रसिद्धि है कि वह नदी, सरोवर आदि का होता है । पिक की बोली से भी अधिक मधुर होती संचित जल नही पीता। केवल मेघ का बरसता है। चैत्र मास से भाद्रपद तक चातक की बोली सुनायी पानी पीता है। एक मत है कि वह केवल स्वाती पडती है। कामोद्दोपक होती है। प्यासा रहकर मर नक्षत्र का वर्षा जलबिन्दु ही ग्रहण करता है। जाना पसन्द करता है परन्तु जीवन रक्षा के लिए अतएव वह मेघ की ओर देखता, उससे जल की संचित पानी का पान नही करता-सूक्ष्मा एव याचना करता है। वर्षा की बूंदें देखकर प्रसन्न हो पतन्ति चातक मुखे द्वित्राः पयो विन्दवः-(भूर्त० : जाता है। कथा है कि बादल उठने पर यह चंचु २:१२१)। इसके इस अटल नियम, मधुर बोली पसारे, मेघ की ओर इस आशा से देखता रहता है पर कवियों ने बहुत कुछ लिखा है। कि कुछ बूंदें उसके मुख में पड़ जाय । पाद-टिप्पणी: देश-भेद से यह कई प्रकार का पाया जाता है। उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५२८वीं उत्तर-भारत में श्यामा पक्षी के बराबर मटमैला या पंक्ति है। हलका काला होता है । दक्षिण-भारत का चातक २. (१) यवन : नट । उत्तर भारत में रस्सी Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैनराजतरंगिणी [१:७:३-५ विंशप्रस्थाभिधे स्थाने कदाचिद् यवनोत्सवे । तं द्रष्टुमगमद् राजा परिवारविभूषितः ॥ ३ ॥ ३. किसी समय विशप्रस्थ' नामक स्थान में यवनोत्सव के अवसर पर, उसे देखने के लिये परिवार विभूषित राजा आया। धनुदण्डशतायामान्तरस्थान् दीर्घरज्जुभिः । उच्चान् स्तम्भानबध्नात् स स्वशिल्पप्रथनोद्यतः ॥ ४ ॥ ४. अपना शिल्प दिखाने के लिये उद्यत, वह सौ धनुर्दण्ड को दूरी पर स्थित, ऊँचे खम्भों को बड़ी रस्सियों से बाँध दिया। अभवन्कलुषास्ते ये नागा रज्जुपुरादिषु । भाविस्वभक्तभूपालदेहानिष्टेक्षणादिव ॥५॥ ५. रज्जुपुर आदि में जो नाग थे, भावी अपने भक्त भूपालों के देह का अनिष्ट देखने से ही, मानों कलुषित हो गये। पर खड़े चलकर, कूद और बैठकर तमाशा करते है। लिथो संस्करण में तनाव वाजान' दिया गया है । नट सभी मुसलमान हो गये है। मुसलिम धर्म ग्रहण एक पाण्डलिपि में 'नतवहहा' दूसरी में 'नतवहा' क्षत्रिया में का दिया गया है। यह संस्कृत शब्द 'नट' का ही जाती थी। उत्तर प्रदेश मे बाँस पर आधारित फारसी रूप है। रस्सियों पर चढकर चलते है। खेल करते हैं। पाद-टिप्पणी : अनेक प्रकार की कसरत करते है । बंगाल मे इस उक्त इलोक कलकत्ता संस्करण की ५२९वी जाति के लोग गाने-बजाने का पेशा करते है । रस्सी पंक्ति है। पर खेल करनेवाला नट हाथ मे डण्डा लिए चलता द्वितीय चरण का पाठ सन्दिग्ध है। है। रस्सी दो बाँसों की कैची बनाकर दोनो तरफ ३. (१) विशप्रस्थ : बहारिस्तान शाही के लगा दी जाती है। उस पर मोटी रस्सी तान दी लेखक ने विशप्रस्थ को श्रीनगर का मैदान ईदगाह जाती है। रस्सी का दोनों सिरा झूटों से बाँध माना है। द्रष्टव्य : १ . ७ : ३; श्री० : ४ : ९७, दिया जाता है। भूमि पर बैठकर, नटिनी या नट १९१.६३८ । ढोल बजाकर गाता है। खेल के सम्बन्ध में बाते (२) यवनोत्सव : सम्भवतः ईद का पर्व था। बताता है, पैसा मांगता है। बिहार, उत्तर प्रदेश पाद-टिप्पणी : . आदि स्थानों पर मेले में इस प्रकार के प्रदर्शन ४. कलकत्ता संस्करण के श्लोक की ५३०वी साधारण बात है। श्रीवर के वर्णन तथा आजकल पंक्ति है। के खेल में कुछ अन्तर नहीं मालूम पड़ता। पाद-टिप्पणी: तवक्काते अकबरी की पाण्डुलिपि में रस्सी पर कलकत्ता के श्लोक की ५३१वी पंक्ति है। चलने वाले को 'रेसमान वाजान' तथा फिरिस्ता के ५. (१) रज्जुपुर : रजोल गाँव । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृतो अथो आरोहमकरोत्र भूभागलग्नैकरज्जुमार्गेण पतत्रीव ६. आकाश में पक्षी के समान निर्भय होकर, वह भूभाग पर लगे एक रस्सी के मार्ग से उस पर, आरोहण किया । निपातास्खलितां तत्र लोकचित्तानुरञ्जकाम् । कवितामिव शिल्पेज्यश्चित्रां पद्गतिं व्यधात् ॥ ७ ॥ १ : ७ : ६-८ j अनीचवर्तिनस्तस्य सुरश्मिराशिगस्यालं ७. वह उस शिल्प युक्त डोरी पर कविता के समान निपात एवं स्खलन रहित लोक चित्तानुरजक, विचित्र पदन्यास किया । ग्रहस्येव ८ ग्रह' के समान अनीचवर्ती तथा आश्चर्यपूर्ण होना अधिक फलप्रद हुआ । पाद-टिप्पणी : ६ कलकत्ता के श्लोक की ५३२वी पंक्ति है । पाद-टिप्पणी. ७. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५३३वी पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का ७व श्लोक है । पाद-टिप्पणी : निर्भयः । नभोन्तरे ॥ ६ ॥ फलप्रदा । बभूवाश्चर्यभूनृणाम् ॥ ८ ॥ सुन्दर रस से राशि गत, उसके लिये लोगों का उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५३४वी पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का ८वॉ श्लोक है । पाठ-बम्बई । १८७ ८. (१) ग्रह : वाराह मिहिर ने केवल ७ ग्रह सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र तथा शनि माना है । इनके अतिरिक्त राहु और केतु, जो एक ही शरीर के शिर तथा धड है, दो और ग्रह मानकर, उनकी संख्या नव बना दी गयी है। नवग्रह की पूजा मागलिक कार्यों के समय होती है। फलित ज्योतिष के अनुसार ग्रहों की संख्या नव ही मानी जाती है । ग्रह, गुरु एवं शुक्र ब्राह्मण है, मंगल क्षत्रिय है, बुध-चन्द्रमा वैश्य तथा राहु और केतु शूद्र ग्रह माने गये है । मंगल एवं सूर्य का रंग लाल, चन्द्रमा एवं शुक्र का श्वेत, गुरु-बुध का पीत, शनि, राहु एवं केतु का काला बताया गया है। शुभ ग्रह की दृष्टि शुभ तथा अशुभ की अशुभ होती है । पूर्ण, त्रिपाद, अर्द्ध एक-एक पाद की दृष्टियाँ होती है । पूर्ण दृष्टि का फल पूर्ण, त्रिपाद का तीन चतुर्थांश, अर्द्ध का आधा तथा एक पाद का चतुर्थाश होता है । ग्रह आकाश-मण्डल के वे तारे है, जो अपने सौर जगत के सूर्य की परिक्रमा करते है । पाप ग्रह या अशुभ ग्रह फलित ज्योतिष के अनुसार - मंगल, शनि, राहु, केतु या सूर्य इनमे से जिनके साथ बुध रहता है । प्रत्येक ग्रहों के तीन स्थान — दक्षिण, उत्तर तथा मध्यम होता है ( वायु० : ३ : १२; ७ : १५; ३०: १४६; ३१ : ३५; ५१ : ८ ५३ : २९-१०९ ) । जैन ग्रन्थो मे ८८ ग्रहों का नाम-निर्देश है । ( २ ) अनीचवर्ती : ग्रहों की नीच और उच्च राशियाँ ज्योतिष में वर्णित है। सूर्य का उच्च मेष, चन्द्रमा का वृप, मंगल का मकर, बुध की कन्या, गुरु का कर्क, शुक्र का मीन और शनि की तुला उच्च राशि है । उच्च राशियों से सप्तम नीच राशियाँ होती हैं, जैसे रवि की तुला नीच राशि है । चन्द्रमा Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैनराजतरगिणी कृत्वा सुखं सुरुचिरं सुचिरं विधाता दुःखं प वर्ष प्रदर्श्य जलदः कृषिकर्ष हेतुं तुं फलं वितनुते करका विकारम् ।। ९ ।। ९. विधाता चिरकाल तक सुख प्रदान कर, जनपद पर असह्य दुःख डाल देता है । जलद कृषि के कर्ष (जोतायी) हेतु वृष्टि करके, पुनः फल हर लेने के लिये, करकापात कर देता है । नरेशे निरुपद्रवे । सौराज्यसुखिते देशे अकस्माद् दुःसहान् जातानुत्पातान् ददृशुर्जनाः ॥ १० ॥ १०. सौराज्य से सुखी इस देश में, जिसमें राजा उपद्रव रहित था, अकस्मात दुःसह उत्पात' को उत्पन्न हुआ लोगों ने देखा । त्यातङ्कागमे अथोत्तरदिशा की वृश्चिक, मंगल का कर्क, बुध का मीन, गुरु का मकर, शुक्र की कन्या और शनि का मेष नीच राशि है । नीच राशि में ग्रह अशुभ फलदायक और उच्च में शुभ फलदायक होते है । अतएव यहाँ पर अनीचवर्तन कहा गया है । जनयत्यसाम् । सेतुर्हेतुः रात्रो सर्वक्ष धूमकेतुरदृश्यत ॥ ११ ॥ ११. रात को उत्तर दिशा में, 'इति' (अतिवृष्टि - अनावृष्टि आदि) के आगमन के लिये सेतु तथा सर्वजन क्षय हेतु धूमकेतु' दिखायी दिया। ( ३ ) राशि राशियाँ बारह है । चन्द्र एवं सूर्य राशिचक्र में चलते है । प्रत्येक राशि का नाम, उस राशि के तारा प्रतिरूप के अनुसार दिया जाता है । सूर्य एक वर्ष अर्थात् बारह मास में राशिचक्र का पथ पूरा करता है । वैविलोन मे १६ राशिया मानी गयी थी । चन्द्रमा की दैनिक गति के अनुसार चीनवालों ने राशिचक्र को २८ राशियों में विभक्त किया था। भारत में चन्द्रपथ २७ नक्षत्रों में विभक्त है । भारतीय मान्यता के अनुसार १२ राशियाँ - मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन, मकर, कुंभ और मीन है । [ १ : ७ : ९-११ * पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का ९वॉ श्लोक है । पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५३६वी पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का १०वाँ श्लोक है । १०. ( १ ) उत्पात : अनहोनी, अशुभ, संकट अनिष्ट सूचक, आकस्मिक घटना, ग्रहण, भूचाल, हलचल, सार्वजनिक संकट आदि की गणना उत्पातों मे होती है। जैन ग्रंथों में उत्पात २६वाँ ग्रह है । पाद-टिप्पणी : उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५३७वी पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का ११वाँ श्लोक है । ११. ( १ ) धूमकेतु: द्रष्टव्य टिप्पणी १ : १ : १७४ । असंख्य केतुओं का वर्णन है । किन्तु समय-समय पर पुच्छल तारा के रूप में रात्रि से उदय होनेवाले केतु को धूमकेतु कहते है । यह धूम्रकेतु एक ही प्रकार का नही होता । पाद-टिप्पणी : ९. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५३५वी कभी बृहद् और कभी लघु रूप में उदय होता Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ १:७: १२-१५] श्रीवरकृता दीर्घपुच्छोच्छलत्कान्तितत्केतुकपटाद् ध्रुवम् । __ कालेन द्रुघणं क्षिप्तं क्षयायेव महीक्षिताम् ॥ १२ ॥ १२ दीर्घ पुच्छ से निकलते, कान्ति रूप उसके केतु पट के व्याज से, निश्चय ही काल' ने राजाओं के विनाश के लिये, मानो द्रुधण' (कुल्हाड़ी) फेक दिया था। मासद्वयं स्फुरन्नासीत् स व्योम्नि विमले सदा । सदये हृदये राज्ञश्चिन्तौघोऽनिष्टशङ्कया ॥ १३ ॥ १३ दो मास तक वह निरन्तर विमल आकाश में तथा अनिष्ट की शंका से चिन्ता का समूह राजा के सदय हृदय में, स्फुरित होता रहा। अदृश्यन्त सदा श्वानो विक्रोशन्तः पुरान्तरे । शुचेव रुदिताक्रन्दा भाविविघ्नेक्षणादिव ॥ १४ ॥ १४ नगर में श्वान भावी विघ्न को देखने के कारण, शोक से सदैव रोदन, क्रन्दन युक्त तथा चीत्कार करते हुए, दिखायी देते थे। एकपक्षेऽभवच्चन्द्रसूर्यग्रहणसंस्थितिः एकपक्षमिवादातुं राज्यं राजविपर्ययात् ।। १५ ॥ १५. राज्य विपर्यय के कारण, एकपक्षीय राज्य ग्रहण करने के लिये ही, मानों एक ही पक्ष में चन्द्र एवं सूर्यग्रहणों की स्थिति हई। है। बहुधा रात्रि के पूर्व या परयाम मे उदय दिखाई पडता रहा। इसके पश्चात् ही राज्य में हुआ करता है। उसके उदय होने से जनक्षय, दुर्व्यवस्था फैल गयी थी और कालान्तर मे सुल्तान राजक्षय ( राज्य परिवर्तन ) होते है । साथ ही का ही देहावसान हो गया। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सप्त इष्टियों का भी भय होता पाद-टिप्पणी : है। धूमकेतु की प्रचुर उपमा संस्कृत साहित्य में १२. ( १ ) काल : यमराज । मिलती है--धूमकेतुमिव किमपि करालम् (गीत०१) (२) दुर्घण · गदा, कुठार, कुल्हाणी तथा कोयस्य नंदकुलं कानन धूमकेतोः ( मुद्रा० : १: ब्रह्मा का एक विशेषण भी है। १०)। पाद-टिप्पणी : फारसी इतिहासकारो ने खुरासान के राजा १५. ( १ ग्रहण : सूर्यग्रहण अमावस्या तथा बाबर के समय सन् १४५६ ई० में धूमकेतु उदय चन्द्रग्रहण सर्वदा पूर्णिमा को लगता है। वर्ष में कम का वर्णन किया है कि उसके पश्चात् ही सन् १४५७ से कम दो तथा अधिक से अधिक ७ बार ग्रहण लगते में सुल्तान दिवंगत हो गया। मुसलमानों मे धूमकेतु है। सूर्यग्रहणों की संख्या चन्द्र ग्रहण से अधिक होती का प्रकट होना अशुभ माना गया है । है। तीन चन्द्र ग्रहण पर चार सूर्यग्रहण लगते है । अकबर के समय नवम्बर मास सन् १५७५ ई० जिस वर्ष दो ही ग्रहण होंगे, उस वर्ष सूर्यग्रहण ही में उत्तर-पूर्व दिशा में सायंकाल दो घंटों तक धूमकेतु होगा। चन्द्रमा जिस समय सूर्य एवं पृथ्वी के मध्य Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी सूर्य संक्रान्तयः क्रूरदिनेष्वाप्तास्तदा भाविक्रूरफलोत्पादसादचिन्तन भीतिदाः १६ उस समय सूर्य की संक्रान्ति क्रूर दिनों में हुयी थी, जिसने प्रजाओं के भविष्य मे क्रूर फल की उत्पत्ति तथा विनाश के चिन्ता का भय उत्पन्न कर दिया । १९० मन्निर्माता क्षयं यास्यत्ययं किमिति दुःखिता । राजधान्यरुदच्छवतलोलूक ध्वनिच्छलात् विशाम् । [ १ : ७ : १६-१९ ।। १६ ।। १७. मेरा यह निर्माता नष्ट हो जायगा, इसी से छत्र के नीचे उलूक' की ध्वनि के व्याज से, राजधानी रो रही थी । आता है तो सूर्यग्रहण लगता है । इसी प्रकार सूर्य एवं चन्द्रमा के मध्य पृथ्वी आती है, तो चन्द्रग्रहण लगता है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार वर्ष - काल के अनुसार भिन्न-भिन्न परिणाम घटित होते हैं । दृष्टोऽम्बरे द्वितीयस्यां सुधांशुस्तत्र तैर्जनैः । उत्तान इव भूपेशमन्यं सूचयितुं विशाम् ।। १८ ।। एक ही पक्ष में चन्द्र एवं सूर्यग्रहण का होना घोर अशुभ है । अकाल, असमय वृष्टि आदि सर्वशोभन नाशन होता है । राहु, चन्द्रमा तथा केतु सूर्य का ग्रास जैन मान्यता के अनुसार करता है । 11 20 11 १८. वहाँ पर लोगों ने द्वितीया को आकाश में, प्रजाओं को अन्य राजा की सूचना देने के लिये ही, मानों उत्तान हुये, चन्द्रमा को देखा । महाघोरमनावृष्टिकृतं पाद-टिप्पणी : १७. ( १ ) उलूक ध्वनि: यह अशुभ मानी जाती है। उल्लू तथा कुत्ता का रोना मृत्यु का सूचक अत्रान्तरे उदभूदन्यदेशेषु १९. अन्य देशों में इसी बीच दुर्भिक्ष' एवं उपद्रवकारी, महाघोर, अनावृष्ट कृत, भय उत्पन्न हुआ । भयम् । दुर्भिक्षोपद्रवावहम् ।। १९ ॥ है। उल्लू दिन में छिपा रहता है। रात्रि में निकलता है। छोटे पक्षियों को पकड़ कर खाता है । जाड़ स्थानों में रहता है । बोली अशुभ एवं भयावनी होती है । घर मे उल्लू का रहना अशुभ माना जाता है । तान्त्रिकगण इसके मांस का प्रयोग उच्चाटन आदि क्रियाओं में करते हैं। सभी देश एवं जातियों में अभक्ष्य माना जाता है । उल्लू बोलने का मुहावरा उजड़ने के अर्थ में प्रयोग किया जाता है । पाद-टिप्पणी : १९. (१) दुर्भिक्ष : सन् १४६९ ई० में मध्येशियन, तुर्किस्तान आदि स्थानों में भयंकर अकाल पड़ा था । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ७ : २०-२५ ] श्रीवरकृता भिक्षुकानन्यदेशीयान् प्रेतरूपानिवागतान् । दृष्ट्वा पृच्छन्नृपस्ते च वार्तां तस्याब्रुवन्निमति ॥ २० ॥ २०. प्रेतरूप आये, अन्य देशीय भिक्षु को देखकर, राजा ने उनसे पूछा और उन्होंने यह बात कही राजन् देशेष्वनेकेषु वृष्टयभावात् समन्ततः । सर्वान्तकृत् काल इव दुष्कालः समुपस्थितः || २१ ॥ २१. 'हे राजन् ! अनेक देशों में वृष्टि के अभाव से, चारों ओर सबका अन्तकारी काल सदृश दुष्काल, उपस्थित हुआ है। दुर्भिक्षेण प्रभवता मणीनां सा महार्घता | नीता नीचेन साधूनामिव सर्वोपयोगिनाम् ।। २२ ।। २२. 'उत्पन्न दुर्भिक्ष ने मणियों की (उस) महार्घता को, उसी प्रकार हर लिया, सर्वोपयोगी साधुओं के महत्व को नीच । भुञ्जते श्वादयोऽन्योन्यं पिशितं तत्तच्छून्यगृहान्तःस्थनिःशेषितशवत्रजाः क्षुदुपद्रुताः । स्पृष्टोच्छिष्टतया दृष्टप्रायश्चित्तादिनिष्ठिताः । क्षुधा द्विजवरा देव प्रयाताः ॥ २३ ॥ २३. 'भूख से पीड़ित कुत्ते आदि शून्य गृह स्थित, शव समूहों को, निःशेष कर, एक दूसरे का मांस खाने लगे । १९१ सर्वभक्ष्यताम् ॥ २४ ॥ कापि विप्रस्त्रियस्तत्तदभक्ष्यान्वीक्षणाक्षमाः । पक्वान्नं सविषं भुक्त्वा स्वमन्यांश्च व्यसून् व्यधुः ।। २५ ।। पाद-टिप्पणी : २०. उक्त श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५४६ वीं पंक्ति तथा बम्बई संस्करण का २०वाँ श्लोक है । २४. 'हे राजन ! स्पर्श एवं जूठन ( उच्छिष्टता) के कारण, जिनको प्रायश्चित्तादि करते देखा गया था, वे द्विजश्रेष्ठ, सर्वभक्षी बन गये । जिस प्रकार २५. कहीं पर तत्तत् भक्ष्य (पदार्थ) को देखने में अक्षम होकर, विप्र स्त्रियाँ ने सविष पका अन्न खाकर, अपनी तथा अन्यों को प्राण रहित कर दिया । पाद-टिप्पणी : २२. पाठ - बम्बई । पाद-टिप्पणी : २३. पाठ - बम्बई । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैनराजतरंगिणी [१:७:२६-२९ अवृष्टया वसतिं त्यक्त्वा गते कापि मृते जने । शून्या केन पुरग्रामा दृष्टा राजन् पदे पदे ॥ २६ ॥ २६. 'अवृष्टि के कारण, मनुष्य बस्ती त्यागकर, कहीं चले जाने पर, अथवा मर जाने पर, हे राजन् ! पद-पद पर, कौन से पुर-ग्राम शून्य नहीं देखे गये। प्रीति स्नेहं च दाक्षिण्यं पत्न्यां पुत्रे पितर्यपि । कुक्षिभरिः क्षुदुत्तप्तो विस्मरत्यवनौ जनः ॥ २७ ॥ २७. 'पृथ्वी पर क्षुधातप्त कुक्षंभरि (पेटू) जन पत्नी के प्रति प्रेम, पुत्र के प्रति स्नेह, पिता के प्रति दाक्षिण्य भाव भूल गये। खुरासानावनीशक्रं विक्रान्त्या शत्रुभूमिगम् । अन्नाभावाद् भवन्मित्रमभिषेणेन निर्गतम् ॥ २८ ॥ २८. 'आपका मित्र एवं खुरासान' भूमि का इन्द्र, जो कि अन्नाभाव के कारण, अभियान हेतु वीरतापूर्वक शत्रुभूमि में चला गया था। मेर्जाऽभोसैदनामानं सुरत्राणं रणान्तरात् । इराकभूपतिर्बद्ध वावधीत् कोटिबलान्वितम् ।। २९ ॥ युग्मम् ॥ २९. 'कोटि शैन्य युक्त, उस मिर्जा अभोसैद' नामक सुलतान को, रण मध्य से बांधकर, इराक के सुलतान ने मार डाला (युग्मम्) । पाद-टिप्पणी। सीमाएँ बदलती रही है। काल के थपेड़ों ने इसमें पाठ-बम्बई। बहुत उलट-पलट किया है। वर्तमान ईराक के तुर्की, २८. (१) खुरासान : शक की काल गणना पश्चिमोत्तर में सीरिया, पश्चिम में सीरिया तथा ठीक है । सन् १४६९ ई० में खुरासान का सुल्तान सऊदी अरब का रेगिस्तान, दक्षिण मे फारस की मर गया। इसी समय हुसन वैकरा ने हेरात पर खाड़ी तथा पूरब मे ईरान है। इस समय यह देश अधिकार कर, अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। त्रिभुजाकार है। उत्तर-दक्षिण ११२५ किलोमीटर, (द्र० जैन० : १:४ ३२; १:६ : २२)। पूरब-पश्चिम ४८० किलोमीटर तथा क्षेत्रफल ४३८, पाद-टिप्पणी: ४४६ वर्ग किलोमीटर है। भारतवर्ष के मध्य २९ (१) अभोसैद : अबूसैद । तुर्कोमन हसन प्रदेश के बराबर है। देश की ढाल उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूरब की ओर है। दजला एवं फुरात मुख्य वेग ने अबूसैद की सेना परास्त कर, उसे जनवरी सन् नदियाँ है, जिनके उपत्यका मे अनेक सभ्यताएँ, १४६९ ई० में मार डाला। साम्राज्य एवं राज्य हुए और मिटे है। वर्ष मे आठ (२) ईराक : प्राचीन सभ्यता का ईराक प्रसिद्ध मास वर्षा नही होती। ग्रीष्म ऋतु में ईराक विश्व केन्द्र रहा है। उत्तरी भाग में असीरिया तथा के सर्वाधिक गरम स्थानों में हो जाता है। वायु दक्षिणी भाग मे वेबलोन की सभ्यता शताब्दियों तक शक एवं आकाश स्वच्छ रहता है। दिन में धूल फलती-फूलती रही है। इस देश की भौगोलिक उड़ती है । रात्रि में लोग बाहर सोते है। दोपहर Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता १९३ है इराक मे पशुपालन कृषि के पश्चात सबसे बड़ा उद्यम है। गायक लगभग एक लाख भैस - भैसा गाय-बैल पचास हजार, भेड़ ५६ लाख, बकरी लगभग २० लाख, घोड़ा लगभग १ लाख ९४ हजार, गधा लगभग साढे पाँच लाख, खच्चर एक लाख है । जनसंख्या सन् १९६० ई० की गणना के अनुसार ६८,०३, १५३ है। शिया मुसलमानों की संख्या अनुपाततः अधिक है । साधारण जनता का मुख्य भोजन रोटी और प्याज है । ग्रामीणों के घर नरकुल तथा मिट्टी के बनते हैं । रोटी में छुहारा का आटा मिला लेते हैं । यहाँ के प्रमुख नगर बगदाद, वसरा, मोसुल, दिवानिया, करबला खानखिन, सयारा, किरकुल, अदबिल, क्येयारात तथा टेलको है । १ : ७ : २९ ] को घरों को ठण्डा रखते है। घरों में तहखाने बनाते है । गरमी मे वही विश्राम करते है । पुराने नगरो की सड़कें काशी की गलियों के समान सकरी है । प्रातःकाल ठण्ड पड़ती है । ओढना ओढ़ने की आवश्यकता प्रतीत होती है । इराक चार भागों में प्राकृतिक दृष्टि से विभा जित किया जा सकता है— उत्तरी-पूर्वी पर्वतीय प्रदेश । ऊपरी इराक, निचला इराक तथा मरुस्थल । पर्वतीय प्रदेश कुर्दिस्तान कहा जाता है। उत्तरी इराक में दजला-फुरात नदियों की उत्तरी द्रोणी है । सिजार की पहाडियाँ है । दक्षिणी इराक दजला, फुरात नदियों की दक्षिणी द्रोणी है । वह फारस की खाड़ी से उत्तर में रमादी स्थान तक फैला है । फरात नदी के पश्चिम मे मरुस्थल है । 1 इराक में तेल का खनिज प्रचुर मात्रा मे है । इसके अतिरिक्त कृषिप्रधान देश है ७० प्रतिशत जनता कृषि करती है । कृषि योग्य भूमि के केवल छठे भाग पर कृषि होती है । दो फसलें होती है । जाड़े की फसल में गेहूँ तथा गर्मी की फसल मे धान, मक्का, तिल आदि की उपज होती है। जो यहाँ खूब होता है । प्रकृति इस उपज के अनुकूल है । खजूर की फसल से काफी विदेशी मुद्रा मिलती है । भारतीय गुजराती लोगों ने यहाँ भी खजूर का व्यापार आरम्भ किया तथा खजूर के खूब बाग लगवाये है । खजूर उत्पादन में ईराक का विश्व मे प्रथम स्थान है। यहाँ विश्व की तीन चौथाई उपज है। छुहारे भी उत्पन्न होते है । उनके बगीचों के चारों ओर कच्ची दिवालों की चहारदिवारी बनायी जाती है। विश्व में ८० प्रतिशत छुहारा का व्यापार इराक से होता है। छुहारा बगदाद तथा बसरा से विदेश भेजा जाता है । खजूर की हरी कली साक बनाने के काम में आती है। छुहारा पीसकर वाटा बनाया जाता है । कपास की भी खेती दिन-प्रतिदिन बड़ती जा रही है। इसका उत्पादन बगदाद के पूर्वोत्तर ढियाला नदी की घाटी है। अन्य फैसलें अंगूर, शहतूत, अंजीर, तम्बाकू, अफीम और फल , रा. २५ 1 करबला के कारण शिया लोगो का तीर्थ स्थान है । वाइबिल वर्णित ईवन उद्यान ईराक में था। यह देश साम्राज्यों की स्मशान भूमि तथा खड़हर है। सुमेर, बावुल असुरी, खल्द सभ्यताओं का यही उदय हुआ था । यहाँ का प्राचीन नगर 'उर' 'नुन्ना' ( तेल अस्मर ) तिनेवे, यहाँ का पुरातन गाथाओं में वर्णित आकाशीय उद्यान विश्व के सप्त आश्चर्यों मे एक माना जाता था । इराक पर यूनानी तत्पश्चात् रोमन, उत्पश्चात् सासानी इरा नियों ने ईराक पर शासन किया था अरबों के आक्रमण ने परिस्थिति बदल दी। उन्होंने कुफा, वसरा तथा बगदाद की स्थापना किया था । हजरत अली ने मुसलिम साम्राज्य की राजधानी कूफा बनाया था | अब्बासी खलीफाओं के समय बगदाद अरब साम्राज्य की राजधानी बन गया । खलीफा हारून रशीद के समय बगदाद की आशातीत उन्नति हुई अन्तिम अब्बासी खलीफा मुसलिम के समय सन् १९५८ ई० में चंगेज खाँ के पोत्र हलाकू खाँ ने बगदाद पर आक्रमण किया । अब्बासी अधिकार सर्वदा के लिए समाप्त हो गया । अब्बासी खलीफाओं के पश्चात् मंगोल, तातार, इरानी, कुर्दो, तुर्कों की प्रतिस्पर्धा का शिकार बना रहा। तत्पश्चात् तुर्की का शासन ईराक पर सन् Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जैनराजतरंगिणी [१:७:३०-३४ तस्य दुर्योधनस्येव बद्धस्य हरणक्षणे । अभूत् संख्यान्तरेऽसंख्यतुरुष्कनृपतिक्षयः ॥ ३० ॥ ____३०. 'दुर्योधन सदृश बँधे, उसके हरण के समय, युद्ध में असख्य तुरुष्कों एवं राजाओं का क्षय हुआ। देशेषद्भूतदुष्कालबलाबलविपर्ययात् । अन्योन्यनृपयुद्धेन विघ्नो देव पदे पदे ।। ३१ ।। ३१. 'हे ! नुप !! देशों में उत्पन्न दुष्काल से, बलाबल विपर्यय के कारण, राजाओं के परस्पर युद्ध से, पद-पद पर विघ्न उपस्थित हो गया। सुखप्रद भवद्देशं श्रुत्वान्नादिसमृद्धिभिः । आगतांस्तत्क्षमापाल रक्षास्मान् विक्षतान् क्षुधा ।। ३२ ।। ३२. 'अतः हे ! राजन् !! अन्न आदि समृद्धि से, आपके देश को सुखप्रद सुनकर, क्षुधा पीड़ित होकर आये, हम लोगों की रक्षा करो।' श्रुत्वेति वार्तामातां तां जानन्निव निजां प्रजाम् । द्रव्यकोटि ददौ राजा तदर्थे करुणाकुलः ॥ ३३ ॥ ३३. अपनी प्रजा सदृश जानते हुये इस प्रकार पीड़ा भरी, उस बात को सुनकर, राजा करुणाकुल होकर, उन्हें कोटि द्रव्य प्रदान किया। अत्रान्तरे स्वयंसिद्धकृतं स्वय्यपुरं महत् । समस्तं वह्निना दग्धं शून्यारण्यमिवाभवत् ॥ ३४ ॥ ३४. इसी बीच स्वयं (युय्य') सिद्ध द्वारा निर्मित, महान सुय्यपुर, अग्नि द्वारा पूर्ण रूपेण दग्ध होकर, शून्य अरण्य सदृश हो गया। १८३१ ई० में हुआ । तुर्को ने ईराक को तीन भागों सन् १९३२ ई० को समाप्त हो गया। स्वतन्त्र राष्ट्र अर्थात् मेप्सल विलायत, बगदाद विलायत, बसरा के रूप मे इराक राष्ट्रसंघ में सम्मिलित हुआ। विलायत तथा वे चौदह कमिश्निरियों में इस समय श्रीवर की काल गणना यहाँ भी ठीक है और बंटे है। प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सेना ने २२ उसे तत्कालीन काश्मीर तथा विदेशों के इतिहास का नवम्बर सन् १९१४ ई० को वसरा और ११ मार्च ज्ञान था। सन् १९१७ ई० को बगदाद विजय कर लिया। पाद-टिप्पणी : युद्ध पश्चात् ईराक ब्रिटिश का प्रभाव क्षेत्र मान ३४. (१) स्वयं-सूय्य : अवन्तिवर्मा का लिया गया। २३ अगस्त सन् १९२१ ई० को कठ- यशस्वी मन्त्री एवं सफल अभियन्ता था। उसने पुतली अमीर फैजल को इराक का सुल्तान घोषित वितस्ता की धारा बान्दी पुर के समीप परिवर्तित कर, कर दिया । इराक पर से ब्रिटिश मेण्डेट ४ अक्तूबर जल प्लावन से कश्मीर की रक्षा किया था। उसके Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता क्रमराज्यस्फुरत्प्राज्यराज्यतन्त्र क्रियाङ्कितम् 1 भूर्ज भाण्डादि तत्रस्थं समस्तं भस्मसादभूत् ।। ३५ ।। ३५. क्रमराज्य (कमराज) के बहुत से राजतन्त्र की कृया (लेख) से युक्त भूर्ज (पत्र) भाण्डादि, जो कि वहाँ थे, वह समस्त भस्मसात हो गया । ग्राह्यो जैनगिरिक्षेत्रे सप्तमांशोऽत्र भाविभिः । १:७ : ३५-३८ ] इति ताम्रमये पट्टे कल्पं यस्यां व्यधान्नृपः ।। ३६ ।। ३६. इस जैनगिरि क्षेत्र में भावी (नृप ) सप्तमांश ग्रहण करे, यह राजा ने ताम्रपट्ट पर, इस प्रकार आदेश लिखाया श्रीमाञ् कृष्टोत्पाट्य जैनोल्लाभदीनो ययाचे स्वन् भूपान् भाविनो जैनगिर्याम् । स्वैर्धर्मयात्र तस्या ग्राह्यः सप्तमांशो भवद्भिः ।। ३७ ।। ३७ 'श्रीमान् जैनुल आबदीन भावी नृपो से याचना करते हैं कि जैनगिर पर मैंने धन से भूमि को सम्पन्न बनाकर, कृषि पूर्ण कर दिया है । आपलोग उसका सातवाँ' अंश ग्रहण करे । जलावतरणं कृत्वा गिरीमुल्लङ्घय सेतुवेर्धनीयः मस्कृतः । पुण्यकेतुर शुभेच्छया ।। ३८ ।। ३८ ' जलावतरण करके तथा पर्वतों को लाँघकर, मेरे द्वारा निर्मित, पुण्य केतु' भूत, यह सेतु शुभकामना से संवर्धित करना ।' कारण वितस्ता सिन्धु संगम नवीन स्थान गया था। उसने सुय्यमेव एवं सुय्यपर का कराया था । स्वयं का अर्थ यहाँ सुय्य है । पर बन निर्माण (२) सुय्यपुर: सुय्य द्वारा स्थापित नगर सोपोर । द्र० : १: ३ : ९१, १०८ १ : ७ : ४३, २०७; ३ : ४३, १८१; ४ : ५६० । पाद-टिप्पणी : ३६. ( १ ) जैनगिर : इस नगर की स्थापना सोपोर के समीप हुई थी ( जोन० : ८१२ ) । यह कमराज का परगना है । यह क्षेत्र सोपुर के उत्तरपश्चिम तथा पोहुर नदी और ऊलर लेक के मध्य है । यव इस परगना की मुख्य उपज है । शुहा के समीप पहाडी के पादमूल में धान की खेती होती है । १९५ ( २ ) ताम्रपत्र तवक्काते० : ३ : ४३६; फिरिश्ता० ३४२ । पाद-टिप्पणी : . ३७. ( १ ) सातवाँ उल्लेख है — कुछ स्थानों पर और कुछ स्थानों पर सात गया ( ४४३ = ६६५ ) । पाद-टिप्पणी तवक्काते अकबरी मे खराज चार मे से एक में से एक निश्चय किया खराज एक प्रकार का लगान या भूमिकर है । यह एक प्रकार का कर है, जो अधीनस्थ राजा अपने से बड़े राजा को देता है । चौथ के अर्थ में भी प्रयोग होता है । . ३८. ( १ ) केतु : यहाँ केतु का अर्थ ग्रह Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जैनराजतरंगिणी [१:७:३९-४४ इत्थं ताम्रमये पट्टे श्रीबकाशीशनिर्मिता । प्रशस्तिरासीत्तां राजधानीवही ररक्ष च ॥ ३९॥ ३९. इस प्रकार श्रीवकाशीष निर्मित प्रशस्ति ताम्रमय पट्टपर अंकित थी। उसकी राजधानी की अग्नि ने रक्षा की। प्रदीप्तः सुकृतोत्कर्ष इवास्यैव महीपतेः । अरक्षद् राजधानी तां मध्यस्थामपि पावकः ॥ ४० ॥ ४०. इस राजा के प्रदीप्त सुकृति के उत्कर्ष सदृश, पावक ने 'अपने' मध्य स्थित, उस राजधानी की रक्षा की। श्रुत्वा दग्धं पुरं राजा शुचा दग्धो विदग्धधीः । अचीकरन्नवं तूर्णं चारु दारुमयैगृहैः ॥ ४१ ॥ ४१ चतुर-बुद्धि राजा पुर को दग्ध हुआ सुनकर, शोक दग्ध हो गया और शीघ्र ही दारुमय ग्रहों से (उसे) सुन्दर एवं नवीन बनवा दिया। राजा वराहमूलीयां राजधानी पुरा कृताम् । आनीय विदधे तत्र राजावासं नवं महत् ॥ ४२ ।। ४२. राजा ने वारहमूला में पूर्व निर्मित राजधानी लाकर, वहाँ एक बड़ा और नवीन नृप आवास निर्मित कराया। तन्त्रायकनृपागारं सेतुमत्तोम्भितं नवम् । ___ क्रमराज्यश्रियो हारं सारं सुय्यपुरं व्यधात् ॥ ४३ ॥ ४३. तन्त्रायक नृपागार से युक्त तथा सेतु एवं अटारी आदि से पूर्ण, क्रमराज्य' लक्ष्मी के हार स्वरूप, श्रेष्ठ सुय्यपुर का नवीनीकरण किया। सेतुमत्तोम्भिते तत्र गृहश्रोणिमणिबजे । राजधानी स्फुरच्छत्रा धत्ते मध्यमणिश्रियम् ॥ ४४ ॥ ४४. अटारियों से पूर्ण, गृहपंक्ति रूपी मणि समूह के मध्य स्फुरित, क्षत्रवाली राजधानी मध्य मणि के समान शोभित हो रही थी। नहीं पताका है। वह सेतु राजा की पुण्य-पताका सन्दिग्ध है । तन्त्र का अर्थ स्पष्ट नहीं है। थी। यह अर्थ अभिप्रेत है। ४३. (१) क्रमराज्य : कमराज . द्रष्टव्य पाद-टिप्पणी : टिप्पणी १:१:४० । श्री दत्त ने सेतु का स्विमिंग अर्थात् झूला पुल (२ ) सुय्यपुर : द्रष्टव्य टिप्पणी १ : ३ : अनुवाद किया है। पद के प्रथम चरण का पाठ ९१ । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ ७:४५-४७ ] श्रीवरकृता मानुष्यकं नववसन्तमिवाप्य हृद्य लोका लता इव लसन्ति नवे वनेऽस्मिन् । तद्वान्धवा रुचिकरा इव पुष्पपूगाः स्थित्वा दिनानि कतिचिच्चतुरं प्रयान्ति ॥ ४५ ॥ ४५ नूतन वसन्त के सदृश मनोहारी, मनुषत्व को प्राप्त कर, नगर में नवीन वन में लता के समान लोग शोभित होते है और मनोरम पूष्प-पुञ्ज सदृश, उसके बन्धुगण, चार दिनों तक रहकर चले जाते हैं। विहगेष्विव जातपक्षपूगः पुरुषेषु प्रभवेत् कुटुम्बवर्गः । सुखगत्युचितोऽपि तत्प्रतिष्ठो न चिरं तिष्ठति कायकष्टदायी ॥ ४६॥ ४६ उत्पन्न पक्ष-पुञ्ज युक्त पक्षी, अन्य पक्षियों के प्रति जिस प्रकार व्यवहार करता है, उसी प्रकार पक्ष आदि से पूर्ण कुटुम्ब वर्ग भी मनुष्यों के प्रति वह पक्षी-सा कुटुम्ब वर्ग सुखपूर्वक गति के योग्य होने पर उठा-सा मनुष्यों के आश्रित होकर, शरीर को कष्ट देनेवाला बनकर, चिरकाल तक उनके आधीन नहीं रहता। अत्रान्तरे दिवं याता सा बोधाखातोनाभिधा । श्रीमत्सैदान्वयोदन्वच्चन्द्रिका नृपतिप्रिया ।। ४७ ॥ ४७. इसी बीच, वह बोधा खातून' नामकी नृपति-प्रिया, स्वर्ग चली गयी, जो कि श्रीमान् सैय्यिद वंश रूप समुद्र की चन्द्रिका थी। पाद-टिप्पणी: (२) सैय्यिद वंश : सैय्यद मुहम्मद वैहकी ४७. ( १ ) बोधा खातून : जैनुल आबदीन के । का वंश । बहारिस्तान शाही (२९ बी०, ३० बी०) व्यक्तिगत कौटुम्बिक जीवन के सन्दर्भ मे बहुत कम के अनुसार बोध खातून की दो लडकियाँ थी। एक जोनराज तथा श्रीवर ने वर्णन किया है। सैय्यिद का व्याह सैय्यद हसन वैहकी तथा दूसरे का पखली के शासक के साथ हुआ था। मुहम्मद वैहकी की कन्या थी। नाम ताज खातून था। श्री मोहिबुल हसन का मत है कि श्रीवर वर्णित सैय्यद लोग कालान्तर में कृषक कार्य करने लगे बोध खातून ही ताज खातून है। उन्होंने बोधा को थे। तथापि गाँवों में आदर की दष्टि से देखे जाते मखदूम का अपभ्रश मानने का अनुमान किया है। थे। बोध खातून को कुछ काश्मीरी लेखक बैहकी अथवा वह 'वोड' का अपभ्रंश है। जिसका अर्थ बेगम मानते है । उसके कब्र पर जो मजारए बहाउबड़ा होता है । सुल्तान का पुकारने का नाम बड़- हीन श्रीनगर मे है : नाम मखदूमा खातून लिखा है। शाह हो गया था, इसी प्रकार बडी रानी होने के वफात-ए-हजरत मखदूम : खातून, कारण उसे भी 'वोड' कहा जाने लगा। कि सल हश्त सद ओ हफ्तद विगूजस्त । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जैन राजतरंगिणी यत्संयोगसुखं प्राप्य सोऽज्ञासीत् सफलं वयः । द्वियोगाद्विदग्धाङ्गः सर्वं शून्यमिवाविदत् ॥ ४८ ॥ ४८. जिसका संयोग सुख प्राप्तकर, वय को सफल जाना था, उसके वियोग से, वह दग्धांगसा होकर, सब कुछ शून्य सदृश जाना । न्यस्तो राजेन्दुना सिन्धुदेशे यो गुणसुन्दरः । स्वत्राणेन सुरत्राणप प्राणाधिकप्रियः ।। ४९ ॥ ४९. स्वरक्षक (अपने लोगों का रक्षक) नृपति चन्द्र ने जिस गुण, सुन्दर एवं प्रणाधिक प्रिय को सिन्धु देश में सुल्तान के पद पर स्थापित किया था श्रीक्यामदेनं सिन्ध्वीशं भागिनेयं सुतोपमम् । राहिमनाम्ना तं हतं [ १ : ७ : ४८–५२ युद्धेऽभृणोन्नृपः ।। ५० ।। ५०. राजा ने उस सुतोपम भगिनी - पुत्र एवं सिन्धु के स्वामी श्री क्यामदेन' को इब्राहीम द्वारा युद्ध में मारा गया सुना । परमाश्वासनोपायः सुखे दुःखे च योऽभवत् । तदा तन्मरणं राजा भुजच्छेदमिवाविदत् ॥ ५१ ॥ ५१. सुख एवं दुःख मे जो परम आश्वासन का उपाय था, उस समय राजा ने उसका मरना 'भुजच्छेद' (हाथ कट जाना) माना । उक्त पद से मृत्यु काल हिजरी ८७० = सन् १४६५ ई० निकलता है। जैनुल आबदीन की मृत्यु के ५ वर्ष पूर्व उसकी मृत्यु हुई थी। संय्यिदों की वैहकी शाखा, वैहक क्षेत्र सब्जवर से सैय्यिद मुहम्मद हमदानी के साथ आयी थी । कालान्तर में सैय्यिद लोग दिल्ली में जाकर आबाद हो गये । मखदूमा खातून उसी वंश के सैय्यद हसन की कन्या थी । ( बहारिस्तान. पाण्डु० : फो० ३७ बी० तथा ४५ बी०; तारीख हसन पाण्डु : २ : ३१० ) । पाद-टिप्पणी : ५०. ( १ ) क्यामदेन : कयामदीन या कायम - दर्यावखानादि नवा | याभून्मन्त्रिसभा लीलामित्रैः समं सर्वा सा ययौ स्मरणीयताम् ।। ५२ ॥ ५२. दर्याव खान' आदि के मरने पर जो नवीन मन्त्रि सभा थी, उन सबकी लीला (विनोद) मित्रों के साथ स्मृति मात्र शेष रह गयी । दीन या इकरामुद्दीन होना चाहिए। जाम निजामुद्दीन ( जामनन्द ) सिन्ध के गद्दी पर सन् १४६१ ई० में बैठा था । सन् १४७२ ई० मे मोहम्मद बेघरा गुजरात ने सिन्ध पर आक्रमण किया था । किन्तु यह समय जैनुल आबदीन सन् १४२०- १४७० ई० की मृत्यु के पश्चात् का है । पाद-टिप्पणी : ५२. (१) दर्यावखान दरया खाँ = दरिया खां । जोनराज ने भी इस व्यक्ति का उल्लेख किया है । द्रष्टव्य जोन० : ९६३ । केवल यहीं उल्लेख मिलता है । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ७ : ५३-५६ ] श्रीवरकृता लसन्मदो विभुप्राप्त कार्योत्पादित सौहृदः । तत्कालं प्रमयं यातो दाता मेरखुशामदः || ५३ ।। ५३. गर्वीला एवं प्रमुख तथा अपने कार्यों से राजा की मित्रता प्राप्त की थी, वह दाता र खुशाद' उसी समय मर गया । दुर्वातमन्वहं शृण्वन्नार्तां जानन्निजां प्रजाम् । स्वसुतान्योन्यवैरेण चिन्तातप्तो नृपोऽभवत् ।। ५४ ।। ५३. प्रतिदिन दुर्वाता (बुरी खबर ) सुनते तथा अपनी प्रजा को पीड़ित जानते हुये, वह राजा अपने पुत्रों के पारस्परिक बैर से चिन्ता तप्त हो गया । अतीतान् बान्धवान् भृत्यान् सखीन् प्राणसमान् स्मरन् । स्वात्मानमविद् राजा यूथभ्रष्टमिव द्विपम् ।। ५५ ।। ५५. प्राण सदृश पुराने बन्धुओं, भृत्यों एवं मित्रों को स्मरण करते हुए, राजा ने अपने को भ्रष्ठ (समूह से बिछुड़ा) गज तुल्य जाना । राजसू नोहज्यखानस्य अत्रान्तरे अस्वास्थ्यमुदभून्नित्यं ५६ इसी बीच राजा का पुत्र हाजी खांन को नित्य अत्यधिक मद्यपान सेवन से रक्त सम्बन्धी रोग' हो गया । तवक्काते अकबरी मे दर्याव खा का उल्लेख मिलता है - उसने अज्ञात कुल एक आदमी जिसका नाम मुल्ला दरया था उसे दरया खा की उपाधि से विभूषित किया । और उसे सब कारभार सौप दिया और स्वयं सुख और आनन्दपूर्वक रहने लगा (४४१ = ६६०-६३१) । १९९ darकाते के दोनों पाण्डुलिपियों में 'वादरया' तथा लीथो संस्करण तवक्काते एवं फिरिश्ता मे 'मुल्ला दरया' लिखा मिलता है । पाद-टिप्पणी : ५३. (१) मीर खुश अहमद जैनुल आबदीन का दरबारी था । इसके विषय मे विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है । केवल यहीं उल्लेख मिलता है । रक्तजम् । मद्यपानातिसेवनात् ॥ ५६ ॥ पाद-टिप्पणी ५६. (१) रक्त संबन्धी रोग तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है—अन्त मे निरन्तर मद्यपान करने के कारण हाजी खा को संग्रहणी की बीमारी हो गयी और प्रशासन मे बडी अस्तव्यस्तता हो गयी (४४४ = ६६९) । फिरिश्ता ने कुछ उलटी बात लिख दिया है । उसका मत है कि हाजी खा को नही बल्कि सुल्तान को संग्रहणी हो गयी थी । सुल्तान हाजी खां के अत्यधिक मद्यपान के कारण नाराज रहता था, सरकारी कामकाज ठप पड़ गया था । कर्नल ब्रिग्गस का मत तवक्काते अकबरी से मिलता है। हाजी खां को संग्रहणी हो गयी थी । कि सुल्तान को । रोजर्स तथा कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ sfusar ने फरिश्ता के मत का अनुकरण किया है । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैनराजतरंगिणी [१:७:५७-६२ शौयौंदार्यनिधेः सूनोरतिप्रियतया तया। राज्यसौख्यलता राजहृदुद्याने फलाचिता ।। ५७ ॥ ५७. सौर्य एव औदार्य के निधि पुत्र की उस अति प्रियता के कारण राजा के हृदय रूपी उद्यान में फलपूर्ण राज्य सौख्य लता उस समय हो गयी। तदाभून्नीरसप्राया तदस्वास्थ्यदवाग्निना। अथानीयान्तिकं दृष्ट्वा सविकारं भृशं कृशम् ॥ ५८ ॥ ५८. उसके आस्वास्थ रूप दवाग्नि से (उस समय) नीरसप्राय हो गयी थी। समीप लाकर रोगग्रस्त एवं अति कृग पुत्र को देखकर स्नेहादित्यव्रवीद् राजा पुत्रं मन्त्रिसभान्तरे । अहो पुत्र फलं लब्धं दोषासक्तेन पानजम् ॥ ५९॥ ५९. मन्त्रि सभा के मध्य राजा ने प्रेमपूर्वक उससे इस प्रकार कह--'हे पुत्र ! दोष में आसक्ति के कारण तुमने पान से उत्पन्न फल प्राप्त किया है-- येनेदशी दशा प्राप्ता चन्द्रेणेव क्षयावहा । स्वार्थापेक्षी हितः कोऽपि भृत्यस्ते नास्ति रक्षकः ॥ ६० ॥ ६०. 'जिससे तुम्हारी चन्द्रमा के समान इस समय क्षयावह दशा हो गयी है। तुम्हारे स्वार्थीपेक्षी कोई हितैषी भी भृत्य तुम्हारा रक्षक नहीं है। पानव्यसनसंसक्तं यस्त्वामुपदिशत्यलम् । कियन्तो वत न भोगाश्चमत्कारकरास्तव ॥ ६१ ॥ ६१. 'जो पान व्यसन में रत तुम्हें उपदेश देता । दुःख है, कौन-से चमत्कारी भोग तुम्हें प्राप्त नहीं हैं। किमेकेन भवान् ग्रस्तो विषयेण पतङ्गवत् । अस्मिज जन्मनि सामग्री येयं प्राप्तान्यदुर्लभा ।। ६२ ॥ ६२. 'आप फतिंगे के समान एक हो विषय में क्यों ग्रस्त हो गये ? इस जन्म में अन्य दुर्लभ जो यह सामग्री प्राप्त हुई है। पाद-टिप्पणी : का तथा बम्बई संस्करण के श्लोक ५८ का प्रथम पद ५७ उक्त श्लोक का प्रथम दो पद मिलकर है । अनुवाद सौकर्य एवं प्रसंग की दृष्टि से श्लोक एक श्लोक कलकत्ता संस्करण की ५८३ वी पंक्ति के पूर्वार्ध-परार्ध को परिवर्तित किया गया है, जिसके तथा बम्बई संस्करण का ५७ वाँ श्लोक बनता है। कार कलकत्ता एवं बम्बई दोनों से कुछ अन्तर इसका तृतीय पद कलकत्ता संस्करण के पंक्ति ४८४ ज्ञात होगा। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता प्राप्ता नैवेदृशी भूयो यदि दुर्व्यसनो भवान् । किं चिरन्तनवृत्तान्तैर्वृष्ण्यादीनां १ : ७ : ६३-६५ ] समीरितैः ॥ ६३ ॥ ६३. यदि आप दुर्व्यसनी रहेंगे तो पुनः यह प्राप्त नहीं होगी । यादवादि' के चिरन्तन वृतान्तों के कहने से क्या लाभ ? मद्येनानुभूपाला दृष्टनष्टा विचार्यताम् । सबलारातिगणतूलसमीरणः ॥ ६४ ॥ तथा ६४. उन बहुत से भूपालों का विचार करो, जिनका मद्य के कारण विनाश हो गया जैसे सबल शत्रु समूह रूप तूल के लिये वायु । मल्लेकजस्रथो योऽभून्मद्राज्याप्तिनिधानभूः । तेनापि दृष्टं दुष्टं प्राङ् नात्याक्षीत् तत् स्ववञ्चकः ।। ६५ ।। २०१ पाद-टिप्पणी : ६३ (१) यादव : महाभारत वर्णित मद्यपान के कारण यादव वंश सहार की ओर सुल्तान ने संकेत किया है । द्रष्टव्य टिप्पणी : १ : २ : ८. पाद-टिप्पणी : ६५. 'मल्लिक जसरथ' जो कि मेरे राज्य प्राप्ति रूप निधान का भूमि था, उस आत्मवंचक ने भी मद्य के दोष को देखकर, भी नहीं छोड़ा था । ६५ ( १ ) जसरथ : ( सन् १३९९ - १४४६ ई० ) खोखर सरदार था । जोनराज ( श्लोक ७३२ ) तथा श्रीवर ने ( १ : ३ : १०७ ) और आइने अकबरी मे अबुल फजल ने सुल्तान जैनुल आबदीन और जसरथ की मित्रता का उल्लेख किया है। जैनुल आबदीन से विदा होकर जसरथ दिल्ली की ओर बढ़ा परन्तु वह बहलोल लोदी से पराजित हो गया । वह लौटकर काश्मीर आया और सुल्तान की फौज की सहायता से पंजाब जीता ( पृ० ४३९ ) । श्रीवर के वर्णन से प्रकट होता है कि जसरथ का देहावसान जैनुल आबदीन के ही समय हो गया था । श्रीवर का वर्णन ठीक है । जैनुल आबदीन की मृत्यु जसरथ के २२ वर्ष पश्चात् सन् १४७० ई० में हुई थी। तारीख मुबारकशाही में अहयाविन अहमद विन अब्दुल्ला सिरहिन्दी काश्मीर के अलीशाह जै. रा. २६ और जसरथ के संघर्ष का उल्लेख करता है । सिकन्दर पिता जैनुल आबदीन ने सूहभट्ट तथा जसरत खोखर को राजा जम्मू को दबाने के लिए भेजा था। उन लोगों ने जम्मू विजय कर, उसे लूटा था । अलीशाह और जैनुल आबदीन संघर्ष काल में जैनुल आबदीन स्वयं सियालकोट जाकर जसरत खोखर की मदद माँगी थी । जसरथ ने सहायता का वचन दिया। अलीशाह उन दिनों काश्मीर का सुल्तान था । जसरत खोखर को दण्ड देने के लिए, जम्मू के राजा के वर्जित करने पर भी, सैनिक अभियान किया । जसरत खोखर से अलीशाह पराजित हो गया ( म्युनिख पाण्डु०. फो० ६८ ए०, ६९ ए०; तवक्काते अकबरी ३ : ४३४; तारीख मुबारक - शाही : पृष्ट १९४ ) । जैनुल आबदीन श्रीनगर पहुँचा । अलीशाह ने अपनी सेना पुनः संघटित किया। जम्मू के राजा की सहायता से कश्मीर उपत्या पर आक्रमण किया। जैनुल आबदीन बारहमूला मार्ग से सैन्य सहित उरी पहुँचा । वहाँ अलीशाह हार गया । आबदीन ने जसरत से मित्रता बनाये रखा। समरकन्द से लौटने पर जसरत ने पंजाब में स्वतंत्र Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैनराजतरंगिणी [१ : ७ : ६६-६८ तस्य पुत्रोऽभवच्छाहिमसोदः प्रमये पितुः । सर्व हारितवान् क्षीवः कुर्वन्नुन्मत्तचेष्टितम् ॥ ६६ ॥ ६६. उसका पुत्र शाहि मसोद' हुआ, जो कि पिता के मरने पर, मदमत्त वह उन्मत्त की तरह चेष्टा करते हुए, सब कुछ हार गया। सप्तप्रकृतिधात्वाढयं तन्मल्लेकपुरं महत् । कुपुत्रव्यसनाद् यातं देहवत् स्मरणीयताम् ।। ६७ ॥ ६७. 'कुपुत्र के व्यसन के कारण सप्त प्रकृति से समृद्ध, वह महा मल्लेकपुर सप्तधातु पूर्ण शरीरवत् नष्ट हो गया। मद्यं यल्लोहितं वर्ण बिभर्ति चषकान्तरे । जाने पानप्रवृत्तानां हृद्रक्तेनैव जायते ॥ ६८ ।। ६८. 'चषक' में मद्य, जो लाल रंग धारण करता है, मानो मद्यपान में प्रवृत्त लोगों के हृदय रक्त से ही रक्त वर्ण होता है । राज्य स्थापित कर लिया। जैनुल आबदीन की सहा- पाद-टिप्पणी : यता से दिल्ली के सैय्यद सुल्तान मुबारकशाह की ला क सय्यद सुल्तान मुबारकशाह की ६७. (१) सप्तधातु : 'रसासृङ मांस मेदोऽदुर्बलता का लाभ उठाकर, समस्त पंजाब जीत स्थि मज्जा शुक्राणि धातवः ।' कही-कही धातुओं की लिया। दिल्ली विजय में असफल रहा । मुबारकशाह संख्या १० दी गयी है। उक्त सातो धातुओं में केश, ने एक सेना, उसे पराजिव करने के लिये भेजी। त्वच एवं स्नाय भी जोड देते है। अमरकोश के जसरत कमजोरी का अनुभव कर, कश्मीर भाग , अनुसार : गया । जैनुल आबदीन की संरक्षता में रहा (म्युनिख : 'श्लेष्मादिरस रक्तादि महाभूतानि तद्गुणाः । पाण्डु० : फो० ६९ ए०; तवक्काते अकबरी ३ : इन्द्रियाण्यश्मविकृतिः शब्दयोनिश्च धातवः ॥' ४३५)। ३ : ३ : ६४। पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी : पाठ-बम्बई। पाठ-बम्बई। ६६. (१) शाह मसूद : जसरथ का पुत्र मसूद ६८. (१) चषक : सुरापात्र = सुरापान पात्र = था। वह उत्तराधिकार नहीं पा सका। मलिक गुलू प्याला = मदिरा पीने का गिलास। जसरथ का उत्तराधिकार (सन् १४४६-१४४७ ई०) (२) मद्य : हाजी खाँ को शराब की बुरी पाया । उसके पश्चात सिकन्दर खां ने (सन् १४- लत लग गयी थी। शराब के कारण ही उसका पैर ४७-१४६६ ई०) उत्तराधिकार प्राप्त किया। फिसल गया और बीमार होकर मर गया । सिकन्दर के पश्चात फिरूज खांन (सन् १४६६- पीर हसन लिखता है-'कुछ अरसा के बाद १४७२ ई०) खोख्खर या गक्खर सरदार था। इस सुल्तान हाजी खाँ की बुरी हरकत के बायस उससे प्रकार देखा जाता है कि मसोद को कभी उत्तरा- निहायत रंजीदा हो गया (पृ० १८५)। द्रष्टव्य धिकार न प्राप्त हआ और न उसने शासन किया । म्यनिख पाण्ट : ७६TO तथा बी० । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ १:७ : ६९-७४] श्रीवरकृता न मद्य नामुना तुल्यः शत्ररस्ति हि देहिनाम् । सेवितो हितकृच्छत्रुमद्य हन्त्यतिसेवितम् ॥ ६९ ॥ ६९. 'शरीरधारियो के लिये इस मद्य के समान कोई शत्रु नहीं है, सेवित शत्रु हितकारी होता है, और अति सेवित मद्य मार डालता है। मैरेयमदमत्ता यां कुर्वन्त्यनुचितां क्रियाम् । उन्मत्तोऽपि न तां कुर्याद् यत् स तस्मात् पलायते ।। ७० ।। ७०. 'सुरा से मदमत्त जन, जो अनुचित कार्य करते हैं, उन्मत्त भी वह नहीं करेगा, क्योंकि वह उससे भागता है। मद्यरूपेण वेतालः प्रविश्य हृदयं क्षणात् । न केषां हरते प्राणान् सहासरुदितक्रियम् ।। ७१ ।। ७१. 'मद्यरूप वेताल हास्य एव रोदन क्रिया युक्त, हृदय में प्रवेश करके, क्षणभर मे किनके प्राणों का हरण नही कर लेता? विषेण वामुना पुत्र पीतेनाप्तेदृशी दशा । पाहि स्वं त्यज सावध मद्यमद्यप्रभृत्यतः ।। ७२ ।। ७२. 'हे ! पुत्र !! विष रूप इसके पान से ऐसी (तुम्हारी) दशा हुई है, अतः अपनी रक्षा करो और आज से दोषपूर्ण इस मद्य को त्याग दो । न चेत् त्यजसि मूढस्त्वं व्यसनापितमानसः । अचिराद् वञ्चितो लक्ष्म्या प्रक्षीणायुभविष्यसि ।। ७३ ॥ ७३. 'यदि व्यसन में लीन मनवाले मूढ तुम नही त्यागते, तो शीघ्र ही लक्ष्मी रहित होकर, क्षीणायु होगे (मर जाओगे)।' श्रुत्वेति राजपुत्रः स स्वपितुः संमता गिरः । त्वदाज्ञां न विना मद्य पिबामीत्युत्तरं व्यधात् ॥ ७४ ।। ७४. इस प्रकार वह राजपुत्र अपने पिता की सम्मत वाणी सुनकर उत्तर दिया--'तुम्हारे आज्ञा के बिना मद्यपान नहीं करूंगा।' अतः जिस सत्र में भूत का प्रवेश हो जाता है पाद-टिप्पणी : वेतालः । शव पर अधिकार कर लेनेवाले भूत की ७१. (१) वेताल : भूतयोनि = पिशाच = संज्ञा वैताल से दी गयी है। वेताल एवं मृत मे प्रेत; जिस शव में भूत का प्रवेश हो जाता है, उसे अन्तर है। वेताल काबू में नहीं आता परन्तु भूत को भी वेताल कहते है-वे वायौतालः प्रतिष्ठा यस्यासौ वश या काबू में किया जा सकता है । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैन राजतरंगिणी युज्झितं क्षीणदर्श मन्दमस्नेहभाजनम् | सुतं दीपमिवैक्ष्याभूद् भूपो मोहतमोहतः ।। ७५ ।। उपदेश गिरः प्रियाः गत भाग्येषु विपदभ्युदये ७५ दीप सदृश, दीप्त रहित, क्षीण दशा (बत्ती) वाले मन्द एवं स्नेह (तैल) रहित पुत्र को देखकर, राजा मोहरूप तम ग्रस्त हो गया । श्रुतौ भवन्ति स्मृता [ १ : ७ : ७५–७८ जन्तुषु । पुनः मयाश्रावि न 'कमित्यरुन्तुदाः ।। ७६ ॥ ७६. गतभाग्य प्राणियों को प्रिय उपदेश सुनने में कष्टप्रद लगती है और विपत्ति के उदयकाल में पुनः स्मरण करने पर, 'मैंने क्यों नहीं सुना ?' इस प्रकार दुःखी होते हैं । पाद-टिप्पणी : ७७ ( १ ) पान : फिरिश्ता लिखता है— सुल्तान को बहुत दुःख हुआ कि पुत्र ने उसकी सलाह पर ध्यान न देकर, उपेक्षा किया तथा मद्यपान और लंपट व्यवहारों से विरत नही हुआ । हाजी खां जो राज्य का सब कार्य देखता था, उसे रक्तस्राव की बीमारी हो गयी। सुल्तान की वृद्धावस्था राज्यकार्य संचालन मे रुकावट डालने लगी ( ४७३ ) । पाद-टिप्पणी : ७८. ( १ ) दिगन्तर : द्रष्टव्य टिप्पणी १ : १ : १३९; १ : ३ : ११३; १ : ४ : ७६; १ : अथ स्वावसथं गत्वा सोऽपिवद् यन्त्रितोऽपि सन् । विषवद्व्यसनान्धानामुपदेशो निरर्थकः ।। ७७ ।। ७७. वह नियन्त्रित होने पर भी अपने आवास में जाकर, (मदिरा) पान' किया, विष सदृश व्यसन से, जो अन्धे हो गये हैं, उनके लिये उपदेश निरर्थक होता है । तावतास्नेहमाशङ्कय आदमखानमानिन्युर्गूढलेखैर्दिगन्तरात् ।। ७८ ।। ७८ मर्यादा रहित मन्त्रियों ने इतने से ही राजा का राजपुत्र पर प्रेम के अभाव की आशंका से गुप्त लेख द्वारा दिगन्तर' से आदम खां को बुलाया । राजपुत्रेऽतिमन्त्रिणः । ७ : ७७ । मोहिबुल हसन का मत है कि आदम खाँ सिन्ध उपत्यका था और वहाँ से वह बाहरी पर्वतों की ओर चला गया था । द्रष्टव्य : १ : ३ : ११४ । ( २ ) बुलाना पीर हसन लिखता है - यह देखकर वाज़ अमीरों ने आदम खाँ को पैगाम भेजकर बुलवा लिया ( पृ० १८५ ) । फिरिश्ता लिखता है - सुल्तान का विचार तथा इन परिस्थिति को देखकर, अमीरों ने गुप्त रूप से आदम खाँ को आने लिए सन्देश भेजा ( ४७३ ) । का अकबरी में उल्लेख है - गुप्तरूप से अमीरों ने आदम खाँ को बुलाया (४४४ = ६७० ) । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:७: ७९-८४] श्रीवरकृता २०५ अनुजागमनत्रासाद् यथा यातोऽग्रजः पुरा । तथाग्रजागमत्रासादनुजो याति देशतः ॥ ७९ ॥ ७९. पहले जिस प्रकार अनुज के आगमन त्रास से, अग्रज चला गया था, उसी प्रकार अग्रज के आगमन त्रास से, अनुज भी देश से जा रहा है। एतत्कलहनिश्चिन्तः प्राग्वत् स्यां निजमण्डले । इति दुद्धया प्रवेशेऽस्य कृतोपेक्षो नपोऽभवत् ।। ८० ।। ८०. 'इसके कलह से निश्चित पूर्ववत् निज मण्डल में रहूँगा', इस विचार से राजा उसके प्रवेश के प्रति उदासीन रहा। हाज्यखानात्मजः श्रुत्वा तं पितृव्यं समागतम् । युयुत्सुः प्राप पर्णोत्सं त्यक्त्वा राजपुरी ततः ।। ८१ ।। ८१. हाज्यि खांन का पुत्र अपने उस (चाचा) पितृव्य (आदम खां) को आया हुआ सुनकर, युद्ध की इच्छा से, राजपुरी त्यागकर, पर्णोत्स पहुंचा। आन्द्रोटकोटमाश्रित्य भ्रातपुत्र पितृव्ययोः । कश्मीरागमनद्वेषादभवद् युद्धमुद्धतम् ।। ८२ ॥ ८२. काश्मीर आगमन के द्वेष के कारण आन्द्रोट' कोट का आश्रय लेकर, चचा-भतीजा में प्रचण्ड युद्ध हुआ। दृष्टं हसनखानस्य क्षमित्वं बलशालिनः । विना पैतामहीमाज्ञां नागाद् देशोत्सुकोऽपि सन् ।। ८३ ॥ ८३. बलशाली हसन खान' की क्षमता देखी गयी, जो कि देश के प्रति उत्सुक होने पर, बिना पितामह की आज्ञा के नहीं गया। अग्रजेऽभ्यन्तरं प्राप्ते द्वारस्थे लक्षिते पितुः। हाज्यखानोऽनुजयुतो युक्त्या साम प्रयुक्तवान् ॥ ८४ ॥ ८४. भीतर पहुंचे, एवं द्वार पर स्थित, अग्रज को पिता के द्वारा देखे जाने पर, अग्रज सहित हाजी खां ने युक्तिपूर्वक साम्य नीति' का प्रयोग किया । पाट-टिप्पणी : यहीं उल्लेख मिलता है। पाठ-बम्बई। पाद-टिप्पणी: ८२. (१) आन्द्रोट कोट : मेरा अनुमान है कि ८३. (१) हसन खा : हाजी खाँ का पुत्र । वह स्थान अन्दरकोट है पूर्व राजतरगिणीकारों ने शाहमीर वंश का दशवाँ सुल्तान था। इसका नाम इसकी संज्ञा अभ्यन्तर कोट दिया है। उसी का राज्य प्राप्त करने पर हसनशाह पड़ गया था। अपभ्रंश अन्दरकोट है। सम्भव है श्रीवर के समय पाद-टिप्पणी : आद्रोट इसकी लौकिक संज्ञा हो गयी होगी। अनु- पद का चतुर्थ चरण सन्दिग्ध है। सन्धान अपेक्षित है। इस रूप में नाम का केवल ८४. (१) साम्यनीति : द्रष्टव्य टिप्पणी : Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:७:८५-८८ दिव्यं मौसुलदेवेन ते कृत्वापि परस्परम् । नात्यजन् हृदयाद् वैरं कायॆमौर्णा इवांशुकाः ॥ ८५॥ - ८५. वे परस्पर मौसुल देव की सपथ लेकर भी, हृदय से बैर को उसी प्रकार नहीं त्याग सके, जिस प्रकार ऊनी वस्त्र कालिमा को। अहो गुहायामेकस्यां प्राप्ता सिंहचतुष्टयी । एतदन्योन्यवैरोत्थो नशोऽयं समुपस्थितः ॥ ८६ ॥ ८६. आश्चर्य है ! एक ही गुफा में चार सिंह प्राप्त हुए, उनके पारस्परिक बैर से उत्पन्न, यह नाश ही उपस्थित हो गया। राज्ञो देशस्य खानानां परिवारस्य मण्डले । सर्वांस्तान् मिलितान् दृष्ट्वा प्रोवाच सकलो जनः ॥ ८७ ।। युग्मम् ॥ ८७. राजा, देश, खानों एवं परिवार के मण्डल में सबों को मिला देखकर, सब लोगों ने कहा । युग्मम् ॥ अत्रान्तरे द्वयोर्द्विष्टं कनिष्ठं श्रेष्ठमात्मजम् ।। विचार्यानीय बहामखानं स विजनेब्रवीत् ॥ ८८॥ ८८. इसी समय दोनों के द्वेषी कनिष्ट पुत्र बहराम खां' को श्रेष्ठ समझकर, उसे निर्जन स्थान में बुलाकर (राजा ने) कहा-- २ : १८६ । पीर हसन लिखता है-कुछ दिनों तक कर दी। बहराम खां ने धूर्ततापूर्वक बैर उत्पन्न तो आदम खाँ को अपने भाई हाजी खाँ से सुलह से करनेवाली, बात कही और दोनों भाइयों को परगुजरी। स्पर शत्रु बना दिया ( ४४४-६७०)। तवक्काते पाद-टिप्पणी: अकबरी की एक पाण्डुलिपि में 'निफाक अमीर' तथा लीथो संस्करण मे 'निफाक' लिखा मिलता है। ८५. (१) मौसुल देव : मुसलिम देवता। अल्ला या खुदा की कसम खाना मुसलमानों में पाद-टिप्पणी : मुख्यतया काश्मीर में प्रचलित है। ८८. ( १ ) बहराम खां : जैनुल आबदीन का . (२) बैर : दोनों भाइयों ने यद्यपि मित्र बने तृतीय पुत्र था। यह कभी सुल्तान नहीं बन सका रहने की शपथ कुरानशरीफ़ लेकर की थी परन्तु था। हसन खां ने इसे बन्दी बनाकर इसको अन्धा दोनों का हृदय साफ नही था। उनके बैर का अन्त बना दिया। यह कारागार में ही मर गया। नहीं हो सका ( म्युनिख : पाण्डु० : ७६ बी०)। वह तीन वर्ष कैद में पड़ा रहा। उसका पुत्र युसुफ तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-इर्षालुओं ने था। वह भी कैद से छूटते ही मार डाला गया । बीच में पड़कर दोनों ( भाइयों ) में शत्रुता उत्पन्न द्र० : १ . १ : ५६; ३ : ८७ । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:७ : ८९-९५] श्रीवरकृता २०७ बहाम ज्येष्ठो भ्रातायं द्विष्टो दुश्चेष्टितैः कृतः । स्मृतपूर्वापकारोऽयं हितो जातु न ते भवेत् ॥ ८९॥ ८९. 'हे ! बहराम !! ज्येष्ठ भ्राता के दुश्चेष्ठाओं के कारण द्वेषी हो गया है, पूर्व के अपकारों को स्मरण करके, यह तुम्हारा कभी हितैषी नही होगा। अन्यं यं सेवसे भक्त्या दुराशाग्रस्तमानसः । स कथं स्वं सुतं त्यक्त्वा कार्ये त्वां समपेक्षते ॥ ९० ॥ ९०. 'दुराशाग्रस्त मनवाले तुम, भक्तिपूर्वक जिस दूसरे की सेवा करते हो, वह अपने पुत्र (हसन) को त्यागकर, कैसे कार्य में तुम्हारी अपेक्षा करेगा। तस्मात् त्वं पैशुनाचारं मा कृथा भाविदुःखदम् । मदेकशरणो भूत्वा कालं नय ततोऽचिरात् ॥ ९१ ॥ ९१. 'इसलिये भविष्य में दुःखप्रद पैशुनता मत करो। केवल मेरे शरण में रहकर, समय बिताओ इससे शीघ्र ही प्राप्स्यन्ति संपदः सर्वा न्यायमार्गस्थितस्य ते । अन्यथा तैलतप्तायाकटाहफरणीनिभः ।। ९२ ॥ ' ९२, 'न्याय मार्ग में स्थित तुम्हें सभी सम्पत्तियाँ प्राप्त होंगी। अन्यथा (हे मूढ़) तैलतप्तपूर्ण लौह कटाह (कड़ाही) फरणी (कलची) सदृश तद्वैरानलमध्यस्थो मुग्ध दग्धो भविष्यसि । श्रुत्वेति स पितुर्वाक्यं मुग्धधीरब्रवीदिदम् ।। ९३ ॥ ९३. 'उसके वैराग्नि मध्य स्थित (तुम) जल जाओगे।' वह मूढ़बुद्धि इस प्रकार पिता का वाक्य सुनकर यह बोला देव मे पितृवत् स्नेहं हाज्यखानः करोत्यलम् । सेव्यः स एव मे भाति तं त्यजे नैव जातुचित् ॥ ९४ ॥ ___९४ 'हे ! देव !! हाजी खाँन मुझ पर, पिता के समान अधिक स्नेह करता है। मुझे वह सेवनीय प्रतीत होता है । उसे कभी नहीं छोड़ेगा। रक्षिष्यति स मां काले कोऽन्योऽस्मादधुना बली । ... श्रुत्वेति भूपः प्रोवाच क्रुद्धस्तं कृतनिश्चयम् ।। ९५ ॥ - ९५. 'वह समय पर मेरी रक्षा करेगा, इस समय दूसरा कौन इससे बली है ?' यह सुनकर, क्रुद्ध होकर, राजा ने निश्चय किये हुए, उससे कहा Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैनराजतरंगिणी [१:७:९६-१०१ हा धिक्त्वां मां परित्यज्य पितान्योऽङ्गीकृतस्त्वया । दृष्टिा विहिता मूढ प्रोल्लङ्घय वचनं मम ॥ ९६ ॥ ९६. 'तुम्हें धिक्कार है, जो कि तुमने मुझे त्यागकर, दूसरे को पिता स्वीकार किया । हे ! मूढ़ !! मेरे वचन का उल्लंघन कर, जो दृष्टि की है तस्या नाशोऽचिरेणैव भविष्यति न संशयः । इत्युक्त्वा प्रतिमुच्यामुं स्वान्तरेवमचिन्तयत् ॥ ९७ ॥ ९७. 'उसका शीघ्र ही नाश होगा। इसमे सन्देह नहीं है।' यह कहकर, उसे त्यागकर इस प्रकार अपने मन में राजा ने सोचा अहो प्रदीप्तान्मत्तोऽमी जाता विसदृशाः सुताः। __ त्रयोऽमी दहनागारादिव हा भस्ममुष्टयः ॥ ९८ ॥ ९८. 'अहो ! दुःख है !! तेजस्वी मुझसे ही ये तीन असमान पुत्र उसी प्रकार पैदा हुए है, जिस प्रकार दहनागार से (उत्पन्न) भश्म मुट्ठियाँ ।। अयोग्या दीप्तिरहिताः काष्ठाः कृष्टावनिष्ठिताः । कदाचिद् विजने राजा सुतानिष्टाविशङ्कितः ॥ ९९ ॥ ९९. जो कि अयोग्य दीप्त रहित, काष्ठ जोती भूमि पर पड़ी रहती है,' (इस प्रकार) राजा ने एकान्त में पुत्रों के अनिष्ट को विशेष आशंका करके अधुना करणीयं किं मयेति व्यक्तमब्रवीत् । तत्समक्षं बुधा येऽपि तत्प्रसङ्गाद् बभाषिरे ।। १०० ॥ १००. 'अब मुझे क्या करना चाहिए' ? यह उसने कहा। उसके समक्ष जो विद्वान थे उन लोगों ने उसके प्रसंग से कहा राजन्नुत्साद्यते देशो राज्यलुब्धैः सुतैस्तव । एकस्यैव निजं राज्यं किं नार्पयसि यो हितः ॥ १०१ ।। १०१. 'हे ! राजन् !! राज्य लोभी तुम्हारे पुत्र देश को नष्ट कर रहे हैं। अतः क्यों नहीं किसी एक हितैषी (पुत्र) को अपना राज्य अर्पित कर देते ?' पाद-टिप्पणी: मामला हवाला तकदीर कर दिया (पीर हसन १०१. (१) राज्य अर्पित : 'बाज़ खैर- पृ० : १८५ )। ख्वाहों ने सुल्तान से अर्ज की कि वह अपने बेटों में तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-'कुछ समय से किसी एक को अपना वलीअहद बनाये। मगर पश्चात् जब सुल्तान वृद्धावस्था के कारण निर्बल सुल्तान ने उनकी नाशाइस्ता हरकात के बमूजिव हो गया और इसके अतिरिक्त रुग्ण रहने लगा तो Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ १:७:१०२-१०५] श्रीवरकृता व्याकुलत्वं विशां येन तव न स्याच्च भूपते । तत्रापि माणिक्यदेवः श्रुत्वासुं प्रबलं श्रिया ॥ १०२ ॥ १०२. 'जिससे कि 'हे ! राजन् !! तुम्हारी एवं प्रजाओं की व्याकुलता न हो, उनमें भी उसे श्री में प्रबल सुनकर, माणिक्यदेव वैरी स्याद्यन देशस्य सर्वनाशोऽचिराद् भवेत् । . इति श्रुत्वाब्रवीत पुत्रस्वभावेक्षणदक्षधीः ॥ १०३ ॥ १०३. 'बैरी होगा जिससे शीघ्र देश का सर्वनाश हो जायेगा' यह सुनकर पुत्रों का स्वभाव जानने में चतुर बुद्धि (राजा ने) कहा-- ज्येष्ठः श्रेष्ठोऽस्ति किंत्वस्य कार्पण्यं येन सेवकाः । न सन्ति तादृशा येषां राज्यं दाव्य मवाप्नुयात् ॥ १०४ ॥ १०४. 'ज्येष्ठ (पुत्र) श्रेष्ठ है, किन्तु उसमें कार्पण्य है अतएव उसके कारण इस प्रकार के सेवक नहीं रहेंगे कि राज्य दृढ़ हो सके । मध्यमोऽतीव दातास्य प्रधु न्नाचलसंनिभम् । धुम्नं चेत् स्याद् व्ययान्नास्य कमात्रोऽवशिष्यते ॥ १०५ ॥ १०५. 'मध्यम अतीव दाता है, इसके पास प्रद्युम्नाचल' सदृश धन हो, तो इसके व्यय से कर्ष मात्र अवशिष्ट नही रहेगा। अमीरों और वजीरों ने संगठित होकर, निवेदन किया पाद-टिप्पणी . कि यदि राज्य को किसी एक शाहजादे को सौप १०४. पद के द्वितीय चरण का पाठ संदिग्ध है। दिया जाय, तो इससे राज्य एवं शासन प्रबन्ध में शान्ति रहेगी (पृ० : ४४४-६७० ।' पाद-टिप्पणो . फिरिश्ता लिखता है--अमीर लोग सुल्तान पर __१०५. (१) प्रद्युम्नाचल . हरि पर्वत = जोर डालने लगे कि वह किसी पुत्र को अपना उत्तरा शारिका पर्वत = प्रद्युम्न गिर = प्रद्युम्न शिखर प्रद्युधिकारी घोषित कर दे ( ४७४)। म्नाद्रि। कैम्ब्रिज हिस्ट्री में 'एवडीकेट' शब्द का प्रयोग २) कर्ष : यह प्राचीन सिक्का अथवा मुद्रा किया गया है। जिसका अर्थ होता है राज्य त्याग । था। इसका तौल लगभग १६ मासा होता देना, सिंहासन से उतर जाना। उल्लेख किया गया था । प्राचीन काल में मासा ५ रत्ती का होता था। है-राजा के मन्त्रियों ने उससे प्रार्थना किया कि इस हिसाब से आजकल तोल दस ही मासा ठहरेगा। वैद्यक मे कही-कहीं २ तोला माना गया है। वह अपने किसी एक पुत्र के पक्ष मे राज्य त्याग दे ( ३ : २८४ )। इसे 'हण' भी कहते थे। यह रजत मुद्रा १६ जै. रा. २७ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैनराजतरंगिणी [१:७:१०६-१०९ कनिष्ठो दुष्टधीः पापनिष्ठोऽस्मादचिरात् । नष्टा स्यात् तत् सुतं श्रेष्ठं जाने कमपि नोचितम् ॥ १०६ ॥ १०६. 'दुष्ट-बुद्धि कनिष्ठ पापनिष्ठ है, इससे शीघ्र ही सभा (दरबार) नष्ट हो जायगी अतएव किसी पुत्र को श्रेष्ठ एवं उपयुक्त नहीं मानता। मया तावत् स्वयं राज्यं कस्मा अपि न दीयते । गते मयि बलं यस्य स प्राप्नोत्विति मे मतम् ॥ १०७ ।। १०७. 'जीवन पर्यन्त मैं स्वयं राज्य' किसो को न दूंगा। मेरे मरने पर, जिसके पास बल हो वह प्राप्त करे, यही मेरा मत है । बहवो न मरिष्यन्ति यदि तन्मम को गुणान् । ज्ञासिष्यति यतः स्थित्या द्वयोर्भेदो हि लभ्यते ।। १०८ ॥ कुलकम् ।। १०८. 'यदि बहुत से मरेंगे नहीं, तो मेरे गुणों को कौन जानेगा, क्योंकि दोनों के ठीक प्रकार से स्थित रहने पर, (उनमें) भेद ही होता है । ध्वान्तं पतेयदि न दिक्षु जनस्य दृष्टि नश्येन चेद्यदि मुषन्ति न तस्कराद्याः । सङ्कोचमेति गुणवान् यदि नाम नासो जानाति यो दिनमणिं परलोकयातम् ॥ १०९॥ १०९. 'यदि दिशाओं में अन्धकार न छा जाय, लोगों की दृष्टि नष्ट न हो जाय, यदि चौरादि चोरी न करें, गुणवान (कमल ?) संकुचित न हो, तो ऐसा कौन होगा, जो सूर्य को परलोक गमन जानेगा? -- कार्षापण के बराबर होता था। यदि कार्षापण ताम्र पाद-टिप्पणी : का होता था, तो अस्सी रत्ती, सुवर्ण का १६ मासा १०७. (१) राज्य : तवक्काते अकबरी में यदि रजत या चाँदी का था तो १८ पण या १२८० उल्लेख है-'सुल्तान ने अपने पुत्रों में से किसी को कौड़ियों के मूल्य का होता था। एकमत से १ पण राज्य के लिए नहीं चुना ( ४४५-६७०)।' की कीमत प्राचीनकाल में ८० कौड़ी होती थी। फ़िरिश्ता लिखता है-'सुल्तान ने ( राज्य ( लीलावती ) रजत कर्षापण का १११६वाँ भाग उत्तराधिकार ) हेतु किसी को नामजद करना तथा मूल्य होता था। कृत्यकल्पतरु व्यवहार काल के अपने जीवित रहते किसी को राज्य देना अस्वीकार अनुसार सुषण का १/४८ भाग हाता था। कर दिया ( ४७४)। स्थानभेद से कर्ष कहीं ८० रत्ती, कही १ कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इण्डिया में लिखा गया तोला और कही १०० या १२० रत्ती तौल माना है-राजा ने मन्त्रियों की सलाह ( राज त्याग) गया है। नहीं माना ( ३ : २८४ )। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ७ : ११०-११३ ] श्रीवरकृता स्ववीर्येणार्जितं राज्यं योजितं स्वधिया मया । कुपुत्रैर्नाशितं सर्वं परस्परविरोधिभिः ।। ११० ।। ११० 'मैने अपने वीर्य से राज्य को अर्जित किया, अपनी बुद्धि से योजित किया, परस्पर विरोधी पुत्रों ने सर्वनाश कर दिया । सप्ताङ्ग धातुसंबद्धं राज्यं देहमिवोर्जितम् । दोषैरिवैतैः पुत्रैर्मे त्रिभिः संदूषतं नु यत् ॥ १११ ॥ १११. 'क्योकि सप्तधातु' सम्बद्ध देह सदृश, संप्तांग अर्जित, राज को त्रिदोषों के समान, मेरे इन तोनों पुत्रों ने सन्दूषित कर दिया है । पाद-टिप्पणी : तत्स्वास्थ्यमासादयितुं शक्ताः पथ्यचिकित्सया । मन्मन्त्रिणोऽगदंकारा न सन्त्यद्यतने क्षणे ॥। ११२ ।। ११२. 'पथ्य' चिकित्सा द्वारा उसे स्वस्थ कराने में मेरे मन्त्री रूप वैद्य, इस समय समर्थ नहीं हैं। भुक्ता भोगाश्चिरं शास्त्रगीतकाव्यविनोदनैः । वयः सफलतां नीतं कार्यं किमपि नास्ति मे ॥ ११३ ॥ २११ ११३. 'शास्त्र', गीत, काव्य, के विनोदपूर्वक चिरकाल तक भोगो का भोग किया, आयु सफल कर लिया, मुझे अब कुछ कार्य नहीं है । १११. ( १ ) सप्त धातु द्रष्टव्य : १ ७ ६६ । (२) सप्तांग राज्य के सात अंग -- १. स्वामी (राजा), २. अमात्य, ३. जनपद, ( राष्ट्र - भूमि-प्रजा), ४. दुर्ग, ५. कोश, ६ दण्ड (सेना), ७. मित्र । कौटिल्य के अनुसार सप्तांग ही राज्य की प्रकृतियाँ है -- स्वाम्यमात्य जनपद दुर्ग कोश दण्ड मित्राणि प्रकृतय: ( ६ : १) । द्रष्टव्य याज्ञवल्क्य : १ : ३५३; मनु० : ९ : २९४ विष्णुधर्मसूत्र ० : ३३३; शान्तिपर्व : ६९ : ६४-६५ मत्स्यपुराण : २२५ : ११, २३९; अग्निपुराण : २३३ : १२; कामन्दक ० १ : १६; ४ : १-२ । (२) त्रिदोष : वात, पित्त एवं कफ़ का एक साथ प्रकुपित हो जाना त्रिदोष माना गया है । इन तीनों के प्रकोप से सन्निपात जैसी प्राणघातक व्याधि उत्पन्न हो जाती है । पाद-टिप्पणी ११२. ( १ ) पथ्य : चिकित्सा का एक अंग है । रोग में खान-पान पर नियन्त्रण एवं चिकित्सा शास्त्रानुसार खान-पान के प्रयोग से तात्पर्य है । रोगी के लिए हितकर वस्तु किंवा आहार है । औषधि से कोई लाभ नही होता यदि रोगी कुपथ्य करता है -- करिके पथ्य विरोध इक रोगी त्यागत प्रान । ( भा० हरिश्चन्द्र ) स्वास्थ्यप्रद स्वास्थ्य वर्धक, कल्याणकारी आहार, किंवा रोगी के अनुकूल खान-पान से तात्पर्य है । उन पदार्थों के समूह से अर्थ हैं, जो किसी रोग में स्वास्थ्य वर्धक या हानिकर माने जाते है । पाद-टिप्पणी : ११३. ( १ ) शास्त्र : यहाँ शास्त्र से अर्थ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैनराजतरंगिणा [१ : ७ : ११४-११८ देशस्य यावत्युत्पत्तिर्नवा तत्रिगुणा मया । संपादिता प्रजास्नेहात् कुल्याकर्षणयुक्तिभिः ।। ११४ ।। ११४. 'प्रजा स्नेहवश नहर लाने की उक्तियों से, देश की जितनी उत्पत्ति थी, उसका तिगुना मैने नया संपन्न कर दिया। सर्वदर्शनरक्षायै पात्राण्यालोच्य सर्वतः । प्रतिपद्य शुभे काले भूनवा धर्मसात्कृता ॥ ११५ ॥ ११५. 'सब दर्शनों की रक्षा के लिये, चारों ओर से उचित पात्रों (विद्वानों) का विचार कर, उन्हें आमन्त्रित करके, शुभमुहूर्त में नवीन भूमि को धर्मार्थ प्रदान किया। सच्छिद्रमधुना राज्यं वदने रदनोपमम् । तुदति प्रत्यहं तस्मात् तत्त्यागेन सुखं मम ।। ११६ ॥ ११६ 'इस समय मुख में दाँत सदृश, राज्य छिद्रपूर्ण हो गया है। प्रतिदिन पीड़ा देता है, इसलिये उसके त्याग से सुख होगा। चौराणामिव दीपोऽहं येषामक्षिगतोऽस्म्यहम् । अचिरान्मद्गुढस्थित्या ते स्युरनुशयादिताः ॥ ११७ ।। ११७. 'चोर के नेत्र में दीपक तुल्य, जिनके नेत्रों में मैं पड़ गया हूँ, वे शीघ्र ही मेरे गुणों की स्थिति हेतु पश्चाताप से पीड़ित होंगे। स्थास्यन्ति न चिरं तेऽपि मद्विष्टा ये सुतादयः । सकलाः प्रलयं यान्ति भुक्त्वा धान्यफलं न किन् ।। ११८ ॥ ११८. 'मेरे द्वेषो जो सुतादि है, वे भी चिरकाल तक स्थित नही रहेंगे, धान्य फल (सपत्ति) का भोगकर, क्या सब लोग नष्ट नही हो जाते? केवल संस्कृत लिखित ग्रन्थ नही किन्तु अरबी एवं फारसी पाद-टिप्पणी : में लिखित ग्रन्थ से भी लगाना चाहिए। सुल्तान ११५. (१) दर्शन : दर्शन का अर्थ यहाँ पर फारसी का लेखक था । संस्कृत जानता था । परन्तु मत-मतान्तर, धर्म एवं सम्प्रदाय लगाना चाहिए उसके संस्कृत की किसी रचना का पता नही चलता। द्र० : २ : ९६, १२८ । शास्त्र का अभिप्राय यदि धर्म ग्रन्थ से लगाया जाय, पाद-टिप्पणी : तो सुल्तान सच्चा मुसलमान था। अपने धर्म पर। ११७. पाठ-बम्बई । दृढ़ रहते, दूसरे धर्म का आदर करता था। हिन्दूमसलमान सभी के धर्म ग्रन्थ किंवा शास्त्र का पाद टप्पणी अध्ययन करता था। ११८. पाठ-बम्बई। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:७:११९-१२३] श्रीवरकृता २१३ युक्त्या निर्याणमेवास्य जीवस्येच्छामि साम्प्रतम् । येन सर्वे भविष्यन्ति पुत्राः पूर्णमनोरथाः ।। ११९ ॥ ११९. 'इस समय युक्ति से इस जीवन के निकल जाने की ही इच्छा करता हूँ, जिससे सब पुत्रों का मनोरथ पूर्ण हो जायगा।' श्रुत्वेत्युक्ति सदुःखस्य नृपतेस्तेऽब्रुवन् पुनः । देवेदं चेन्मतं तत्कि कोशोऽयं रक्ष्यते महान् ॥ १२० ॥ २०. दुःखी राजा के इस कथन को सुनकर, वे पुनः बोले-'हे ! देव !! यदि यही निर्णय है, तो क्यों इस महान कोश को रक्षा कर रहे हो ? परलोकस्य पाथेयं कुरु जीवन् स्वयं व्ययम् । तदाकाब्रवीद्राजा युक्तमुक्तमिदं वचः ॥ १२१ ॥ १२१. 'जीते जो स्वयं व्यय कर, परलोक का पाथेय बना लो।' यह सुनकर, राजा ने कहा—'यह बात आपलोगों ने ठीक कही है।' किंतु शृण्वन्तु मे हेतुं यत् कोशोऽयं धृतो भृतः । मयि प्रमीते मद्राज्यं मत्पुत्रः कोऽपि चेल्लभेत् । मत्संचयेन तृप्तः स प्रजायाः स्वं त्यजिष्यति ॥ १२२ ॥ १२२. 'मेरा वह हेतु सुनिये, जिससे यह पूर्ण कोश धारण किये हूँ। मेरे मरने पर मेरा राज्य यदि कोई मेरा पुत्र प्राप्त करेगा, तो मेरे संचय से तृप्त होकर, प्रजा का धन त्याग देगा? पुत्राधिका प्रजेयं मे रक्षणीया विभाति या । तस्याः पीडां भविष्यन्ती हरिष्ये संचयादतः ।। १२३ ॥ १२३. 'मुझे यह प्रजा पुत्र से अधिक रक्षणीय प्रतीत होती है, अतः इस संचय से उसकी भावी पीड़ा का हरण करूंगा। पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी : पाठ-बम्बई। १२२. पाठ-बम्बई। पाद-टिप्पणी: १२१. (१) स्वयं : राजा ललितादित्य ने १२३. (१) पाठ : श्लोक संख्या १२२ का अपने वंशजों तथा देशवासियों के लिए वसीयत लिखा तृतीय तथा १२३ का दोनों पद मिलकर कलकत्ता था। श्रीवर ने उसी शैली का यहाँ अनुकरण किया । की पंक्ति ६४८ का पूर्ण दो पद और पंक्ति ६४९ है ( रा०:४ : ३४१-३६३ ) । का एक पद से तीन पदीय श्लोक बनता है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ पूर्णो तृप्तो जैन राजतरंगिणी विलासान् रिक्तः मृगेन्द्रो १२५. 'मेरे संग्रह के गर्हणा ( निन्दा नहीं करेंगे । रमते र्भुङ्क्ते क्षुधातों वनजन्तुवर्गम् || १२४ ॥ १२४. 'राजा पूर्ण होने पर, विलास करता है, रिक्त होने पर, प्रजा पीड़न करता है, तृप्त सिंह गुहा में रमता है, और क्षुधार्थ (सिंह) बन के जन्तु वर्ग को खाता है । कुरुते प्रजेशो प्रजापीडनमातनोति । गुहान्त मत्संचयोपकारेण भाविभिः पीडनोज्झितैः । आयतिज्ञ वदद्भिर्मां करिष्यन्ते न गर्हणाः ॥ १२५ ॥ [ १ : ७ : १२४-१२८ उपकार से, भावी पीड़ा रहित जन, उत्तरकाल के ज्ञाता, मेरी पूर्णाद्राजगृहादन्ये पूर्णाः स्युरुपकारकाः । नयन्त्यब्धेर्न चेत्तोयं भूमौ वर्षन्ति किं घनाः ॥ १२६ ।। १२६. 'पूर्ण राजगृह से अन्य उपकारी पूर्ण होएँ, यदि घन समुद्र से जल न ले जाते, तो भूमि पर क्या बरसते ? इयं या सामग्री भवति नृपतेः सर्वरुचिरा धनेनैकेनैव प्रभवति चिरं सा प्रभवता । फलं पत्रं पुष्पं समुदयति यद्यद्विटपिनो पाद-टिप्पणी : १२४. 'गुहान्तर' पाठ - बम्बई । पाद-टिप्पणी : १२७. 'समुदयति' पाठ - बम्बई । घरण्यन्तर्भूतो जनयति तदेको रसगुणः || १२७ ।। १२७. 'सर्वरुचिकर राजा को, जो सामग्री होती है, वह चिरकाल से उत्पन्न होनेवाले केवल धन के द्वारा होती है । वृक्ष से फल, पत्र, पुष्प, जो कुछ निकलता है, वह सब पृथ्वी के अन्दर रहनेवाला रसगुण ही करता है ।' सुदीर्घदर्शिनो वाक्यं श्रुत्वेति आसंस्तच्चोद्यकर्तारस्तदग्रे ते १२८. इस प्रकार, दीर्घदर्शी राजा का वाक्य सुनकर उसकी प्रेरणा से कार्य करनेवाले, वे सब मन्त्री, उसके समक्ष निरुत्तर हो गये । पृथिवीपतेः । निरुत्तराः ॥ १२८ ॥ पाद-टिप्पणी : १२८. 'सु' पाठ - बम्बई । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:७ : १२९-१३३ ] श्रीवरकृता राजवेश्मनि पयोनिधौ च या वाहिनीभृति पदार्थपूर्णता। जीवनाप्तजनयाचकाचिता सैव तस्य सुषमा समाहिता ॥ १२९ ॥ १२९. वाहिनी (सेना) या नदियों से पूर्ण राज्य गृह एवं समुद्र में पदार्थो की जो पूर्णता होती है, याचकजन आकर, अपने जीवन के लिये, जिसकी याचना करते है, वही उसकी सुस्थिर शोभा है। यद्यदुक्तं नरेन्द्रेण स्मृत्वा तत्तत् फलेक्षणात् । न कः शंसति शोकार्तस्तदीयां दीर्घदर्शिताम् ॥ १३० ॥ १३०. राजा ने जो जो कहा, फल देखने से, उसका उसका स्मरण करके, कौन शोकार्थ होकर, उसके दीर्घदर्शिता की प्रशंसा नहीं की ? सचिवाः सेवकाः पुत्रमित्रसंबन्धिबान्धवाः । दुःखापनोदं कुर्वाणाः केपि नासन् महीभुजे ॥ १३१ ।। १३१. सचिव, सेवक, पुत्र, मित्र, संबन्धी, बान्धवगण, कौन-से लोग राजा का दुःख दूर करने का उपाय नहीं कर रहे थे ? राजा गर्भगृहान्तःस्थः शृण्वन् पुत्रस्थिति मिथः । कृतकप्रेमवैराढ्यां न बहिर्निरयाद्भिया ॥ १३२ ।। १३२. राजा गर्भगृह (केन्द्रीय गृह) में स्थिर रहकर, कृत्रिम प्रेम से एवं वैर सबृद्ध युक्त पुत्र की स्थिति सुनते हुए, भय से बाहर नही निकलता था। संसारदुःखशान्त्यर्थं मत्तो व्याख्यानवेदिनः। अशृणोद् गणरात्रं स श्रीमोक्षोपायसंहिताम् ॥ १३३ ॥ १३३. व्याख्यानवेत्ता मुझ' (श्रीवर) से, संसार दुःख की शान्ति के लिये, अनेक रात्रियों में, श्री मोक्षोपाय संहिता सुनी। पाद-टिप्पणी : है। राजा को वह योगवाशिष्ठ रामायण सुनाता १३२. (१) गर्भगृह : अन्तःपुर। घर के था, इसका उल्लेख उसने १ : ५ : ८०, गीतगोविन्द भीतर का कमरा या घर का मध्य भाग। मन्दिर सुनाने एवं गाने का उल्लेख १: ५ : १०० तथा का वह कक्ष जिसमे देव प्रतिमा रहती है। मोक्षोपम उपाय सुनाने का उल्लेख १:७: १३९ पाद-टिप्पणी: में करता है। १३३. (१) मुझ : श्रीवर स्थान-स्थान पर (२) मोक्षोपाय संहिता : विभिन्न दर्शन सुल्तान से अपने सन्निकट होने का उल्लेख कैरता सम्बन्धी ग्रन्थों से यहाँ तात्पर्य है। जिनमें मोक्ष Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैनराजतरंगिणी [१:७:१३४-१३८ स्वकण्ठस्वरभङ्गयाहं तवृत्तपरिवर्तनैः।। व्याख्यामकरवं येन निःशोकोऽभूत् क्षणं नृपः ।। १३४ ॥ १३४. मैंने अपने कण्ठस्वर की भंगिमा से, उसका वृत्त परिवर्तन करके, व्याख्या किया, जिससे राजा क्षणभर के लिये शोकरहित हो गया। भ्रमस्य जाग्रतस्तस्य जातस्याकाशवर्णवत । अपुनः स्मरणं साधोमेन्ये विस्मरणं वरम् ॥ १३५ ॥ १३५. 'आकाश वर्ण सदृश, जाग्रत सज्जन व्यक्ति का, आकाश वर्ण सदृश, उस भ्रम (माया) का, पुनः स्मरण न करना तथा विस्मरण कर जाना श्रेष्ठ है। दीर्घस्वप्नोपमं विद्धि दीर्घ वा प्रियदर्शनम् । दोघं वापि मनोराज्यं संसारं रघुनन्दन ।। १३६ ।। १३६. 'हे ! रघुनन्दन' !! संसार को दीर्घकालिक स्वप्न सदृश अथवा दीर्घकाल का प्रियदर्शन अथवा दीर्घकालिक मनोराज्य जानिये । यदि जन्म जरा मरणं न भवेद् यदि वेष्टवियोगभयं न भवेत् । यदि सर्वमनित्यमिदं न भवे दिह जन्मनि कस्य रतिर्न भवेत् ॥ १३७ ॥ १३७. 'यदि जन्म, जरा, मरण न हो, अथवा, यदि इष्ट वियोग न हो, यदि वह सब अनित्य न हो, तो इस जन्म में किसको रति नही होती ? यतो यतो निवर्तेत ततस्ततो विमुच्यते । निवर्तनाद्धि सर्वतो न वेत्ति सुखमण्वपि ॥ १३८ ॥ १३८. 'जैसे-जैसे नृवृत्त ( निवर्तित ) होता है, वैसे-वैसे मुक्त होता है। चारो ओर से निवृत्त हो जाने से, अणुमात्र सुख का अनुभव नहीं करता।' प्राप्ति के उपायों का वर्णन लिखा रहता है। समाधान किया गया है। श्रीवर ने वही शैली यहाँ द्रष्टव्य : १ : ७ : १३९; २ : २१५ । अपनायी है। इससे प्रकट होता है कि श्रीवर जैनुल पाद-टिप्पणी: आबदीन को योगवाशिष्ठ रामायण सुना रहा था। १३४. 'तद' पाठ-बम्बई । दूसरा इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि जैनुल पाद-टिप्पणी : आबदीन को अवतार श्रीवर मानता था, अतएव १३६. ( १ ) रघुनन्दन : योगवाशिष्ठ रामा- उसने उसके लिए रघुनन्दन सम्बोधन का प्रयोग यण में रघुनन्दन सम्बोधन से राम की शंका का किया है। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ १:७ : १३७-१४३ ] श्रीवरकृता मद्वयाख्याश्रवणाभ्यस्तान् स्वावस्थासूचकान् बहून् । इत्यादिकान् स्वयं श्लोकानपठत् स महीपतिः ॥ १३९ ॥ १३९. वह राजा मेरी व्याख्या सुनने से, स्मृत तथा अपने अवस्था के सूचक, इस प्रकार के बहुत से श्लोकों को स्वयं पढ़ा। मोक्षोपाये श्रुते मत्तस्तत्तत्पद्यार्थभावनात् । अर्थकदाब्रवीद् राजा विबुधानन्तिकस्थितान् ॥ १४० ॥ १४०. मुझसे मोक्षोपाय' सुनने पर, तत् तत् पदार्थों की भावना करके, राजा ने समीपस्थ विद्वानों से कहा किमर्थं स्वसुतस्नेहं करोष्येको न तेहितः । इत्येव वक्ति मे नूनं कर्णोपान्तागतो जनः ॥ १४१ ॥ १४१. 'किस लिये अपने पुत्रों पर प्रेम कर रहे हो ? उनमें एक भी तुम्हारा हितैषी नहीं है-?' इस प्रकार कर्ण ( कान ) के समीप आगतजन मानो मुझसे कह रहे हैं। अस्थि दन्तादिभिर्भक्त्वा मांसं मांसेन भुज्यते । रक्तबीजमये भोगे भ्रमोऽयं न व्यपैति मे ॥ १४२ ॥ १४२. 'दाँतों आदि से अस्थि (हड्डी) तोड़कर, मांस से मांस खाया जाता है। रक्त, बीजमय भोग में मेरा यह भ्रम दूर नहीं हो रहा है। अहो मयि मृदौ सर्वसुखदे छिद्रकारिणः । नाशायामी सुता जाता राङ्को क्रिमयो यथा ॥ १४३ ॥ १४३. 'आश्चर्य है ! कोमल एवं सर्वसुखद मुझमें छिद्रकारी, ये पुत्र नाश के लिये, उसी प्रकार उत्पन्न हो गये हैं, जिस प्रकार रांकव' में कृमि उत्पन्न हो जाता है । पाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी : १४०. (१) मोक्षोपाय : द्रष्टव्य टिप्पणी भक्त्वा = पाठ-बम्बई। श्लोक १ : ७ : १३२ । श्री दत्त ने रांक का अर्थ ऊनी वस्त्र लगाया है। १४३. (१) रांकव : रांकव का अर्थ कम्बल पाद-टिप्पणी: भी होता है । ऊनी वस्त्रों, शाल, कम्बल, गलीचा १४१. (१) जन : जन के स्थान पर जरा आदि को कृमि काट कर नष्ट कर देती है। आधुशब्द रखना और अच्छा होगा। किन्तु इसका कोई निक अनुसन्धानों के कारण मोथप्रफ कम्बलादि बनने आधार नहीं मिल रहा है। इस स्थिति में अर्थ लगे है, जिनमे कीटाणु नहीं लगते।। होगा-आगत जरा ( वृद्धावस्था ) मानो मुझसे कह रांकब कम्बल रंकु जाति के हरिण के ऊन से रही है। श्री दत्त ने जरा या जन के स्थान पर बनता है। विक्रमांकदेवचरित मे विल्हण ने इसका 'कोई' 'संभवन' भावानुवाद किया है। उल्लेख किया है ( १८ : ३१) जै. रा. २८ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैनराजतरंगिणी [१:७:१४४-१४७ यैः समं स्ववयो । तेऽवशिष्टा न केचन । आजीवनं चलत्येषा तद्वियोगविषव्यथा ॥ १४४ ॥ १४४. 'जिन लोगों के साथ अपनी आयु व्यतीत किया, वे कोई नहीं बचे हुए हैं, उनके वियोग की विष व्यथा आजीवन चल रही है देहोटजमिदं जीणं केशवणगणावृतम् । सच्छिद्रं रोचते नाद्य दुर्दिने मन्मनोमुनेः ।। १४५ ॥ १४५. 'देहरूप यह कुटीर, जो कि केशरूप तृणों से आच्छादित है, जीर्ण एवं छिद्रयुक्त हो गयी है । मनरूप मुनि को यह रुचिकर नहीं लग रहा है।' भुजगैरिव दष्टानि राज्याङ्गानि सुतैर्मम । तत्यागोपाय एवैको युक्तो मे नान्यथा सुखम् ।। १४६ ॥ १४६. 'सों के समान मेरे पुत्रों ने राज्यांग को डस लिया है। उनका त्याग ही एक मात्र उचित उपाय है, अन्यथा मुझे सुख नहीं।' इत्यादि चिन्तयन् राजा पारसीभाषया व्यधात् । काव्यं शीकायताख्यं स सर्वगर्हार्थचर्वणम् ।। १४७ ॥ १४७. इस प्रकार सोचते हुए, राजा ने फारसी भाषा में सर्वलोगों के निन्दारूप अर्थ को प्रकट करनेवाला 'शिकायत" नामक काव्य लिखा । पाद-टिप्पणी: समझता और बोलता था ( म्युनिख : पाण्डु० : ७३ १४५. उक्त श्लोक का कई प्रकार से अनुवाद ए०; तवक्काते अकबरी : ४३९ = ६५९ । हो सकता है परन्तु मुझे यही अनुवाद ठीक लगता ___वह विद्वानों का इतना आदर करता था ठीक है। कि किसी पर नाराज होने पर, उसे देश से निर्वासित करने पर भी पुनः बुला लेता था। मुल्ला अहमद पाद-टिप्पणी: निष्काशित कर दिया गया था। वह पखली पहुँचा। वहाँ से चार कविता लिखकर, सुल्तान के १४७. (१) शिकायत : अरबी शब्द है। उपालम्भ या उलहना से यहाँ अर्थ अभिप्रेत है। ' पास भेजा। सुल्तान इतना प्रसन्न हुआ कि उसे पुनः काश्मीर में बुला लिया (हैदर मल्लिक : योगवाशिष्ठ के आधार पर सुल्तान ने शिकायत पाण्डु० : ११७ बी०, ११८ ए०)। शीर्षक ग्रन्थ फारसी में लिखा था। जैनुल आबदीन ने दो ग्रन्थ फारसी में लिखा जैनुल आबदीन केवल विद्वानों का आदर ही था। पहला आतिशबाजी के ऊपर था। उसका नही करता था, वह स्वयं विद्वान था। वह काश्मीरी, नाम नहीं मालूम है। दूसरे ग्रन्थ का शीर्षक हिन्दी, संस्कृत, फारसी तथा तिब्बती भाषा जानता 'शिकायत' था। सुल्तान ने फारसी मे कुछ पद्यों था। वह संस्कृत में गीत भी गाता था। संस्कृत की भी रचना की थी। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:७:१४८-१५४] श्रीवरकृता २१९ राज्ञो धात्रेयपुत्राद्याः प्रमेयैरपि सत्कृताः । भूपपक्षं परित्यज्य हाज्यखानमुपागमन् ॥ १४८ ।। १४८. राजा ने धात्री-पुत्रादि तथा विश्वस्त जन, राजा का पक्ष त्याग कर, हाज्यिखान के पास चले गये। किमन्यद् व्यक्तमेवादि ये दृष्टा नृपसन्निधौ । अलक्ष्यन्त निशि स्वैरं ते खानाग्रे गतत्रपाः ॥ १४९ ।। १४९. अधिक क्या कहा जाय, दिन में जो लोग सुस्पष्ट रूप से राजा के समीप देखे गये, वे निर्लज्ज स्वेच्छापूर्वक रात्रि में खान के समक्ष दिखायी दिये। ताटस्थ्येन स्थिते राज्ञि तभृत्यानां परस्परम् । तत्तदाक्षेपतो देशे कोऽप्यजृम्भत विप्लवः ।। १५० ॥ १५० तटस्थतापूर्वक राजा के स्थित रहने पर, उसके भृत्यों के परस्पर तत्-तत् आक्षेप करने के कारण, देश में कोई विचित्र विप्लव खड़ा हो गया। भविष्यन्निव साम्राज्यस्यार्धभागी न कस्तदा। तत्पुढेष्वनुरक्तोऽभून्न तु राजिसुखस्थिते ॥ १५१ ॥ १५१. उस समय अर्ध साम्राज्य के भागीय होने के सदृश, कौन उसके पुत्रों में अनुरक्त तथा कौन सुखस्थ राजा से विरक्त नही हुआ ? इत्थं स्वभृत्यसंचारदुराचारविचारणात् । परिवारान्निजात् सर्वान्निर्विण्णोऽभून्महीपतिः ।। १५२ ॥ १५२. इस प्रकार राजा अपने भृत्यों के संचार समस्त दुराचार को विचार कर, अपने परिवार से खिन्न हो गया। अद्य ये स्वान्तिके दृष्टाः प्रातः खानान्तिके श्रुताः। दाढयं कुत्रापि नो प्रापुः सारसा इव सेवकाः ॥ १५३ ॥ १५३. आज जो अपने पास दिखायी दिये, प्रायः खान के समीप सुने गये, इस प्रकार सारस सदृश सेवक, कहीं भी स्थिर नहीं हुये। हृद्दो वर्ण्यते यस्मै तादृगाश्वासभाजनम् । तत्कालं सेवको भक्तो दृष्टः कोऽपि न भूभुजा ॥ १५४ ॥ १५४. हृदय रोग का जिससे वर्णन किया जाता, ऐसा आश्वासन देनेवाला, कोई भक्त सेवक, उस समय राजा को नहीं दिखायी दिया। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैन राजतरंगिणी यन्नोक्तं यच्च नो दृष्टं यच्छ्रतं वा कदाचन । निर्यन्त्रणो जनः प्रोचे प्रत्यहं राजमन्दिरे ।। १५५ ।। १५५. 'जैसा कभी कहा नहीं गया, देखा अथवा सुना नहीं गया, - इस प्रकार अनियन्त्रित जन राजमन्दिर में कहते थे । / स्वभ्रातृकल हैकाग्रस्तत्तत्यैशुन्यकर्मणा बहामखानोऽनर्थानां कर्णो मूलमिवाभवत् ।। १५६ ।। १५६. तत् तत् पैशून पूर्ण कार्य से, अपने भाइयों के कलह से, एकाग्र बहराम खान कर्ण' के समान, अनर्थों का मूल था । स्निग्धोऽयमित्यवगते यदि काष्ठखण्डे दत्तप्रदीपपदवीपरिदीपिताशे किं स ज्वलन्नपि करोति चिरं प्रकाशं [१ : ६ : १५५-१५८ दोपं न कं वितनुते निजकज्जलौघैः ।। १५७ ।। १५७. स्निग्ध है, यह ज्ञात होने पर, काष्ठ खण्ड को दीपक की पदवी देकर, दिशाओं के प्रकाशित किये जाने पर, क्या वह जलने पर ही अधिक प्रकाश करता है ? और अपने कज्जल पुंजों से कौन-सा दोष नही फैलाता ? प्राप्तस्त्राणाय राज्ञेोऽसावित्याशा यन्निवेशिता । वित्राणोऽप्यात्मरक्षणे || १५८ ।। अभूदादमखानः स १५८. 'राजा की रक्षा के लिये वह आया है' - इस प्रकार की जो आशा हुई, वह रक्षारहित, आदम खान आत्मरक्षा में भी समर्थ नहीं हुआ J पाद-टिप्पणी : १५६. ( १ ) कर्ण : महारथी कर्ण की तुलना श्रीवर बहराम खाँ से करता है । कर्ण यद्यपि दानी था परन्तु महाभारत में उसका जो चरित्र चित्रण किया गया है, उससे प्रकट होता है कि दुर्योधन को एकमात्र कर्ण की वीरता तथा निष्ठा पर ही गर्व था । कण की वीरता को अपनी शक्ति मानकर दुर्योधन ने सबकी उपेक्षा की थी । कर्ण यदि न होता, तो उनके अनर्थों का सृजनकारक दुर्योधन शायद अपने कार्यो से विरत ही रहता । महाभारत युद्ध मे भी भीष्म, द्रोणाचार्य आदि कौरवों की ओर से लड़ते हुए भी सहानुभूति पाण्डवों से रखते थे । परन्तु कर्ण ठोस पत्थर की दीवाल की तरह अडिग दुर्योधन के साथ अन्त तक खड़ा रहा। द्र० : १:१: १६६, १७ : १४० । पाद-टिप्पणी : १५७. 'दत्त': पाठ - बम्बई । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:७ : १५९-१६३ ] श्रीवरकृता २२१ भ्रात्रा समं जिघांसुर्मा बहामो द्वैधनिष्ठरः । अहमेकोऽबलस्तन्मे गतिः कान्या त्वया विना ॥ १५९ ।। १५९. 'भाई के साथ द्वेध निष्ठुर, बहराम खां मुझे मार डालना चाहता है। मैं अकेला एवं निर्बल हूँ, इसलिये तुम्हारे (राजा) बिना मेरे लिये कौन दूसरी गति है ? नास्त्यस्मान्मे स्वजीवाशा तत् स्वात्मा रक्ष्यतां विभो । त्वयि जीवति राज्यस्थे भयं मम न विद्यते ॥ १६० ॥ १६०. 'इससे अपने जीवन की आशा नही है। अतः हे ! स्वामी !! अपनी रक्षा कीजिये, तुम्हारे राज्य पर स्थित रहकर, जीवित रहते मुझे भय नहीं है। कुर्वन्त्यन्ये तदास्कन्दमद्यान्योन्यरणोद्यताः । इत्यादिवाः शृण्वन् स बभूव भयविह्वलः ॥ १६१ ।। १६१. 'आज एक दूसरे को लड़ाने के लिये उद्यत, अन्य लोग आक्रमण कर रहे हैं।' इस प्रकार का समाचार सुनकर, वह भयभीत हो गया । इत्थमादमखानेन कदाचिज्ज्ञापितो नृपः । ऊचे तं नास्ति मे लोभी राज्ये वा निजजीविते ॥ १६२ ॥ १६२. इसी समय इस प्रकार आदम खांन के कहने पर, राजा ने उससे कहा-'राज्य अथवा अपने प्राण के रहने से मुझे लोभ नहीं है। गच्छ कापुरुषाव स्वं विघ्नार्थ किमिहागतः । इत्थं निर्भत्सितः पित्रा कुमदीनपुरीं गतः । अनुजास्कन्दभीतोऽभूत् स्वरक्षणकृतक्षणः ।। १६३ ॥ १६३. ' हे ! कायर पुरुष !! जाओ अपनी रक्षा करो। विघ्न के लिये क्यों यहाँ आये हो ?' इस प्रकार पिता द्वारा निर्भसित होकर, कुद्मदीनपुर' (आदम खान) चला गया और अपनी रक्षा हेतु सचेष्ठ होकर, अनुज के आक्रमण से भयभीत रहने लगा। पाद-टिप्पणी : १५९. कलकत्ता एवं बम्बई के शब्द 'विभामुम्' अर्थ की दृष्टि से कर्ता का विशेषण होता है । उसे 'विभांसु' होना चाहिए। पाद-टिप्पणी : 'कुद्द' के लिए 'कुद्म' पाठ मिलता है । १६३. (१) कूमदीनपुर : कुतुबुद्दीनपुर । 'आदम खाँ ने अपने बाप से इजाजत लेकर अपने भाइयों से अलग-अलग रहकर कुतुबुद्दीनपुर में अकामत अख्तियार किया ( पीर हसन० : १८५ ) । सुल्तान ने आदम खाँ को कायर कहकर और सहायता करने से इनकार कर दिया। आदम कुतुबुद्दीनपुर चला गया और सावधानी से रहने लगा ( म्युनिख : पाण्डु० : ७६ बी० )। फिरिश्ता लिखता है-राज्य की अवस्था बिगड़ती देखकर अमीरों ने गुप्तरूप से सन्देश भेजकर Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन राजतरंगिणी लब्धेमुष्मिन् भवति हि सुखं सर्वदैवेति बुद्धया यः संहर्तुं रिपुकृतभियो रक्षणीयोऽवभाति । तत् तन्त्रस्थो यदि भवति स स्वात्मरक्षास्वशक्तो भण्डादिव तुरतः प्रत्युतोपद्रवः स्यात् ।। १६४ ॥ १६४. इसके प्राप्त होने पर निश्चय ही सदैव सुख होगा, इस बुद्धि से शत्रुकृत भय दूर करने के लिये जो रक्षणोय प्रतोत हो रहा है, अपनी रक्षा में आसक्त वह यदि तन्त्रस्थ ( शासनारूढ) होता है, तो उसी प्रकार उपद्रव उठ खड़ा होगा, जैसे भाण्ड द्वारा त्रस्त अश्वसे । पित्रास्मदर्थमानीतो ज्येष्ठो द्विष्टो भयाय नौ । इति क्रुद्धौ सुतौ श्रुत्वा चकितः स नृपोऽभवत् ।। १६५. 'पिता द्वारा लाया गया, द्वेषी ज्येष्ठ (पुत्र) हम दोनों के कारण दोनों पुत्रों को क्रुद्ध हुआ सुनकर, राजा चकित हो गया । २२२ कर लेने [ १ : ७ : १६४-१६९ राजा च राजपुत्राश्च तदमात्यपुरोगमाः । अन्योन्याशङ्किताः सर्वे न निद्रामुपलेभिरे ॥ १६६ ॥ १६६. राजा और उसके मन्त्रियों द्वारा अग्रसारित, सब राजपुत्र परस्पर आशंकित होकर, निद्रा नहीं प्राप्त किये । भोगोपचारं संत्यज्य तत्कालं तेषु सेवकाः । यत्तज्जिह्वोपकारेणारञ्जयन् स्वामिनो निजान् ॥ १६७ ॥ १६७. उस समय सेवक उनके ( राजा-राजपुत्रों ) प्रति भोगोपचार त्याग कर, केवल जिह्वोअपने स्वामी का रजन कर रहे थे । पकार द्वारा, १६५ ॥ भय के लिये है' – इसके कर्तव्यमादिशत् किंचिद्यत् स भृत्यान् क्षणान्तरे । अवोचत् कृतकर्तव्यान् किमुक्तं न स्मराम्यहम् || १६८ ॥ १६८. वह जो कुछ करने के लिये भृत्यों को आदेश देता, (पुनः) क्षणभर पश्चात कार्य उनसे कहता- 'मैंने क्या कहा स्मरण नहीं' । पर, आदम खाँ को काश्मीर बुलाया। आदम खां राजधानी मे पहुँचा । सुल्तान के यहाँ गया परन्तु सुल्तान ने उसे क्षमा करना अस्वीकार कर दिया ( ४७३ ) । द्र० : १ : ३ : ८२-८५; १ : ७ : स्वहस्ताक्षरसम्पन्नां त्यक्त्वा रीतिं पुरातनीम् । ज्ञात्वा प्रकृतिवैगुण्यं चक्रे तन्त्रं स मन्त्रिसात् ॥ १६९॥ १६९. उसने अपने हस्ताक्षर' से सम्पन्न प्राचीन रीति त्याग कर और प्रकृति वैगुण्य (अपने दोष) को जानकर, शासन को मन्त्रियों के हाथ कर दिया । १९७; ३ : १९२; ४ : १४५ । पाद-टिप्पणी : 'सदनेक्षिप्त:' पाठ - बम्बई । १६९. ( १ ) हस्ताक्षर : सुल्तान राज्यादेशों Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:७:१७०-१७३ ] श्रीवरकृता २२३ यैरस्मत्सदने क्षिप्तः सोऽयं वैरानलः खलैः । तच्छमाय कृतोपेक्षा तैस्तैरुभयवेतनः ॥ १७० ॥ १७०. जिन दुष्टों ने हमारे घर में यह वैराग्नि लगाई उन दोनों ओर से वेतनभोगी, लोगों ने ही, उसके समन के लिये उपेक्षा की। . मद्वर्धितास्ते नश्यन्तु मन्त्रिणस्तनयाश्च मे । ये मन्नाशेन तुष्यन्ति राज्यलुब्धा जिघांसवः ॥ १७१ ।। १७१. 'मेरे द्वारा बद्धित, मेरे वे मन्त्री एवं पुत्र नष्ट' हो जाय, जो कि राज्य-लोभी तथा हत्या के लिये इच्छुक हैं और मेरे नाश से ही सन्तुष्ट होते हैं।' इत्युद्विग्नो महीपालः श्वसन, जपपरायणः ।। प्राप्तदुःखोऽशपत् सर्वं यास्यति स्मृतिशेषताम् ॥ १७२ ।। ___ १७२. इस प्रकार उद्विग्न एवं दुःखी राजा जप-परायण' होकर, श्वास लेते हुये, शाप दिया-'उनकी स्मृति मात्र शेष रहेगी।' स्वामी विरक्तस्तत्पुत्रा मिथो वैरपरायणाः । किमुज्जीव विधेयं नः कष्टमापतितं महत् ॥ १७३ ॥ १७३. स्वामी विरक्त है, उसके पुत्र परस्पर बैर में तत्पर हैं—'हे ! जीव !! हमलोग क्या करें ? महान कष्ट आ पड़ा है।' तथा महत्वपूर्ण कागजों पर स्वयं हस्ताक्षर समझ कर फजल ने जैनुल आबदीन की भविष्यवाणी का करता था। उसका स्वास्थ गिर गया था। वह उल्लेख किया है-उसने कहा था कि चक जाति के अपना मन पूर्णतया शासन कार्यो मे पुत्रों के विद्वेष राजकाल मे काश्मीरियों के हाथ से राज्य निकल के कारण नहीं लगा सकता था। मनःस्थिति कर हिन्दुस्तान के सुल्तानों के हाथों में चला बिगड़ जाने से उसने मन्त्रियों को यह कार्य-भार जायगा। बहुत दिनों के बाद यह बात पूरी हुई दे दिया था। इसका दूसरा भाव यह भी हो सकता थी ( पृष्ठ : ४३९ )। है कि सुल्तान इतना अस्वस्थ था कि वह हस्ताक्षर वह हस्ताक्षर पाद-टिप्पणी : करने में असमर्थ था। सम्भव है दुर्बलता के कारण उसका हाथ काँपता रहा होगा और वह हस्ताक्षर १७२. ( २ ) जपपरायण : जैनुल आबदीन तसवीह या माला फेरता था। जप करता था। नही कर पाता था। अतएव यह कार्य-भार भी मृत्यु काल मे भी उसके ओष्ट जप में हिलते थे मन्त्रियों को सौप दिया। द्रष्टव्य० : १ : ७ : २१६ । (२) प्रकृति वैगुण्य : अस्वस्थता । पाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी : १७३. उक्त श्लोक श्रीकण्ठ कौल संस्करण १७१. (१) नष्ट : आइने अकबरी में अबुल में श्लोक संख्या १७२ का प्रथम दो पाद है। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैनराजतरंगिणी [१:७:१७४-१७८ इत्थं पौरजनः सर्वश्चक्रोशातितरां तदा । यवनव्रतमासाप्तौ त्यक्तमांसाशनो नृपः ॥ १७४ ॥ १७४. इस प्रकार उस समय सब पुरवासी रोने लगे। यवनो (मुसलमानों) के व्रत (रमजान) का महीना आने पर नृप ने मांस' अशन त्याग दिया। संदध्यौ च कुपुत्रोऽयं यैरानीतो दिगन्तरात् । तैः स्वात्मरक्षिभिः सर्व राज्यं मे बत नाशितम् ॥ १७५ ॥ १७५. और विचार किया'–लोग दिगन्तर से कुपुत्र को लाये हैं, केवल अपनी रक्षा करनेवाले वे लोग दुःख है कि मेरा सम्पूर्ण राज्य नष्ट कर दिया। एकतः सबलौ पुत्रौ नगरे मिलितौ मिथः । एकतः पुत्र एकाकी तनिष्ठा मन्त्रिणः शठाः ॥ १७६ ॥ १७६. एक तरफ, नगर में सवल दोनों पुत्र परस्पर मिल गये है, और एक तरफ, एकाकी पुत्र एवं उसके आश्रित मन्त्री शठ हैं। पुत्रा युद्धं करिष्यन्ति कष्टमापतितं महत् । किं तु दूये पुरी सेयं पाल्या कुलवधूरिव ॥ १७७ ॥ १७७. 'पुत्र युद्ध करेंगे । महान कष्ट आ पड़ा है । किन्तु दुःखी हूं कि यह पुरी कुलवधू तुल्य पालित है मयि जीवति नश्येच्चेत् किं कार्य जीवितेन मे । भक्ताः शक्तागता भृत्याः किं पृच्छामि करोमि किम् ॥ १७८॥ १७८. 'यदि मेरे जीवित रहते, ( यह ) नष्ट हो जाय. तो मेरे इस जीवन से क्या लाभ ? भक्त एवं शक्त ( समर्थ) भृत्य चले गये, क्या पूछ और क्या करूं?' पाद-टिप्पणी : आइने अकबरी मे उल्लेख है कि सुल्तान मांस १७४. उक्त श्लोक श्रीकण्ठ कौल संस्करण के नही खाता था ( पृष्ठ : ४३९ )। १७२वें तृतीय पद तथा १७३वें का प्रथम पद है। तवक्काते अकबरी में उल्लेख मिलता है-'रमश्लोक संख्या १७५ उक्त संस्करण के अन्तिम दो जान के मास मे सुल्तान मांस नही खाता था (पृष्ठ ' पदों का योग है। ४३९-६५७ )। (१) मांसत्याग : जैनुल आबदीन की प्रवृत्ति कैम्ब्रिज हिस्ट्री में वर्णन किया गया है-उसन उसके जीवन के अन्तिम चरण में सात्विक हो गयी शिकार खेलना वजित कर दिया था। रमजान के थी। पुत्रों के कारण, उसे जगत से वितृष्णा एवं वैराग्य मास मे मांस बिल्कुल नही खाता था (३ : २८२) । हो गया था। नैराश्य ने उसे घेर लिया था। निराशा पाद-टिप्पणी : में केवल भगवान की ही एक आशा आस्तिकों को १७५. (१) दिगन्तर : द्रष्टव्य टिप्पणी : १ : रहती है अतएव सुल्तान धर्म की ओर अधिकाधिक १: ३९; १: ३ : ११३; १ : ३ : ७६; १:७ . झुकता गया और प्राणि-हिंसा से विरत हो गया । १७७ । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ १:७ : १७९-१८५] श्रीवरकृता इत्यादिचिन्तासंतापजाताधिव्याधिबाधितः । विमुक्तराज्यनिर्बन्धः स निःस्पन्द इवाभवत् ॥ १७९॥ १७९. इस प्रकार चिन्ता सन्ताप से उत्पन्न आधि-व्याधि पीड़ित, वह ( राजा ) राज्याग्रह त्याग कर, निःस्पन्द सदृश हो गया। सबालवृद्धं नगरं क्षुभ्यत् तत्तत्कुवार्तया । सोऽभूदब्धिमिवोवृत्तं समास्थापयितुं क्षमः ॥ १८० ।। १८०. उमड़े सागर के समान तत्-तत् कुवार्ता से बाल-बृद्ध सहित क्षुभित होते नगर को वह ( राजा ) सम्यक् रूप से व्यवस्थित करने में समर्थ नहीं हुआ। भोक्तव्यं यन्मया भुक्तं किं भोक्ष्येऽद्य नय द्रुतम् । आनीतभोज्यमन्येधु : शिवभट्ट क्रुधाब्रवीत् ।। १८१ ॥ १८१. 'मुझे जो भोजन कग्ना था, वह कर लिया, शीघ्र ले जाओ'-इस प्रकार दूसरे दिन भोजन लेकर आये हुये, शिवभट्ट से क्रोधपूर्वक ( राजा ने ) कहा । अतिचिन्ताकुलो राजा छायायामप्यविश्वसन् । दुध्र क्षन् सचिवाञ् श्रुत्वा श्रद्दधे न स्वजीवितम् ।। १८२ ।। १८२. अति चिन्ताकुल राजा छाया में भी विश्वास न करते हुये तथा मन्त्रियों को भी द्रोह के लिये इच्छुक सुनकर, अपने जीवन पर भी श्रद्धा नही किया। गतसंविदिव स्थित्वा दिनानि कतिचिन्निजैः । स पृष्टोऽप्युत्तरं राजा न कस्मा अप्युदैरयत् ।। १८३ ॥ १८३. कुछ दिनों राजा चेतनरहित तुल्य स्थित रहा और आत्मीय जनों के पूछने पर भी किसी को उत्तर नही देता था। पृष्टः प्रकृतिभिः कार्य संभाष्यानर्थकं वचः । रुजाते इव शय्यायां स सुष्वापैकदालसः ।। १८४ ॥ १८४. एक समय मन्त्रियों द्वारा कार्य पूछने पर, निरर्थक बात कह कर, वह राजा रोग पीड़ित सदृश, शय्या पर सो गया। नाविदंस्तद्रजो हेतुं लक्षणं वा चिकित्सकाः । जानेऽवाच्यां शुचं हां बभूवानशनव्रती ॥ १८५ ॥ १८५. चिकित्सक उसके रोग का हेतु तथा लक्षण नहीं जान सके, मानों अकथनीय शोक को दर करने के लिये, वह अनशनवती हो गया। पाद-टप्पणी : ११९; ४ : १९४, ३४२ । श्रीदत्त ने भी समर्थ 'उद्वत्तम्' पाठ-बम्बई। १८०. (१) नगर : श्रीनगर, द्र० : २ : नहीं हुआ, अनुवाद किया है । जै. रा. २९ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैनराजतरंगिणी [१:७:१८६-१९० अत्युन्नतान् सुफलदान् विततोच्चशाखान् ख्यातान् द्विजप्रियतया शुभमार्गसंस्थान् । घाता निपातयति सर्वजनोपयोग्यान् पृथ्वीधरांस्तरुवरानिव दुष्टवातः ॥ १८६ ॥ १८६. तरुवरों के सदृश, अत्युन्नत, फलप्रद, वितता ( विस्तृत ) एवं उन्नत शाखाओं से युक्त, द्विजप्रियता के कारण ख्यात, शुभ मार्ग पर स्थित, सर्वजनोपयोगी, पृथ्वीधरों को, दुष्ट वायु समान, विधाता नष्ट कर देता है। अत्रान्तरे त्रयः पुत्रा दोषा इव महोल्वणाः । धातुवद् दूषयामासुर्देशे प्रकृतिसप्तकम् ।। १८७ ।। १८७. इसी समय दोष के समान अत्युग्र, तीनों पुत्रों ने धातु सदृश, सप्त प्रकृति युक्त देश में दोष उत्पन्न कर दिया । मूकप्रायं नृपं तादृगवस्थं द्रष्टुमन्वहम् । सशङ्कास्तमुपाजग्मू राजपुत्रा भटोल्वणाः ॥ १८८॥ १८८. उस अवस्था में, मूकप्राय राजा को देखने के लिये, सशंकित एवं भटोल्वण ( उग्रभट युक्त ( राजपुत्र' ( राजपूत ) प्रतिदिन आते थे। राजान्तरङ्गास्तत्पुत्रभीत्यै तादृग्दशं नृपम् । द्वाराग्रे स्थापयामासुः सर्वदर्शनदित्सया ।। १८९॥ १८९. राजा के अन्तरंग लोगों ने सबको दर्शन देने की इच्छा से तथा उसके पूत्रों के भय हेतू, उस दशा में स्थित, राजा को द्वार पर रख दिया। स्वस्तिवादध्वनि श्रुत्वा सबाह्याभ्यन्तरा जनाः । द्वितीयेन्दुमिवाद्राक्षुः सानन्दा दर्शनागताः ।। १९० ॥ १९०. स्वस्ति वादनध्वनि सुनकर, दर्शन' हेतु आगत, बाह्य एवं आभ्यान्तर के सब लोग, आनन्दपूर्वक द्वितीया के चन्द्रमा सदश ( राजा को ) देखे। पाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी : १८७. (१) धातू : द्रष्टव्य पाद-पिप्पणी १८८. ( १ ) राजपुत्र : श्रीदत्त ने 'राजपुत्र' जैन० . १ : ७ : ६६, ११०; : ३६२ । का अनुवाद 'राजपूत' किया है। यह गलत है। (२) सप्तप्रकृति : देश किंवा राज्य के काश्मीर उपत्यका में राजपूत जाति नही थी। सात अंग माने गये है-१. स्वामी, २. अमात्य, यदि कोई था भी तो वह अपवाद मात्र था। ३. जनपद या राष्ट्र, ४. दुर्ग (राजधानी), ५. कोश, ६. दण्ड (सेना) तथा ७. मित्र ( मनु० : ७ : १५६: पाद-टिप्पणी : अर्थशास्त्र० : ६ : २; शुक्र० : १ : ६१-६२; २: १९०. (१) दर्शन : साक्षात्कार, मुलाकात या ७०-७३ )। देखने से तात्पर्य है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ १ : ७ : १९१-१९२] श्रीवरकृता श्रुत्वा बह्रामखानोऽथ चकितोऽन्तिकमागतः । गत्वरं लक्षणैर्ज्ञात्वा भूपं भ्रानेऽब्रवीदिति ॥ १९१ ।। १९१. यह सुनकर, चकित बहराम खान ( राजा के पास ) आया और लक्षणों से राजा को मरणासन्न जानकर, भाई से इस प्रकार कहा जीवत्यस्मत्पिता नैव मिथ्येवोत्थाप्यते विटैः। द्वाराग्रात् पतितो भूमौ मूकप्रायो विचेतनः ।। १९२ ।। १९ . 'द्वार के अग्रभाग से भूमि पर गिरे, मूकप्राय एवं चेतना रहित' हमारे पिता नहीं जीवित है। विट लोग मिथ्या है तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-'जब सुल्तान लम्पट एव वेश्यागामी तथा धूर्त होता है । 'कुट्टनीपूर्णत. शक्तिहीन हो गया, तब भी अमीर लोग मतम्' तथा साहित्यदर्पण में उसके लक्षण दिये गये फितना के भय से सुल्तान के पुत्रों को उसे देखने के है। वेश्योपचार में प्रवीण, कुशल, मधुरभाषी, लिए न आने देते थे। कभी-कभी वे सुल्तान को कविता मे दक्ष, ऊहापोह मे चतुर तथा वाग्मी होता उच्च स्थान पर बड़े कष्ट की अवस्था मे बैठाते थे है। शब्दाडम्बर में लोगों को मोहित कर देता है और नक्कारे बजवाते थे कि सुल्तान स्वस्थ हो गया (साहित्यदर्पण : २४ : १०४ )। (४४५ = ६७०)। क्षेमेन्द्र ने देशोपदेश के उपदेश संख्या पाँच मे तवक्काते अकबरी के एक पाण्डुलिपि मे 'फितना' विट का वर्णन किया है। विट परदारानुरागी होता नही है परन्तु दूसरी मे है । 'फितना' का अर्थ यहाँ है। वह वेश्याओं, कुलटाओं तथा कुट्टनियों के अशान्ति किया है। द्र० : २ : ९२, १२८ । निवास स्थान की यात्रा करता रहता है। वह पाद-टिप्पणी: अपनी मोछे मुरेरता रहता है। वह अपने घुधुराले १९१ "भूपं' पाठ-बम्बई। बालो को मस्तक पर सजाता है। वह भडकीला पाद-टिप्पणी: तथा फैशनोबल परिधान पहनता है। उसका मुख १९२. (१) चेतना रहित : तवक्काते अक ताम्बूल के रोमन्थन से चलता रहता है। वह मुख बरी में उल्लेख है-'अन्त में सुल्तान का रोग जब मे पान भरे स्फुट शब्दों का उच्चारण करता है। बहुत बढ़ गया, एक दिन और एक रात्रि वह अचेत बोलते समय उसकी दन्त-पंक्तियाँ दिखाई पड जाती रहा ( ४४५ = ६७१)।' है । वह वेश्याश्रय मे, खुफियाखानों मे अपनी वेप-भूषा फिरिश्ता का वर्णन कुछ भिन्न है । उसके अनु के कारण लक्षित हो जाता है। अपने माता को सार आदम खाँ ने अपने सिपाहियों को नगर के फटे-पुराने कपड़ों मे रखता है। पूछने पर कहता बाहर रख दिया ताकि हाजी खाँ तथा अन्य शत्रुओं है कि वह पनिहारिन है। किसी खस के घर मे की सेना पर दृष्टि रखी जाय तथा स्वयं रात्रि कुछ ही समय रहने पर ही एक कौआ की तरह सुल्तान के दरबार में व्यतीत किया। हसन खाँ वोलता चला जाता है। उसकी बोल-चाल अजीब कछी ने भी अमीरों से हाजी खाँ के प्रति वफादारी ढंग की होती है। की प्रतिज्ञा ले लिया था । क्षेमेन्द्र ने २८ श्लोकों मे विट का सजीव-चित्रण (२) विट : विट का शाब्दिक अर्थ, कामुक, किया है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैनगजतरंगिणी [१:७ : १९३-१९७ तदुत्तिष्ठ वयं यामः ससंनाहा नृपाङ्गनम् । हरामस्तत्तुरंगादि बद्धवा दुष्टांश्च मन्त्रिणः ।। १९३ ।। १९३. 'अतएव वर्म युक्त होकर, हम लोग नृपांगण मे चलें और दुष्ट मन्त्रियों को बाँध कर, तुरंग आदि का हरण कर लें नौसेतुबन्धं छेत्स्यामस्तेन नश्यति तेऽग्रजः । श्रुत्वेति सोऽभ्यधान्नैवं वक्तुं युक्तं ममाग्रतः ।। १९४ ॥ १९४. 'नाव सेतुबन्ध को काट दें, उससे तुम्हारा अग्रज नष्ट हो जायगा।' यह सुनकर, उस ( हाजी खान ) ने कहा-'मेरे समक्ष यह कहना उचित नही है स्वप्नेऽप्यनिष्टं यस्याहं नेच्छामि स्वामिनः पितुः। तच्छ्रत्वैकां निशां यावत् तदने सोऽनयच्छुचा ॥ १९५ ॥ १९५. 'स्वप्न में भी मैं स्वामी पिता का अनिष्ट नही चाहता हूँ।' यह सुनकर, उसने एक रात्रि शोकपूर्वक उसके आगे व्यतीत किया। तावन्मुमूर्ष तं श्रुत्वा पितृराज्यजिहीर्षया । आदमखानः श्रीजैननगरं सबलोऽभ्यगात् ।। १९६ ।। १९६. तब तक उसे मरणसन्न सुनकर, पिता का राज हरण करने की इच्छा से, आदम खान जैननगर गया। भटसंनाहसामग्री प्रापय्य पथि गोपिताम् । अवसत् स निशामेकां राजधान्यन्तरालये ॥ १९७ ॥ १९७. भटों के सामग्री को मार्ग में छिपाकर, वह एक रात राजधानी के अन्दर, गह में व्यतीत किया। पाद-टिप्पणी: छोड़ दिया। ताकि वह हाजी खाँ और शत्रुओं से १९६. (१) जैननगर : द्रष्टव्य टिप्पणी : सचेत रहे ( ४४५ = ६७१ ) । १:५:४। द्र० : १ : ५ : ४; ३:७ : ९८, १९७, मोहिबुल हसन ने लिखा है कि आदम खाँ नौशहर १९९, ३८०; ४ : १२० । सेना के साथ गया कि राज्य सिंहासन पर अधिकार पाद-टिप्पणी : कर ले। नौशहर को वह श्रीनगर का ही एक भाग गोपिकम् पाठ-बम्बई । मानते हैं ( पृष्ठ : ८०, ८४,८८, ९३ )। १९७. (१) सन्नाह : सामग्री। युद्ध की तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है-एक रात्रि सामग्री या युद्धसज्जा या युद्ध की तैयारी। प्रथम में आदम खाँ कुतुबुद्दीनपुर से अकेला सुल्तान को विदेशी शासक रिंचन ने अस्त्रों को इसी प्रकार बालू देखने के लिए आया और सेना को नगर के बाहर में छिपाकर, व्याल आदि अपने शत्रुओं को मार Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ १:७ : १९८-२००] श्रीवरकृता तावद्धस्सनकोशेशः स्वार्थान्धो मोहयन् परान् । गृहीतदिव्यः श्रीहाज्यखानपक्षं समाश्रयत् ॥ १९८ ।। १९८. तब तक स्वार्थान्ध कोशेश हसन दूसरों को धोखा देते हुये, सपथ ग्रहण कर, हाजी खान के पक्ष का आश्रय लिया। अथ निष्कासितोऽन्येद्य : सचिवैः सबलोऽग्रजः । कुमदीनपुरं गत्वा धिया भाग्यश्रियोज्झितः ॥ १९९ ॥ १९९. दूसरे दिन' मन्त्रियो द्वारा निष्काशित, सेना सहित अग्रज (आदम खान) कुद्मदीनपुर जाकर, बुद्धि एवं भाग्यश्री से रहित हो गया। ज्येष्ठोऽप्यभूत् कुशलधीरपि भृत्ययुक्तः __शूरोऽप्यनन्यसदृशोद्यमधैर्ययुक्तः । प्राप्ते क्षणे किमपि साधु न कर्म कुर्यात् पुण्यर्विना न हि भवन्ति समीहितार्थाः ॥ २०० ॥ २००. कुशल बुद्धि भृत्य सहित, शूर, तथा अनुपम, उद्यम एवं धैर्य से युक्त, ज्येष्ठ वह ( आदम खान ) समय आने पर, कोई अच्छा कार्य नही कर सका। निश्चय ही, पुण्य के बिना अभिलाषायें पूर्ण नहीं होती। डाला था परन्तु जीवन भय से काश्मीर की ओर १९९, ( १ ) दूसरे दिन : तवक्काते अकबरी भाग आया। काश्मीर में वह रामचन्द्र को पराजित मे उल्लेख है-'दूसरे दिन अमीरों ने आदम खाँ को एवं नष्ट कर लहर पर अधिकार करने के लिए किसी बहाने से काश्मीर ( श्रीनगर ) से निकाल शस्त्रों को छिपा कर, नगर मे भेजता रहा। अवसर कर हाजी खाँ को शीघ्रतगति शीघ्र बुलवाया' आते ही, वह रामचन्द्र की हत्या कर काश्मीर का (४४५ = ६७१ )। राजा बन गया। आदम खाँ ने उसी नीति का (२) कुद्ददीनपुर : द्रष्टव्य टिप्पणी . १ : ३ : अनुकरण किया परन्तु अपनी अनिश्चित एवं संशया- ८०। फिरिश्ता लिखता है-आदम खाँ अपनी उपत्मक बुद्धि के कारण सफल नहीं हो सका ( जोन० : स्थिति का राजधानी में लाभ उठाकर षड्यन्त्र अपने रा० : १५१, १६७)। भाई के विरुद्ध करने लगा कि उसे पुनः युवराज पाद-टिप्पणी: स्वीकार कर लिया जाय किन्तु वह अमीरों को अपने पाठ-बम्बई। पक्ष मे नही कर सका क्योंकि अमीरों ने स्पष्ट कह १९८. ( १ ) शपथ : तवक्काते अकबरी मे दिया कि बिना सुल्तान के अनुमति के वे लोग उसकी उल्लेख है-'संयोग से उसी रात्रि में हसन कच्छी बात नहीं मान सकते ( ४७४ )। फिरिश्ता राजा ने जो कि प्रतिष्ठित अमीर था, सुल्तान के दीवान- के मृत्यु का वर्णन कर पुनः करता है-सुल्तान की खाने में हाजी खाँ के लिए अमीरों से वैअत (शपथ) मृत्यु के पूर्व कनिष्ठ पुत्र बहराम खाँ अपने अग्रज ले ली ( ४४५ = ६७१)। आदम खाँ के ऊपर इतना हाबी हो गया कि पाद-टिप्पणी: वह सबसे परित्यक्त जानकर कुतुबुद्दीनपुर चला 'पुरम्' पाठ-बम्बई। गया। जहाँ सुल्तान की सेनाएँ हाजी खाँ और Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैनराजतरंगिणी [१:७ : २०१-२०५ स चेत्तन्निशि हत्वैकमहरिष्यत् तुरङ्गमान् । अलभिष्यदू ध्रुवं राज्यं बुद्धिः कर्मानुसारिणी ॥ २०१॥ २०१. यदि वह उसी रात्रि एक को मार कर, तुरंगों को हर लेता, तो निश्चय ही, राज्य प्राप्त करता। ( ठीक ही है ) बुद्धि कर्मा( भाग्य )नुसारिणी होती है। अत्रान्तरे हाज्यखानः कोशेशानुजचोदितः । राजधान्यङ्गनं गत्वा तुरङ्गाद्यहरत् पितुः ॥ २०२॥ २०२. इसी बीच कोशेश के अनुज द्वारा प्रेरित, हाज्य खान ( हाजी ) राजधानी के प्रांगण में जाकर, पिता के तुरंगादि को हर लिया। यद्वार्तया विनिर्धेर्या येऽभवन् सुतसेवकाः ।। विविशुस्ते ससंनाहाः समदाः कालपर्ययात् ।। २०३ ॥ २०३. जिसकी वार्ता मात्र से ही जो सुत एवं सेवक धैर्यरहित हो गये थे, वे समय परिवर्तन से, वर्मयुक्त तथा गर्वीले होकर, प्रवेश किये। अभिमन्युप्रतीहारमुखा निन्द्य यदब्रुवन् । तदुत्पिजे तत्फलं तैरचिरेणानुभूयते ॥ २०४ ॥ २०४. अभिमन्यु प्रतिहारादि' जो निन्दनीय बात कहे थे, वे उस उपद्रव में उसका फल शीघ्र प्राप्त किये। तदिने हाज्यखानः स सबलो बहिरास्थितः ।। नाशकज्जनकं द्रष्टुं सोत्कोऽपि द्रोहशङ्कया ॥ २०५॥ २०५. उस दिन सेना सहित बाहर हाजी खान उत्कण्ठित होने पर भी, द्रोह की शंका से पिता को नहीं देख सका। बहराम खाँ के नेतृत्व में प्रायः उस पर आक्रमण वह उपद्रव के भय और विरोधियों के विश्वासघात किया करती थी। द्र०:१:३:८२-८५; १:७: के कारण महल के भीतर न गया' (४४५ = ६७१)। ९२ । पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी : २०१. 'अभिलष्यद ध्रुवम्' । पाठ-बम्बई । २०४. (१) प्रतिहार : पदर। द्रष्टव्य पाद-टिप्पणी: टिप्पणी : १:१:८८, १५१; ३ : ४६३; ४ : २०२. (१) तुरंगादि : तवक्काते अकबरी मे १६७, २६२ । कल्हण के वर्णन से प्रकट होता है उल्लेख है-'हाजी खाँ अमीरों के बुलवाने पर कि वे इतने शक्तिशाली होते थे कि राजा को सिहाआया और उसने सुल्तान की अश्वशाल के समस्त सन पर बैठा और उतार सकते थे (रा०:५:१२८, घोड़ों ( तुरंगो) पर अधिकार जमा लिया और ३५५)। राजा से मिलाने तथा दूतों को राजा के उसके पास बहुत बड़ी सेना एकत्र हो गयी किन्तु सामने उपस्थित करने का काम प्रतिहारों का था। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता निराश: सपरिच्छदः । तद्वार्ताकर्णनाद्भीतो आदमखानो वित्राणो विपुलाटाध्वना विषुलाटाध्वना ययौ ॥ २०६ ॥ २०६. उस वार्ता को सुनने से भीत एवं निराश अनुचर सहित वित्राण ( रक्षा रहित ) आदम खान विषुलाटा' मार्ग से चला गया। १७ २०६ - २०७] तारबलमार्गेण गच्छन्निजजनावृतः । अन्वागतानुजभ्रातृवीरलोकक्षयं स . व्यधात् ।। २०७ ॥ २०७. अपने जनों से आवृत होकर, तारबल' मार्ग से जाते हुये उसने पीछे से आये अनुज, के मित्र एव वीरों का विनाश कर दिया । पाद-टिप्पणी: २०६. (१) विषुलाटा विधाला विच = लारी = वनिहाल दर्रे के पादमूल मे विषलटा का क्षेत्र है। यह खशों का स्थान माना गया है । द्रष्टव्य रा० : ८ : ६८४, ६९७, १०७४, ११११, १६६२ तथा १७२० ) । श्रीस्तीन ने इसे विचलारी नदी की उपत्यका माना है ( रा० : १ : ३१७; ८ : १७७ ) । यह उपत्यका परगना दिवसर के दक्षिण है । बनिहाल जिला का पानी विचलारी नदी बहाकर ले जाती है। वह मोहू तथा बनिहाल स्रोतस्विनयों से मिलकर विचारी नदी बनती है। पहले वह पूर्व-दक्षिण दिशा में बहती है - तत्पश्चात् उसमे पोगल तथा परिस्तान स्रोतस्विनियों इसके वाम तट पर मिलती है। वह पश्चिम की ओर बहने लगती हैं। एक संकीर्ण उपत्यका में बहती रामवन के ६ मील पश्चिम चनाव नदी मे मिल जाती है । = २३१ भागने के लिए मजबूर हो गया। वह बूदरल का मार्ग पकड़ कर हिन्दुस्तान की ओर चला गया ( ४७४ ) ।' तबकाते अकबरी के एक पाण्डुलिपि मे 'मावळ' तथा 'मावेल' दूसरी पाण्डुलिपि तथा लीथो संस्करण मे 'नलवल' लिखा है। फिरिश्ता बारहमूला से जाना लिखता है हिदायत हुसेन ने 'भावेस' लिखा है। पाद-टिप्पणी : २०७ (१) तारबल यह एक दर्रा, संकट या पास है । पर्वतीय क्षेत्र मे है । तारवल से मार्ग विषालटा की ओर जाता था । तवक्काते अकबरी मे नाम मावेल दिया गया है ( ४४५ = ६७१ ) । तयस्काते अकबरी मे उल्लेख है- 'आयम स ने जब यह समाचार सुने तो वह भय के कारण मावेल के मार्ग से हिन्दुस्तान की ओर चल दिया उसके बहुत से सेवक उससे पृथक हो गये (४४५६७१) । पीर हसन ने लिखा है कि 'बारहमुला के रास्ते हिन्दुस्तान का इरादा किया। उसके नौकर उससे वददिल होकर उससे जुदा हो गये। हाजी खाँ के सिपहसालार जेन हारिक ने सिपाहियों की एक जमाअत के साथ तेजी के साथ उसका तअक्कुब ( पीछा ) किया। मगर आदम खां के हाथों से बमय अजीजों और भाइयों के मारा गया ( पीर हसन १८६) ।' फिरिश्ता ने वद्रल नाम तारवल का दिया है । तवक्काते अकबरी, फिरिश्ता तथा श्रीवर तीनों फिरिश्ता लिखता है - ' बाध्य होकर आदम खाँ एक ही स्थान का भिन्न-भिन्न नाम दिये है । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैनराजतरंगिणी [१:७:२०८-२१० अभिमन्युप्रतीहारमुख्याः शौर्यममानुषम् । दृष्ट्वैवादमखानस्य सान्वर्थाभिधमूचिरे ॥ २०८ ॥ २०८. अभिमन्यु' प्रतीहार प्रमुख लोगों ने आदम खान के अमानवीय शौर्य देखकर, उसके नाम को सफल कहा। यावान् सुय्यपुरे तेन कृतो लोकक्षयः क्रुधा । तावानेव कृतस्तत्र सङ्कटे गिरिगह्वरे ॥ २०९॥ २०९. उसने क्रोध से सुय्यपुर मे लोगों का जितना विनाश किया था, उतना ही उस संकीर्ण गिरि गह्वर में भी किया। तावद्धस्सनखानोऽपि राजपुत्रो गुणोज्ज्वलः । तूर्णं पर्णोत्समुल्लङ्घन्य कश्मीरान्तरमाययौ ॥ २१० ॥ २१०. तब तक गुणोज्ज्वल राजपुत्र हस्सन खान भी पर्णोत्स' लाँघ कर शीघ्र ही काश्मीर से आ गया। पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी २०८. ( १ ) अभिमन्यु : तवक्काते अकबरी २१०. ( १ ) पर्णोत्स : पूंछ = 'हसन खॉ विन में उल्लेख है.-... 'जैन वद्र जो हाजी खाँ का विश्वस्त हाजी खाँ पूछ से आकर बाप से मिल गया ( पीर अमीर था। आदम खाँ का पीछा करने के लिए हसन : १८६ )। गया। आदम खा उससवारता र सापपुल कल हसन जो पूंछ का राज्यपाल या शासक था। हए, उसके बहुत से भाइयो तथा सम्बन्धियो की अपने पिता की सहायता करने के लिए चल पडा। हत्या करके वहाँ से निकल भागा ( ४४५-४४६ = इससे हाजी खाँ की स्थिति और सुदृढ़ हो गयी ६७२ )।' ( म्युनिख : पाण्डु० : ७७ ए०)।' तवक्काते अकबरी मे नाम 'इब्न बद्र' लिखा तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-'हाजी खाँ है। लीथो संस्करण में 'ऐन पदर' लिखा है। का पुत्र हसन खाँ जो कि पंजे (पंछ ) में था। अपने पिता के पास आया और उसके कार्यों को फिरिश्ता ने 'जेनलारिक' लिखा है। यह नाम कर्नल ब्रिग्गस, रोजर्स तथा कैम्ब्रिज हिस्ट्री मे अत्यधिक रौनक प्राप्त हो गयी ( ४४६-६७२ )।' नहीं दिया गया है। द्र० : २ : १९६; ३ : १०३, फिरिश्ता लिखता है-हाजी खाँ का दल और अधिक शक्तिशाली, उसके पुत्र हसन खां के आने के १२५ । कारण हो गया ( ४७४ )। पाद-टिप्पणी: द्र०:१:१ : ६७; १ : ३ : ११०; १:७: २०९. 'सङ्कटे' पाठ-बम्बई। ८०; २०८; २ : ६८, २०२; ४ : १४४, ६०७ । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:७ : २११-२१४] श्रीवरकृता २३३ ग्रीष्मोष्मशोपिततनुविरसश्चिरं य श्छायोज्झितो मरुतरुः पथिकैर्निरस्तः । वर्षाप्तसेकमहिमा जनतापशान्त्यै सेव्यः स एव बत पत्रविचित्रशोभः ।। २११ ॥ २११. ग्रीष्म की उष्मा से शोषित शरीर तथा विरस चिरकाल तक छाया रहित पथिकों द्वारा परित्यक्त मरुतर वर्षाकाल में सेक से पूनः महिमा ( महत्व) प्राप्त कर, पत्रों से विचित्र शोभायुक्त हो जाता है, और आश्चर्य है, वही लोगों के लिये ताप शान्ति हेतु सेव्य हो जाता है । सदशैवावहन्मध्ये या द्वयोस्तटयोरिव । एकपाश्वगता सर्वा तदाभूद्राज्यनिम्नगा ॥ २१२ ।। २१२. तट सदृश दोनों के मध्य, जो समान रूप से बह रही थी, वह सम्पूर्ण राज्य नदी, उस समय एक का आश्रय ले ली ( एक के पास चली गयी ) । इत्थं भ्रातृद्वयस्थित्या विजयावजयक्रमः । अन्यथा कल्पितः सर्वैरन्यथाभूद्विधेवेशात् ।। २१३ ॥ २१३. इस प्रकार दोनों भाइयों की स्थिति से सब लोगों द्वारा अन्यथा कल्पित जय-पराजय का क्रम विधिवश ( कुछ ) अन्यथा (ही) हो गया। पुत्रः स्यान्नु कदेति शोचति पिता जातेतिहर्षाकुल स्तवृद्धथै यततेऽन्वहं विधिशतैश्चिन्तास्तदीया वहन् । वृद्धो विघ्नमिव स्वकं स जनकं जानाति लोभान्वित स्तद्वित्ताप्तिधिया मरिष्यतिकदेत्यन्तः सदा चिन्तयन् ॥ २१४ ॥ २१४. पिता सोचता है, पुत्र कब होगा? और उत्पन्न होने पर, हर्षित होता है, पुत्र की चिन्ता करते हुये, सैकड़ों उपायों से उसकी वृद्धि के लिये प्रतिदिन प्रयत्न करता है । प्रवृद्ध होकर, लोभान्वित वह, अपने पिता को विघ्न सदृश जानता है तथा पिता की धनप्राप्ति की बुद्धि से 'कब मरेगा' यह अन्तश्चिन्तन करता है। अस्मिन्नवसरे राजा कियद्भिः सेवकैर्वृतः । श्रुतमश्रु तवत् कर्तुं स निश्चिन्त इवाभवत् ।। २१५ ।। २१५. इस अवसर पर कुछ सेवको सहित वह राजा सुने को अनसुना सदृश करने के लिये निश्चिन्त-सा हो गया। पाद-टिप्पणी : २११. 'पत्र' पाठ-बम्बई। जै. रा. ३० पाद-टिप्पणी : २१४. 'स्थान्नु' पाठ-बम्बई। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जेनराजतरंगिणी दर्शितास्वास्थ्यवान्बन्धस्त्यक्तपेयाद्य, पक्रमः 1 नृपेन्द्रो विरुचिः क्षीणकलचन्द्र इवाभवत् ।। २१६ ।। २१६. अस्वस्थता के कारण मौनालम्बन प्रदर्शित करके तथा पेयादि का उपक्रम त्याग कर, राजा क्षीण कलावाले चन्द्रमा के समान रुचि ' ( कान्ति ) हीन हो गया । प्रजाभाग्यविपर्यासात् सर्वायासाय विच्छविः । कल्पान्तरविवत्सोऽस्तं गन्तुं प्रावर्ततातुरः ।। २१७ ॥ [ १ : ७ : २१६ - २१८ २२७. प्रजा भाग्य विपर्यय' के कारण, सब लोगो को कष्ट देने के लिये, छविहीन होकर, आतुर राजा कल्पान्तर के सूर्य सदृश अस्त होने लगा । पाद-टिप्पणी : कंपितौष्ठपुटज्ञातमन्त्रपाठः कवेदिने । द्वादश्यां ज्येष्ठमासस्य मध्याह्ने जीवितं जहौ ।। २१८ ।। २१८. कम्पित ओष्टपुट से जिसका मन्त्रपाठ' ज्ञात हो रहा था, वह ज्येष्ठ मास के द्वादशी तिथि शुक्रवार के दिन मध्याह्न मे प्राण त्याग किया। 'कलचन्द्र' पाठम्बई । २१६. (१) रुचिहीन श्रीवर राजा की मृत्यु आसन्न है इसके लक्षणों का अगले श्लोको मे वर्णन करता है । कान्तिहीन एव किसी बात मे रुवि किंवा वैराग्य भाव आसन्न मृत्यु के लक्षण है । वायु, मारकण्डेय आदि पुराणो मे मृत्यु के सकेत की लम्बी तालिका मिलती है (वायु० १९ १-१२; मार्कण्डेय० : ४३. १-३३) वायुपुराण के अनुसार यदि कानो के छिद्र उँगलियो से बन्द कर लिए जायें और किसी प्रकार की आवाज न सुनायी पडे या नेत्रों में प्रकाश न दिखायी पड़े तो आसन्न मृत्यु समझना चाहिए। शान्तिपर्व के अनुसार, अरुन्धती, ध्रुवतारा, पूर्णचन्द्र एवं दूसरों की आँखों में अपनी छाया दृष्टिगोचर न हो तो उनका जीवनकाल एक वर्ष माना गया है । चन्द्रमण्डल मे जिन्हे छिद्र दिखाई पड़ता है, उनका जीवनकाल ६ मास होता है । सूर्यमण्डल में छिद्र तथा समीप की सुगन्धित वस्तुओं में शव की गन्ध जिन्हे मिलती हैं, उनका जीवन केवल ७ दिन होता है । आसन्न मृत्यु का लक्षण कान एवं नाक का झुक जाना, नेत्र एव दाँतो का रंग बदल जाना, संशाशून्यता, शरीरोष्णता का अभाव, कपाल से धूम निकलना आदि है। यदि स्वप्न मे गधा देखे तो उसका मरण निश्चय समझना चाहिए । यदि स्वप्न मे वृद्ध कुमारी स्त्री को देखा जाय तो उसे भय, रोग, मृत्यु का लक्षण मानना चाहिए। त्रिशूल देखने पर मृत्यु परिलक्षित होती है । पाद-टिप्पणी २१७ (१) प्रजा भाग्य विपर्यय: प्रष्टव्य टिप्पणी १ : ३ : १०५ । पाद-टिप्पणी २१८. (१) मन्त्रपाठ परशियन इतिहासकारों का मत है कि सुल्तान कलमा पढ़ रहा था मृत्यु के समय प्रथा है कि मुल्ला अथवा घर के लोग व्यक्ति के समीप बैठकर कलमा पढ़ते है। बेहोश होने पर जोर से कान में कलमा कहते और पढ़ने के लिये कहते हैं । मृत्यु मुख व्यक्ति कलमा पढने का प्रयास करता है । उसके ओठ हिलते दिखायी पड़ते है । इस समय मृत्यु मुख व्यक्ति को चित्त लिटा देते है। शिंर उत्तर तथा पद दक्षिण रहता है । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवरकृता प्राणप्रयाणसमये नृपतिः स सर्वाङ्गनिर्यत्सौभाग्य भाग्यावृतमुखच्छविः ।। २१९ ।। २१९. प्राण प्रयाण के समय उस राजा को मैंने देखा, उसकी मुख को कान्ति, सभो अगा से निकलते, सौभाग्य-समृद्धि से आवृत थी। जाने तद्वदने लक्ष्मीसदने निर्याम्यतरङ्गिण्याः प्रवाह इव दिद्युते ।। २२० ॥ २२०. मालूम पड़ता है, लक्ष्मी सदन उसके बदन पर स्वेद परम्परा निकलती, भाग्य तरं गिणी के प्रवाह सदृश, शोभित हो रही थी । तज्जीव रत्नहरणाज्जातभीतिरिव प्राणवायुर्हरनायुः क्षणं तूर्णगतिं ध्रुवम् । व्यधात् ।। २२१ ॥ २२१. निश्चय ही उसके जीवनरूपी रत्न का हरण करने से भीत तुल्य, प्राणवायु आयु का हरण करते हुये क्षणमात्र के लिये गति तेज कर दी। 1 १७ : २१९-२२१ तवक्काते अकबरी मे मृत्यु का समय नही दिया गया है । फिरिश्ता लिखता है कि हिजरी सन् ८७७ के अन्त मे सुल्तान की मृत्यु हुई थी। उसकी आयु उस समय ६९ वर्ष थी। कर्नल ब्रिग्गस मृत्युकाल हिजरी ८७७ = सन् १७७२ ई० देते है । केम्ब्रिज हिस्ट्री में मृत्युकाल सन् १४७० के नवम्बर-दिसम्बर दिया गया है (२८४) । हैदर दुधलात लिखता है कि जैनुल आबदीन ने ५० वर्ष शासन किया था (तारीख रशीदी ४३३) । अबुल फमल तथा निजामुद्दीन के अनुसार सुल्तान ने ५२ वर्ष राज्य किया था और मृत्यु हिजरी ८७७ = सन् १४७२ ई० में हुई थी। (आइने जरेट: ३७९ का ३४४६) श्रीवर स्वय मृत्यु समय उपस्थित था । अतएव उसका दिया समय ही ठीक है । बहारिस्तान शाही श्रीवर का समर्थन करती है । पाण्डु० : फो० : ५८ ए० । : (२) प्राण त्याग शुक्रवार को मरना ईसाई तथा मुसलिम धर्म के अनुसार अच्छा मानते हैं । संसार के महान व्यक्तियों की मृत्यु प्रायः शुक्रवार को हुई है । ה मवेक्षितः । स्वेदसन्ततिः । २३५ पाद-टिप्पणी : अर्धसंगति के लिये ' सदन' का पाठ 'बदने सदने' किया गया है । २२० (१) स्वेद परम्परा शरीर की गर्मी निकल रही थी । गर्मी किंवा ऊष्मा समाप्त होने पर मरणासन्न व्यक्ति शीताक्रान्त हो जाता है। परोर से पसीना छूटने लगता है। यह अन्तिम लक्षण है । मनुष्य इस अवस्था ममुष्य इस अवस्था में मृत्यु के कुछ पष्टे पूर्व ही रहता है। पाद-टिप्पणी 1 २२१. (१) गति : ऊर्ध्व स्वाँसा या गति से तात्पर्य है मृत्यु के समय ऊर्ध्व स्वाँसा चलने लगती लगती है। स्वांसा की गति ऊपर की ओर हो जाती है । स्वॉस से आवाज भी निकलती है। पेट और छाती जल्दी-जल्दी फूलता और पचकता है। अ स्वाँसा मृत्यु का अन्तिम लक्षण है । ऊपर को चढ़ती हुई अथवा उलटी स्वाँस टूटने के पश्चात प्राण शरीर त्याग देता है । वायु का सम्बन्ध अपानवायु से छिन्न हो जाता है। स्वाँस की यह गति ऊपर होती कण्ठ तक आ जाती है। कण्ठावरोध होकर, प्राणवायु की गति समाप्त होकर, प्राणी मृत हो जाता है । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जनराजतरंगिणी [१:७:२२२-२२४ प्राणान्ते विगलत्सूर्यसोमनेत्रजलच्छलात् ।। निरगान्नरदेवस्य प्रजास्नेहरसो ध्रुवम् ॥ २२२ ॥ २२२. प्राणन्त होने पर विगलित सूर्य चन्द्ररूप नेत्र के जल के व्याज से निश्चय ही राजा का प्रजा-स्नेह रस निस्रित हुआ। द्वापञ्चाशतमब्दान् स राज्यं कृत्वा सुखप्रदम् । षट्चत्वारिंशवर्षेऽगादिवं श्रीजैनभूपतिः ॥ २२३ ।। २२३. वह जैन भूपति ५२ वर्ष सुखपूर्वक राज्य करके ४६ वे वर्ष स्वर्ग प्रयाण किया। कर्णीरथशवप्रोद्यच्छत्रचामरकैतवात् शुचेव पतितौ नून सूर्याचन्द्रमसौ दिवः ॥ २२४ ॥ २२४. करणी-रथ स्थित शव पर, चलते छत्र-चामर के व्याज से, मानों शोक के ही कारण, सूर्य एवं चन्द्रमा आकाश से निपतित हो गये थे। पाद-टिप्पणी: सुल्तान का जन्मकाल सन् १४०१ ई०, राज्यप्राप्ति२२२. (१) नेत्र जल : मार्ककण्डेयपुराण के काल १४१८ ई० एवं मृत्युकाल १४७० ई० अनुसार नेत्र से जल अचानक निकलने पर मनुष्य ठहरता है। को मरणासन्न समझ लेना चाहिए। मृत्यु उसकी पाद-टिप्पणी . लोला किसी समय समाप्त कर सकती है ( मा०: २२४ (१) करणी-रथ - शिविका । कल्हण ४३ : १-३३; ४० : १-३३)। ने करणी-रथ का उल्लेख (रा० : ४ : ४०७; ५ : पाद-टिप्पणी : २१९ ) में किया है। करणी-रथ शिविका के अर्थ २२३. (१) बावन वर्ष : पीर हसन के अनु- मे यहाँ प्रयोग किया है। काश्मीर में पालकी को सार मृत्यु के समय सुल्तान की उम्र उनहत्तर साल 'कत्त' कहते है । कत्त मैं समझता हूँ कि करणी का थी। उसने इक्कावन वर्ष, दो मास तथा तीन दिन अपा । देरशाह के सत्य प्रसंग में सात का राज्य किया था (पृष्ठ १८६ ) । तवक्काते अकबरी शिविका में रखा जाना श्रीवर वर्णन करता है में राज्यकाल ५२ वर्ष दिया गया है (४४६ = । (२ : २०८) किन्तु श्लोक (२ : २०९) मे ६७२)। फ़िरिश्ता राज्यकाल लगभग ५२ वर्ष शव को मंजूषिका से उतरने का उल्लेख करता है। देता है ( ४७४)। श्रीवर ने मंजूषिका ताबूत के अर्थ में प्रयोग किया (२)छियालीस वर्ष : सप्तर्षि ४५४६ % है। श्रीवर मृत्यु के समय उपस्थित था परन्तु सन् १४७० ई० = संवत् १५२७ विक्रमी = शक प्राणान्त के पश्चात वह शव ताबूत में रखने का १३९२ = कलि गताब्द ४५७१ वर्ष। तवक्काते वर्णन करने लगता है । शव के स्नानादि का वर्णन अकबरी में मृत्यु का काल नही दिया है। फिरिश्ता नहीं करता। मुसलिम परम्परा के अनुसार मृत्यु के लिखता है कि सुल्तान हिजरी ८७७ में मर पश्चात शव को नहलाते है । भारत में बैर की पत्ती गया। पानी में उबाल दी जाती है। उसी पानी से स्नान यदि श्रीवर की गणना ठीक मान ली जाय तो कराया जाता है। अरब में ठण्डे जल में बैर की Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ १:७ : २२५-२२६ ) श्रोवरकृता तत्कालं मन्त्रिणो भृत्या दासा जनपदाश्च ये । रुदितानुस्रुतिव्याजान्निवापाञ्जलिमक्षिपन् ॥ २२५ ॥ २२५. उस समय मन्त्री, भृत्य, दास एवं जनपद निवासी, रोने के रुदिताश्रु प्रवाह के व्याज से, मानों विनयांजलि दिये। राज्यं षण्णवते वर्षे ज्येष्ठे मास्यग्रहीन्नृपः । उत्तरायणकालान्त स्तेनैवान्तर्धिमासदत् ॥ २२६ ।। २२६. राजा ने ९६ वर्ष के उत्तरायण काल के अन्त ज्येष्ठ मास में राज्य प्राप्त किया और उसी मास के साथ अन्तहित हआ। पत्ती पानी में घोलकर गाज पैदा करते है । उसी से प्राचीन परम्पराये मुसलिमकरण नीति के होते हुए नहलाया जाता है। कही-कही कपूर का. गुलाब या भी अपनायी थी। छत्र एव चामर राजाओं का केवडाजल छिडकते है। मुख तथा जोडो पर कपूर पुरातन चिह्न है। मुसलिम बादशाहों ने यह प्रथा मल देते अथवा रखते है। भारत मे स्वीकार कर लिया था। पाण्डू के कल्हण ने राजा शंकरवर्मा के शव को करणी-रथ दाहकर्म के समय शिविका मे शव ले जाया गया मे रखकर काश्मीर मे लाने का वर्णन किया है और उस पर छत्र और चमर थे (स्त्रीपर्व० : २३ : (रा० : ५ : २१९ ।। ३९-४२)। भीष्म पितामह के दाहकर्म का वर्णन करणी-रथ का तात्पर्य अरथी या शवयात्रा के महाभारत में किया गया है । शव के ऊपर छत्र एवं लिए अरथी आदि पर तैयार किया गया, रथानुरूप चामर लगे थे (अनुशासन० : १६९ : १०-१९)। सजावट करते है। आज भी जहाँ अरथी को सजा- पाद-टिप्पणी : कर ले जाते है, उसे रथ शब्द से ही अरथी की पाठ-बम्बई। जगह सम्बोधन करते है। पंजाब के खत्री लोग २२६ (१) वर्ष : सप्तर्षि ४४९६ = सन् सजी अरथी को विमान कहते है। १४२० ई० = विक्रमी १४७७ = शक १३४२ ई० । शिविका अर्थात पालकी का प्रयोग राजाओ (२) उत्तरायण : सूर्य की मकर रेखा से का शव ले जाने के लिये अबतक काशी मे उत्तर कर्क रेखा की ओर गति । ६ मास का समय किया जाता है। मैने अपनी आँखों से देखा है कि जिसके मध्य सूर्य मकर रेखा से चलकर निरन्तर काशीराज प्रभूनारायण सिंह का शव नन्देश्वर पैलेस उत्तर की ओर बढ़ता रहता है। मृत्यु किस समय से मणिकर्णिका स्मशान तक पालकी अर्थात शिविका होती है इसके विषय में अनेक धारणायें है। गीता पर ही गया था। काशीलाभ करनेवाले कितने तथा अन्य ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है। कल्पतरु : ही राजाओं का शव शिविका पर ले जाते हुए देखा मोक्षकाण्ड तथा शान्तिपर्व २९८ : २३ में लिखा है। शिविका बनी-बनायी होती है। ताबूत भी है कि जो उत्तरायण में मरता है वह पुण्यशाली बना-बनाया होता है परन्तु विमान, अरथी एवं है। यह धारणा उपनिषद पर आधारित है-अस्तु रथ बनाया जाता है। चाहे उसकी अन्तेष्टि की जाय या नही, वह (२) छत्र चामर : जनाजा का उल्लेख श्रीवर प्रकाश को प्राप्त करता है। प्रकाश से दिन, करता है। काश्मीर के शाहमीर वंशीय सुल्तानों ने दिन से चन्द्रमा का शुक्लपक्ष, उसमें उत्तरायण ६ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैनराजतरंगिणी अतीतगणितैकोनसप्तर यब्दायुषं वदनावगतप्रोद्यत्कुष्ण कूर्चकचच्छम् २२७. उनहत्तर वर्ष की आयुवाले और मुख पर कृष्ण वर्णं दाढ़ी एवं बालों से शोभित उस नृप को मास, उससे वर्ष, वर्ष से सूर्य, सूर्य से चन्द्र एवं चन्द्र से विद्युत की प्राप्ति होती है। अमानय उसे ब्रह्म की तरफ ले जाता है। यह देवमार्ग है, जिससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है। इस मार्ग से जानेवालो का पुनर्जन्म नही होता ( छान्दोग्योपनिषद ५-६)। भगवद्गीता मे भी कहा गया है अर्जुन! जिस काल मे शरीर को त्याग कर हुए योगीजन पीछे न आनेवाली गति को और पीछे आनेवाली गति को भी प्राप्त होते है, उस काल अर्थात मार्ग को फहूँगा । उन दो प्रकार के मार्गों - गये शवीभूतं शिवीभूतं शिविकायां शवाजिरम् । रुदन्तो मन्त्रिणो निन्युश्छत्रचामरराजितम् ।। २२८ ।। २२८ जो कि शव एवं शिव हो गया था । रोते मन्त्री छत्र-चामर से शोभित करके, शिविका' में शबाजिर (कविस्तान) ले गये। : , नृपम् । ४ १५: . है में से जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता है और दिन का अभिमानी देवता है, ब्रह्मवेत्ता और उत्तरायण ६ महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग मे मर कर गये हुए ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म को प्राप्त होते है। उत्तरायण देवयान तथा दक्षिणायन पितृयान सनातन माने गये है ( ८ : २३ - २६ ) | भीष्म पितामह उत्तरायण में प्राण त्यागने के लिए शरशय्या पर पड़े रहे। सूर्य की गति ६ मास उत्तरायण एवं ६ मास दक्षिणायन रहती है। दिस म्बर २३ से जून २३ तक उत्तरायण तथा २४ जून से २२ दिसम्बर तक सूर्य दक्षिणायन रहता है। दक्षिणायन में मरनेवाला व्यक्ति है, धूम और धूम से रात्रि, रात्रि से कृष्णपक्ष, उससे दक्षिणायन के ६ मास, उससे पितृलोक, उससे आकाश तत्पश्चात चन्द्रलोक जाते हैं । वहाँ कर्मफलों का भोग कर उसी मार्ग से पुन: लौट आते हैं । जैनुल आबदीन [१७ २२७-२२८ ।। २२७ ।। : : इसी उत्तरायण मार्ग से गमन कर स्वर्ग प्राप्त किया था। पाद-टिप्पणी । 'कूर्च' = पाठ-बम्बई । ने ५२ वर्ष राज्य किया था। इस प्रकार उसका २२७. (१) उनहत्तर वर्ष : जैनुल आबदीन जन्मकाल सन् १४०१ ई० ठहरता है। फिरिश्ता भी सुल्तान की मृत्यु समय की आयु ६९ वर्ष देता है (४०४)। (२) दाढ़ी सुल्तान अन्य तत्कालीन मुसलिम सुल्तानों के समान दाढ़ी रखता था। मैंने अबतक जितने प्रसिद्ध सुल्तानों की तस्वीरें देखी है। उनमें अकबर एवं जहाँगीर ही दाहीविहीन दिखायी दिये । दाढ़ीविहीन सुल्तान होना, अपवाद ही माना जायगा । पाद-टिप्पणी : : 1 २२८. (१) शिविका राजाओं का शव शिविका में रख कर स्मशान ले जाने की पुरानी परम्परा है । दशरथ का शव शिविका में रखकर स्मशान ले जाया गया था (रामा० : अयोध्या : ७६ : १३) । रावण का शव भी शिविका में ले जाया गया था। प्राचीन धारणा है कि मृत होने पर शव शिव स्वरूप किंवा व्यक्ति महादेव हो जाता है द्र० १:५ : ६०; २ : २०८ । हैदरशाह का भी शव शिविका में ले जाया Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:७ : २२९-२३३ ] श्रीवरकृता २३९ यत्र सुप्ता इवैकत्र भान्ति पूर्वे महीभुजः । भर्तृप्रेम्णा धरण्येव निहिता हृदयान्तरे ॥ २२९ ॥ २२९. जहाँ पर, पूर्ववर्ती राजा शुप्त सदृश, एकत्र शोभित हो रहे थे, स्वामिप्रेम के कारण धरणी ही, मानों हृदयान्तर में ( उन्हें ) निहत कर लिया है। रुदत्पौरजनप्रोद्यत्ताररोदननिःस्वनैः । बभूवुस्तच्छचेवारं साक्रन्दमुखरा दिशः ॥ २३० ॥ २३०. रोते पुरवासियों के कारण उत्पन्न, तीव्र रोदन के ध्वनि से, मानों अत्यधिक शोक के कारण, दिशाएं हो आक्रन्दन से मुखरित हो उठी । क प्रयासि प्रजासत्यक्त्वा हा देव नरजीवित । इत्यस्मादपरः शब्दो नाश्रावि नगरान्तरे ।। २३१ ।। २३१. 'हा ! हे ! देव !! हे | नरप्राण !! प्रजाओं को त्यागकर कहाँ जा रहे हो' ? इसके अतिरिक्त नगर में दूसरा शब्द सुनायी नहीं दिया। तत्तदाक्रन्दितः शश्वत्कर्णसंजातसंस्तवाः । शून्येऽप्यशृण्वंल्लोकानामाक्रन्दितमथासकृत् ॥ २३२ ॥ २३२. तत् तत् आक्रन्दनों से, लोगों का कान पूर्ण हो जाने के कारण, शून्य में भी वे लोगों का अनेकशः आक्रन्दन सुनते थे। कर्णीरथादथोत्क्षिप्य पितुः पार्वे नरेश्वरम् । कृत्वा पटैकसंवीतं भूगर्भाभ्यन्तरे न्यधुः ॥ २३३ ॥ २३३. नरेश्वर को कीरथ से उठाकर तथा एक वस्त्र' से परिवेष्ठित कर, पिता के पास भू-गर्भ में रख दिया। गया था (जैन० : २ . २०८)। हिन्दुओं का शव पाद-टिप्पणी : भी शिविका में ले जाने का उल्लेख श्रीवर ने किया २३३. (१) एक वस्त्र : साधारणतया शव को है (जैन : १ : ५ : ६०)। स्नान कराने के पश्चात एक तहमत, एक कुरता, दो (२) शवाजिर · काश्मीर के मजारे सलातीन, चादर और एक सरबन्द से शव को आच्छादित कर अर्थात् कब्रिस्तान से तात्पर्य है । द्र०:२ . ८५, देते है । अरब मे तीन चादर मे लपेटते है । काश्मीर ८९; ३ : ३५५ । की यह लौकिक परम्परा प्रतीत होती है कि शव को पाद-टिप्पणी : मिट्टी देने के पूर्व एक वस्त्र से परिवेष्ठित करते है । 'प्रेम्णा' पाठ-बम्बई। मुहम्मद साहब दो महीन वस्त्रों में परिवेष्ठित किये गये थे। तीसरा धारीदार वस्त्र शव पर डाल पाद-टिप्पणी : दिया गया। २३०. 'तार' पाठ-बम्बई । हैदरशाह के मृत्यु के पश्चात उसके मिट्टी दिये Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैनराजतरंगिणी [१:७:२३४-२३५ नेत्रनालस्रवद्धाष्पधाराः स्वाचारकारणात् । मुखावलोकनं कृत्वा सर्वे मृन्मुष्टिका जहुः ।। २३४ ॥ २३४. लोगों के नेत्रनाल से अश्रुधारा चल रही थी। अपने आचार के कारण मुखावलोकन करके, सब लोग मुट्ठी भर मिट्टी डाले। भूपतिर्भविता नान्यस्त्वत्समो भूरियं गता। इतीव भावनां चक्रुमृन्मुष्टिग्रहणच्छलात् ॥ २३५॥ २३५. तुम्हारे समान दूसरा भूपति नही होगा, यह पृथ्वी भी चली गयी, मानों यही भावना मुट्ठी भर मिट्टी ग्रहण करने के व्याज से, लोगों ने किया । - - - जाने के सन्दर्भ मे वर्णन करते हुए श्रीवर ने पुन. जैसा खोदा जाता है। उसमे शव रख दिया जाता एक वस्त्र शब्द ही दुहराया है (२ : २०९) । है । गुफा का मुख लकडी, इंटा अथवा पत्थर से ढक (२) भूगर्भ : कन्न। कर मिट्टी दी जाती है। पैगम्बर मुहम्मद साहब की पाद-टिप्पणी : कब्र बगली थी। उसका मुख कच्ची ईटों से ढक दिया २३४. (१) मुखावलोकन : शव को कब्र में गया था। रखने के पहले उसका मुख खोल देते है। अन्यथा कब्र का मुख पत्थर, लकड़ी या ईटों से ढकने के शव का मुख कफन में लिपटा ढंका रहता है। मुख पश्चात पत्थर या लकड़ी अथवा ईटों के जोड़ों को मक्का की तरफ कर दिया जाता है। पैर दक्षिण । गीली मिट्टी से वन्द कर देते है। कच्ची ईटों का प्रयोग अच्छा माना जाता है। ताकि ऊपर की मिट्टी तथा शिर उत्तर रहता है। शव कब्र में रखने पर शव पर जाकर न पड़ जाय । लोग आकर मुट्टियों मुख पुनः कफन से ढंक दिया जाता है। या अंजुरियों में मिट्टी लेकर कब्र के अन्दर छोड़ देते (२) मिट्टी : मुसलमानों में प्रथा है कि शव को है। कब्र खोदने से जो मिट्टी ऊपर पड़ी रहती है कब्रिस्तान में रख दिया जाता है। कब्र खोदकर उसी से तीन मट्री मिट्री कब्र मे डाला जाता है। तैयार रहती है या खोदी जाती है। कब्र बगली कही पाँच, कही तीन, कही एक लौकिक प्रथा के ता ह। कब्र खादा अनुसार मिट्टी छोड़ी जाती है। सगे-सम्बन्धी या जाता है। इतना लम्बा-चौड़ा होता है कि दो मित्र जब मढ़ियों से डाल चकते है तो कबर से खोदआदमी उसमे खड़े हो सकें। तत्पश्चात शव से कुछ कर निकली मिट्री जो कबर के चारों ओर फैली लम्बा सन्दूकनुमा चौकोर खोदा जाता है। उसमें रहती है। उसे पुनः कब्र मे डालकर कब्र भर दिया रखकर उस पर पत्थर या लकड़ी से ढक देते जाता है। मिट्री इतनी बगली या सन्दूकी कब्र खोदने है । ताकि शव को क्षति न पहुंचे और मिट्टी, लकड़ी के कारण बच जाती है कि स्वतः ऊँची बन जाती तथा पत्थर के ऊपर ही पड़ी रह जाय । बगली है। उसपर जल छिड़का जाता है। कुछ लोग उसकबर में कब्र खोदने के पश्चात उत्तर-दक्षिण के किसी पर चादर चढ़ा देते है । कब्रों पर चादर चढाने तथा दिवाल के अन्दर शव के लम्बाई से कुछ अधिक गुफा उसके पास लोहबान जलाने का रिवाज है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ १ . ७ : २३६-२४१] श्रीवरकृता जित्वारीन् प्रबलान् रणे क्षितिमिमां वृत्वा धनैः सर्वतो दत्त्वा कोशमशेषदेशविदिताः कृत्वा पुरीः स्वाभिधाः । सप्ताङ्गोर्जितभङ्गिसङ्गिसुभगंकृत्वापि राज्यं चिरं __ हित्वा सर्वमहो पटैकरचनामन्ते लभन्ते नृपाः ॥ २३६ ॥ २३६. रण में प्रबल शत्रुओं को जीतकर, इस पृथ्वी को सब ओर से धनपूर्ण कर, कोष देकर, सब देशों मे प्रसिद्ध अपने नाम की पुरी निर्मित कर, सप्तांगों से अजित एवं सुभग राज्य का चिरकाल तक भोग कर, दुःख है कि नृप सब कुछ त्याग कर, अन्त में केवल एक वस्त्र प्राप्त करते हैं। स वैरराज्यदावाग्निसन्तप्त इव शीतलाम् । तद्गुहान्तरमासाद्य सुखनिद्रामिवाभजत् ।। २३७ ।। २३७. बैरपूर्ण राज दावाग्नि से संतप्त सदृश होकर, शीतल उस गुफा ( कब्र ) में जाकर, मानों उसने सुख की नींद ली। मुखं निद्रावृतस्येव दृष्ट्वा सौभाग्यसुन्दरम् । हाज्यिखानोऽकरोत् पित्रे मस्तकं स्वमरात्रिकाम् ॥ २३८ ।। २३८. निद्रित सदृश उसके सौभाग्य सुन्दर भाव को देखकर, हाजी खान ने अपने पिता के लिये अपने मस्तक से आरती की। अपराद्धं मया तात बहुशः पापबुद्धिना । मन्ये तेनैव रुष्टस्त्वमसहायो गतो दिवम् ।। २३९ ।। २३९. 'हे ! तात !! मुझ पाप बुद्धि ने बहुत अपराध किया, मानों उसी से रुष्ट होकर, तुम असहाय ( अकेले ) स्वर्ग चले गये। शेकन्धरनृपो धन्यो यस्त्वां पश्यति नाकगः ।। धिङ्मा यो वञ्चितो राजन् दर्शनामृतवर्षणैः ।। २४० ।। २४०. 'हे ! राजन् !! नृप शेकन्धर ( सिकन्दर ) धन्य है, जो स्वर्ग जाकर, तुम्हें देख रहा है। मुझे धिक्कार है, जो दर्शनामृत वर्षणों से वचित रहा। विहृतं क्वापि नो तात मां विना स्वोत्सवक्षणे । वदाद्य कथमेकाकी भजसे स्वर्गसंपदः ।। २४१ ।। २४१. 'हे ! तात !! अपने उत्सव के क्षण में भी कहीं मेरे बिना क्रीड़ा नहीं की, बोलो ! आज कैसे एकाकी ( अकेले ) स्वर्ग सम्पत्तियाँ भोगोगे ? पाद-टिप्पणी: २३७. 'तदगुहा' पाठ-बम्बई । जै रा. ३१ पाद-टिप्पणी : २४१. 'स्वो' पाठ-बम्बई ।। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैनराजतरंगिणी यस्त्वं कोमलशय्यासु नागा निद्रां गणावृतः । स कथं भ्रूगणस्यान्तस्तिष्ठस्येकः सशर्करे ।। २४२ ॥ २४२. 'जो तुम गणावृत' होकर, कोमल शय्या पर निद्रा नही प्राप्त करते थे, वही तुम अकेले भूमि के कंकरीले मध्य भाग में कैसे स्थित हो ? [ १ : ७ : २४२-२४७ प्रतिमुच्य भवन्तं मे प्राप्तस्य स्वगृहं न कः । अशप मास्तु मेलापो भूयो वामिति कोपितः ।। २४३ ॥ २४३. ‘आपको छोड़कर, अपने घर पहुँचने पर, मुझको क्रुद्ध होकर किसने यह शाप दिया कि इन दोनों का पुनर्मिलन न हो ? औन्निद्रय कारितोऽस्माभिः कुपुत्रैः सततं भवान् । arrari प्राप्य दीर्घनिद्रां करोषि किम् ।। २४४ ॥ २४४. 'हम कुपुत्रों ने निरन्तर आपको उनिद्र कर दिया था। क्या आज ही अवसर पाकर निद्रा ले रहे हो ? ज्वलिताभूत् तनुर्नित्यं सततोदितया यया । साद्य किं चलिता राजंश्चिन्ता ते मानसान्तराम् || २४५ ।। २४५. 'निरन्तर उत्पन्न जिसने नित्य शरीर को जलाया, हे ! राजन् ! क्या वह चिन्ता तुम्हारे मन से चली गयी ? चित्रे वाप्यथ संकल्पे पश्यामि वदनाम्बुजम् । शृणोमि ताः कथाः कुत्र तात ते बहुपातकी ।। २४६ ।। २४६. 'हे तात् ! चित्र मे अथवा सकल्प में तुम्हारे पदाम्बुज को देखता हूँ, परन्तु बहुपातकी मैं, तुम्हारी उन कथाओं को कहाँ सुनता हूँ ? राज्यं विपद् दिनं रात्रिः जीवनं मरणं नाथ त्वां सूद्यानं पितृकाननम् । विना मम सांप्रतम् ॥ २४७ ॥ २४७. 'हे नाथ! तुम्हारे बिना इस समय मेरे लिये राज्य विपत्ति, दिन-रात्रि, सुन्दर उद्यान पितृ कानन ( कब्रिस्तान ) तथा जीवन मरण हो गया है । पाद-टिप्पणी. २४७ (१) पितृ कान : श्रीवर ने कब्रिस्तान को श्लोक मे शवाजिर लिखा है । यहाँ वह पाद-टिप्पणी : २४२. ( १ ) गणावृत्त गणों, पारषदों या लोगों से घिरे रहने से तात्पर्य है । ( २ ) कंकरीला : कंकरीली मिट्टी से तात्पर्य कब्रिस्तान की संज्ञा पितरों के है । क्योंकि अनेक पितरों की कब्र कानन से दिया है। कब्रिस्तान में थी । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ : ७ : २४८-२५२] श्रीवरकृता २४३ कुपितो वा प्रसन्नो वा कुतोऽप्यागत्य तात मे । दर्शनं देहि नो सोढुं क्षमो विरहवैशसम् ।। २४८ ॥ २४८. 'हे तात् ! कुपित अथवा प्रसन्न होकर, कहीं से आकर दर्शन दो, विरह पीड़ा सहने में समर्थ नहीं हूँ। विहाय क नु मां तात गतः पादैकसेवकम् । धु तिं न लभते पद्मकोरको भास्करं विना ॥ २४९ ।। २४९ 'हे तात! पाद मात्र के सेवक' मुझे त्याग कर, कहा गये? सूर्य के बिना कमल कोरक (कलो) कान्ति नही प्राप्त करता।' किं रुष्टोऽसि महीपतेत्वमधुना दासोऽस्मि सेवापरो मौनं मा भज देहि वाक्यमधुनाप्येकं ममात्यादरात् । नो जीवामि विना त्वयेति विलपन् कुर्वन् भुजारात्रिकां साक्रन्दं रुदितं चकार सुचिरं दृष्ट्वा मुखं भूपतेः ।। २५० ।। २५०. राजा के मुख को देखकर, 'हे महोपति ! क्यो रुष्ट हो? मै इस समय भी सेवापरायण दास हूँ। मौन मत हो, अब भी मुझे प्रेम से एक बात कहो-'तुम्हारे बिना नहीं जीवित रहूँगा' इस प्रकार बिलखते हुए बहुत देर तक चिल्लाकर, रुदन किया। इति प्रलापमुखरं हाज्यखानं शुचादितम् । राजधानी ततो निन्युदिनान्ते मन्त्रिणो बलात् ।। २५१ ।। २५१. शोक-पीड़ित बिलाप करते हाजी खान को सायंकाल' मन्त्री बलात् वहाँ से राजधानी ले गये। पितुर्लोकान्तरस्थस्य प्रीत्यर्थं तत्क्षण सुतः । सालोरग्राममात्मीयं न्यधात तत्र शवाजिरे ॥ २५२ ।। २५२. परलोक स्थित पिता को प्रीति हेतु, तत्क्षण पुत्र ( हाजी खान ) ने उस शवाजिर ( कब्रिस्तान ) में ही अपना सालोर' ग्राम उनमें अनेक सुल्तान तथा राजवंशीय पुरुष चिर पाद-टिप्पणी : निद्रा ले रहे थे। वही उनका बगीचा था। उपमा २५१ (१) सायकाल · प्रतीत होता है कि श्रीवर ने यहाँ अच्छी दिया है। मैन यह स्थान सुल्तान को मध्यान्तर मिट्टी दी गयी थी और देखा है । यहाँ अब भी कुछ वृक्ष लगे है । मुसलमान मृतक सस्कार सायकाल तक समाप्त हो चुके थे। कब्रिस्तान तथा आस-पास वृक्ष लगा देते है। पूर्वीय उत्तर प्रदेश मे कब्रिस्तान मे बैर या मौसरी का पेड़ पाद-टिप्पणी : प्रायः लगाया जाता है। अमीर लोग बाग लगवाते २५२. (१) सालोर : का पाठ भेद 'मालोर' है। उसी मे कबें बनायी जाती है। भी मिलता है। यदि मालोर मान लिया जाय तो Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैनराजतरगिणी [१:७ : २५३-२५७ ग्रीष्मपानीयदानेन तृप्त्यर्थं तत्प्रदायिनाम् ।। बहूनां प्रददौ क्षोणीमहार्यां धर्मसात्कृताम् ।। २५३ ॥ २५३. ग्रीष्म ऋतु में जलदान द्वारा तृप्ति के लिये, न्यास कर दिया, तथा बहुत से जल प्रदाताओं को सदैव के लिये, धर्म हेतु भूमि प्रदान की। राज्ञानेन विना शून्यां नास्मि मामीक्षितुं क्षमः । इतीव दुःखात् तत्कालं स्वमब्धौ रविरक्षिपत् ।। २५४ ।। २५४. इस राजा के बिना, शून्य पृथ्वी को देखने में समर्थ नहीं हूँ, मानों इसी दुःख से तत्काल रवि स्वयं को सागर में डाल दिये। सन्ध्याभ्रशाटीमुत्सृज्य रोदनार्थमिवेशितुः ।। शुचेव विस्तृतं चक्रे तमःकचचयं क्षितिः ।। २५५ ॥ २५५. राजा के शोक के कारण ही मानों, पृथ्वी सन्ध्याकालीन अभ्र शाटी ( साड़ी) त्यागकर, अन्धकार रूप केशपाश विखरा दिये। आशाप्रकाशके वन्यदर्शने गुणिवान्धवे । परलोकं गते तस्मिन् मण्डले प्रोदभूत् तमः ।। २५६ ॥ २५६ आशा प्रकाशबन्ध दर्शन, गुणी बान्धव', उसके ( राजा-सूर्य ) चले जाने पर, उस मण्डल में अन्धकार छा गया। तदिने रन्धनाभावाद् गृहधूमविवर्जिता । शोकमूका निरुच्छ्वासा निर्जीवेवाभवत् पुरी ।। २५७ ।। २५७. उस दिन रन्धन' के अभाव में गृह धूम से रहित, शोक से मूक, स्वामि-रहित, पुरी निर्जीव सदृश हो गयी। यह स्थान चन्द्रभागा नदी के वाम तट पर है। करता है । राजा जनता की आशा पूर्ण करता है। लिदरखोल के संगम के दूसरी तरफ है। इस पर (२) गणी : शब्द श्लिष्ट है । गुणियों का और अनुसन्धान की अपेक्षा है । ( राजा ) आदर करता है। गुण का अर्थ कमल है। पाद-टिप्पणी : उसका बान्धव सूर्य है। २५४ 'शून्यां' पाठ-बम्बई । पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी: पाठ-बम्बई। 'प्रकाशके' पाठ-बम्बई। २५७. (१) रन्धन : द्र० : बहारिस्तान २५६. (१) आशा : पद में यह शब्द श्लिष्ट है। शाही : पाण्डु० : फो० : ५७ बी०, तारीख: आशा का एक अर्थ दिशा है। सूर्य दिशा को प्रकाशित आजम पाण्डु० : ४० । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १:७: २५८-२६०] श्रीवरकृता शवागारोपरि शिलां स्फाटिकी रचनोज्ज्वलाम् । दी( सर्वोन्नतां राज्ञो मृति परिणतामिव ।। २५८ ।। २५८. शवागार के ऊपर रचना से सुन्दर, दीर्घ एव स्फटिक शिला' राजा की परिणत मूर्ति सदृश लग रही थी। घनोत्कण्ठदिदृक्षाप्तरुदल्लोकाश्रुबिन्दुभिः । यत्र मुक्ताफलैः पूजा लसतीवोपरि प्रभोः ।। २५९ ॥ २५९. अत्यधिक उत्कण्ठावश देखने की इच्छा के कारण रोते हुये, लोगों के अश्रुबिन्दुरूप मुक्ताफलों से, जहाँ पर प्रभु के ऊपर, मानों पूजा शोभित हो रही थी। पाद-टिप्पणो . किसी प्रकार का धन नहीं है। अतएव उसे शान्ति २५८.(१) शिला : कब्र के ऊपर मूर्धा की से पडे रहने दिया जाय । तरफ लौहे मजार ( एक पत्थर ) जिस पर मृतक का मुसलमानों मे कच्ची कब्र की मान्यता है । नामादि लिखा रहता है, उसे खतवा कहते है। अमीर, नबाब, बादशाह अपना अधिक धन मजार उसे गाड़ देते है। उस पर दीपक रखने के लिए। बनाने में खर्च करते है । मुसलिम विधान के अनुसार ताखा बना रहता है। शिला रखना आवश्यक नहीं है। वन की पहचान भूमि मे गाड़ना सेमेटिक ( शामी) प्रथा है। के लिये एक पत्थर लगा दिया जाता है। ताकि यहूदियों तथा उनकी पुरातन बाइविल के अनुसार कुटुम्बीगण कब्र को पहचान कर फातिहा पढे और गाड़ना धार्मिक संस्कार है । कब्र से, व्यक्ति कयामत मृतात्मा के लिये दुआ मांगें। शिला लगाना पुण्य अर्थात प्रलय अथवा भगवान द्वारा पाप-पुण्य कार्य नही है। उसका लगाना आवश्यक नहीं है । निर्णय के दिन उठेगा। पत्थरों या लकडियों पर कही-कही लकड़ी भी मुसलिम देशों में पहचान के किसी प्रकार की आकृति बनाना या उन्हे किसी लिये लगा दी जाती है। जहाँ पत्थर का अभाव पुण्यकार्य के प्रतीक स्वरूप गढ़ना परम्परा, संस्कार होता रम्परा, संस्कार होता है। एवं सम्प्रदाय के विरुद्ध है। मैने अपनी इसराइल यात्रा मे देखा कि यहूदियों के कब्र पर एक अनगढा __ सुल्तान जैनुल आबदीन के कब्र मजारे सला तीन में कोई अभिलेख इस समय नहीं है। यदि वह खण्डित शिलाखण्ड गाड़ देते है। उससे कब्र की शिलाखण्ड मिल जाता, तो जैनुल आबदीन के मृत्यु पहचान हो जाती है। तथापि जरूसलम मे मैं महा के समय के विषय में विवाद मिट जाता। त्मन डेविड ( दाऊद ) तथा सुलेमान की पक्की बनी हुई कब्र देखा है । यहूदी लोग पत्थर या प्लास्तर राजतरगिणी संग्रह में राज्यकाल ५० वर्ष दिया के ताबूत में रखकर शव गाड़ने लगे थे। इस प्रकार गया है। डाक्टर सूफी मृत्युकाल सन् १४७० ई०, के ताबूत या बक्स इसराइल के अनेक संग्रहालयों मे वेंकटाचालम् सन् १४७४ ई०, दिल्ली सल्तनत तथा रखे मिलेंगे। उनमे रत्न, द्रव्य आदि रखते थे। कब कैम्प्रि० हिस्ट्री मे सन् १४७० ई० दिया गया है। खोदकर धन निकालने वालों की एक गोल बन गयी (द्र० राजतरंगिणी संग्रह श्लोक ९९ पृष्ठ २४७ थी। अनेक ताबूतों पर लोग लिख देते थे कि उसमे लेखक भाष्य ।) Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनराजतरंगिणी [१:७ : २६१-२६४ पौराः शुक्रदिने भान्ति यत्रान्तःप्रतिबिम्बिताः । राज्ञव निकटं नीताः कुतूहलतयात्मनः ॥ २६० ।। २६०. शुक्रवार के दिन जिस स्फटिक शिला में प्रतिबिम्बित होकर, पुरवासी सुशोभित होते हैं, राजा मानों उन्हें कुतूहलवश अपने निकट ले आये। कवाटविकटं वक्षो मुखं पूर्णेन्दुसुन्दरम् । शुकवदीर्घनासाग्रं नेत्रे कमलकोमले ॥ २६१ ॥ २६१. कवाट सदृश विकट वक्षस्थल, पुर्णेन्दु सुन्दर मुख, शुकवत् लम्बी नासिका, कमल कोमल नेत्र भ्रलेखे लोमशे भालं प्रभालम्भितलक्षणम् ।। सा बुद्धिस्ते गुणास्ताश्च राज्यकार्यावधानताः ॥ २६२ ॥ २६२. रोमपूर्ण भ्रूलेखायें प्रभा से सुलक्षण भाल, वह बुद्धि, वे गुण राज्यकार्य में वे सावधानियां स्मारं स्मारं जनः सर्वो राज्ञः पुर इव स्थितः । पर्यन्तनीरसासारं संसारं निन्दते न कः ।। २६३ ॥ २६३. राजा के समक्ष स्थित सदृश होकर, सब लोग बार-बार स्मरण किये और अन्त में नीरस एवं निस्तत्व संसार की निन्दा किसने नही की ? ज्योत्स्ना पूर्णसुधाकरस्य कुसुमोत्कर्षो वसन्तस्य यत् सौभाग्यं शरदि प्रसन्ननभसो नार्या नवं यौवनम् । राज्ये चैव विवेकिनो नरपतेयत सर्वसौख्यप्रदं धाता तत् कुरुते स्थिरं यदि जने स्वर्गार्जने न स्पृहा ॥ २६४ ॥ __ २६४. पूर्ण चन्द्रमा की ज्योत्स्ना, वसन्त का कुसुमोत्कर्ष, शरद के निर्मलाकाश का सौन्दर्य, नारी का नवयौवन तथा राज्य में विवेकी राजा का सबको सुख प्रदान करना, ( उन्हें ) यदि विधाता व्यक्ति में स्थिर कर दे, तो स्वर्ग जाने की प्रति स्पृहा लोगों में न रह जाय । पाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी : २६०. (१) शुक्रवार = जुमा । मुसलमान लोग २६१. (१) रूप वर्णन : श्रीवर जैनुल आबजुमा को पवित्र दिन और उस दिन मृत्यु होना अच्छा दीन के स्वरूप का वर्णन करता है। जोनराज तथा मानते है । पैगम्बर मुहम्मद साहब का देहान्त सोमवार अन्य परशियन इतिहासकारों ने सुल्तान के रूप का को हुआ था । शुक्रवार का मरना शुभ है । यह मुस- वर्णन नहीं किया है । श्रीवर के वर्णन से जैनुल आबलिम शास्त्रीय परम्परा नही केवल एक मान्यता मात्र दीन के रंग-रूप की कल्पना की जा सकती है। है। इससे यह भी प्रकट होता है कि शुक्रवार के दिन पाद-टिप्पणी सुल्तान के कब्र पर, आदर प्रकट करने अथवा सुल्तानप्रेमी मुसलमान फातिहा पढ़ने जाते थे। २६२. 'लम्भित्' पाठ-बम्बई। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ १:७:२६५-२६६] श्रीवरकृता बाल्ये पित्रा वियोगो वरसचिवभियो भ्रातृभृत्यैविरोधः प्राप्ते राज्ये प्रवासो बहिरथ समरोऽप्यग्रजेनातिकष्टः । धात्रेयेभ्योऽथ चिन्ता तदनु निजसुतैर्यावदायुश्च बाधा संसारे सर्वदास॒स्रुतिकृति भविनां नित्यदुःखां स्थिति धिक् ।। २६५ ॥ २६५ बालकाल में पिता से वियोग, श्रेष्ठ सचिवों से भय, भाइयों एवं भृत्यो से विरोध, राज्य प्राप्त होने पर, बाहर प्रवास, भाई के साथ अति कष्टप्रद समर, ( युद्ध ) धात्रीपुत्रों से चिन्ता, उसके पश्चात् अपने पुत्रों से जीवनभर बाधा-नित्य दुःखप्रद स्थिति को धिक्कार है । नूनं जातकयोगेन पुत्रेभ्यो दुःखमन्वभूत् । अभूदस्य सुतस्थाने भौमो यत् पापवीक्षितः ।। २६६ ॥ २६६. निश्चय ही जातकयोग' के कारण, पुत्रों से दुखी हुआ क्योंकि उसके सुतस्थान मे पापदृष्ट भौम था। पाद-टिप्पणी : के दो लघु उपग्रह है। उनका व्यास क्रम से चालीस २६६. (१) जातक योग , मानव का फल तथा दस मील है। चन्द्रमा से आकार मे दूना है। कहलाता है। जातक पृथ्वी एव मंगल का घूर्णन काल लगभग समान है। शास्त्र में पंचम स्थान के द्वारा पुत्र का विचार होता पृथ्वा तथा मंगल दाना ग्रहा पर रात्रि तथा दिन की है। पापग्रह पुत्र की हानि एवं शुभग्रह पुत्र की । की लम्बाई एक तरह की होती है। मंगल पर ऋतु प्राप्ति कराते है। पंचम स्थान में मंगल होने पर परिवर्तन होता है । पृथ्वी के ऋतुओ के प्राय. समान पत्र की हानि करता है। पापदष्ट होने पर पत्र हाता है । भौतिक स्थिति पृथ्वी के समान है। मंगल नाशक होता है। जिसका सन्तान दुर्बल होता ग्रह का रंग लाल है। भूमि का पुत्र पुराणों की है, उसके पुत्रों की हानि होती है अथवा पुत्रों द्वारा मान्यता के अनुसार माना जाता है अतएव नाम विविध प्रकार का कष्ट होता है। ज्योतिष के अनु भौम पड़ा है। पुराणों के अनुसार यह ग्रह पुरुष सार योग २८ होते हैं। फलित ज्योतिष का एक हैं। जाति क्षत्रिय है। सामवेदी है। भारद्वाज मनि भेद है। जिसके अनुसार कुण्डली देखकर फल कहा नह। इसका चार भुजाय ह । उनम शाक्त, जाता है। वट, अभय तथा गदा है। पित्त प्रकृति है। युवा (२) पाप दृष्टि भौम : इसे मंगल ग्रह कहते है । क्रूर एवं वनचारी है । रक्त वर्ण समस्त पदार्थों है। यह रक्त वर्ण है। पृथ्वी के अर्धव्यास ४२०० का स्वामी है। अधिष्ठातृ देव कार्तिकेय है । अवंति मील से कुछ बड़ा है। सूर्य से लगभग १४ करोड देश का अधिपति माना गया है। कुछ अंगहीन है। मील की दूरी पर स्थित है। पन्द्रह मील प्रति इस वर्ष मंगल पर मनुष्यों द्वारा चालित यान पहँच सेकेण्ड के वेग से चलता है। एक दशमलव ८८ वर्ष चुका है। में सूर्य की परिक्रमा करता है। इसका घूर्णन काल सप्तम तथा आठवें स्थान को पर्ण दष्टि से चौबीस घण्टा सैतीस मिनट है। सूर्य की परिक्रमा देखता है। मित्र के घर को देखता है, तो शुभ तथा ६८७ दिनों में पूर्ण करता है। पृथ्वी के दिन से अन्य का अशुभ होता है । सूर्य, चन्द्रमा एवं बहस्पति उसका दिन आधा घण्टा बड़ा होता है। मंगल ग्रह मित्र है । बुध शत्रु है। शुक्र एवं शनी सम है। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जैन राजतरंगिणी पण्डिताः कवयस्तस्य वाचाला तएव तं विना दृष्टाः पौषे मूका: येऽभवन् सदा । २६७. उसके जो पण्डित एवं कवि सदा बाचाल मास में पिक' सदृश मूक देखे गये । [ १ : ७ : २६७-२७० पिका इव ।। २६७ ।। रहते थे, वे ही उस राजा के बिना पोष सदा । याभूत् सरस्वतीनेत्रनिभा विकसिता ग्रन्थया संकुचिता साभूद् बुधपुस्तकसंततिः ।। २६८ ।। २६८. सरस्वती के नेत्र सदृश जो सदा विकसित रहती थी, वह बुध ( विद्वान ) पुस्तकों की परम्परा संकुचित हो गयी । तर्कव्याकरणादीनां शस्त्राणां ये श्रमं व्यधुः । ते राजरञ्जनायालं देशभाषाश्रमं व्यधुः ।। २६९ ।। २६९. जिन लोगों ने तर्क, व्याकरण आदि शास्त्रों में श्रम किया था, वे लोग राजा की प्रसन्नता के लिये देश भाषा में प्रचुर श्रम किये । राज्ञा ये बहुमानिता गृहसुखश्रीमण्डिताः पण्डिताः शास्त्राभ्यासमहर्निशं प्रविदधुर्ग्रन्थार्जनाद्युत्सुकाः । पाद-टिप्पणी : २६७. (१) पिक : कोयल, कोकिल । मीमांसा भाष्यकार सबरस्वामी ने पिक शब्द को म्लेच्छ भाषा से गृहीत बताया है। पिक वान्धव की संज्ञा वसंत ऋतु तथा पिकबन्धु आम का वृक्ष माना गया है । आम में मंजरी वसन्त ऋतु में लगती है । शीतकाल में पिक की बोली नहीं सुनाई पड़ती परन्तु कुसुमाकर के आगमन के साथ वह कुसुमों में पृष्टाः किं पठितेति ते प्रतिजगुः श्रीजैनभूपे गते कुत्र व्याकरणं व तर्ककलहः कुत्रापि काव्यश्रमः ॥। २७० ।। २७०. राजा द्वारा बहुत सम्मानित गृहसुखश्री से मण्डित, जो पण्डित अहर्निश शास्त्राभ्यास करते थे और ग्रन्थार्जन आदि के प्रति उत्सुक रहते थे, पूछे जाने पर वे कह जाते थे— 'श्री जैनुल आबदीन के चले जाने पर, कहाँ व्याकरण, कहाँ तर्क-विवाद और कहाँ साहित्य में श्रम ?' बँठी कूजने लगती हैं— कुसुम शरासन शासन वदिनि पिक निकरे भजभावम् — गीतगोविन्द : ९१ । पाद-टिप्पणी : २६८. (१) बुध: शब्द श्लिष्ट है । अर्थ बुद्ध तथा विद्वान है । दूसरा अर्थ भगवान बुद्ध हैं । यह अर्थ लगाने पर बौद्धों की पुस्तकों की परम्परा लुप्त हो गयी, यह अर्थ हो जायगा । श्रीदत्त ने बुद्ध अर्थ विद्वान लगाया है । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ १ : ७ : २७१-२७४ ] श्रीवरकृता योऽभूत् सर्वकलानिधिः शुभविधिताभिगम्यो गुणी काव्यज्ञो बहुभाषया गुणिरतः कारुण्यपुण्याकुलः । सोऽयं हन्त समीक्ष्यतेऽवनितले धिक् पापिनोऽस्मान शठान् _ये जीवन्ति शुचा न यान्ति विपिनं संसारतृष्णाजिताः॥ २७१ ॥ २७१. जो सब कलानिधि, शुभ विधि दाता, धीगम्य, गुणी, सब भाषाओं का काव्यज्ञ, गुणियों में रत एवं कारुण्यपूर्ण था, दुःख है, वह पृथ्वी तल पर पड़ा देखा जा रहा है । शठ हम पापियों को धिक्कार है, जो संसार के तृष्णा में पड़ कर, जीवित हैं और शोक से वन नही चले जा रहे हैं। हारेणेव विनाङ्गनाकुचतटी शास्त्रेण हीनेव धीः सूर्येणेव विना प्रफुल्लनलिनी तारुण्यहीना तनुः । चन्द्रेणेव विना यथैव रजनी पत्या विना भामिनी येनैकेन विना नृपेण न बभौ कश्मीरराज्यस्थितिः ।। २७२ ।। २७२. हार के बिना अंगना की कुचतटी, शास्त्र से हीन बुद्धि, सूर्य के बिना प्रफुल्ल नलिनी, तारुण्य-रहित तनु ( शरीर ), चन्द्रमा के बिना रात्रि तथा पति के बिना भामिनी (स्त्री) सदृश, केवल उस राजा के बिना काश्मीर राज्य की स्थिति शोभित नहीं हुयी। श्रीमत्तर्कादिविद्याभ्यसनरसलसद्गर्वसर्वप्रवीण प्रेक्षोद्यदानमानोचितविचितयशोभूषिताशेषदेहः । श्रीजैनोल्लाभदेनो नरपतितिलकः सर्वशास्त्रप्रवीणः कश्मीरान योजयित्वा दिवमपि स गतो योजनायेव नष्टाम् ॥ २७३ ।। २७३. तर्क आदि विद्याभ्यास रस से शोभित, स्वाभिमानवाले सब विषयों में प्रवीण, लोगों को देखकर, उचित दान-मान के द्वारा प्राप्त यश से भषित शरीर एवं सर्व शास्त्रों में प्रवीण, नरपति-तिलक, जैनुल आबदीन काश्मीर को संगठित करके, नष्ट स्वर्ग को भी योजित करने के लिये ही गया है। इत्यादि सन्ततं सन्तो वदन्तोऽत्यन्तचिन्तया । नितान्ततान्तहृदया विश्रान्ति नाभजन्त ते ॥ २७४ ॥ २७४. उस प्रकार निरन्तर कहते हुये, अत्यन्त चिन्ता से नितान्त संतप्त हृदय सज्जन लोग विश्रान्ति ( सुख ) नही प्राप्त किये। पाद-टिप्पणी: २७१. 'छठा' के स्थान पर 'शठान' पाठ-बम्बई। जै. रा. ३२ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैनराजतरंगिणी [१:७ : २७५-२७८ दृष्टो रम्यश्चिरमुपवने वंशवाटो जनों नानावणैर्नवतृणगणभूषितो भूरिपत्रः । तत्रान्योन्याहननजननात् तादृगम्युत्थितोऽग्नि र्येनैकान्तादुपवनगतं सर्वमेव प्रनष्टम् ॥ २७५ ॥ २७५. लोगों ने उपवन में चिरकाल तक नाना वर्ण के नवीन तृण गणों से भूषित, प्रचुर पत्र युक्त जिस वंश-पुंज को देखा था, वहाँ परस्पर संघर्ष से ऐसी अग्नि उठी, जिससे एक ओर से उपवनगत, वह सब नष्ट हो गया। या कारकसभा भव्याऽभवच्छ्रीजैनभूपतेः। वर्षेणैकेन तच्छापात् सर्वा स्वप्नोपमाभवत् ।। २७६ ।। २७६. श्री जैन भूपति की जो भव्य कारक सभा' थी, वह सब एक ही वर्ष में उसके शाप से स्वप्नवत् हो गयी। क्षुब्धे राज्यमहाम्भोधौ भूपप्रमयवायुना । तत्तत्सेवकरत्नौघः शतैकीयोऽवशिष्यत ।। २७७ ।। २७७. राजा की मृत्यु-रूपी वायु से, उस राज्य-रूप महासागर के, क्षुब्ध हो जाने पर, तत्तत् सेवक-रत्नों का समूह, सैकड़ों में एक शेष रहा। प्रभवत उत यावत् स्वप्रभुः सौख्यदाता विदधति खलु तावत् सेवकास्तस्य मानम् । इह वसति वसन्तो यावदेव स्वनन्तो मधुकरपिकमेकास्तावदेवाद्रियन्ते ॥२७८ ॥ २७८. जब तक सौख्यदाता अपना स्वामी समर्थ रहता है, तब तक वे सेवक, उसका मान करते है, क्योंकि जब तक, वसन्त रहता है, तब तक ही गब्दायमान मधुकर, पिक एवं भेक' ( मेढक ) समादृत होते हैं। पाद-टिप्पणी : २७५. 'न्याहनन जननात्' पाठ-बम्बई । पाद-टिप्पणी : २७६. (१) सभा : दरबार । द्र०:१:७: १०५; १:७ : २७४; ३ : १६ । पाट-टिप्पणी : २७७. 'शिष्यत' पाठ-बम्बई। पाद-टिप्पणी : २७८. (१) भेक : मेढकों की ध्वनि । 'पङ्क निमग्ने किरणि भेको भवति मूर्घकः ।' Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७.२७९१ श्रीवरकृता केचिदप्यवशिष्टा ये सेवकास्तस्य तेऽप्यनन्तरविज्ञानात् तृणतुल्योपमां भूपतेः । गताः ॥ २७९ ॥ ।। पाद-टिप्पणी: २७९. बम्बई संस्करण का उक्त श्लोक क्रमसंख्या २७९, श्रीकण्ठ कौल के २७७ तथा कलकत्ता की ८०५वीं पंक्ति है। बम्बई संस्करण मे ८०५ श्लोक है। कलकत्ता संस्करण में ८०६ पंक्तियाँ इतिपाठों सहित है। श्रीकण्ठ कौल संस्करण प्रथम तरंग में ८०२ श्लोक है । कलकत्ता संस्करण के श्लोकों की संख्या नहीं दी गयी है। पंक्तियों की संख्या है। कुछ विद्वानों ने पंक्तियों को श्लोक मानकर गलतियाँ की है । बम्बई संस्करण मे प्रत्येक श्लोकों की क्रमसंख्या अलग-अलग है । २५१ T २७९. उस राजा के जो कुछ सेवक अवशिष्ट रहे, वे भी बिना अन्तर के देखे जाने के कारण, तिल एवं तूल (रुई) सदृश हो गये । इति पण्डितश्रीवरविरचितायां जैनराजतरङ्गिण्या जैनशाहिवर्णनं नाम प्रथमस्तरङ्गः ॥ १ ॥ इस प्रकार पण्डित श्रीवर विरचित जेनराजतरंगिणी जैनशाहि वर्णन नामक प्रथम तरंग समाप्त हुआ । के अन्तिम श्लोको की गणना एक साथ की गयी है। बम्बई तथा श्रीकण्ठ कौल सस्करण मे प्रत्येक सर्ग की संख्या अलग-अलग दी गयी है । पाद-टिप्पणी: उक्त सर्ग में कलकत्ता एवं बम्बई संस्करण के अनुसार २७९ श्लोक एवं श्रीकण्ठ कौल के अनुसार २७७ श्लोक है । श्लोकों में वास्तव में अन्तर नही है। श्रीकण्ठ कौल ने चार श्लोकों को तीन पक्तियों मे लिया है। कलकत्ता तथा बम्बई मे वे दस पक्तियों मे लिखे गये है । इस प्रकार श्रीकौल की चार पंक्तियों के २ और श्लोक हो जाते है। अतः दो कलकत्ता मे प्रथम तरंग के प्रथम से सप्तम सर्ग बढ़ जाने के कारण प्रस्तुत संख्या २७९ हो गयी है । रघुनाथ सिंह पुत्र स्वर्गीय श्री बटुकनाथ सिंह, जन्मस्थान पंचक्रोशी अन्तर्गत वरुणा तीर स्थिति ग्राम खेवली, रामेश्वर स्थान समीप तथा निवासी मुहल्ला घीहट्टा (औरंगाबाद ) वाराणसी नगर ( उत्तर प्रदेश ) भारतवर्ष ने श्रीवर कृत जैनराजतरंगिणी प्रथम तरंग का भाष्य एवं अनुवाद लिखकर समाप्त किया। सन् १९७६ ६० संवत् २०३३विक्रमी शक० १८९८, कलि गताब्द ५०७७, फसली १३८३ - १३८४, हिजरी० १३९६ - १३९७, बंगला संवत् = 1 १३८२-१३८३ = लौकिक या सप्तर्षि संवत् ५०५२ । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाचरण : द्वितीयस्तरंगः द्वितीय तरंग वन्दे विश्वमयं देवं सर्ववाङ्मन्त्रनायकम् । यदंशवर्णनस्तुत्या तत्पूजाफलभाङ् १. समस्त वाक् मन्त्र के नायक विश्वमय उस देव की वन्दना करता हूँ, जिसके अंश मात्र वर्णन स्तुति से, उसके पूजा का फलभागी कौन नहीं होगा ? पादो दक्षिण एष यच्छति पदं यत्रैव नाटयेच्छया तत्रैवेच्छति नाम वामचरणः सञ्चारसंस्कारतः । इत्थं मण्डलमण्डिता समपदां चारों नरीनर्ति यः सन्ध्यायां स सदा ददातु सुखितां देवोऽर्धनारीश्वरः || २ || २. यह दक्षिण पाद नर्तन इच्छा से जहाँ पर आधार देता है; वहीं पर, संचार संस्कारवश वाम चरण पग देना चाहता है; इस प्रकार सन्ध्या समय, जो मण्डलाकार शोभित श्रम पदकारि नृत्य करते हैं, वह भगवान अर्धनारीश्वर सुखभाव प्रदान करें । हैदर शाह ( हाजी खां ) सन् १४७० - - १४७२ ई०) : अथ हैदरशाहाख्यां ख्यापयन् हाज्यखानोऽग्रहीद् राज्यं स न कः ।। १ ।। पाद-टिप्पणी : १. ( १ ) मंगलाचरण प्रत्येक तरंग का आरम्भ कल्हण एवं शुक ने मंगलाचरण से किया है। जोनराज की तरंगिणी केवल एक तरंग है । उसमें भी प्रारम्भ में वन्दना की गयी है । प्राचीन काव्य-प्रणयन की शैली है कि कवि इष्टदेव का स्मरण करता है । कल्हण आदि सभी राजतरंगिणी - मुद्रिकार्पणैः । ज्यैष्ठप्रतिपद्दिने || ३ ॥ ३. मुद्रांकण' द्वारा 'हैदरशाह" नाम प्रख्यात करते हुये, उस हाज्यि खान ने ज्येष्ठ प्रतिपद के दिन राज्य ग्रहण किया । कारों ने अर्धनारीश्वर की वन्दना की है । श्रीवर उसी परम्परा का निर्वाह करता है । पाद-टिप्पणी : ( २ ) पाठ - बम्बई | पाद-टिप्पणी : ३० ( १ ) मुद्रांकण : हैदरशाह नाम से सीलमुहर जारी करना अभिप्रेत है। यह राज्यप्राप्ति का Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : ४] श्रीवरकृता दक्षिणानन्दी अयाच भावर्थिजनानन्दी स ४. वह राज्य ग्रहण उत्सव' उत्तम जनों के लिये सम्मानप्रद, दक्षिणा द्वारा आनन्दकर, तत् तत् सुकृतों का सूचक, याचक जनों के लिये आनन्ददायक, सुशोभित हुआ । प्रथम लक्षण है। साथ ही साथ नवीन राजा अपने सील - मुहर से अपने नाम का खुतवा पढ़ने का आदेश जारी करता था । ( २ ) हैदरशाह : मुसलिम राजा प्रायः अपना नाम राज्यप्राप्ति पश्चात तथा अभिषेक किवा गद्दी पर बैठने के समय नाम बदल लेते थे । वह प्रथा भारत में भी सुदूर प्राचीन काल से प्रचलित है । कुछ राजा अश्वमेध सम्पादन के समय भी नाम बदल लेते थे । कुमारगुप्त प्रथम ने अपना नाम महेन्द्र रख लिया था । राज्याभिषेक के समय राजा जब अपना नाम बदलता था, तो उस संस्कार को भी प्राचीन काल में अभिषेक कहा जाता था । (३) ज्येष्ठ प्रतिपद राज्य ग्रहण काल श्रीवर ने सप्तर्षि वर्ष ४५४६ - ज्येष्ठ प्रतिपदा - = = = = = श्रीदत्त कलि० ४५७१ शक० १३९२ विक्रमी० १५२७ = सन् १४७० ई०, राज्यकाल १ वर्ष, १० दिन पीर हसन ने विक्रमी० १५३१ हिजरी ८७९, राज्यकाल १ वर्ष, २ मास दिया है । मोहिबुल हसन ने सन् १४७० ई०, तारीख रशीदी मे रोजर्स ने सन् १४६९ ई० हिजरी ८७४ दिया है। आर० के० परमू ने सन् १४७० ई०, कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इण्डिया भाग ३, श्रीदत्त, डॉ० सूफी, कम्प्रिहेन्सिव ने सन् १४७० ई० - हिजरी० ८७५ तथा दिल्ली सल्तनत ( विद्या भवन ) मे भी सन् १४७० ई० दिया गया है बेकटाचालम ने सन् १४७४ ई०, आइने अकबरी, तबकाते अकबरी तथा फिरिश्ता ने राज्यकाल १ वर्ष, २ मास दिया है ( आइने० : ४२४ ) । राजतरंगिणी संग्रह मे राज्यकाल २ वर्ष दिया गया है । = तवनका अकबरी में उल्लेख है -हाज़ी खाँ अपने पिता के उपरान्त तीन दिन मे सुल्तान हंदर तत्तत्सुकृतसूचकः । राज्यग्रहणोत्सवः ॥ ४ ॥ २५३ शाह की उपाधि धारण कारण करके, सिकन्दरपुर में जो नोहता शहर ( नवशहर ) के नाम से प्रसिद्ध है, अपने पिता की प्रधानुसार सिंहासनारूद हुआ। ( ४४६ - ६७२ ) । फिरिश्ता लिखता है-हाजी खां बिना किसी विरोध के सिंहासनारूढ़ हुआ ( ४७४ ) । समसामयिक घटनाएँ — सन् १४७० ई० में बहमनी राज्य ने विजयनगरम् राज्य पर आक्रमण कर ले लिया । उडीसा में पुरुषोत्तम ( १४६७ - १४९७ ई०), आसाम मे अहोम वंशीय सुमेन पाल (१४३९-१४८८ ई०), सालुत नरसिह ने उदयगिर विजय (सन् १४२८ - १४८० ई० ) किया। मेवाड़ मे उदय राजा था । विजयनगरम् का राजा संगम वंशीय विरूपाक्ष था । हुसेन शरकी जामा मसजिद जौनपुर का निर्माण कराया स्कनुद्दीन बरवक बंगाल का सुल्तान इस समय था । सन् १४७० ई० मे कुतुबशाह ने कच्छ तथा सिन्ध पर आक्रमण किया। पश्चिमी गुजरात मे मुस्तफाबाद आबाद किया । महमूद बुगरा गुजरात ने गिरनार पर अधिकार किया और युदास्मा सरदार को इसलाम कबूल करने पर मजबूर किया। थिहतुर का आबा वरमा मे, श्रीलका मे श्री भुवनेकबाहु द्वितीय राज्य तथा मालवा में गयासुद्दीन का राज्य था। सन् १४७१ ई० में मुहम्मद बुगरा गुजरात मे सिन्ध पर आक्रमण किया । सन् १४७२ ई० में बहलोल लोदी मुलतान के हुसेन शाह लंगा के विरुद्ध सैनिक अभियान किया । पेगू बरमा मे धम्मजेदी ने राज्य प्राप्त किया । पाद-टिप्पणी ४. (१) उत्सव : राज्यारोहण उत्सव मे करद Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:८] श्रीवरकृता २५५ राज्ञो हस्सनकोशेशस्तद्राज्यतिलकं ददौ । सौवर्णं पुष्पपूजाढयं यदृच्छाविहितव्ययः ॥ ८ ॥ ८. स्वेच्छानुसार व्यय करके, कोशेश हस्सन' ने राजा को सुन्दर, पुष्प पूजा से समृद्ध, राजतिलक किया। बृहस्पति ग्रह सबसे अधिक कान्तिमान है। सौर सीघों वाला, नील पृष्ठ तथा शत पंखोंवाला वणित मण्डल में सूर्य के अतिरिक्त सबसे बड़ा है। इसका किया गया है ( ऋ० : ४ : ५०; १ : १९०; १० . आकार इतना बड़ा है कि १४१० पृथ्वी का आकार १५५; ५ : ४३; ७ : ९७)। यह स्वर्ण वर्ण है । इसमें समा सकता है । इसका विषुवत व्यास ८८७०० उज्ज्वल, विशुद्ध एवं स्पष्ट वाणी बोलनेवाला है मील है। ध्रुवीय व्यास ८२९०० मील है। ध्रुवों ( ऋ० : ३ : ६२; ५:४३; ७ : ९७) । बृहस्पति पर यह चपटा है। दीर्घ वृत्ताकार लगता है। यह ग्रह, ब्रह्मणस्पति कहा गया है। इसके रथ को सूर्य की परिक्रमा ११ : ८६ वर्षों मे करता है। यह अरुणिम अश्व खीचते है ( ऋ० . १० : १०३; नव घण्टा ५० मिनट में असाधारण वेग से घर्णन २: २३ ) । एक पारिवारिक पुरोहित है ( ऋ० : करता है । अतएव वायु मण्डल अत्यन्त क्षुब्ध रहता २: २४)। बृहस्पति देवगुरु माने जाते है । है। बृहस्पति के अभी तक १२ उपग्रहों का पता बृहस्पति के पत्नी का नाम धेना है (गो० ब्रा० : २ : ९)। धेना का अर्थ वाणी है। जुहू लग सका है। कुछ उपग्रह बुध ग्रह क बराबर ह । नामक इसकी दूसरी पत्नी भी है। उन बारह उपग्रहों में चार उपग्रह बृहस्पति के चारो पुराणों की मान्यता के अनुसार, सौर मण्डल मे ओर विपरीत दिशा में चलते है। शनि तथा मंगल । स्थित बृहस्पति नक्षत्र यही है। इसकी पत्नी का के मध्य बहस्पति की स्थिति है। बृहस्पति से सूय नाम तारा था। सोम ने तारा का अपहरण किया ४८ करोड ३२ लाख मील दूर है। सौर मण्डल का था (वायु० : ९०:२८-४३, ब्रह्म०:९:१९यह पाँचवाँ ग्रह है। यह ग्रह स्वयं प्रकाशमान नही ३२; उद्योग० : ११५ : १३) । है। सूर्य के प्रकाश से केवल चमकता है। इसका तल पृथ्वीतल के समान ठोस नही है। यह बालग्रह पाद-टिप्पणी . कहा जाता है। इसे पृथ्वी की अवस्था पहुँचने मे द्वितीय पद के प्रथम चरण का पाठ संदिग्ध है। काफी समय लगेगा। ८. (१) हस्सन : फारसी इतिहासकारों ने ___ वैदिक साहित्य में बुद्धि, प्रज्ञा एवं यज्ञ का नाम हसन कच्छी दिया है। उसके वतन के कारण अधिष्ठाता माना जाता है। इसका नाम 'सदसस्पति' नाम पड़ा था। वह काश्मीर में केछ से आया था। 'ज्येष्ठराज' एवं 'गणपति' दिया गया है। (ऋ० : केछ या कछ क्षेत्र मकरान से लगा हुआ है । क्रम से १:१८:६-७; २ : २३ : १)। बृहदारण्यक बहराम तथा हस्सन ने ताज सिर पर रखा तत्पश्चात उपनिषद् में वाणीपति (बृ० : १ : ३ : २०-२१) हस्सन ने राजतिलक एवं माल्यार्पण किया। तथा मैत्रायणी संहिता एवं शथपथब्राह्मण में वाच- (२) राजतिलक : सुलतानों का राज्यास्पति कहा गया है (मै० सं०:२:६; श० ब्रा०: भिषेक हिन्दू तथा मुसलिम रीति दोनों तरहों से १४ : ४ : १)। उच्चतम आकाश के महान प्रकाश होता रहा है (जैन० : ३ : १२)। श्रीवर यह से बृहस्पति का जन्म हुआ है। जन्म प्राप्त करते स्पष्ट लिखता है कि तिलक हस्सन कोशेश ने किया ही, इसने महान् तेजस्वी शक्ति एवं गर्जन द्वारा था। कालान्तर में हस्सन को सुलतान ने धोखा अन्धकार दूर कर दिया ( ऋ० : ४ : ५०; १०: से दरबार में बुलवाकर अपने सम्मुख ही हत्या ६८)। इसे सप्तमुख, सप्तरश्मि, सुन्दर जिह्वा, तीक्ष्ण करवा दिया था (२ : ७७-८५)। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनराजतरंगिणी [२ : ९-११ स हाज्यहैदरनृपो घनकालोर्जितप्रभः । धाराधर इव धरां दधार धरणीधरः ॥९॥ ९. घन काल से प्रवृद्ध, प्रभाशाली मेघ सदृश, वह धरणीधर हाजी हैदर ने धरा को धारण किया। सोऽनुजं स्वसमं भूमिनायकः सुक्षिते रसात् । बहामखानं नाग्रामदेशे तं स्वामिनं व्यधात् ॥ १० ॥ १०. उस भूमि-नायक ने प्रेमवश, अपने समान अनुज, उस बहराम खांन को सुक्षित ( सुन्दर भूमि ) नाग्राम देश का स्वामी बना दिया। क्रमराज्येक्षिकादेशे स्वामिनं स्वसुतं व्यधात् । चिरान्निजसुतप्राप्त्या यौवराज्यसुखादपि । पितृशोकहतोऽप्यन्तर्विश्रान्तिमभजन्नृपः ॥११॥ ११. अपने पुत्र को क्रमराज' एवं दक्षिका देश का स्वामी बना दिया। चिरकाल पश्चात् अपने पुत्र की प्राप्ति से पितृ शोक के कारण दुःखी नृपति ने युवराज सुख से भी अधिक अन्तःशान्ति प्राप्ति की। हिन्दू राजाओं के समान मुसलिम सुलतान भी तथा नाग्राम राष्ट्र लिखा है (१. १४१, १८१, अभिषेक के समय हवन करते थे। शेखुल इसलाम २:४)। नाग्राम की जागीर समय-समय पर तथा मन्त्रीगण राजा को तिलक लगाते थे। सुवर्ण भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को सुल्तानों ने दिया है। तथा पुष्प देते थे ( मोहिबुल : पृष्ठ २४० )। (म्युनिख : पाण्डु० : ७७ बी०)। हैदरशाह की पत्नी का नाम गल खातन था। तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है-बहराम खाँ वह हिन्दू रीति-रिवाज मानती थी। को नाकाम ( नाग्राम) नामक जागीर प्रदान कर फिरिश्ता के अनुसार अनुज वैराम खांन ने कर दी (४४६ )। पा(४४९ ज्येष्ठ भ्राता हाजी खांन का हैदर नाम से राज्या पुरानी फ़ारसी लिपि मे काफ और गाफ एक भिषेक किया ( ४७५ )। तरह से लिखा जाता था। अतएव नाग्राम को नाकाम पाद-टिप्पणी : पढ़ या लिख देना आश्चर्य की बात नही है। बम्बई तथा कलकत्ता संस्करण का उक्त श्लोक फिरिश्ता ने भी 'नाकाम' ही लिखा है कि अनज १०वा है। बहराम खाँ को नाकाम ( नाग्राम ) की जागीर दी १०. (१) बहराम खां : पीर हसन लिखता गयी (४७५ )। है कि सुलतान ने उसे अपना वजीर बनाया (१० : नाग्राम ग्राम दूधगंग के दक्षिण तट से कुछ दूर १८७)। श्रीनगर से ११ मील पर स्थित है। श्रीनगर से (२) सूक्षित : श्रीदत्त ने शब्द को नाम- चरार शरीफ जानेवाली सड़क पर है। मजेट मूल वाचक माना है। इसका अर्थ यहाँ सुन्दर भूमि जो बादामी रंग रंगने के काम में आता है, यहाँ किया गया है। मिलता है । लद्दाखी मे इसे त्सतो कहते है। (३) नाग्राम : वर्तमान नागाम है। यह स्थान पाद-टिप्पणी: चाथ के उत्तर है। नागाम परगना, कामराज पाठ-बम्बई। अर्थात क्रमराज में है। शुक ने इसे नाग्राम कोट ११. कलकत्ता संस्करण में प्रथम पद 'क्रमराज्ये Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:१२-१४] श्रीवरकृता २५७ तस्माद् विहितसेवास्तुदेशाधीशत्वराजिताः । प्रसादमतुलं प्रापू रावत्रलवकादयः ॥ १२ ॥ १२. सेवा द्वारा देशाधीशत्व की प्राप्ति से सुशोभित रावत्र', लवकादि ( लौलकादि) उससे अतुल प्रसाद प्राप्त किये। अन्येऽप्युच्चावचान् ग्रामान् सेवका नवभूपतेः । पूर्वसेवानुसारेण प्रसादं प्रतिपेदिरे ॥ १३ ॥ ... १३. अन्य भी सेवक नवीन राजा से पूर्व सेवा के अनुसार, उससे ऊँचे-नीचे गाँवों के प्रसाद रूप में प्राप्त किये। राजा राजपुरीसिन्धुपत्यादीन् दर्शनागतान् । प्रत्यमुञ्चदलंकृत्य पार्थिवोचितया श्रिया ॥ १४ ॥ १४. राजा ने दर्शनागत राजपुरी', सिन्धुपति आदि राजाओं को राजोचित श्री से अलंकृत कर मुक्त किया। व्याघातं' नही है। श्लोक केवल दो पदों का वहाँ जीवन पर्यन्त के लिए गुजरज की जागीर दिया है । बम्बई मे तीन पद है। (४७५ )। क्रमराज को गुजरज लिखा गया है (१) क्रमराज्य : कामराज। द्रष्टव्य टिप्पणी क्योंकि पुरानी फारसी मे काफ और गाफ एक १:१:४०; २ : १९१; ३ : २१, ६५, ८६। तरह से लिखे जाते थे। अनुवादकों ने नाम का (म्युनिख : पाण्डु० : ७७ बी०)। अनुवाद करने में इसीलिए गलती किये है। यदि (२) इक्षिका : नाग्राम किंवा नागाम परगना गाफ को काफ पढ़ा जाय तो कजराज होता है। यह में पछगोम है। श्रीनगर अंचल तक विस्तृत है। कमराज का अपभ्रंश है । द्र० : १ : २ : ५, १ : ३ : इसके मध्य मे दामोदर उद्र अथवा दामदर उद्र स्थित ११७; २ : १७९; ३ : २, ६, ४ : २१ । है इस समय येच परगना में है। स्तीन का मत है कि पाद-टिप्पणी: यह येच परगना में है (स्तीन रा०२ : ४७५ )। १२. (१) रावत्र : द्रष्टव्य टिप्पणी : १: द्र० : ३ : २५ । (३) युवराज : वलीअहद । द्रष्टव्य टिप्पणी । १ : २ : ५ ( म्युनिख : पाण्डु० : ७७ बी०)। पाद-टिप्पणी : तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है-'किमराज १४. (१) राजपुरी : राजौरी । द्र० : १:१: ( कामराज ) की विलायत हसन खाँ को जागीर मे ९१, १०७; १ : ३ : ४०; १:७ : ८० । दे दी गयी और उसे अपना अमीरुल उमरा तथा (२) सिन्धुपति : फिरिश्ता के अनुसार यह वलीअहद ( युवराज ) नियुक्त कर दिया (४४६- नाम निजामुद्दीन होना चाहिए। वह २८ दिसम्बर ६७३ )। पीर हसन भी यही लिखता है (१८७)। सन् १४६१ ई० को राजगद्दी पर बैठा और ३२ वर्ष फिरिश्ता ने उल्लेख किया है-सुल्तान ने पहला शासन किया ( ४२९ )।। काम यह किया कि अपने पुत्र को अमीरुल उमरा तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है कि ४८ वर्ष का खिताब दिया। उसे अपना वलीअहद' तथा शासन किया था। जै. रा. ३३ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैनराजतरंगिणी [२. १५-२० सौवर्णकर्तरीबन्धसुन्दरा नृपमन्दिरे । ननन्दुर्मन्त्रिसामन्तसेनापतिपुरोगमाः ॥१५॥ १५. राज प्रासाद में सुवर्ण कटारी ( कर्तरी ) बन्द से शोभित मन्त्री, सामन्त, सेनापति, पुरोगामी (प्रधान-अग्रगामी ) लोग आनन्दित होते थे। पितृशोकार्पितानर्घपट्टांशुकविभूषणाः विचेरु सेवकास्तस्य तदन्तिकगताः सदा ॥ १६ ॥ १६. पितृ शोक के कारण प्रदान किये गये, बहुमूल्य पट्टाशंक से विभूषित, उसके सेवक सदैव उसके निकट विचरण करते थे। आसीद्राजा च सततं प्रकामं दोषनिष्क्रियः। स्वपक्षपालने सक्तः सन्ध्याक्षण इवोडपः ॥ १७ ॥ राजा की नीति : १७. दोषनिष्क्रिय राजा सन्ध्याकाल में चन्द्रमा के समान निरन्तर अपने पक्ष पालन में ही अति सलग्न रहता था। पक्षपातोक्षणापत्यप्रतिपालनतत्परः लोभक्रोधविरक्तात्मा मोहान्धक्षपणक्षमः ॥ १८ ॥ १८. पक्षपातपूर्वक सन्तान के पालन में तत्पर, लोभ-क्रोध से विरक्त, मोहान्धकार दूर करने में समर्थ सैदनासिरपुत्रो यः स मेर्जाहस्सनाभिधः । अहो तत्पितृवत् पूज्यो बहुरूपादिराष्ट्रभाक् ॥ १९ ॥ १९. सैय्यिद नासिर का पुत्र मेय्या हस्सन बहुरूप' आदि राष्ट्रों का अधिपति था । आश्चर्य हे ! वह अपने पिता के समान पूज्य था। उत्सवादिसदाचारसत्कारेषु सभान्तरे । त एव प्रथमं मान्यास्तद्राज्ये सर्वदाभवन् ।। २० ॥ २०. उसके राज्य में, सभा में, उत्सव आदि में, सदाचार में, सत्कारों में, वे लोग ही सर्वदा, प्रथम मान्य होते थे। (३) आदि : फिरिश्ता लिखता है बहुत से नाम बहुरूप है। दुन्त जिला के पश्चिम पीरपंजाल राजा जो उसके राज्याभिषेक उत्सव में सिकन्दरपुरी पर्वतमाला की दिशा में बहुरूप परगना का क्षेत्र मे आये थे-उन्हे भेंट देकर विदा किया (४७५)। था। बहुरूप नामक एक नाग भी है। उसी नाग के (४) अलंकृत : तवक्काते अकबरी में उल्लेख नाम पर परगना का नाम पड़ा है। यह नाग बीरू है-विभिन्न स्थान के राजाओं ने जो संवेदना तथा ग्राम में है। विशेष द्रष्टव्य टिप्पणी : जोन० : २५२ बधाई हेतु आये थे, उन्हे घोड़े तथा खिलअत देकर लेखक । द्र०:४:६१५ । सम्मानित किया ( ४४६-६७३)। पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी: २०. द्वितीय पद के प्रथम एवं द्वितीय चरण का १९. (१) बहुरूप : बीरू परगना का प्राचीन सन्दिग्ध है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:२१-२५] श्रीवरकृता २५९ एतान्यक्षाश्रयान्मद्वद्भाव्ययं बलवानिति । मेर्जाहस्सनपुत्र्याः स पाणिं पुत्रमजिग्रहत् ॥ २१ ॥ २१. 'इसके पक्ष का आश्रय लेने से मेरे समान यह भी बलवान हो जायगा'-अतः उसने पुत्र का मिर्जा हस्सन की पुत्री से पाणिग्रहण करा दिया। हृत्वा ज्यंसरमार्गेशात्स ज्यहागिरमार्गपे । बाङ्गिलं प्रददौ राजा तद्गुणाकृष्टमानसः ॥ २२ ॥ । २२. उस राजा ने वाङ्गिल' को ज्यशर मार्गेश से लेकर, गुणों से आकृष्ट होकर, ज्यहाँगीर मार्गपति को प्रदान किया। चक्रे कृतापकाराणामप्यनुग्रहमेव सः। प्रणम्य सिंहः पूर्वं हि हन्ति दन्तिगणं ततः ॥ २३ ॥ २३. उसने अपकार करनेवालों पर भी अनुग्रह किया, सिंह पहले प्रणाम करके ही पश्चात् हस्ति समूह का हनन' करता है। गूढभावो महीपालस्तत्तच्चेष्टां चरैर्विदन् । तदा हस्सनकोशेशं संमान्याधिकृतं व्यधात् ।। २४ ॥ २४. उस समय राजा ने भावों को गुप्त रखकर, गुप्तचरों द्वारा तत्-तत् चेष्टा को जानते हये, कोशेश हस्सन को सम्मान्य अधिकारी बना दिया। प्रतापतापितारातिश्छन्नकोपो महीपतिः। भस्मान्तरगतो वह्निरिवासीत् परमृत्युदः ।। २५ ॥ २५. भस्म मध्यगत अग्नि सदृश, राजा प्रताप से शत्रुओं को तापित कर, कोप को प्रच्छन्न रखकर, अत्रुओं के लिये मृत्युपद हुआ। पाद-टिप्पणी : * में इसे वंकाल लिखा गया है। द्रष्टव्य टिप्पणी : २१. (१) पाणिग्रहण : मुसलमानों में पाणि- ३ : ३८०, ४५८,४ : १०७, ३४८, ६१४ । ग्रहण नही होता। विवाह अर्थ मे पाणिग्रहण शब्द (२) ज्यंसर = जमशेद : श्री जोनराज ने का प्रयोग किया गया है। शाहमीर वंश के द्वितीय सुल्तान जमशेद का नाम पाद-टिप्पणी: ज्यसर दिया है (जोन० श्लोक ३१६-३३८)। यह पाठ शात्स-बम्बई फारसी नाम जमशेद का संस्कृत रूप है। २२. (१) वाङ्गिल : इसका प्राचीन नाम भांगिल है। पारसपोर अर्थात् परिहासपुर.कछार के पश्चात वांगिल जिला पड़ता है। फिरूजपर और २३. (१) हनन : श्रीवर सिंह के व्याज से पाटन के मध्य है। क्षेमेन्द्र ने इसे काश्मीर को २७ राजा को कपटी कहता है । छल से राजा ने अनेक विषयों अर्थात् परगनों में रखा है। आइने अकबरी वधादि अपने समय में करवाया था। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैनराजतरंगिणी [२ : २६-२९ कांश्चित् संन्नभयान् कांश्चित् संधाय प्रतिपालयन् । कांश्चिदुन्मूलयन् नीत्या नानावृत्तिरभून्नृपः ॥ २६ ॥ । २६. नृपति नीति से, कुछ लोगों का भय दूर करते हुये, कुछ लोगों को सन्धि कर, प्रतिपालन करते एवं कुछ लोगों का उन्मूलन करते हुये, नाना प्रकार का व्यवहार किया। प्रसादकृत् स भृत्यानामभूद् वैश्रवणोपमः । मनागप्यपराधेन बभूवान्तकसंनिभः ॥ २७ ॥ २७. कुबेर सदृश यह राजा भृत्यों पर अनुग्रह किया और थोड़े ही अपराध से यमराज' सदृश सिद्ध हुआ। पयःपितृसुतामात्यफिर्यडामरकादयः विचार्यासहनं कोपे बभूवुर्वतयन्त्रणाः ॥ २८ ॥ २८. सुत, आमात्य, फिर्य डामर आदि उसके अत्युग्र क्रोध का विचार कर, भीतर ही भीतर दुःखी होने लगे। सामाजिक स्थिति : चौरा जाराश्च रिपवो भृत्या दुर्णयकारिणः। अह्नीव जम्बुकाश्चेरुस्तद्राज्ये भयविह्वलाः ॥ २९ ॥ २९. दिन में शृगाल' सदृश, उसके राज्य में चोर, जार', रिपु, दुर्नयकारी भृत्य, भयविह्वल होकर, विचरण करते थे। पाद-टिप्पणी : १९७, ३३५, ३५४, ४१७ । २७. (१) अनुग्रह : तवक्काते अकबरी उसके पाद-टिप्पणी : आचरण के सम्बन्ध में लिखती है-'वह स्वाभाविक २९. (१) शृगाल : दिन मे शृगाल भय से रूप से दानी था। किन्तु उसके हृदय में प्रतिकार किसी गुफा या झाड़ी मे छिपा रहता है। बाहर नही की भावनायें थी' (४४६ = ६७३) । (२) यमराज : धर्मराज । द्रष्टव्य टिप्पणी निकलता किन्तु रात्रि होते ही आवाज करते, बाहर १:१: २३ । शिकार की खोज में निकलते है। सुल्तान का राज्य पाद-टिप्पणी: शासन कमजोर हो गया था। शृगालों के समान जो पाठ-बम्बई। आततायी दिन में लोकलज्जा एवं दण्डभय से नहीं प्रथम पद के प्रथम चरण का पाठ संदिग्ध है। निकलते थे, वे भी स्वतन्त्र निर्भय विचरण करने लगे २८. (१) फिर्य डामर : द्रष्टव्य टिप्पणी थे। दिनदहाड़े चोरी आदि होने लगी थी। श्लोक १:१: ९४; २ : ७२; : ३ : ५४, ६८, (२) जार : उपपति-प्रेमी = आशिक । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : ३०-३२] श्रीवरकृता २६१ श्रीजैननृपतौ शान्ते मूर्धारूढशिलोपमे । अबाधन्त पुनर्लोकं व्याला इव नियोगिनः ।। ३० ॥ ३०. शिरोभाग की ओर निहित शिला सदश, जैन नृपति के शान्त हो जाने पर, व्यालों के समान नियोगी' ( अधिकारी ) पुनः लोक को पीड़ित करने लगे। विशुद्धपक्षो रुचिरञ्जिताशः कलाकलापो विबुधोपजीव्यः । पूर्णेन्दुनानेन समोऽस्ति कोऽन्यः कलङ्क एको यदि नास्य दोषः ।। ३१ ॥ ३१ विशुद्ध यशशाली, रुचि से दिशाओं को रंजित करता, कला-कलाप युक्त एवं विवधोपजीव्य, इस पूर्णचन्द्र के समान, हमारा कौन है, यदि इसमें एक कलंक दोष न हो। श्रुत्वास्मद्रूषणाः सोऽयं सर्वान् हन्तीति कद्धियाः । ऐक्यं पुरप्रवेशार्थं मिथस्तद्रुषका व्यधुः ॥ ३२ ॥ ३२. 'हमलोगों के दोषों को सुनकर, वह सब लोगों का वध कर देगा, इस कुत्सित बुद्धि से, उसके दूषक' लोग पुर में प्रवेश हेतु परस्पर एकता कर लिये। पाद-टिप्पणी : तथा अधिकारियों को जनता पर अन्याय तथा दमन ३०. नियोगी : तहसीलदार, एक अधिकारी, करने की छूट दे दिया (४७५)। द्र० ३ : ३०; कार्यनिवाहक । तिलगू भाषाभाषी प्रदेश मे नियोगी क० रा० : ६:८। ब्राह्मणों की एक जाति है। वे पूर्वकाल मे राज्य- पाद-टिप्पणी: भृत्त, सेवक किंवा अधिकारी थे । कालान्तर में वंशा ३१. उक्त श्लोक का भावार्थ होगा-'इन नुगत कार्य करते रहने के कारण नियोगी उनके कुल गणों से युक्त राजा भी है, परन्तु इसमें भी दोष का नाम पड़ गया। नियोगी कोई गोत्र या जाति जाति है। विशुद्ध पक्षवाले लोगों की आशाओं को प्रकानहीं है । यह एक पदगौरव हिन्दू राज्यकाल मे था। । शित करनेवाला कला-कलापों से युक्त विद्वानों के अब तक चला आता है, जैसे काश्मीर में ब्राह्मणों लिए उपजीव्य इस राजा के समान दूसरा कौन है के कुछ वंश खजांची, शराफ आदि कहे जाते है। यदि इसमें भी एक कलंक दोष न होता।' उक्त कर्म करने के कारण नाम प्राप्त किये है । द्र०: पाद-टिप्पणी: १ : ६ : १३६ । पाठ-बम्बई। फरिश्ता लिखता--सुल्तान को बाद के कामों से जनता को निराशा हुई, जिसकी आशा वह किये हुये ३२. (१) दूषक : भ्रष्टाचारी, निदंक, दूषित थी। वह बुरे कामों में लग गया और अपने मन्त्रियों करनेवाला, कुपथगामी करनेवाला, पापी । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैनराजतरंगिणी [२:३३-३७ पूर्ण नापित का प्रभाव : कुकृत्यप्रेरकः पापश्चान्यायोत्कोचहारकः । प्रियोऽभवदिवाकीर्ती राज्ञो रिक्ततराभिधः ।। ३३ ॥ ३३. कुकृत्य-प्रेरक, पापी, अन्यायपूर्वक उत्कोच ( घूस ) ग्रहणकर्ता, पूर्ण' नामक नापित राजा का प्रिय हुआ । कामीव व्यसनं नित्यमुपालब्धोऽपि भूभुजा । यं त्यक्तुं नाशकद्राजा संस्तवाद्धृदयङ्गमम् ॥ ३४॥ ३४. राजा द्वारा नित्य उपालम्भ प्राप्त करने पर भी, जिस प्रकार व्यसन को नहीं त्यागता है, उसी प्रकार अति परिचयवश राजा, उस हृदयंगम नापित का त्याग नहीं कर सका। संचितार्थः प्रजायासैद्रादानादिकर्मभिः । आसीत् स्वकार्यकुशलः ख्यातो धूर्तः स नापितः ॥ ३५॥ ३५. मुद्रा आदि कर्मों द्वारा प्रजापीड़नपूर्वक धन संचित करनेवाला, प्रख्यात धूर्त वह नापित अपने कर्म में परम कुशल था। रुद्धं चित्तेन काठिन्यं माधुर्य जिह्वया धृतम् । शठस्य यस्य सततं लोकोद्वेजनकारकम् ॥ ३६॥ ३६. जिस सठ का चित्त द्वारा रुद्ध काठिन्य, जिह्व द्वारा धृत माधुर्य, निरन्तर लोगों को उद्वेजित करनेवाला हुआ। येनाधिकाराद् देशेऽस्मिन् प्रजाः कुकर्मभिः कृताः । दुःखिता रक्षिताः पूर्व पुत्रवच्छीमहीभुजा ॥ ३७॥ ३७. अधिकार के कारण इस देश में कुकर्मों द्वारा, उन प्रजाओं को जिसने दुःखी किया, जिनको राजा ने पहले पुत्रवत् रक्षित किया था। पाद-टिप्पणी: उसने बोली (लूली ) नामक एक नाई को अपना ३३. (१) रिक्तेतर : पूर्ण = लोली या लूली। विश्वासपात्र बना लिया था और जो कुछ भी वह श्रीदत्त ने 'रिक्तेतर' को नामवाचक शब्द माना कहता था उसके अनुसार आचरण करता था है । उनका मत है कि यही व्यक्ति बाद में पूर्ण (४४७ = ६७३ ) । नाम से सम्बोधित किया गया है (३ : १८६ )। श्रीकण्ठ कौल ने इसे नामवाचक शब्द नहीं माना। फिरिश्ता नाम 'बूबी' देता है, वह लिखता है। हसनशाह के समय में इसकी हत्या कर दी ही है-'उसने नापित बूबी से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित गयी थी। पीर हसन ने नाम लोली लिखा है। कर लिया था। वह जनता और सुल्तान के बीच अन्य फारसी इतिहासकारों ने भी लोली दिया है माध्यम था। वह जनता से खूब घूस काम करवाने (पीर हसन : १८८)। के व्याज से लेता था ( ४७५ )।' द्र०:२ : ५२, तवक्काते अकबरी में उल्लेख मिलता है- १२२, ३ : १४८ । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:३८-४१] श्रीवरकृता २६३ __ मेरभोखारनामापि बुद्धिमान् प्रथितो भुवि । नितरामपकोपाग्ने राज्ञः साचिव्यमादधे ॥ ३८ ॥ ___३८. पृथ्वी पर प्रसिद्ध बुद्धिमान मेरभोखार' नितान्त क्रोधाग्नि-रहित, राजा का सचिव हुआ। वात्सल्याद् विहितो राजा स चुटगणनापतिः । समस्तकार्यस्थानेभ्यो भुङ्क्ते राजोपजीविकाम् ॥ ३९ ॥ ३९. राजा के द्वारा वात्सल्य के कारण गणनापति' बनाया गया। चुट' समस्त कार्य स्थानों से राजा की जीविका का उपभोग करता था। यो वर्षणैकनिरतः शिखिहर्षहेतुः ___ संदर्शितातुलफलः कृतकर्षणेषु । जातोऽपि यः प्रतिदिनं हृतसर्वतापः __सोऽयं धनस्तुदति दुःसहवज्रपातैः ॥ ४० ॥ ४०. केवल वर्षण के लिये रत मयूरों की प्रसन्नता हेतु, कृषकों के लिये अतुल फलप्रद, जो मेघ उत्पन्न होकर, प्रतिदिन सब लोगों का ताप हरण करता है, वही दु.सह वज्रपात करके, पीड़ित भी करता है। दुर्मन्त्रिप्रेरितो राजा व्यधान्मदविचेतनः । प्रजाभाग्यविपर्यासाद् विवेकविगुणाः क्रियाः॥४१॥ ४१. दुष्ट मन्त्रियों द्वारा प्रेरित तथा मद से चेतना-रहित, राजा ने प्रजाओं के भाग्य विपर्यास' के कारण अविवेकपूर्ण कार्यों को किया । पाद-टिप्पणी: वाला अधिकारी था। गणनापत्रिका को काश्मीरी ३८. ( १ ) मीरे भोखार : मीर इफ्तेखार मे ‘गनतवतर' कहते है । हिन्दी मे बही-खाता कहा या इफ्तिकार का संस्कृत रूप है परन्तु व्याकरण मे जाता है । अंग्रेजी में एकाउण्ट बुक कहते है । क्षेमेन्द्र संस्कृत के स्थान पर फारसी का अनुकरण किया ने गणना स्थान मण्डप का उल्लेख किया है। गणना गया है। एक मत है कि नाम मीरखार है। हमारे स्थान आधुनिक ट्रेजरी आफिसों के समान थे। उनका मत से मीर इफ्तेखार नाम ठीक है। पुनः उल्लेख स्थान तथा कार्यालय अलग होता था, उसे गणना २:२१७ में मिलता है। श्रीदत्त ने 'मेर भोखार' मण्डप कहते थे। द्रष्टव्य टिप्पणी : जोन० : श्लोक नाम दिया है। १२८ । पाद-टिप्पणी: (२) चुट : इसका पुनः उल्लेख नहीं मिलता। पाद-टिप्पणी : 'सचुट' पाठ-बम्बई। ४१. ( १ ) भाग्य विपर्यास : द्रष्टव्य टिप्पणी ३९. (१) गणनापति : हिसाब-किताब रखने- १: ३ : १०५; १:७ : २१५ तथा कल्हण : Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनराजतरंगिणी [२:४२-४६ शेकन्धरपुरीपार्श्वस्वनिर्माणचिकीर्षया अमृतोपवने प्रांशुतरुच्छेदनमादिशत् ।। ४२ ।। ४२. सेकन्धर' पुरी के समीप अपना निर्माण करने की इच्छा से, अमृत' उपवन में उन्नत वृक्षों को काटने का आदेश दिया। छिन्नांस्तान् पुष्पितान् वृक्षान् समीक्ष्यतत्समुत्थिताः। तच्छुचेव व्यधुस्तत्र रोलम्बा रोदनध्वनिम् ।। ४३ ॥ ४३. पुष्पित उन वृक्षों को छिन्न देखकर, उनसे उड़े भ्रमर, मानों शोक के कारण रोदन ध्वनि कर रहे थे। तन्निर्माणग्रहोऽन्येषां न केषां प्रत्यभाद्धृदि । अग्रे दिनपतेर्दीपप्रकाशनरसोपमः ॥४४॥ ___ ४४. सूर्य के समक्ष दीप प्रकाशन रस सदृश, उसके निर्माण का आग्रह, दूसरे लोगों के हृदय को अच्छा नहीं लगा। तद् ब्रूमः क्षीव एवैष करोतीति विनिश्चतम् । स्वाहितापक्रियाहेतोचूर्णितं तं नृपं व्यधात् ।। ४५ ॥ ४५. निश्चित रूप से अतएव मैं कह रहा हूँ कि यह ( मदमत्त ) नापित ही सब कर रहा है, अपने अपकारियों के अपकार हेतु, उसने राजा को भ्रान्त कर दिया था। पूर्ण नापित का क्रूर कर्म : बहूनामथ लोकानां नापितोऽवयवच्छिदाम् । भूपालादाप्तनिर्देशः क्षीबतोऽपि तथाकरोत् ॥ ४६॥ ४६. मदमत्त भी राजा से निर्देश प्राप्त कर, नापित' ने बहुत से लोगों के अवयवों का छेदन करा दिया। १:१९८; शुक० : १.११९; २:७४, ८८. पाद-टिप्पणी: ४२. (१) सेकन्धरपुरी। श्रीनगर। द्र०: २ : ५, ३, ७; २००। (२) अमृत उपवन : श्रीनगर के समीप कहीं था । पुनः उल्लेख नही मिलता। पाट-टिप्पणी: ४४, 'दीप' पाठ-बम्बई। पाद-टिप्पणी: ४५. 'घूर्णित' पाठ-बम्बई । पाद-टिप्पणी: ४६ (१) नापित : नाई, हज्जाम, नाऊ, बाल बनानेवाला । मुसलिम या तुर्की नाऊ था । पूर्ण = लूला । द्रष्टव्य : जैन० : २ ५२; १२२; ३ : १४८ । (२) छेदन : अंगभंग । म्युनिख पाण्डुलिपि में उल्लेख है कि सुल्तान प्रतिहिंसक था। थोडे से भी अपराध के लिए कठोर दण्ड देता था (७७ बी०)। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : ४७-५०] श्रीवरकृता २६५ नापितो निघृणः पापी क्रोधी क्रकचपाटितान् । पैतृकाष्ठक्कुरादींश्च कारयामास भूपतेः ॥ ४७ ॥ ४७. निर्दयी, पापी एवं क्रोधी उस नापित ने राजा के पैतृक ( पिता सम्बन्धी ) ठक्कुरादि' को आरा से चिरवा दिया। चलितानग्रजभ्रातः स्वावनायान्तिकं पथि । रुद्धवा शूलेऽधिरोप्यान्यान् पञ्चषानप्यघातयत् ॥ ४८॥ ४८. अपनी रक्षा के लिये ज्येष्ठ भ्राता के पास जाते हुये, मार्ग में रोक कर, पाँच-छः को शूली पर चढ़ा कर मरवा डाला। जीवन्तो गणरात्रं ते स्वकुटुम्बोक्तवेदनाः । पौरैः सानुजलैदृष्टाः शूलपृष्ठे पुरान्तरे ॥ ४९ ॥ ४९. आँखों में आँसू भरे पुरवासी, नगर मे शूली पर कई रात जीवित रहते, उन लोगों को देखें, जो अपने कुटुम्बियो के प्रति, वेदना प्रकट कर रहे थे। वैदूर्यभिषजं ज्ञात्वा दूषकं परपक्षगम् । अमुञ्चद् बन्धनात् कृत्तभुजनासोष्ठपल्लवम् ॥ ५० ॥ ५०. वैदूर्य' भिषग को दूषक एवं पर पक्षगामी जानकर, हाथ, नाक और ओष्ठ-पल्लव काटकर, बन्धन मुक्त किया। पाद-टिप्पणी : ऊपर जाकर नीचे की ओर आता है। यह अत्यन्त ४७. (१) ठक्कुर : द्रष्टव्य : १:१:४४: क्रूर प्रथा थी । अब बन्द हो गयी है। ३ : ४६३, ४ : १०४, ३५३ । पाद-टिप्पणी : पाद-टिप्पणी : ४९. (१) शूल : सुदूर प्राचीन काल काश्मीर 'अघातयत' पाठ-बम्बई । में शूल पर, आरोपित करने की प्रथा प्रचलित रही है। ४८. ( १) शूल : यह क्रूर प्रथा समस्त विश्व में प्राचीन काल में प्रचलित थी। स्थानभेद के । पाद-टिप्पणी : कारण शूल अर्थात शूली पर चढ़ाने की क्रिया में ५०. (१) वैदूर्य : इस व्यक्ति का कहीं और अन्तर था। दण्डित एक नुकीले लोहदण्ड पर उल्लेख नहीं मिलता। नाम का पाठ वैडूर्य भी बैठा दिया जाता था। दण्डित के शिर पर मुगरा से मिलता है। परन्तु वैदूर्य नाम ठीक है। वैदर्य एक आघात किया जाता था। तीक्ष्ण लौहदण्ड गुदा प्रकार की नीलम मणि है। स्थान से घुसता शिर की ओर चलता था। दण्डित (२) नाक : हाथ, पैर, नाक, कान कटवाना व्यक्ति ऊर्ध्व से अधोभाग की ओर उसी प्रकार मुसलिम काल मे साधारण प्रथा थी । ओष्ठ कटवाना सरकता था, जिस प्रकार माला का दाना सूई मे नयी बात थी । इससे घोर क्रूरता प्रकट होती है । जै. रा. ३४ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैन राजतरंगिणी तथैव नोनदेवादीन् पञ्चाषानकरोत् ५१. उसी प्रकार शिखजादा', नोनदेव आदि पाँच-छः जनों का जीभ, नाक, एवं एक हाथ कटवा दिया । शिखजादादिसंयुतान् । कृत्तजिह्वानासैकहस्तकान् ॥ ५१ ॥ [२ : ५१-५३ विरुद्धावयवच्छेदलारोपणकर्मणा 1 स पूर्णनापितः पापी बभूव नरशौनिकः ॥ ५२ ॥ ५२. विरुद्ध अवयव-छेदन एवं शूल' रोपण कर्म से वह पापी पूर्ण नापित नर शवनिक ( कसाई ) हो गया था । आचार्यपुत्रो जय्याख्यस्तथा भीमाभिधो द्विजः । छिन्नाङ्गौ स्वं यथाशक्तौ वितस्तायां समझताम् ॥ ५३ ॥ ५३. आचार्य-पुत्र जज्ज' ( जय ) तथा भीम' नामक द्विज, जिनके अंग छिन्न कर दिये गये थे, संघर्ष में असमर्थ होने पर, अपने को वितस्ता में डाल दिये । पाद-टिप्पणी : ५१. (१) शिख: द्रष्टव्य टिप्पणी : १ : ३ : ९८, १०२, १०३ । ( २ ) नोन: यह नाम ब्राह्मण तथा व्यापारी दोनों का मिलता है ( रा० : ६ : ११, ८ : १३२८) । श्रीवर ने इसका उल्लेख केवल इसी स्थान पर किया है। इस नाम का उल्लेख जोनराज ने भी किया है ( जोन० : ८०२, ८०३, ८०५ ) । पाद-टिप्पणी : ५२. (१) शूल : द्रष्टव्य टिप्पणी : २ : ४८ । (२) पूर्ण पूर्ण नाई था । श्रीदत्त ने उसका नाम रिक्तेतर ( पृष्ठ १८६ ) दिया है। नोट मे लिखा है कि उसे बाद मे पूर्ण कहा गया है । म्युनिख पाण्डुलिपि में उसे पूनी तथा निजामुद्दीन एवं फिरिश्ता ने उसका नाम लूली लिखा है । अरबी लिपि में यदि पूनी लिखा जाय तो वह भ्रम से लूली पढ़ लिया जा सकता है। उसने भयंकर अत्याचार हैदरशाह पर हाबी होकर, कराया था। उसे पढ़कर रोमांच हो जाता है ( २ : ३४, ४६, १२३; ३ : १४८ ) । सुल्तान हसनशाह ( सन् १४७२ - १४८४ ई० ) के समय मल्लेकजाद के साथ राज-विरोधी षड्यन्त्र के कारण बन्दी बनाया गया। उसका सर्वस्व हरण कर लिया गया । कारागार में यातना सहता, बहुत दिनों तक बन्दी था । उसकी हत्या कर दी गयी ( जैन० : २ : १२२; ३ : १४८ ) । कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इण्डिया में नाम 'लूली' दिया गया है ( ३ : २८४ ) । पाद-टिप्पणी : ५३. ( १ ) छिन्नांग : हाथ, पैर आदि काट कर उनका अंग-भंग कर दिया था । ( २ ) जज्ज : यह हिन्दू नाम है। एक जज्ज जयापीड का साला था । जज्ज काश्मीर का राजा हुआ था ( क० : ४ : ४६ ) । उक्त जज्ज ब्राह्मण था । आचार्य ब्राह्मण ही होते थे । ३) भोम : ब्राह्मणों पर अत्याचार आरम्भ हुआ था । उसके दोनों ही द्विज शिकार बन गये थे । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ २ . ५४-५७] श्रीवरकृता मबलीलाव्यसनतस्तद्राज्ये बाह्यदेशवत् । आसीन्मार्कीकवगौडी देशेऽत्र प्रचुरा सुरा ।। ५४ ॥ ५४ मद्य लीला व्यसन के कारण, बाह्य देशों के समान, उस राज्य में भी अगूर के समान गुड़ से बने सुरा का प्राचुर्य हो गया था। तन्मघरसिके राज्ञि सर्वभोगपराङ्मुखे । खण्डातीक्षुविकारास्ते सुलभा न गुडोऽभवत् ॥ ५५ ॥ ५५. सर्वभोग परांमुख राजा के उस मद्य के प्रति रसिक हो जाने पर, खाड़ आदि ईख के विकार सुलभ नहीं रह गये, गुड़ ( शीरा-शराब ) हो गये। खुज्याब्दुल्कादिर्यस्यान्तेवासी गीतगुणाम्बुधः । मल्लाडोदकनामासीत् तन्त्रीवाद्यगुरुनृपे ।। ५६ ॥ ५६. गीत-गुणों का सागर, खुज्याब्दुल कादिर' का अन्तेवासी मल्लाडोदक' राजा का वीणा वादन का गुरु था। कूर्मवीणादिवाद्यानां प्राप्यास्माद् गीतकौशलम् । आजीवं क्षणमप्यासीन तन्त्रीवादनं विना ॥ ५७ ॥ ५७. इससे कूर्म वीणादि वाद्यों का गीत-कौशल प्राप्त कर, जीवन पर्यन्त ( वह ) तन्त्रीवादन के बिना क्षण भर नहीं रहा। पाद-टिप्पणी: केवल वीणा का उल्लेख यहाँ किया गया है। दोनों ५४. (१) बाह्य देश : द्रष्टव्य टिप्पणी : १: के वादक भिन्न व्यक्ति थे। कूर्म वीणा का वादक १ : १२४; २ : १९१ । मुल्ला जाद था। केवल वीणा का वादक खोजा पाद-टिप्पणी : अब्दुल कादिर का शिष्य मुल्ला डोदक अर्थात् पाठ-बम्बई। दाऊद था। खुरासान से एक संगीतज्ञ मुल्ला उदी भी आये ५६. (१) अब्दुल कादिर : खुज्या शब्द थे। श्रीवर ने उसका उल्लेख नही किया है (म्युनिख : ख्वाजा है । पूरा नाम स्वाजा अब्दुल कादिर है। पाण्डु० : ७३ ए०)। मुल्ला 'उडी' को ही धीवर ने ख्वाजा का अर्थ स्वामी, मालिक आदि होता है। मुल्ला डोडक लिखा है। यह अनुसन्धान का विषय (२) अन्तेवासी : शिष्य, गुरु के साथ रहनेवाला। पाद-टिप्पणी : (३) मल्लाडोदक : दोदक = डोडक, मल्ला ५७. (१) कर्म वीणा : इसे कच्छपी वीणा शब्द मुल्ला है। डोदक शब्द दाऊद है। मुसलिम कहते है। इसका दण्ड १८ अंगुल का होता है । नाम मुल्ला दाऊद है। ख्वाजा अब्दुल कादिर का ऊपर का शिरा झुका होता है । दण्ड पर २४ सारिशिष्य था। काएँ (परदे) होते है। वे प्रायः पीतल की होती (४) वीणा : कूर्म वीणा का १ : ४ : ३२ तथा है। ऊपर की ओर एक गोल तुम्बा दण्ड में लगा Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैनराजतरंगिणी [२:५८-५९ तन्त्रीवादविशेषज्ञो राजा व्यञ्जनधातुभिः । स्वयं वादननिष्णातो वैणिकानप्यशिक्षयत् ।। ५८ ॥ ५८. व्यञ्जन धातुओं द्वारा तन्त्री' वाद्य विशेषज्ञ तथा वादन में प्रवीण, राजा स्वयं वीणावादकों को भी शिक्षा देता था। रबाबवायरचनैर्बलोलद्यश्च गायनैः । राज्ञः प्रसादात् किं नाप्तं तत्तत्कनकवर्षिणः ॥ ५९॥ ५९. रबाव' वाद्य के रचनाकर्ता बहलोल आदि गायकों ने तत्-तत् प्रकार से कनकवर्षी राजा की कृपा से क्या नहीं प्राप्त किये? रहता है। नीचे की ओर काष्ठ का कच्छप (कर्म) पाद-टिप्पणी : के पीठ के आकार का एक टुकड़ा होता है। उसका ५९. (१) रबाब : एक मत है कि ईरानी भीतरी हिस्सा खोखला होता है। इसके ऊपरी भाग- वाटा है। मसलिम काल में इस वाद्य का प्रवेश पर घुड़च होती है। जिस पर से दण्ड पर चिपकायी भारत तथा काश्मीर में हुआ था। परन्तु तानसेन हुई, सारिकाओ के ऊपर से तार फैलाये होते है। से शताब्दी पूर्व श्रीवर स्पष्ट लिखता है कि इसकी इस वीणा में प्रायः सात तार होता है। इसमे से रचना बहलोल आदि की है। रबाब का विकास चार तार सारिकाओं के ऊपर से जाती है और एवं निर्माण काश्मीर में हुआ था। तानसेन ने इस तीन तार बगल मे होती है। ऊपर के चार तारों वाद्य को अपनाया था। उसके वंशजो का यह प्रिय मे से दो लोहे की होती है और दो पीतल की। बाद्य रहा है। इसके वादन द्वारा उन्होंने मुसलिम बगल की तीन तारें लोहे की होती है । तारें खूटियों दरबारों में प्रश्रय पाया था। में बंधी होती है। इस वीणा के नीचे वाले भाग की रबाब सारंगी के समान बाजा है। काश्मीर के पीठ कछुए के पीठ जैसी होती है। इसलिये इसे रबाबिया आज भी प्रसिद्ध है। सारंगी और रबाब कच्छपी वीणा कहते है। मे अन्तर यह है कि रबाब का पेट सारंगी की पाद-टिप्पणी : अपेक्षा लम्बा होता है। सारंगी से ड्योढ़ा गहरा ५८. (१) तन्त्रीवाद : तन धातु से तन्त्री शब्द होता है। पेट के ऊपर का दण्ड सारंगी से पतला बना है । तन्त्री अर्थात् तार, बाल, बिल्ली की आँत, हाता है। इसम दा घुड़च हाता है। एक पट के लोहा, धातु का बना होता है। उनके आधार पर मध्य में और दूसरी दण्ड के आरम्भ में। रबाब में बना वाद्य तन्त्रीवाद्य कहा जाता है। वीणा, रबाब, ताँत के सात तार लगे होते हैं। जिसमें सात स्वरों सितार, सांरगी आदि की गणना तीवार में स, रे, ग, म, प, द, नी की स्थापना की जाती है। होती है। इसे जवा और कमान दोनों से बजाया जाता है। अरबी में तन्त्रीवाद्य को अल ऊद कहते है। । आइने अकबरी में छ तार के रबाब का उल्लेख आइन अ अरबी में 'ऊद' का अर्थ सुगन्धित लकड़ी होता है। मिलता है। अंग्रेजी मे लकड़ी को 'ऊड' कहते है। यही शब्द तवक्काते अकबरी में उल्लेख है कि सुल्तान अल ऊद अपभ्रंश रूप में फ्लूट बन गया । अरबी जब प्रसन्न होता था तो रबाब और वीणा तथा अन्य ऊद ३ से ५ तार होते है। वाद्य-यन्त्र सुवर्ण के बनवाये तथा उनमे रत्न जड़े गये Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : ६०-६४ ] श्रीवरकृता सुरतालयस्थैभृतैरिवान्तश्छलनप्रवीणैः यः पिशनैर्नरेशो बिभेति तस्मान्ननु को न मर्त्यः ॥ ६० ॥ शौचालयस्थैः वशीकृतो ६०. भूत सदृश शौचलायस्थ, सुरतालयस्थ' एवं अन्तस्थ छलना में प्रवीण, पिशुनों द्वारा जो राजा वशीकृत हो गया था, उससे कौन मनुष्य नहीं डरता ? रहः स्थितं नृपं जातु पिशुनः पूर्णनापितः । अपृच्छत् प्रेरितोऽमात्यैश्चिकीर्षां पूर्वमन्त्रिषु ॥ ६१ ॥ ६१. आमात्यों से प्रेरित होकर, पिशुन' पूर्ण किसी समय एकान्त स्थित, राजा से पूर्व मन्त्रियों के ऊपर किये जानेवाले व्यवहार के विषय में पूछा १ : ४ : ५२ । भवत्पक्षविनाशो यैः कृतस्त्वत्पितृमन्त्रिभिः । प्राप्तराज्येन भवता त एव प्रबलीकृताः ॥ ६२ ॥ ६२. 'जिन तुम्हारे पिता के मन्त्रियों ने आपके पक्ष का विनाश किया, राज्य प्राप्त कर, आपने उन्हें ही प्रबल बना दिया अमी सोऽपि धूर्तो ६३. 'वे हस्सन कोशेश प्रमुख लोग तुम्हारे अनुज' ( बहराम खांन ) द्वारा समाहत हो रहे है, और वह धूर्त भी तत् तत् लोगों को वश में करने के लिये उद्यत है— असमर्थत्वं भ्रात्रर्पितभरः तत्ते सपुत्रभृत्यस्य न नाशो भविता ६४. ‘असमर्थ शरीर तुम सर्वदा भाई' ( बहराम खां ) के ऊपर भार डाल देते हो, अतः पुत्र, भृत्य सहित तुम्हारा शीघ्र नाश करेगा ।' पाद-टिप्पणी : (६५७-६५८ ) । फिरिश्ता ने वीणा के स्थान पर तम्बूर लिखा है । रोजर्स ने रबाब तथा तम्बूर या वीणा किसी का उल्लेख नहीं किया है । ( २ ) कनकवर्षी: द्रष्टव्य टिप्पणी : जैन० : हस्सनकोशेश मुख्यास्त्वदनुजादृताः । तत्तद्वशीकारसमुद्यतः ॥ ६३ ॥ घिया २६९ 'न' पाठ - बम्बई | ६०. (१) सुरतालय : कामगृह । सदा । चिरात् ॥ ६४ ॥ पाद-टिप्पणी : ६१. ( १ ) पिशुन: पूर्ण नापित चुगलखोर था । वह राजा के पास रहने का लाभ उठाकर लोगों की शिकायत करता था । तवक्काते अकबरी में उल्लेख है - बोली (पूर्ण) लोगो से घूस लेता था और जिसका वह विरोधी हो जाता था उससे वह सुल्तान को रुष्ट करा देता था ( ६७३ ) । लोली का नाम एक पाण्डुलिपि तथा फिरिश्ता के लीथो प्रति Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जेनराजतरंगिणी श्रुत्वेत्यवोचन्मत्पुत्रः सत्यं मदनुजाsप्रियः । किं तु ब्रवीमि येनायं रक्ष्यते कुटिलाशयः ॥ ६५ ॥ ६५. यह सुनकर, राजा ने कहा- 'क्या सचमुच मेरा पुत्र मेरे भाई को अप्रिय है ?' किन्तु वह कहता हूँ, जिसके कारण इस कुटिल-हृदय (भाई) की रक्षा हो रही है— उग्रो दनुजस्तीक्ष्णो मत्पदाक्रान्तिसूद्यतः । अनेन क्रष्टुमिच्छामि कण्टकेनेव कण्टकम् ।। ६६ ।। ६६. 'मेरा अनुज उग्र, तीक्ष्ण तथा मुझे पददलित करने के लिये प्रयत्नशील है, अतएव काँटे से काँटा निकालना चाहता हूँ । कार्यापेक्षावशादेतं रक्षामि न तु गौरवात् । श्रुत्वेति द्वित्रान् महतो व्यधाज्ज्ञातचिकीर्षितान् ।। ६७ ।। ६७. 'कार्य की अपेक्षावश इसकी रक्षा कर रहा हूँ न कि गौरववश ।' यह सुनकर, उस (पूर्ण) ने दो-तीन बड़े लोगों को राजा की इच्छा ज्ञात करायी । आदम खाँ का कश्मीर अभियान : [ २ : ६५-६९ अत्रान्तरेऽग्रजो राज्ञो मद्रदेशाद् बलान्वितः । भ्रातृ राज्य जिहीर्षायै पर्णात्सं प्राप दर्पितः ।। ६८ ।। ६८. इसी बीच सेना सहित, गर्वीला राजा का ( बड़ा ) भाई', मद्र देश से भाई का राज्य हरण करने की इच्छा से पर्णोत्स' पहुँचा । तच्छ्र ुत्वा नृपतिः क्रुद्धस्तान् समानीय पैतृकान् । अवोचत् किं नु कर्तव्यं ते तमित्यूचुरुत्तरम् ॥ ६९ ॥ ६९. यह सुनकर, क्रुद्ध राजा ने उन पैतृकों' को बुलाया और उनसे कहा- 'क्या करना चाहिये ?' उन लोगों ने उसको यह उत्तर दिया । में 'तूली' लिखा है । रोजर्स ने उसे लूलू ( जे० ए० एस० बी० : ५४ : १०७ ) हिस्ट्री आफ इण्डिया ( २८४ ) मे लूली लिखा है । पाद-टिप्पणी : लिखा है केम्ब्रिज नाम ६६. (१) कण्टकनेव कण्टकम् : काँटा से काँटा निकालना । कण्टक शोधनम् चाणक्य का प्रसिद्ध वाक्य । उसका अर्थ है राज्य के कण्टकों को दण्डादि द्वारा दूर करना । 'पादलग्नं करस्थेन कण्टकेनैव कण्टकम् ।' चाणक्य शतक : २२ । पाद-टिप्पणी : ६८. (१) भाई : आदम खाँन । तवकाते अकबरी मे उल्लेख है— इसके पूर्व आदम खाँ अत्यधिक सेना एकत्र करके सुल्तान से युद्ध करने के लिये जम्मू की विलायत में पहुँचा (६७४) । (२) पर्णोत्स: पूंछ । द्र० १ : ३ : ११०; १ : ७ : ८०, २०८; २ : २०२४ : १४४ ६०७ । पाद-टिप्पणी : ६९. ( १ ) पैतृक : पिता के सम्बन्धियों, पिता के प्रिय पात्रों, कुल-वंशजों आदि से अर्थ अभिप्रेत है । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:७०-७४] श्रीवरकृता २७१ तटिकासेतुबन्धं तं छेत्तुं यामोऽस्य तिष्ठतः । अन्यथा दुःसहः प्राप्तस्तदाज्ञा दीयतां विभो ॥ ७० ॥ ७०. 'उसके वहीं रहते नौका सेतुबन्ध को काटने के लिये हम जा रहे हैं। अन्यथा वह दुःसहः पहुँच जायगा । अतएव हे प्रभु ! आज्ञा दीजिये ।' श्रुत्वेति कातरं वाक्यं तेषां दुर्लक्ष्यचेष्टितः । तत्पक्षपातिनो ज्ञात्वा तथेति प्रत्यपद्यत ।। ७१ ॥ ७१. दुर्लक्ष्य चेष्टा करके, राजा ने उनके इस कातर वाक्य को सुनकर, और ( उन्हें ) उस ( भाई ) का पक्षपाती जानकर, कहा-'ऐसा ही हो'-( स्वीकृति दिया )। प्रतिमुच्य नृपस्तान् स रात्रावित्यब्रवीन्निजान् । आनीय फिर्यडारादीन् मन्त्रिणः कार्यनिष्ठुरान् ।। ७२ ।। ___ ७२. उस राजा ने उन्हें मुक्त ( विदा ) कर, फिर्य डारादि' कार्य निष्ठुर अपने मन्त्रियों को बुलवाकर, इस प्रकार कहा इयं हस्सनकोषेशचक्रिका यत् समागतः । एतद्वधेन नष्टः स्यादन्यथाभ्यन्तरं विशेत् ।। ७३ ।। ७३. 'यह हस्सन कोशेश का षड्यन्त्र है, जो कि वह आया है, इसके वध से वह स्वयं नष्ट हो जायगा, अन्यथा वह अन्दर प्रवेश करेगा। तत्प्रातरेते हन्तव्या युक्त्यानीयेति तान्नृपः । छन्नकोपः सेवकान् स्वानकरोत् कृतसंविदः ।। ७४ ।। ७४. 'अतः प्रातः युक्तिपूर्वक लाकर, इनका वध करना चाहिए'. अपने क्रोध को छिपा कर, राजा ने अपने उन सेवकों को मन्त्रणा दी। पाद-टिप्पणी : संख्या मे है और उनमें यह नाम प्रचलित है। ७२. (१) डार : डार = डर = दर = फिर्य डामर वर्ग का प्रचुर उल्लेख कल्हण, जोनराज डामर । द्रष्टव्य टिप्पणी १:१: ९४ । डामर शब्द ने किया है । दर कृषक सम्पन्न वर्ग था। कश्मीरी का अपभ्रंश डर या दर एवं डार है। यह मूलत' शिव उपासक होते है । शिव कथित एक तन्त्र डामर ब्राह्मण थे । हिन्दू ब्राह्मण 'धर' या अंग्रेजी में डी०एच० है। इसके छः भेद-योग डामर, शिव डामर, दुर्ग ए० आर० लिखते है और मुसलिम 'डार' अंग्रेजी डामर, सारस्वत डामर, ब्रह्म डामर तथा गन्धर्व मे डी० ए० आर० लिखते है । यह भेद हिन्दू-मुसल- डामर होते है । डामर का अर्थ आडम्बर, ठाटबाट, मान काश्मीरियों के पहचान के लिए कर दिया गया चमत्कार, क्षेत्रपाल तथा भैरवों में एक है। इसका है। आज भी मुसलमान डार तथा हिन्दू दर काफी अर्थ मिश्रित तथा संकर जाति भी होता है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैनराजतरंगिणी [२:७५-७७ राज्ञा प्रातः समाहूय विसृष्टानुचरा गृहात् । सर्वे हस्सनकोषेशमुख्यास्तूर्ण समाययुः ॥ ७५ ।। ७५. राजा ने प्रातःकाल उनको लाने के लिये अनुचरों को भेजा और शीघ्र ही गृह से हस्सन कोशेश प्रमुख सब लोग आ गये । कम्पते तुरगस्त्रस्तो ज्ञातवृत्त इवाचलः । ताडनैबहुशः सानुः प्राप कष्टान्नृपाङ्गनम् ।। ७६ ।। ७६. जिस प्रकार वृत्तान्त जानने के कारण अश्व' काँपता, त्रस्त एवं अचल हो जाता है, तथा बहुतः ताड़ित करने से, आँख में आँसू भरकर, बड़े कष्ट से नृप-प्रांगण में पहुंचता है महार्हास्तरणस्थांस्तान् राजकतेव्यताकुलान् । कोपेशहस्सनमेरकाकादीन् पञ्चषान्नृपः ।। ७७ ।। ७७. बहुमूल्य आस्तरण पर स्थित तथा राज कार्य जानने के लिये आकुल उस कोशेश हस्सन, मेर काक' आदि पाँच-छः लोगों को राजा ने पाद-टिप्पणी : उसके पडते टाप, उसके हिनहिनाने, चलते-चलते रुक 'साश्रुः' पाठ-बम्बई। जाने, गतव्य मार्ग से सहसा लौट पड़ने, ठोकर खाने, ७६ (१) अश्व : मेरे पास भी एक घोडा था। आँसू बहने आदि से भविष्य का शकुन निकलता मेरे घर घोड़ा और हाथी रखने की परम्परा चली था। रणस्थल में जाते समय यदि अश्व के आँखों आती थी। हाथी और घोड़ा दोनों जमीन्दारी उन्मू- से आँसू बहता है, ठिठिकता चलता है, हठात् खड़ा लन के पश्चात निकाल दिया। जमीन्दारी निकल जाने हो जाता है, अनायास काँपने लगता है, तो उसका के पश्चात आर्थिक संकट आ गया। अतएव उन्हे फल पराजय, मृत्यु आदि अपशकुन होता। मुसलबेंच दिया। घोड़े का महत्व मोटर कारों के पूर्व था। मानों में कहावत प्रचलित थी कि यदि जिन अर्थात् सन् १९२० ई० तक सामाजिक जीवन में कुलीनता भूत सामने होता है, तो घोड़ा हिनहिनाता है, की निशानी के अतिरिक्त वाहन का मुख्य साधन वह जिनो के मार्ग से कतरा कर निकल जाता है। था। सवारी और एक्का तथा गाड़ी मे जोतनेवाले इस कुसंस्कार के कारण पूर्वकाल में कुलीनवर्गीय घोड़ों को विशेष रूप से आवश्यकतानुरूप शिक्षा दी व्यक्ति दिन तथा मुख्यतः रात्रि में सवारी जिन एवं जाती थी। अरब के सौदागर मेरे बाल्यकाल तक प्रेतबाधा से बचने के लिए करते थे। अंग्रेजी तथा घोड़ा बेचने काशी आते थे। काशीराज की सेना के भारतीय भापा में अश्व विज्ञान, अश्व चिकित्सा साथ अंग्रेजों की सेना भी छाउनी बनारस कैण्ट में आदि ग्रन्थ प्रचुर संख्या में मिलते है । जहाँ मृत्यु थी। व्यापारियों के लिए काशी अच्छा व्यापारिक या आहत होने की शंका अश्वारूढ की होती केन्द्र था। है, वहाँ वह जाने में डरता है। जबर्दस्ती अश्वारोही ___ अश्वों के विषय में नाना प्रकार की किम्बदन्तियाँ उस ओर उसे ले जाता है। श्रीवर इसी का वर्णन उक्त श्लोक में करता है। उन दिनों प्रचलित थीं। श्रीवर के समय वह किम्ब- " दन्ती काश्मीर में भी प्रचलित थी। अश्व अपनी ७७. (१) काक: काश्मीरी ब्राह्मणों की एक मृत्यु जान जाता है। उसकी मुद्रा, उसकी गति, उपजाति है। सारस्वत ब्राह्मण हैं। वर्तमान काल Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २: ७८-७९] श्रीवरकृता हत्याकाण्ड : भृत्यैः संजयरमेराद्य राज्ञप्तैर्मण्डपान्तरे । छलाद्विश्वासमुत्पाद्य राजधान्यन्तरेऽवधीत् ।। ७८ ।। ७८. आदेश देकर संजर, मेर आदि मृत्यों द्वारा राजधानी में मण्डप के बीच विश्वास उत्पन्न कर छल से वध' करा दिया। किं द्रोह इति यावत् स कोशेशोऽभ्युत्थितोऽब्रवीत् । द्रुघणेकप्रहारेण तावत् प्राणैव्ययुज्यत ॥ ७९ ।। ७९. जब तक, उठ कर, कोशेश ने 'क्या द्रोह है' कहा तबतक, कुल्हाड़ी' (द्रुधण ) के एक प्रहार से प्राण त्याग दिया। मे ब्राह्मण गुरु, कारकुन तथा बोहरू वर्ग में प्राय. की जिसने सबसे अधिक उसकी वैअत के लिए प्रबन्ध विभाजित है। काक ब्राह्मण कारकुन वर्ग मे आते किया था, लूली नाई की चुगली के कारण हत्या है। मुसलमान और हिन्दू दोनों ही काक अपने करा दी (४४७ = ६७४) । नाम लीथो तथा पाण्डुनामों के साथ लिखते है । जो काक ब्राह्मण मसलमान लिपि में 'बरकछी' लिखा है। हो गये थे, उन्होंने अपनी पदवी नहीं छोड़ी । मीर फिरिश्ता लिखता है-हुस्सन कच्छी जो राजा काक भी इसी प्रकार काक ब्राह्मण वंश का मूलतः का एक अधिकारी था और जिसने हाजी खाँ को हुआ, तवलीग के कारण वह स्वयं अथवा उसके साथी मुसलमान हो गये होंगे। राजसिंहासन प्राप्त कराने में प्रसिद्धि प्राप्त की थी, उसका वध सुल्तान ने लूली नापित की प्रेरणा पाद-टिप्पणी: पर करा दिया (४७५-४७६ ) । फिरिश्ता के 'संजर' पाठ-बम्बई। लीथो संस्करण मे नाम हसन खाँ कच्छी लिखा है । ७८. (१) वध : इस हत्याकाण्ड की तुलना पीर हसन लिखता है और हसन खाँ कच्छी नेपाल में रानी लक्ष्मीदेवी के समय राणा जंगबहादुर की जिसने सबसे पहले सुल्तान की वैअत की थी द्वारा हुई कोट हत्याकाण्ड का स्मरण दिलाती है लोली हज्जाम के चुगलखोरी से मकतूल हुआ। (द्र० : जाग्रत नैपाल )। (१८८) संजर का ज्यंसर, पाठ मिलता है। यदि यह ___म्युनिख : पाण्डु० : ७८ ए० में उल्लेख मिलता पाठ मान लिया जाय तो 'जमशेद' नाम होगा। है कि हसन आदि पर राजा को सन्देह हो गया था शाहमीर वंश के द्वितीय सुल्तान 'जमशेद' का नाम कि वह बड़े भाई आदम खाँ से मिला था। उन्हे तथा जोनराज ने ज्यंसर लिखा है। संस्कृत मे जमशेद उन लोगों को बुलाकर, जो उसका विरोध उसके का रूप ज्यंसर बन गया था। पिता के समय में किये, वध करा दिया। पाद-टिप्पणी : तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है-हसन कच्छी ७९. ( १ ) द्रुघण : परशु, कुल्हाड़ी। जै. रा. ३५ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैनराजतरंगिणी शस्त्राघातैर्मुमूर्षुः सन्नुत्थितो मेरकाककः । राज्ञ एवाशिषः कुर्वन् पुनः परशुना हतः ॥ ८० ॥ ८०. शास्त्राघातों से मुमूर्षं होकर भी मेर काक' उठा और राजा को आशीर्वाद देते हुये, पुनः परशु द्वारा मार डाला गया । लिखन्नादमेराख्यः स विद्याव्यसनी गुणी । कस्य न शोच्यताम् ॥ ८१ ॥ तो जनमनः कान्तो ययौ ८१. विद्या - व्यसनी, गुणी एवं जन-मनोरम, अहमद को लिखते हुये, मार डाला गया । उसके लिये किसने शोक नहीं किया ? जीवतां मनसा चैक्यं तेषां नित्यमभूद्यथा । शस्त्रकृत्ततनूद्गच्छच्छोणितैक्यमभूत् ८२. जिस प्रकार जीवित उन लोगों में नित्य मानसिक एकता थी, उसी प्रकार शस्त्रों से कटे शरीर से निकलते, रक्त में भी एकता हो गयी । वर्णकम्बल पृष्ठस्था जीवन्तस्ते निद्राणा इव ते तत्र मृता अपि [२ : ८०-८५ तथा ।। ८२ ।। ८३. जीवित रहते, जिस प्रकार वे लोग रंगीन मरने पर भी, वे इस प्रकार दिखायी दिये, मानों वे शयन कर रहे हैं । पाद-टिप्पणी । ८०. (१) मेर: मीर काक । द्रष्टव्य टिप्पणी : २:७ । यथाभवन् । तथेक्षिताः ॥ ८३ ॥ पाद-टिप्पणी : ८३. ( १ ) वर्ण कम्बल रंगीन कम्बल | श्रीवर के वर्णन से प्रतीत होता है, मन्त्रीगण अपनी मन्त्रणा रंगीन कम्बल अथवा कालीन या गब्बा पर क्षणमात्रात् तथा शस्त्रैर्मरणं राजवेश्मनि । अनन्यसुलभं तत्र श्लाघाईतामगात् ॥ ८४ ॥ तेषां ८४. क्षणभर में इस प्रकार शस्त्रों द्वारा राजगृह में उन लोगों का अनन्य सुलभ मरण भी प्रशंसनीय हो गया । न वित्तं न च दारास्ते न भृत्या न शवाजिरम् । तेषां तथा प्रमीतानां ययावन्तोपकारिताम् ।। ८५ ।। ८५. उस प्रकार मृत, उन लोगों के लिये, अन्त में न वित्त, न स्त्रियाँ और न शवाजिर उपकारी हुये । कम्बल' पर स्थित रहते थे, उसी प्रकार बैठकर करते थे । उन दिनों टेबुल-कुरसी पर बैठकर मन्त्रिमण्डल की बैठक करने का रिवाज नहीं थी । सब कामकाज बैठकर किया जाता था । साधारण कम्बल से रंगीन कम्बल विशिष्ट होता था, यह मन्त्रियों के बैठने की विशिष्टता की ओर संकेत करता है । पाद-टिप्पणी : ८५. ( १ ) शवाजिर मजार, कब्र । श्रीवर Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:८६-८८] श्रीवरकृता २७५ निजपरिभवभीत्या बन्धवो यान्ति दूरं ___ त्यजति च निजपत्नी का कथा सेवकानाम् । प्रतिदिनमृणहेतोस्ताडनं बन्धनं वा ___ भवति हि यमभङ्गाद् राजभङ्गोऽतिकष्टः ॥ ८६ ॥ ८६. निज परिभव की भीति से. बन्ध दर चले जाते हैं, अपनी पत्नी भी त्याग देती है, सेवकों की बात ही क्या? ऋण के लिये प्रतिदिन ताडन एवं बन्धन किया जाता है, इस प्रकार निश्चय ही यम भंग ( दण्ड ) की अपेक्षा राजभंग ( दण्ड ) अति कष्टप्रद होता है । स्फुलिङ्गालिङ्गनात् क्रुद्धकृष्णसर्पोपसर्पणात् । मकराकरपाताच्च कष्टं नृपतिसेवनम् ॥ ८७ ॥ ८७. दहकते अग्नि का आलिंगन, क्रुद्ध कृष्णसर्प के समीप गमन तथा समुद्र में पतन की अपेक्षा, नृपति का सेवन, अधिक कष्टप्रद होता है । प्रद्युम्नगिरिपादान्ते चण्डालैर्निश्यनाथवत् । इट्टिकाभिस्ततो नीत्वा भूगर्तेषु निवेशिताः ॥ ८८ ॥ ८८. अनाथ सदृश, उन लोगों को चाण्डालों ने रात्रि में वहाँ से ले जाकर, प्रद्युम्नगिरि के पादमूल में, भू-गर्त ( कब्र ) में, निवेशित कर, इहिप्का से ढंक दिया। दाह-संस्कार का पक्षपाती था और गाड़ने की निन्दा नही होते थे। ठीक से उन्हे नमस्कार या उनके किये किया है। श्लोक ९१ में वैश्रवण भट्टादि जिन्होंने नमस्कार का उत्तर भी नही देते थे। हिन्दुस्तान की अपने जीवन में अपने लिए कब्र निर्माण कराया था, आजादी के पश्चात् संसद तथा विधान मण्डलों के उनकी मृत्यु पर वे काम न आये। वे जहाँ मरे, सदस्य जिस सम्मान तथा राजकीय भोग का उपयोग वही गाड़ दिये गये । किसी ने मृतात्मा की भावनाओं करते है, वे ही चुनाव हारने पर, अथवा का आदर कर, उन्हे उनके कबरों मे सुलाकर पुनः वहाँ के सदस्य न रहने पर, उनके यहाँ जो नित्य उनकी अन्तिम इच्छा पूर्ति नही की। काल हाजरी देते थे, वे उलटकर फटकते भी नही । मै भी किसी की चिन्ता नहीं करता। पन्द्रह वर्ष तक पालियामेण्ट तथा तीन वर्ष तक द्र० : १:७ : २२६; २ : ८५, ८९; ३ : उदयपुर हिन्दुस्तान जिंक सरकारी कारखाने का पाद-टिप्पणी अध्यक्ष था। वहाँ से हटने पर किसी ने स्मरण भी ८६. (१) राजभंग : श्रीवर ने व्यवहारिक नही किया । यदि मैं सरस्वती का उपासक न होता तो समय काटना कठिन था। यही कारण है कि पद कठोर सत्य लिखा है। भारत में राज्यों के विलय होने, उनकी प्रीवीपर्स बन्द तथा सभी राजकीय से हटने पर कितनो ही का वौद्धिक सन्तुलन बिगड जाता है। उनकी अवस्था दयनीय हो जाती सम्मान वापस ले लेने पर, उनकी जो विपन्नावस्था है। उस समय अपमान एवं उपेक्षा के कारण मर हई, वह वर्णनातीत है। उन्ही के यहाँ के पले नाकर, जाना अच्छा अनुभव होने लगता है। चाकर, उन्ही से वृत्ति प्राप्तकर पढे बुद्धिजीवी तथा पाद-टिप्पणी : अन्य मुखापेक्षी लोगों ने इस बुरी तरह से आँखें 'इहिका' पाठ-बम्बई। फेर ली कि उनके भी आनेपर उठकर खड़े भी ८८. (१) प्रद्युम्नगिर : शारिका पर्वत अथवा Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैन राजतरंगिणी स्वशवाजिरार्थं बहुकारुषु दत्तवित्ताः । जानाति को मम कदा मरणं कथं स्यात् ।। ८९ ।। ८९. मुसलमान लोग अपने शवाजिर (क) के लिये बहुत से शिल्पियो को धन देकर, सदैव यत्न करते हैं, यह नही सोचते कि परमेश्वर के अतिरिक्त कौन जानता है, मेरी कहाँ पर और कैसे मृत्यु होगी ? यः कुर्वन्ति मौसुलजनाः यत्नं सदैव नो चिन्तयन्ति परमेश्वरमन्तरेण स्वायुषोऽवधिमवैति यस्यान्तको भवति तं प्रति म्लेच्छेषु स्वदेहनिष्ठं मित्रतयातिवश्यः । शवाजिरकर्म कर्तुं युज्येत दुर्व्यसनमात्रमिदं मतं मे ।। ९० ।। ९०. जो अपने देह में स्थित आयु की अवधि जानता है, और मित्रता के कारण अन्तक जिसके आधीन होता है, उसी के लिये शवाजिर कर्म करना उचित है, ( अन्यथा ) म्लेच्छों का यह दुर्व्यसन मात्र है। यह मेरा मत' है । हरि या हारी पर्वत भी कहते है। हारी का अर्थ काश्मीरी में पक्षी होता है। यहाँ पर आजकल निरंजननाथ संस्कृत पाठशाला है। [ २:८९-९० इस पर्वत के पादमूल मे बहुत कब्रिस्तान आज भी है किन्तु आबादी बढ़ने और भूमि की कमी के कारण वे स्वतः लुप्त हो रहे है । (२) इट्टिका इटिका का पाठभेद यदि इष्टिका मान लिया जाय तो अर्थ होगा कि कब में रखकर ईंटों से ढक दिया । यदि उसका अर्थ शिविका मान लिया जाय तो ताबूत मे ले जाकर उसे कक्ष में रख दिया । बगली कबर होने पर उसके खुले स्थान को शव रखने के पश्चात् घंटों या पत्थरों से बन्द कर देते है। यहाँ अभिप्राय मिट्टी की ईंटो से है । पाद-टिप्पणी : ८९. (१) शवाजिर मजार श्रीवर दाह तथा गाड़ने के सम्बन्ध में अपना स्वतंत्र मत प्रकट करता है । वह गाड़ने की अपेक्षा दाह करना अच्छा मानता है । वह इस श्लोक के पश्चात अपना तर्क उपस्थित करता है। प्रतिष्ठित अथवा पनी मुसल मान अपने जीवन काल में अपने लिये कब्र या मजार बनवाते है । उस पर यथेष्ट व्यय भी करते है किन्तु भाग्य उन्हें वही गहने के लिये लायेगा कहना कठिन है । इसका ज्वलन्त उदाहरण इलाहाबाद का खुसरो बाग है । जहाँ एक भव्य इमारत बड़ी है। परन्तु गढ़नेवाला उसमें गाड़ा नही जा सका। बिना वास्तविक कब्र के वह इमारत आज भी खड़ी है। हिमायूँ का मकबरा मुगलों ने अपने वंश के गाड़ने के लिए बनवाया था ताकि हिमायूँ के कुटुम्बी मरने के पश्चात भी उसके समीप ही गये पड़े रहे। मैं समझता हूँ कि मुगल वंश के सैकड़ों से अधिक व्यक्ति दारा शिकोह सहित यहाँ गड़े है। कितने ही वहाँ न गड़कर हिन्दुस्तान के भिन्न भागों में उपेक्षित मिट्टी के ढेरों के नीचे पड़े है । औरंगजेब अर्ध शताब्दी राज्य करने पर भी दिल्ली से हजारों मील दूर खुलदाबाद में दफन है और खुली कब्र की उपेक्षा तथा भग्नावस्था देख कर सर-सालार जंग ने उसे संगमरमर का बनवा कर उसे रक्षित किया था । परन्तु पाद-टिप्पणी ९०. 'अवैति' 'निष्ठम्' पाठ-बम्बई । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ २ : ९१-९३] श्रोवरकृती ते वैश्रवणभट्टाद्याः कृत्वापि स्वशवाजिरम् । अन्ते यत्र मृता ग्रामे भुवि तत्रैव शायिताः ॥ ९१ ॥ ___९१. वैश्रवण, भट्टादि अपने लिये शवाजिर निर्माण करके, अन्त में, ग्राम में, जहाँ मरे, वही भूमि में सुला दिये गये। एक एको भुवो हस्तशतमात्रावृतौ रतः । पराप्रवेशदो यत्नात् प्राकृतो लज्जते न किम् ॥ ९२ ॥ ९२. प्रत्येक सामान्य जन सैकड़ों हाथ भूमि घेरने ( आवृत )' में रत रहता है, और दूसरे का प्रवेश यत्नपूर्वक नहीं होने देता, क्या उसे लज्जा नहीं आती? श्रुतं यच्छास्त्रतः सूक्ष्मशिलाश्चेच्छवभूतले । स्थाप्यन्ते तत् सुखं तस्मिन् परलोकगते भवेत् ।। ९३ ॥ ९३. ( मुसलिम ) शास्त्रों में सुना गया है कि यदि शव भूतल पर छोटी शिलायें स्थापित कर दी जाय, तो उसके परलोक जाने पर सुख होता है। पाद-टिप्पणी: हाता बनवा कर, भूमि का उपयोग व्यर्थ कर देते है। ९१. (१) वैश्रवण, भद्रादि : मसलिम हो उसमे दूसरे मुर्दो का गाड़ना रोक देते है। काशी में जाने पर भी पूर्व संस्कृत हिन्दू नाम, उन्होंने परि- बादशाह का बगीचा नगर के प्रायः मध्य में फातवर्तित नही किया था। इण्डोनेशिया तथा मलेशिया मान मुहल्ला मे है वह बावन बीघा से भी बड़ा मे हिन्दुओं से मुसलमान हए, शताब्दियाँ बीत गयी, है। मेरे बाल्यावस्था में मौलसरी के वृक्षों से भरा परन्तु वहाँ लोग पुरातन संस्कृत नाम रखते है। था। वही बाग अब सरकार ने अवासीय गहों के अरबी और ईरानी मसलिम नाम के स्थान पर प्लाट में बदल दिया है। वहाँ आधुनिक कालोनी स्थानीय नाम रखते है, जैसे सुकार्गो आदि । केवल बन गयी है। शताब्दियों तक वह बगीचा जंगली भारत ही अपवाद है, जहाँ हिन्दू धर्म परिवर्तन के पादपों से भरा अनुपयोगी पड़ा था। साथ, नाम भी बदल कर शुद्ध अरबी या फारसी पाद-टिप्पणी : नाम रखा जाता है। द्र० : ३ : ५०१, ५११ । ९३. (१) शिला : ऐसी कोई धार्मिक मान्यता पाद-टिप्पणी : नही है । कब्र पर शिलाखण्ड कब्र की पहचान के ९२. ( १ ) आवृत : भारत में प्रथा थी और लिए लगा दिया जाता है। शिला लगाना भी है कि लोग अपने कुटुम्ब के लिए कब्रिस्तान बनवाते धार्मिक कृत्य नही है। कब्र के उत्तर ओर अर्थात् थे। यह चहारदिवारी से वेष्ठित घेरा लम्बा-चौड़ा जहाँ शव का शिर होता है, वहाँ एक ऊँचा स्तम्भ होता है। कभी-कभी एक बगीचा में एक ही कब्र गाड देते है। शव की पहचान के लिए ईसाई तथा बनाकर उसके चारों ओर भूमि छोड़ देते थे । कुटुम्बी यहूदी भी शिला गाड़ते है। ईसाई उसे क्रास का जन अपने हडावर मे गाड़े जाते है । इस प्रकार रूप देते है। उस पर दिवंगत व्यक्ति का नाम, के प्राकार वेष्ठित चहारदिवारी बनाने में लोग अपनी जन्म, मृत्युकाल तथा बाइबिल का एकाध पद उद्धृत प्रतिष्ठा तथा अर्थक्षमता के अनुसार बड़ा से बड़ा कर खुदवा दिया जाता है। उसे अंग्रेजी मे 'ग्रेवस्टोन' Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जैनराजतरंगिणी [२:९४-९६ अहो लोभस्य माहात्म्यं जीवद्वद् यन्मृता अपि । शवाजिरापदेशेन कुर्वन्त्यावरणं भुवः ।। ९४ ॥ ९४. अहो । आश्चर्य है !! इस लोभ के माहात्म्य पर, जो कि जीवित की तरह मृत भी शवाजिर के व्याज से भूमि का आवरण ( घेराव ) करते है । महान्तो हन्त कुर्वन्तु कृतयत्नाः शवाजिरम् । तन्निर्माणेन जीवन्ति कियन्तोऽपि बुभुक्षिताः ॥ ९५॥ ९५. हन्त ! प्रयन्तपूर्वक महान लोग शव प्रांगण का निर्माण करें क्योंकि उसके निर्माण से कितने ही भूखे लोग जीवित होते है ( जीविका चलतो है )। वन्धोऽन्यदर्शनाचारो हस्तमात्रे भुवस्तले । दग्धा यत् कोटिशो नित्यं सावकाशं तथैव तत् ।। ९६ ॥ ९६. अन्य ( हिन्दू ) दर्शन' का आचरण ही श्रेष्ठ है, जो कि हस्त मात्र भूतल पर, नित्य करोड़ों दग्ध होते हैं, तथापि वह उसी प्रकार खाली रहता है। कहते है । यहूदी लोग अनगढ पत्थर, जो प्रायः टूटी हो गयी है। इससे ईसाई, मुसलमान तथा अन्य शक्ल का होता है, लगाते हैं। उस पर भी नामादि जाति के कब्रों मे स्पष्ट भेद प्रकट होता है। वे लिखा रहता है। मुसलमान कब्रों के स्तम्भ पर भी सुविधापूर्वक पहचान मे आ जाते है। नाम आदि लिखा रहता है। उसमें एक ताख यहूदी भी कब्र बनाते हैं परन्तु वह कब्र के शिरोमेहराव के आकार का खोद दिया जाता है। उसमे भाग मे नाम, ग्राम परिचय अंकित टूटा या अनगढ़ चिराग रखा जाता है। कुछ लोग पत्थर पर पवित्र पत्थर लगाते है। यहूदी तथा ईसाइयों के कब्र मे कुरान की आयत अथवा सुभाषित अपनी रचना भेद प्रकट हो जाता है। मुसलिम कब्रिस्तान प्रायः खुदवा देते है। उपेक्षित टूटी-फूटी अवस्था में मिलते है। उन पर गत शताब्दियों की कबरे ईसाइयों की वर्तमान बैर या मौलसरी का वृक्ष लगाते हैं। है। लगभग तीन शताब्दियों के कब्रिस्तान ब्रिटिश पाद-टिप्पणी : शासन होने के कारण सुरक्षित अवस्था में है । उनमे ९५ 'कुर्वन्तु' पाठ-बम्बई। अंग्रेज तथा धर्म परिवर्तित ईसाई गाड़े जाते है । प्रत्येक पाद-टिप्पणी: ईसाई सम्प्रदाय का कब्रिस्तान अलग है। इसी प्रकार ९६. (१) दर्शन : दर्शन शब्द वर्तमान प्रचसैनिकों तथा सिविलियन, यूरोपियन तथा भारतीय लित शब्द धर्म, मत, मजहब या दीन के अर्थ में ईसाइयों का कब्रिस्तान है। गत शताब्दी के पूर्वकालीन राजतरंगिणीकारों ने प्रयोग किया है। हिन्दू धर्म कब्रों पर सुन्दर कलाकृतियाँ पाषाणमयी बनी है । उन के अनुसार शव का दाह करना, श्रेयस्कर माना गया पर क्रास नगण्य बना है। परन्तु नाम, ग्राम संक्षिप्त है। विश्व मे अन्तेष्टि के अनेक प्रकार प्रचलित परिचय एवं बाइबिल का वचन लिखा मिलता है। थे और है । दाह, समाधि या गाड़ना, जल प्रवाह, इस शताब्दी में ईसाई कब्रों के रूप में परिवर्तन हो खुला छोड़ देना, गुफाओं में सुरक्षित रखना अथवा गया है। शिरोभाग पर क्रास बनाना एक शैली ममी रूप में रक्षित रखना। दाहप्रथा, हिन्दुओं Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७-९८ ] श्रीवरकृता इत्याद्यनुचिता निन्दा निन्दा प्रस्तावाद्विहितात्र यत् । क्षन्तव्या मोसुलैर्यस्मात् कविवाचो निरर्गलाः ।। ९७ ।। ९७. इस प्रकार प्रसंगवश, यहाँ जो अनुचित निन्दा की है, मुसलमान लोग उसे क्षमा करेंगे, क्योंकि कवि की वाणी निरंकुश होती है । 1 कृपण निन्दा : ये राजवैभवमवाप्य निपीय लोकं कुर्वन्ति संचयमतो न च अत्युत्कटा घभरतत्फललब्धदुःखा दानभोगौ । स्ते कोशरक्षणनिभावू वितरन्ति राज्ञः ।। ९८ ।। २७९ ९८. जो लोग राज्य वैभव प्राप्त कर लोक को पीड़ित कर धन संचय करते हैं, दान एवं भोग नहीं करते, वे लोग अत्युत्कट पाप भार से, उसके फलस्वरूप, महान क्लेश प्राप्त कर, कोश - रक्षण के व्याज से राजा को दे देते हैं। 1 और बौद्ध मे सुदूर प्राचीन काल से प्रचलित सम्मान्य समझते थे । केवल आत्महत्या या हत्यारों है । यहूदी, ईसाई तथा मुसलमान गाड देते का शव गाडा जाता था। ईसाई, मुसलमान आदि है । पारसी शव को खुला छोड देते है, ताकि पक्षी विश्वास करते है कि 'मृत का भौतिक शरीरोत्थान उन्हे खा जायँ । मिश्र के लोग ममी बना कर होगा ।' जजमेंट तथा कयामत के समय वे अपनी पिरामीड में रखते थे। मैने जेरूसलम में देखा है कि कब्रों से उठेंगे। धार्मिक अन्धविश्वास के कारण बाइबिल वर्णित जजों का शव लम्बी गुफा में रखा ईसाई एवं मुसलमान शवदाह की ओर आकृष्ट नही जाता था। इसी प्रकार बड़े-बड़े पत्थर के बक्सों मे हुए सन् १९०६ ई० मे क्रिमेशन एक्ट ब्रिटेन में शव को गुफा मे रख दिया जाता था। मैंने अपनी पास किया गया। उसके द्वारा शवदाह की अनुमति इसराइल की यात्रा मे इस प्रकार की बड़ी लम्बी दी गयी । गत वर्ष आस्ट्रेलिया में हिन्दुओं को गुफा देखा है जहाँ अलंकृत पाषाण बक्सों में शव शवदाह की आज्ञा नही दी गयी थी । पाश्चात्य रखा जाता था । बक्स के ऊपर नाम एवं ग्रामादि देशों में बिजली तथा तेल से शवदाह की प्रथा परिचय खोद दिया जाता था । संन्यासियों तथा जोर पकड़ती जा रही है। आदि पुराण में सर्पदंश से मृत विष खाकर तथा माता की बीमारी उल्लेख मिलता है कि मग लोग गाड़े जाते थे । में मरे, व्यक्तियों का जलप्रवाह किया जाता है । दरद एवं लोग सम्बन्धियों के शवों को वृक्ष मैंने अपने पिता के तीनों मामा जिन्हें मै भी मामा पर रखकर चल देते थे । महाभारत काल में भी कहता था काशी में ज्येष्ठ तथा कनिष्ठ का संस्कार यह प्रथा थी, जहाँ संकेत किया गया है कि पाण्डव किया तथा मझले मामा की इच्छानुसार उनका अपने अस्त्र-शस्त्रों को वृक्ष पर शव की तरह टॉग जलप्रवाह किया था। जलप्रवाह की प्रक्रिया है कि दिये थे ताकि कोई शब समझ कर उन्हें प्राप्त न शव को पत्थर के टाँका में बन्द कर जलधारा में कर सके। श्रीवर आधुनिक वैज्ञानिकों के समान छोड़ दिया जाता है। टांका में एक गोल छेद शवदाह के पक्ष में तर्क उपस्थित करता है । बना दिया जाता है। उसी से प्रवेश कर जtय पाद-टिप्पणी जलीय जन्तु शव को खा जाते थे। प्राचीन रोम में शवदाह 3 । : ९८. 'ल' पाठ-बम्बई । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० जैनराजतरंगिणी [२: ९९-१०२ द्रव्यं गृहतुरंगादि तेषां तद्राजसादगात् । तत्कुटुम्बैर्निरालम्बै प्ताप्येका वराटिका ॥ ९९ ॥ ९९. उनका गृह, तुरग, आदि द्रव्य, नृपाधीन हो गया और निरालम्ब उनके कुटुम्बियों ने एक कौड़ी भी नहीं प्राप्त की। कोशेशसंचितं स्वर्णपूर्ण रूपकभाजनम् । ___ दृष्ट्वा धिक्कृत्य कृपणं थूत्कारं नृपतिय॑धात् ॥ १० ॥ १००. कोशेश द्वारा संचित, स्वर्णपूर्ण रजतपात्र देखकर, उस कृपण को धिक्कार कर, राजा ने थूत्कार किया। तत्पक्षान् बह्मरागादीन् हतसर्वस्वसंचयान् । कारायामक्षिपद्राजा मुक्त्वैकं सैदहोस्सनम् ॥ १०१ ॥ १०१. राजा ने उसके पक्ष के बहम्रागादि' जनों का सर्वस्व संचय अपहृत कर, एक सैद होस्सन के अतिरिक्त सबको कारा में डाल दिया। अन्ये पित्रपराधेन तस्माद् भृगुसुतोपमात् । क्षत्रिया इव ते सर्वे नाशं प्रापुः पुरातनाः ॥ १०२॥ १०२. पिता के अपराध के कारण परशुराम' सदृश, उस नृपति द्वारा क्षत्रियों के समान, अन्य पुरातन लोग नष्ट कर दिये गये। पाद-टिप्पणी : किया था। भार्गववंशीय थे। पश्चिम भारत में ९९. 'गृह तुरंगादि' पाठ-बम्बई। भार्गववंशीय ब्राह्मण हैहय राजाओं के पुरोहित थे। पाद-टिप्पणी: त्रेतायुग में उत्पन्न हुए थे। त्रेता तथा द्वापर के सन्धिकाल में उनका अवतार हुआ। अट्ठारहों १००. 'थूत्कार' पाठ-बम्बई । पुराणों मे उन्हे अवतार माना गया है ( आदि० : पाद-टिप्पणी : २ : ३)। जमदग्नि का आश्रम नर्वदा तट पर १०१. (१) बहमाग : श्रीदत्त ने इसे नाम था ( ब्रह्मा० : ३ : २३ : २६)। जमदग्नि एक वाचक शब्द मानते हुए 'बहम्राग' शब्द माना है समय रेणका पर कुपित हो गये। परशुराम को (पृष्ठ १९३) । श्रीकण्ठ कौल ने इसे नामवाचक शब्द माता की हत्या करने के लिए कहा। परशुराम ने माना है। इस शब्द का सम्बन्ध किसी राग से नही है। अविलम्ब उसका पालन किया (वन०:११६ : १४)। पाद-टिप्पणी : जमदग्नि प्रसन्न हुए । रेणुका पुनः जीवित हो गयी। १०२. (१) परशुराम : नीलमत पुराण परशुराम को इच्छामृत्यु का वर दिया (विष्णुपरशुराम को भगवान् का अवतार मानता है । महर्षि धर्म०:१:३६ : ११)। परशुराम ने हैहय राजा जमदग्नि के पांचवे कनिष्ठ पुत्र परशुराम थे। माता का वीर्य का युद्ध में उसके शतपुत्रों के साथ वध का नाम रेणुका था। क्षत्रियों का इक्कीस बार संहार किया (ब्रह्मा० : ३ : ३९ : ११९; शान्ति० : ४९ : Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:१०२] श्रीवरकृता २८१ ४१) । क्षत्री हत्या के कारण जमदग्नि ने प्राय- वणित क्षत्रिय तथा पुराण-वर्णित वंशों में अन्तर है। श्चित हेतु बारह वर्षों तक तपस्या करने की आज्ञा पुराणों में सूर्य एव सोम दो मुख्य वश माने गये है। दिया ( ब्रह्मा० : ३ : ४४)। परशुराम तपस्या कर लौटे तो उन्हे मालूम हुआ कि जब उनके पिता तत्पश्चात् अग्नि आदि वर्णों की उत्पत्ति हुई । क्षत्रिय समाधि में थे, उसी समय उनका वध कर दिया। वर्ण के लोग प्रायः ठाकुर कहे जाते है। जमदग्नि आश्रम में पहुँचते ही, रेणुका ने छाती काश्मीर के प्रायः सभी क्षत्रिय मुसलमान हो इक्कीस बार पीट कर, पति की हत्या का वृतान्त गये है। वे ठक्कुर, पदर, मिया राजपूत आदि कहे सुनाया। परशुराम ने इक्कीस बार क्षत्रिय विहीन भूमि करने की प्रतिज्ञा किया। भगवान् दत्तात्रेय के जाते है । काश्मीर मे हिन्दू केवल ब्राह्मण रह गये है। आदेशानुसार पिता का अन्तिम संस्कार किया। डोगरा राजकाल मे कुछ डोगरा क्षत्रिय काश्मीर में रेणुका देवी सती हो गयी। शोक विह्वल परशुराम आ गये थे। इस समय जो भी कुछ क्षत्रिय काश्मीर आ गय थ । इस समय जा भा कुछ ने माता-पिता को पुकारा। माता-पिता प्रत्यक्ष में है, वे बाह्यदेशीय है। मियां राजपूत मुख्यतया उपस्थित हो गये। उस स्थान का नाम 'मातृतीर्थ' देवसर तहसील मे पाये जाते है । पड़ा। यह महाराष्ट्र का मशहूर स्थान है। गाथा मुझे यह देखकर, आश्चर्य हुआ कि होशियारपुर है कि परशुराम ने चौदह कोटि क्षत्रियों का संहार किया था । उसने मूर्धाभिषिक्त, बारह सहस्त्र राजाओं ___ पंजाब मे भी कुछ क्षत्री लोग अपने नाम के साथ का मस्तक छिन्न किया था। परशुराम की हत्या से । मियां लिखते हैं। होशियारपुर में एक मुकदमे के केवल आठ क्षत्रिय राजा बच सके थे। वे है. हैहय सम्बन्ध में गया था। मुझे मालूम हुआ कि वहाँ के राजवीति होत्र, पौरवराज, रिक्षवान, अयोध्याराज बार एशोशियेशन के सभापति जो प्रतिष्ठित वकील सर्वकर्मन, मगधराज, बृहद्रथ, अंगराज चित्ररथ, मियां ठाकुर मेहरचन्द एडवोकेट थे। मैंने उन्हें शिवीराज गोपालि, प्रतर्दन पुत्र वत्स, एवं मरुत। अपना वकील बनाया। उनके यहाँ प्रायः सायंकाल परशुराम जयन्ती वैशाख शुध तृतीया के दिन रात्रि प्रतिष्ठित लोगों का जमघट होता था । हिमाचल के प्रथम प्रहर में होता है। समारोह अधिकतया प्रदेश तथा तराई इलाके के सम्पन्न परिवार के लोग दक्षिण में होता है (द्र० : ४ : २६)। एकत्रित होते थे। वही मुझे हिमालय अंचल के क्षत्रियों का ज्ञान हुआ। मियां मेहरचन्द जी स्वयं (२) क्षत्रिय : मनु ने लिखा है-ब्राह्मणः पहाड़ी क्षेत्र के निवासी थे। प्रतिष्ठित वंश के थे । क्षत्रियों वैश्यस्त्रयो वर्णः द्विजातय !' (१० : ४) उनके पिता चाहते थे कि वे खेती करते परन्तु मनु ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चार वर्ण माना उन्होंने वकालत पेशा स्वीकार किया। वही पर मुझे है। क्षत्रिय वर्ग का मुख्य कार्य शासन तथा सैनिक मालूम हुआ कि पर्वतीय अंचल के प्रतिष्ठित क्षत्री कर्म द्वारा देश की रक्षा तथा उसके लिये उत्सर्ग कुल के लोग अपने नाम के साथ मियां लिखते थे। करना था। वेदाध्ययन प्रजापालन, दान. यज्ञादि मिया शब्द गौरव का द्योतक था। होशियारपुर की कचहरी मे भी वकीलों को मियां जी शब्द से सम्बोधन करते हुए, विषय-वासना से दूर रहना, उनका कर्तव्य ___ करते थे। क्षत्रियों ने मियां शब्द कुलीनता तथा माना गया है। वशिष्ठ ने क्षत्रियों के लिये अध्ययन, उच्च कल के प्रतीक स्वरूप अपना लिया था, जैसे शस्त्राभ्यास, प्रजापालन कर्तव्य बताया है । प्रजापति बंगाल मे बंगालियों तथा विहार मे भूमिहारों का एक के बाह से क्षत्रियों की उत्पत्ति हुई है। वेदों मे वर्ग अपने नाम के साथ 'खां' शब्द का प्रयोग करता है। जै. रा. ३६ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैनराजतरंगिणी [२:१०३-१०६ यासीत् पितुः सभा योग्या तत्तत्कार्यविशारदा । स्मृतपूर्वापकारेण तेन सर्वावसादिता ।। १०३ ।। १०३. तत् तत् कार्यों में विशारद एवं योग्य पिता की जो सभा' थी, राजा ने अपकार का स्मरण कर, सब समाप्त कर दिया। अन्तरङ्गान् हमेभादीन् पञ्चषानधिकादरैः । अरक्षत् प्राक्तनं स्मृत्वा प्रेम सेवां च पैतृकीम् ॥ १०४ ॥ १०४. पुरातन प्रेम, पिता की सेवा का स्मरण कर, हभेभ' ( हबीब ) आदि पाँच-छ: अन्तरंग लोगों की अति आदरपूर्वक रक्षा की। आदम खां का प्रत्यावर्तन . आदमखानः पर्णोत्से श्रुत्वा कोशेशनाशनम् । स्वनामान्वर्थतां बिभ्रद्ययौ भीतो यथागतम् ॥ १०५ ।। १०५. आदम खान ने पोत्स' में कोशेश ( हस्सन ) का नाश सुनकर, अपने नाम को सार्थक करते हुए, जैसे आया था वैसे चला गया । बहामखानो वित्राणस्तबंधाच्छङ्कितो भृशम् । गृहमेत्य नृपेणाश्वासितः कार्यावलोकिना ॥ १०६ ।। १०६. अरक्षित बह्राम खान, ( बहराम खां ) उस ( हस्सन ) के वध से अति शंकित हो गया। घर आने पर, कार्यावलोकी राजा ने ( उसे ) आश्वासित किया। पाद-टिप्पणी: था। उसने जब हसन खाँ की कतल का वाकया १०३. ( १ ) सभा : दरबार । सुना तो जंग का इरादा फसख (?) करके मुलक देवराज जम्मू की रफाकत मे मुगलों की जंग के लिये पाद-टिप्पणी: गया जो उन दिनों उस इलाका मे आये हुये थे १०५. (१) पर्णोत्स : पूंछ । (पृष्ठ १८८)। (२) नाम : श्रीदत्त ने अर्थ लगाया है 'आदमी तवक्काते अकबरी मे उल्लेख है-'जब उसे खून' (पृ० . १९४ )। अमीरों के हत्या के समाचार ज्ञात हुए तो वह लौट(३) पीर हसन लिखता है-दूसरी तरफ कर जम्मू चला गया (४४७ = ६७४)।' आदम खाँ एक बड़ा भारी लश्कर जमाकर के पाद-टिप्पणी : मुल्क पर कब्जा करने की गरज से जम्मू पहुँच चुका १०६. 'वित्राण' पाठ-बम्बई । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : १०७ - १०९ ] आदम खां की मृत्यु : अस्मिन्नवसरे श्रीवरकृतां मद्रमण्डले सुभटक्षयः । माणिक्यदेवस्य तुरुष्कैः सह संयुगे ॥ १०७ ॥ १०७. इसी अवसर पर, मद्र मण्डल में तुरुष्कों के साथ युद्ध करते हुये, माणिक्यदेव के वीरों का विनाश हुआ । मातुलेन समं यातो योद्धुं तत्रैव आदमखानः स प्रापच्छरभिन्नमुखः प्यूचुः स निजैरेव केsपि हतस्तत्र भयाश्रितैः । व्रणशलाकाग्रा कृष्टिमर्मविदारणात् ।। १०९ ।। संगरे । क्षयम् ।। १०८ ।। १०८. युद्ध हेतु इस संग्राम में मातुल' के साथ आदम खान गया था और वह मुख पर हुये, बाण प्रहार के कारण मर गया । I २८३ ( २ ) माणिक्यदेव : फिरिश्ता जम्मू के राजा माणिक्यदेव का उल्लेख नही करता । केवल लिखता है— 'आदम खाँ हिन्दुस्तान से जम्मू लौटने पर राजा को काश्मीर का राज्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। राजा ने उसकी सहायता करने का वचन दिया किन्तु उसी समय मुगलों के एक दल ने जम्मू पर आक्रमण कर दिया ( ४७६ ) ।' फिरिश्ता राजा का नाम 'मुल्कदेव' या 'मालिकदेव' लिखता है । कर्नल ब्रिग्स, रोजर्स तथा कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ suser में नाम नहीं दिया गया है । पाद-टिप्पणी : १०८. ( १ ) मातुल: माणिक्यदेव । (२) आदम खाँ : तवक्काते अकबरी में उल्लेख है— आदम खाँ जम्मू के राजा माणिक्यदेव के साथ मुगलों से जो उस क्षेत्र में आये हुए थे, युद्ध करने १०९. कुछ लोग कहते हैं कि वह अपने भयग्रस्त आश्रितों द्वारा मार डाला गया और लोग कहते हैं कि शलाका को खींचने से मर्मस्थल विदीर्ण हो जाने के कारण मर गया । कुछ पाद-टिप्पणी : के लिए पहुँचा । उसके मुख पर एक बाण लगा १०७. ( १ ) तुरुष्क : यहाँ मुगलों से फारसी और उसकी मृत्यु हो गयी ( ४४७ = ६७४ ) । इतिहासकारों का तात्पर्य है । ( ३ ) बाण : पीर हसन लिखता है - यहाँ पर एक तीर उसके मुँह पर लगा और मर गया ( पृ० १८८ ) । म्युनिख पाण्डुलिपि मे उल्लेख है - हैदरशाह के पास समाचार पहुॅचा कि आदम खाँ अपने मामा जम्मू के राजा माणिक्यदेव के साथ तुर्कों के विरुद्ध लड़ता हुआ मार डाला गया ( म्युनिख पाण्डु० : ७८ ए० ) । फिरिश्ता लिखता है-आदम खाँ एक बाण लगने के द्वारा मर गया जो कि उसके मुख में घुस - कर खोपड़ी में धँस गया था ( ४७६ ) । पाद-टिप्पणी : १०९. ( १ ) शलाका: श्रीदत्त ने शलाका का अर्थ बर्छा ( लान्स ) लगाया है। शलाका का अर्थ - सांग तथा नेजा भी होता है । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैनराजतरंगिणी |२:११०-११२ श्रुततन्मरणो राजा दूतैरत्यन्तदुःखितः । तद्देशाच्छवमानीय जननीसंनिधौ न्यधात् ॥ ११ ॥ ११०. दूतों से उसका मरण' सुनकर, राजा अत्यन्त दु:खी हुआ और उस देश से शव लाकर, माता के सन्निधि में रख दिया। ज्येष्ठोऽपि शौर्यनिलयोऽपि बलान्वितोऽपि प्राप्तोऽपि जन्मभुवमाप्तधनप्रपञ्चः । नैवाप राज्यमुचितं स कृतप्रयत्नो भाग्यविना न हि भवन्ति समीहितार्थाः ।। १११ ।। १११. ज्येष्ठ शौर्य एवं सेना युक्त होकर भी तथा जन्मभूमि को प्राप्त करके भी, धन प्रपंच प्राप्त कर लिया, किन्तु प्रयत्न करने पर भी, वह समुचित रूप से राज्य नहीं प्राप्त कर सका। निश्चय ही, भाग्य के बिना वाञ्छित अर्थ की सिद्धि नहीं होती अथवा पितृशापः स तस्यापि फलितोऽभवत् । यदाप्तोऽपि निजं देशं परदेशे क्षयं गतः ।। ११२ ।। ___११२. अथवा वह पिता का शाप' ही उसके लिये फलित हुआ, जो अपने देश में आने पर भी, परदेश में मरा। पाद-टिप्पणी: (लाश) काश्मीर मे मँगवा कर, मुहल्ला सहियायार मुतसिल नवाकदल मे दफन करवा दी। ११०. (१) मरण : तवक्काते अकबरी मे त उल्लेख है-सुल्तान मृत्यु का समाचार सुन कर म्युनिख में भी यह कथा लिखी गयी है-जैसे बहुत दुःखी हुआ और उसने आदेश दिया कि उसके ही हैदरशाह के पास समाचार पहुँचा कि आदम खाँ शरीर को रणक्षेत्र से लाकर उसके पिता के मकबरे दिवगत हा गया है, उसन ज्यष्ठ भ्राता की लाश के निकट दफन कर दिया जाय (४४७ % ६७४)। - ६७४)। जम्मू में मॅगा कर, सुल्तान जैनुल आबदीन की कब्र के पास गड़वा दिया (पाण्डु० : ७८ ए०)। तवफिरिश्ता लिखता है-सुल्तान के राजा की , क्काते अकबरी :३:४७७ । मृत्यु का समाचार सुना तो उसने भाई का शव काश्मीर मँगवाया और उसे पिता के समीप दफन पाद-टिप्पणी : करवा दिया। १११. उक्त श्लोक का भाव श्लोक : १ : ७ : श्रीवर ने माता के समीप और तवक्काते अकबरी १९८ तुल्य है। तथा फिरिश्ता ने लिखा है कि पिता के समीप दफन पाद-टिप्पणी : कर दिया गया। ११२. (१) शाप : द्रष्टव्य :१:७ : ९५, (२) माता : पीर हसन लिखता है-उसकी ९६ तथा १ : ७ : ११७ । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ २:११३-११६ ] श्रीवरकृता अपशकुन : अत्रान्तरे महोत्पाता दिव्यभौमान्तरिक्षगाः । अहंपूर्विकयेवापुन पतेर्जनकम्पदाः ॥११३ ॥ ११३. इसी बीच लोगों को कम्पित करनेवाले आकाश, भूमि एवं अन्तरिक्ष ( वायु ) में उत्पन्न महान उत्पात स्पर्धापूर्वक राजा को दिखाई दिये । तथाहि प्रथमं राज्ञि पुष्पलीलाचिकीर्षया । गते मडवराज्योर्वी भूमिकम्पोऽभवन्महान् ।। ११४ ॥ ११४. पुष्पलीला' करने की इच्छा से, राजा के मडवराज जाने पर, महान् भूकम्पहुआ। अस्मत्कर्तृजनः कोऽपि सुखी नैवाधुना स्थितः । इतीव देशे तत्कालं चकम्पुर्जनवद्गृहाः ॥ ११५ ॥ ११५ हम लोगों का कोई निर्माता अब सुखी नही रहेगा, इसीलिये मानो देश में उस समय मनुष्य की तरह घर काँपने लगे। उदभूत् पूर्वदिक्पुच्छः केतुर्नभसि विस्तृतः । पूर्व बहामखानेन दृष्टोरिष्टस्य सूचकः ।। ११६ ॥ ११६. पूर्व दिशा की ओर आकाश में अनिष्टसूचक, विस्तृत पुच्छ केतु' ( पुच्छल तारा ) उदित हआ। बहराम खांन ने उसे पहले देखा। पाद-टिप्पणी : महाभूता भूमि कम्पे चत्वारः सागराः पृथक् । 'अन्तरिक्ष' पाठ-बम्बई। भीष्म० : ३ : ३८ । ११३. (१) भौमा: द्रष्टव्य टिप्पणी:१: पाद-टिप्पणी : ७ : २६४। ११६. ( १ ) केतु : महाभारत काल मे केतु पाद-टिप्पणी: का उदय हुआ था। इसका विशद वर्णन महाभारत ( भीष्मपर्व ३ : १३-१७ ) में मिलता है। श्रीवर ११४. (१) पुष्पलीला : द्रष्टव्य पाद ने कुछ ही अपशकुनों को उल्लेख किया है । (द्रष्टव्य टिप्पणी : जैन० : १ : ४ : २ । पाद-टिप्पणी : १:१ : १७४ )। धूमकेतु के तुओं में (२) भुकम्प : महाभारत काल उपस्थित सर्वप्रथम है (वायु० : ५३ : १११) । केतु के उदय होने पर इसी प्रकार के अपशकुनों का वर्णन किया काल से पन्द्रह दिन के अन्दर शुभ या अशुभ फल गया है। श्रीवर उन्ही का अनुकरण करता कुछ निकलता है। का उल्लेख करता है तुलसीदास ने लिखा है : अभीक्ष्णं कम्पते भूमिरर्क राहुरूपैति च । कह प्रभु हँसि जनि हृदय डेराहू ।' भीष्म०:३:११॥ लूक ना असनि केतु नहि राहू ।। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जैनराजतरंगिणी [२:११७-१२० स दूरविस्तृतः पुच्छः कालकुन्तोपमो दिने । ___ स्फुरन् प्रतीची प्रत्याशां तस्यैव ददृशे जनः ।। ११७ ॥ ११७. उसका दूर तक विस्तृत काल कुन्त' सदश उस पूंछ को, दिन में भी पश्चिम दिशा की ओर स्फुरित होते हुये, लोगों ने देखा। युग्मसूर्वडवा राजमन्दुरान्तर्गताभवत् । देशात् क्रष्टुं ददौ राजा यां भिया यवनक्षये ।। ११८ ॥ ११८. राजा के अस्तबल में युगल बच्चा पैदा करनेवाली एक घोड़ी थी। यवनों का क्षय होने पर, राजा ने देश से निकालने के लिये दे दिया। सिंहादयो दिने चेरुर्वन्याः श्रीनगरान्तरे । बिडालपोतं सुषुवे शुनी च प्रसवक्षणे ॥ ११९ ॥ ११९. दिन में श्रीनगर के अन्दर सिंहादि वन्य पशु विचरण करने लगे और प्रसव के समय एक कूतिया ने बिड़ाल का बच्चा पैदा किया। निष्फलो यः सदानन्दीतरुः स सफलोऽभवत् । उपराजगृहं मूलाद् दाडिमीकुसुमोद्गमः ॥ १२० ।। १२०. फल न देनेवाला सदानन्दी' वृक्ष फल युक्त हो गया। राजगृह के समीप जड़ से अनार वृक्ष में कुसुमोद्गम हुआ। पाद-टिप्पणी: पाद-टिप्पणी : ११७. (१) कुन्त : श्रीदत्त ने कुन्त का अर्थ ११९. (१) सिंहादि : निर्भय हिंस पशु 'लान्स' अर्थात भाला बर्छा किया है। कून्त बर्छा सिंहादि वन्य पशु स्वतन्त्रतापूर्वक नगर मे विचरण है। गीतगोविन्द में कुन्त की उपमा दी गयी है- करते थे यह नागरिकों तथा राज्य की अतीव दुर्बलता 'विरहि निकृन्तन कुन्त मुखाकृति केतदि दन्तु- का द्योतक है क्योंकि उन्हे भय से मारता नही था। रिताशे' । कल्हण ने कुन्त शब्द भाला या बर्थो के (२) कूतिया : भीष्मपर्व महाभारत में इसी अर्थ में प्रयोग किया है ( रा०:४:३०१)। प्रकार का उल्लेख मिलता है तुलसीदास ने कुन्त का इसी अर्थ में प्रयोग गोवत्सं बडवासूते श्वा शृंगाल पहीयते । किया है : कुक्कुरान करभाश्चैव शुकाशचा शुभवादिनः ॥ ३ : ६ कुवलय विपिन कुन्त बन सरिसा । घोड़ी गाय के बच्चे को जन्म देती है, कुतिया वारिद तपत तेल जनु वरिसा ॥ शृगाल उत्पन्न करती है, हथिनी कुत्तों को जन्म ___अनेकार्थ पृष्ठ १२३ में उल्लेख है : देती है, और शुक भी अशुभसूचक बोली बोलते है । कुंत सलिल औ कुंत कुस, कुंत अनल नभ काल। पाद-टिप्पणी: कुंत कहत कवि कमल सो, कुंत जु खंग कराल ॥ १२०. (१) सदानन्दी : वृक्ष फल नहीं देता। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:१२१-१२३] श्रीवरकृता २८७ सुमनोवाटशाटान्तर्भवं शोणितवर्षणम् । इति दृष्ट्वा जनः सर्वः क्षते क्षारमिवान्वभूत् ॥ १२१ ॥ १२१. सुमनोवाट' में शाटी ( वस्त्र ) पर रुधिर की वर्षा हुई, इसे देखकर लोगों ने कटे पर नमक छिड़कने जैसा दुःख प्रकट किया। हिन्दुओं का उत्पीड़न : अत्रान्तरे वसन्सैदखानगाहादिपीडनम् । हिन्दुका विदधुः पूर्णनापितोद्वलितक्रुधा ॥ १२२ ।। १२२. इसी बीच पूर्ण' नापित द्वारा वर्धित क्रोध के कारण, हिन्दू सैय्यिद खानकाह आदि को पीड़ित ( नष्ट ) किये। तच्छ्रुत्वा यवनाः सर्वे गत्वा क्रुद्धा नृपान्तिकम् । चुक्रुशुर्येन राजापि द्विजपीडनमादिशत् ॥ १२३ ।। १२३. यह सुनकर, क्रुद्ध सब यवन राजा के पास गये और क्रन्दन किये, जिसके कारण राजा ने भी द्विजों को पीडित करने का आदेश दे दिया। महाभारत मे असमय फल-फूल वृक्षों मे होना अशुभ इसे नामवाचक शब्द माना है। स्थान का पता को द्योतक है अनुसन्धान का विषय है। अनार्ततं पुष्पफलं दर्शयन्ति वनद्रुमाः। (२) शोणित वर्षा : महाभारत में यही बात भीष्म ३ : १ कही गयी है(२) अनार : यह लौकिक अपशकुन से । अशोभिता दिशः सर्वाः यां सुवर्षेः सन्ततः । सम्बन्ध रखता है। काश्मीर में अनार बहुत होता उत्पा उत्पात मेद्या रौद्राश्च रात्रौ वर्षन्ति शोणितम् ।। भीष्म : ३ : २९ है। जम्मू-श्रीनगर मार्ग पर सड़क के किनारों पर पाद-टिप्पणी : अनार के जंगल लगे मिलते है। जंगल में असमय १२२. (१) पूर्ण : द्रष्टव्य : २ : ५२ तथा ३ : फल-फूल लगना, अपशकुन महाभारत ने माना है। १४८ । " उसी का अनुकरण कर अनार का जड़ से फूलना (२) सैयद खानगाह : खानकाह सैयद । श्रीवर लिखता है। अनार के फल एवं फूल टहनियों श्री मोहिबुल हसन का मत है कि यह स्थान में लगते है न कि जड़ में । अनार का फूल लाल खानकाहे मरुअल्ला है । खानकाह शब्द फारसी है। होता है। फूल रंग तथा दवा बनाने के काम मे फकीरों और साधुओं के निवास के लिये निर्माण आता है। पश्चिम हिमालय एवं सुलेमान की पहा कराया जाता है। ड़ियों मे अनार आपसे-आप उगता है। पाद-टिप्पणी पाद-टिप्पणी : १२३. (१) पीड़न : पीर हसन लिखता है१२१. (१) सुमनों वाट : श्रीदत्त ने सुमनो- फिरका हनूद (हिन्दू) को निहायत सख्त तकलीफे वाट को नामवाचक शब्द नही माना है। उसका दी। इससे उन्होंने बाज़ मसजिदों और नयी कवरों अनुवाद बगीचा किया है परन्तु श्रीकण्ठ कौल ने को जिन्हे सुलतान सिकन्दर ने मसाला मलकों के Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जैनराजतरंगिणी [२:१२४-१२७ अजरामरबुद्धादीन् ब्राह्मणान् सेवकानपि । तत्कोपेनाकरोद् राजा निकृत्तभुजनासिकान् ।। १२४ ॥ १२४. इस क्रोध से राजा ने अजर अमर, बुद्ध आदि सेवक ब्राह्मणो का भी हाथ-नाक कटवा दिया। त्यक्तस्वजातिवेशास्तदिनेषु ब्राह्मणादयः । न भट्टोऽहं न भट्टोऽहमित्यूचुर्भट्टलुण्ठने ।। १२५ ॥ १२५. उन दिनों में भट्टों के लूटे जाने पर अपना जातीय वेश त्याग कर, ब्राह्मण आदि 'मै भट्ट नहीं हूँ, मैं भट्ट नहीं हूँ'-इस प्रकार कहने लगे । मूर्ति लोठन : बहुखातकमुख्या ये पुरे सन्तीष्टदेवताः । तन्मूर्तिलोठनं राजा म्लेच्छप्रेरणयादिशत् ।। १२६ ॥ १२६. म्लेच्छों की प्रेरणा से राजा ने पुर के जो बहुखातक' प्रमुख इष्टदेव थे, उनकी मूर्ति तोड़ने का आदेश दिया। दत्ता भूर्जेनभूपेन येषां गुणपरीक्षया । तेभ्यस्तां निर्निमित्तेनाप्यहरन्नाधिकारिणः ॥ १२७ ॥ १२७. गुण परीक्षा के कारण, जिन लोगों को जैन राजा ने भूमि दी थी, उनसे उसे अधिकारियों ने अकारण ही अपहृत कर लिया। पेशनजर मन्दिरों से बनाया था आग लगा दी। पाद-टिप्पणी : इससे सुलतान का गुस्सा और भी भड़क गया और १२५. (१) भट्ट नहीं हूँ 'न भट्टोहम् नबाज़ सरकरदा हिन्दुओं को मौत के घाट उतार भटोहम।। दिया और बाज को दरया मे डुबो दिया और , पाद-टिप्पणी : बाज़ के हाँथ-पाँव कटवा दिये (पीर हसन : १८८)। १२६. (१) बहखातक : श्रीनगर में सातवें पाद-टिप्पणी: पुल के अधोभाग मे बहुखातकेश्वर भैरव का मन्दिर १२४. (१) अजर, अमर, बुद्ध : ब्राह्मण था। खातकेश्वर को काश्मीरी उच्चारण के अनुसार अन्त मे 'क' लगाकर खातक बना दिया गया है । सेवक राजा के थे। बुद्ध नाम महत्वपूर्ण है । बुद्ध श्रीवर का तात्पर्य इसी मन्दिर से है। भैरव के धर्मावलम्बी कुछ शेष रह गये थे अथवा बुद्ध पूजा मन्दिर आज भी है। इसी के समीप रूपा देवी का शिव एवं विष्णु पूजा के साथ इस समय तक प्रचलित मन्दिर भी है। यहाँ मेला लगता था। काश्मीरी रही थी। ब्राह्मण बहाँ जाया करते है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. १२८ - १३१ ] 1 राजा का दोष : श्रीवरकृता स माहिसफरो मासः प्रसिद्धो सर्वदर्शन विघ्ना न केषां १२८. म्लेच्छ दर्शन' में प्रसिद्ध, वह माहे सफर मास, सभी दर्शनों के विघ्न के कारण, किन लोगों के लिये भयकारी नहीं हुआ ? भूपं नित्यमदोन्मत्तं स्वतन्त्रं मन्त्रिमण्डलम् । उत्कोचहारिणः सर्वानन्तरङ्गांस्तरङ्गितान् ॥ १२९ ॥ १९. नित्य मदोन्मत्त राजा, स्वतन्त्र मन्त्रिमण्डल, उत्कोच ( घूस ) ग्राही सब अन्तरंग जनों तथा दर्शिता बलपीडार्ति पण्डितानवलोक्य स्मृतश्रीजैन भूपालगुणमालस्तदा म्लेच्छदर्शने । भयकार्यभूत् ॥ १२८ ॥ पाद-टिप्पणी : १३०. अबलाओं को पीड़ित करने में पाण्डित्य दिखानेवाले लोगों को देखकर, जैन राजा गुण-राशि का स्मरण कर उस समय लोग के च । जनः ॥ १३० ॥ देशे सरुदिताक्रन्दं शुशोचात्यन्तदुःखितः । सर्ववृद्वश्चिरारूढोऽग्रस्तोऽदृष्टपराभवः १२९. 'स्व' पाठ - बम्बई । २८९ १३१. देश में अत्यन्त दुःखी होकर, रोदन - आक्रन्दन पूर्वक शोकान्वित हुये, चिरकाल से पदारूढ़ सबलोगों में वृद्ध कभी पीड़ा एवं पराभव को न देखनेवाला - सब कार्यों के भेद का ज्ञाता, यह राजा कब नष्ट होगा, उसके पुत्र से धन की आशा से जो दुष्ट इस प्रकार कहते थे- १३०. उक्त श्लोक श्री कण्ठ कौल के श्लोक जै. रा. ३७ पाद-टिप्पणी : संख्या १२९ का तृतीय तथा १३० का प्रथम पद १२८. ( १ ) म्लेच्छ दर्शन : मुसलिम धर्म होता है । कलकत्ता तथा बम्बई दोनों संस्करणों का द्रष्टव्य टिप्पणी : २ : ९६ । श्लोक संख्या १३० है । ( २ ) माहे सफर मास : इस्लामी दूसरा चन्द्रमास, जो मुहर्रम मास के पश्चात् पड़ता है । सफ़र शब्द अरबी है । पाद-टिप्पणी : ॥ १३१ ॥ पाद-टिप्पणी : १३१. 'दृष्ट: ' पाठ - बम्बई । उक्त श्लोक श्रीकण्ठ कौल संस्करण के श्लोक संख्या १३० का द्वितीय तथा श्लोक संख्या १३१ का प्रथम पद है । कलकत्ता तथा बम्बई दोनों संस्करणों का श्लोक संख्या १३१ है । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० जैनराजतरंगिणी [२ : १३२-१३६ सर्वकार्यान्तरज्ञोऽयं क्षयं याति कदा नृपः । इति येऽप्यवदन् दुष्टास्तत्सुता विभवार्थिनः ॥ १३२ ॥ १३२. 'सब कार्यो के भेद का ज्ञाता, यह राजा कब नष्ट होगा', इस प्रकार उसके वैभवाकांक्षी एवं दुष्ट पुत्र कहते थे । पारसीभाषया काव्ये यदूचे दृषणा विशाम् । स शापः फलितो देशे श्रीमज्जैनमहीपतेः ॥ १३३ ॥ १३३. फारसी भाषा के काव्य में प्रजाओं के दोष के लिये, जो कहा गया है, वह शाप, (दण्ड) श्रीमद् जैन राजा के देश में फलित हुआ। सेवकाः कितव'प्राया भुक्तप्रेष्या नियोगिनः । तच्छापादिव कालेन प्राप्तात्यन्तनिपीडनाः ॥ १३४ ॥ १३४. धूर्त प्राय चिरकालिक भृत्य, नियोगी२, सेवक, समय पर उसके शाप से ही मानो अत्यन्त पीड़ित हुए। किमस्मद्रक्षको दैवहतो वृद्धो महीपतिः । इत्यादि सानुसाक्रन्दाः शुशुचुस्तेऽपि पार्थिवम् ॥ १३५ ।। १३५. 'क्या हमलोगों के रक्षक वृद्ध राजा को दैव ने मार डाला'--इस प्रकार आँसू गिराते, आक्रन्दन करते, वे लोग भी राजा के लिये शोक करने लगे। स्वल्पोऽपि राज्यकालोऽभून्नवायामैः सुदुःसहः । निदाघरात्रिसंदृष्टदीर्घदुःस्वप्नसंनिभः ॥१३६ ॥ १३६. गर्मी की रात्रि में देखे गये, लम्बे स्वप्न के सदृश, थोड़े समय का भी राज्यकाल, नवीन विस्तार के कारण दुःसह हो गया। पाद-टिप्पणी: द्र०:२: ३०; ३ : ३०; क०रा०:६:८। १३२. उक्त श्लोक श्रीकण्ठ कौल संस्करण के पाद-टिप्पणी: श्लोक संख्या १३१ का द्वितीय तथा तृतीय पद है। १३५ 'साश्रुः' पाठ-बम्बई । कलकत्ता तथा बम्बई दोनों संस्करणों का श्लोक . संख्या १३२ है। १३६. (१) निदाघ : गर्मी = ग्रीष्म ऋतु । पाद-टिप्पणी : निदाघ अर्थात् गर्मी की रात्रि छोटी होती है। परन्तु १३४. ( १ ) कितव : धूर्त, झूठा, कपटी। उस छोटी रात्रि में देखा गया स्वप्न लम्बा होता है । ( २ ) नियोगी . कर्मसचिव, एक पदाधिकारी, इसी प्रकार कष्ट का काल यद्यपि राज्यकाल में बंगालियों की एक जाति । कश्मीर में यह पद तह- छोटा होता है, परन्तु पीड़ा के कारण वह लम्बा सीलदार का था (द्र० : क्षेमेन्द्र : नरमाला)। प्रतीत होता है । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : १३७ - १४१ ] श्रीवरकृता लोत्रराशिगृहद्रव्यहरणैः तुतुषुस्तस्य भृत्यौघाः १३७. लूट की धनराशि, गृह के धन हरण तथा परपीड़न से, उसके भृत्य समूह अन्धकार से उल्लू के समान प्रसन्न हो रहे थे । परपीडनैः । कौशिका स्तिमिरैरिव ॥। १३७ ।। शय्यारूढो मधुक्षीवः प्रजाकार्यपराङ्मुखः । 1 सर्वं दिनं निनायान्तः स्वपार्श्वपरिवर्तनैः ॥ १३८ ॥ १३८ मदमत्त तथा प्रजा कार्य से परांमुख, वह (राजा) शय्या पर पड़ा, करवटें बदलते हुये, दिन-रात व्यतीत करता । कुलालगायनोद्गीतं गीतं शृण्वन् दिवानिशम् । गुणिभ्यो राजयोग्येभ्यो नादाद् दर्शनमात्रकम् ।। १३९ ॥ २९१ _१३९. वह (राजा) रात-दिन कुलाल गायकों के गीत को सुनता था और गुणी राज योग्य जनों को दर्शन मात्र नहीं देता था । शाहाभनराज्ये या संपन्नातिमनोहरा | लक्ष्मीपुरे राजधानी तां पुप्लोषोदितः शिखी ।। १४० ॥ १४० शाहाभदेन के राज्य में, लक्ष्मीपुर में, जो सम्पन्न एवं अति मनोहर राजधानी ( राजभवन ) थी, उसे उदित अग्नि ने भस्म कर दिया । या बलाढ्यम स्थाने वेश्माली विपुलाभवत् । तत्तत्पौरजनश्रिया ॥ १४१ ॥ सापि दग्धा समं तत्र पाद-टिप्पणी : १३९ ( १ ) कुलाल : प्रतीत होता है कोई कुम्भकार गायक था । उसका नाम कहीं नही दिया गया है - ब्रह्मायेन कुलाल वन्नियमतो ब्रह्माण्ड भाण्डोदरे ( भर्तृ' ० : २ : ९५ ) । १४१. बलाढ्य स्थान पर, जो विशाल वेश्मावलो थी, वह भी पुरवासियों के सम्पत्ति के साथ भस्म हो गयी । पाद-टिप्पणी : १४०. ( १ ) लक्ष्मीपुर: शहाबुद्दीन ( सन् १३५५ - १३७३ ई० ) चौथे सुल्तान की रानी का नाम लक्ष्मी था । शारिका शैलमूल में शहाबुद्दीन ने अपनी रानी के नाम पर लक्ष्मीपुर बसाया था ( म्युनिख : पाण्डु० : ५६ ) | श्री बजाज का मत है कि जहाँ यह नगर आबाद किया गया था उसे आजकल देवियागन कहते है ( डाटर्स आफ वितस्ता : १४१ ) । द्र० : टिप्पणी : जोन० : ४१० : लेखक । पाद-टिप्पणी : १४१. ( १ ) वलाढ्य : वर्तमान बलन्दियर मुहल्ला श्रीनगर है । पुराने छठें पुल के पास है । दिदमर के ऊपर है । द्र० : टिप्पणी : जोन० : श्लोक ८२ : लेखक - द्र० : ३ : १३९ । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : १४७-१४९] श्रीवरकृता २९३ कालीधारामसिलतामिव वीक्ष्य तदाश्रिताम् । कम्पं के नात्र देशस्थाः प्रापुस्तद्भयतो जनाः ॥ १४७ ।। १४७. उन लोगों से युक्त, कालिधारा' को असि-लता सदृश देखकर, उसके भय से इस देश के कौन लोग कम्पित नहीं हुए ? सेना दीन्नारकोटीयाः शिश्रियुस्तां भयच्छिदे । बलिभिर्मङ्गलादेवीमिवोन्नतभुवि स्थिताम् ।। १४८ ।। १४८. भय दूर करने के लिये दीनारकोट' की सेनाएं उसका आश्रय उसी प्रकार ग्रहण कर लीं जिस प्रकार भय दूर करने के लिये वलियों के द्वारा उन्नत भूपर स्थित मंगला देवी का आश्रय लें। मद्रगक्खचिम्भशा राजहंसास्तमाययुः। सरोवरमिव प्रोद्यच्छुक्लपक्षा विनिर्मलम् ।। १४९ ।। १४९. मद्र' गक्खड़ एवं चिम्ह (चिब्भ)३ देश के राजा लोग, उसके पास उसी प्रकार आये, जिस प्रकार शुक्ल पक्ष वाले हंस निर्मल सरोवर के समीप । (२) जयसिंह : राजौरी अर्थात् राजपुरी की अलग शासक होता था और अपनी रक्षा के लिए उक्त महिला का उल्लेख श्रीवर ने (जैन० : ३ . किला बना लेता था। २००) किया है। वहाँ उसे राजपुरी राजवंशीय तथा नाम जयमाला दिया है ( ३ : २००)। 'चिम्भ' पाठ-बम्बई। पाद-टिप्पणी : १४९. ( १ ) मद्र : फारसी इतिहासकारों ने 'देश' 'प्रायुः' पाठ-बम्बई। मद्र को जम्मू लिखा है। काश्मीर साहित्य में मद्र को १४७. (१) कालीधारा : यह किलदार स्थान काश्मीर की दक्षिणी सीमा पर माना गया है । सतहै। किलदार शब्द कालीधारा का अपभ्रंश है। लज तथा सिन्धु नदी की अन्तद्रोणी को बाहीक कहते आज भी कालीधारा द्वारा काश्मीर में जाने का थे। उशीनर, मद्र तथा त्रिगर्त उसमें सम्मिलित मार्ग है। कालीधारा पर्वतीय स्थान है। था। वाहीक तथा गान्धार दोनों देशों के सम्मिलित द्र० : शुक० : १३७ । रूप की संज्ञा उदीच्य थी। जनरल कनिंघम के अनुपाद-टिप्पणी: सार मद्र देश व्यास एवं झेलम के बीच का प्रदेश १४८. (१) दिन्नारकोट : अनुसन्धान ह । है (द्र० जोन० : ७१४)। अपेक्षित है। (२) गक्खड़ : पखली अंचल का समीपस्थ (२) मंगला देवी : नौशेरा के पास एक छोटा भूखण्ड। किला है। यह एक खड़ी चट्टाने पहाड़ी पर बना (३ ) चिब्भ : राजपूतों का एक उपजाति है । है। इसका प्रवेश या वहाँ पहुँचना कठिन है। यह चिन्म देश । द्रष्टव्य : १ : १ : ४७ तथा १: उस समय का निर्माण है, जब प्रत्येक क्षेत्र का अलग- १ : १६७ । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ जैनराजतरंगिणी [२: १५०-१५२ राजवृत्तान्तरोधेन स्वपदार्थोपपादकैः । मातुलैरपि तस्याग्रे सुल्हणः कल्हणायितम् ।। १५० ।। १५०. राजवृत्त के अनुरोध से, अपने पदार्थ (कार्य) को सिद्ध करनेवाले मातुल सुल्हणों' ने भी, उसके समक्ष कल्हण जसा आचरण किया। कौमारोद्धंसिकं वीक्ष्य कटकालंकृता अपि । अभूवन् धैर्यरहिता माहिला महिला इव ।। १५१ ॥ १५१. इस कौमार' ध्वन्सी को देखकर, कटकालंकृत (सैन्य सहित) होनेपर भी, वे माहिल' लोग महिलाओं के समान धैर्य रहित हो गये। बद्धपङ्क्तिस्तरन्ती सा ज्यलमेस्तन्नदीतटात् । तत्सेना रामबद्धाब्धिसेतुकौतुकमातनोत् ।। १५२ ॥ १५२ उस नदी तट से (झेलम को) पंक्तिबद्ध होकर, पार करती हुई, उसकी सेना राम द्वारा बांधे गये सेतु का कौतुक पैदा की। पाद-टिप्पणी : कल्हणवंशजों के समान थे। मल्हण के नाम से १५०. (१) सुल्हण : काश्मीर में प्रचलित वंश चलने की सम्भावना नही मालूम होती क्योंकि हिन्दू नाम था। श्री कण्ठ कौल नाम मल्हण माना वह राज्यवंश का ज्येष्ठ पुत्र था। अल्पायु मे दिवंहै। पूर्वकालीन मल्हण राजा दुर्लभवर्द्धन का पुत्र गत हुआ था। सल्हण नाम ही यहाँ ठीक प्रतीत होता है। था ( रा० : ४ : ४)। मल्हणपुर राजा जयापीड (२) कल्हण : द्रष्टव्य : रा०: भाग:१ ने बसाया था। यह वर्तमान प्राम मलुर या मलरो 'कल्हण' पृष्ठ १-४९। है। मल्हण स्वामी का मन्दिर दुर्लभवर्धन के पुत्र पाद-टिप्पणी: ने निर्माण कराया था ( रा० : ४ : ४)। उसके १५१. (१) कौमार : श्रीदत्त ने कौमार को अल्प अवस्था में ही मृत्यु हो गयी थी। वह नामवाचक शब्द माना है और अनुवाद 'कुमार राज्य नहीं कर सका था। उसका भाई दुर्लभक टाउन' किया है। श्रीकण्ठ कौल ने नामवाचक शब्द राजा हुआ था। माता का नाम अनंगलेखा था। नही माना है। श्रीदत्त ने भी सुल्हण ही मान कर अनुवाद भावार्थ : 'कौमार नगर को नष्ट करनेवाले किया है । कलकत्ता एवं दुर्गा प्रसाद दोनों ही सुल्हण राजपुत्र को देखकर सेना सहित होने पर भी माहिल नाम मानते है । अतएव सुल्हण ही मानकर अनु- लोग उसी प्रकार धैर्यरहित हो गये जिस प्रकार वाद किया गया है। सुल्हण राजा सुस्सल का अनु- कौमारध्वन्सी को देखकर माहिल।' कौमारध्वन्सी यायी था, यह नाम प्रचलित था। सुस्सल का राज्य- का अर्थ है, कुमारियों का चरित्र भ्रष्ट करनेवाला। काल सन् १११२ से ११२० तथा ११२१ से ११२८ (२) माहिल : मांझी = हाजी । यह शब्द है। हैदरशाह द्वितीय तरंग के राजा का काल पद्य में अधिक प्रयुक्त किया जाता है। सन् १४७०-१४७२ ई० है। दोनों सुल्हणों के पाद-टिप्पणी : समय में ३४४ वर्षों का अन्तर है। अतएव सुल्हण १५२. (१) ज्यलम : प्रथमबार वितस्ता प्रतीत होता है, प्राचीन सुल्हणवंशीय व्यक्ति, का नाम यहाँ ज्यलम अर्थात् झेलम लिखा गया है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : १५३-१५५] श्रीवरकृता २९५ कुटीपाटीश्वरीप्राप्तं तत्सैन्यं दैन्यवर्जितम् । नारायणोदरोद्गच्छद्विश्वलोकभ्रमं व्यधात् ।। १५३ ॥ १५३. उत्साह सहित उसकी सेना कुटी पाटीश्वरी' पहुँचकर, नारायण के उदर से निकलते, विश्व लोक का भ्रम उत्पन्न कर दिया। संप्लुष्टे भोगपालानां पुरे मद्राचितान्यपि । सुचिरं धूमितान्यासन् गृहाणि हृदयानि च ।। १५४ ।। __१५४. भोगपालों' का नगर जला दिये जाने पर, मद्रों से युक्त, उनके गृह एवं हृदय चिरकाल तक धूमिल रहे। उन्नादहृदसंसङ्गतत्तुरङ्गतरङ्गिता बाल्येश्वरगिरेः पादमूल प्रापास्य वाहिनी ॥ १५ ॥ १५५. उन्नत नाद करते ह्रद (बड़ा सर) सदृश उसके तुरङ्गों से तङ्गित, उसकी वाहिनी (सेना) बाल्येश्वरगिरि के पादमूल (निकट) में पहुंच गयी। श्रीदत्त ने स्पष्टतया ज्यालमी को नदी झेलम नही पाद-टिप्पणी : माना है। बम्बई संस्करण में ज्यलेम पाठ मिलता १५५. (१) उन्नाद : श्रीदत्त ने उन्नाद को है। ज्यलेम, ज्यलम या ज्यली का अपभ्रंश नामवाचक शब्द माना है परन्तु श्री कण्ठ कौल ने झेलम है। उसे नही माना है । उन्नाद का शाब्दिक अर्थ हल्ला पाद-टिप्पणी: तथा कलरव होता है। १५३. (१) कुटी पाटीश्वर : निश्चित स्थान उन्नाद शब्द श्लिष्ट है । उत्कर्ष, उठाना, ऊपर के लिए अनुसन्धान की आवश्यकता है । ले जाना तथा जोर से नाद या ध्वनि अथवा चिल्लाना होता है । सरोवर मे बाढ आती है, तो उसके बाढ की पाद-टिप्पणी : ध्वनि होती है। लहरों की ध्वनि होती है। वह 'हृदयान' पाठ-बम्बई। गरजने लगता है। उसी प्रकार घोड़ों के हिनहिनाने १५४. (१) भोगपाल : हर्षचरित में भोग- से, जोर की आवाज या चिल्लाहट होने लगती है। पति अथवा भोगक शब्द मिलता है। उसका अर्थ अतएव यह शब्द यहाँ दत्त के अनुसार नामवाचक राज्य का अधिकारी माना गया है। वह कृषि नही है । उत्पादन में राज्य का भाग वसूल करता था। (२) बाल्येश्वर : कल्हण ने बालकेश्वर एक भोगपति का अर्थ ईनामदार या जागीरदार किया लिंग का वर्णन ( रा०: ८ . २४३०) किया है। गया है । भोग एक क्षेत्र इकाई भी होती है। उनके परन्तु नही कहा जा सकता कि बाल्येश्वर एवं बालअधिकारी को भोग्यपति या भोगपाल कहते थे। केश्वर भिन्न-भिन्न है अथवा एक ही। श्रीवर के द्रष्टव्य : मिताक्षरा०:१: ३२.। . वर्णन से प्रकट होता है कि यह पर्वतीय स्थान था। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जेनराजतरंगिणी तदीयकटको दीपस्तत्तुरङ्गतरङ्गितः 1 तं तमेव नतं चक्रे येन येन पथावहत् ।। १५६ ।। १५६. अश्वों से तरंगित उसका कटक रूप उदीप (बाढ़), जिस-जिस पथ से गया, बिनत कर दिया । निस्तृणं भूतलं तत्तु निष्पानीया जलाशयाः । निरिन्धनान्यरण्यानि तत्सैन्ये चलितेऽभवन् ।। १५७ । १५७. उसकी सेना के चलने से वह भूतल तृणरहित, जलाशय जलरहित तथा अरण्य ईंधनरहित हो गये । पाद-टिप्पणी : सोऽहं संमान्य राज्ञास्मै दत्तस्तत्समयेऽन्वहम् | कुर्वन् बृहत्कथाख्यानमभूवं धृतपुस्तक: ।। १५८ ॥ १५८. राजा ने आदर करके, मुझको (श्रोवर को उस ( राजकुमार हसन) को प्रदान किया और मै प्रतिदिन पुस्तक लेकर, बृहत्कथा' का आख्यान सुनाता था । करदीकृत भूपाल: स षण्मासकृत स्थितिः । अभवच्चैत्रमासान्ते कश्मीरागमनोत्सुकः ।। १५९ ।। १ : ५ : ८६ । [२ : १५६ - १६० १५९. वह राजाओं को करप्रद बनाकर तथा ६ मास तक स्थित रहकर, चैत्र मास के अन्त में काश्मीर गमन के लिये, उत्सुक हो गया । १६०. तब तक बह्राम' खांन राजा को आक्रान्त कर, निरंकुश भ्रमण करता रहा । तावद् बभ्राम बहामखानो आक्रान्त मन्त्रिसामन्तो ज्ञात्वा १५८. (१) बृहद्कथा : द्रष्टव्य टिप्पणी : • उसे उसे पाद-टिप्पणी : १६० . ( १ ) बहराम खां पीर हसन लिखता है - 'उमरावों ने खुफिया तौर पर बहराम खाँ के साथ मिलकर चाहा कि उसे बादशाह बना दें ( पीर हसन पृष्ठ १८८ ) । म्युनिख पाण्डुलिपि ( ७८ बी० ) में उल्लेख मिलता है कि बहराम खाँ राजा तथा मन्त्रियों का विश्वास प्राप्त कर अपनी शक्ति बढ़ाने दाम निरर्गलः । व्यसनिनं नृपम् ।। १६० ।। व्यसनी जानकर, मन्त्रियों एवं सामन्तों को लगा । हैदरशाह के गिरते स्वास्थ को देखकर, वह राज्य के सामन्तों से मिलकर, राज्यप्राप्ति का षड्यन्त्र करने लगा । यह सुनकर हसन जल्दी-जल्दी श्रीनगर ससैन्य पहुँच गया ।' तवक्काते अकबरी में उल्लेख है - 'उन्हीं दिनों में सर्वदा मदिरापान के कारण सुलतान बड़े कठिन रोग में ग्रस्त हो गया । अमीरों ने गुप्त रूप से षड्यन्त्र किया और बहराम खाँ से मिलकर उसे सिंहासनारूढ़ करना चाहा ( ४४७ - ६७४) ।' श्रीवर ने किसी प्रकार के षड्यन्त्र का उल्लेख नहीं किया है । फिरिश्ता ने भी लिखा है - सुल्तान के लज्जा Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:१६१-१६३ ] श्रीवरकृता २९७ अथ संततपानेन क्षीणदेहबलच्छविः । स वातशोणितव्याधिवाधितोऽभून्महीपतिः ॥ १६१ ॥ १६१. निरन्तर पान करने से राजा का देह, बल एवं छबि क्षीण हो गयी थी और वह वात' और शोणित रोग से ग्रसित हो गया था। प्राप्तो हस्सनखानः स पूर्णचन्द्र इवोदितः। तान् दुष्टमन्त्रिणः पद्मानिव संकुचितान् व्यधात् ।। १६२ ।। १६२. (उसी दिन) उदित पूर्णचन्द्र के समान हस्सन खाँन' आ गया। उसने उन दुष्ट मन्त्रियों को कमल के समान संकुचित कर दिया। किं नैतेन समानीतो बद्ध्वा पिरुजगख्खरः । इति रोषं सुते राजा पिशुनप्रेरितोऽग्रहीत् ।। १६३ ॥ १६३. 'पिरुज' गखखड़ को बान्ध कर, यह क्यों नही लाया,' इस प्रकार पिशुनों द्वारा प्रेरित होकर, राजपुत्र के प्रति क्रोधित हो गया। जनक कार्यों को देखकर अमीरों ने सुल्तान के कनिष्ठ आबदीन ने राज्य प्राप्त किया था । जैनुल आबदीन भ्राता बहराम को सूचित किया कि सुल्तान को राज्य- ने जसरत गक्कर की सहायता दिल्ली के सुल्तान के च्युत करने में वे लोग उसकी सहायता करेंगे (४७६)। विरुद्ध युद्ध किया था ( राइज आफ मुहम्मदन पावर पाद-टिप्पणी: इन इण्डिया . ब्रिग्गस : पृष्ठ : ३०३, ३०६, ३१३; सन् १९६६ ई०)। १६१. (१) वात : वायुविकार । गक्खर जाति ने काश्मीर के राजनीतिक इतिहास (२) शोणित : रक्तविकार । को प्रभावित किया है । जैनुल आबदीन ने गक्खरो की पाद-टिप्पणी : सहायता से राज्य पाया था। उसके वंशजों का भी १६२. (१) हस्सन . फिरिश्ता ने हसन तथा सम्पर्क गक्खरो से बना रहा। हैदरशाह के समय में फतेह को एक मे मिला दिया है। उससे भ्रम उत्पन्न उसके पुत्र हसन ने गक्खरों का दमन किया था। होता है। फिरिश्ता लिखता है-फतह खाँ जो . सुल्तान शमशुद्दीन ( सन् १५३७-१५४० ई०) के आदम खाँ का लडका था, अपने भाग्य की परीक्षा समय काजीचक गक्खरों की सहायता से काश्मीर में हेतु काश्मीर में प्रवेश किया। वह राजधानी मे प्रवेश किया था (बहारिस्तान शाही । पाण्डु० : इस व्याज से आया कि वह सुल्तान के कदमों मे ७७ ए०) । गक्खरों का उल्लेख सुल्तान नाजुकशाह लूट-पाट का सामान समर्पित करना चाहता है। (सन् १५४०-१५५२ ई०) के सन्दर्भ में पुनः जिसे उसने समीपवर्ती राज्यों से प्राप्त किया है। मिलता है । हैबत खाँ नियाजी जिसको गक्खर अधिक शरण नहीं दे सकते थे, सन् १५५२ ई० में काश्मीर पाद-टिप्पणी: की तरफ बढ़ने लगा था। सम्राट अकबर राज्य१६३. (१) पिरुज : फिरोज । प्राप्ति के पश्चात अबुल माली को लाहौर में (२) गख्खड : गक्खर जाति है। जसरत बन्दी बनाकर रखा परन्तु वह भाग कर गक्खरों गक्कर नाम से प्रसिद्ध था। जसरथ के कारण जैनुल के क्षेत्र मे चला गया। वहाँ कमाल खाँ गक्खर ने जै. रा. ३८ १६३. (१) १९ जाति है। जस क्षेत्र में चल Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ जैनराजतरंगिणी [२:१६४-१६६ पश्चिमाशागतं श्रुत्वा तमपूर्वार्कसंनिभम् । बहामखानो मन्देहो मन्देह इव सोऽभवत् ॥ १६४ ॥ १६४ पूर्व दिशा रहित, सूर्य सदृश, उसे पश्चिम दिशा में आया सुनकर, मन्दबुद्धि वह बहराम खाँन मन्देह' सदृश हो गया। प्राप्ते सुतेऽन्तिकं सोऽभून्न तदत्यधिकादरः । प्रत्यासन्नविनाशानां धीर्मीत्येव पलायते ।। १६५॥ १६५. पुत्र' के निकट आने पर, (राजा) उसके प्रति अधिक आदर प्रकट नही किया, जिनका विनाश निकट होता है, उनकी बुद्धि भय से मानो पलायित हो जाती है । अत्यभ्यर्थनया मन्त्रिसामन्तानां महीपतिः । यात्रागताय पुत्राय ददौ दर्शनमात्रकम् ॥ १६६ ।। १६६. मन्त्रियों एवं सामन्तों के अति अभ्यर्थना पर. राजा ने यात्रा से आये, अपने पत्र को केवल दर्शन दिया। उसे कारागार में डाल दिया, जहाँ से वह भाग कर लिखता है-'दरबार में बिना सुल्तान की आज्ञा के नौशेरा पहुँच गया। गक्खरों का देश काश्मीर के उपस्थित होने पर, कुछ दरबारियों ने सुल्तान का पश्चिमी-दक्षिणी सीमान्त पर मुसलिम इतिहासकारो कान भर दिया और सुल्तान ने उससे मिलने से के लेखों से प्रकट होता है। इनकार करने के साथ ही किसी भी रूप मे उसे आइने अकबरी मे गक्खरों का क्षेत्र पखली राजकीय सेवा मे लेना अस्वीकार कर दिया अंचल के दक्षिण माना गया है (पृ०:४४२)। (४७६ )।' पाद-टिप्पणी : तवक्काते अकबरी में भी यही घटना दी गयी 'तमपूर्वार्क' पाठ-बम्बई। है-'जब यह समाचार फतह खाँ को जिसने हिन्दु१६४. (१) मन्देह : द्रष्टव्य : टिप्पणी : २ : स्तान में अत्यधिक किलों पर विजय प्राप्त की थी १६३ । और अपार धन-सम्पत्ति एकत्र की थी, पहुँचे तो पाद-टिप्पणी : वह एक भारी सेना लेकर शीघ्रातिशीघ्र काश्मीर पहुँचा। किन्तु वह आज्ञा के बिना आया था, अतः 'अन्तिक' पाठ-बम्बई। साथियों ने उसकी ओर से बातें बनाकर, सुल्तान हैदर १६५. (१) पुत्र : म्युनिख पाण्डुलिपि मे को उससे रुष्ट कर दिया। सुल्तान ने उसे कोरनिश उल्लेख है। हसन बिना सुल्तान की आज्ञा से लौट (अभिवादन) की अनुमति न दी और उसकी आया था अतएव बहराम खाँ तथा मन्त्रियों ने राजा किसी भी सेवा की ओर ध्यान न दिया (४४७)।' का कान भर दिया कि वह राज्य प्राप्ति करने के फिरिश्ता तथा तवक्काते अकबरी का स्रोत एक लिए आया है । सुल्तान यह सुनकर पुत्र का विरोधी हो गया ( म्युनिख : पाण्डु० : ७८ बी०)। ही है अतएव एक ही बात और नाम की गलती दोनों में हो गयी है अन्यथा घटनाएँ ठोक है । केवल यही बात फिरिश्ता तथा तवक्काते अकबरी मे फतह के स्थान पर हसन नाम होने से श्रीवर के फतहशाह के सम्बन्ध में लिखी गयी है। फिरिश्ता वर्णन से घटना मिल जाती है। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:१६७-१७०] श्रीवरकृता २९९ नूनं स्वानुजभीतोऽभूत्तत्कालं सोऽन्यथा कथम् । परिधानादिसत्कारं न्यूनमेवाकरोत् सुते ।। १६७ ।। १६७ निश्चय ही वह अपने भाई से डर गया था, अन्यथा परिधान आदि द्वारा पुत्र का थोड़ा ही सत्कार क्यों करता? बहामो बाधते नूनं मत्पुत्रमिति शङ्कितः । स तस्मिंश्छन्नकोपाग्निः शमीतरुरिवाभवत् ॥ १६८ ।। १६८. निश्चय ही बह्राम मेरे पुत्र को बाधित करता है, इस प्रकार शंकित होकर, वह राजा उसके प्रति कोपाग्नि प्रच्छन्नकर, शमी' वृक्ष सदृश हो गया। पानार्थं राजधान्यग्रं तस्मिन्नवसरे नृपः । आरुरोह समं भृत्यमृत्युनेव प्रचोदितः ।। १६९ ॥ __ १६९. उसी अवसर पर मानो मृत्यु से प्रेरित होकर, राजा भृत्यों के साथ मद्यपान करने के लिये, राजप्रासाद पर चढ़ा। तत्र पुष्करसौधान्तलीलया काचमण्डपे । धावन् पपात नासाग्रस्रवदस्रविसंस्थुलः ।। १७० ।। १७०. वहाँ पुष्कर सौध के अन्दर काँच' मण्डप में लीलापूर्वक दौड़ते हुये, गिर पड़ा और नाक से बहते रुधिर से, वह बिक्षुब्ध हो गया। पाद-टिप्पणी शमी की पूजा की जाती है। विजयदशमी के दिन 'न्यून' पाठ-बम्बई। शमी की पूजा, परिक्रमा आदि कर उसकी पत्ती १६७. (१) सत्कार : सुल्तान विजयी पुत्र पगड़ी या शिर पर रखते है। से रुष्ट हो गया था। उसने मुलाकात करने से पाद-टिप्पणी : इनकार कर दिया। परन्तु सेनानायकों के कहने से 'दस' 'स्थलु' पाठ-बम्बई । पुत्र को दर्शन मात्र की आज्ञा दी थी। हसन ने १७०. (१) कॉच मण्डप : शीशमहल । सीमावर्ती राजाओं का जो दमन किया था, उसकी राजप्रासाद का वह भाग या कमरा जहाँ चारों ओर प्रशंसा न कर सुल्तान ने पुत्र को साधारण खिलअत शीशा है अथवा दिवालों, खिड़कियों पर शीशे दी ( म्युनिख पाण्डु० ७८ बी०: तवक्काते अकबरी लगे रहते है । यदि शीशमहल का संस्कृत रूप कांच ४४७ = ६७५ )। मण्डप श्रीवर ने किया है तो शीशमहल राजप्रासाद पाद-टिप्पणी: के अन्तःपुर का एक कक्ष होगा। १६८. ( १ ) शमी : एक वृक्ष है। इसकी तवक्काते अकबरी में उल्लेख है-'एक दिन लकड़ी को परस्पर रगडने से अग्नि उत्पन्न हो सुल्तान एकान्त में मदिरापान में व्यस्त था। उसी जाती है। मस्ती की अवस्था में उसका पाँव कॉपा और वह 'अग्निगर्भा शमीमिव' (शकुन्तला : ४ : २)। गिर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गयी ( ४४७ = द्रष्टव्य : मनु० : ८ : २४७; याज्ञ०१ : ३०२। ६७५ )।' Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैनराजतरंगिणी [२:१७१-१७४ शयनमण्डपम् । कक्षाक्षिप्तभुजैर्भृत्यै नीतः ध्वस्तच्छाय इवादर्शः संमूर्च्छत्र शयनेऽपतत् ॥ १७१ ॥ १७१. भृत्य उसकी कॉख में हाथ डालकर शयन मण्डप में ले गये, नष्ट छाया दर्पण तुल्य वह शयन पर पड़ गया । मिजोऽस्यावमन्याप्तान् कोऽपि योगी चिकित्सकः । विषोत्कटौषधस्तस्य यतते स्म कृतव्यथः ।। १७२ ।। 1 १७२. कोई योगी चिकित्सक उसके विश्वस्त लोगों की बात न मानकर विष से उग्र प्रभाववाले औषध को प्रयोग से, उसे व्यथितकर प्रयास (यत्न) कर रहा था । तस्योपधप्रयोगेण प्राप्तदाहो दिवानिशम् । काङ्क्षति स्म स्वमरणं क्षणमात्रं न जीवनम् ।। १७३ ।। 1 १७३. उसके औषध प्रयोग से उसे दिन-रात दाह' होने लगा, जिससे वह क्षणभर, जीवन की नही अपितु अपना मरण चाह रहा था। राजधान्यन्तरे राजसुतः आयुक्ताझदसंयुक्तस्तद्दिनेषु स्थितिं १७४. राजधानी में उन दिनों राजपुत्र आयुक्त' रहने लगा । फिरिश्ता लिखता है— 'एक दिन शाम को सुल्तान अपने राजप्रासाद के अलिंद पर पानोत्सव कर रहा था, उसने बहुत मदिरा पी ली थी। नीचे उतरने की कोशिश मे उसका पाँव फिसल गया और बहुत ऊँचाई से गिरने के कारण भर गया ।" पीर हसन लिखता है एक दिन ग दार दीवानखाना मे शराब के पीने मे मशगूल था कि मस्ती की हालत में उसका पाँव फिसल गया और जमीन पर गिरते ही उसने जान दे दी ( १८८ ) ।' पाद-टिप्पणी : - १७२. ( १ ) योगी चिकित्सक : झाड़-फूँक मन्त्रादि जप कर आराम करनेवाले लोग जिन्हे ओझा कहते हैं । श्लोक २०२ मे काँच मण्डप में वैताल लगने की बात श्रीवर जनश्रुति के आधार पर करता है— नाराज होने पर भूत, जिन या वैताल लोगों को लग जाते हैं । नाना प्रकार व्याधि उत्पन्न स्वकान्तिके । व्यधात् ॥ १७४ ॥ अह्मद के साथ अपने पिता के समीप हो जाती है। उसकी दवा न कर, भूत का प्रभाव समझ कर झाड़ने, फूँकने, ओझा या भूत उतारनेवाले योगी अथवा फकीर को बुलाया जाता है जो अपनी मन्त्रशक्ति से भूत-बाधा दूर करने का दावा करते है । पाद-टिप्पणी १७३. (१) वाह गरमी लगना पेट में आग जलने जैसा अनुभव होना । पाद-टिप्पणी : १७४ (१) आयुक्त शाब्दिक अर्थ एक अधिकारी होता है । पाणिनि ( २ : ३४० ) ने इसका अर्थ सेवक तथा अधिकारी के रूप मे किया है । आयुक्तक एवं आयुक्त शब्द समानार्थक माने गये है । आयुक्तक शब्द कामसूत्र ( ५ : ५ : ५ ) तथा कामन्दक ( ५ ८२ ) मे प्रयोग किया गया है | विजय स्कन्दवर्मा के अनुदान ( ई० आई ११२५०) पहाड़पुर फलक गुप्त सम्बत् १५९; Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : १७५-१७७] श्रीवरकृता ३०१ मुमूर्षों पितरि ज्ञात्वा महतो दर्शनागतान् । तन्निर्गमनिरोधाय द्वारधान्यां भटान् व्यधात् ।। १७५ ॥ १७५. पिता के मरणासन्न होने पर, बहत लोगो को दर्शन हेतु आया जानकर, उनका निर्गम रोकने के लिये, द्वार पर भटो' (सैनिकों) को नियुक्त कर दिया । स्वालयस्थोऽनुजो राज्ञो भयहर्षाप्तसभ्रमः । करानिव रविस्तीक्ष्णांश्चरान् संचारयन्नभूत् ॥ १७६ ।। १७६ अपने घर पर स्थित, राजा का अनुज (बहराम खॉन) भय एवं हर्ष से भ्रान्त (संभ्रमयुक्त) होकर, सूर्य के किरणों के समान तीक्ष्णो' का संचार कर दिया। तत्कालं राजलक्ष्मीः सा पितृव्यभ्रातृपुत्रयोः । द्वयोरासीत् समारूढा चित्ते संशयधीरिव ॥ १७७ ॥ १७७ उस समय चित्त में संशय बुद्धि सदृश राज्यलक्ष्मी चाचा (बहराम खाँन) एवं भतीजा (हसन) मध्य स्थित रही। द्रोण सिंह के वल्लभी सम्बत् १८३ के फलक ( ई० के करहद फलक शक ८८० मे मिलता है (इ० आई०११ - १७); धारसेन द्वितीय के वल्लभी आई० ७ : २६, ३९, तथा इ० आई . ४ : २७८, सम्बत् २५२ के फलक (आई० ए० १५ . १८७), २८५)। तथा मातृका फलक गुप्तसम्वत् २५२ मे उल्लेख पाद-टिप्पणी । मिलता है ( ई० आई० : ११ . ८३ )। जिले के १७६. (१) तीक्ष्ण : कौटिल्य ने, गुप्तचरों या अधिकारी तथा उसके सबडिवीजन के प्रशासक को चरों का वर्गीकरण किया है, उनमें तीक्ष्ण को भी रखा भी आयुक्त या आयुक्तक कहते थे (हर्षचरित )। है। तीक्ष्ण वे गुप्तचर होते थे, जो जीवन से इतने आयुक्त का उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र मे भी निराश होते हैं कि धन के लिये हाथी से भी लड किया गया है। वहाँ भी उसका अर्थ लघु अधिकारी जाते थे। शाहमीर ने भी कोटा रानी की हत्या के रूप में वर्णन किया गया है। समुद्रगुप्त प्रयाग का भार ताक्ष्णा का दिया था ( जान० : ३०५ )। के स्तम्भ लेख मे आयुक्त पुरुष का उल्लेख किया तीक्ष्ण उन गुप्तचरों के लिये भी प्रयोग किया गया है गया है। जो वध कार्य करते थे ( जोन० : ५१७) । द्रष्टव्य ___आजकल आयुक्त शब्द कमिश्नर के लिये प्रयोग टिप्पणी जोन० : ३०५ तथा ५१७ । ( कौटिल्य : किया जाता है। अर्थ : १ : १२)। बहराम खां ने तीक्ष्णों की सेवा युक्त एवं युक्तक शब्द समानार्थक माने सुलतान हैदरशाह को मारने के लिये ली थी। गये हैं। यक्त एक कर्मचारी था। उसका क्या श्रीवर के वर्णन से यही निष्कर्ष निकलता है। कार्य था, ठीक पता नही चलता किन्तु वह परिषद कल्हण ने भी तीक्ष्ण शब्द का प्रयोग बधिकों के ( मन्त्रिमण्डल ) से सीधा आदेश ग्रहण करता था। लिये किया है। तीक्ष्ण गुप्तचर के साथ ही बड़े अशोक के गिरनार शिलालेख में इसका उल्लेख साहसी होते थे और चुपचाप हत्या कर देते थे मिलता है। कौटिल्य ने भी इसका उल्लेख किया (रा० : ४ : ३२३ )। है (२ : ५, ९)। युक्तक शब्द काम्बे गोविन्द पाद-टिप्पणी: चतुर्थ शक सम्वत् ८५२, के फलक तथा कृष्ण तृतीय १७७. "राज" पाठ-बम्बई। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जैनराजतरंगिणी [२. १७८-१८२ अत्रान्तरेऽझदायुक्तः संमन्व्य सचिवैः सह । बहामखानमागत्य युक्तमित्यब्रवीद् वचः ॥ १७८ ॥ १७८. आयुक्त अह्मद' ने इसी बीच, सचिवों के साथ मन्त्रणा करके, बह्राम खाँन से आकर, यह उचित बात कहीउत्तराधिकार एवं बहराम खाँन : __ स्वामिहैधरशाहोऽद्य समर्प्य स्ववयस्त्वयि । सुगृहीताभिधो भ्राता प्रयातः कीर्तिशेषताम् ।। १७९ ।। १७९. 'सुगृहीतनामा भ्राता हैदरशाह अपनो आयु तुम्हें समर्पित कर, आज दिवगत' हो गये ज्येष्ठोऽधुनावशिष्टस्तद्भवान् भज नृपासनम् । स्वयं हस्सनखानाय यौवराज्यं प्रदीयताम् ॥ १८० ॥ १८०. 'अब ज्येष्ठ बचे आप स्वय नृपासन ग्रहण करें, और हस्सन खॉन को युवराज' पद प्रदान करें त्वत्पित्रा महतो यत्नाद् रक्षिता चकिता सती । सेयं त्वयाद्य नगरी पाल्या कुलवधूरिव ।। १८१ ।। १८१. 'तुम्हारे पिता द्वारा महान प्रयत्न से रक्षित, इस नगरी को जो कि चकित है, सती कुलबधू के समान अब तुम पालित करो किमन्यत् पुरलुण्टाकाः काका इव बलिप्रियाः। यथागतं प्रयान्त्वेते कुशब्दा मलिनत्विषः ॥ १८२ ।। १८२. 'दूसरा क्या कहे ? काक सदश बलिप्रिय, कुत्सित शब्द एवं मलिन कान्ति युक्त, ये पुर को लूटनेवाले यथागत लौट जाँय ।' पाद-टिप्पणी : नवादरुल अखवार (पाण्डु० : ४९ बी०) में १७८. (१) अह्मद : अहमद येत नाम राज्यकाल १ वर्ष, १० मास तथा मृत्युकाल १३ फारसी इतिहासकारों ने दिया है। आयुक्त का अप्रैल सन् १४७२ ई० दिया गया है। वह अपने अपभ्रंश यतू मालूम पड़ता है । पिता के समीप दफन किया गया। हैदरशाह के मृत्युकाल का तवक्काते अकबरी पाद-टिप्पणी: तथा फिरिस्ता से कुछ पता नहीं चलता। किन्तु १७९. (१) दिवंगत : फिरिश्ता के अनुसार प्राप्त प्रमाणों के आधार पर अनुमान लगाया जा १४ मास शासन करने के पश्चात् हिजरी ८७८ = सकता है कि सुल्तान की मृत्यु सन् १४७३ ई० = सन् १४७३ ई० में सुल्तान की मृत्यु हो गयी। ८७८ हिजरी मे हुई थी। तवक्काते अकबरी मे राज्यकाल एक वर्ष, दो पाद-टिप्पणी : मास दिया है परन्तु मृत्युकाल का समय नहीं दिया १८०. (१) युवराज : द्रष्टव्य पाद-टिप्पणी: है ( ४४७ = ६७५ )। ॥ १:२:५। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २:१८३-१८७] श्रीवरकृता ३०३ बहराम खाँ की दुर्बुद्धि : श्रुत्वेति भाषितं तस्य कोपरूक्षाक्षरोऽब्रवीत् । सुस्निग्धो जनकस्त्यक्तस्तादृक्कल्पद्रुमोपमः ।। १८३ ॥ १८३ उस प्रकार उसकी बात सुनकर, क्रोधपूर्वक रूखे शब्दों में बोला-'सुस्निग्ध तथा कल्पद्रुमोपम पिता को त्याग दिया सदैवादमखानः स बाधितस्तदुपाधिभिः । परलोकमनालोच्य स्वार्थं संत्यज्य दूरतः ॥ १८४ ।। १८४. 'आदम खाँन उसके उपद्रवों से सदैव पीड़ित रहा, परलोक का बिना विचार किये तथा स्वार्थ को दूर त्यागकर अस्वस्थः स यथा भ्राता सेवितः सततं मया । जानात्येवं न को राज्यं यथा तस्य मयार्जितम् ।। १८५ ।। १८५. 'अस्वस्थ उस भाई की निरन्तर मैने जैसी सेवा की है, उस प्रकार मैने उसका राज्य जैसे प्राप्त किया, उसे कौन नहीं जानता? कोऽयं मद्भातपुत्रोऽद्य वद कैवास्य योग्यता । अस्मिन् मत्पैतृके राज्ये योग्यो मदपरस्तु कः ॥ १८६ ॥ १८६. 'बोलो ! आज यह कौन मेरा भातृपुत्र है ? अथवा उसकी क्या योग्यता है ? मेरे इस पैतृक राज्य के लिये मेरे अतिरिक्त दूसरा कौन योग्य है ? स कनीयानहं ज्येष्ठो वयसा च गुणेन च । पृथिव्यां वीरभोग्यायां साम्नः कोऽवसरोऽधुना ॥ १८७ ॥ १८७. 'वह आयु एवं गुण से वह छोटा और मै ज्येष्ठ हूँ किन्तु वीरभोग्या वसुन्धरा में आज साम' का कौन अवसर है ?' पाद-टिप्पणी : खुश कर अपने पक्ष में मिला अथवा अपने अनुकूल १८७. (१) साम : सुलह = सन्धि = साम, काम निकाल लिया जाय । नीति वाक्यामृत मे दाम, दण्ड भेद, शत्रु पर विजय पाने के लिये उपाय साम के चार प्रकार बतायें हैं। परन्तु साधारणतः चतुष्टय माने गये है। मनु केवल दो उपाय साम साम के पाँच प्रकार माने जाते है। (१) परस्पर एवं दण्ड मानते है ( मनु : ८ । १००-१०९; याज्ञ- अच्छे व्यवहार की चर्चा । (२) पराजितों के गुण वल्क्य : १:३४५: मत्स्य० : २२२ : २-३; सभा०: एवं कर्म की प्रशंसा । (३) पारस्परिक सम्बन्धों की ५ : २१.६७ अर्थ०:२:१० : ७४ )। साम घोषणा । (४) भविष्य के शुभ प्रतिफलों की उपाय का अभिप्राय है कि शत्रु को प्रसन्न एवं सन्तोष घोषणा। (५) मै आपका हैं आपकी सेवा में देकर मधुर एवं आकर्षक प्रिय बातों से मोहित तथा प्रस्तुत हूँ। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 जैनराजतरंगिणी [2:188-192 इत्याद्यनुचितं यत्तच्चोक्त्वा तं प्रत्यमोचयत् / यैः स ग्रथितकन्थोऽभूद राज्यार्थे कृतभावनैः / अप्राप्यैतांस्तथा मत्वा निराशः समपद्यत // 188 / / 188. इस प्रकार जो अनुचित था, उसे कहकर, उसे मुक्त किया। राज्य प्राप्ति हेतु जिन लोगों ने उसे उत्साहित किया था, उन्हें न पाकर तथा उस परिस्थिति को जानकर (वह) निराश हो गया। प्रत्यासन्ने नाशे रूद्धजलौघस्य बद्धमूलस्य / कुपथात् प्रसरत्यादौ धृतिरिव सेतोमतिर्जन्तोः // 189 // 189. नाश प्रत्यासन्न होने पर, रुद्ध जल समूह वाले तथा बद्धमूल सेतु के धृति' ( ठहराव ) सदृश प्राणी को बुद्धि प्रारम्भ में कुपथ की ओर चलने लगती है। युक्तमायुक्तवाक्यं चेदग्रहीष्यन्नयान्वितः / तुरगाधर्जितं सर्वमदास्यच्चेत् स्वयं गतः // 190 // 190. यदि नीति युक्त होकर, वह आयुक्त की उचित बात मान लेता तथा यदि स्वयं जाकर, तुरग आदि अर्जित सब कुछ ग्रहण कर लेता अथवाप्तं तमेकं चेदहनिष्यदलोन्नतः / कौशं हर्तुमयास्यच्चेत् स्थितं पितृपुरान्तरे // 191 // 191. अथवा यदि प्रबल वह एकाको आये, उसे मार डालता या पितृपुर में स्थित कोश हरण करने के लिये चला जाता अथवा बाह्यदेशं चेदगमिष्यत् तदध्वना / निवृत्तः क्रमराज्ये चेदाक्रमिष्यच्छनैर्महीम् / / 192 / / 192. अथवा यदि बाह्य देश चला जाता और उसी मार्ग से लौटकर, यदि धीरे से, क्रमराज्य की भूमि पर, आक्रमण कर देता पाद-टिप्पणी : "स" पाठ-बम्बई / 188. उक्त श्लोक श्री कण्ठ कौल संस्करण के तृपदीप श्लोक संख्या 186 का प्रथम तथा द्वितीय पद है। कलकत्ता तथा बम्बई संस्करणों का १८७वां श्लोक है। पाद-टिप्पणी: 192. ( 1 ) बाह्य देश : द्रष्टव्य टिप्पणी : 1:1:124 / (2) क्रमराज्य : कमराज या कामराज / द्रष्टव्य टिप्पणी : 1:1 : 40 /