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________________ जैनराजतरंगिणी [१:१:११७ अथ मल्लशिलास्थाने पितापुत्रबलद्वये । सन्नद्धे नृपतिर्दूतं विप्रमेकं व्यसर्जयत् ।। ११७ ।। ११७. मल्ल शिला' नामक स्थान पर, पिता एवं पुत्र की दोनों सेना सन्नद्ध हो जानेपर, राजा ने एक विप्र दूत' को प्रेषित किया पाद-टिप्पणी: स्वतंत्र होता था। इस दूत का मन्त्री तथा आमात्य ११७. (१) मल्लशिला : श्रीवर ने मल्ल का स्तर होता था । पाण्डवों के दूत भगवान श्रीकृष्ण शिला का पुनः उल्लेख श्लोक १:१ : ४७ में इस वर्ग में आते है। द्वितीय वर्ग 'परिमितार्थ' अर्थात् किया है। दत्त ने 'पल्लशिला' लिखा है। उन्होंने निश्चित कार्य के लिये दूत भेजना था। यह तीन कलकत्ता संस्करण का अनुकरण किया है, जहाँ चौथाई मन्त्री के समकक्ष होता था। तृतीय वर्ग 'शासन हर' का था। उसका कार्य केवल राजकीय 'पल्लशिला' दिया गया है। श्री मोहिबुल हसन ने। भी दत्त का अनुकरण कर पल्लशिला ही लिखा है। पत्र एवं सन्देशवाहक का कार्य करना था। उसमे श्री मोहिबुल हसन ने नोट में पल्लशिला स्थान का मन्त्रियों का आधा गुण माना जाता था। जैनुल परिचय दिया है। उनके मत से यह सुपियान के आबदीन का दूत इसी तृतीय श्रेणी में आता है। समीप करेवा है। वह राजौरी के मार्ग पर श्रीनगर उसका कार्य केवल सन्देश मात्र देना था। यहाँ से दक्षिण ३३ मील पर है। मुगलों के समय यहाँ विप्र शब्द साभिप्राय है। दूत सर्वदा कुलीन, विवेक सराय थी, जहाँ घोडे बदले जाते थे (१० ७५ तर्ककुशल एवं शिष्ट, विद्वान एवं मृदुभाषी भेजे जाते नोट: ३)। थे। भारत पर सिकन्दर ने आक्रमण किया था, तो उससे भी दूत मिलने गये थे। दूत अपना दौत कार्य तवक्काते अकबरी में नाम 'येल हाल या सहाल' करते समय अवध्य माना जाता है। रामायण तथा लीथो संस्करण मे 'तलील' दिया गया है (४४२ मे तो यहाँ तक कहा गया है कि यदि दूत गुप्तचर ६६३ )। फिरिस्ता के लीथो संस्करण मे नाम शस्त्रधारी हो, तो भी उसे छोड़ देना चाहिए । राम 'वलील', 'कर्नल' ब्रिग्गस ने 'बुलील' तथा रोजर्स ने के शिविर मे कुछ राक्षस पाये गये। वे सैनिकों को 'दुलदुल' दिया है। बहका रहे थे। वे पकड़े गये। भगवान् के सम्मुख (२) दूत : मुसलिम काल में भी ब्राह्मण दूत उपस्थित किये गये। उन्होंने कहा-'यदि वे गुप्तचर भेजने की प्रथा थी। जोनराज ने भी ब्राह्मण दूत भी है, भेष बदले है, रात्रि में पाये गये है, किन्तु भा ह, भष बदल भेजने की बात लिखी है। लोहर दुर्गपति ने सुल्तान वे भी दूत है। चाहे वे शस्त्रधारी ही क्यों न हों, कुतुबुद्दीन के सेनानायक डामर लोलक के पास उन्हे मारना नही चाहिए।' इस सिद्धान्त का पालन एक ब्राह्मण को दूत बनाकर भेजा था ( जोन० : ४७०)। तत्कालीन दूत को आजकल के राजदूत समस्त भारत मे किया जाता था। किन्तु मुसलिम के समान नही मानना चाहिए। दूत केवल सन्देश- काल में मुसलमान सुल्तान इसके अपवाद थे। कुतुवाहक होता था। प्राचीनकाल मे दूत के तीन वर्ग बुद्दीन के सिपहसालार ने सन्धि के लिये भेजे गये होते थे। 'निसृष्टार्थ' यह सब कुछ कहने के लिए ब्राह्मण दूत को वन्दी बना लिया था (जोन०:४७०)।
SR No.010019
Book TitleJain Raj Tarangini Part 1
Original Sutra AuthorShreevar
AuthorRaghunathsinh
PublisherChaukhamba Amarbharti Prakashan
Publication Year1977
Total Pages418
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size35 MB
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